कथा (सत्कथा व विकथा आदि): Difference between revisions
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=== सत्कथा व विकथा आदि भेदों के अनुसार === | |||
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<li name="1" id="1" class="HindiText"><strong> कथा का लक्षण</strong> | |||
<span class="GRef"> महापुराण/1/118 </span><p class="SanskritText"> पुरुषार्थोपयोगित्वात्त्रिवर्गकथनं कथा। </p><p class="HindiText">= मोक्ष पुरुषार्थ के उपयोगी होने से धर्म, अर्थ और काम का कथन करना कथा कहलाती है।<br /> | |||
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<li name="1" id="1" | <li name="1" id="1" class="HindiText"><strong> कथा के भेद</strong><br /> | ||
<span class="GRef"> महापुराण/1/118-120 </span><strong>-</strong><br /> | |||
<span class="HindiText">सत्कथा, विकथा व धर्मकथा <strong>-</strong>ऐसे (धर्म) कथा के तीन भेद हैं। </span> | |||
<span class="GRef"> भगवती आराधना/655/852 </span><span class="PrakritText">आक्खेवणी य विक्खेवणी य संवेगणी य णिव्वेयणी य खवयस्स।</span>=<span class="HindiText">आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेजनी और निर्वेजनी <strong>-</strong>ऐसे (धर्म) कथा के चार भेद हैं। <span class="GRef"> (धवला 1/1,1,2/104/6), (गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/357/765/18), (अनगारधर्मामृत/7/88/716) </span><br /> | |||
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<li name="2" id="2" | <li name="2" id="2" class="HindiText"><strong> धर्मकथा व सत्कथा के लक्षण</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 9/4,1 55/263/4 </span><span class="PrakritText">एक्कंगस्स एगाहियारोवसंहारो धम्मकहा। तत्थ जो उवजोगो सो वि धम्मकहा त्ति घेत्तव्वो। </span> | |||
= <span class="HindiText">एक अंग के एक | = <span class="HindiText">एक अंग के एक अधिकार के उपसंहार का नाम धर्मकथा है। उसमें जो उपयोग है वह भी <strong>धर्मकथा</strong> है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए। <span class="GRef"> (धवला 14/5 .6.14/9/6)</span></span><br /> | ||
<span class="GRef"> महापुराण/1/120,118 </span><span class="SanskritText">यतोऽभ्युदयनि:श्रेयसार्थ संसिद्धिरंजसा। सद्धर्मस्तन्निबद्धा या सा सद्धर्मकथा स्मृता।120।... । तत्रापि सत्कथां धर्म्यामामनंति मनीषिण:।118। </span> | |||
<span class="HindiText">=जिससे जीवों को स्वर्गादि अभ्युदय तथा मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है, वास्तव में वही धर्म कहलाता हे। उससे संबंध रखने वाली जो कथा है उसे <strong>सद्धर्मकथा</strong> कहते हैं।120। जिसमें धर्म का विशेष निरूपण होता है उसे बुद्धिमान पुरुष सत्कथा कहते हैं।118।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/88/74/8 </span><span class="SanskritText">अनुयोगादि धर्मकथा च भवति।</span>= <span class="HindiText">प्रथमानुयोगादि रूप शास्त्र सो धर्मकथा कहिए।<br /> | |||
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<li name="3" id="3" | <li name="3" id="3" class="HindiText"><strong> आक्षेपणी कथा का लक्षण</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना व विजयोदयी टीका/556/853</span> <span class="SanskritText">आक्खेवणी कहा सा विज्जाचरणमुवदिस्सदे जत्थ।...।656। आक्षेपणी कथा भण्यते। यस्यां कथायां ज्ञानं चारित्रं चोपदिश्यते।</span>=<span class="HindiText">जिसमें मति आदि सम्यग्ज्ञानों का तथा सामायिकादि सम्यग्चारित्रों का निरूपण किया जाता है, वह आक्षेपणी कथा है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,2/105/1 तथा श्लोक 75/106</span> <span class="PrakritText">तत्थ अक्खेवणीणाम छद्दव्वणवपयत्थाणं सरूवं दिगंतर-समयांतर-णिराकरणं सुद्धिं करेंती परूवेदि। उक्तं च-आक्षेपणीं तत्त्वविधानभूतां।...।75। </span>=<span class="HindiText">जो नाना प्रकार की एकांतदृष्टियों का और दूसरे समयों का निराकरणपूर्वक शुद्धि करके छह द्रव्य और नौ प्रकार के पदार्थों का प्ररूपण करती है, उसे आक्षेपणी कथा कहते हैं। ... कहा भी है – तत्त्वों का निरूपण करनेवाली आक्षेपणी कथा है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/357/765/19 </span><span class="SanskritText">तत्र प्रथमानुयोगकरणानुयोगचरणानुयोगद्रव्यानुयोगरूपपरमागमपदार्थानां तीर्थंकरादिवृत्तांतलोकसंस्थानदेशसकलयतिधर्मपंचास्तिकायादीनां परमताशंकारहितं कथनमाक्षेपणी कथा </span>=<span class="HindiText">तहाँ तीर्थंकरादि के वृत्तांतरूप प्रथमानुयोग, लोक का वर्णनरूप करणानुयोग, श्रावक मुनिधर्म का कथनरूप चरणानुयोग, पंचास्तिकायादिक का कथनरूप द्रव्यानुयोग, इनका कथन और परमत की शंका दूर की जाती है, वह आक्षेपणी कथा है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> अनगारधर्मामृत/7/88/716 </span><span class="SanskritText">आक्षेपणीं स्वमतसंग्रहणीं समेक्षी,...।</span>=<span class="HindiText">जिसके द्वारा अपने मत का संग्रह अर्थात् अनेकांत सिद्धांत का यथायोग्य समर्थन हो, उसको आक्षेपणी कथा कहते हैं।<br /> | |||
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<li name="4" id="4" | <li name="4" id="4" class="HindiText"><strong> विक्षेपणी कथा का लक्षण</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना व विजयोदयी टीका/656/853 </span> <span class="SanskritText">ससमयपरसमयगदा कथा दु विक्खेवणी णाम।656। - या कथा स्वसमयं परसमयं वाश्रित्य प्रवृत्ता सा विक्षेपणी भण्यते। सर्वथानित्यं...इत्यादिकं परसमयं पूर्वपक्षीकृत्य प्रत्यक्षानुमानेन आगमेन च विरोधं प्रदर्श्य कथंचिन्नित्यं...इत्यादि स्वसमयनिरूपणा च <strong>-</strong> विक्षेपणी। </span>=<span class="HindiText">जिस कथा में जैन मत के सिद्धांतों का और परमत का निरूपण हैउसको विक्षेपणी कथा कहते हैं। जैसे ‘वस्तु सर्वथा नित्य ही है’ इत्यादि अन्य मतों के एकांत सिद्धांतों को पूर्व पक्ष में स्थापित कर उत्तर पक्ष में वे सिद्धांत प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम से विरुद्ध हैं, ऐसा सिद्ध करके, वस्तु का स्वरूप कथंचित् नित्य इत्यादि रूप से जैनमत के अनेकांत को सिद्ध करना यह विक्षेपणी कथा है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,2/105/2 तथा श्लोक नं. 75/106</span> <span class="PrakritText">विक्खेवणी णाम पर-समएण स-समयं दूसंती पच्छा दिगंतरसुद्धिं करेंती स-समयं थावंती छदव्व-णव-पयत्थे परूवेदि।...उक्तं च <strong>-</strong> विक्षेपणी तत्त्वदिगंतरशुद्धिम्।...।75। </span>=<span class="HindiText">जिसमें पहले परसमय के द्वारा स्वसमय में दोष बतलाये जाते हैं। अनंतर परसमय की आधारभूत अनेक एकांतदृष्टियों का शोधन करके स्वसमय की स्थापना की जाती है और छहद्रव्य नौ पदार्थौं का प्ररूपण किया जाता है उसे विक्षेपणी कथा कहते हैं। कहा भी है <strong>-</strong> तत्त्व से दिशांतर को प्राप्त हुई दृष्टियों का शोधन करनेवाली अर्थात् परमत की एकांत दृष्टियों का शोधन करके स्वसमय की स्थापना करनेवाली विक्षेपणी कथा है। <span class="GRef"> (गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/357/765/20), (अनगारधर्मामृत/7/88/716) </span><br /> | |||
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<li name="5" id="5" | <li name="5" id="5" class="HindiText"><strong> संवेजनी कथा का लक्षण</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना व विजयोदयी टीका/657/854 </span> <span class="PrakritText">संवेयणी पुण कहा णाणचरित्तं तववीरिय इट्ठिगदा/657/... संवेजनी पुन: कथा ज्ञानचारित्रतपोभावनाजनितशक्तिसंपन्निरूपणपरा। </span> | |||
=<span class="HindiText">ज्ञान, चारित्र, तप व वीर्य इनका अभ्यास करने से आत्मा में कैसी-कैसी अलौकिक शक्तियाँ प्रगट होती | =<span class="HindiText">ज्ञान, चारित्र, तप व वीर्य इनका अभ्यास करने से आत्मा में कैसी-कैसी अलौकिक शक्तियाँ प्रगट होती हैं - इनका खुलासेवार वर्णन करनेवाली कथा को संवेजनी कथा कहते हैं।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,2/105/4 तथा श्लोक 75/106</span><span class="PrakritText"> संवेयणी णाम पुण्य-फल-संकहा। काणि पुण्य-फलाणि। तित्थयर-गणहर-रिसिचक्कवट्टि-बलदेव-वासुदेव-सुर-विज्जाहररिद्धीओ...उक्तं च – ‘संवेगनी धर्मफलप्रपंचा...।75। </span>=<span class="HindiText">पुण्य के फल का कथन करनेवाली कथा को संवेदनी कथा कहते हैं। पुण्य के फल कौन से हैं ? तीर्थंकर, गणधर, ऋषि, चक्रवर्ति, बलदेव, वासुदेव, देव और विद्याधरों की ऋद्धियाँ पुण्य के फल हैं। कहा भी है – विस्तार से धर्म के फल का वर्णन करनेवाली संवेगिनी कथा है। <span class="GRef"> (गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/357/766/1), (अनगारधर्मामृत/7/88/716) </span><br /> | |||
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<li name="6" id="6" | <li name="6" id="6" class="HindiText"><strong> निर्वेजनी कथा का लक्षण</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना मूल व विजयोदयी टीका/657/854</span> <span class="PrakritText">णिव्वेयणी पुण कहा सरीरभोगे भवोघे य।657।...निर्वेजनी पुन: कथा सा। शरीरेभोगे, भवसंततौ च पराङ्मुखताकारिणी शरीराण्यशुचीनि...अनित्यकायस्वभावा: प्राणप्रभृत: इति शरीरतत्त्वाश्रयणात्। तथा भोगा दुर्लभा:...लब्धा अपि कथंचिन्न तृप्तिं जनयंति। अलाभे तेषां, लब्धायां वा विनाशे शोको महानुदेति। देवमनुजभवावपि दुर्लभौ, दु:खबहुलौ अल्पसुखौ इति निरूपणात्। </span> | |||
=<span class="HindiText">शरीर, भोग और जन्म | =<span class="HindiText">शरीर, भोग और जन्म परंपरा में विरक्ति उत्पन्न करनेवाली कथा का निर्वेजनी कथा ऐसा नाम है। इसका खुलासा <strong>-</strong> शरीर अपवित्र है, शरीर के आश्रय से आत्मा की अनित्यता प्राप्त होती है। भोग पदार्थ दुर्लभ हैं। इनकी प्राप्ति होनेपर आत्मा तृप्त होता नहीं। इनका लाभ नहीं होने से अथवा लाभ होकर विनष्ट हो जाने से महान् दु:ख उत्पन्न होता है। देव व मनुष्य जन्म की प्राप्ति होना दुर्लभ है। ये बहुत दु:खों से भरे हैं तथा अल्प मात्र सुख देनेवाले हैं। इसप्रकार का वर्णन जिसमें किया जाता है वह कथा निर्वेजनी कथा कहलाती है <span class="GRef">( अनगारधर्मामृत/7/88/716 )</span>।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,2/105/5 तथा श्लोक 75/106</span> <span class="PrakritText">णिव्वेयणी णाम पावफलसंकहा। काणि पावफलाणि। णिरय-तिरय-कुमाणुस-जोणीसु जाइ-जरा-मरण-बाहि-वेयणा-दालिद्दादीणि। संसार-सरीर-भोगेसु वेरग्गुप्पाइणी णिव्वेयणी णाम। उक्तं च <strong>-</strong> निर्वेगिनी चाह कथां विरागाम्।75। </span><span class="HindiText">=पाप के फल का वर्णन करनेवाली कथा को निर्वेदनी कथा कहते हैं। पाप के फल कौन से हैं ? नरक, तिर्यंच और कुमानुष की योनियों में जन्म, जरा, मरण, व्याधि, वेदना और दारिद्र आदि की प्राप्ति पाप के फल हैं। - अथवा संसार, शरीर और भोगों में वैराग्य को उत्पन्न करनेवाली कथा को निर्वेदनी कथा कहते हैं । कहा भी है <strong>-</strong> वैराग्य उत्पन्न करनेवाली निर्वेगिनी कथा है। <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/357/766/1 )</span> ।<br /> | |||
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<li name="7" id="7" | <li name="7" id="7" class="HindiText"><strong> विकथा के भेद</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> नियमसार/67 </span><span class="PrakritText">थीराजचोरभत्तकहादिवयणस्स पावहेउस्स।...। </span>= <span class="HindiText">पाप के हेतुभूत ऐसे स्त्रीकथा, राजकथा, चोरकथा, भक्तकथा इत्यादिरूप वचनों का त्याग करना वचनगुप्ति है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> मूलाचार/मूल /855-856</span><span class="PrakritText"> इत्थिकहा अत्थकहा भत्तकहा खेडकव्वडाणं च। रायकहा चोरकहा जणवदणयरायरकहाओ।855। णडभडमल्लकहाओ मायाकरजल्लमुट्ठियाणं च। अज्जउललंघियाणं कहासु ण विरज्जए धीरा:।856। </span>=<span class="HindiText">स्त्रीकथा, धनकथा, भोजनकथा, नदी पर्वत से घिरे हुए स्थान की कथा, केवल पर्वत से घिरे हुए स्थान की कथा, राजकथा, चोरकथा, देश-नगरकथा, खानि संबंधी कथा।855। नटकथा, भाटकथा, मल्लकथा, कपटजीवी व्याध व ज्वारी की कथा, हिंसकों की कथा - ये सब लौकिकी कथा (विकथा) है। इनमें वैरागी मुनिराज रागभाव नहीं करते।856।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/44/84/17 </span><span class="SanskritText">तद्यथा <strong>-</strong> स्त्रीकथा अर्थकथा भोजनकथा राजकथा चोरकथा वैरकथा परपाखंडकथा देशकथा भाषाकथा गुणबंधकथा देवीकथा निष्ठुरकथा परपैशुन्यकथा कंदर्पकथा देशकालानुचितकथा भंडकथा मूर्खकथा आत्मप्रशंसाकथा परपरिवादकथा परजुगुप्साकथा परपीडाकथा कलहकथा परिग्रहकथा कृष्याद्यारंभकथा संगीतवाद्यकथा चेति विकथा पंचविंशति:। </span>=<span class="HindiText">स्त्रीकथा, अर्थ (धन) कथा, भोजनकथा, राजकथा, चोरकथा, वैरकथा, परपाखंडकथा, देशकथा, भाषा कथा (कहानी इत्यादि), गुणप्रतिबंधकथा, देवीकथा, निष्ठुरकथा, परपैशुन्य (चुगली) कथा, कंदर्प (काम) कथा, देशकाल के अनुचित कथा, भंड (निर्लज्ज) कथा, मूर्खकथा, आत्मप्रशंसा कथा, परपरिवाद (परनिंदा) कथा, पर जुगुप्सा (घृणा) कथा, परपीड़ाकथा, कलहकथा, परिग्रहकथा, कृषि आदि आरंभ कथा, संगीतवादित्रादि कथा <strong>-</strong>ऐसे विकथा 25 भेद संयुक्त हैं।<br /> | |||
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<li name="8" id="8" | <li name="8" id="8" class="HindiText"><strong> स्त्रीकथा आदि चार विकथाओं के लक्षण</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/67 </span><span class="SanskritText">अतिप्रवृद्धकामै: कामुकजनै: स्त्रीणा संयोगविप्रलंभजनितविविधवचनरचना कर्त्तव्या श्रोतव्या च सैव स्त्रीकथा। राज्ञां युद्धहेतूपन्यासो राजकथाप्रपंच:। चौराणांचौरप्रयोगकथनं चौरकथाविधानम्। अतिप्रवृद्धभोजनप्रीत्या विचित्रमंडकावलीखंडदधिखंडसिताशनपानप्रशंसा भक्तकथा।</span> = <span class="HindiText">जिन्होंके काम अति वृद्धि को प्राप्त हुआ हो ऐसे कामी जनों द्वारा की जानेवाली और सुनी जानेवाली ऐसी जो स्त्रियों की संयोग-वियोगजनित विविधवचन रचना, वही <strong>स्त्रीकथा</strong> है। राजाओं का युद्धहेतुक कथन <strong>राजकथा</strong> प्रपंच है। चोरों का चोर-प्रयोग कथन <strong>चोरकथाविधान</strong> है। अति वृद्धि को प्राप्त भोजन की प्रीति द्वारा मैदा की पूरी और शक्कर, दही-शक्कर, मिसरी इत्यादि अनेकप्रकार के अशन-पान की प्रशंसा भक्तकथा या <strong>भोजन कथा</strong> है।<br /> | |||
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<li name="9" id="9" | <li name="9" id="9" class="HindiText"><strong> अर्थ व काम कथाओं में धर्मकथा व विकथापना</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> महापुराण/1/119 </span><span class="SanskritText">तत्फलाभ्युदयांगत्वादर्थकामकथा। अन्यथा विकथैवासावपुण्यास्रवकारणम्।119।</span>=<span class="HindiText">धर्म के फलस्वरूप जिन अभ्युदयों की प्राप्ति होती है, उनमें अर्थ और काम भी मुख्य हैं, अत: धर्म का फल दिखाने के लिए अर्थ और काम का वर्णन करना भी कथा (धर्मकथा) कहलाती है। यदि यही अर्थ और काम की कथा धर्मकथा से रहित हो तो विकथा ही कहलावेगी और मात्र पापास्रव का ही कारण होगी।119। </span></li> | |||
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<li><span class="HindiText" | <li><span class="HindiText">किसको कब कौन कथा का उपदेश देना चाहिए – देखें [[उपदेश#3 |उपदेश - 3]]। </span></li> | ||
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[[Category: क]] | [[Category: क]] | ||
[[Category: प्रथमानुयोग]] |
Latest revision as of 22:17, 17 November 2023
सत्कथा व विकथा आदि भेदों के अनुसार
- कथा का लक्षण
महापुराण/1/118
पुरुषार्थोपयोगित्वात्त्रिवर्गकथनं कथा।
= मोक्ष पुरुषार्थ के उपयोगी होने से धर्म, अर्थ और काम का कथन करना कथा कहलाती है।
- कथा के भेद
महापुराण/1/118-120 -
सत्कथा, विकथा व धर्मकथा -ऐसे (धर्म) कथा के तीन भेद हैं। भगवती आराधना/655/852 आक्खेवणी य विक्खेवणी य संवेगणी य णिव्वेयणी य खवयस्स।=आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेजनी और निर्वेजनी -ऐसे (धर्म) कथा के चार भेद हैं। (धवला 1/1,1,2/104/6), (गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/357/765/18), (अनगारधर्मामृत/7/88/716)
- धर्मकथा व सत्कथा के लक्षण
धवला 9/4,1 55/263/4 एक्कंगस्स एगाहियारोवसंहारो धम्मकहा। तत्थ जो उवजोगो सो वि धम्मकहा त्ति घेत्तव्वो। = एक अंग के एक अधिकार के उपसंहार का नाम धर्मकथा है। उसमें जो उपयोग है वह भी धर्मकथा है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए। (धवला 14/5 .6.14/9/6)
महापुराण/1/120,118 यतोऽभ्युदयनि:श्रेयसार्थ संसिद्धिरंजसा। सद्धर्मस्तन्निबद्धा या सा सद्धर्मकथा स्मृता।120।... । तत्रापि सत्कथां धर्म्यामामनंति मनीषिण:।118। =जिससे जीवों को स्वर्गादि अभ्युदय तथा मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है, वास्तव में वही धर्म कहलाता हे। उससे संबंध रखने वाली जो कथा है उसे सद्धर्मकथा कहते हैं।120। जिसमें धर्म का विशेष निरूपण होता है उसे बुद्धिमान पुरुष सत्कथा कहते हैं।118।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/88/74/8 अनुयोगादि धर्मकथा च भवति।= प्रथमानुयोगादि रूप शास्त्र सो धर्मकथा कहिए।
- आक्षेपणी कथा का लक्षण
भगवती आराधना व विजयोदयी टीका/556/853 आक्खेवणी कहा सा विज्जाचरणमुवदिस्सदे जत्थ।...।656। आक्षेपणी कथा भण्यते। यस्यां कथायां ज्ञानं चारित्रं चोपदिश्यते।=जिसमें मति आदि सम्यग्ज्ञानों का तथा सामायिकादि सम्यग्चारित्रों का निरूपण किया जाता है, वह आक्षेपणी कथा है।
धवला 1/1,1,2/105/1 तथा श्लोक 75/106 तत्थ अक्खेवणीणाम छद्दव्वणवपयत्थाणं सरूवं दिगंतर-समयांतर-णिराकरणं सुद्धिं करेंती परूवेदि। उक्तं च-आक्षेपणीं तत्त्वविधानभूतां।...।75। =जो नाना प्रकार की एकांतदृष्टियों का और दूसरे समयों का निराकरणपूर्वक शुद्धि करके छह द्रव्य और नौ प्रकार के पदार्थों का प्ररूपण करती है, उसे आक्षेपणी कथा कहते हैं। ... कहा भी है – तत्त्वों का निरूपण करनेवाली आक्षेपणी कथा है।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/357/765/19 तत्र प्रथमानुयोगकरणानुयोगचरणानुयोगद्रव्यानुयोगरूपपरमागमपदार्थानां तीर्थंकरादिवृत्तांतलोकसंस्थानदेशसकलयतिधर्मपंचास्तिकायादीनां परमताशंकारहितं कथनमाक्षेपणी कथा =तहाँ तीर्थंकरादि के वृत्तांतरूप प्रथमानुयोग, लोक का वर्णनरूप करणानुयोग, श्रावक मुनिधर्म का कथनरूप चरणानुयोग, पंचास्तिकायादिक का कथनरूप द्रव्यानुयोग, इनका कथन और परमत की शंका दूर की जाती है, वह आक्षेपणी कथा है।
अनगारधर्मामृत/7/88/716 आक्षेपणीं स्वमतसंग्रहणीं समेक्षी,...।=जिसके द्वारा अपने मत का संग्रह अर्थात् अनेकांत सिद्धांत का यथायोग्य समर्थन हो, उसको आक्षेपणी कथा कहते हैं।
- विक्षेपणी कथा का लक्षण
भगवती आराधना व विजयोदयी टीका/656/853 ससमयपरसमयगदा कथा दु विक्खेवणी णाम।656। - या कथा स्वसमयं परसमयं वाश्रित्य प्रवृत्ता सा विक्षेपणी भण्यते। सर्वथानित्यं...इत्यादिकं परसमयं पूर्वपक्षीकृत्य प्रत्यक्षानुमानेन आगमेन च विरोधं प्रदर्श्य कथंचिन्नित्यं...इत्यादि स्वसमयनिरूपणा च - विक्षेपणी। =जिस कथा में जैन मत के सिद्धांतों का और परमत का निरूपण हैउसको विक्षेपणी कथा कहते हैं। जैसे ‘वस्तु सर्वथा नित्य ही है’ इत्यादि अन्य मतों के एकांत सिद्धांतों को पूर्व पक्ष में स्थापित कर उत्तर पक्ष में वे सिद्धांत प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम से विरुद्ध हैं, ऐसा सिद्ध करके, वस्तु का स्वरूप कथंचित् नित्य इत्यादि रूप से जैनमत के अनेकांत को सिद्ध करना यह विक्षेपणी कथा है।
धवला 1/1,1,2/105/2 तथा श्लोक नं. 75/106 विक्खेवणी णाम पर-समएण स-समयं दूसंती पच्छा दिगंतरसुद्धिं करेंती स-समयं थावंती छदव्व-णव-पयत्थे परूवेदि।...उक्तं च - विक्षेपणी तत्त्वदिगंतरशुद्धिम्।...।75। =जिसमें पहले परसमय के द्वारा स्वसमय में दोष बतलाये जाते हैं। अनंतर परसमय की आधारभूत अनेक एकांतदृष्टियों का शोधन करके स्वसमय की स्थापना की जाती है और छहद्रव्य नौ पदार्थौं का प्ररूपण किया जाता है उसे विक्षेपणी कथा कहते हैं। कहा भी है - तत्त्व से दिशांतर को प्राप्त हुई दृष्टियों का शोधन करनेवाली अर्थात् परमत की एकांत दृष्टियों का शोधन करके स्वसमय की स्थापना करनेवाली विक्षेपणी कथा है। (गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/357/765/20), (अनगारधर्मामृत/7/88/716)
- संवेजनी कथा का लक्षण
भगवती आराधना व विजयोदयी टीका/657/854 संवेयणी पुण कहा णाणचरित्तं तववीरिय इट्ठिगदा/657/... संवेजनी पुन: कथा ज्ञानचारित्रतपोभावनाजनितशक्तिसंपन्निरूपणपरा। =ज्ञान, चारित्र, तप व वीर्य इनका अभ्यास करने से आत्मा में कैसी-कैसी अलौकिक शक्तियाँ प्रगट होती हैं - इनका खुलासेवार वर्णन करनेवाली कथा को संवेजनी कथा कहते हैं।
धवला 1/1,1,2/105/4 तथा श्लोक 75/106 संवेयणी णाम पुण्य-फल-संकहा। काणि पुण्य-फलाणि। तित्थयर-गणहर-रिसिचक्कवट्टि-बलदेव-वासुदेव-सुर-विज्जाहररिद्धीओ...उक्तं च – ‘संवेगनी धर्मफलप्रपंचा...।75। =पुण्य के फल का कथन करनेवाली कथा को संवेदनी कथा कहते हैं। पुण्य के फल कौन से हैं ? तीर्थंकर, गणधर, ऋषि, चक्रवर्ति, बलदेव, वासुदेव, देव और विद्याधरों की ऋद्धियाँ पुण्य के फल हैं। कहा भी है – विस्तार से धर्म के फल का वर्णन करनेवाली संवेगिनी कथा है। (गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/357/766/1), (अनगारधर्मामृत/7/88/716)
- निर्वेजनी कथा का लक्षण
भगवती आराधना मूल व विजयोदयी टीका/657/854 णिव्वेयणी पुण कहा सरीरभोगे भवोघे य।657।...निर्वेजनी पुन: कथा सा। शरीरेभोगे, भवसंततौ च पराङ्मुखताकारिणी शरीराण्यशुचीनि...अनित्यकायस्वभावा: प्राणप्रभृत: इति शरीरतत्त्वाश्रयणात्। तथा भोगा दुर्लभा:...लब्धा अपि कथंचिन्न तृप्तिं जनयंति। अलाभे तेषां, लब्धायां वा विनाशे शोको महानुदेति। देवमनुजभवावपि दुर्लभौ, दु:खबहुलौ अल्पसुखौ इति निरूपणात्। =शरीर, भोग और जन्म परंपरा में विरक्ति उत्पन्न करनेवाली कथा का निर्वेजनी कथा ऐसा नाम है। इसका खुलासा - शरीर अपवित्र है, शरीर के आश्रय से आत्मा की अनित्यता प्राप्त होती है। भोग पदार्थ दुर्लभ हैं। इनकी प्राप्ति होनेपर आत्मा तृप्त होता नहीं। इनका लाभ नहीं होने से अथवा लाभ होकर विनष्ट हो जाने से महान् दु:ख उत्पन्न होता है। देव व मनुष्य जन्म की प्राप्ति होना दुर्लभ है। ये बहुत दु:खों से भरे हैं तथा अल्प मात्र सुख देनेवाले हैं। इसप्रकार का वर्णन जिसमें किया जाता है वह कथा निर्वेजनी कथा कहलाती है ( अनगारधर्मामृत/7/88/716 )।
धवला 1/1,1,2/105/5 तथा श्लोक 75/106 णिव्वेयणी णाम पावफलसंकहा। काणि पावफलाणि। णिरय-तिरय-कुमाणुस-जोणीसु जाइ-जरा-मरण-बाहि-वेयणा-दालिद्दादीणि। संसार-सरीर-भोगेसु वेरग्गुप्पाइणी णिव्वेयणी णाम। उक्तं च - निर्वेगिनी चाह कथां विरागाम्।75। =पाप के फल का वर्णन करनेवाली कथा को निर्वेदनी कथा कहते हैं। पाप के फल कौन से हैं ? नरक, तिर्यंच और कुमानुष की योनियों में जन्म, जरा, मरण, व्याधि, वेदना और दारिद्र आदि की प्राप्ति पाप के फल हैं। - अथवा संसार, शरीर और भोगों में वैराग्य को उत्पन्न करनेवाली कथा को निर्वेदनी कथा कहते हैं । कहा भी है - वैराग्य उत्पन्न करनेवाली निर्वेगिनी कथा है। ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/357/766/1 ) ।
- विकथा के भेद
नियमसार/67 थीराजचोरभत्तकहादिवयणस्स पावहेउस्स।...। = पाप के हेतुभूत ऐसे स्त्रीकथा, राजकथा, चोरकथा, भक्तकथा इत्यादिरूप वचनों का त्याग करना वचनगुप्ति है।
मूलाचार/मूल /855-856 इत्थिकहा अत्थकहा भत्तकहा खेडकव्वडाणं च। रायकहा चोरकहा जणवदणयरायरकहाओ।855। णडभडमल्लकहाओ मायाकरजल्लमुट्ठियाणं च। अज्जउललंघियाणं कहासु ण विरज्जए धीरा:।856। =स्त्रीकथा, धनकथा, भोजनकथा, नदी पर्वत से घिरे हुए स्थान की कथा, केवल पर्वत से घिरे हुए स्थान की कथा, राजकथा, चोरकथा, देश-नगरकथा, खानि संबंधी कथा।855। नटकथा, भाटकथा, मल्लकथा, कपटजीवी व्याध व ज्वारी की कथा, हिंसकों की कथा - ये सब लौकिकी कथा (विकथा) है। इनमें वैरागी मुनिराज रागभाव नहीं करते।856।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/44/84/17 तद्यथा - स्त्रीकथा अर्थकथा भोजनकथा राजकथा चोरकथा वैरकथा परपाखंडकथा देशकथा भाषाकथा गुणबंधकथा देवीकथा निष्ठुरकथा परपैशुन्यकथा कंदर्पकथा देशकालानुचितकथा भंडकथा मूर्खकथा आत्मप्रशंसाकथा परपरिवादकथा परजुगुप्साकथा परपीडाकथा कलहकथा परिग्रहकथा कृष्याद्यारंभकथा संगीतवाद्यकथा चेति विकथा पंचविंशति:। =स्त्रीकथा, अर्थ (धन) कथा, भोजनकथा, राजकथा, चोरकथा, वैरकथा, परपाखंडकथा, देशकथा, भाषा कथा (कहानी इत्यादि), गुणप्रतिबंधकथा, देवीकथा, निष्ठुरकथा, परपैशुन्य (चुगली) कथा, कंदर्प (काम) कथा, देशकाल के अनुचित कथा, भंड (निर्लज्ज) कथा, मूर्खकथा, आत्मप्रशंसा कथा, परपरिवाद (परनिंदा) कथा, पर जुगुप्सा (घृणा) कथा, परपीड़ाकथा, कलहकथा, परिग्रहकथा, कृषि आदि आरंभ कथा, संगीतवादित्रादि कथा -ऐसे विकथा 25 भेद संयुक्त हैं।
- स्त्रीकथा आदि चार विकथाओं के लक्षण
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/67 अतिप्रवृद्धकामै: कामुकजनै: स्त्रीणा संयोगविप्रलंभजनितविविधवचनरचना कर्त्तव्या श्रोतव्या च सैव स्त्रीकथा। राज्ञां युद्धहेतूपन्यासो राजकथाप्रपंच:। चौराणांचौरप्रयोगकथनं चौरकथाविधानम्। अतिप्रवृद्धभोजनप्रीत्या विचित्रमंडकावलीखंडदधिखंडसिताशनपानप्रशंसा भक्तकथा। = जिन्होंके काम अति वृद्धि को प्राप्त हुआ हो ऐसे कामी जनों द्वारा की जानेवाली और सुनी जानेवाली ऐसी जो स्त्रियों की संयोग-वियोगजनित विविधवचन रचना, वही स्त्रीकथा है। राजाओं का युद्धहेतुक कथन राजकथा प्रपंच है। चोरों का चोर-प्रयोग कथन चोरकथाविधान है। अति वृद्धि को प्राप्त भोजन की प्रीति द्वारा मैदा की पूरी और शक्कर, दही-शक्कर, मिसरी इत्यादि अनेकप्रकार के अशन-पान की प्रशंसा भक्तकथा या भोजन कथा है।
- अर्थ व काम कथाओं में धर्मकथा व विकथापना
महापुराण/1/119 तत्फलाभ्युदयांगत्वादर्थकामकथा। अन्यथा विकथैवासावपुण्यास्रवकारणम्।119।=धर्म के फलस्वरूप जिन अभ्युदयों की प्राप्ति होती है, उनमें अर्थ और काम भी मुख्य हैं, अत: धर्म का फल दिखाने के लिए अर्थ और काम का वर्णन करना भी कथा (धर्मकथा) कहलाती है। यदि यही अर्थ और काम की कथा धर्मकथा से रहित हो तो विकथा ही कहलावेगी और मात्र पापास्रव का ही कारण होगी।119।
- किसको कब कौन कथा का उपदेश देना चाहिए – देखें उपदेश - 3।