उमास्वामी: Difference between revisions
From जैनकोष
(New page: १. नन्दिसंघ बलात्कार गणके अनुसार (<b>देखे </b>इतिहास ५/१३) आप कुन्दकुन्दके ...) |
(Imported from text file) |
||
(12 intermediate revisions by 4 users not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
<p class="HindiText">1. नंदिसंघ बलात्कार गणके अनुसार (देखें [[ इतिहास#5.13 | इतिहास - 5.13]]) आप कुंदकुंद के शिष्य थे और ( षट्खंडागम पुस्तक 2/प्रस्तावना 3/H. L. Jain) के अनुसार `बलाक पिच्छ' के गुरु थे। <span class="GRef">( तत्त्वार्थवृत्ति/ प्रस्तावना 97)</span> में पं. महेंद्रकुमार `पं. नाथूराम प्रेमी' का उद्धरण देकर कहते हैं कि आप यापनीय संघ के आचार्य थे। ( षट्खंडागम पुस्तक 1/प्रस्तावना 59/H. L. Jain) तथा तत्त्वार्थसूत्र की प्रशस्ति के अनुसार आपका अपर नाम गृद्धपृच्छ है। आप बड़े विद्वान व वाचक शिरोमणि हुए हैं। आपके संबंध में एक किंवदंती प्रसिद्ध है-सौराष्ट्र देश में द्वैपायन नामक एक श्रावक रहता था। उसने एक बार मोक्षमार्ग विषयक कोई शास्त्र बनाने का विचार किया और `एक सूत्र रोज बनाकर ही भोजन करूँगा अन्यथा उपवास करूँगा' ऐसा संकल्प किया। उसी दिन उसने एक सूत्र बनाया "दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः"। विस्मरण होने के भय से उसने उसे घर के एक स्तंभ पर लिख लिया। अगले दिन किसी कार्यवश वह तो बाहर चला गया, और उसके पीछे एक मुनिराज आहारार्थ उसके घर पधारे। लौटते समय मुनिश्री की दृष्टि स्तंभ पर लिखे सूत्र पर पड़ी। उन्होंने चुपचाप `सम्यक' शब्द उस सूत्र से पहिले और लिख दिया और बिना किसी से कुछ कहे अपने स्थान को चले गये। श्रावक ने लौटने पर सूत्र में किये गये सुधार को देखा और अपनी भूल स्वीकार की। मुनिश्री को खोज उनसे ही विनीत प्रार्थना की कि वह इस ग्रंथ की रचना करें, क्योंकि उसमें स्वयं उसे पूरा करने की योग्यता नहीं थी। बस उसकी प्रेरणा से ही उन मुनिराज ने `तत्त्वार्थ सूत्र' (मोक्ष शास्त्र) की 10 अध्यायों में रचना की यह मुनिराज `उमास्वामी' के अतिरिक्त अन्य कोई न थे। ( सर्वार्थसिद्धि अध्याय प्रस्तावना 80/पं. फूलचंद्र) आप बड़े सरलचित्त व निष्पक्ष थे और यही कारण है कि श्वेतांबर तथा दिगंबर दोनों ही संप्रदायों में आपकी कृतियाँ समान रूप से पूज्य व प्रमाण मानी जाती हैं। आपकी निम्न कृतियाँ उपलब्ध हैं-तत्त्वार्थ सूत्र, सभाष्य तत्त्वार्थाधिगम, ये दो तो उनकी सर्वसम्मत रचनाएँ हैं। और ( जंबूदीव-पण्णत्तिसंगहो / प्रस्तावना 110/A.N. Up.) के अनुसार `जंबू द्वीपसमास' नाम की भी आपकी एक रचना है।</p> | |||
<p class="HindiText">समय-पट्टावलीके अनुसार श.सं. 101-142 (वीर निर्वाण 706-747)। परंतु `विद्वज्जनबोध' के अनुसार वह वीर निर्वाण. 770 प्राप्त होता है। "वर्ष सप्तशते सप्तत्या च विस्मृतौ।" इसलिए विद्वानों ने उनकी उत्तरावधि 747 से 770 कर दी है। (विशेष देखें [[ कोष#1. | कोष - 1.]]परिशिष्ट 4,4) इसके अनुसार इनका समय ई. 179-243 (ई.श. 3) आता है। मूलसंघमें आपका स्थान (देखें [[ इतिहास#7.1 | इतिहास - 7.1]])</p> | |||
<p class="HindiText">उमास्वामी नं. 2</p> | |||
<p class="HindiText">- 'श्रावकाचार' और `पंच नमस्कार स्तवन' नाम के ग्रंथ जिन उमास्वामी की रचनाएँ हैं वे तत्त्वार्थ सूत्र के रचयिता उमास्वामी नं. 1 से बहुत पीछे होने के कारण लघु-उमास्वामी कहे जाते हैं। (सभाष्य तत्त्वार्थाधिगम। प्रस्तावना 5 में प्रेमीजी की टिप्पणी)</p> | |||
<noinclude> | |||
[[ उमा | पूर्व पृष्ठ ]] | |||
[[ उरशास्त्र | अगला पृष्ठ ]] | |||
</noinclude> | |||
[[Category: उ]] | |||
[[Category: इतिहास]] |
Latest revision as of 22:16, 17 November 2023
1. नंदिसंघ बलात्कार गणके अनुसार (देखें इतिहास - 5.13) आप कुंदकुंद के शिष्य थे और ( षट्खंडागम पुस्तक 2/प्रस्तावना 3/H. L. Jain) के अनुसार `बलाक पिच्छ' के गुरु थे। ( तत्त्वार्थवृत्ति/ प्रस्तावना 97) में पं. महेंद्रकुमार `पं. नाथूराम प्रेमी' का उद्धरण देकर कहते हैं कि आप यापनीय संघ के आचार्य थे। ( षट्खंडागम पुस्तक 1/प्रस्तावना 59/H. L. Jain) तथा तत्त्वार्थसूत्र की प्रशस्ति के अनुसार आपका अपर नाम गृद्धपृच्छ है। आप बड़े विद्वान व वाचक शिरोमणि हुए हैं। आपके संबंध में एक किंवदंती प्रसिद्ध है-सौराष्ट्र देश में द्वैपायन नामक एक श्रावक रहता था। उसने एक बार मोक्षमार्ग विषयक कोई शास्त्र बनाने का विचार किया और `एक सूत्र रोज बनाकर ही भोजन करूँगा अन्यथा उपवास करूँगा' ऐसा संकल्प किया। उसी दिन उसने एक सूत्र बनाया "दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः"। विस्मरण होने के भय से उसने उसे घर के एक स्तंभ पर लिख लिया। अगले दिन किसी कार्यवश वह तो बाहर चला गया, और उसके पीछे एक मुनिराज आहारार्थ उसके घर पधारे। लौटते समय मुनिश्री की दृष्टि स्तंभ पर लिखे सूत्र पर पड़ी। उन्होंने चुपचाप `सम्यक' शब्द उस सूत्र से पहिले और लिख दिया और बिना किसी से कुछ कहे अपने स्थान को चले गये। श्रावक ने लौटने पर सूत्र में किये गये सुधार को देखा और अपनी भूल स्वीकार की। मुनिश्री को खोज उनसे ही विनीत प्रार्थना की कि वह इस ग्रंथ की रचना करें, क्योंकि उसमें स्वयं उसे पूरा करने की योग्यता नहीं थी। बस उसकी प्रेरणा से ही उन मुनिराज ने `तत्त्वार्थ सूत्र' (मोक्ष शास्त्र) की 10 अध्यायों में रचना की यह मुनिराज `उमास्वामी' के अतिरिक्त अन्य कोई न थे। ( सर्वार्थसिद्धि अध्याय प्रस्तावना 80/पं. फूलचंद्र) आप बड़े सरलचित्त व निष्पक्ष थे और यही कारण है कि श्वेतांबर तथा दिगंबर दोनों ही संप्रदायों में आपकी कृतियाँ समान रूप से पूज्य व प्रमाण मानी जाती हैं। आपकी निम्न कृतियाँ उपलब्ध हैं-तत्त्वार्थ सूत्र, सभाष्य तत्त्वार्थाधिगम, ये दो तो उनकी सर्वसम्मत रचनाएँ हैं। और ( जंबूदीव-पण्णत्तिसंगहो / प्रस्तावना 110/A.N. Up.) के अनुसार `जंबू द्वीपसमास' नाम की भी आपकी एक रचना है।
समय-पट्टावलीके अनुसार श.सं. 101-142 (वीर निर्वाण 706-747)। परंतु `विद्वज्जनबोध' के अनुसार वह वीर निर्वाण. 770 प्राप्त होता है। "वर्ष सप्तशते सप्तत्या च विस्मृतौ।" इसलिए विद्वानों ने उनकी उत्तरावधि 747 से 770 कर दी है। (विशेष देखें कोष - 1.परिशिष्ट 4,4) इसके अनुसार इनका समय ई. 179-243 (ई.श. 3) आता है। मूलसंघमें आपका स्थान (देखें इतिहास - 7.1)
उमास्वामी नं. 2
- 'श्रावकाचार' और `पंच नमस्कार स्तवन' नाम के ग्रंथ जिन उमास्वामी की रचनाएँ हैं वे तत्त्वार्थ सूत्र के रचयिता उमास्वामी नं. 1 से बहुत पीछे होने के कारण लघु-उमास्वामी कहे जाते हैं। (सभाष्य तत्त्वार्थाधिगम। प्रस्तावना 5 में प्रेमीजी की टिप्पणी)