मस्करी गोशाल: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
||
(5 intermediate revisions by 2 users not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
<p><span class="HindiText">बौद्धों के महा परिनिर्वाण सूत्र, महावग्ग और दिव्यावदान आदि | <p><span class="HindiText">बौद्धों के महा परिनिर्वाण सूत्र, महावग्ग और दिव्यावदान आदि ग्रंथों के अनुसार ये महात्मा बुद्ध के समकालीन 6 तीर्थंकरों में से एक थे। <span class="GRef">( दर्शनसार/ </span>प्र. 32/प्रेमीजी)।</span><br /> | ||
भा.सं./176-179 <span class="PrakritGatha">मसयरि-पूरणरिसिणो उप्पण्णो पासणाहतित्थम्मि। सिरिवीरसमवसरणे अगहियझुणिणा नियत्तेण।176। बहिणिग्गएण उत्तं मज्झं एयारसांगधारिस्स। णिग्गइ झुणी ण, अरुहो णिग्गय विस्साससीसस्स।177। ण मुणइ जिणकहियसुयं संपइ दिक्खाय गहिय गोयमओ। विप्पो वेयब्भासी तम्हा मोक्खं ण णाणाओ।178। अण्णाणाओ मोक्खं एवं लोयाण पयडमाणो हु। देवो अ णत्थि कोई सुण्णं झाएह इच्छाए।179।</span> =<span class="HindiText"> पार्श्वनाथ के तीर्थ में मस्करि-पूरण ऋषि उत्पन्न हुआ। वीर भगवान् के समवशरण में योग्यपात्र के अभाव में जब दिव्यध्वनि न खिरी, तब उसने बाहर निकलकर कहा कि मैं ग्यारह अंग का ज्ञाता हूँ, तो भी दिव्यध्वनि नहीं हुई। पर जो जिनकथित श्रुत को ही नहीं मानता है और जिसने अभी हाल ही में दीक्षा ग्रहण की है ऐसे वेदाभ्यासी गोतम ( | भा.सं./176-179 <span class="PrakritGatha">मसयरि-पूरणरिसिणो उप्पण्णो पासणाहतित्थम्मि। सिरिवीरसमवसरणे अगहियझुणिणा नियत्तेण।176। बहिणिग्गएण उत्तं मज्झं एयारसांगधारिस्स। णिग्गइ झुणी ण, अरुहो णिग्गय विस्साससीसस्स।177। ण मुणइ जिणकहियसुयं संपइ दिक्खाय गहिय गोयमओ। विप्पो वेयब्भासी तम्हा मोक्खं ण णाणाओ।178। अण्णाणाओ मोक्खं एवं लोयाण पयडमाणो हु। देवो अ णत्थि कोई सुण्णं झाएह इच्छाए।179।</span> =<span class="HindiText"> पार्श्वनाथ के तीर्थ में मस्करि-पूरण ऋषि उत्पन्न हुआ। वीर भगवान् के समवशरण में योग्यपात्र के अभाव में जब दिव्यध्वनि न खिरी, तब उसने बाहर निकलकर कहा कि मैं ग्यारह अंग का ज्ञाता हूँ, तो भी दिव्यध्वनि नहीं हुई। पर जो जिनकथित श्रुत को ही नहीं मानता है और जिसने अभी हाल ही में दीक्षा ग्रहण की है ऐसे वेदाभ्यासी गोतम (इंद्रभूति) इसके लिए योग्य समझा गया। अत: जान पड़ता है कि ज्ञान से मोक्ष नहीं होता है। वह लोगों पर यह प्रगट करने लगा कि अज्ञान से ही मोक्ष होता है। देव या ईश्वर कोई है ही नहीं। अत: स्वेच्छापूर्वक शून्य का ध्यान करना चाहिए।</span></p> | ||
<noinclude> | <noinclude> | ||
Line 9: | Line 9: | ||
</noinclude> | </noinclude> | ||
[[Category: म]] | [[Category: म]] | ||
[[Category: प्रथमानुयोग]] | |||
[[Category: इतिहास]] |
Latest revision as of 22:27, 17 November 2023
बौद्धों के महा परिनिर्वाण सूत्र, महावग्ग और दिव्यावदान आदि ग्रंथों के अनुसार ये महात्मा बुद्ध के समकालीन 6 तीर्थंकरों में से एक थे। ( दर्शनसार/ प्र. 32/प्रेमीजी)।
भा.सं./176-179 मसयरि-पूरणरिसिणो उप्पण्णो पासणाहतित्थम्मि। सिरिवीरसमवसरणे अगहियझुणिणा नियत्तेण।176। बहिणिग्गएण उत्तं मज्झं एयारसांगधारिस्स। णिग्गइ झुणी ण, अरुहो णिग्गय विस्साससीसस्स।177। ण मुणइ जिणकहियसुयं संपइ दिक्खाय गहिय गोयमओ। विप्पो वेयब्भासी तम्हा मोक्खं ण णाणाओ।178। अण्णाणाओ मोक्खं एवं लोयाण पयडमाणो हु। देवो अ णत्थि कोई सुण्णं झाएह इच्छाए।179। = पार्श्वनाथ के तीर्थ में मस्करि-पूरण ऋषि उत्पन्न हुआ। वीर भगवान् के समवशरण में योग्यपात्र के अभाव में जब दिव्यध्वनि न खिरी, तब उसने बाहर निकलकर कहा कि मैं ग्यारह अंग का ज्ञाता हूँ, तो भी दिव्यध्वनि नहीं हुई। पर जो जिनकथित श्रुत को ही नहीं मानता है और जिसने अभी हाल ही में दीक्षा ग्रहण की है ऐसे वेदाभ्यासी गोतम (इंद्रभूति) इसके लिए योग्य समझा गया। अत: जान पड़ता है कि ज्ञान से मोक्ष नहीं होता है। वह लोगों पर यह प्रगट करने लगा कि अज्ञान से ही मोक्ष होता है। देव या ईश्वर कोई है ही नहीं। अत: स्वेच्छापूर्वक शून्य का ध्यान करना चाहिए।