काल 03: Difference between revisions
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<li | <li class="HindiText"><strong>समयादि व्यवहार काल निर्देश व तत्संबंधी शंका समाधान</strong></li> | ||
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<li class="HindiText">[[ #3.1 | समयादि की अपेक्षा व्यवहार काल का निर्देश]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #3.2 | समयादि की उत्पत्ति के निमित्त]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #3.3 | परमाणु की तीव्रगति से समय का विभाग नहीं हो जाता]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #3.4 | व्यवहार काल का व्यवहार मनुष्य क्षेत्र में ही होता है]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #3.5 | देवलोक आदि में इसका व्यवहार मनुष्यक्षेत्र की अपेक्षा किया जाता है]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #3.6 | जब सब द्रव्यों का परिणाम काल है तो मनुष्य क्षेत्र में इसका व्यवहार क्यों]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #3.7 | भूत वर्तमान व भविष्यत काल का प्रमाण]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #3.8 | काल प्रमाण स्थित कर देने पर अनादि भी सादि बन जायेगा]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #3.9 | निश्चय व व्यवहार काल में अंतर]]</li> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="3" id="3">समयादि व्यवहार काल निर्देश व तत्संबंधी शंका समाधान</strong><br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1"> समयादि की अपेक्षा व्यवहार काल का निर्देश</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय/25 </span><span class="PrakritGatha">समओ णिमिसो कट्ठा कला य णाली तदो दिवारत्ती। मासोदुअयणसंवच्छरो त्ति कालो परायत्तो।25।</span>=<span class="HindiText">समय, निमेष, काष्ठा, कला, घड़ी, अहोरात्र, मास, ऋतु, अयन और वर्ष ऐसा जो काल (व्यवहार काल) वह पराश्रित है।25।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> नियमसार/31 </span><span class="PrakritText">समयावलिभेदेन दु वियप्पं अहव होइ तिवियप्पं/तीदो संखेज्जावलिहदसंठाणप्पमाणं तु।31।</span> <span class="HindiText">समय और आवलि के भेद से व्यवहारकाल के दो भेद हैं, अथवा (भूत, वर्तमान और भविष्यत के भेद से) तीन भेद हैं। अतीत काल संस्थानों के और संख्यात आवलि के गुणकार जितना है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/5/22/293/3 </span><span class="SanskritText">परिणामादिलक्षणो व्यवहारकाल:। अन्येन परिच्छिन्न: अन्यस्य परिच्छेदहेतु: क्रियाविशेष: काल इति व्यवह्नियते। स त्रिधा व्यवतिष्ठते भूतो वर्तमानो भविष्यन्निति...व्यवहारकाले भूतादिव्यपदेशो मुख्य:। कालव्यपदेशो गौण:, क्रियावद्द्रव्यापेक्षत्वात्कालकृतत्वाच्च। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/5/40/315/4 </span><span class="SanskritText">सांप्रतिकस्यैकसमयिकत्वेऽपि अतीता अनागताश्च समया अनंता इति कृत्वा ‘‘अनंतसमय:’’ इत्युच्यते।</span>=<span class="HindiText">1. परिणामादि लक्षणवाला व्यवहार काल है। तात्पर्य यह है कि जो क्रियाविशेष अन्य से परिच्छिन्न होकर अन्य के परिच्छेद का हेतु है उसमें काल इस प्रकार का व्यवहार किया जाता है। वह काल तीन प्रकार का है-भूत, वर्तमान और भविष्यत।... व्यवहार काल में भूतादिक रूप संज्ञा मुख्य है और काल संज्ञा गौण है; क्योंकि इस प्रकार का व्यवहार क्रियावाले द्रव्य की अपेक्षा से होता है तथा काल का कार्य है। 2. यद्यपि वर्तमान काल एक समयवाला है तो भी अतीत और अनागत अनंत समय है ऐसा मानकर काल को अनंत समयवाला कहा है। <span class="GRef">( राजवार्तिक/5/22/24/482/9 )</span> </span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 11/4,2,6,1/1/75 </span><span class="PrakritGatha"> कालो परिणामभवो परिणामो दव्वकालसंभूदो। दोण्णं एस सहाओ कालो खणभंगुरो णियदो।1।</span>=<span class="HindiText">समयादि रूप व्यवहार काल चूँकि जीव व पुद्गल के परिणमन से जाना जाता है, अत: वह उससे उत्पन्न हुआ कहा जाता है। ....व्यवहारकाल क्षणस्थायी है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 4/1,5,1/317/11 </span><span class="SanskritText">कल्यंते संख्यायंते कर्म-भव-कायायुस्थितयोऽनेनेति कालशब्दव्युत्पत्ते:। काल: समय अद्धा इत्येकोऽर्थ:।</span>=<span class="HindiText">जिसके द्वारा कर्म, भव, काय और आयु की स्थितियाँ कल्पित या संख्यात की जाती हैं अर्थात् कही जाती हैं, उसे काल कहते हैं, इस प्रकार की काल शब्द की व्युत्पत्ति है। काल, समय और अद्धा, ये सब एकार्थवाची नाम हैं। <span class="GRef">( राजवार्तिक/5/22/25/482/21 )</span></span><br /> | |||
<span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/137 </span>... <span class="PrakritText">परिणामो। पज्जयठिदि उवचरिदो ववहारादो य णायव्वो।137।</span>=<span class="HindiText">परिणाम अथवा पर्याय की स्थिति को उपचार से वा व्यवहार से काल जानना चाहिए।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/572/1017 </span><span class="PrakritText"> ववहारो य वियप्पो भेदो तह पज्जओत्ति एयट्ठो। ववहारअवठ्ठाणट्ठिदी हु ववहारकालो दु।</span>=<span class="HindiText">व्यवहार अर विकल्प अर भेद अर पर्याय ऐ सर्व एकार्थ हैं। इनि शब्दनि का एक अर्थ है तहाँ व्यंजन पर्याय का अवस्थान जो वर्तमानपना ताकरि स्थिति जो काल का परिणाम सोई व्यवहार काल है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह व टीका/21/60 </span> <span class="SanskritText">दव्वपरिवट्टरूवो जो सो कालो हवेइ ववहारो।...।21। पर्यायस्य संबंधिनी याऽसौ समयघटिकादिरूपा स्थिति: सा व्यवहारकालसंज्ञा भवति, न च पर्याय इत्यभिप्राय:।</span>=<span class="HindiText">जो द्रव्यों के परिवर्तन में सहायक, परिणामादि लक्षणवाला है, सो व्यवहारकाल है।21। द्रव्य की पर्याय से संबंध रखनेवाली यह समय, घड़ी आदि रूप जो स्थिति है वह स्थिति ही ‘व्यवहार काल’ है; वह पर्याय व्यवहार काल नहीं है। <span class="GRef">( द्रव्यसंग्रह टीका/21/61 )</span></span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/277 </span><span class="PrakritText"> तदुदाहरणं संप्रति परिणमनं सत्तयावधार्येत। अस्ति विवक्षित्वादिह नास्त्यंशस्याविवक्षया तदिह।277।</span>=<span class="HindiText">अब उसका उदाहरण यह है कि सत् सामान्यरूप परिणमन की विवक्षा से काल सामान्य काल कहलाता है। और सत् के विवक्षित द्रव्य, गुण व पर्याय रूप विशेष अंशों के परिणमन की अपेक्षा से काल विशेष काल कहलाता है। <br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2"> समयादि की उत्पत्ति के निमित्त</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/4/13,14 </span><span class="SanskritText">(ज्योतिषदेवा:) मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके।13। तत्कृत: कालविभाग:।14।</span> =<span class="HindiText">ज्योतिषदेव मनुष्य लोक में मेरु की प्रदक्षिणा करने वाले और निरंतर गतिशील हैं।13। उन गमन करने वाले ज्योतिषयों के द्वारा किया हुआ काल विभाग है।14।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/139 </span><span class="SanskritText">यो हि येन प्रदेशमात्रेण कालपदार्थेनाकाशस्य प्रदेशोऽभिव्याप्तस्तं प्रदेशं मंदगत्यातिक्रमत: परमाणोस्तत्प्रदेशमात्रातिक्रमणपरिमाणेन तेन समो य: कालपदार्थसूक्ष्मवृत्तिरूपसमय: स तस्य कालपदार्थस्य पर्याय:।</span>=<span class="HindiText">किसी प्रदेशमात्र कालपदार्थ के द्वारा आकाश का जो प्रदेश व्याप्त हो उस प्रदेश को जब परमाणु मंदगति से उल्लंघन करता है तब उस प्रदेशमात्र अतिक्रमण के परिमाण के बराबर जो काल पदार्थ की सूक्ष्मवृत्ति रूप ‘समय’ है, वह उस काल पदार्थ की पर्याय है। <span class="GRef">( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/31 )</span></span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/25 </span><span class="SanskritText">परमाणुप्रचलनायत्त: समय:। नयनपुटघटनायत्तो निमिष:। तत्संख्याविशेषत: काष्ठा कला नाली च। गगनमणिगमनायत्तो दिवारात्र:। तत्संख्याविशेषत: मास:, ऋतु:, अयनं, संवत्सरमिति।</span>=<span class="HindiText">परमाणु के गमन के आश्रित समय है; आँख मिचने के आश्रित निमेष है; उसकी (निमेष की) अमुक संख्या से काष्ठा, कला, और घड़ी होती है; सूर्य के गमन के आश्रित अहोरात्र होता है; और उसकी (अहोरात्र की) अमुक संख्या से मास, ऋतु, अयन और वर्ष होते हैं। <span class="GRef">( द्रव्यसंग्रह वृहद्/टीका/35/134)</span></span><br /> | |||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह वृहद्/टीका/21/62 </span> <span class="SanskritText">समयोत्पत्तौ मंदगतिपरिणतपुद्गलपरमाणुस्तथा निमेषकालोत्पत्तौ नयनपुटविघटनं, तथैव घटिकाकालपर्यायोत्पत्तौ घटिकासामग्रीभूतजलभाजनपुरुषहस्तादिव्यापारो, दिवसपर्याये तु दिनकरबिंबमुपादानकारणमिति।</span>=<span class="HindiText">समय रूप काल पर्याय की उत्पत्ति में मंद गति से परिणत पुद्गल परमाणु निमेष रूप काल को उत्पत्ति में नेत्रों के पुटों का विघटन, घड़ी रूप काल पर्याय की उत्पत्ति में घड़ी की सामग्री रूप जल का कटोरा और पुरुष के हाथ आदि का व्यापार दिन रूप काल पर्याय की उत्पत्ति में सूर्य का बिंब उपादान कारण है।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3"> परमाणु की तीव्रगति से समय का विभाग नहीं हो जाता</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/139 </span><span class="SanskritText">तथाहि—यथा विशिष्टावगाहपरिणामादेकपरमाणुपरिमाणोऽनंतपरमाणुस्कंध: परमाणोरनंशत्वात् पुनरप्यनंतांशत्वं न साधयति तथा विशिष्टगतिपरिणामादेककालाणुव्याप्तैकाकाशप्रदेशातिक्रमणपरिमाणावच्छिंनेनैकसमयेनैकस्माल्लोकांताद् द्वितीयं लोकांतमाक्रमत: परमाणोरसंख्येया: कालाणव: समयस्यानंशत्वादसंख्येयांशत्वं न साधयंति।</span>=<span class="HindiText">जैसे विशिष्ट अवगाह परिणाम के कारण एक परमाणु के परिमाण के बराबर अनंत परमाणुओं का स्कंध बनता है तथापि वह स्कंध परमाणु के अनंत अंशों को सिद्ध नहीं करता, क्योंकि परमाणु निरंश है; उसी प्रकार जैसे एक कालाणु से व्याप्त एक आकाशप्रदेश के अतिक्रमण के माप के बराबर एक ‘समय’ में परमाणु विशिष्टगति परिणाम के कारण लोक के एक छोर से दूसरे छोर तक जाता है तब (उस परमाणु के द्वारा उल्लंघित होने वाले) असंख्य कालाणु ‘समय’ के असंख्य अंशों को सिद्ध नहीं करते, क्योंकि ‘समय’ निरंश है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/25/53/8 </span><span class="SanskritText">ननु यावता कालेनैकप्रदेशातिक्रमं करोति पुद्गलपरमाणुस्तत्प्रमाणेन समयव्याख्यानं कृतं स एकसमये चतुर्दशरज्जु-गमनकाले यावंत: प्रदेशास्तावंत: समया भवंतीति। नैवं। एकप्रदेशातिक्रमेण या समयोत्पत्तिर्भणिता सा मंदगतिगमनेन, चतुर्दशरज्जुगमनं यदेकसमये भणितं तदक्रमेण शीघ्रगत्या कथितमिति नास्ति दोष:। अत्र दृष्टांतमाह—यथा कोऽपि देवदत्तो योजनशतं दिनशतेन गच्छति स एव विद्याप्रभावेण दिनेनैकेन गच्छति तत्र किं दिनशतं भवति नैवैकदिनमेव तथा शीघ्रगतिगमने सति चतुर्दशरज्जुगमनेप्येकसमय एव नास्ति दोष: इति।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—जितने काल में ‘‘आकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में परमाणु गमन करता है उतने काल का नाम समय है’’ ऐसा शास्त्र में कहा है तो एक समय में परमाणु के चौदह रज्जु गमन करने पर, जितने आकाश के प्रदेश हैं उतने ही समय होने चाहिए? <strong>उत्तर</strong>—आगम में जो परमाणु का एक समय में एक आकाश के प्रदेश के साथ वाले दूसरे प्रदेश पर गमन करना कहा है, सो तो मंदगति की अपेक्षा से है तथा परमाणु का एक समय में जो चौदह रज्जु का गमन कहा है वह शीघ्र गमन की अपेक्षा से है। इसलिए शीघ्रगति से चौदह रज्जु गमन करने में भी परमाणु को एक ही समय लगता है। इसमें दृष्टांत यह है कि –जैसे देवदत्त धीमी चाल से सौ योजन सौ दिन में जाता है, वही देवदत्त विद्या के प्रभाव से शीघ्र गति के द्वारा सौ योजन एक दिन में भी जाता है, तो क्या उस देवदत्त को शीघ्रगति से सौ योजन गमन करने में सौ दिन हो गये? किंतु एक ही दिन लगेगा। इसी तरह शीघ्रगति से चौदह रज्जु गमन करने में भी परमाणु को एक ही समय लगेगा। <span class="GRef">( द्रव्यसंग्रह टीका/22/66/1 )</span><br /> | |||
<span class="GRef"> श्लोकवार्तिक/2/ भाषाकार 1/5/66-68/278/2</span> <span class="HindiText">लोक संबंधी नीचे के वातवलय से ऊपर के वातवलय में जानेवाला वायुकाय का जीव या परमाणु एक समय में चौदह राजू जाता है। अत: एक समय के भी असंख्यात अविभाग प्रतिच्छेद माने गये हैं। संसार का कोई भी छोटे से छोटा पूरा कार्य एक समय में न्यून काल में नहीं होता है।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4">व्यवहार काल का व्यवहार मनुष्य क्षेत्र में ही होता है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/5/22/25/482/20 </span><span class="SanskritText">व्यवहारकालो मनुष्यक्षेत्रे संभवति इत्युच्यते। तत्र ज्योतिषाणां गतिपरिणामात्, न बहि:निवृत्तगतिव्यापारत्वात् ज्योतिषानाम् ।</span>=<span class="HindiText">सूर्यगति निमित्तक व्यवहारकाल मनुष्य क्षेत्र में ही चलता है, क्योंकि मनुष्य लोक के ज्योतिर्देव गतिशील होते हैं, बाहर के ज्योतिर्देव अवस्थित हैं। <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड/577 )</span></span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 4/1,5,1,320/5 </span><span class="PrakritText"> माणुसखेत्तेक्कसुज्जमंडलेतियालगोयराणंतपज्जाएहि आवूरिदे।</span>=<span class="HindiText">त्रिकालगोचर अनंत पर्यायों से परिपूरित एक मात्र मनुष्य क्षेत्र संबंधी सूर्यमंडल में ही काल है; अर्थात् काल का आधार मनुष्य क्षेत्र संबंधी सूर्यमंडल है।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.5" id="3.5">देवलोक आदि में इसका व्यवहार मनुष्यक्षेत्र की अपेक्षा किया जाता है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/5/22/25/482/21 </span><span class="SanskritText">मनुष्यक्षेत्रसमुत्थेन ज्योतिर्गतिसमयावलिकादिना परिच्छिन्नेन क्रियाकलापेन कालवर्तनया कालाख्येन ऊर्ध्वमधस्तिर्यग् च प्राणिनां संख्येयासंख्येयानंतानंतकालगणनाप्रभेदेन कर्मभवकायस्थितिपरिच्छेद:।</span>=<span class="HindiText">मनुष्य क्षेत्र से उत्पन्न आवलिका आदि से तीनों लोकों के प्राणियों की कर्मस्थिति, भवस्थिति, और कायस्थिति आदि का परिच्छेद होता है। इसी से संख्येय असंख्येय और अनंत आदि की गिनती की जाती है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला/4/320/9 </span><span class="PrakritText">इहत्थेणेव कालेण तेसिं ववहारादो।</span>=<span class="HindiText">यहाँ के काल से ही देवलोक में काल का व्यवहार होता है।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.6" id="3.6"> जब सब द्रव्यों का परिणाम काल है तो मनुष्य क्षेत्र में इसका व्यवहार क्यों</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला/4/1,5,1321/1 </span><span class="PrakritText">जीव-पोग्गलपरिणामो कालो होदि, तो सव्वेसु जीव-पोग्गलेसु संठिएण कालेण होदव्वं; तदो माणुसखेत्तेक्कसुज्जमंडलट्ठिदो कालो त्ति ण घडदे। ण एस दोसो, निखज्जत्तादो। किंतु ण तहा लोगे समए वा संववहारो अत्थि; अणाइणिहणरूवेण सुज्जमंडल किरियापरिणामेसु चेव कालसंववहारो पयट्ठो। तम्हा एदस्सेव गहणं कायव्वं।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—यदि जीव और पुद्गलों का परिणाम ही काल है; तो सभी जीव और पुद्गलों में काल को संस्थित होना चाहिए। तब ऐसी दशा में ‘मनुष्य क्षेत्र के एक सूर्य मंडल में ही काल स्थित है’ यह बात घटित नहीं होती? <strong>उत्तर</strong>—यह कोई दोष नहीं है। क्योंकि उक्त कथन निर्दोष है। किंतु लोक में या शास्त्र में उस प्रकार से संव्यवहार नहीं है, पर अनादिनिधन स्वरूप से सूर्यमंडल की क्रिया—परिणामों में ही काल का संव्यवहार प्रवृत्त है। इसलिए इसका ही ग्रहण करना चाहिए। <br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.7" id="3.7"> भूत वर्तमान व भविष्यत काल का प्रमाण</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> नियमसार व टीका/31,32 </span><span class="SanskritText">तीदो संखेज्जावलिहदसंठाणप्पमाणं तु।31। अतीतकालप्रपंचोऽयमुच्यते—अतीतसिद्धानां सिद्धपर्य्यायप्रादुर्भावसमयात् पुरागतो ह्यावल्यादिव्यवहारकाल: स कालस्यैषां संसारावस्थानां यानि संस्थानानि गतानि तै: सदृशत्वादनंत:। अनागतकालोऽप्यनागतसिद्धानामनागतशरीराणि यानि तै: सदृशत्या: (?) मुक्ते: सकाशादित्यर्थ:।।टी.।। जीवादु पुग्गलादोऽणंतगुणा चावि संपदा समया:।</span>=<span class="HindiText">अतीतकाल (अतीत) संस्थानों के और संख्यात आवलि के गुणाकार जितना है।31। अतीतकाल का विस्तार कहा जाता है; अतीत सिद्धों को सिद्धपर्याय के प्रादुर्भाव समय से पूर्व बीता हुआ जो आवलि आदि व्यवहार काल वह उन्हें संसार दशा में जितने संस्थान बीत गये हैं उनके जितना होने से अनंत है। (अनागत सिद्धों को मुक्ति होने तक का) अनागत काल भी अनागत सिद्धों के जो मुक्ति पर्यंत अनागत शरीर उनके बराबर है। अब, जीव से तथा पुद्गल से भी अनंतगुने समय हैं।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 4/1,5,1/321/5 </span><span class="PrakritText"> केवचिरंकालो। अणादिओ अपज्जवसिदो।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—काल कितने समय तक रहता है? <strong>उत्तर</strong>—काल अनादि और अपर्यवसित है, अर्थात् काल का न आदि है न अंत है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 4/ </span>? <span class="HindiText">सर्वदा अतीत काल सर्वजीव राशि के अनंतवें भाग प्रमाण रहता है, अन्यथा सर्व जीवों के अभाव होने का प्रसंग आता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/578,579 </span><span class="PrakritGatha">ववहारो पुण तिविहो तीदो वट्टंतगो भविस्सो दु। तीदो संखेज्जावलिहदसिद्धाणं पमाणो दु।578। समयो हु वट्टाणो जीवादो सव्वपुग्गलादो वि। भावी अणंतगुणिदो इदि ववहारो हवे कालो।579।</span>=<span class="HindiText">व्यवहार काल तीन प्रकार है—अतीत, अनागत और वर्तमान। तहाँ अतीतकाल सिद्ध राशिकौं संख्यात आवलीकरि गुणैं जो प्रमाण होइ तितना जानना।578। वर्तमान काल एक समयमात्र जानना। बहुरि भावी जो अनागतकाल सो सर्व जीवराशितैं वा सर्व पुद्गलराशितैं भी अनंतगुणा जानना। ऐसे व्यवहार काल तीन प्रकार कहा।579।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.8" id="3.8"> काल प्रमाण स्थित कर देने पर अनादि भी सादि बन जायेगा—</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 3/1,2,3/30/5 </span><span class="PrakritText">अणाइस्स अदीदकालस्स कधं पमाणं ठविज्जदि। ण, अण्णहाँ तस्साभावपसंगादो। ण च अणादि त्ति जाणिदे सादित्तं पावेदि, विरोहा।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—अतीतकाल अनादि है, इसलिए उसका प्रमाण कैसे स्थापित किया जा सकता है? <strong>उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि यदि उसका प्रमाण नहीं माना जाये तो उसके अभाव का प्रसंग आ जायेगा। परंतु उसके अनादित्व का ज्ञान हो जाता है, इसलिए उसे सादित्व की प्राप्ति हो जायेगी, सो भी बात नहीं है, क्योंकि, ऐसा मानने में विरोध आता है।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.9" id="3.9">निश्चय व व्यवहार काल में अंतर—</strong></span><strong><BR></strong><span class="GRef"> राजवार्तिक/1/8/20/43/20 </span><span class="SanskritText"> मुख्यकालास्तित्वसंप्रत्ययार्थं पुन: कालग्रहणम् । द्विविधो हि कालो मुख्यो व्यावहारिकश्चेति। तत्र मुख्यो निश्चयकाल:। पर्यायियपर्यायावधिपरिच्छेदो व्यावहारिक:। </span>=<span class="HindiText">मुख्य काल के अस्तित्व की सूचना देने के लिए स्थिति से पृथक् काल का ग्रहण किया है।...व्यवहार काल पर्याय और पर्यायी की अवधि का परिच्छेद करता है। </span></li></ol></li></ol> | ||
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Latest revision as of 14:41, 27 November 2023
- समयादि व्यवहार काल निर्देश व तत्संबंधी शंका समाधान
- समयादि की अपेक्षा व्यवहार काल का निर्देश
- समयादि की उत्पत्ति के निमित्त
- परमाणु की तीव्रगति से समय का विभाग नहीं हो जाता
- व्यवहार काल का व्यवहार मनुष्य क्षेत्र में ही होता है
- देवलोक आदि में इसका व्यवहार मनुष्यक्षेत्र की अपेक्षा किया जाता है
- जब सब द्रव्यों का परिणाम काल है तो मनुष्य क्षेत्र में इसका व्यवहार क्यों
- भूत वर्तमान व भविष्यत काल का प्रमाण
- काल प्रमाण स्थित कर देने पर अनादि भी सादि बन जायेगा
- निश्चय व व्यवहार काल में अंतर
- समयादि व्यवहार काल निर्देश व तत्संबंधी शंका समाधान
- समयादि की अपेक्षा व्यवहार काल का निर्देश
पंचास्तिकाय/25 समओ णिमिसो कट्ठा कला य णाली तदो दिवारत्ती। मासोदुअयणसंवच्छरो त्ति कालो परायत्तो।25।=समय, निमेष, काष्ठा, कला, घड़ी, अहोरात्र, मास, ऋतु, अयन और वर्ष ऐसा जो काल (व्यवहार काल) वह पराश्रित है।25।
नियमसार/31 समयावलिभेदेन दु वियप्पं अहव होइ तिवियप्पं/तीदो संखेज्जावलिहदसंठाणप्पमाणं तु।31। समय और आवलि के भेद से व्यवहारकाल के दो भेद हैं, अथवा (भूत, वर्तमान और भविष्यत के भेद से) तीन भेद हैं। अतीत काल संस्थानों के और संख्यात आवलि के गुणकार जितना है।
सर्वार्थसिद्धि/5/22/293/3 परिणामादिलक्षणो व्यवहारकाल:। अन्येन परिच्छिन्न: अन्यस्य परिच्छेदहेतु: क्रियाविशेष: काल इति व्यवह्नियते। स त्रिधा व्यवतिष्ठते भूतो वर्तमानो भविष्यन्निति...व्यवहारकाले भूतादिव्यपदेशो मुख्य:। कालव्यपदेशो गौण:, क्रियावद्द्रव्यापेक्षत्वात्कालकृतत्वाच्च।
सर्वार्थसिद्धि/5/40/315/4 सांप्रतिकस्यैकसमयिकत्वेऽपि अतीता अनागताश्च समया अनंता इति कृत्वा ‘‘अनंतसमय:’’ इत्युच्यते।=1. परिणामादि लक्षणवाला व्यवहार काल है। तात्पर्य यह है कि जो क्रियाविशेष अन्य से परिच्छिन्न होकर अन्य के परिच्छेद का हेतु है उसमें काल इस प्रकार का व्यवहार किया जाता है। वह काल तीन प्रकार का है-भूत, वर्तमान और भविष्यत।... व्यवहार काल में भूतादिक रूप संज्ञा मुख्य है और काल संज्ञा गौण है; क्योंकि इस प्रकार का व्यवहार क्रियावाले द्रव्य की अपेक्षा से होता है तथा काल का कार्य है। 2. यद्यपि वर्तमान काल एक समयवाला है तो भी अतीत और अनागत अनंत समय है ऐसा मानकर काल को अनंत समयवाला कहा है। ( राजवार्तिक/5/22/24/482/9 )
धवला 11/4,2,6,1/1/75 कालो परिणामभवो परिणामो दव्वकालसंभूदो। दोण्णं एस सहाओ कालो खणभंगुरो णियदो।1।=समयादि रूप व्यवहार काल चूँकि जीव व पुद्गल के परिणमन से जाना जाता है, अत: वह उससे उत्पन्न हुआ कहा जाता है। ....व्यवहारकाल क्षणस्थायी है।
धवला 4/1,5,1/317/11 कल्यंते संख्यायंते कर्म-भव-कायायुस्थितयोऽनेनेति कालशब्दव्युत्पत्ते:। काल: समय अद्धा इत्येकोऽर्थ:।=जिसके द्वारा कर्म, भव, काय और आयु की स्थितियाँ कल्पित या संख्यात की जाती हैं अर्थात् कही जाती हैं, उसे काल कहते हैं, इस प्रकार की काल शब्द की व्युत्पत्ति है। काल, समय और अद्धा, ये सब एकार्थवाची नाम हैं। ( राजवार्तिक/5/22/25/482/21 )
नयचक्र बृहद्/137 ... परिणामो। पज्जयठिदि उवचरिदो ववहारादो य णायव्वो।137।=परिणाम अथवा पर्याय की स्थिति को उपचार से वा व्यवहार से काल जानना चाहिए।
गोम्मटसार जीवकांड/572/1017 ववहारो य वियप्पो भेदो तह पज्जओत्ति एयट्ठो। ववहारअवठ्ठाणट्ठिदी हु ववहारकालो दु।=व्यवहार अर विकल्प अर भेद अर पर्याय ऐ सर्व एकार्थ हैं। इनि शब्दनि का एक अर्थ है तहाँ व्यंजन पर्याय का अवस्थान जो वर्तमानपना ताकरि स्थिति जो काल का परिणाम सोई व्यवहार काल है।
द्रव्यसंग्रह व टीका/21/60 दव्वपरिवट्टरूवो जो सो कालो हवेइ ववहारो।...।21। पर्यायस्य संबंधिनी याऽसौ समयघटिकादिरूपा स्थिति: सा व्यवहारकालसंज्ञा भवति, न च पर्याय इत्यभिप्राय:।=जो द्रव्यों के परिवर्तन में सहायक, परिणामादि लक्षणवाला है, सो व्यवहारकाल है।21। द्रव्य की पर्याय से संबंध रखनेवाली यह समय, घड़ी आदि रूप जो स्थिति है वह स्थिति ही ‘व्यवहार काल’ है; वह पर्याय व्यवहार काल नहीं है। ( द्रव्यसंग्रह टीका/21/61 )
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/277 तदुदाहरणं संप्रति परिणमनं सत्तयावधार्येत। अस्ति विवक्षित्वादिह नास्त्यंशस्याविवक्षया तदिह।277।=अब उसका उदाहरण यह है कि सत् सामान्यरूप परिणमन की विवक्षा से काल सामान्य काल कहलाता है। और सत् के विवक्षित द्रव्य, गुण व पर्याय रूप विशेष अंशों के परिणमन की अपेक्षा से काल विशेष काल कहलाता है।
- समयादि की उत्पत्ति के निमित्त
तत्त्वार्थसूत्र/4/13,14 (ज्योतिषदेवा:) मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके।13। तत्कृत: कालविभाग:।14। =ज्योतिषदेव मनुष्य लोक में मेरु की प्रदक्षिणा करने वाले और निरंतर गतिशील हैं।13। उन गमन करने वाले ज्योतिषयों के द्वारा किया हुआ काल विभाग है।14।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/139 यो हि येन प्रदेशमात्रेण कालपदार्थेनाकाशस्य प्रदेशोऽभिव्याप्तस्तं प्रदेशं मंदगत्यातिक्रमत: परमाणोस्तत्प्रदेशमात्रातिक्रमणपरिमाणेन तेन समो य: कालपदार्थसूक्ष्मवृत्तिरूपसमय: स तस्य कालपदार्थस्य पर्याय:।=किसी प्रदेशमात्र कालपदार्थ के द्वारा आकाश का जो प्रदेश व्याप्त हो उस प्रदेश को जब परमाणु मंदगति से उल्लंघन करता है तब उस प्रदेशमात्र अतिक्रमण के परिमाण के बराबर जो काल पदार्थ की सूक्ष्मवृत्ति रूप ‘समय’ है, वह उस काल पदार्थ की पर्याय है। ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/31 )
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/25 परमाणुप्रचलनायत्त: समय:। नयनपुटघटनायत्तो निमिष:। तत्संख्याविशेषत: काष्ठा कला नाली च। गगनमणिगमनायत्तो दिवारात्र:। तत्संख्याविशेषत: मास:, ऋतु:, अयनं, संवत्सरमिति।=परमाणु के गमन के आश्रित समय है; आँख मिचने के आश्रित निमेष है; उसकी (निमेष की) अमुक संख्या से काष्ठा, कला, और घड़ी होती है; सूर्य के गमन के आश्रित अहोरात्र होता है; और उसकी (अहोरात्र की) अमुक संख्या से मास, ऋतु, अयन और वर्ष होते हैं। ( द्रव्यसंग्रह वृहद्/टीका/35/134)
द्रव्यसंग्रह वृहद्/टीका/21/62 समयोत्पत्तौ मंदगतिपरिणतपुद्गलपरमाणुस्तथा निमेषकालोत्पत्तौ नयनपुटविघटनं, तथैव घटिकाकालपर्यायोत्पत्तौ घटिकासामग्रीभूतजलभाजनपुरुषहस्तादिव्यापारो, दिवसपर्याये तु दिनकरबिंबमुपादानकारणमिति।=समय रूप काल पर्याय की उत्पत्ति में मंद गति से परिणत पुद्गल परमाणु निमेष रूप काल को उत्पत्ति में नेत्रों के पुटों का विघटन, घड़ी रूप काल पर्याय की उत्पत्ति में घड़ी की सामग्री रूप जल का कटोरा और पुरुष के हाथ आदि का व्यापार दिन रूप काल पर्याय की उत्पत्ति में सूर्य का बिंब उपादान कारण है।
- परमाणु की तीव्रगति से समय का विभाग नहीं हो जाता
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/139 तथाहि—यथा विशिष्टावगाहपरिणामादेकपरमाणुपरिमाणोऽनंतपरमाणुस्कंध: परमाणोरनंशत्वात् पुनरप्यनंतांशत्वं न साधयति तथा विशिष्टगतिपरिणामादेककालाणुव्याप्तैकाकाशप्रदेशातिक्रमणपरिमाणावच्छिंनेनैकसमयेनैकस्माल्लोकांताद् द्वितीयं लोकांतमाक्रमत: परमाणोरसंख्येया: कालाणव: समयस्यानंशत्वादसंख्येयांशत्वं न साधयंति।=जैसे विशिष्ट अवगाह परिणाम के कारण एक परमाणु के परिमाण के बराबर अनंत परमाणुओं का स्कंध बनता है तथापि वह स्कंध परमाणु के अनंत अंशों को सिद्ध नहीं करता, क्योंकि परमाणु निरंश है; उसी प्रकार जैसे एक कालाणु से व्याप्त एक आकाशप्रदेश के अतिक्रमण के माप के बराबर एक ‘समय’ में परमाणु विशिष्टगति परिणाम के कारण लोक के एक छोर से दूसरे छोर तक जाता है तब (उस परमाणु के द्वारा उल्लंघित होने वाले) असंख्य कालाणु ‘समय’ के असंख्य अंशों को सिद्ध नहीं करते, क्योंकि ‘समय’ निरंश है।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/25/53/8 ननु यावता कालेनैकप्रदेशातिक्रमं करोति पुद्गलपरमाणुस्तत्प्रमाणेन समयव्याख्यानं कृतं स एकसमये चतुर्दशरज्जु-गमनकाले यावंत: प्रदेशास्तावंत: समया भवंतीति। नैवं। एकप्रदेशातिक्रमेण या समयोत्पत्तिर्भणिता सा मंदगतिगमनेन, चतुर्दशरज्जुगमनं यदेकसमये भणितं तदक्रमेण शीघ्रगत्या कथितमिति नास्ति दोष:। अत्र दृष्टांतमाह—यथा कोऽपि देवदत्तो योजनशतं दिनशतेन गच्छति स एव विद्याप्रभावेण दिनेनैकेन गच्छति तत्र किं दिनशतं भवति नैवैकदिनमेव तथा शीघ्रगतिगमने सति चतुर्दशरज्जुगमनेप्येकसमय एव नास्ति दोष: इति।=प्रश्न—जितने काल में ‘‘आकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में परमाणु गमन करता है उतने काल का नाम समय है’’ ऐसा शास्त्र में कहा है तो एक समय में परमाणु के चौदह रज्जु गमन करने पर, जितने आकाश के प्रदेश हैं उतने ही समय होने चाहिए? उत्तर—आगम में जो परमाणु का एक समय में एक आकाश के प्रदेश के साथ वाले दूसरे प्रदेश पर गमन करना कहा है, सो तो मंदगति की अपेक्षा से है तथा परमाणु का एक समय में जो चौदह रज्जु का गमन कहा है वह शीघ्र गमन की अपेक्षा से है। इसलिए शीघ्रगति से चौदह रज्जु गमन करने में भी परमाणु को एक ही समय लगता है। इसमें दृष्टांत यह है कि –जैसे देवदत्त धीमी चाल से सौ योजन सौ दिन में जाता है, वही देवदत्त विद्या के प्रभाव से शीघ्र गति के द्वारा सौ योजन एक दिन में भी जाता है, तो क्या उस देवदत्त को शीघ्रगति से सौ योजन गमन करने में सौ दिन हो गये? किंतु एक ही दिन लगेगा। इसी तरह शीघ्रगति से चौदह रज्जु गमन करने में भी परमाणु को एक ही समय लगेगा। ( द्रव्यसंग्रह टीका/22/66/1 )
श्लोकवार्तिक/2/ भाषाकार 1/5/66-68/278/2 लोक संबंधी नीचे के वातवलय से ऊपर के वातवलय में जानेवाला वायुकाय का जीव या परमाणु एक समय में चौदह राजू जाता है। अत: एक समय के भी असंख्यात अविभाग प्रतिच्छेद माने गये हैं। संसार का कोई भी छोटे से छोटा पूरा कार्य एक समय में न्यून काल में नहीं होता है।
- व्यवहार काल का व्यवहार मनुष्य क्षेत्र में ही होता है
राजवार्तिक/5/22/25/482/20 व्यवहारकालो मनुष्यक्षेत्रे संभवति इत्युच्यते। तत्र ज्योतिषाणां गतिपरिणामात्, न बहि:निवृत्तगतिव्यापारत्वात् ज्योतिषानाम् ।=सूर्यगति निमित्तक व्यवहारकाल मनुष्य क्षेत्र में ही चलता है, क्योंकि मनुष्य लोक के ज्योतिर्देव गतिशील होते हैं, बाहर के ज्योतिर्देव अवस्थित हैं। ( गोम्मटसार जीवकांड/577 )
धवला 4/1,5,1,320/5 माणुसखेत्तेक्कसुज्जमंडलेतियालगोयराणंतपज्जाएहि आवूरिदे।=त्रिकालगोचर अनंत पर्यायों से परिपूरित एक मात्र मनुष्य क्षेत्र संबंधी सूर्यमंडल में ही काल है; अर्थात् काल का आधार मनुष्य क्षेत्र संबंधी सूर्यमंडल है।
- देवलोक आदि में इसका व्यवहार मनुष्यक्षेत्र की अपेक्षा किया जाता है
राजवार्तिक/5/22/25/482/21 मनुष्यक्षेत्रसमुत्थेन ज्योतिर्गतिसमयावलिकादिना परिच्छिन्नेन क्रियाकलापेन कालवर्तनया कालाख्येन ऊर्ध्वमधस्तिर्यग् च प्राणिनां संख्येयासंख्येयानंतानंतकालगणनाप्रभेदेन कर्मभवकायस्थितिपरिच्छेद:।=मनुष्य क्षेत्र से उत्पन्न आवलिका आदि से तीनों लोकों के प्राणियों की कर्मस्थिति, भवस्थिति, और कायस्थिति आदि का परिच्छेद होता है। इसी से संख्येय असंख्येय और अनंत आदि की गिनती की जाती है।
धवला/4/320/9 इहत्थेणेव कालेण तेसिं ववहारादो।=यहाँ के काल से ही देवलोक में काल का व्यवहार होता है।
- जब सब द्रव्यों का परिणाम काल है तो मनुष्य क्षेत्र में इसका व्यवहार क्यों
धवला/4/1,5,1321/1 जीव-पोग्गलपरिणामो कालो होदि, तो सव्वेसु जीव-पोग्गलेसु संठिएण कालेण होदव्वं; तदो माणुसखेत्तेक्कसुज्जमंडलट्ठिदो कालो त्ति ण घडदे। ण एस दोसो, निखज्जत्तादो। किंतु ण तहा लोगे समए वा संववहारो अत्थि; अणाइणिहणरूवेण सुज्जमंडल किरियापरिणामेसु चेव कालसंववहारो पयट्ठो। तम्हा एदस्सेव गहणं कायव्वं।=प्रश्न—यदि जीव और पुद्गलों का परिणाम ही काल है; तो सभी जीव और पुद्गलों में काल को संस्थित होना चाहिए। तब ऐसी दशा में ‘मनुष्य क्षेत्र के एक सूर्य मंडल में ही काल स्थित है’ यह बात घटित नहीं होती? उत्तर—यह कोई दोष नहीं है। क्योंकि उक्त कथन निर्दोष है। किंतु लोक में या शास्त्र में उस प्रकार से संव्यवहार नहीं है, पर अनादिनिधन स्वरूप से सूर्यमंडल की क्रिया—परिणामों में ही काल का संव्यवहार प्रवृत्त है। इसलिए इसका ही ग्रहण करना चाहिए।
- भूत वर्तमान व भविष्यत काल का प्रमाण
नियमसार व टीका/31,32 तीदो संखेज्जावलिहदसंठाणप्पमाणं तु।31। अतीतकालप्रपंचोऽयमुच्यते—अतीतसिद्धानां सिद्धपर्य्यायप्रादुर्भावसमयात् पुरागतो ह्यावल्यादिव्यवहारकाल: स कालस्यैषां संसारावस्थानां यानि संस्थानानि गतानि तै: सदृशत्वादनंत:। अनागतकालोऽप्यनागतसिद्धानामनागतशरीराणि यानि तै: सदृशत्या: (?) मुक्ते: सकाशादित्यर्थ:।।टी.।। जीवादु पुग्गलादोऽणंतगुणा चावि संपदा समया:।=अतीतकाल (अतीत) संस्थानों के और संख्यात आवलि के गुणाकार जितना है।31। अतीतकाल का विस्तार कहा जाता है; अतीत सिद्धों को सिद्धपर्याय के प्रादुर्भाव समय से पूर्व बीता हुआ जो आवलि आदि व्यवहार काल वह उन्हें संसार दशा में जितने संस्थान बीत गये हैं उनके जितना होने से अनंत है। (अनागत सिद्धों को मुक्ति होने तक का) अनागत काल भी अनागत सिद्धों के जो मुक्ति पर्यंत अनागत शरीर उनके बराबर है। अब, जीव से तथा पुद्गल से भी अनंतगुने समय हैं।
धवला 4/1,5,1/321/5 केवचिरंकालो। अणादिओ अपज्जवसिदो। =प्रश्न—काल कितने समय तक रहता है? उत्तर—काल अनादि और अपर्यवसित है, अर्थात् काल का न आदि है न अंत है।
धवला 4/ ? सर्वदा अतीत काल सर्वजीव राशि के अनंतवें भाग प्रमाण रहता है, अन्यथा सर्व जीवों के अभाव होने का प्रसंग आता है।
गोम्मटसार जीवकांड/578,579 ववहारो पुण तिविहो तीदो वट्टंतगो भविस्सो दु। तीदो संखेज्जावलिहदसिद्धाणं पमाणो दु।578। समयो हु वट्टाणो जीवादो सव्वपुग्गलादो वि। भावी अणंतगुणिदो इदि ववहारो हवे कालो।579।=व्यवहार काल तीन प्रकार है—अतीत, अनागत और वर्तमान। तहाँ अतीतकाल सिद्ध राशिकौं संख्यात आवलीकरि गुणैं जो प्रमाण होइ तितना जानना।578। वर्तमान काल एक समयमात्र जानना। बहुरि भावी जो अनागतकाल सो सर्व जीवराशितैं वा सर्व पुद्गलराशितैं भी अनंतगुणा जानना। ऐसे व्यवहार काल तीन प्रकार कहा।579।
- काल प्रमाण स्थित कर देने पर अनादि भी सादि बन जायेगा—
धवला 3/1,2,3/30/5 अणाइस्स अदीदकालस्स कधं पमाणं ठविज्जदि। ण, अण्णहाँ तस्साभावपसंगादो। ण च अणादि त्ति जाणिदे सादित्तं पावेदि, विरोहा।=प्रश्न—अतीतकाल अनादि है, इसलिए उसका प्रमाण कैसे स्थापित किया जा सकता है? उत्तर—नहीं, क्योंकि यदि उसका प्रमाण नहीं माना जाये तो उसके अभाव का प्रसंग आ जायेगा। परंतु उसके अनादित्व का ज्ञान हो जाता है, इसलिए उसे सादित्व की प्राप्ति हो जायेगी, सो भी बात नहीं है, क्योंकि, ऐसा मानने में विरोध आता है।
- निश्चय व व्यवहार काल में अंतर—
राजवार्तिक/1/8/20/43/20 मुख्यकालास्तित्वसंप्रत्ययार्थं पुन: कालग्रहणम् । द्विविधो हि कालो मुख्यो व्यावहारिकश्चेति। तत्र मुख्यो निश्चयकाल:। पर्यायियपर्यायावधिपरिच्छेदो व्यावहारिक:। =मुख्य काल के अस्तित्व की सूचना देने के लिए स्थिति से पृथक् काल का ग्रहण किया है।...व्यवहार काल पर्याय और पर्यायी की अवधि का परिच्छेद करता है।
- समयादि की अपेक्षा व्यवहार काल का निर्देश