हरिवंशपुराण: Difference between revisions
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< | <span class="HindiText"> पुन्नाटसंघ के आचार्य जिनसेनसूरि द्वारा ईसवी 783 में संस्कृत भाषा में रचा गया पुराण । इसकी रचना के समय उत्तर में इंद्रायुध, दक्षिण में कृष्ण राजा के पुत्र श्रीवल्लभ, पूर्व में अवंतिराज और पश्चिम में वीर जयवराह का शासन था । ग्रंथ का शुभारंभ वर्धमानपुर के नन्न राजा द्वारा निर्मापित श्रीपार्श्वनाथमंदिर में तथा समाप्ति ‘‘दोस्तटिका’’ नगरी के शांतिनाथ मंदिर में हुई थी । इस पुराण में आठ अधिकार हैं । इनमें क्रमश: लोक के आकार का, राजवंशों की उत्पत्ति का, हरिवंश का, वसुदेव की चेष्टाओं का, कृष्ण और नेमिनाथ का तथा तत्कालीन अन्य राज्यवंशों का कथन किया गया है । आठ अधिकारो म कुल छियासठ सर्ग है तथा सर्गों में आठ हजार नौ सौ चालीस श्लोक है । <span class="GRef"> [[हरिवंशपुराण# 1.71-73, 66.37, 52-54|[[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_1#71|हरिवंशपुराण - 1.71-73]],[[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_1#66|हरिवंशपुराण - 1.66]].37, 52-54]] </span></span> | ||
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Latest revision as of 15:31, 27 November 2023
पुन्नाटसंघ के आचार्य जिनसेनसूरि द्वारा ईसवी 783 में संस्कृत भाषा में रचा गया पुराण । इसकी रचना के समय उत्तर में इंद्रायुध, दक्षिण में कृष्ण राजा के पुत्र श्रीवल्लभ, पूर्व में अवंतिराज और पश्चिम में वीर जयवराह का शासन था । ग्रंथ का शुभारंभ वर्धमानपुर के नन्न राजा द्वारा निर्मापित श्रीपार्श्वनाथमंदिर में तथा समाप्ति ‘‘दोस्तटिका’’ नगरी के शांतिनाथ मंदिर में हुई थी । इस पुराण में आठ अधिकार हैं । इनमें क्रमश: लोक के आकार का, राजवंशों की उत्पत्ति का, हरिवंश का, वसुदेव की चेष्टाओं का, कृष्ण और नेमिनाथ का तथा तत्कालीन अन्य राज्यवंशों का कथन किया गया है । आठ अधिकारो म कुल छियासठ सर्ग है तथा सर्गों में आठ हजार नौ सौ चालीस श्लोक है । [[हरिवंशपुराण# 1.71-73, 66.37, 52-54|हरिवंशपुराण - 1.71-73,हरिवंशपुराण - 1.66.37, 52-54]]