श्वेतांबर: Difference between revisions
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<span class="HindiText"> | <span class="HindiText">दिगंबर मान्यता के अनुसार भगवान् वीर के पश्चात् मूल संघ दिगंबर ही था। पीछे कुछ शिथिलाचारी साधुओं ने श्वेतांबर संघ की स्थापना की। श्वेतांबर मान्यता के अनुसार जिन कल्प व स्थविर कल्प दोनों ही प्रकार के संघ विद्यमान थे। जंबू स्वामी के पश्चात् काल प्रभाव से जिनकल्प का विच्छेद हो गया और स्थविर कल्प ही शेष रह गया। पीछे शिवभूति नामक एक साधु जिनकल्प के पुनरावर्तन के उद्देश्य से नग्न हो गया। उसके द्वारा ही दिगंबर मत का प्रचार हुआ। श्वेतांबर में से ढूंढिया मत की उत्पत्ति के विषय में दोनों ही संप्रदाय सहमत हैं।</span></p> | ||
<ol class="HindiText"> | <ol class="HindiText"> | ||
<li id="I">[[ | <li id="I">[[श्वेतांबर#1 | श्वेतांबर मत का स्वरूप।]]</li> | ||
<li id="II">[[ | <li id="II">[[श्वेतांबर#2 | दिगंबर के अनुसार श्वेतांबर मत की उत्पत्ति।]]</li> | ||
<li id="III">[[ | <li id="III">[[श्वेतांबर#3 | अर्ध फालक संघ की उत्पत्ति।]]</li> | ||
<li id="IV">[[ | <li id="IV">[[श्वेतांबर#4 | श्वेतांबरों के विविध गच्छ।]]</li> | ||
<li id="V">[[ | <li id="V">[[श्वेतांबर#5 | अर्ध फालक व श्वेतांबर विषयक समन्वय।]]</li> | ||
<li id="VI">[[ | <li id="VI">[[श्वेतांबर#6 | प्रवर्तकों विषयक समन्वय।]]</li> | ||
<li id="VII">[[ | <li id="VII">[[श्वेतांबर#7 | उत्पत्तिकाल विषयक समन्वय।]]</li> | ||
<li id="VIII">[[ | <li id="VIII">[[श्वेतांबर#8 | दिगंबर मत की प्राचीनता]]</li> | ||
<li id="IX">[[ | <li id="IX">[[श्वेतांबर#9 | श्वेतांबर के अनुसार दिगंबर मत की उत्पत्ति।]] | ||
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<li id="IX.1">[[ | <li id="IX.1">[[श्वेतांबर#9.1 | द्विविध कल्प निर्देश।]]</li> | ||
<li id="IX.2">[[ | <li id="IX.2">[[श्वेतांबर#9.2 | जिन कल्प का विच्छेद।]]</li> | ||
<li id="IX.3">[[ | <li id="IX.3">[[श्वेतांबर#9.3 | उपकरण व उनकी सार्थकता।]]</li> | ||
<li id="IX.4">[[ | <li id="IX.4">[[श्वेतांबर#9.4 | दिगंबर मत प्रवर्तक शिवभूति मुनि का परिचय।]]</li> | ||
<li id="IX.5">[[ | <li id="IX.5">[[श्वेतांबर#9.5 | शिवभूति द्वारा दिगंबर मत की उत्पत्ति।]]</li> | ||
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<li id="X">[[ | <li id="X">[[श्वेतांबर# | ढूंढिया पंथ।]] | ||
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<li id="X.1">[[ | <li id="X.1">[[श्वेतांबर#10.1 | दिगंबर के अनुसार उत्पत्ति।]]</li> | ||
<li id="X.2">[[ | <li id="X.2">[[श्वेतांबर#10.2 | श्वेतांबर के अनुसार उत्पत्ति।]]</li> | ||
<li id="X.3">[[ | <li id="X.3">[[श्वेतांबर#10.3 | स्वरूप ]]</li> | ||
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<p class="HindiText" id="1"><strong> | <p class="HindiText" id="1"><strong>श्वेतांबर मत का स्वरूप</strong></p> | ||
<p><span class=" | <p><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/8/1/5</span><span class="SanskritText">सग्रंथ: निर्ग्रंथ:। केवली कवलाहारी। स्त्री सिध्यति। एवमित्यादि विपर्यय:।</span> = <span class="HindiText">सग्रंथ को निर्ग्रंथ मानना, केवली को कवलाहारी मानना और स्त्री सिद्ध होती है इत्यादि मानना विपरीत मिथ्यादर्शन है। <span class="GRef">( राजवार्तिक/8/1/28/564/20 )</span>, <span class="GRef">( तत्त्वसार/5/6 )</span>।</span></p> | ||
<p><span class=" | <p><span class="GRef"> दर्शनसार/ मूल/13-14</span> <span class="PrakritText">तेणकियं मयमेयं इत्थीणं अत्थि तब्भवे मोक्खो। केवलणाणीण पुण अण्णक्खाण तहा रोगो।13। अंबरसहिओ वि जई सिज्झई वीरस्स गब्भचारत्तं। परलिंगे विय मुत्ते फासुयभोज्जं च सव्वत्था।14।</span> =<span class="HindiText">उसने (आचार्य जिनचंद्र ने) यह मत चलाया कि स्त्रियों को तद्भव में मोक्ष प्राप्त हो सकता है। केवलज्ञानी भोजन करते हैं तथा उन्हें रोग भी होता है।13। वस्त्रधारी तथा अन्य लिंग वाले भी मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। भगवान् वीर के गर्भ का संचार हुआ था। अर्थात् पहले एक ब्राह्मणी के गर्भ में आये और पीछे क्षत्रियाणी के गर्भ में चले गये। मुनिजन किसी के घर भी प्रासुक भोजन कर सकते हैं।</span></p> | ||
<p><span class=" | <p><span class="GRef"> दर्शनपाहुड़/ टीका /11/11/11</span><span class="SanskritText"> श्वेतवासस: सर्वत्र भोजनं गृह्णंति, प्रासुकं मांसभक्षिणां गृहे दोषो नास्तीति वर्णलोप: कृत:।</span> = <span class="HindiText">श्वेतांबर साधु सर्वत्र भोजन करना उचित मानते हैं। उनकी समझ में मांस भक्षकों के यहाँ भी प्रासुक भोजन करने में दोष नहीं है।</span></p> | ||
<p><span class=" | <p><span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/16 </span><span class="SanskritText">इंद्र: श्वेतांबरगुरु: तदादय: संशयितमिथ्यादृष्टय:।</span> = <span class="HindiText">इंद्र श्वेतांबरों का गुरु था। उनको आदि लेकर संशयित मिथ्यादृष्टि हैं।</span></p> | ||
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<span class="GRef"> दर्शनसार/ प्रस्तावना /50 प्रेमीजी </span><br> | |||
<br/><p class="HindiText" id="2"><strong> | - <p class="HindiText">दर्शनसार ग्रंथ में तथा गोम्मटसार की टीका में जो श्वेतांबरों की गणना सांशयिक मिथ्यादृष्टियों में की सो ठीक नहीं है। वास्तव में उनकी गणना विपरीत मत में हो सकती है ऐसा उपरोक्त सर्वार्थसिद्धि के उद्धरण से स्पष्ट है।</p> | ||
<p class="HindiText"> | <br/><p class="HindiText" id="2"><strong>दिगंबर के अनुसार श्वेतांबर मत की उत्पत्ति</strong></p> | ||
<p><span class=" | <p class="HindiText">दिगंबर मत के अनुसार श्वेतांबर मत की उत्पत्ति कैसे हुई, उसके संबंध में ही नीचे दो कथाएँ दी जाती हैं। - </p> | ||
<p><span class="GRef"> दर्शनसार/ मूल/11-12</span> <span class="PrakritText">एक्कसए छत्तीसे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स। सोरट्ठे बलहीए उप्पण्णो सेवडो संघी।11। सिरि भद्दबाहुगणिनो सीसो णामेण संति आइरिओ। तस्स य सीसो दुट्ठो जिणचंदो मंदचारित्तो।12। तेण कियं मयमेयं...।13।</span> = <span class="HindiText">इसी बात को और भी विस्तृत रूप से इन्हीं देवसेनाचार्य ने अपने भावसंग्रह नामक ग्रंथ में एक कथा के रूप में दिया है। उसका संक्षिप्त सार निम्न है -</span> </p> | |||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
भावसंग्रह/52-75 विक्रम संवत् 136 में सौराष्ट्र देश के वल्लभीपुर नगर में | <span class="GRef">भावसंग्रह/52-75</span><br> | ||
विक्रम संवत् 136 में सौराष्ट्र देश के वल्लभीपुर नगर में श्वेतांबर संघ उत्पन्न हुआ। इस संघ के प्रवर्तक भद्रबाहु गणी जी एक निमित्तज्ञानी थे (पंचम श्रुतकेवली से भिन्न थे) उनके शिष्य शांत्याचार्य, तथा उनके भी शिष्य जिनचंद्र थे। उज्जैनी नगरी में 12 वर्षीय दुर्भिक्ष के संबंध में आचार्य भद्रबाहु को भविष्यवाणी सुनकर सर्व आचार्य अपने-अपने संघ को लेकर वहाँ से विहार कर गये।53-55। भद्रबाहु के शिष्य शांति नाम के आचार्य सौराष्ट्र देश के वल्लभीपुर नगर में आये।56। परंतु वहाँ भी भारी दुष्काल पड़ा।57। परिस्थितिवश सिंह वृत्ति छोड़कर साधुओं ने वस्त्र, पात्र आदि धारण कर लिये और वसतिका में से भोजन माँगकर लाने लगे।58-59। दुर्भिक्ष समाप्त हो जाने पर जब शांत्याचार्य ने पुन: उन्हें शुद्ध चारित्र पालने का आदेश दिया तो उनके शिष्य जिनचंद्र ने उन्हें जान से मार दिया और स्वयं संघ नायक बन गया।60-69। शांत्याचार्य मरकर व्यंतर हुआ और संघ पर उपद्रव करने लगा, जिसे शांत करने के लिए जिनचंद्र ने उसकी एक कुलदेवता के रूप में पूजा प्रचलित कर दी। जो आज तक श्वेतांबर संप्रदाय में चली आ रही है।70-75।</p> | |||
<br/><p class="HindiText" id="3"><strong>अर्धफालक संघ की उत्पत्ति</strong></p> | <br/><p class="HindiText" id="3"><strong>अर्धफालक संघ की उत्पत्ति</strong></p> | ||
<p class="HindiText">भद्रबाहु चरित्र/ | <p class="HindiText"><span class="GRef">भद्रबाहु चरित्र/तृतीय परिच्छेद</span> <br> | ||
<p><span class=" | - बिलकुल उपरोक्त प्रकार की कथा कुछ उचित परिवर्तनों के साथ भट्टारक श्री रत्ननंदि ने भद्रबाहु चरित्र में दी है। उसका सारांश यह है कि - पंचम श्रुतकेवली श्री भद्रबाहु स्वामी के मुख से उज्जैनी में पड़ने वाले 12 वर्षीय दुर्भिक्ष के संबंध में सुनकर भी तथा अन्य संघों के दक्षिण की ओर विहार कर जाने पर भी रामल्य, स्थूलभद्र व स्थूलाचार्य नाम के आचार्यों ने जाना स्वीकार न किया। दुर्भिक्ष पड़ा और परिस्थिति वश उन्होंने कुछ शिथिलाचार अपना लिये। वे लोग पात्र ग्रहण करके भोजन माँगने के लिए वसतिका में जाने लगे और अपनी नग्नता को उतने समय छिपाने के लिए, एक वस्त्र का टुकड़ा भी अपने पास रखने लगे, जिसे वसतिका में जाते समय वे अपने आगे ढँक लेते थे और लौटने पर पृथक् कर देते थे। इस कारण इस संघ का नाम अर्धफालक पड़ गया तत्पश्चात् सुभिक्ष हो जाने पर जब दक्षिण से वह मूल संघ लौट आया तब स्थूलाचार्य ने अपने संघ से पुन: पहला मार्ग अपनाने को कहा। संघ ने उन्हें जान से मार दिया। वे व्यंतर हो गये और संघ पर उपद्रव करने लगे, जिसे शांत करने के लिए संघ ने उनकी अपने कुलदेवता के रूप में पूजा करनी प्रारंभ कर दी। 450 वर्ष तक यह संघ इसी अर्धफाल के रूप में घूमता रहा। तत्पश्चात् वि.सं.136 में सौराष्ट्र देश की वल्लभीपुरी नगरी को प्राप्त हुआ। उस समय इस संघ के आचार्य जिनचंद्र थे। वल्लभीपुर नरेश की रानी उज्जैनी नरेश की पुत्री थी। उज्जैनी में रहते उसने इन्हीं साधुओं के पास विद्याध्ययन किया था। अत: विनयपूर्वक अपने यहाँ बुलाने की इच्छा करने लगी। परंतु राजा को उनका वह वेष पसंद न था, अत: उसने उन साधुओं के पास कुछ वस्त्र भेज दिये, जिसे जिनचंद्र ने राजा व रानी की प्रसन्नता के अर्थ ग्रहण करने की आज्ञा दे दी। बस तभी इस संघ का नाम श्वेतांबर पड़ गया।</p> | ||
<br/><p class="HindiText" id="4"><strong> | <p><span class="GRef">हरिषेण कृत कथा कोष/58-59/पृष्ठ 318</span> <span class="SanskritText"> यावन्न शोभन: काल: जायते साधव: स्फुटम् । तावच्च वामहस्तेन पुर: कृत्वाऽर्धफालकम् ।58। भिक्षापात्रं समादाय दक्षिणेन करेण च। गृहीत्वा नक्तमाहारं कुरुध्वं भोजनं दिने।59।</span> =<span class="HindiText">12 वर्षीय दुर्भिक्ष के समय 12000 साधुओं के साथ श्रुतकेवली भद्रबाहु और विशाखाचार्य (चंद्रगुप्त) दक्षिणपथ को चले गए और अपने संघ को यह आदेश दिया कि जब तक सुभिक्ष न हो जाये तब तक साधुओं को चाहिए कि वे अपना बायाँ हाथ आगे करके उस पर एक अर्धफालक (कपड़े का टुकड़ा) लटका लें। तथा दायें हाथ से भिक्षा द्वारा आहार ग्रहण करके, उसे दिन के समय अपनी वसतिका में बैठकर खा लें।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> | <br/><p class="HindiText" id="4"><strong>श्वेतांबरों के विविध गच्छ</strong></p> | ||
<p class="HindiText">'धर्मसागर' कृत पट्टावली के अनुसार वि.नि.882 में चैत्यवास | <p class="HindiText">श्वेतांबरों में विविध गच्छ प्रसिद्ध हैं, यथा - चैत्यवासी गच्छ, उपकेशगच्छ, खरतरगच्छ, तपागच्छ, पार्श्वचंद्रगच्छ, सार्धपौर्णमीयक गच्छ, आंचलिक गच्छ, आगमिक गच्छ आदि। इनमें से आज खरतर, तथा आंचलिक गच्छ ही उपलब्ध होते हैं। प्रत्येक गच्छ की समाचारी जुदी है तथा उनके श्रावकों की सामायिक प्रतिक्रमण आदि विषयक विधियाँ भी जुदी हैं। कोई कल्याणक के दिन छह मानता है तो कोई पाँच। कोई पर्युषण का अंतिम दिन भाद्रपद शुक्ल 4 मानता है और कोई भाद्रपद शुक्ल 5।</p> | ||
<p class="HindiText">'धर्मसागर' कृत पट्टावली के अनुसार वि.नि.882 में चैत्यवास प्रारंभ हुआ। 'जिनवल्लभ सूरि' कृत संघपट्ट की भूमिका में भी चैत्यवास का कुछ इतिहास उल्लिखित है। अनेकांत वर्ष 3 अंक 8-9 के 'यति समाज' शीर्षक में श्री अगरचंद नाहटा ने श्वेतांबर चैत्यवासियों पर विस्तृत प्रकाश डाला है।</p> | |||
<p class="HindiText">अणहिलपुर पट्टण राजा दुर्लभदेव की सभा में वर्द्धमान सूरि के शिष्य जिनेश्वर सूरि द्वारा परास्त हो जाने पर यह चैत्यवासी गच्छ ही खरतर नाम से पुकारा जाने लगा।</p> | <p class="HindiText">अणहिलपुर पट्टण राजा दुर्लभदेव की सभा में वर्द्धमान सूरि के शिष्य जिनेश्वर सूरि द्वारा परास्त हो जाने पर यह चैत्यवासी गच्छ ही खरतर नाम से पुकारा जाने लगा।</p> | ||
<p class="HindiText">वि.सं.1285 में भी | <p class="HindiText">वि.सं.1285 में भी जगच्चंद्र सूरि के उग्र तप से प्रभावित होकर मेवाड़ के राजा ने उसके गच्छ को 'तपा गच्छ' नाम प्रदान किया।</p> | ||
<p class="HindiText">मुख पट्टी के बदले अंचलका अर्थात् वस्त्र के छोर का उपयोग किया जाने के कारण 'आंचलिक गच्छ' प्रसिद्ध हुआ है।</p> | <p class="HindiText">मुख पट्टी के बदले अंचलका अर्थात् वस्त्र के छोर का उपयोग किया जाने के कारण 'आंचलिक गच्छ' प्रसिद्ध हुआ है।</p> | ||
<br/><p class="HindiText" id="5"><strong>अर्धफालक व | <br/><p class="HindiText" id="5"><strong>अर्धफालक व श्वेतांबर विषयक समन्वय</strong></p> | ||
<p><span class=" | <p><span class="GRef"> दर्शनसार/ प्रस्तावना /60 प्रेमी जी </span><br> | ||
- <span class="HindiText">अब इस बात पर विचार करना है कि भावसंग्रह की कथा में (भद्रबाहु चरित्र के कर्ता ने) इतना परिवर्तन क्यों किया। हमारी समझ में इसका कारण भद्रबाहु का और श्वेतांबर संप्रदाय की उत्पत्ति का समय है। भाव संग्रह के कर्ता ने तो भद्रबाहु को केवल निमित्तज्ञानी लिखा है, पर रत्ननंदि उन्हें (श्रुतावतार के अनुसार) पंचम श्रुतकेवली लिखते हैं। दिगंबर ग्रंथों के अनुसार श्रुतकेवली का शरीरांत वीर निर्वाण सम्वत् 162 में हुआ है। (देखें [[ इतिहास#4.1 | इतिहास - 4.1 ]]और श्वेतांबरों की उत्पत्ति वीर निर्वाण सम्वत् 606) (वि.136) में बतायी गयी है। दोनों के बीच में इस 450 वर्ष के अंतर को पूरा करने के लिए ही रत्ननंदि ने श्वेतांबर से पहले अर्धफालक उत्पन्न होने की कल्पना की है। दूसरे श्वेतांबर मत जिनचंद्र के द्वार वल्लभीपुर में प्रगट हुआ था, अतएव यह आवश्यक हुआ कि दुर्भिक्ष के समय जो मत प्रगट हुआ था उसका स्थान व प्रवर्तक इससे भिन्न बताया जाये। इसलिए अर्धफालक की उत्पत्ति उज्जैनी में बतायी गयी और इसके प्रवर्तक आचार्य का नाम भी स्थूलभद्र रखा, जो कि श्वेतांबर आम्नाय में अति प्रसिद्ध है। उज्जैनी नगरी में वीर निर्वाण सम्वत् 162 में उत्पन्न होने के पश्चात् वह संघ अर्धफालक के रूप में 450 वर्ष तक विहार करता रहा। अर्धफालक संघ वाले साधु जब वस्तिका में भोजन लेने जाते थे, तो एक वस्त्र के टुकड़े को वे अपनी बायीं भुजा पर लटका कर रखते थे, जिससे उनकी नग्नता छिप जायें। चर्या से लौटने पर उस वस्त्र को पुन: पृथक् करके वे दिगंबर हो जाते थे। यही संघ कालयोग से वीर निर्वाण सम्वत् 606 में वल्लभीपुरी में प्राप्त हुआ। उस समय उस संघ का आचार्य जिनचंद्र था, जिसने उपरोक्त कथनानुसार इसे श्वेतांबर के रूप में प्रवर्तित कर दिया। इस प्रकार इसकी संगति भद्रबाहु श्रुतकेवली तथा 12 वर्षीय दुर्भिक्ष के साथ भी बैठ जाती है। श्वेतांबरों के आदि गुरु स्थूलभद्र के साथ वल्लभीपुर के साथ भावसंग्रह व दर्शनसार के अनुसार जिनचंद्र के साथ व वीर निर्वाण सम्वत् 606 के साथ भी बैठ जाती है। यद्यपि प्रेमी जी रत्ननंदि भट्टारक की इस कल्पना को निर्मूल बताते हैं, और कहते हैं कि अर्धफालक नाम का कोई भी संप्रदाय नहीं हुआ <span class="GRef">( दर्शनसार/ प्रस्तावना /61)</span> परंतु उनका ऐसा कहना योग्य नहीं, क्योंकि मथुरा के कंगाली टीले से उपलब्ध कुशन कालीन (ई.240-320 वीर निर्वाण सम्वत्567-847) कुछ प्राचीन आयाग पट्ट मिले हैं। जिनको पुरातत्त्व विभाग ने अर्धफालक मत का सिद्ध किया है। क्योंकि उनमें कुछ नग्न साधु अपने बायें हाथ पर एक कपड़ा डाल कर उस कपड़े के द्वारा अपनी नग्नता छिपाते दिखाये गये हैं। वे साधु कपड़ा तो अपने बायें हाथ पर लटकाये हैं और कमंडल या भिक्षापात्र अपने दाहिने हाथ में लिये हुए हैं। (भद्रबाहु चरित्र/प्र.उदयलाल)</span> Dr.Buhler in Indian antiquity. Vol 2, Page 13G At his (Nemisha's) left knee stands a small nacked male characterised by the cloth in his left hand as an ascetic with uplifted right hand.</p> | |||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
अर्थात् उसके बायीं ओर एक छोटी-सी नग्न पुरुषाकृति है जिसके बायें हाथ पर एक कपड़ा है और एक साधु के रूप में उसका दायाँ हाथ ऊपर को उठा हुआ है। जैन | अर्थात् उसके बायीं ओर एक छोटी-सी नग्न पुरुषाकृति है जिसके बायें हाथ पर एक कपड़ा है और एक साधु के रूप में उसका दायाँ हाथ ऊपर को उठा हुआ है। जैन सिद्धांत भास्कर भाग 10 खंड 2 पृ.80 के फुटनोट में डॉ.वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार पट्ट में नीचे एक स्त्री और उसके सामने एक नग्न श्रमण अंकित है। वह एक हाथ में सम्मार्जिनी और बायें हाथ में कपड़ा लिये हुए है। शेष शरीर नग्न है।</p> | ||
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<span class="GRef">भद्रबाहु चरित्र/प्रस्तावना- उदयलाल </span>-<br><p class="HindiText"> आगे चलकर वि.136 (वीर निर्वाण सम्वत् 606) में वह प्रगट रूप से श्वेतांबर संप्रदाय में प्रवर्तित हो गया। प्रारंभ में उसका उल्लेख 'निर्ग्रंथ श्वेतपट्ट महाश्रमण संघ' के नाम से होता था। उपरांत वही श्वेतांबर कहलाया। इसी प्रकार दिगंबर संप्रदाय भी पहले 'निर्ग्रंथ श्रमण संघ' के नाम से पुकारा जाता था। उपरांत वह दिग्वास और फिर दिगंबर कहलाने लगा।</p> | |||
<br/><p class="HindiText" id="6"><strong>प्रवर्तकों विषयक समन्वय</strong></p> | <br/><p class="HindiText" id="6"><strong>प्रवर्तकों विषयक समन्वय</strong></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText">दिगंबर ग्रंथ दर्शनसार के अनुसार श्वेतांबर संप्रदाय के प्रवर्तक शांत्याचार्य के शिष्य तथा भद्रबाहु प्रथम (पंचम श्रुतकेवली) के प्रशिष्य जिनचंद्र थे। नंदी संघ की गुर्वावली के अनुसार जिनचंद्र भद्रबाहु द्वि.के प्रशिष्य थे प्रथम के नहीं। ये कुंदकुंद के गुरु थे। (देखें [[ इतिहास#7.2 | इतिहास - 7.2]]) परंतु श्वेतांबर ग्रंथों में इस नाम के आचार्यों का कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता। दूसरी तरफ श्वेतांबर आम्नाय के अनुसार दिगंबर संप्रदाय के प्रवर्तक शिवभूति या सहस्रमल को बताया है, परंतु दिगंबर ग्रंथों में इस नाम के आचार्यों का कहीं पता नहीं चलता। भद्रबाहु चरित्र के कर्ता रत्ननंदि 'रामल्य' व स्थूलभद्र को इसका प्रवर्तक बताते हैं। इंद्र: श्वेतांबरगुरु: तदादाय; संशयमिथ्यादृष्टय: <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/16 )</span> में टीकाकार ने श्वेतांबर संप्रदाय का प्रवर्तक 'इंद्र' नाम के आचार्य को बताया है। प्रेमी जी को गोम्मटसार के टीकाकार का मत इष्ट है <span class="GRef">( दर्शनसार/ प्रस्तावना 60 प्रेमी जी)</span>।</p> | ||
<br/><p class="HindiText" id="7"><strong>उत्पत्ति काल विषयक समन्वय</strong></p> | <br/><p class="HindiText" id="7"><strong>उत्पत्ति काल विषयक समन्वय</strong></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"><span class="GRef"> दर्शनसार/प्रस्तावना 60/प्रेमीजी</span><br> - दिगंबर व श्वेतांबर संप्रदाय कब हुए यह विषय बहुत ही गहरी अंधेरी में छिपा हुआ है। श्रुतावतार में बतायी गयी गुर्वावली में गौतम से लेकर जंबू स्वामी तक की परंपरा दोनों ही संप्रदाय को जूँ की तूँ मान्य है। इससे आगे के 5 श्रुतकेवलियों के नाम दिगंबर संप्रदाय में कुछ और श्वेतांबर संप्रदाय में कुछ और है। परंतु भद्रबाहु को अवश्य दोनों स्वीकार करते हैं। इससे पता चलता है कि भद्रबाहु के पश्चात् ही दोनों जुदा जुदा हो गये हैं। दूसरी बात यह भी है कि श्वेतांबर मान्य सूत्र ग्रंथों की रचना का काल वीर निर्वाण सम्वत् 980 वि.सं.510 के लगभग है। उस समय वे वल्लभीपुर में देवर्धिगणी क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में परिस्थिति वश संगृहीत किये गये थे। श्वेतांबरों के अनुसार संकलन का यह कार्य क्योंकि वि.श.2 में किया गया था इसलिए उसकी उत्पत्ति का काल वि.136 भी माना जा सकता है। संघ की स्थापना के तुरंत पश्चात् अपनी मान्यताओं को वैध सिद्ध करने के लिये सूत्र संग्रह का विचार बहुत संगत है।</p> | ||
<p class="HindiText">[ | <p class="HindiText">[दिगंबराचार्य श्वेतांबरों की उत्पत्ति वि.सं.136 (वीर निर्वाण सम्वत् 606) में बता रहे हैं और श्वेतांबराचार्य दिगंबरों की उत्पत्ति वि.सं.139 (वीर निर्वाण सम्वत् 609) में बता रहे हैं। 12 वर्षीय दुर्भिक्ष जो कि संघ विभेद में प्रधान निमित्त है वीर निर्वाण सम्वत् 606 (वि.सं.136) में पड़ा था। इन सब बातों को देखते हुए भद्रबाहु चरित्र की मान्यता कुछ युक्त जँचती है, कि वि.पू.330 में अर्धफालक संघ उत्पन्न हुआ, और धीरे-धीरे वि.सं.136 में श्वेतांबर के रूप में परिवर्तित हो गया। श्वेतांबर ग्रंथों में दिगंबर मत की उत्पत्ति भी उसी समय (वि.139) में बतायी जाना भी इसी बात की सिद्धि करता है कि वि.सं.136 में ही वह उतपन्न हुआ था। अपने उत्पन्न होते ही उन्हें अपने को मूलसंघी सिद्ध करने के लिए दिगंबर की उत्पत्ति के संबंध में यह कथा गढ़नी पड़ी होगी। इसके अतिरिक्त भी दिगंबर मत की प्राचीनता निम्न में दिये गये प्रमाणों से सिद्ध होती है।]</p> | ||
<br/><p class="HindiText" id="8"><strong> | <br/><p class="HindiText" id="8"><strong>दिगंबर मत की प्राचीनता</strong></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
1. | 1. श्वेतांबर मान्य कथा को स्वीकार कर लें तो शिवभूति ने जिनकल्प (दिगंबर मत) को स्वीकार किया था, उसका कारण इसके अतिरिक्त और क्या हो सकता है कि जिनकल्पी मार्ग से भ्रष्ट साधुओं में फिर से जिनकल्प (दिगंबरता) का प्रचार किया जाये। कथा के अनुसार शिवभूति गुरु के मुख से जिनकल्प का उपदेश सुनकर उसे धारण करने में निश्चलप्रतिज्ञ हुए थे। इससे पता चलता है कि शिवभूति से पहले भी जिनकल्प अवश्य था जो इस समय शिथिल हो चुका था। 2. श्वेतांबर ग्रंथों में ऐसा उल्लेख पाया जाता है - संयमो जिनकल्पस्य दु साध्योऽयं ततोऽधुना। व्रतं स्थविरकल्पस्य तस्मादस्माभिराश्रितम् । तथा - दुर्धरो मूलमार्गोऽयं न धर्त्तुं शक्यते तत:। इस उद्धरण से स्पष्ट कहा गया है कि जिनकल्प ही मूलमार्ग है, परंतु काल की करालता के कारण आज उसका धारण किया जाना शक्य नहीं है। इसीलिए हमने स्थिरकल्पना का आश्रय लिया है। इधर तो श्वेतांबराचार्य ऐसा लिखते हैं दूसरी तरफ दिगंबराचार्य क्या कहते हैं - </p> | ||
<p><span class=" | <p><span class="GRef">[[ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 10 | रत्नकरंड श्रावकाचार/10]] </span><span class="SanskritText">विषयाशावशातीतो निरारंभोऽपरिग्रह:। ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते।10।</span> = <span class="HindiText">जो विषयों की आशा के वश न हो और परिग्रह से रहित तथा ज्ञान-ध्यान-तप में लवलीन हो वह तपस्वी गुरु प्रशंसनीय है। 3. इसके अतिरिक्त विक्रमादित्य की सभा में नवरत्नों में से वराहमिहिर भी नग्न साधुओं का उल्लेख करते देखे जाते हैं - | ||
</span></p> | </span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">विष्णोर्भागवतामयश्च सवितुर्विप्रा विदुर्ब्राह्मण: मातृणामिति | <p><span class="SanskritText">विष्णोर्भागवतामयश्च सवितुर्विप्रा विदुर्ब्राह्मण: मातृणामिति मातृमंडलविद; शंभो: सभस्माद्द्विज:।। शाक्या: सर्वहिताय शांतमनसो नग्ना जिनानां विदुर्ये यं देवमुपाश्रिता: स्वविधिना ते तस्य कुर्यु: क्रियाम् । | ||
</span> = <span class="HindiText">भाव यह है कि वैष्णव लोग विष्णु की प्रतिष्ठा करें, सूर्योपजीवी लोग सूर्य की उपासना करें; विप्र लोग ब्रह्मा की करें; ब्रह्माणी व | </span> = <span class="HindiText">भाव यह है कि वैष्णव लोग विष्णु की प्रतिष्ठा करें, सूर्योपजीवी लोग सूर्य की उपासना करें; विप्र लोग ब्रह्मा की करें; ब्रह्माणी व इंद्राणी प्रभृति सप्त मातृमंडल की उनके मानने वाले अर्चा करें, बौद्ध लोग बुद्ध की प्रतिष्ठा करें, नग्न (दिगंबर साधु) लोग जिन भगवान् की पर्युपासना करें। थोड़े शब्दों में यों कहिए कि जिस-जिस देव के जो उपासक हैं वे उस उसकी अपनी-अपनी विधि से उपासना करें। 4. महाभारत जो कि वेदव्यास जी द्वारा ईसवी पूर्व बहुत प्राचीन काल में रचा गया था, वह भी दिगंबर मत का उल्लेख करता है। यथा - | ||
</span></p> | </span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">साधयामस्तावदित्युक्त्वा | <p><span class="SanskritText">साधयामस्तावदित्युक्त्वा प्रातिष्ठतोत्तंकस्ते कुंडले गृहीत्वा सोऽपश्यदथ पथि नग्नं क्षपणकमागच्छंतं मुहुर्मुहुर्दृश्यमानमदृश्यमानं च। (महाभारत परिच्छेद 3) | ||
</span> = <span class="HindiText">इसके अतिरिक्त भी | </span> = <span class="HindiText">इसके अतिरिक्त भी महापुराण अश्वमेघाधिकार में 49/5/पृष्ठ 6201 पर दिगंबरत्व व अस्नानत्व का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। तथा 46/18/पृष्ठ 6196 पर दिगंबर साधु सरीखी ही आहार विहार चर्या आदि संबंधी उल्लेख पाया जाता है। 5. इसके अतिरिक्त भी दिगंबरांनाय में कुंदकुंद प्रभृति आचार्यों कृत ईसवी पहिली शताब्दी के ग्रंथ उपलब्ध होते हैं, जबकि श्वेतांबरों के इतने प्राचीन ग्रंथ प्राप्त नहीं हैं।</span></p> | ||
<br/><p class="HindiText" id="9"><strong> | <br/><p class="HindiText" id="9"><strong>श्वेतांबर के अनुसार दिगंबर मत की उत्पत्ति</strong></p> | ||
<p class="HindiText">यह सारा विषय उत्तराध्ययन सूत्र/अध्याय 3/चूर्ण सूत्र 178 की श्री शांति सूरिकृत संस्कृत वृत्ति के तथा उसमें उद्धृत विविध आगमोक्त गाथाओं के आधार पर संकलित किया गया है।</p> | <p class="HindiText">यह सारा विषय उत्तराध्ययन सूत्र/अध्याय 3/चूर्ण सूत्र 178 की श्री शांति सूरिकृत संस्कृत वृत्ति के तथा उसमें उद्धृत विविध आगमोक्त गाथाओं के आधार पर संकलित किया गया है।</p> | ||
<p class="HindiText" id="9.1"><strong>1. द्विविध कल्प निर्देश</strong></p> | <p class="HindiText" id="9.1"><strong>1. द्विविध कल्प निर्देश</strong></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText">दिगंबर मत की उत्पत्ति से पूर्व दिगंबर व श्वेतांबर ऐसे दो संप्रदायों का नाम नहीं था, परंतु साधुओं के दो कल्प अवश्य थे - स्थविर कल्प व जिन कल्प, जिनके लक्षण व भेद निम्न प्रकार हैं।</p> | ||
<p><span class="SanskritText">उत्तराध्ययन टीका/ | <p><span class="SanskritText">उत्तराध्ययन टीका/पृष्ठ स्थविराश्च स्थिरीकरणकारिण:।(पृष्ठ 152)। य: स्याज्जिन इव प्रभु:। (पृष्ठ 179 पर उद्धृत श्लोक)। स च प्रथमसंहनन एव (टीका पृष्ठ 179)।</span> - <span class="HindiText">तात्पर्य यह कि - </span> </p> | ||
<table class="HindiText" border="1" cellpadding="0" cellspacing="0"> | <table class="HindiText" border="1" cellpadding="0" cellspacing="0"> | ||
<tr class="center"> | <tr class="center"> | ||
Line 88: | Line 92: | ||
<td>2</td> | <td>2</td> | ||
<td>अपवादानुसारी मृदु आचारवान्</td> | <td>अपवादानुसारी मृदु आचारवान्</td> | ||
<td> | <td>जिनेंद्र प्रभुवत् उत्सर्ग मार्गानुसारी कठोर आचारवान् ।</td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr class="center"> | <tr class="center"> | ||
<td>3</td> | <td>3</td> | ||
<td> | <td>मंदिर मठ आदि में ससंघ आवास</td> | ||
<td>एकाकी वन विहारी</td> | <td>एकाकी वन विहारी</td> | ||
</tr> | </tr> | ||
Line 122: | Line 126: | ||
</table> | </table> | ||
<p><span class="HindiText">इस प्रकार शक्तिकृत भेद के अतिरिक्त इनमें बाह्य वेषकृत कोई भेद नहीं होता। बाह्य वेष की अपेक्षा दोनों ही चार-चार प्रकार के होते हैं। यथा - </span> </p> | <p><span class="HindiText">इस प्रकार शक्तिकृत भेद के अतिरिक्त इनमें बाह्य वेषकृत कोई भेद नहीं होता। बाह्य वेष की अपेक्षा दोनों ही चार-चार प्रकार के होते हैं। यथा - </span> </p> | ||
<p><span class=" | <p><span class="GRef">उत्तराध्ययन/पृष्ठ 179 पर उद्धृत गाथा</span> <span class="PrakritText">- जिणकप्पिया व दुविहा पाणिपाया पडिग्गहधरा य। पाउरजमया उरणा एक्केक्का ते भवे दुविहा। य एतान् वर्जयेद्दोषान् धर्मोपकरणादृते। तस्य त्वग्रहणं युक्तं, य: स्याज्जिन इव प्रभु:। | ||
</span> = <span class="HindiText">जिनकल्पी साधु चार प्रकार के होते हैं - सवस्त्र पाणिपात्राहारी, अवस्त्र पाणिपात्राहारी, सवस्त्र पात्रधारी और अवस्त्र | </span> = <span class="HindiText">जिनकल्पी साधु चार प्रकार के होते हैं - सवस्त्र पाणिपात्राहारी, अवस्त्र पाणिपात्राहारी, सवस्त्र पात्रधारी और अवस्त्र परंतु पात्रधारी। जो आचार विषयक निम्न दोषों को बिना उपकरणों के ही टालने को समर्थ हैं, उनके लिए तो इनका न ग्रहण करना ही योग्य है, परंतु जो ऐसा करने को समर्थ नहीं वे उपकरण ग्रहण करते हैं।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="9.2"><strong>2. जिनकल्प का विच्छेद</strong></p> | <p class="HindiText" id="9.2"><strong>2. जिनकल्प का विच्छेद</strong></p> | ||
<p><span class=" | <p><span class="GRef">उत्तराध्ययन/टीका/पृष्ठ </span> <span class="SanskritText">एष व्युच्छिन्न:।(179)। न चेदानीं तदस्तीति...।(180)।</span> =<span class="HindiText">वीर निर्वाण के 62 वर्ष पश्चात् जंबू स्वामी के निर्वाण पर्यंत ही जिनकल्प की उपलब्धि होती थी। उसके पश्चात् इस काल में उत्तम संहनन आदि के अभाव के कारण उसकी व्युच्छित्ति हो गयी है।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="9.3"><strong>3. उपकरण व उनकी सार्थकता</strong></p> | <p class="HindiText" id="9.3"><strong>3. उपकरण व उनकी सार्थकता</strong></p> | ||
<p><span class=" | <p><span class="GRef">उत्तराध्ययन/पृ.179 पर उद्धृत</span> - <span class="SanskritText">जंतवो बहवस्संति दुर्दर्शा मांसचक्षुषाम् । तेभ्य: स्मृतं दयार्थं तु रजोहरणधारणम् ।1। संति संपातिया: सत्त्वा: सूक्ष्माश्च व्यापिनोऽपरे। तेषां रक्षानिमित्तं च विज्ञेया मुखवस्त्रिका।3। किंच - भवंति जंतवो यस्यान्नपानेषु केषुचित् । तस्मात्तेषां परीक्षार्थं पात्रग्रहणमिष्यते।4। अपरं च - सम्यक्त्वज्ञानशीलानि तपश्चेतीह सिद्धये। तेषामनुग्रहार्थाय स्मृतं चीवरधारणम् ।5। शीतवातातपैर्दंशमशकैश्चापि खेदित:। मा सम्यक्त्वादिषु ध्यानं न सम्यक् संविवास्यति।6। तस्य त्वग्रहणे युत् स्यात् क्षुद्रप्राणिविनाशनम् । ज्ञानाध्यानोपघातो वा महान् दोषस्तदैव तु।7।</span> =<span class="HindiText">बहुत से जंतु ऐसे होते हैं जो इन चर्मचक्षुओं से दिखाई नहीं देते। विहार शय्या आसन आदि रूप प्रवृत्तियों में उनकी रक्षा के अर्थ रजोहरण है। वायुमंडल में सर्वत्र ऐसे सूक्ष्म जीव व्याप्त हैं जो मुख में अथवा भोजन पान आदि में स्वत: पड़ते रहते हैं। उनकी रक्षा के लिए मुखवस्त्रिका है। बहुत संभव है कि भिक्षा में प्राप्त अन्न पान आदिक में कदाचित् कोई जंतु पड़े हों। अत: ठीक प्रकार से देख शोधकर खाने के लिए पात्रों का ग्रहण इष्ट है। इनके अतिरिक्त सम्यक्त्व, ज्ञान, शील व तप की सिद्धि के अर्थ वस्त्र ग्रहण की आज्ञा है, ताकि ऐसा न हो कि कहीं शीत वात आतप डांस व मक्खी आदि की बाधाओं से खेदित होने पर कोई इनमें ठीक प्रकार से ध्यान व उपयोग न रख सके। ये सभी पदार्थ बाह्याभ्यंतर संयम के उपकारी होने से उपकरण संज्ञा को प्राप्त होते हैं, जिनका ग्रहण न करने पर क्षुद्र प्राणियों का विनाश तथा ज्ञान ध्यान आदि का उपघात रूप महान् दोष प्राप्त होते हैं।</span></p> | ||
<p><span class=" | <p><span class="GRef">उत्तराध्ययन/टीका/पृष्ठ 179</span> <span class="SanskritText">धर्मोपकरणमेवैतत् न तु परिग्रहस्तथा।</span></p> | ||
<p><span class=" | <p><span class="GRef">दश वैकालिक सूत्र/अध्याय 6 गाथा 19</span><span class="PrakritText"> जं पि वत्थं य पायं वा, केवलं पायपुंछणं। तेऽपि संजमलज्जट्ठा, धारेंति परिहरंति य।</span>=<span class="HindiText">अर्थात् मूर्च्छारहित साधु के लिए ये सब धर्मोपकरण हैं न कि परिग्रह, क्योंकि मूर्च्छा को परिग्रह संज्ञा प्राप्त होती है वस्तु को नहीं। वस्त्र व पात्रादि इन उपकरणों को साधुजन संयम की रक्षार्थ तथा लज्जा निवारण के लिए धारण करते हैं, और उनके प्रति इतने आसक्त रहते हैं कि समय आने पर जीर्ण तृण की भाँति वे इनका त्याग भी कर देते हैं।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="9.4"><strong>4. | <p class="HindiText" id="9.4"><strong>4. दिगंबर मत प्रवर्तक शिवभूति का परिचय</strong></p> | ||
<p><span class=" | <p><span class="GRef">उत्तराध्ययन/चूर्ण सूत्र 164 का उपोद्घात/पृष्ठ 151</span> <span class="SanskritText">जमालिप्रभृतीनां निह्नवानां शिष्यास्तद्भक्तियुक्तितया स्वयमागमानुसारिमतयोऽपि गुरुप्रत्ययाद्विपरीतमर्थं प्रतिपन्न:।</span></p> | ||
<p><span class=" | <p><span class="GRef">उत्तराध्ययन/चूर्णसूत्र 178/पृ.179 पर उद्धृत</span> <span class="PrakritText">छव्वाससएहिं णवोत्तरेहिं सिद्धिंगयस्स वीरस्स। तो वोडियाण दिट्ठी रहवीपुरे समुप्पणा। | ||
</span> = <span class="HindiText"> | </span> = <span class="HindiText">श्वेतांबर आगम में यत्र तत्र जमालि आदि सात तथा शिवभूति नामक अष्टम निह्नवों का कथन अत्यंत प्रसिद्ध है। निह्नव संज्ञा को प्राप्त ये स्थविरकल्पी साधु तथा इनके शिष्य यद्यपि आगम के प्रति भक्ति युक्त होने के कारण स्वयं आगमानुसारी बुद्धि वाले होते हैं, परंतु गुरु आज्ञा से विपरीत अर्थ का प्रतिपादन करने के कारण संघ से बहिष्कृत कर दिये जाने पर स्वयं स्वच्छंद रूप से अपने-अपने मतों का प्रसार करते हैं, जिनसे विभिन्न संप्रदायों व मतमतांतरों की उत्पत्ति होती है। भगवान् वीर के निर्वाण होने के 609 वर्ष पश्चात् अर्थात् वि.सं.139 में 'रथवीपुर' नामक नगर में वोटिक (दिगंबर) मतवाला अष्टम निह्नव शिवभूति उत्पन्न हुआ।</span></p> | ||
<span class="GRef">उत्तराध्ययन/चूर्ण सूत्र 178/पृ.179-180 का भावार्थ</span> <br>- <p class="HindiText"> यह शिवभूति अपनी गृहस्थावस्था में अत्यंत स्वच्छंद वृत्ति वाला एक राजसेवक था, जिसने किसी समय राजा के एक शत्रु को जीतकर राजा को प्रसन्न किया और उपलक्ष्य में उससे नगर में स्वच्छंद घूमने की आज्ञा प्राप्त कर ली। वह रात्रि को भी इधर-उधर घूमता रहता था, जिसके कारण उसकी स्त्री व माता उससे तंग आ गयीं, और एक रात्रि को जब वह घर आया तो उन्होंने द्वार नहीं खोले। शिवभूति क्रुद्ध होकर उपाश्रय में चला गया और गुरु के मना करने पर भी 'खेलमल्लक' नामक किसी साधु से दीक्षा लेकर स्वयं केशलोंच कर लिया। कुछ काल पश्चात् ससंघ विहार करता हुआ जब वह पुन: इस नगर में आया तो राजा ने अपना प्रिय जान उसे एक रत्न कंबल भेंट किया। गुरु की आज्ञा के बिना भी उसने वह रत्न कंबल ग्रहण कर लिये और उसे गुरु से छिपाकर अपने पास रखता रहा। एक दिन जब वह भिक्षाचर्या के लिए उसकी पोटली में से वह कंबल निकाल लिया और बिना पूछे उसमें से फाड़कर साधुओं के पाँव पोंछने के आसन बना दिये। अत: शिवभूति भीतर ही भीतर गुरु के प्रति रुष्ट रहने लगा।</p> | |||
<p class="HindiText" id="9.5"><strong>5. शिवभूति से | <p class="HindiText" id="9.5"><strong>5. शिवभूति से दिगंबर मत की उत्पत्ति :</strong></p> | ||
<p><span class=" | <p><span class="GRef">उत्तराध्ययन/चूर्ण सूत्र 178/पृष्ठ 179</span> - <span class="PrakritText">इत्यादि सो (सिवभूइ) किं एस एवं ण कोरइ। तेहिं भणियं - एष व्युच्छिन्न:। मम न व्युच्छिद्यते इति स एव परलोकार्थिना कर्त्तव्य:।</span></p> | ||
<p><span class=" | <p><span class="GRef">उत्तराध्ययन/चूर्ण सूत्र 178/180</span> <span class="SanskritText">न चेदानीं तदस्तीत्यादिकया प्रागुक्तया च युक्त्योच्यमानोऽसौ कर्मोदयेन चीवरादिकं त्यक्त्वा गत:। ...तस्योत्तरा भगिनी, उद्याने स्थितं वंदिका गता, तं च दृष्ट्वा तयापि चीवरादिकं सर्वं त्यक्तं, तदा भिक्षायै प्रविष्टा गणिकया दृष्टा। मास्मासु लोको विरंक्षीत् इति उरसि तस्या: पोतिका बद्धा। सा नेच्छति, तेन भणितं - तिष्ठतु एषा तव देवता दत्ता। तेन च द्वौ शिष्यौ प्रवजितौ - कौंडिन्य: कोटिवीरश्च, तत: शिष्याणां परंपरा स्पर्शो जात:।' - ।</span></p> | ||
<p><span class=" | <p><span class="GRef">उत्तराध्ययन/चूर्णसूत्र 178/पृ.180 पर उद्धृत</span> - <span class="PrakritText">उहाए पण्णत्तं बोडियसिवभूइ उत्तरा हि इमं। मिच्छादंसणमिणमो रहवीपुरे समुप्पण्णं।1। बोडियसिवभूइओ बोडियलिंगस्स होई उप्पत्ती। कोडिण्णकोट्टवीरा परंपराफासमुप्पन्ना।2।</span> =<span class="HindiText">एक दिन गुरु जब पूर्वोक्त प्रकार जिनकल्प के स्वरूप का कथन कर रहे थे, तब शिवभूति ने उनसे पूछा कि किस कारण से अब आप साधुओं को जिनकल्प में दीक्षित नहीं करते हैं। 'वह मार्ग अब व्युच्छिन्न हो गया है', गुरु के ऐसा कहने पर वह बोला कि भले ही दूसरों के लिए व्युच्छिन्न हो गया हो, परंतु मेरे लिए वह व्युच्छिन्न नहीं हुआ है। सर्वथा निष्परिग्रही होने से परलोकार्थी के लिए वही ग्रहण करना कर्त्तव्य है। - हीन संहनन के कारण इस काल में वह संभव नहीं है, गुरु के पूर्वोक्त प्रकार ऐसा समझाने पर भी मिथ्यात्व कर्मोदयवश उसने गुरु की बात स्वीकार नहीं की, और वस्त्र त्यागकर अकेला वन में चला गया। उसके पीछे उसकी बहन भी उसकी वंदनार्थ उद्यान में गयी और उसे देखकर वस्त्र त्याग नग्न हो गयी। एक दिन जब वह भिक्षार्थ नगर में प्रवेश कर रही थी, तो एक गणिका ने उसे एक साड़ी पहना दी, जिसे देवता प्रदत्त कहकर शिवभूति ने ग्रहण करने की आज्ञा दे दी। शिवभूति ने कौडिन्य व कोटिवीर नामक दो शिष्यों को दीक्षा दी जिनकी परंपरा में ही यह वोटिक या दिगंबर संप्रदाय उत्पन्न हुआ है।</span></p> | ||
<br/><p class="HindiText" id="10"><strong>ढूंढिया पंथ</strong></p> | <br/><p class="HindiText" id="10"><strong>ढूंढिया पंथ</strong></p> | ||
<p class="HindiText" id="10.1"><strong>1. | <p class="HindiText" id="10.1"><strong>1. दिगंबर के अनुसार उत्पत्ति :</strong></p> | ||
<p><span class="HindiText">कुछ काल पश्चात् इसी | <p><span class="HindiText">कुछ काल पश्चात् इसी श्वेतांबर संघ में से ढूंढिया पंथ अपरनाम स्थानकवासी मत की उत्पत्ति हुई। यथा - </span> </p> | ||
<p><span class=" | <p><span class="GRef">भद्रबाहु चरित्र/4/157/161</span> <span class="SanskritText">मृते विक्रमभूपाले सप्तविंशतिसंयुते। दशपंचशतेऽब्दानामतीते शृणुतापरम् ।157। लुंकामतमभूदेकं लोपकं धर्मकर्मण:। देशेऽत्र गौर्जरे ख्याते विद्वत्ताजितनिर्जरे।158। अणहिल्लपत्तने रम्ये प्राग्वाटकुलजोऽभवत् । लुंकाऽभिधो महामानी श्वेतांशुकमहाश्रयी।159। दुष्टात्मा दुष्टभावेन कुपति: पापमंडित:। तीव्रमिथ्यात्वपाकेन लुंकामतमकल्पयत् ।160। तन्मतेऽपि च भूयांसो मतभेदा: समाश्रिता:।161।</span>=<span class="HindiText">विक्रम की मृत्यु के 1527 वर्ष बाद धर्म कर्म का सर्वथा नाश करने वाला एक लुंकामत (ढूंढिया मत) प्रगट हुआ। इसी की विशेष व्याख्या यों है कि - गुर्जर देश (गुजरात) कुल में एक अणहिल नाम का नगर है। उसमें प्राग्वाट (कुलंबी) कुल में लुंका नाम का धारक एक श्वेतांबरी हुआ है। उस दुष्ट आत्मा ने कुपित होकर तीव्र मिथ्यात्व के उदय से खोटे परिणामों के द्वारा लुंकामत चलाया। उनमें भी पीछे अनेक भेद हो गये।</span></p> | ||
<p><span class=" | <p><span class="GRef"> दर्शनपाहुड़/ टीका/11/11/12 </span><span class="SanskritText">तन्मध्ये श्वेतांबराभासा उत्पन्ना:।</span> =<span class="HindiText">उनमें से (श्वेतांबरियों में से) ही श्वेतांबराभास (ढूंढिया मत) उत्पन्न हुआ।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="10.2"><strong>2. | <p class="HindiText" id="10.2"><strong>2. श्वेतांबरायांनाय के अनुसार उत्पत्ति :</strong></p> | ||
<p class="HindiText">विक्रम सं.1472 में इस मत के संस्थापक लोंकाशाह का जन्म हुआ। यह व्यक्ति अहमदाबाद में | <p class="HindiText">विक्रम सं.1472 में इस मत के संस्थापक लोंकाशाह का जन्म हुआ। यह व्यक्ति अहमदाबाद में ग्रंथ लिखने का व्यवसाय करता था। एक बार एक ग्रंथ लिखने की उजरत के विषय में किसी यति से उसकी कहा सुनी हो गयी, जिसके कारण उसने मूर्तिपूजा को तथा कुछ आचार विचारों को आगम विरुद्ध बताकर एक स्वतंत्र मत का प्रचार करना प्रारंभ कर दिया उसने 22 शिष्यों को दीक्षित किया, जिनकी परंपरा में 'लोंकागच्छ' की उत्पत्ति हुई। पीछे इसमें भी अनेकों भेद प्रभेद उत्पन्न हो गये।</p> | ||
<p class="HindiText">सूरत के एक साधु ने इस लोंकामत के भी कुछ सुधार करके 'ढूंढिया' नामक एक नये | <p class="HindiText">सूरत के एक साधु ने इस लोंकामत के भी कुछ सुधार करके 'ढूंढिया' नामक एक नये संप्रदाय को जन्म दिया, जिससे कि पूर्ववर्ती भी सभी लोंकानुयायी ढूंढिया नाम से प्रसिद्ध हो गये। स्थानकों में रहने के कारण इसके साधु स्थानकवासी कहलाते हैं। इसी संप्रदाय में आचार्य भिक्षु ने तेरहपंथ की स्थापना की।</p> | ||
<p class="HindiText" id="10.3"><strong>3. स्वरूप</strong></p> | <p class="HindiText" id="10.3"><strong>3. स्वरूप</strong></p> | ||
<p><span class=" | <p><span class="GRef">भद्रबाहु चरित्र/4/161</span> <span class="SanskritText">सुरेंद्रार्चां जिनेंद्रार्चां तत्पूजां दानमुत्तमम् । समुत्थाप्य स पापात्मा प्रतापो जिनसूत्रवत:।161।</span> =<span class="HindiText">जिन सूर्य से प्रतिकूल होकर, देवताओं से भी पूजनीय जिन प्रतिमा की पूजा दानादि सब कर्मों का उत्थापन करके वह पापात्मा जिन भगवान् के व्रतों से प्रतिकूल हो गया।</span></p> | ||
<p><span class=" | <p><span class="GRef"> दर्शनपाहुड़/ टीका /11/11/12</span><span class="SanskritText"> तन्मध्ये श्वेतांबराभासा उत्पन्नास्ते त्वतीव पापिष्ठा: देवपूजादिकं किल पापकर्मेदमिति कथयंति, मंडलवत्सर्वत्र भांडप्रक्षालनोदकं पिबंति इत्यादि, बहुदोषवंत:।</span> =<span class="HindiText">उन (श्वेतांबरों) में से श्वेतांबराभासी (ढूंढिया मत) उत्पन्न हुए। वे तीव्र पापिष्ठ होकर देव पूजादिक को भी पापकर्म बताने लगे। मंडल मत की भाँति बर्तनों के धोवन का पानी पीने लगे। इस प्रकार बहुत दोषवंत हो गये।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong>नोट</strong> - यह | <p class="HindiText"><strong>नोट</strong> - यह संप्रदाय श्वेतांबर मान्य आगम सूत्रों में से 32 को मान्य करता है। परंतु श्वेतांबराचार्यों कृत उनकी टीकाएँ इसे मान्य नहीं हैं।</p> | ||
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Latest revision as of 22:36, 17 November 2023
दिगंबर मान्यता के अनुसार भगवान् वीर के पश्चात् मूल संघ दिगंबर ही था। पीछे कुछ शिथिलाचारी साधुओं ने श्वेतांबर संघ की स्थापना की। श्वेतांबर मान्यता के अनुसार जिन कल्प व स्थविर कल्प दोनों ही प्रकार के संघ विद्यमान थे। जंबू स्वामी के पश्चात् काल प्रभाव से जिनकल्प का विच्छेद हो गया और स्थविर कल्प ही शेष रह गया। पीछे शिवभूति नामक एक साधु जिनकल्प के पुनरावर्तन के उद्देश्य से नग्न हो गया। उसके द्वारा ही दिगंबर मत का प्रचार हुआ। श्वेतांबर में से ढूंढिया मत की उत्पत्ति के विषय में दोनों ही संप्रदाय सहमत हैं।
- श्वेतांबर मत का स्वरूप।
- दिगंबर के अनुसार श्वेतांबर मत की उत्पत्ति।
- अर्ध फालक संघ की उत्पत्ति।
- श्वेतांबरों के विविध गच्छ।
- अर्ध फालक व श्वेतांबर विषयक समन्वय।
- प्रवर्तकों विषयक समन्वय।
- उत्पत्तिकाल विषयक समन्वय।
- दिगंबर मत की प्राचीनता
- श्वेतांबर के अनुसार दिगंबर मत की उत्पत्ति।
- ढूंढिया पंथ।
श्वेतांबर मत का स्वरूप
सर्वार्थसिद्धि/8/1/5सग्रंथ: निर्ग्रंथ:। केवली कवलाहारी। स्त्री सिध्यति। एवमित्यादि विपर्यय:। = सग्रंथ को निर्ग्रंथ मानना, केवली को कवलाहारी मानना और स्त्री सिद्ध होती है इत्यादि मानना विपरीत मिथ्यादर्शन है। ( राजवार्तिक/8/1/28/564/20 ), ( तत्त्वसार/5/6 )।
दर्शनसार/ मूल/13-14 तेणकियं मयमेयं इत्थीणं अत्थि तब्भवे मोक्खो। केवलणाणीण पुण अण्णक्खाण तहा रोगो।13। अंबरसहिओ वि जई सिज्झई वीरस्स गब्भचारत्तं। परलिंगे विय मुत्ते फासुयभोज्जं च सव्वत्था।14। =उसने (आचार्य जिनचंद्र ने) यह मत चलाया कि स्त्रियों को तद्भव में मोक्ष प्राप्त हो सकता है। केवलज्ञानी भोजन करते हैं तथा उन्हें रोग भी होता है।13। वस्त्रधारी तथा अन्य लिंग वाले भी मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। भगवान् वीर के गर्भ का संचार हुआ था। अर्थात् पहले एक ब्राह्मणी के गर्भ में आये और पीछे क्षत्रियाणी के गर्भ में चले गये। मुनिजन किसी के घर भी प्रासुक भोजन कर सकते हैं।
दर्शनपाहुड़/ टीका /11/11/11 श्वेतवासस: सर्वत्र भोजनं गृह्णंति, प्रासुकं मांसभक्षिणां गृहे दोषो नास्तीति वर्णलोप: कृत:। = श्वेतांबर साधु सर्वत्र भोजन करना उचित मानते हैं। उनकी समझ में मांस भक्षकों के यहाँ भी प्रासुक भोजन करने में दोष नहीं है।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/16 इंद्र: श्वेतांबरगुरु: तदादय: संशयितमिथ्यादृष्टय:। = इंद्र श्वेतांबरों का गुरु था। उनको आदि लेकर संशयित मिथ्यादृष्टि हैं।
दर्शनसार/ प्रस्तावना /50 प्रेमीजी
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दर्शनसार ग्रंथ में तथा गोम्मटसार की टीका में जो श्वेतांबरों की गणना सांशयिक मिथ्यादृष्टियों में की सो ठीक नहीं है। वास्तव में उनकी गणना विपरीत मत में हो सकती है ऐसा उपरोक्त सर्वार्थसिद्धि के उद्धरण से स्पष्ट है।
दिगंबर के अनुसार श्वेतांबर मत की उत्पत्ति
दिगंबर मत के अनुसार श्वेतांबर मत की उत्पत्ति कैसे हुई, उसके संबंध में ही नीचे दो कथाएँ दी जाती हैं। -
दर्शनसार/ मूल/11-12 एक्कसए छत्तीसे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स। सोरट्ठे बलहीए उप्पण्णो सेवडो संघी।11। सिरि भद्दबाहुगणिनो सीसो णामेण संति आइरिओ। तस्स य सीसो दुट्ठो जिणचंदो मंदचारित्तो।12। तेण कियं मयमेयं...।13। = इसी बात को और भी विस्तृत रूप से इन्हीं देवसेनाचार्य ने अपने भावसंग्रह नामक ग्रंथ में एक कथा के रूप में दिया है। उसका संक्षिप्त सार निम्न है -
भावसंग्रह/52-75
विक्रम संवत् 136 में सौराष्ट्र देश के वल्लभीपुर नगर में श्वेतांबर संघ उत्पन्न हुआ। इस संघ के प्रवर्तक भद्रबाहु गणी जी एक निमित्तज्ञानी थे (पंचम श्रुतकेवली से भिन्न थे) उनके शिष्य शांत्याचार्य, तथा उनके भी शिष्य जिनचंद्र थे। उज्जैनी नगरी में 12 वर्षीय दुर्भिक्ष के संबंध में आचार्य भद्रबाहु को भविष्यवाणी सुनकर सर्व आचार्य अपने-अपने संघ को लेकर वहाँ से विहार कर गये।53-55। भद्रबाहु के शिष्य शांति नाम के आचार्य सौराष्ट्र देश के वल्लभीपुर नगर में आये।56। परंतु वहाँ भी भारी दुष्काल पड़ा।57। परिस्थितिवश सिंह वृत्ति छोड़कर साधुओं ने वस्त्र, पात्र आदि धारण कर लिये और वसतिका में से भोजन माँगकर लाने लगे।58-59। दुर्भिक्ष समाप्त हो जाने पर जब शांत्याचार्य ने पुन: उन्हें शुद्ध चारित्र पालने का आदेश दिया तो उनके शिष्य जिनचंद्र ने उन्हें जान से मार दिया और स्वयं संघ नायक बन गया।60-69। शांत्याचार्य मरकर व्यंतर हुआ और संघ पर उपद्रव करने लगा, जिसे शांत करने के लिए जिनचंद्र ने उसकी एक कुलदेवता के रूप में पूजा प्रचलित कर दी। जो आज तक श्वेतांबर संप्रदाय में चली आ रही है।70-75।
अर्धफालक संघ की उत्पत्ति
भद्रबाहु चरित्र/तृतीय परिच्छेद
- बिलकुल उपरोक्त प्रकार की कथा कुछ उचित परिवर्तनों के साथ भट्टारक श्री रत्ननंदि ने भद्रबाहु चरित्र में दी है। उसका सारांश यह है कि - पंचम श्रुतकेवली श्री भद्रबाहु स्वामी के मुख से उज्जैनी में पड़ने वाले 12 वर्षीय दुर्भिक्ष के संबंध में सुनकर भी तथा अन्य संघों के दक्षिण की ओर विहार कर जाने पर भी रामल्य, स्थूलभद्र व स्थूलाचार्य नाम के आचार्यों ने जाना स्वीकार न किया। दुर्भिक्ष पड़ा और परिस्थिति वश उन्होंने कुछ शिथिलाचार अपना लिये। वे लोग पात्र ग्रहण करके भोजन माँगने के लिए वसतिका में जाने लगे और अपनी नग्नता को उतने समय छिपाने के लिए, एक वस्त्र का टुकड़ा भी अपने पास रखने लगे, जिसे वसतिका में जाते समय वे अपने आगे ढँक लेते थे और लौटने पर पृथक् कर देते थे। इस कारण इस संघ का नाम अर्धफालक पड़ गया तत्पश्चात् सुभिक्ष हो जाने पर जब दक्षिण से वह मूल संघ लौट आया तब स्थूलाचार्य ने अपने संघ से पुन: पहला मार्ग अपनाने को कहा। संघ ने उन्हें जान से मार दिया। वे व्यंतर हो गये और संघ पर उपद्रव करने लगे, जिसे शांत करने के लिए संघ ने उनकी अपने कुलदेवता के रूप में पूजा करनी प्रारंभ कर दी। 450 वर्ष तक यह संघ इसी अर्धफाल के रूप में घूमता रहा। तत्पश्चात् वि.सं.136 में सौराष्ट्र देश की वल्लभीपुरी नगरी को प्राप्त हुआ। उस समय इस संघ के आचार्य जिनचंद्र थे। वल्लभीपुर नरेश की रानी उज्जैनी नरेश की पुत्री थी। उज्जैनी में रहते उसने इन्हीं साधुओं के पास विद्याध्ययन किया था। अत: विनयपूर्वक अपने यहाँ बुलाने की इच्छा करने लगी। परंतु राजा को उनका वह वेष पसंद न था, अत: उसने उन साधुओं के पास कुछ वस्त्र भेज दिये, जिसे जिनचंद्र ने राजा व रानी की प्रसन्नता के अर्थ ग्रहण करने की आज्ञा दे दी। बस तभी इस संघ का नाम श्वेतांबर पड़ गया।
हरिषेण कृत कथा कोष/58-59/पृष्ठ 318 यावन्न शोभन: काल: जायते साधव: स्फुटम् । तावच्च वामहस्तेन पुर: कृत्वाऽर्धफालकम् ।58। भिक्षापात्रं समादाय दक्षिणेन करेण च। गृहीत्वा नक्तमाहारं कुरुध्वं भोजनं दिने।59। =12 वर्षीय दुर्भिक्ष के समय 12000 साधुओं के साथ श्रुतकेवली भद्रबाहु और विशाखाचार्य (चंद्रगुप्त) दक्षिणपथ को चले गए और अपने संघ को यह आदेश दिया कि जब तक सुभिक्ष न हो जाये तब तक साधुओं को चाहिए कि वे अपना बायाँ हाथ आगे करके उस पर एक अर्धफालक (कपड़े का टुकड़ा) लटका लें। तथा दायें हाथ से भिक्षा द्वारा आहार ग्रहण करके, उसे दिन के समय अपनी वसतिका में बैठकर खा लें।
श्वेतांबरों के विविध गच्छ
श्वेतांबरों में विविध गच्छ प्रसिद्ध हैं, यथा - चैत्यवासी गच्छ, उपकेशगच्छ, खरतरगच्छ, तपागच्छ, पार्श्वचंद्रगच्छ, सार्धपौर्णमीयक गच्छ, आंचलिक गच्छ, आगमिक गच्छ आदि। इनमें से आज खरतर, तथा आंचलिक गच्छ ही उपलब्ध होते हैं। प्रत्येक गच्छ की समाचारी जुदी है तथा उनके श्रावकों की सामायिक प्रतिक्रमण आदि विषयक विधियाँ भी जुदी हैं। कोई कल्याणक के दिन छह मानता है तो कोई पाँच। कोई पर्युषण का अंतिम दिन भाद्रपद शुक्ल 4 मानता है और कोई भाद्रपद शुक्ल 5।
'धर्मसागर' कृत पट्टावली के अनुसार वि.नि.882 में चैत्यवास प्रारंभ हुआ। 'जिनवल्लभ सूरि' कृत संघपट्ट की भूमिका में भी चैत्यवास का कुछ इतिहास उल्लिखित है। अनेकांत वर्ष 3 अंक 8-9 के 'यति समाज' शीर्षक में श्री अगरचंद नाहटा ने श्वेतांबर चैत्यवासियों पर विस्तृत प्रकाश डाला है।
अणहिलपुर पट्टण राजा दुर्लभदेव की सभा में वर्द्धमान सूरि के शिष्य जिनेश्वर सूरि द्वारा परास्त हो जाने पर यह चैत्यवासी गच्छ ही खरतर नाम से पुकारा जाने लगा।
वि.सं.1285 में भी जगच्चंद्र सूरि के उग्र तप से प्रभावित होकर मेवाड़ के राजा ने उसके गच्छ को 'तपा गच्छ' नाम प्रदान किया।
मुख पट्टी के बदले अंचलका अर्थात् वस्त्र के छोर का उपयोग किया जाने के कारण 'आंचलिक गच्छ' प्रसिद्ध हुआ है।
अर्धफालक व श्वेतांबर विषयक समन्वय
दर्शनसार/ प्रस्तावना /60 प्रेमी जी
- अब इस बात पर विचार करना है कि भावसंग्रह की कथा में (भद्रबाहु चरित्र के कर्ता ने) इतना परिवर्तन क्यों किया। हमारी समझ में इसका कारण भद्रबाहु का और श्वेतांबर संप्रदाय की उत्पत्ति का समय है। भाव संग्रह के कर्ता ने तो भद्रबाहु को केवल निमित्तज्ञानी लिखा है, पर रत्ननंदि उन्हें (श्रुतावतार के अनुसार) पंचम श्रुतकेवली लिखते हैं। दिगंबर ग्रंथों के अनुसार श्रुतकेवली का शरीरांत वीर निर्वाण सम्वत् 162 में हुआ है। (देखें इतिहास - 4.1 और श्वेतांबरों की उत्पत्ति वीर निर्वाण सम्वत् 606) (वि.136) में बतायी गयी है। दोनों के बीच में इस 450 वर्ष के अंतर को पूरा करने के लिए ही रत्ननंदि ने श्वेतांबर से पहले अर्धफालक उत्पन्न होने की कल्पना की है। दूसरे श्वेतांबर मत जिनचंद्र के द्वार वल्लभीपुर में प्रगट हुआ था, अतएव यह आवश्यक हुआ कि दुर्भिक्ष के समय जो मत प्रगट हुआ था उसका स्थान व प्रवर्तक इससे भिन्न बताया जाये। इसलिए अर्धफालक की उत्पत्ति उज्जैनी में बतायी गयी और इसके प्रवर्तक आचार्य का नाम भी स्थूलभद्र रखा, जो कि श्वेतांबर आम्नाय में अति प्रसिद्ध है। उज्जैनी नगरी में वीर निर्वाण सम्वत् 162 में उत्पन्न होने के पश्चात् वह संघ अर्धफालक के रूप में 450 वर्ष तक विहार करता रहा। अर्धफालक संघ वाले साधु जब वस्तिका में भोजन लेने जाते थे, तो एक वस्त्र के टुकड़े को वे अपनी बायीं भुजा पर लटका कर रखते थे, जिससे उनकी नग्नता छिप जायें। चर्या से लौटने पर उस वस्त्र को पुन: पृथक् करके वे दिगंबर हो जाते थे। यही संघ कालयोग से वीर निर्वाण सम्वत् 606 में वल्लभीपुरी में प्राप्त हुआ। उस समय उस संघ का आचार्य जिनचंद्र था, जिसने उपरोक्त कथनानुसार इसे श्वेतांबर के रूप में प्रवर्तित कर दिया। इस प्रकार इसकी संगति भद्रबाहु श्रुतकेवली तथा 12 वर्षीय दुर्भिक्ष के साथ भी बैठ जाती है। श्वेतांबरों के आदि गुरु स्थूलभद्र के साथ वल्लभीपुर के साथ भावसंग्रह व दर्शनसार के अनुसार जिनचंद्र के साथ व वीर निर्वाण सम्वत् 606 के साथ भी बैठ जाती है। यद्यपि प्रेमी जी रत्ननंदि भट्टारक की इस कल्पना को निर्मूल बताते हैं, और कहते हैं कि अर्धफालक नाम का कोई भी संप्रदाय नहीं हुआ ( दर्शनसार/ प्रस्तावना /61) परंतु उनका ऐसा कहना योग्य नहीं, क्योंकि मथुरा के कंगाली टीले से उपलब्ध कुशन कालीन (ई.240-320 वीर निर्वाण सम्वत्567-847) कुछ प्राचीन आयाग पट्ट मिले हैं। जिनको पुरातत्त्व विभाग ने अर्धफालक मत का सिद्ध किया है। क्योंकि उनमें कुछ नग्न साधु अपने बायें हाथ पर एक कपड़ा डाल कर उस कपड़े के द्वारा अपनी नग्नता छिपाते दिखाये गये हैं। वे साधु कपड़ा तो अपने बायें हाथ पर लटकाये हैं और कमंडल या भिक्षापात्र अपने दाहिने हाथ में लिये हुए हैं। (भद्रबाहु चरित्र/प्र.उदयलाल) Dr.Buhler in Indian antiquity. Vol 2, Page 13G At his (Nemisha's) left knee stands a small nacked male characterised by the cloth in his left hand as an ascetic with uplifted right hand.
अर्थात् उसके बायीं ओर एक छोटी-सी नग्न पुरुषाकृति है जिसके बायें हाथ पर एक कपड़ा है और एक साधु के रूप में उसका दायाँ हाथ ऊपर को उठा हुआ है। जैन सिद्धांत भास्कर भाग 10 खंड 2 पृ.80 के फुटनोट में डॉ.वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार पट्ट में नीचे एक स्त्री और उसके सामने एक नग्न श्रमण अंकित है। वह एक हाथ में सम्मार्जिनी और बायें हाथ में कपड़ा लिये हुए है। शेष शरीर नग्न है।
भद्रबाहु चरित्र/प्रस्तावना- उदयलाल -
आगे चलकर वि.136 (वीर निर्वाण सम्वत् 606) में वह प्रगट रूप से श्वेतांबर संप्रदाय में प्रवर्तित हो गया। प्रारंभ में उसका उल्लेख 'निर्ग्रंथ श्वेतपट्ट महाश्रमण संघ' के नाम से होता था। उपरांत वही श्वेतांबर कहलाया। इसी प्रकार दिगंबर संप्रदाय भी पहले 'निर्ग्रंथ श्रमण संघ' के नाम से पुकारा जाता था। उपरांत वह दिग्वास और फिर दिगंबर कहलाने लगा।
प्रवर्तकों विषयक समन्वय
दिगंबर ग्रंथ दर्शनसार के अनुसार श्वेतांबर संप्रदाय के प्रवर्तक शांत्याचार्य के शिष्य तथा भद्रबाहु प्रथम (पंचम श्रुतकेवली) के प्रशिष्य जिनचंद्र थे। नंदी संघ की गुर्वावली के अनुसार जिनचंद्र भद्रबाहु द्वि.के प्रशिष्य थे प्रथम के नहीं। ये कुंदकुंद के गुरु थे। (देखें इतिहास - 7.2) परंतु श्वेतांबर ग्रंथों में इस नाम के आचार्यों का कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता। दूसरी तरफ श्वेतांबर आम्नाय के अनुसार दिगंबर संप्रदाय के प्रवर्तक शिवभूति या सहस्रमल को बताया है, परंतु दिगंबर ग्रंथों में इस नाम के आचार्यों का कहीं पता नहीं चलता। भद्रबाहु चरित्र के कर्ता रत्ननंदि 'रामल्य' व स्थूलभद्र को इसका प्रवर्तक बताते हैं। इंद्र: श्वेतांबरगुरु: तदादाय; संशयमिथ्यादृष्टय: ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/16 ) में टीकाकार ने श्वेतांबर संप्रदाय का प्रवर्तक 'इंद्र' नाम के आचार्य को बताया है। प्रेमी जी को गोम्मटसार के टीकाकार का मत इष्ट है ( दर्शनसार/ प्रस्तावना 60 प्रेमी जी)।
उत्पत्ति काल विषयक समन्वय
दर्शनसार/प्रस्तावना 60/प्रेमीजी
- दिगंबर व श्वेतांबर संप्रदाय कब हुए यह विषय बहुत ही गहरी अंधेरी में छिपा हुआ है। श्रुतावतार में बतायी गयी गुर्वावली में गौतम से लेकर जंबू स्वामी तक की परंपरा दोनों ही संप्रदाय को जूँ की तूँ मान्य है। इससे आगे के 5 श्रुतकेवलियों के नाम दिगंबर संप्रदाय में कुछ और श्वेतांबर संप्रदाय में कुछ और है। परंतु भद्रबाहु को अवश्य दोनों स्वीकार करते हैं। इससे पता चलता है कि भद्रबाहु के पश्चात् ही दोनों जुदा जुदा हो गये हैं। दूसरी बात यह भी है कि श्वेतांबर मान्य सूत्र ग्रंथों की रचना का काल वीर निर्वाण सम्वत् 980 वि.सं.510 के लगभग है। उस समय वे वल्लभीपुर में देवर्धिगणी क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में परिस्थिति वश संगृहीत किये गये थे। श्वेतांबरों के अनुसार संकलन का यह कार्य क्योंकि वि.श.2 में किया गया था इसलिए उसकी उत्पत्ति का काल वि.136 भी माना जा सकता है। संघ की स्थापना के तुरंत पश्चात् अपनी मान्यताओं को वैध सिद्ध करने के लिये सूत्र संग्रह का विचार बहुत संगत है।
[दिगंबराचार्य श्वेतांबरों की उत्पत्ति वि.सं.136 (वीर निर्वाण सम्वत् 606) में बता रहे हैं और श्वेतांबराचार्य दिगंबरों की उत्पत्ति वि.सं.139 (वीर निर्वाण सम्वत् 609) में बता रहे हैं। 12 वर्षीय दुर्भिक्ष जो कि संघ विभेद में प्रधान निमित्त है वीर निर्वाण सम्वत् 606 (वि.सं.136) में पड़ा था। इन सब बातों को देखते हुए भद्रबाहु चरित्र की मान्यता कुछ युक्त जँचती है, कि वि.पू.330 में अर्धफालक संघ उत्पन्न हुआ, और धीरे-धीरे वि.सं.136 में श्वेतांबर के रूप में परिवर्तित हो गया। श्वेतांबर ग्रंथों में दिगंबर मत की उत्पत्ति भी उसी समय (वि.139) में बतायी जाना भी इसी बात की सिद्धि करता है कि वि.सं.136 में ही वह उतपन्न हुआ था। अपने उत्पन्न होते ही उन्हें अपने को मूलसंघी सिद्ध करने के लिए दिगंबर की उत्पत्ति के संबंध में यह कथा गढ़नी पड़ी होगी। इसके अतिरिक्त भी दिगंबर मत की प्राचीनता निम्न में दिये गये प्रमाणों से सिद्ध होती है।]
दिगंबर मत की प्राचीनता
1. श्वेतांबर मान्य कथा को स्वीकार कर लें तो शिवभूति ने जिनकल्प (दिगंबर मत) को स्वीकार किया था, उसका कारण इसके अतिरिक्त और क्या हो सकता है कि जिनकल्पी मार्ग से भ्रष्ट साधुओं में फिर से जिनकल्प (दिगंबरता) का प्रचार किया जाये। कथा के अनुसार शिवभूति गुरु के मुख से जिनकल्प का उपदेश सुनकर उसे धारण करने में निश्चलप्रतिज्ञ हुए थे। इससे पता चलता है कि शिवभूति से पहले भी जिनकल्प अवश्य था जो इस समय शिथिल हो चुका था। 2. श्वेतांबर ग्रंथों में ऐसा उल्लेख पाया जाता है - संयमो जिनकल्पस्य दु साध्योऽयं ततोऽधुना। व्रतं स्थविरकल्पस्य तस्मादस्माभिराश्रितम् । तथा - दुर्धरो मूलमार्गोऽयं न धर्त्तुं शक्यते तत:। इस उद्धरण से स्पष्ट कहा गया है कि जिनकल्प ही मूलमार्ग है, परंतु काल की करालता के कारण आज उसका धारण किया जाना शक्य नहीं है। इसीलिए हमने स्थिरकल्पना का आश्रय लिया है। इधर तो श्वेतांबराचार्य ऐसा लिखते हैं दूसरी तरफ दिगंबराचार्य क्या कहते हैं -
रत्नकरंड श्रावकाचार/10 विषयाशावशातीतो निरारंभोऽपरिग्रह:। ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते।10। = जो विषयों की आशा के वश न हो और परिग्रह से रहित तथा ज्ञान-ध्यान-तप में लवलीन हो वह तपस्वी गुरु प्रशंसनीय है। 3. इसके अतिरिक्त विक्रमादित्य की सभा में नवरत्नों में से वराहमिहिर भी नग्न साधुओं का उल्लेख करते देखे जाते हैं -
विष्णोर्भागवतामयश्च सवितुर्विप्रा विदुर्ब्राह्मण: मातृणामिति मातृमंडलविद; शंभो: सभस्माद्द्विज:।। शाक्या: सर्वहिताय शांतमनसो नग्ना जिनानां विदुर्ये यं देवमुपाश्रिता: स्वविधिना ते तस्य कुर्यु: क्रियाम् । = भाव यह है कि वैष्णव लोग विष्णु की प्रतिष्ठा करें, सूर्योपजीवी लोग सूर्य की उपासना करें; विप्र लोग ब्रह्मा की करें; ब्रह्माणी व इंद्राणी प्रभृति सप्त मातृमंडल की उनके मानने वाले अर्चा करें, बौद्ध लोग बुद्ध की प्रतिष्ठा करें, नग्न (दिगंबर साधु) लोग जिन भगवान् की पर्युपासना करें। थोड़े शब्दों में यों कहिए कि जिस-जिस देव के जो उपासक हैं वे उस उसकी अपनी-अपनी विधि से उपासना करें। 4. महाभारत जो कि वेदव्यास जी द्वारा ईसवी पूर्व बहुत प्राचीन काल में रचा गया था, वह भी दिगंबर मत का उल्लेख करता है। यथा -
साधयामस्तावदित्युक्त्वा प्रातिष्ठतोत्तंकस्ते कुंडले गृहीत्वा सोऽपश्यदथ पथि नग्नं क्षपणकमागच्छंतं मुहुर्मुहुर्दृश्यमानमदृश्यमानं च। (महाभारत परिच्छेद 3) = इसके अतिरिक्त भी महापुराण अश्वमेघाधिकार में 49/5/पृष्ठ 6201 पर दिगंबरत्व व अस्नानत्व का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। तथा 46/18/पृष्ठ 6196 पर दिगंबर साधु सरीखी ही आहार विहार चर्या आदि संबंधी उल्लेख पाया जाता है। 5. इसके अतिरिक्त भी दिगंबरांनाय में कुंदकुंद प्रभृति आचार्यों कृत ईसवी पहिली शताब्दी के ग्रंथ उपलब्ध होते हैं, जबकि श्वेतांबरों के इतने प्राचीन ग्रंथ प्राप्त नहीं हैं।
श्वेतांबर के अनुसार दिगंबर मत की उत्पत्ति
यह सारा विषय उत्तराध्ययन सूत्र/अध्याय 3/चूर्ण सूत्र 178 की श्री शांति सूरिकृत संस्कृत वृत्ति के तथा उसमें उद्धृत विविध आगमोक्त गाथाओं के आधार पर संकलित किया गया है।
1. द्विविध कल्प निर्देश
दिगंबर मत की उत्पत्ति से पूर्व दिगंबर व श्वेतांबर ऐसे दो संप्रदायों का नाम नहीं था, परंतु साधुओं के दो कल्प अवश्य थे - स्थविर कल्प व जिन कल्प, जिनके लक्षण व भेद निम्न प्रकार हैं।
उत्तराध्ययन टीका/पृष्ठ स्थविराश्च स्थिरीकरणकारिण:।(पृष्ठ 152)। य: स्याज्जिन इव प्रभु:। (पृष्ठ 179 पर उद्धृत श्लोक)। स च प्रथमसंहनन एव (टीका पृष्ठ 179)। - तात्पर्य यह कि -
विकल्प | स्थविर कल्प | जिन कल्प |
1 | हीन संहननधारी | उत्तम संहननधारी |
2 | अपवादानुसारी मृदु आचारवान् | जिनेंद्र प्रभुवत् उत्सर्ग मार्गानुसारी कठोर आचारवान् । |
3 | मंदिर मठ आदि में ससंघ आवास | एकाकी वन विहारी |
4 | श्रावकों के भोजन काल में भिक्षावृत्ति | श्रावकजन खा पीकर निवृत्त हो चुकें ऐसे तीसरे पहर में भिक्षा वृत्ति। बचा खुचा मिला तो ले लिया अन्यथा उपवास किया। |
5 | रोग आदि होने पर उसका उपचार करते हैं | उपचार न करते हैं न करवाते हैं |
6 | आँख में रजाणु पड़ जाने पर अथवा पाँव में शूल लग जाने पर उसे निकालते या निकलवाते हैं | न निकालते हैं न निकलवाते हैं |
7 | सिंह आदि के समक्ष आ जाने पर भागकर अपनी रक्षा करते हैं। | वहाँ ही ध्यानस्थ होकर खड़े रह जाते हैं। |
8 | साँझ पड़ने पर भी उचित स्थान की खोज करते हैं | जहाँ दिन छिपा वहीं खड़े हो जाते हैं। |
इस प्रकार शक्तिकृत भेद के अतिरिक्त इनमें बाह्य वेषकृत कोई भेद नहीं होता। बाह्य वेष की अपेक्षा दोनों ही चार-चार प्रकार के होते हैं। यथा -
उत्तराध्ययन/पृष्ठ 179 पर उद्धृत गाथा - जिणकप्पिया व दुविहा पाणिपाया पडिग्गहधरा य। पाउरजमया उरणा एक्केक्का ते भवे दुविहा। य एतान् वर्जयेद्दोषान् धर्मोपकरणादृते। तस्य त्वग्रहणं युक्तं, य: स्याज्जिन इव प्रभु:। = जिनकल्पी साधु चार प्रकार के होते हैं - सवस्त्र पाणिपात्राहारी, अवस्त्र पाणिपात्राहारी, सवस्त्र पात्रधारी और अवस्त्र परंतु पात्रधारी। जो आचार विषयक निम्न दोषों को बिना उपकरणों के ही टालने को समर्थ हैं, उनके लिए तो इनका न ग्रहण करना ही योग्य है, परंतु जो ऐसा करने को समर्थ नहीं वे उपकरण ग्रहण करते हैं।
2. जिनकल्प का विच्छेद
उत्तराध्ययन/टीका/पृष्ठ एष व्युच्छिन्न:।(179)। न चेदानीं तदस्तीति...।(180)। =वीर निर्वाण के 62 वर्ष पश्चात् जंबू स्वामी के निर्वाण पर्यंत ही जिनकल्प की उपलब्धि होती थी। उसके पश्चात् इस काल में उत्तम संहनन आदि के अभाव के कारण उसकी व्युच्छित्ति हो गयी है।
3. उपकरण व उनकी सार्थकता
उत्तराध्ययन/पृ.179 पर उद्धृत - जंतवो बहवस्संति दुर्दर्शा मांसचक्षुषाम् । तेभ्य: स्मृतं दयार्थं तु रजोहरणधारणम् ।1। संति संपातिया: सत्त्वा: सूक्ष्माश्च व्यापिनोऽपरे। तेषां रक्षानिमित्तं च विज्ञेया मुखवस्त्रिका।3। किंच - भवंति जंतवो यस्यान्नपानेषु केषुचित् । तस्मात्तेषां परीक्षार्थं पात्रग्रहणमिष्यते।4। अपरं च - सम्यक्त्वज्ञानशीलानि तपश्चेतीह सिद्धये। तेषामनुग्रहार्थाय स्मृतं चीवरधारणम् ।5। शीतवातातपैर्दंशमशकैश्चापि खेदित:। मा सम्यक्त्वादिषु ध्यानं न सम्यक् संविवास्यति।6। तस्य त्वग्रहणे युत् स्यात् क्षुद्रप्राणिविनाशनम् । ज्ञानाध्यानोपघातो वा महान् दोषस्तदैव तु।7। =बहुत से जंतु ऐसे होते हैं जो इन चर्मचक्षुओं से दिखाई नहीं देते। विहार शय्या आसन आदि रूप प्रवृत्तियों में उनकी रक्षा के अर्थ रजोहरण है। वायुमंडल में सर्वत्र ऐसे सूक्ष्म जीव व्याप्त हैं जो मुख में अथवा भोजन पान आदि में स्वत: पड़ते रहते हैं। उनकी रक्षा के लिए मुखवस्त्रिका है। बहुत संभव है कि भिक्षा में प्राप्त अन्न पान आदिक में कदाचित् कोई जंतु पड़े हों। अत: ठीक प्रकार से देख शोधकर खाने के लिए पात्रों का ग्रहण इष्ट है। इनके अतिरिक्त सम्यक्त्व, ज्ञान, शील व तप की सिद्धि के अर्थ वस्त्र ग्रहण की आज्ञा है, ताकि ऐसा न हो कि कहीं शीत वात आतप डांस व मक्खी आदि की बाधाओं से खेदित होने पर कोई इनमें ठीक प्रकार से ध्यान व उपयोग न रख सके। ये सभी पदार्थ बाह्याभ्यंतर संयम के उपकारी होने से उपकरण संज्ञा को प्राप्त होते हैं, जिनका ग्रहण न करने पर क्षुद्र प्राणियों का विनाश तथा ज्ञान ध्यान आदि का उपघात रूप महान् दोष प्राप्त होते हैं।
उत्तराध्ययन/टीका/पृष्ठ 179 धर्मोपकरणमेवैतत् न तु परिग्रहस्तथा।
दश वैकालिक सूत्र/अध्याय 6 गाथा 19 जं पि वत्थं य पायं वा, केवलं पायपुंछणं। तेऽपि संजमलज्जट्ठा, धारेंति परिहरंति य।=अर्थात् मूर्च्छारहित साधु के लिए ये सब धर्मोपकरण हैं न कि परिग्रह, क्योंकि मूर्च्छा को परिग्रह संज्ञा प्राप्त होती है वस्तु को नहीं। वस्त्र व पात्रादि इन उपकरणों को साधुजन संयम की रक्षार्थ तथा लज्जा निवारण के लिए धारण करते हैं, और उनके प्रति इतने आसक्त रहते हैं कि समय आने पर जीर्ण तृण की भाँति वे इनका त्याग भी कर देते हैं।
4. दिगंबर मत प्रवर्तक शिवभूति का परिचय
उत्तराध्ययन/चूर्ण सूत्र 164 का उपोद्घात/पृष्ठ 151 जमालिप्रभृतीनां निह्नवानां शिष्यास्तद्भक्तियुक्तितया स्वयमागमानुसारिमतयोऽपि गुरुप्रत्ययाद्विपरीतमर्थं प्रतिपन्न:।
उत्तराध्ययन/चूर्णसूत्र 178/पृ.179 पर उद्धृत छव्वाससएहिं णवोत्तरेहिं सिद्धिंगयस्स वीरस्स। तो वोडियाण दिट्ठी रहवीपुरे समुप्पणा। = श्वेतांबर आगम में यत्र तत्र जमालि आदि सात तथा शिवभूति नामक अष्टम निह्नवों का कथन अत्यंत प्रसिद्ध है। निह्नव संज्ञा को प्राप्त ये स्थविरकल्पी साधु तथा इनके शिष्य यद्यपि आगम के प्रति भक्ति युक्त होने के कारण स्वयं आगमानुसारी बुद्धि वाले होते हैं, परंतु गुरु आज्ञा से विपरीत अर्थ का प्रतिपादन करने के कारण संघ से बहिष्कृत कर दिये जाने पर स्वयं स्वच्छंद रूप से अपने-अपने मतों का प्रसार करते हैं, जिनसे विभिन्न संप्रदायों व मतमतांतरों की उत्पत्ति होती है। भगवान् वीर के निर्वाण होने के 609 वर्ष पश्चात् अर्थात् वि.सं.139 में 'रथवीपुर' नामक नगर में वोटिक (दिगंबर) मतवाला अष्टम निह्नव शिवभूति उत्पन्न हुआ।
उत्तराध्ययन/चूर्ण सूत्र 178/पृ.179-180 का भावार्थ
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यह शिवभूति अपनी गृहस्थावस्था में अत्यंत स्वच्छंद वृत्ति वाला एक राजसेवक था, जिसने किसी समय राजा के एक शत्रु को जीतकर राजा को प्रसन्न किया और उपलक्ष्य में उससे नगर में स्वच्छंद घूमने की आज्ञा प्राप्त कर ली। वह रात्रि को भी इधर-उधर घूमता रहता था, जिसके कारण उसकी स्त्री व माता उससे तंग आ गयीं, और एक रात्रि को जब वह घर आया तो उन्होंने द्वार नहीं खोले। शिवभूति क्रुद्ध होकर उपाश्रय में चला गया और गुरु के मना करने पर भी 'खेलमल्लक' नामक किसी साधु से दीक्षा लेकर स्वयं केशलोंच कर लिया। कुछ काल पश्चात् ससंघ विहार करता हुआ जब वह पुन: इस नगर में आया तो राजा ने अपना प्रिय जान उसे एक रत्न कंबल भेंट किया। गुरु की आज्ञा के बिना भी उसने वह रत्न कंबल ग्रहण कर लिये और उसे गुरु से छिपाकर अपने पास रखता रहा। एक दिन जब वह भिक्षाचर्या के लिए उसकी पोटली में से वह कंबल निकाल लिया और बिना पूछे उसमें से फाड़कर साधुओं के पाँव पोंछने के आसन बना दिये। अत: शिवभूति भीतर ही भीतर गुरु के प्रति रुष्ट रहने लगा।
5. शिवभूति से दिगंबर मत की उत्पत्ति :
उत्तराध्ययन/चूर्ण सूत्र 178/पृष्ठ 179 - इत्यादि सो (सिवभूइ) किं एस एवं ण कोरइ। तेहिं भणियं - एष व्युच्छिन्न:। मम न व्युच्छिद्यते इति स एव परलोकार्थिना कर्त्तव्य:।
उत्तराध्ययन/चूर्ण सूत्र 178/180 न चेदानीं तदस्तीत्यादिकया प्रागुक्तया च युक्त्योच्यमानोऽसौ कर्मोदयेन चीवरादिकं त्यक्त्वा गत:। ...तस्योत्तरा भगिनी, उद्याने स्थितं वंदिका गता, तं च दृष्ट्वा तयापि चीवरादिकं सर्वं त्यक्तं, तदा भिक्षायै प्रविष्टा गणिकया दृष्टा। मास्मासु लोको विरंक्षीत् इति उरसि तस्या: पोतिका बद्धा। सा नेच्छति, तेन भणितं - तिष्ठतु एषा तव देवता दत्ता। तेन च द्वौ शिष्यौ प्रवजितौ - कौंडिन्य: कोटिवीरश्च, तत: शिष्याणां परंपरा स्पर्शो जात:।' - ।
उत्तराध्ययन/चूर्णसूत्र 178/पृ.180 पर उद्धृत - उहाए पण्णत्तं बोडियसिवभूइ उत्तरा हि इमं। मिच्छादंसणमिणमो रहवीपुरे समुप्पण्णं।1। बोडियसिवभूइओ बोडियलिंगस्स होई उप्पत्ती। कोडिण्णकोट्टवीरा परंपराफासमुप्पन्ना।2। =एक दिन गुरु जब पूर्वोक्त प्रकार जिनकल्प के स्वरूप का कथन कर रहे थे, तब शिवभूति ने उनसे पूछा कि किस कारण से अब आप साधुओं को जिनकल्प में दीक्षित नहीं करते हैं। 'वह मार्ग अब व्युच्छिन्न हो गया है', गुरु के ऐसा कहने पर वह बोला कि भले ही दूसरों के लिए व्युच्छिन्न हो गया हो, परंतु मेरे लिए वह व्युच्छिन्न नहीं हुआ है। सर्वथा निष्परिग्रही होने से परलोकार्थी के लिए वही ग्रहण करना कर्त्तव्य है। - हीन संहनन के कारण इस काल में वह संभव नहीं है, गुरु के पूर्वोक्त प्रकार ऐसा समझाने पर भी मिथ्यात्व कर्मोदयवश उसने गुरु की बात स्वीकार नहीं की, और वस्त्र त्यागकर अकेला वन में चला गया। उसके पीछे उसकी बहन भी उसकी वंदनार्थ उद्यान में गयी और उसे देखकर वस्त्र त्याग नग्न हो गयी। एक दिन जब वह भिक्षार्थ नगर में प्रवेश कर रही थी, तो एक गणिका ने उसे एक साड़ी पहना दी, जिसे देवता प्रदत्त कहकर शिवभूति ने ग्रहण करने की आज्ञा दे दी। शिवभूति ने कौडिन्य व कोटिवीर नामक दो शिष्यों को दीक्षा दी जिनकी परंपरा में ही यह वोटिक या दिगंबर संप्रदाय उत्पन्न हुआ है।
ढूंढिया पंथ
1. दिगंबर के अनुसार उत्पत्ति :
कुछ काल पश्चात् इसी श्वेतांबर संघ में से ढूंढिया पंथ अपरनाम स्थानकवासी मत की उत्पत्ति हुई। यथा -
भद्रबाहु चरित्र/4/157/161 मृते विक्रमभूपाले सप्तविंशतिसंयुते। दशपंचशतेऽब्दानामतीते शृणुतापरम् ।157। लुंकामतमभूदेकं लोपकं धर्मकर्मण:। देशेऽत्र गौर्जरे ख्याते विद्वत्ताजितनिर्जरे।158। अणहिल्लपत्तने रम्ये प्राग्वाटकुलजोऽभवत् । लुंकाऽभिधो महामानी श्वेतांशुकमहाश्रयी।159। दुष्टात्मा दुष्टभावेन कुपति: पापमंडित:। तीव्रमिथ्यात्वपाकेन लुंकामतमकल्पयत् ।160। तन्मतेऽपि च भूयांसो मतभेदा: समाश्रिता:।161।=विक्रम की मृत्यु के 1527 वर्ष बाद धर्म कर्म का सर्वथा नाश करने वाला एक लुंकामत (ढूंढिया मत) प्रगट हुआ। इसी की विशेष व्याख्या यों है कि - गुर्जर देश (गुजरात) कुल में एक अणहिल नाम का नगर है। उसमें प्राग्वाट (कुलंबी) कुल में लुंका नाम का धारक एक श्वेतांबरी हुआ है। उस दुष्ट आत्मा ने कुपित होकर तीव्र मिथ्यात्व के उदय से खोटे परिणामों के द्वारा लुंकामत चलाया। उनमें भी पीछे अनेक भेद हो गये।
दर्शनपाहुड़/ टीका/11/11/12 तन्मध्ये श्वेतांबराभासा उत्पन्ना:। =उनमें से (श्वेतांबरियों में से) ही श्वेतांबराभास (ढूंढिया मत) उत्पन्न हुआ।
2. श्वेतांबरायांनाय के अनुसार उत्पत्ति :
विक्रम सं.1472 में इस मत के संस्थापक लोंकाशाह का जन्म हुआ। यह व्यक्ति अहमदाबाद में ग्रंथ लिखने का व्यवसाय करता था। एक बार एक ग्रंथ लिखने की उजरत के विषय में किसी यति से उसकी कहा सुनी हो गयी, जिसके कारण उसने मूर्तिपूजा को तथा कुछ आचार विचारों को आगम विरुद्ध बताकर एक स्वतंत्र मत का प्रचार करना प्रारंभ कर दिया उसने 22 शिष्यों को दीक्षित किया, जिनकी परंपरा में 'लोंकागच्छ' की उत्पत्ति हुई। पीछे इसमें भी अनेकों भेद प्रभेद उत्पन्न हो गये।
सूरत के एक साधु ने इस लोंकामत के भी कुछ सुधार करके 'ढूंढिया' नामक एक नये संप्रदाय को जन्म दिया, जिससे कि पूर्ववर्ती भी सभी लोंकानुयायी ढूंढिया नाम से प्रसिद्ध हो गये। स्थानकों में रहने के कारण इसके साधु स्थानकवासी कहलाते हैं। इसी संप्रदाय में आचार्य भिक्षु ने तेरहपंथ की स्थापना की।
3. स्वरूप
भद्रबाहु चरित्र/4/161 सुरेंद्रार्चां जिनेंद्रार्चां तत्पूजां दानमुत्तमम् । समुत्थाप्य स पापात्मा प्रतापो जिनसूत्रवत:।161। =जिन सूर्य से प्रतिकूल होकर, देवताओं से भी पूजनीय जिन प्रतिमा की पूजा दानादि सब कर्मों का उत्थापन करके वह पापात्मा जिन भगवान् के व्रतों से प्रतिकूल हो गया।
दर्शनपाहुड़/ टीका /11/11/12 तन्मध्ये श्वेतांबराभासा उत्पन्नास्ते त्वतीव पापिष्ठा: देवपूजादिकं किल पापकर्मेदमिति कथयंति, मंडलवत्सर्वत्र भांडप्रक्षालनोदकं पिबंति इत्यादि, बहुदोषवंत:। =उन (श्वेतांबरों) में से श्वेतांबराभासी (ढूंढिया मत) उत्पन्न हुए। वे तीव्र पापिष्ठ होकर देव पूजादिक को भी पापकर्म बताने लगे। मंडल मत की भाँति बर्तनों के धोवन का पानी पीने लगे। इस प्रकार बहुत दोषवंत हो गये।
नोट - यह संप्रदाय श्वेतांबर मान्य आगम सूत्रों में से 32 को मान्य करता है। परंतु श्वेतांबराचार्यों कृत उनकी टीकाएँ इसे मान्य नहीं हैं।