वज्रजंघ: Difference between revisions
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<p id="1"> (1) | <div class="HindiText"> <p id="1" class="HindiText"> (1) तीर्थंकर वृषभदेव के सातवें पूर्वभव का जीव । यह जंबूद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में पुष्कलावती देश के उत्पलखेटक नगर के राजा वज्रबाहु और रानी वसुंधरा का पुत्र था । वज्र के समान जाँघ होने से इसका यह नाम रखा गया था । विदेहक्षेत्र में पुंडरीकिणी नगरी के राजा वज्रदंत और रानी लक्ष्मीमती की श्रीमती कन्या को इसने विवाहा था । इसके पिता इसे राज्य देकर यमधर मुनि के समीप पाँच सौ राजाओं के साथ दीक्षित हो गये थे । इसके पिता के साथ इसके अट्ठानवें पुत्र भी दीक्षित हुए तथा तप कर ये सभी मोक्ष गये । इसने और इसकी पत्नी श्रीमती ने वन में दमधर और सागरसेन मुनियों को आहार कराकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये थे । एक दिन शयनागार में सुगंधित धूप के धुऐं से यह और इसकी पत्नी दोनों की श्वास रुंध गयी और मध्यरात्रि में दोनों मर गये । पात्रदान के प्रभाव से यह उत्तरकुरु भोगभूमि में उत्पन्न हुआ । <span class="GRef"> महापुराण 6. 26-29, 58-60, 7. 57-59, 249, 8. 167-173, 9.26-27, 33, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_9#58|हरिवंशपुराण - 9.58-59]] </span></p> | ||
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Latest revision as of 15:21, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
- महापुराण/ सर्ग/श्लो.
- ‘‘पुष्कलावती देश के उत्पलखेट नगर के राजा वज्रबाहु का पुत्र था। (6/29)। पूर्व के देव भव की देवी स्वयंप्रभा में अत्यंत अनुरक्त था। (6/48)। श्रीमती का चित्र देखकर पूर्व भव स्मरण हो आया। (7/137-140)। और उसका पाणिग्रहण किया। (7/249)। ससुर के दीक्षा लेने पर ससुराल जाते समय मार्ग में मुनियों को आहार दान दिया। (8/173)। एक दिन शयनागार में धूपघटों के सुगंधित धूएँ से दम घुट जाने के कारण अकस्मात् मृत्यु आ गयी। (9/27)। पात्रदान के प्रभाव से भोगभूमि में उत्पन्न हुआ। (8/33)। यह भगवान् ऋषभदेव का पूर्व का सातवाँ भव है। (देखें ऋषभदेव )।
- पद्मपुराण/ सर्ग/श्लोक
-पुंडरीकपुर का राजा था। (97/183)। राम द्वारा परित्यक्त सीता को वन में देख उसे अपने घर ले गया। (99/1-4)। उसी के घर पर लव और कुश उत्पन्न हुए। (100/17-18)।
पुराणकोष से
(1) तीर्थंकर वृषभदेव के सातवें पूर्वभव का जीव । यह जंबूद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में पुष्कलावती देश के उत्पलखेटक नगर के राजा वज्रबाहु और रानी वसुंधरा का पुत्र था । वज्र के समान जाँघ होने से इसका यह नाम रखा गया था । विदेहक्षेत्र में पुंडरीकिणी नगरी के राजा वज्रदंत और रानी लक्ष्मीमती की श्रीमती कन्या को इसने विवाहा था । इसके पिता इसे राज्य देकर यमधर मुनि के समीप पाँच सौ राजाओं के साथ दीक्षित हो गये थे । इसके पिता के साथ इसके अट्ठानवें पुत्र भी दीक्षित हुए तथा तप कर ये सभी मोक्ष गये । इसने और इसकी पत्नी श्रीमती ने वन में दमधर और सागरसेन मुनियों को आहार कराकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये थे । एक दिन शयनागार में सुगंधित धूप के धुऐं से यह और इसकी पत्नी दोनों की श्वास रुंध गयी और मध्यरात्रि में दोनों मर गये । पात्रदान के प्रभाव से यह उत्तरकुरु भोगभूमि में उत्पन्न हुआ । महापुराण 6. 26-29, 58-60, 7. 57-59, 249, 8. 167-173, 9.26-27, 33, हरिवंशपुराण - 9.58-59
(2) विद्याधर नमि का वंशज । यह चंद्ररथ का पुत्र और वज्रसेन का पिता था । पद्मपुराण - 5.17, हरिवंशपुराण - 13.21
(3) पुंडरीकपुर नगर के राजा द्विरदवाह और रानी सुबंधु का पुत्र । यह इंद्रवंश में उत्पन्न हुआ था । परित्यक्ता सीता को इसने धर्म की बड़ी बहिन माना था । यह सीता को एक अलंकृत पालकी में बैठाकर और सैनिक चारों ओर रखकर अपने नगर ले गया था । सीता के अनंगलवण और मदनांकुश दोनों पुत्रों का जन्म तथा उनकी शिक्षा इसी के घर हुई थी । लक्ष्मी इसकी रानी थी । इस रानी से इसकी शशिचूला आदि बत्तीस कन्याएँ हुई थी । इन सब पुत्रियों को इसने अनंगलवण को देने का निश्चय किया था । यह मदनांकुश के लिए पृथिवीपुर के राजा पृथु की पुत्री चाहता था किंतु राजा पृथु कुल दोष के कारण अपनी कन्या मदनांकुश को नहीं देना चाहता था । इस विरोध के परिणाम स्वरूप राजा पृथु को युद्ध करना पड़ा । युद्ध में पृथु पराजित हुआ और उसने सादर अपनी पुत्री कनकमाला मदनांकुश को दी । राम ने सम्मान करते हुए इसे भामंडल के समान माना था । पद्मपुराण - 98.96-97,पद्मपुराण - 98.99. 1-4, 100. 17-21, 47-48, 101.1-90, 123. 69