समभिरूढनय निर्देश: Difference between revisions
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<li> <span class="HindiText" name="III.7" id="III.7">समभिरूढ नय निर्देश<br /> | <li> <span class="HindiText" name="III.7" id="III.7"><strong>समभिरूढ नय निर्देश</strong><br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.7.1" id="III.7.1"> समभिरूढ नय के लक्षण<br /> | <li><span class="HindiText" name="III.7.1" id="III.7.1"> <strong>समभिरूढ नय के लक्षण</strong><br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.7.1.1" id="III.7.1.1"> अर्थ भेद से शब्द भेद (रूढ शब्द प्रयोग)</span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.7.1.1" id="III.7.1.1"> <strong>अर्थ भेद से शब्द भेद (रूढ शब्द प्रयोग)</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/1/33/144/4</span> <span class="SanskritText"> नानार्थ समभिरोहणात्समभिरूढ:। यतो नानार्थान्समतीत्यैकमर्थमाभिमुख्येन रूढ: समभिरूढ:। गौरित्ययं शब्दो वागादिष्वर्द्येषु वर्तमान: पशावभिरूढ:।</span> =<span class="HindiText">नाना अर्थों का समभिरोहण करने वाला होने से समभिरूढ नय कहलाता है। चूँकि जो नाना अर्थों को ‘सम’ अर्थात् छोड़कर प्रधानता से एक अर्थ में रूढ होता है वह समभिरूढ नय है। उदाहरणार्थ—‘गो’ इस शब्द की वचन, पृथिवी आदि 11 अर्थों में प्रवृत्ति मानी जाती है, तो भी इस नय की अपेक्षा वह एक पशु विशेष के अर्थ में रूढ है। <span class="GRef">( राजवार्तिक/1/33/10/98/26 ); ( आलापपद्धति/5 ); ( नयचक्र बृहद्/215 )? ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.18); ( तत्त्वसार/1/49 ); ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/276 )</span>।</span><br /> | |||
राजवार्तिक/4/42/17/261/12 <span class="SanskritText">समभिरूढे वा प्रवृत्तिनिमित्तस्य च घटस्याभिन्नस्य सामान्येनाभिधानात् (अभेद:)।</span> =<span class="HindiText">समभिरूढ नय में घटनक्रिया से परिणत या अपरिणत, अभिन्न ही घट का निरूपण होता है। अर्थात् जो शब्द जिस पदार्थ के लिए रूढ कर दिया गया है, वह शब्द हर अवस्था में उस पदार्थ का वाचक होता है।</span><br /> | <span class="GRef">राजवार्तिक/4/42/17/261/12</span> <span class="SanskritText">समभिरूढे वा प्रवृत्तिनिमित्तस्य च घटस्याभिन्नस्य सामान्येनाभिधानात् (अभेद:)।</span> =<span class="HindiText">समभिरूढ नय में घटनक्रिया से परिणत या अपरिणत, अभिन्न ही घट का निरूपण होता है। अर्थात् जो शब्द जिस पदार्थ के लिए रूढ कर दिया गया है, वह शब्द हर अवस्था में उस पदार्थ का वाचक होता है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृष्ठ 18 </span><span class="SanskritText">एकबारमष्टोपवासं कृत्वा मुक्तेऽपि तपोधनं रूढिप्रधानतया यावज्जीवमष्टोपवासीति व्यवहरंति स तु समभिरूढनय:।</span> =<span class="HindiText">एक बार आठ उपवास करके मुक्त हो जाने पर भी तपोधन को रूढि की प्रधानता से यावज्जीव अष्टोपवासी कहना समभिरूढ नय है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="III.7.1.2" id="III.7.1.2"> शब्दभेद अर्थभेद</span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.7.1.2" id="III.7.1.2"> <strong>शब्दभेद अर्थभेद</strong></span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/1/33/144/5 | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/1/33/144/5 </span> <span class="SanskritText">अथवा अर्थगत्यर्थ: शब्दप्रयोग:। तत्रैकस्यार्थस्यैकेन गतार्थत्वात्पर्यायशब्दप्रयोगोऽनर्थक:। शब्दभेदश्चेदस्ति अर्थभेदेनाप्यवश्यं भवितव्यमिति। नानार्थसमभिरोहणात्समभिरूढ:। इंदनादिंद्र:, शकनाच्छक्र:, पूर्दारणात् पुरंदर इत्येवं सर्वत्र।</span>=<span class="HindiText">अथवा अर्थ का ज्ञान कराने के लिए शब्दों का प्रयोग किया जाता है। ऐसी हालत में एक अर्थ का एक शब्द से ज्ञान हो जाता है। इसलिए पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग करना निष्फल है। यदि शब्दों में भेद है तो अर्थभेद अवश्य होना चाहिए। इस प्रकार नाना अर्थों का समभिरोहण करने वाला होने समभिरूढ नय कहलाता है। जैसे इंद्र, शक्र और पुरंदर ये तीन शब्द होने से इनके अर्थ भी तीन हैं। क्योंकि व्युत्पत्ति की अपेक्षा ऐश्वर्यवान् होने से इंद्र, समर्थ होने से शक्र और नगरों का दारण करने से पुरंदर होता है। इसी प्रकार सर्वत्र समझना चाहिए। <span class="GRef">( राजवार्तिक/1/33/10/98/30 ), ( श्लोकवार्तिक 4/1/33 श्लो.76-77/263); ( हरिवंशपुराण/58/48 ); ( धवला 1/1,1,1/9/4 ); ( धवला 9/4,1,45/179/1 ); ( कषायपाहुड़ 1/13-14/200/239/6 ); ( नयचक्र बृहद्/215 ); ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक ./पृष्ठ 18); ( स्याद्वादमंजरी/28/314/15;316/3;318/28 )</span>।</span><br /> | ||
राजवार्तिक/4/42/17/261/16 | <span class="GRef">राजवार्तिक/4/42/17/261/16 </span> <span class="SanskritText">समभिरूढे वा नैमित्तिकत्वात् शब्दस्यैकशब्दवाच्य एक:।</span> =<span class="HindiText">समभिरूढ नय चूँकि शब्दनैमित्तिक है अत: एक शब्द का वाच्य एक ही होता है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.7.1.3" id="III.7.1.3"> वस्तु का निजस्वरूप में रूढ रहना </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.7.1.3" id="III.7.1.3"> <strong>वस्तु का निजस्वरूप में रूढ रहना </strong></span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/1/33/144/8 | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/1/33/144/8 </span> <span class="SanskritText">अथवा यो यत्राभिरूढ: स तत्र समेत्याभिसुख्येनारोहणात्समभिरूढ:। यथा क्व भवानास्ते। आत्मनीति। कुत:। वस्त्वंतरे वृत्त्यभावात् । यद्यन्यस्यान्यत्रवृत्ति: स्यात्, ज्ञानादीनां रूपादीनां चाकाशे वृत्ति: स्यात् ।</span>=<span class="HindiText">अथवा जो जहाँ अभिरूढ है वह वहाँ ‘सम्’ अर्थात् प्राप्त होकर प्रमुखता से रूढ होने के कारण समभिरूढ़ नय कहलाता है? यथा‒आप कहाँ रहते हैं? अपने में, क्योंकि अन्य वस्तु की अन्य वस्तु में वृत्ति नहीं हो सकती। यदि अन्य की अन्य में वृत्ति होती है, ऐसा माना जाये तो ज्ञानादिक की और रूपदिक की आकाश में वृत्ति होने लगे। <span class="GRef">( राजवार्तिक/1/33/10/99/2 )</span>।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.7.2" id="III.7.2"> यद्यपि रूढिगत अनेक शब्द एकार्थवाची हो जाते हैं</span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.7.2" id="III.7.2"> <strong>यद्यपि रूढिगत अनेक शब्द एकार्थवाची हो जाते हैं</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> आलापपद्धति/9</span> <span class="SanskritText">परस्परेणाभिरूढा: समभिरूढा:। शब्दभेदेऽत्यर्थभेदो नास्ति। शक्र इंद्र: पुरंदर इत्यादय: समभिरूढा:।</span> =<span class="HindiText">जो शब्द परस्पर में अभिरूढ या प्रसिद्ध हैं वे समभिरूढ हैं। उन शब्दों में भेद होते हुए भी अर्थभेद नहीं होता। जैसे‒शक्र, इंद्र व पुरंदर ये तीनों शब्द एक देवराज के लिए अभिरूढ या प्रसिद्ध हैं। (विशेष देखें [[ मतिज्ञान#3.4 | मतिज्ञान - 3.4]])।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="III.7.3" id="III.7.3"> | <li><span class="HindiText" name="III.7.3" id="III.7.3"> <strong>परंतु यहाँ पर्यायवाची शब्द नहीं हो सकते </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/1/33/144/6</span> <span class="SanskritText">तत्रैकस्यार्थस्येकेन गतार्थत्वात्पर्यायशब्दप्रयोगोऽनर्थक:। शब्दभेदश्चेदस्ति अर्थभेदेनाप्यवश्यं भवितव्यमिति।</span> =<span class="HindiText">जब एक अर्थ का एक शब्द से ज्ञान हो जाता है तो पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग करना निष्फल है। यदि शब्दों में भेद है तो अर्थभेद अवश्य होना चाहिए। <span class="GRef">( राजवार्तिक/1/33/10/98/30 )</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef">कषायपाहुड़ 1/13-14/200/240/1 </span> <span class="SanskritText">अस्मिन्नये न संति पर्यायशब्दा: प्रतिपदमर्थभेदाभ्युपगमात् । न च द्वौ शब्दावेकस्मिन्नर्थे वर्तेते; भिन्नयोरकार्थवृत्तिविरोधात् । न च समानशक्तित्वात्तत्र वर्तेते; समानशक्त्यो: शब्दयोरेकत्वापत्ते:। ततो वाचकभेदादवश्यं वाच्यभेदेन भाव्यमिति।</span>=<span class="HindiText">इस नय में पर्यायवाची शब्द नहीं पाये जाते हैं, क्योंकि यह नय प्रत्येक पद का भिन्न अर्थ स्वीकार करता है। दो शब्द एक अर्थ में रहते हैं, ऐसा मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि भिन्न दो शब्दों का एक अर्थ में सद्भाव मानने में विरोध आता है। यदि कहा जाये कि उन दोनों शब्दों में समान शक्ति पायी जाती है, इसलिए वे एक अर्थ में रहते हैं, सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि दो शब्दों में सर्वथा समान शक्ति मानने से वे वास्तव में दो न रहकर एक हो जायेंगे। इसलिए जब वाचक शब्दों में भेद पाया जाता है तो उनके वाच्यभूत अर्थ में भी भेद होना ही चाहिए। <span class="GRef">( धवला 1/1,1,1/89/5 )</span>।</span><br /> | |||
धवला 9/4,1,45/180/1 <span class="SanskritText">न स्वतो व्यतिरिक्ताशेषार्थव्यवच्छेदक: शब्द: अयोग्यत्वात् । योग्य: शब्दो योग्यार्थस्य व्यवच्छेदक इति...न च शब्दद्वयोर्द्वैविध्ये तत्सामर्थ्ययोरेकत्वं न्यायम्, भिन्नकालोत्पन्नद्रव्योपादानभिन्नाधारयोरेकत्वविरोधात् । न च सादृश्यमपि तयोरेकत्वापत्ते:। ततो वाचकभेदादवश्यं वाच्यभेदेनापि भवितव्यमिति। </span>=<span class="HindiText">शब्द अपने से भिन्न समस्त पदार्थों का व्यवच्छेदक नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें वैसी योग्यता नहीं है, | <span class="GRef">धवला 9/4,1,45/180/1</span> <span class="SanskritText">न स्वतो व्यतिरिक्ताशेषार्थव्यवच्छेदक: शब्द: अयोग्यत्वात् । योग्य: शब्दो योग्यार्थस्य व्यवच्छेदक इति...न च शब्दद्वयोर्द्वैविध्ये तत्सामर्थ्ययोरेकत्वं न्यायम्, भिन्नकालोत्पन्नद्रव्योपादानभिन्नाधारयोरेकत्वविरोधात् । न च सादृश्यमपि तयोरेकत्वापत्ते:। ततो वाचकभेदादवश्यं वाच्यभेदेनापि भवितव्यमिति। </span>=<span class="HindiText">शब्द अपने से भिन्न समस्त पदार्थों का व्यवच्छेदक नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें वैसी योग्यता नहीं है, किंतु योग्य शब्द योग्य अर्थ का व्यवच्छेदक होता है। दूसरे, शब्दों के दो प्रकार होने पर उनकी शक्तियों को एक मानना भी उचित नहीं है, क्योंकि भिन्न काल में उत्पन्न व उपादान एवं भिन्न आधारवाली शब्दशक्तियों के अभिन्न होने का विरोध है। इनमें सादृश्य भी नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा होने पर एकता की आपत्ति आती है। इस कारण वाचक के भेद से वाच्य भेद अवश्य होना चाहिए।<br /> | ||
नोट‒शब्द व अर्थ में वाच्य-वाचक | नोट‒शब्द व अर्थ में वाच्य-वाचक संबंध व उसकी सिद्धि के लिए देखें [[ आगम#4.2 | आगम - 4.2]]।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.7.4" id="III.7.4"> शब्द व समभिरूढ नय में | <li><span class="HindiText" name="III.7.4" id="III.7.4"> <strong>शब्द व समभिरूढ नय में अंतर </strong></span><br /> | ||
श्लोकवार्तिक 4/1/33/76/263/21 | <span class="GRef">श्लोकवार्तिक 4/1/33/76/263/21 </span> <span class="SanskritText">विश्वदृश्वा सर्वदृश्वेति पर्यायभेदेऽपि शब्दोऽभिन्नार्थमभिप्रैति भविता भविष्यतीति च कालभेदाभिमननात् । क्रियते विधीयते करोति विदधाति पुष्यस्तिष्य: तारकोडु: आपो वा: अंभ: सलिलमित्यादिपर्यायभेदेऽपि चाभिन्नमर्थं शब्दो मन्यते कारकादिभेदादेवार्थभेदाभिमननात् । समभिरूढ: पुन: पर्यायभेदेऽपि भिन्नार्थानामभिप्रैति। कथं-इंद्र: पुरंदर: शक्र इत्याद्याभिन्नगोचर:। यद्वा विभिन्नशब्दत्वाद्वाजिवारणशब्दवत् ।77। </span>=<span class="HindiText">जो विश्व को देख चुका है या जो सबको देख चुका है इन शब्दों में पर्यायभेद होने पर भी शब्द नय इनके अर्थ को अभिन्न मानता है। भविता (लुट्) और भविष्यति (लृट्) इस प्रकार पर्यायभेद होने पर भी, कालभेद न होने के कारण शब्दनय दोनों का एक अर्थ मानता है। तथा किया जाता है, विधान किया जाता है इन शब्दों का तथा इसी प्रकार; पुष्य व तिष्य इन दोनों पुंल्लिंगी शब्दों का; तारका व उडुका इन दोनों स्त्रीलिंगी शब्दों का; स्त्रीलिंगी ‘अप’ व वार् शब्दों का नपुंसकलिंगी अंभस् और सलिल शब्दों का; इत्यादि समानकाल कारक लिंग आदि वाले पर्यायवाची शब्दों का वह एक ही अर्थ मानता है। वह केवल कारक आदि का भेद हो जाने से ही पर्यायवाची शब्दों में अर्थभेद मानता है, परंतु कारकादिका भेद न होने पर अर्थात् समान कारकादि वाले पर्यायवाची शब्दों में अभिन्न अर्थ स्वीकार करता है। किंतु समभिरूढ नय तो पर्यायभेद होने पर भी उन शब्दों में अर्थभेद मानता है। जैसे‒कि इंद्र, पुरंदर व शक्र इत्यादि पर्यायवाची शब्द उसी प्रकार भिन्नार्थ गोचर हैं, जैसे कि बाजी (घोड़ा) व वारण (हाथी) ये शब्द।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="III.7.5" id="III.7.5"> समभिरूढ नयाभास का लक्षण </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.7.5" id="III.7.5"> <strong>समभिरूढ नयाभास का लक्षण </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/28/318/30</span> <span class="SanskritText">पर्यायध्वनीनामभिधेयनानात्वमेव कुक्षीकुर्वाणस्तदाभास:। यथेंद्र: शक्र: पुरंदर इत्यादय: शब्दा: भिन्नाभिधेया एव भिन्नशब्दत्वात् करिकुरंगतुरंगशब्दवद् इत्यादि:। </span>=<span class="HindiText">पर्यायवाची शब्दों के वाच्य में सर्वथा नानापना मानना समभिरूढाभास है। जैसे कि इंद्र, शक्र, पुरंदर इत्यादि शब्दों का अर्थ, भिन्न शब्द होने के कारण उसी प्रकार से भिन्न मानना जैसे कि हाथी, हिरण, घोड़ा इन शब्दों का अर्थ।<br /> | |||
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Latest revision as of 17:16, 19 February 2024
- समभिरूढ नय के लक्षण
- अर्थ भेद से शब्द भेद (रूढ शब्द प्रयोग)
सर्वार्थसिद्धि/1/33/144/4 नानार्थ समभिरोहणात्समभिरूढ:। यतो नानार्थान्समतीत्यैकमर्थमाभिमुख्येन रूढ: समभिरूढ:। गौरित्ययं शब्दो वागादिष्वर्द्येषु वर्तमान: पशावभिरूढ:। =नाना अर्थों का समभिरोहण करने वाला होने से समभिरूढ नय कहलाता है। चूँकि जो नाना अर्थों को ‘सम’ अर्थात् छोड़कर प्रधानता से एक अर्थ में रूढ होता है वह समभिरूढ नय है। उदाहरणार्थ—‘गो’ इस शब्द की वचन, पृथिवी आदि 11 अर्थों में प्रवृत्ति मानी जाती है, तो भी इस नय की अपेक्षा वह एक पशु विशेष के अर्थ में रूढ है। ( राजवार्तिक/1/33/10/98/26 ); ( आलापपद्धति/5 ); ( नयचक्र बृहद्/215 )? ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.18); ( तत्त्वसार/1/49 ); ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/276 )।
राजवार्तिक/4/42/17/261/12 समभिरूढे वा प्रवृत्तिनिमित्तस्य च घटस्याभिन्नस्य सामान्येनाभिधानात् (अभेद:)। =समभिरूढ नय में घटनक्रिया से परिणत या अपरिणत, अभिन्न ही घट का निरूपण होता है। अर्थात् जो शब्द जिस पदार्थ के लिए रूढ कर दिया गया है, वह शब्द हर अवस्था में उस पदार्थ का वाचक होता है।
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृष्ठ 18 एकबारमष्टोपवासं कृत्वा मुक्तेऽपि तपोधनं रूढिप्रधानतया यावज्जीवमष्टोपवासीति व्यवहरंति स तु समभिरूढनय:। =एक बार आठ उपवास करके मुक्त हो जाने पर भी तपोधन को रूढि की प्रधानता से यावज्जीव अष्टोपवासी कहना समभिरूढ नय है।
- शब्दभेद अर्थभेद
सर्वार्थसिद्धि/1/33/144/5 अथवा अर्थगत्यर्थ: शब्दप्रयोग:। तत्रैकस्यार्थस्यैकेन गतार्थत्वात्पर्यायशब्दप्रयोगोऽनर्थक:। शब्दभेदश्चेदस्ति अर्थभेदेनाप्यवश्यं भवितव्यमिति। नानार्थसमभिरोहणात्समभिरूढ:। इंदनादिंद्र:, शकनाच्छक्र:, पूर्दारणात् पुरंदर इत्येवं सर्वत्र।=अथवा अर्थ का ज्ञान कराने के लिए शब्दों का प्रयोग किया जाता है। ऐसी हालत में एक अर्थ का एक शब्द से ज्ञान हो जाता है। इसलिए पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग करना निष्फल है। यदि शब्दों में भेद है तो अर्थभेद अवश्य होना चाहिए। इस प्रकार नाना अर्थों का समभिरोहण करने वाला होने समभिरूढ नय कहलाता है। जैसे इंद्र, शक्र और पुरंदर ये तीन शब्द होने से इनके अर्थ भी तीन हैं। क्योंकि व्युत्पत्ति की अपेक्षा ऐश्वर्यवान् होने से इंद्र, समर्थ होने से शक्र और नगरों का दारण करने से पुरंदर होता है। इसी प्रकार सर्वत्र समझना चाहिए। ( राजवार्तिक/1/33/10/98/30 ), ( श्लोकवार्तिक 4/1/33 श्लो.76-77/263); ( हरिवंशपुराण/58/48 ); ( धवला 1/1,1,1/9/4 ); ( धवला 9/4,1,45/179/1 ); ( कषायपाहुड़ 1/13-14/200/239/6 ); ( नयचक्र बृहद्/215 ); ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक ./पृष्ठ 18); ( स्याद्वादमंजरी/28/314/15;316/3;318/28 )।
राजवार्तिक/4/42/17/261/16 समभिरूढे वा नैमित्तिकत्वात् शब्दस्यैकशब्दवाच्य एक:। =समभिरूढ नय चूँकि शब्दनैमित्तिक है अत: एक शब्द का वाच्य एक ही होता है।
- वस्तु का निजस्वरूप में रूढ रहना
सर्वार्थसिद्धि/1/33/144/8 अथवा यो यत्राभिरूढ: स तत्र समेत्याभिसुख्येनारोहणात्समभिरूढ:। यथा क्व भवानास्ते। आत्मनीति। कुत:। वस्त्वंतरे वृत्त्यभावात् । यद्यन्यस्यान्यत्रवृत्ति: स्यात्, ज्ञानादीनां रूपादीनां चाकाशे वृत्ति: स्यात् ।=अथवा जो जहाँ अभिरूढ है वह वहाँ ‘सम्’ अर्थात् प्राप्त होकर प्रमुखता से रूढ होने के कारण समभिरूढ़ नय कहलाता है? यथा‒आप कहाँ रहते हैं? अपने में, क्योंकि अन्य वस्तु की अन्य वस्तु में वृत्ति नहीं हो सकती। यदि अन्य की अन्य में वृत्ति होती है, ऐसा माना जाये तो ज्ञानादिक की और रूपदिक की आकाश में वृत्ति होने लगे। ( राजवार्तिक/1/33/10/99/2 )।
- अर्थ भेद से शब्द भेद (रूढ शब्द प्रयोग)
- यद्यपि रूढिगत अनेक शब्द एकार्थवाची हो जाते हैं
आलापपद्धति/9 परस्परेणाभिरूढा: समभिरूढा:। शब्दभेदेऽत्यर्थभेदो नास्ति। शक्र इंद्र: पुरंदर इत्यादय: समभिरूढा:। =जो शब्द परस्पर में अभिरूढ या प्रसिद्ध हैं वे समभिरूढ हैं। उन शब्दों में भेद होते हुए भी अर्थभेद नहीं होता। जैसे‒शक्र, इंद्र व पुरंदर ये तीनों शब्द एक देवराज के लिए अभिरूढ या प्रसिद्ध हैं। (विशेष देखें मतिज्ञान - 3.4)।
- परंतु यहाँ पर्यायवाची शब्द नहीं हो सकते
सर्वार्थसिद्धि/1/33/144/6 तत्रैकस्यार्थस्येकेन गतार्थत्वात्पर्यायशब्दप्रयोगोऽनर्थक:। शब्दभेदश्चेदस्ति अर्थभेदेनाप्यवश्यं भवितव्यमिति। =जब एक अर्थ का एक शब्द से ज्ञान हो जाता है तो पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग करना निष्फल है। यदि शब्दों में भेद है तो अर्थभेद अवश्य होना चाहिए। ( राजवार्तिक/1/33/10/98/30 )।
कषायपाहुड़ 1/13-14/200/240/1 अस्मिन्नये न संति पर्यायशब्दा: प्रतिपदमर्थभेदाभ्युपगमात् । न च द्वौ शब्दावेकस्मिन्नर्थे वर्तेते; भिन्नयोरकार्थवृत्तिविरोधात् । न च समानशक्तित्वात्तत्र वर्तेते; समानशक्त्यो: शब्दयोरेकत्वापत्ते:। ततो वाचकभेदादवश्यं वाच्यभेदेन भाव्यमिति।=इस नय में पर्यायवाची शब्द नहीं पाये जाते हैं, क्योंकि यह नय प्रत्येक पद का भिन्न अर्थ स्वीकार करता है। दो शब्द एक अर्थ में रहते हैं, ऐसा मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि भिन्न दो शब्दों का एक अर्थ में सद्भाव मानने में विरोध आता है। यदि कहा जाये कि उन दोनों शब्दों में समान शक्ति पायी जाती है, इसलिए वे एक अर्थ में रहते हैं, सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि दो शब्दों में सर्वथा समान शक्ति मानने से वे वास्तव में दो न रहकर एक हो जायेंगे। इसलिए जब वाचक शब्दों में भेद पाया जाता है तो उनके वाच्यभूत अर्थ में भी भेद होना ही चाहिए। ( धवला 1/1,1,1/89/5 )।
धवला 9/4,1,45/180/1 न स्वतो व्यतिरिक्ताशेषार्थव्यवच्छेदक: शब्द: अयोग्यत्वात् । योग्य: शब्दो योग्यार्थस्य व्यवच्छेदक इति...न च शब्दद्वयोर्द्वैविध्ये तत्सामर्थ्ययोरेकत्वं न्यायम्, भिन्नकालोत्पन्नद्रव्योपादानभिन्नाधारयोरेकत्वविरोधात् । न च सादृश्यमपि तयोरेकत्वापत्ते:। ततो वाचकभेदादवश्यं वाच्यभेदेनापि भवितव्यमिति। =शब्द अपने से भिन्न समस्त पदार्थों का व्यवच्छेदक नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें वैसी योग्यता नहीं है, किंतु योग्य शब्द योग्य अर्थ का व्यवच्छेदक होता है। दूसरे, शब्दों के दो प्रकार होने पर उनकी शक्तियों को एक मानना भी उचित नहीं है, क्योंकि भिन्न काल में उत्पन्न व उपादान एवं भिन्न आधारवाली शब्दशक्तियों के अभिन्न होने का विरोध है। इनमें सादृश्य भी नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा होने पर एकता की आपत्ति आती है। इस कारण वाचक के भेद से वाच्य भेद अवश्य होना चाहिए।
नोट‒शब्द व अर्थ में वाच्य-वाचक संबंध व उसकी सिद्धि के लिए देखें आगम - 4.2।
- शब्द व समभिरूढ नय में अंतर
श्लोकवार्तिक 4/1/33/76/263/21 विश्वदृश्वा सर्वदृश्वेति पर्यायभेदेऽपि शब्दोऽभिन्नार्थमभिप्रैति भविता भविष्यतीति च कालभेदाभिमननात् । क्रियते विधीयते करोति विदधाति पुष्यस्तिष्य: तारकोडु: आपो वा: अंभ: सलिलमित्यादिपर्यायभेदेऽपि चाभिन्नमर्थं शब्दो मन्यते कारकादिभेदादेवार्थभेदाभिमननात् । समभिरूढ: पुन: पर्यायभेदेऽपि भिन्नार्थानामभिप्रैति। कथं-इंद्र: पुरंदर: शक्र इत्याद्याभिन्नगोचर:। यद्वा विभिन्नशब्दत्वाद्वाजिवारणशब्दवत् ।77। =जो विश्व को देख चुका है या जो सबको देख चुका है इन शब्दों में पर्यायभेद होने पर भी शब्द नय इनके अर्थ को अभिन्न मानता है। भविता (लुट्) और भविष्यति (लृट्) इस प्रकार पर्यायभेद होने पर भी, कालभेद न होने के कारण शब्दनय दोनों का एक अर्थ मानता है। तथा किया जाता है, विधान किया जाता है इन शब्दों का तथा इसी प्रकार; पुष्य व तिष्य इन दोनों पुंल्लिंगी शब्दों का; तारका व उडुका इन दोनों स्त्रीलिंगी शब्दों का; स्त्रीलिंगी ‘अप’ व वार् शब्दों का नपुंसकलिंगी अंभस् और सलिल शब्दों का; इत्यादि समानकाल कारक लिंग आदि वाले पर्यायवाची शब्दों का वह एक ही अर्थ मानता है। वह केवल कारक आदि का भेद हो जाने से ही पर्यायवाची शब्दों में अर्थभेद मानता है, परंतु कारकादिका भेद न होने पर अर्थात् समान कारकादि वाले पर्यायवाची शब्दों में अभिन्न अर्थ स्वीकार करता है। किंतु समभिरूढ नय तो पर्यायभेद होने पर भी उन शब्दों में अर्थभेद मानता है। जैसे‒कि इंद्र, पुरंदर व शक्र इत्यादि पर्यायवाची शब्द उसी प्रकार भिन्नार्थ गोचर हैं, जैसे कि बाजी (घोड़ा) व वारण (हाथी) ये शब्द।
- समभिरूढ नयाभास का लक्षण
स्याद्वादमंजरी/28/318/30 पर्यायध्वनीनामभिधेयनानात्वमेव कुक्षीकुर्वाणस्तदाभास:। यथेंद्र: शक्र: पुरंदर इत्यादय: शब्दा: भिन्नाभिधेया एव भिन्नशब्दत्वात् करिकुरंगतुरंगशब्दवद् इत्यादि:। =पर्यायवाची शब्दों के वाच्य में सर्वथा नानापना मानना समभिरूढाभास है। जैसे कि इंद्र, शक्र, पुरंदर इत्यादि शब्दों का अर्थ, भिन्न शब्द होने के कारण उसी प्रकार से भिन्न मानना जैसे कि हाथी, हिरण, घोड़ा इन शब्दों का अर्थ।