शून्यध्यान: Difference between revisions
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<span class="GRef"><strong>ज्ञानसार/37-47</strong></span><span class="SanskritText"> किं बहुना सालंबं परमार्थेन ज्ञात्वा। परिहर कुरु पश्चात् ध्यानाभ्यासं निरालंबं ।37। तथा प्रथमं तथा द्वितीयं तृतीयं निश्रेणिकायां चरमाना:। प्राप्नोति समुच्चयस्थानं तथायोगी स्थूलत: शून्याम् ।38। रागादिभि: वियुक्तं गतमोहं तत्त्वपरिणतं ज्ञानम् । जिनशासने भणितं शून्यं इदमीदृशं मनुते।41। इंद्रियविषयातीतं अमंत्रतंत्र-अध्येय-धारणाकम् । नभ: सदृशमपि न गगनं तत् शून्यं केवलं ज्ञानम् ।42। नाहं कस्यापि तनय: न कोऽपि मे आस्त अहं च एकाकी। इति शून्य ध्यानज्ञाने लभते योगी परं स्थानम् ।43। मन-वचन-काय-मत्सर-ममत्वतनुधनकलादिभि: शून्योऽहम् । इति शून्यध्यानयुक्त: न लिप्यते पुण्यपापेन।44। शुद्धात्मा तनुमात्र: ज्ञानी चेतनगुणोऽहम् एकोऽहम् । इति ध्याने योगी प्राप्नोति परमात्मकं स्थानम् ।45। अभ्यंतरं च कृत्वा बहिरर्थ-सुखानि कुरु शून्यतनुम् । निश्चिंत-स्तथा हंस: पुरुष: पुन: केवली भवति।47।</span> = | |||
<span class="HindiText">बहुत कहने से क्या ? परमार्थ से सालंबन ध्यान (धर्मध्यान) को जानकर उसे छोड़ना चाहिए तथा तत्पश्चात् निरालंबन ध्यान | |||
का अभ्यास करना चाहिए।37। प्रथम द्वितीय आदि श्रेणियों को पार करता हुआ वह योगी चरम स्थान में पहुँचकर स्थूलत: शून्य हो जाता है।38। क्योंकि | |||
रागादि से मुक्त, मोह रहित, स्वभाव परिणत ज्ञान ही जिनशासन में शून्य कहा जाता है।41। इंद्रिय विषयों से अतीत, मंत्र, तंत्र तथा धारणा आदि रूप ध्येयों से रहित जो आकाश न होते हुए भी आकाशवत् निर्मल है, वह ज्ञान मात्र शून्य कहलाता है।42। मैं किसी का नहीं, पुत्रादि कोई भी मेरे नहीं हैं, मैं अकेला हूँ शून्य ध्यान के ज्ञान में योगी इस प्रकार के परम स्थान को प्राप्त करता है।43। मन, वचन, काय, मत्सर, ममत्व, शरीर, धन-धान्य आदि से मैं शून्य हूँ इस प्रकार के शून्य ध्यान से युक्त योगी पुण्य पाप से लिप्त नहीं होता।44। ‘मैं शुद्धात्मा हूँ, शरीर मात्र हूँ, ज्ञानी हूँ, चेतन गुण स्वरूप हूँ, एक हूँ, इस प्रकार के ध्यान से योगी परमात्म स्थान को प्राप्त करता है।45। अभ्यंतर को निश्चित करके तथा बाह्य पदार्थों संबंधी सुखों व शरीर को शून्य करके हंस रूप पुरुष अर्थात् अत्यंत निर्मल आत्मा केवली हो जाता है।47।</span></p> | |||
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<strong><span class="GRef">आचारसार/77-83</strong></span> जायंते विरसा रसा विघटते गोष्ठीकथा कौतुकं शीर्यंते विषयास्तथा विरमणात् प्रीति: शरीरेऽपि च। जोषं वागपि धारयत्वविरतानंदात्मन: स्वात्मनश्चिंतायमपि यातुमिच्छति मनोदोषै: समं पंचताम् ।77। यत्र न ध्यानं ध्येयं ध्यातारौ नैव चिंतनं किमपि। न च धारणा विकल्पस्तं शून्यं सुष्ठु भावये।78। शून्यध्यानप्रविष्टो योगी स्वसद्भावसंपन्न:। परमानंदस्थितो भृतावस्थ: स्फुटं भवति।79। तत्त्रिकमयो ह्यात्मा अवशेषालंबनै: परिमुक्त:। उक्त: स तेन शून्यो ज्ञानिभिर्न सर्वथा शून्य:।80। यावद्विकल्प: कश्चिदपि जायते योगिनो ध्यानयुक्तस्य। तावन्न शून्यं ध्यानं चिंता वा भावनाथवा।81।</span> = | |||
<span class="HindiText">सब रस विरस हो जाते हैं, कथा गोष्ठी व कौतुक विघट जाते हैं, इंद्रियों के विषय मुरझा जाते हैं, तथा शरीर में प्रीति भी समाप्त हो जाती है व वचन भी मौन धारण कर लेता है। आत्मा की आनंदानुभूति के काल में मन के दोषों सहित स्वात्म विषयक चिंता भी शांत होने लगती है।77। जहाँ न ध्यान है, न ध्येय है, न ध्याता है, न कुछ चिंतवन है, न धारणा के विकल्प हैं, ऐसे शून्य को भली प्रकार भाना चाहिए।78। शून्य ध्यान मे प्रविष्ट योगी स्व स्वभाव से संपन्न, परमानंद में स्थित तथा प्रगट भरितावस्थावत् होता है।79। ज्ञानदर्शन चारित्र इन तीनों मयी आत्मा निश्चय से अवशेष समस्त अवलंबनों से मुक्त हो जाता है। इसलिए वह शून्य कहलाता है, सर्वथा शून्य नहीं।80। ध्यान युक्त योगी को जब तक कुछ भी विकल्प उत्पन्न होते रहते हैं, तब तक वह शून्य ध्यान नहीं, वह या तो चिंता है या भावना।</span></p> | |||
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<span class="HindiText">शुक्लध्यान के भेद व लक्षण जानने के लिये देखें [[ शुक्लध्यान#1 | शुक्लध्यान - 1]]।</span> | |||
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Latest revision as of 14:43, 2 March 2024
ज्ञानसार/37-47 किं बहुना सालंबं परमार्थेन ज्ञात्वा। परिहर कुरु पश्चात् ध्यानाभ्यासं निरालंबं ।37। तथा प्रथमं तथा द्वितीयं तृतीयं निश्रेणिकायां चरमाना:। प्राप्नोति समुच्चयस्थानं तथायोगी स्थूलत: शून्याम् ।38। रागादिभि: वियुक्तं गतमोहं तत्त्वपरिणतं ज्ञानम् । जिनशासने भणितं शून्यं इदमीदृशं मनुते।41। इंद्रियविषयातीतं अमंत्रतंत्र-अध्येय-धारणाकम् । नभ: सदृशमपि न गगनं तत् शून्यं केवलं ज्ञानम् ।42। नाहं कस्यापि तनय: न कोऽपि मे आस्त अहं च एकाकी। इति शून्य ध्यानज्ञाने लभते योगी परं स्थानम् ।43। मन-वचन-काय-मत्सर-ममत्वतनुधनकलादिभि: शून्योऽहम् । इति शून्यध्यानयुक्त: न लिप्यते पुण्यपापेन।44। शुद्धात्मा तनुमात्र: ज्ञानी चेतनगुणोऽहम् एकोऽहम् । इति ध्याने योगी प्राप्नोति परमात्मकं स्थानम् ।45। अभ्यंतरं च कृत्वा बहिरर्थ-सुखानि कुरु शून्यतनुम् । निश्चिंत-स्तथा हंस: पुरुष: पुन: केवली भवति।47। = बहुत कहने से क्या ? परमार्थ से सालंबन ध्यान (धर्मध्यान) को जानकर उसे छोड़ना चाहिए तथा तत्पश्चात् निरालंबन ध्यान का अभ्यास करना चाहिए।37। प्रथम द्वितीय आदि श्रेणियों को पार करता हुआ वह योगी चरम स्थान में पहुँचकर स्थूलत: शून्य हो जाता है।38। क्योंकि रागादि से मुक्त, मोह रहित, स्वभाव परिणत ज्ञान ही जिनशासन में शून्य कहा जाता है।41। इंद्रिय विषयों से अतीत, मंत्र, तंत्र तथा धारणा आदि रूप ध्येयों से रहित जो आकाश न होते हुए भी आकाशवत् निर्मल है, वह ज्ञान मात्र शून्य कहलाता है।42। मैं किसी का नहीं, पुत्रादि कोई भी मेरे नहीं हैं, मैं अकेला हूँ शून्य ध्यान के ज्ञान में योगी इस प्रकार के परम स्थान को प्राप्त करता है।43। मन, वचन, काय, मत्सर, ममत्व, शरीर, धन-धान्य आदि से मैं शून्य हूँ इस प्रकार के शून्य ध्यान से युक्त योगी पुण्य पाप से लिप्त नहीं होता।44। ‘मैं शुद्धात्मा हूँ, शरीर मात्र हूँ, ज्ञानी हूँ, चेतन गुण स्वरूप हूँ, एक हूँ, इस प्रकार के ध्यान से योगी परमात्म स्थान को प्राप्त करता है।45। अभ्यंतर को निश्चित करके तथा बाह्य पदार्थों संबंधी सुखों व शरीर को शून्य करके हंस रूप पुरुष अर्थात् अत्यंत निर्मल आत्मा केवली हो जाता है।47।
आचारसार/77-83 जायंते विरसा रसा विघटते गोष्ठीकथा कौतुकं शीर्यंते विषयास्तथा विरमणात् प्रीति: शरीरेऽपि च। जोषं वागपि धारयत्वविरतानंदात्मन: स्वात्मनश्चिंतायमपि यातुमिच्छति मनोदोषै: समं पंचताम् ।77। यत्र न ध्यानं ध्येयं ध्यातारौ नैव चिंतनं किमपि। न च धारणा विकल्पस्तं शून्यं सुष्ठु भावये।78। शून्यध्यानप्रविष्टो योगी स्वसद्भावसंपन्न:। परमानंदस्थितो भृतावस्थ: स्फुटं भवति।79। तत्त्रिकमयो ह्यात्मा अवशेषालंबनै: परिमुक्त:। उक्त: स तेन शून्यो ज्ञानिभिर्न सर्वथा शून्य:।80। यावद्विकल्प: कश्चिदपि जायते योगिनो ध्यानयुक्तस्य। तावन्न शून्यं ध्यानं चिंता वा भावनाथवा।81। = सब रस विरस हो जाते हैं, कथा गोष्ठी व कौतुक विघट जाते हैं, इंद्रियों के विषय मुरझा जाते हैं, तथा शरीर में प्रीति भी समाप्त हो जाती है व वचन भी मौन धारण कर लेता है। आत्मा की आनंदानुभूति के काल में मन के दोषों सहित स्वात्म विषयक चिंता भी शांत होने लगती है।77। जहाँ न ध्यान है, न ध्येय है, न ध्याता है, न कुछ चिंतवन है, न धारणा के विकल्प हैं, ऐसे शून्य को भली प्रकार भाना चाहिए।78। शून्य ध्यान मे प्रविष्ट योगी स्व स्वभाव से संपन्न, परमानंद में स्थित तथा प्रगट भरितावस्थावत् होता है।79। ज्ञानदर्शन चारित्र इन तीनों मयी आत्मा निश्चय से अवशेष समस्त अवलंबनों से मुक्त हो जाता है। इसलिए वह शून्य कहलाता है, सर्वथा शून्य नहीं।80। ध्यान युक्त योगी को जब तक कुछ भी विकल्प उत्पन्न होते रहते हैं, तब तक वह शून्य ध्यान नहीं, वह या तो चिंता है या भावना।
शुक्लध्यान के भेद व लक्षण जानने के लिये देखें शुक्लध्यान - 1।