शुक्लध्यान निर्देश: Difference between revisions
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<span class="HindiText">इस (समुच्छिन्न क्रिया निवृत्ति) ध्यान में सर्व श्वासोच्छ्वास का प्रचार | <span class="HindiText">इस (समुच्छिन्न क्रिया निवृत्ति) ध्यान में सर्व श्वासोच्छ्वास का प्रचार बंद हो जाता है।</span></p></li> | ||
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<span class="HindiText">अर्थ से अर्थांतर पर नियम से संक्रमित होता है।...इस प्रकार उपशांत कषाय जीव पृथक्त्व वितर्क वीचार ध्यान को अंतर्मुहूर्त काल तक ध्याता है।...इस प्रकार...इस ध्यान के फल से मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती।</span></li> | |||
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<span class="HindiText">यह ध्यान (एकत्व वितर्क ध्यान) एक द्रव्य का ही आश्रय करता है इसलिए परिमित अनेक पर्यायों सहित अनेक द्रव्यों का आश्रय लेने वाले प्रथम शुक्लध्यान से भिन्न है। तीसरा और चौथा ध्यान सर्व वस्तुओं को विषय करते हैं अत: इनसे भी यह दूसरा शुक्ल ध्यान भिन्न है, ऐसा इस गाथा से सिद्ध होता है। इस ध्यान का स्वामित्व क्षीण कषाय वाला मुनि है पहले ध्यान का स्वामित्व उपशांत कषाय वाला मुनि है और तीसरे तथा चौथे शुक्लध्यान का स्वामित्व सयोग केवली तथा अयोग केवली मुनि है। अत: स्वामित्व की अपेक्षा से दूसरा शुक्लध्यान इन ध्यानों से भिन्न है। <span class="GRef"> (भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1882/1685/4) </span></span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5">शुक्ल ध्यान में संभव भाव व लेश्या</strong><br /> | |||
<span class="GRef"> चारित्रसार/205/5</span><span class="SanskritText">तत्र शुक्लतरलेश्याबलाधानमंतर्मुहूर्तकालपरिवर्तनं क्षायोपशमिकभावम् ।</span> = <span class="HindiText">यह ध्यान शुक्लतर लेश्या के बल से होता है और अंतर्मुहूर्त काल के बाद बदल जाता है। यह क्षायोपशमिक भाव है।</span></li></ol> | |||
<span class="HindiText">यह ध्यान (एकत्व वितर्क ध्यान) एक द्रव्य का ही आश्रय करता है इसलिए परिमित अनेक पर्यायों सहित अनेक द्रव्यों का आश्रय लेने वाले प्रथम शुक्लध्यान से भिन्न है। तीसरा और चौथा ध्यान सर्व वस्तुओं को विषय करते हैं अत: इनसे भी यह दूसरा शुक्ल ध्यान भिन्न है, ऐसा इस गाथा से सिद्ध होता है। इस ध्यान का स्वामित्व क्षीण कषाय वाला मुनि है पहले ध्यान का स्वामित्व | |||
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Latest revision as of 15:25, 27 November 2023
- शुक्लध्यान निर्देश
- शुक्ल ध्यान में श्वासोच्छ्वास का निरोध हो जाता है
परमात्मप्रकाश/मूल/1/162 णास-विणिग्गउ सासडा अंवरि जेत्थु विलाइ। तुट्ठइ मोहु तड त्ति तहिं मणु अत्थवणहं जाइ।162। = नाक से निकला जो श्वास वह जिस निर्विकल्प समाधि में मिल जावे, उसी जगह मोह शीघ्र नष्ट हो जाता है, और मन स्थिर हो जाता है।162।भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1888/1691/4 अकिरियं समुच्छिन्नप्राणापानप्रचार...। = इस (समुच्छिन्न क्रिया निवृत्ति) ध्यान में सर्व श्वासोच्छ्वास का प्रचार बंद हो जाता है।
- पृथक्त्व वितर्क में प्रतिपातपना संभव है
धवला 13/5,4,26/पृष्ठ पंक्ति तदो परदो अत्थंतरस्स णियमा संकमदि (78/10) उवसंतकसाओ...पुधत्तविदक्कवीचारज्झाणं...अंतोमुहुत्तकालं ज्झायइ (78/14) एवं एदम्हादो णिव्वुगमणाणुवलंभादो (79/1) उवसंत। = अर्थ से अर्थांतर पर नियम से संक्रमित होता है।...इस प्रकार उपशांत कषाय जीव पृथक्त्व वितर्क वीचार ध्यान को अंतर्मुहूर्त काल तक ध्याता है।...इस प्रकार...इस ध्यान के फल से मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती। - एकत्व वितर्क में प्रतिपात का विधि निषेध
सर्वार्थसिद्धि/9/44/456/8 ध्यात्वा पुनर्न निवर्तत इत्युक्तमेकत्ववितर्कम् । = वह ध्यान करके पुन: नहीं लौटता। इस प्रकार एकत्व वितर्क ध्यान कहा।धवला 13/5,4,26/81/6 उवसंतकसायम्मि भवद्धाखएहि कसाएसु णिवदिदम्मि पडिवादुवलंभादो।= उपशांत कषाय जीव के भवक्षय और कालक्षय के निमित्त से पुन: कषायों के प्राप्त होने पर एकत्व वितर्कअविचार ध्यान का प्रतिपात देखा जाता है।
- चारों शुक्लध्यानों में अंतर
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1884-1885/1687/20 एकद्रव्यालंबनत्वेन परिमितानेकसर्वपर्यायद्रव्यालंबनात् प्रथमध्यानात्समस्तवस्तुविषयाभ्यां तृतीयचतुर्थाभ्यां च विलक्षणता द्वितीयस्यानया गाथया निवेदिता। क्षीणकषायग्रहणेन उपशांतमोहस्वामिकत्वात् । सयोग्ययोगकेवलिस्वामिकाभ्यां च भेद: पूर्ववदेव। पूर्वव्यावर्णितवीचाराभावादवीचारत्वं। = यह ध्यान (एकत्व वितर्क ध्यान) एक द्रव्य का ही आश्रय करता है इसलिए परिमित अनेक पर्यायों सहित अनेक द्रव्यों का आश्रय लेने वाले प्रथम शुक्लध्यान से भिन्न है। तीसरा और चौथा ध्यान सर्व वस्तुओं को विषय करते हैं अत: इनसे भी यह दूसरा शुक्ल ध्यान भिन्न है, ऐसा इस गाथा से सिद्ध होता है। इस ध्यान का स्वामित्व क्षीण कषाय वाला मुनि है पहले ध्यान का स्वामित्व उपशांत कषाय वाला मुनि है और तीसरे तथा चौथे शुक्लध्यान का स्वामित्व सयोग केवली तथा अयोग केवली मुनि है। अत: स्वामित्व की अपेक्षा से दूसरा शुक्लध्यान इन ध्यानों से भिन्न है। (भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1882/1685/4) - शुक्ल ध्यान में संभव भाव व लेश्या
चारित्रसार/205/5तत्र शुक्लतरलेश्याबलाधानमंतर्मुहूर्तकालपरिवर्तनं क्षायोपशमिकभावम् । = यह ध्यान शुक्लतर लेश्या के बल से होता है और अंतर्मुहूर्त काल के बाद बदल जाता है। यह क्षायोपशमिक भाव है।
- शुक्ल ध्यान में श्वासोच्छ्वास का निरोध हो जाता है