ज्ञानावरण: Difference between revisions
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<p class="HindiText">जीव के ज्ञान को आवृत करने वाले एक कर्म विशेष का नाम ज्ञानावरणीय है। जितने प्रकार का ज्ञान है, उतने ही प्रकार के ज्ञानावरणीय कर्म भी हैं और इसीलिए इस कर्म के संख्यात व असंख्यात भेद स्वीकार किये गये हैं।<br /> | <p class="HindiText">जीव के ज्ञान को आवृत करने वाले एक कर्म विशेष का नाम ज्ञानावरणीय है। जितने प्रकार का ज्ञान है, उतने ही प्रकार के ज्ञानावरणीय कर्म भी हैं और इसीलिए इस कर्म के संख्यात व असंख्यात भेद स्वीकार किये गये हैं।<br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong>ज्ञानावरणीय कर्म निर्देश</strong></li> | |||
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<li class="HindiText">[[ #1.1 | ज्ञानावरणीय सामान्य का लक्षण]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #1.2 | ज्ञानावरण कर्म के सामान्य पाँच भेद]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #1.3 | ज्ञानावरण के संख्यात व असंख्यात भेद]]</li> | |||
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<li class="HindiText">[[#1.3.1 | ज्ञानावरण सामान्य के असंख्यात भेद]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[#1.3.2 | मतिज्ञानावरण के संख्यात व असंख्यात भेद]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[#1.3.3 | श्रुतज्ञानावरणीय के संख्यात व असंख्यात भेद]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[#1.3.4 | अवधिज्ञानावरणीय के संख्यात व असंख्यात भेद]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[#1.3.5 | मन:पर्ययज्ञानावरणीय के संख्यात व असंख्यात भेद]]</li> | |||
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<li class="HindiText">[[ #1.4 | केवलज्ञानावरण की एक ही प्रकृति है]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #1.5 | ज्ञानावरण व दर्शनावरण के बंध योग्य परिणाम]]</li> | |||
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<li class="HindiText"><strong>ज्ञानावरण व दर्शनावरण के बंध योग्य परिणाम</strong></li> | |||
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<li class="HindiText">[[ #2.1 | ज्ञानावरणीय को ज्ञान विनाशक कहें तो ?]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #2.2 | ज्ञानावरण कर्म सद्भूतज्ञानांश का आवरण करता है या असद्भूत का]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #2.3 | सात ज्ञानों के सात ही आवरण क्यों नहीं]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #2.4 | ज्ञानावरण और दर्शनावरण के आस्रवों में समानता कैसे हो सकती है]]</li> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1" id="1"> ज्ञानावरणीय कर्म निर्देश</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> ज्ञानावरणीय सामान्य का लक्षण</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/8/4/380/3 </span><span class="SanskritText">आवृणोत्याव्रियतेऽनेनेति वा आवरणम् ।</span> | |||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/8/3/378/10 </span><span class="SanskritText">ज्ञानावरणस्य का प्रकृति:। अर्थानवगम:।</span>=<span class="HindiText">जो आवृत करता है या जिसके द्वारा आवृत किया जाता है वह आवरण कहलाता है।4। ज्ञानावरण कर्म की क्या प्रकृति (स्वभाव) है ? अर्थ का ज्ञान न होना। <span class="GRef"> (राजवार्तिक/8/4/2/567/32, 8/3/4/567/2)</span></span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,131/381/9 </span><span class="SanskritText">बहिरंगार्थ विषयोपयोगप्रतिबंधकं ज्ञानावरणमिति प्रतिपत्तव्यम् ।</span>=<span class="HindiText">बहिरंग पदार्थ को विषय करने वाले उपयोग का प्रतिबंधक ज्ञानावरण कर्म है, ऐसा जानना चाहिए।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 6/1,9-1,5/6/8 </span><span class="PrakritText">णाणमवबोहो अवगमो परिच्छेदो इदि एयट्ठो। तमावरेदि त्ति णाणावरणीयं कम्मं।</span>=<span class="HindiText">ज्ञान, अवबोध, अवगम और परिच्छेद ये सब एकार्थवाचक नाम हैं, उस ज्ञान को जो आवरण करता है, वह ज्ञानावरणीय कर्म है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/31/90/1 </span><span class="SanskritText">सहजशुद्धकेवलज्ञानमभेदेन केवलज्ञानाद्यनंतगुणाधारभुतं ज्ञानशब्दवाच्यं परमात्मानं वा आवृणोतीति ज्ञानावरणं।</span>=<span class="HindiText">सहज शुद्ध केवलज्ञान को अथवा अभेदनय से केवलज्ञान आदि अनंतगुणों के आधारभूत ‘ज्ञान’ शब्द से कहने योग्य परमात्मा को जो आवृत करै यानि ढकै सो ज्ञानावरण है।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong>ज्ञानावरण कर्म का उदाहरण–</strong>देखें [[ प्रकृति बंध#3 | प्रकृति बंध - 3]]।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> ज्ञानावरण कर्म के सामान्य पाँच भेद</strong></span><br /> | ||
<strong> </strong> | <strong> </strong><span class="GRef"> षट्खंडागम/13/5,5/ सूत्र 21/209</span> <span class="PrakritText">णाणावरणीयस्स कम्मस्स पंच पयडीओआभिणिबोहियणाणावरणीयं सुदणाणावरणीयं, ओहिणाणावरणीयं मणपज्जवणाणवारणीयं केवलणाणावरणीयं चेदि।21।</span>=<span class="HindiText">ज्ञानावरण कर्म की पाँच प्रकृतियाँ हैं–आभिनिबोधिक (मति) ज्ञानावरणीय, श्रुतज्ञानावरणीय, अवधिज्ञानावरणीय, मन:पर्ययज्ञानावरणीय और केवलज्ञानावरणीय।21। <span class="GRef"> (षट्खंडागम 6/1,9-1/ सूत्र 14/15), (मूलाचार/1224); (तत्त्वार्थसूत्र/8/6), (पंचसंग्रह/प्राकृत/2/4), (तत्त्वार्थसार/5/24)</span><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong>ज्ञानावरण व मोहनीय में अंतर</strong>—देखें [[ मोहनीय#1 | मोहनीय - 1 ]]<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3">ज्ञानावरण के संख्यात व असंख्यात भेद</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.3.1" id="1.3.1"> ज्ञानावरण सामान्य के असंख्यात भेद</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> षट्खंडागम 12/4,2,14/ सूत्र 4/479</span> <span class="PrakritText">णाणावरणीयदंसणावरणीयकम्मस्स असंखेज्जलोगपयडीओ।4।</span>=<span class="HindiText">ज्ञानावरण और दर्शनावरण की असंख्यात प्रकृतियाँ हैं। <span class="GRef">( राजवार्तिक/1/15/13/61/30 )</span>, <span class="GRef">( राजवार्तिक/8/13/3/581/4 )</span>, </span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 12/4,2,14,4/479/4 </span><span class="PrakritText">कुदो एत्तियाओ होंति त्ति णव्वदे। आवरणिज्जणाणं-दंसणाणमसंखेज्जलोगमेत्त भेदुवलंभादो।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–उनकी प्रकृतियाँ इतनी हैं, यह कैसे जाना ? <strong>उत्तर</strong>–चूँकि आवरण के योग्य ज्ञान व दर्शन के असंख्यात लोकमात्र भेद पाये जाते हैं।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/17/238/7 </span><span class="SanskritText">स्वज्ञानावरणवीर्यांतरायक्षयोपशमविशेषवशादेवास्य नैयत्येन प्रवृत्ते:।</span>= <span class="HindiText">ज्ञानावरण और वीर्यांतराय कर्म के क्षयोपशम होने पर उनकी (प्रत्यक्ष, स्मृति, शब्द व अनुमान प्रमाणों की) निश्चित पदार्थों में प्रवृत्ति होती है। (अर्थात् जिस समय जिस विषय को रोकने वाला कर्म नष्ट हो जाता है उस समय उसी विषय का ज्ञान प्रकाशित हो सकता है, अन्य नहीं)<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.3.2" id="1.3.2"> मतिज्ञानावरण के संख्यात व असंख्यात भेद</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef">षट्खण्डागम 13/5,5/सूत्र 35/234</span> <span class="SanskritText">एवमाभिणिबोहियणाणावरणीयस्स कम्मस्स चउव्विहं वा चदुवीसदिविधं वा अट्ठावीसदिविधं वा बत्तीसदिविधं वा अड़दालीसविधं वा चोद्दाल-सदविधं वा अट्ठसटि्ठ-सदविधं वा बाणउदि-सदविधं वा वेसद-अट्ठासीदिविधं तिसदछत्तौसदिविधं वा तिसद-चुलसीदिविधं वा णादव्वाणि भवंति।34।</span>=<span class="HindiText">इस प्रकार आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय कर्म के चार भेद (अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणावरणीय); चौबीस (उपरोक्त चारों को 6 इंद्रियों से गुणा करने से 24); अट्ठाईस भेद, बत्तीस भेद, अड़तालीस भेद, 144 भेद, 148 भेद, 192 भेद, 248 भेद, 336 भेद, और 384 भेद ज्ञातव्य हैं (विशेष देखो [[मतिज्ञान#1|मतिज्ञान - 1]])</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 12/4,2,15,4/501/13 </span><span class="PrakritText"> मदिणाणावरणीयपयडीओ...असंखेज्जलोग्गमेत्ताओ।</span>=<span class="HindiText">मतिज्ञानावरण की प्रकृतियाँ असंख्यात लोकमात्र है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> महापुराण/63/71 </span><span class="SanskritText">लब्धबोधिर्मतिज्ञानक्षयोपशमनावृत:।71।</span>=<span class="HindiText">मतिज्ञान के क्षयोपशम से युक्त होकर आत्मज्ञान प्राप्त कर लिया।<br /> | |||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/407,855,856 </span>(स्वानुभूत्यावरण कर्म)।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.3.3" id="1.3.3"> श्रुतज्ञानावरणीय के संख्यात व असंख्यात भेद</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> षट्खंडागम 13/5,5/44,45,48,247,260 </span><span class="PrakritText">सुदणाणवरणीयस्स कम्मस्स संखेज्जाओ पयडीओ।44। जावदियाणि अक्खराणि अक्खरसंजोगा वा।45। तस्सेव सुदणाणावरणीयस्स कम्मस्स वीसदिविधा परूवणा कायव्वा भवदि।47। पज्जयावरणीयं पज्जयसमासावरणीयं अक्खरावरणीयं अक्खरसमासावरणीयं पदावरणीयं पदसमासावरणीयं संघादावरणीयं संघादसमासावरणीयं पडिवत्तिआवरणीयं पडिवत्तिसमासावरणीयं अणियोगद्दारावरणीयं अणियोगद्दारसमासावरणीयं पाहुडपाहुडावरणीयं पाहुडपाहुडसमासावरणीयं पाहुडावरणीयं पाहुडसमासावरणीयं वत्थुआवरणीयं वत्थुसमासावरणीयं पुव्वावरणीयं पुव्वसमासावरणीयं।48।</span>=<span class="HindiText">श्रुतज्ञानावरणीय कर्म की संख्यात प्रकृतियाँ है।44। जितने अक्षर हैं और जितने अक्षर संयोग हैं (देखें [[ अक्षर ]]) उतनी श्रुतज्ञानावरणीय कर्म की प्रकृतियाँ हैं।45। उसी श्रुतज्ञानावरणीय की 20 प्रकार की प्ररूपणा करनी चाहिए।47। पर्यायावरणीय, पर्यायसमासावरणीय, अक्षरावरणीय, अक्षरसमासावरणीय, पदावरणीय, पदसमासावरणीय, संघातावरणीय, संघातसमासावरणीय, प्रतिपत्ति आवरणीय, प्रतिपत्ति समासावरणीय, अनुयोगद्वारावरणीय, अनुयोगद्वारसमासावरणीय, प्राभृतप्राभृतावरणींय, प्राभृतप्राभृतसमासावरणीय, प्राभृतावरणीय, प्राभृतसमासावरणीय, वस्तुआवरणीय, वस्तुसमासावरणीय, पूर्वावरणीय, पूर्वसमासावरणीय, ये श्रुतज्ञानावरण के 20 भेद हैं। <br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 12/5,2,15,4/502/2 </span>सुदणाणावरणीयपयडीओ असंखेज्जालोगमेत्ताओ।=श्रुतज्ञानावरणीय की प्रकृतियाँ असंख्यात लोकमात्र हैं।</span></li> | |||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.3.4" id="1.3.4">अवधिज्ञानावरणीय के संख्यात व असंख्यात भेद</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> षट्खंडागम 13/5,5/ सूत्र 52/289</span><span class="PrakritText"> ओहिणाणावरणीयस्स कम्मस्स असंखेज्जाओ पयडीओ।52।</span> | |||
<span class="GRef"> धवला 13/5,5,52/289/12 </span><span class="PrakritText">असंखेज्जाओ त्ति कुदोवगम्मदे। आवरणिज्जस्स ओहिणाणस्स असंखेज्जविपप्पत्तादो।</span>=<span class="HindiText">अवधिज्ञानावरण कर्म की असंख्यात प्रकृतियाँ हैं।52। प्रश्न–असंख्यात हैं, यह किस प्रमाण से जाना जाता है, उत्तर–क्योंकि, आवरणीय अवधिज्ञान के असंख्यात विकल्प हैं। (विशेष देखें [[ अवधिज्ञान#1 | अवधिज्ञान के भेद ]]) <span class="GRef"> धवला 12/4,2,15,4/501/11 )</span><br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.3.5" id="1.3.5"> मन:पर्ययज्ञानावरणीय के संख्यात व असंख्यात भेद—</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> षट्खंडागम 13/5,5/ सूत्र 60-62,70/328-329,340</span>।<br /> | |||
चार्ट <br /> | चार्ट <br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 12/4,2,15,4/502/3 </span><span class="PrakritText"> मणपज्जवणाणावरणीयपयडीओ असंखेज्जकप्पमेत्ताओ।</span><span class="HindiText">=मन:पर्ययज्ञानावरणीय की प्रकृतियाँ असंख्यात कल्पमात्र हैं।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> केवलज्ञानावरण की एक ही प्रकृति है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> षट्खंडागम/13/5,5/ सूत्र 80/345</span> <span class="PrakritText">केवलणाणावरणीयस्स कम्मस्स एया चेव पयडी।80।</span>=<span class="HindiText">केवलज्ञानावरणीय कर्म की एक ही प्रकृति है।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> ज्ञानावरण व दर्शनावरण के बंध योग्य परिणाम</strong><br /> | ||
देखें [[ वचन | देखें [[ वचन#1 | अभ्याख्यान आदि वचनों से ज्ञानावरणीय की वेदना होती है ]]। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/6/10 </span><span class="SanskritText">तत्प्रदोषनिह्ंवमात्सर्यांतरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयो:।10।</span> | |||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/6/10/328/5 </span><span class="SanskritText">एतेन ज्ञानदर्शनवत्सु तत्साधनेषु च प्रदोषादयो योज्या: तन्निमित्तत्वात् । ज्ञानविषया: प्रदोषादयो ज्ञानावरणस्य। दर्शनविषया: प्रदोषादयो दर्शनावरणस्येति।</span>=<span class="HindiText">ज्ञान और दर्शन के विषय में 1 प्रदोष, 2 निह्नव, | |||
3 मात्सर्य, 4 | 3 मात्सर्य, 4 अंतराय, | ||
5 आसादन, और 6 उपघात ये ज्ञानावरण और दर्शनावरण के आस्रव हैं।10। ज्ञान और दर्शनवालों के विषय में तथा उनके साधनों के विषय में प्रदोषादि की योजना करनी चाहिए, क्योंकि ये उनके निमित्त से होते हैं। अथवा ज्ञान | 5 आसादन, और 6 उपघात ये ज्ञानावरण और दर्शनावरण के आस्रव हैं।10। ज्ञान और दर्शनवालों के विषय में तथा उनके साधनों के विषय में प्रदोषादि की योजना करनी चाहिए, क्योंकि ये उनके निमित्त से होते हैं। अथवा ज्ञान संबंधी प्रदोषादिक ज्ञानावरण के आस्रव हैं और दर्शन संबंधी प्रदोषादिक दर्शनावरण के आस्रव हैं <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड/800/979 )</span></span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/6/10/20/519/10 </span><span class="SanskritText">अपि च, आचार्योपाध्यायवत्यनीकत्वअकालाध्ययन-श्रद्धाभाव-अभ्यासालस्य–अनादरार्थ-श्रावण-तीर्थोपरोध-बहुश्रुतगर्वं-मिथ्योपदेश-बहुश्रुतावमान-स्वपक्षपरिग्रहपंडितत्वस्वपक्षपरित्याग-अबद्धप्रलाप-उत्सूत्रवाद-साध्यपूर्वकज्ञानाधिगमशास्त्रविक्रय-प्राणातिपातादय: ज्ञानावरणस्यास्रवा:। दर्शनमात्सर्यांतराय-नेत्रोत्पाटनेंद्रियप्रत्यनीकत्व-दृष्टिगौरव-आयतस्वापिता-दिवाशयनालस्य-नास्तिक्यपरिग्रह-सम्यग्दृष्टिसंदूषण-कुतीर्थप्रशंसा, प्राणव्यपरोपण-यतिजनजुगुप्सादयो दर्शनावरणस्यास्रवा:, इत्यस्ति आस्रवभेद:।</span>=<span class="HindiText">(उपरोक्त से अतिरिक्त और भी ज्ञानावरण और दर्शनावरण के कुछ आस्रवों का निर्देश निम्न प्रकार है) 7. आचार्य और उपाध्याय के प्रतिकूल चलना; 8. अकाल अध्ययन; 9. अश्रद्धा; 10. अभ्यास में आलस्य; 11. अनादर से अर्थ सुनना; 12. तीर्थोपरोध अर्थात् दिव्यध्वनि के समय स्वयं व्याख्या करने लगना; 13. बहुश्रुतपने का गर्व; 14. मिथ्योपदेश; 15. बहुश्रुत का अपमान करना; 16. स्वपक्ष का दुराग्रह; 17. दुराग्रहवश असंबद्ध प्रलाप करना 18. स्वपक्ष परित्याग या सूत्र विरुद्ध बोलना; 19. असिद्ध से ज्ञानप्राप्ति 20. शास्त्रविक्रय; और 21. हिंसा आदि ज्ञानावरण के आस्रव के कारण हैं । 7. दर्शनमात्सर्य; 8. दर्शन अंतराय; 9. आँखें फोड़ना; 10. इंद्रियों के विपरीत प्रवृत्ति; 11. दृष्टि का गर्व, 12. दीर्घ निद्रा; 13. दिन में सोना; 14. आलस्य; 15. नास्तिकता; 16. सम्यग्दृष्टि में दूषण लगाना; 17. कृतीर्थ की प्रशंसा; 18. हिंसा; और 19. यतिजनों के प्रति ग्लानि के भाव आदि भी दर्शनावरणीय के आस्रव के कारण हैं। इस प्रकार इन दोनों के आस्रव में भेद भी है। <span class="GRef"> (तत्त्वसार/4/13-19) </span><br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong>ज्ञानावरण प्रकृति की बंध उदय सत्त्व प्ररूपणा–</strong>देखें [[ वह वह नाम ]]<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong> ज्ञानावरण का सर्व व देशघातीपना</strong>–देखें [[ अनुभाग ]]<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2" id="2">ज्ञानावरणीय विषयक शंका-समाधान</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1">ज्ञानावरणीय को ज्ञान विनाशक कहें तो ?</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 6/1,9-1,5/6/9 </span><span class="PrakritText"> णाणविणासयमिदि किण्ण उच्चदे। ण, जीवलक्खणाणं णाणदंसणाण विणासाभावा। विणासे वा जीवस्स वि विणासो होज्ज, लक्खणरहियलक्खाणुवलंभा। णाणस्स विणासभावे सव्वजीवाणं णाणत्थित्तं पसज्जदे चे, होदु णाम विरोहाभावा; अक्खरस्स अणंतभाओ णिच्चुग्घाडियओ इदि सुत्ताणुकूलत्तादो वा। ण सव्वावयवेहि णाणस्सुवलंभोहोदुत्ति वोत्तुं जुत्तं, आवरिदणाणभागाणमुवलंभविरोहा।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–‘ज्ञानावरण’ नाम के स्थान पर ‘ज्ञानविनाशक’ ऐसा नाम क्यों नहीं कहा ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, जीव के लक्षणस्वरूप ज्ञान और दर्शन का विनाश नहीं होता है। यदि ज्ञान और दर्शन का विनाश माना जाये, तो जीव का भी विनाश हो जायेगा, क्योंकि, लक्षण से रहित लक्ष्य पाया नहीं जाता। <strong>प्रश्न</strong>–ज्ञान का विनाश नहीं मानने पर सभी जीवों के ज्ञान का अस्तित्व प्राप्त होता है? <strong>उत्तर</strong>–ज्ञान का विनाश नहीं मानने पर यदि सर्व जीवों के ज्ञान का अस्तित्व प्राप्त होता है तो होने दो, उसमें कोई विरोध नहीं है। अथवा ‘अक्षर का अनंतवाँ भाग ज्ञान नित्य उद्घाटित रहता है’ इस सूत्र के अनुकूल होने से सर्व जीवों के ज्ञान का अस्तित्व सिद्ध है। <strong>प्रश्न</strong>–तो फिर सर्व अवयवों के साथ ज्ञान का उपलंभ होना चाहिए (हीन ज्ञान का नहीं) ? <strong>उत्तर</strong>–यह कहना उपयुक्त नहीं है, क्योंकि, आवरण किये गये ज्ञान के भागों का उपलंभ मानने में विरोध आता है।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> ज्ञानावरण कर्म सद्भूत ज्ञानांश का आवरण करता है या असद्भूत का </strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/8/6/4-6/571/4 </span><span class="SanskritText"> इदमिहं संपधार्यम्–सतां मत्यादीनां कर्म आवरणं भवेत्, असतां वेति। किं चात: यदि सताम्; परिप्राप्तात्मलाभत्वात् सत्त्वादेव आवृत्तिर्नोपपद्यते। अथासताम्; नन्वावरणाभाव:। न हि खरविषाणवदसदाव्रियते।4। न वैष दोष:। किं कारणम् । आदेशवचनात् । ...द्रव्यार्थादेशेन सतां मत्यादीनामावरणम्, पर्यायार्थादेशेनासताम् ।5।...न कुटोभूतानि मत्यादीनि कानिचित् संति येषामावरणात् मत्याद्यावरणानाम् आवरणत्वं भवेत् किंतु मत्याद्यावरणसंनिधाने आत्मा मत्यादिज्ञानपर्यायैर्नोत्पद्यते इत्यतो मत्याद्यावरणानाम् आवरणत्वम् ।61।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–कर्म विद्यमान मत्यादि का आवरण करता है या अविद्यमान का ? यदि विद्यमान का तो जब वह स्वरूपलाभ करके विद्यमान ही है तो आवरण कैसा ? और यदि अविद्यमान का तो भी खरविषाण की तरह उसका आवरण कैसा ? <strong>उत्तर</strong>–द्रव्यार्थदृष्टि से सत् और पर्यायदृष्टि से असत् मति आदि का आवरण होता है। अथवा मति आदि का कहीं प्रत्यक्षीभूत ढेर नहीं लगा है जिसको ढक देने से मत्यावरण आदि कहे जाते हों, किंतु मत्यावरण आदि के उदय से आत्मा में मति आदि ज्ञान उत्पन्न नहीं होते इसलिए उन्हें आवरण संज्ञा दी गयी है। (प्रत्याख्यानावरण की भाँति)। <span class="GRef">( धवला 6/1,9-1,5/7/3 )</span>। </span></li> | |||
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<li | <li class="HindiText">आवृत व अनावृत ज्ञानांशों में एकत्व कैसे–देखें [[ ज्ञान ]]।/4/3। </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> अभव्य में केवल व मन:पर्यय ज्ञानावरण का सत्त्व कैसे–देखें [[ भव्य#3.1 | भव्य - 3.1]]। </span></li> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> सात ज्ञानों के सात ही आवरण क्यों नहीं</strong> </span> <BR><span class="GRef"> धवला 7/2,1,45/87/7 </span><span class="PrakritText"> सत्तण्हं णाणाणं सत्त चेव आवरणाणि किण्ण होदि चे। ण, पंचणाणवदिरित्तणाणाणुवलंभा। मदि अण्णाण-सुदअण्णाण-विभंगणाणमभावो वि णत्थि, जहाकमेण आभिणिबोहिय-सुदओहिणाणेसु तेसिमंतब्भावादो।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–इन सातों ज्ञानों के सात ही आवरण क्यों नहीं? <strong>उत्तर</strong>–नहीं होते, क्योंकि, पाँच ज्ञानों के अतिरिक्त अन्य कोई ज्ञान पाये नहीं जाते। किंतु इससे मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान और विभंगज्ञान का अभाव नहीं हो जाता, क्योंकि, उनका यथाक्रम से आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, और अवधिज्ञान में अंतर्भाव होता है।</span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4">ज्ञानावरण और दर्शनावरण के आस्रवों में समानता कैसे हो सकती है</strong></span><BR> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/7/10-12/518/4 </span><span class="SanskritText">स्यान्मतम्-तुल्यास्रवत्वादनयोरेकत्वं प्राप्नोति, तुल्यकारणानां हि लोके एकत्वं दृष्टमिति; तन्न; किं कारणम् । तुल्यहेतुत्वेऽपि वचनं स्वपक्षस्य साधकमेव परपक्षस्य दूषकमेवेति न साधकदूषकधर्मयोरेकत्वमिति मतम् ।10।...यस्य तुल्यहेतुकानामेकत्वं यस्य मृत्पिडादितुल्यहेतुकानां घटशरावादीनां नानात्वं व्याहन्यत इति दृष्टव्याघात:।11।...आवरणात्यंतसंक्षये केवलिनि युगपत् केवलज्ञानदर्शनयो: साहचर्यं भास्करे प्रतापप्रकाशसाहचर्यवत् । ततश्चानयोस्तुल्यहेतुत्वं युक्तम् ।15।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–ज्ञानावरण और दर्शनावरण के आस्रव के कारण तुल्य हैं, अत: दोनों को एक ही कहना चाहिए, क्योंकि, जिनके कारण तुल्य होते हैं वे एक देखे जाते हैं ? <strong>उत्तर</strong>–तुल्य कारण होने से कार्यैक्य माना जाये तो एक हेतुक होने पर भी वचन स्वपक्ष के ही साधक तथा परपक्ष के ही दूषक होते हैं, इस प्रकार साधक और दूषक दोनों धर्मों में एकत्व प्राप्त होता है। एक मिट्टी रूप कारण से ही घट घटी शराव शकोरा आदि अनेक कार्यों की प्रत्यक्ष सिद्धि है। आवरण के अत्यंत संक्षय होने पर केवलज्ञान और केवलदर्शन दोनों, सूर्य के प्रताप और प्रकाश की तरह प्रगट हो जाते हैं, अत: इनमें तुल्य कारणों से आस्रव मानना उचित है।</span></li> | |||
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Latest revision as of 15:10, 27 November 2023
जीव के ज्ञान को आवृत करने वाले एक कर्म विशेष का नाम ज्ञानावरणीय है। जितने प्रकार का ज्ञान है, उतने ही प्रकार के ज्ञानावरणीय कर्म भी हैं और इसीलिए इस कर्म के संख्यात व असंख्यात भेद स्वीकार किये गये हैं।
- ज्ञानावरणीय कर्म निर्देश
- ज्ञानावरणीय सामान्य का लक्षण
- ज्ञानावरण कर्म के सामान्य पाँच भेद
- ज्ञानावरण के संख्यात व असंख्यात भेद
- ज्ञानावरण सामान्य के असंख्यात भेद
- मतिज्ञानावरण के संख्यात व असंख्यात भेद
- श्रुतज्ञानावरणीय के संख्यात व असंख्यात भेद
- अवधिज्ञानावरणीय के संख्यात व असंख्यात भेद
- मन:पर्ययज्ञानावरणीय के संख्यात व असंख्यात भेद
- केवलज्ञानावरण की एक ही प्रकृति है
- ज्ञानावरण व दर्शनावरण के बंध योग्य परिणाम
- ज्ञानावरण व दर्शनावरण के बंध योग्य परिणाम
- ज्ञानावरणीय कर्म निर्देश
- ज्ञानावरणीय सामान्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/8/4/380/3 आवृणोत्याव्रियतेऽनेनेति वा आवरणम् । सर्वार्थसिद्धि/8/3/378/10 ज्ञानावरणस्य का प्रकृति:। अर्थानवगम:।=जो आवृत करता है या जिसके द्वारा आवृत किया जाता है वह आवरण कहलाता है।4। ज्ञानावरण कर्म की क्या प्रकृति (स्वभाव) है ? अर्थ का ज्ञान न होना। (राजवार्तिक/8/4/2/567/32, 8/3/4/567/2)
धवला 1/1,1,131/381/9 बहिरंगार्थ विषयोपयोगप्रतिबंधकं ज्ञानावरणमिति प्रतिपत्तव्यम् ।=बहिरंग पदार्थ को विषय करने वाले उपयोग का प्रतिबंधक ज्ञानावरण कर्म है, ऐसा जानना चाहिए।
धवला 6/1,9-1,5/6/8 णाणमवबोहो अवगमो परिच्छेदो इदि एयट्ठो। तमावरेदि त्ति णाणावरणीयं कम्मं।=ज्ञान, अवबोध, अवगम और परिच्छेद ये सब एकार्थवाचक नाम हैं, उस ज्ञान को जो आवरण करता है, वह ज्ञानावरणीय कर्म है।
द्रव्यसंग्रह टीका/31/90/1 सहजशुद्धकेवलज्ञानमभेदेन केवलज्ञानाद्यनंतगुणाधारभुतं ज्ञानशब्दवाच्यं परमात्मानं वा आवृणोतीति ज्ञानावरणं।=सहज शुद्ध केवलज्ञान को अथवा अभेदनय से केवलज्ञान आदि अनंतगुणों के आधारभूत ‘ज्ञान’ शब्द से कहने योग्य परमात्मा को जो आवृत करै यानि ढकै सो ज्ञानावरण है।
- ज्ञानावरण कर्म का उदाहरण–देखें प्रकृति बंध - 3।
- ज्ञानावरण कर्म के सामान्य पाँच भेद
षट्खंडागम/13/5,5/ सूत्र 21/209 णाणावरणीयस्स कम्मस्स पंच पयडीओआभिणिबोहियणाणावरणीयं सुदणाणावरणीयं, ओहिणाणावरणीयं मणपज्जवणाणवारणीयं केवलणाणावरणीयं चेदि।21।=ज्ञानावरण कर्म की पाँच प्रकृतियाँ हैं–आभिनिबोधिक (मति) ज्ञानावरणीय, श्रुतज्ञानावरणीय, अवधिज्ञानावरणीय, मन:पर्ययज्ञानावरणीय और केवलज्ञानावरणीय।21। (षट्खंडागम 6/1,9-1/ सूत्र 14/15), (मूलाचार/1224); (तत्त्वार्थसूत्र/8/6), (पंचसंग्रह/प्राकृत/2/4), (तत्त्वार्थसार/5/24)
- ज्ञानावरण व मोहनीय में अंतर—देखें मोहनीय - 1
- ज्ञानावरण के संख्यात व असंख्यात भेद
- ज्ञानावरण सामान्य के असंख्यात भेद
षट्खंडागम 12/4,2,14/ सूत्र 4/479 णाणावरणीयदंसणावरणीयकम्मस्स असंखेज्जलोगपयडीओ।4।=ज्ञानावरण और दर्शनावरण की असंख्यात प्रकृतियाँ हैं। ( राजवार्तिक/1/15/13/61/30 ), ( राजवार्तिक/8/13/3/581/4 ),
धवला 12/4,2,14,4/479/4 कुदो एत्तियाओ होंति त्ति णव्वदे। आवरणिज्जणाणं-दंसणाणमसंखेज्जलोगमेत्त भेदुवलंभादो।=प्रश्न–उनकी प्रकृतियाँ इतनी हैं, यह कैसे जाना ? उत्तर–चूँकि आवरण के योग्य ज्ञान व दर्शन के असंख्यात लोकमात्र भेद पाये जाते हैं।
स्याद्वादमंजरी/17/238/7 स्वज्ञानावरणवीर्यांतरायक्षयोपशमविशेषवशादेवास्य नैयत्येन प्रवृत्ते:।= ज्ञानावरण और वीर्यांतराय कर्म के क्षयोपशम होने पर उनकी (प्रत्यक्ष, स्मृति, शब्द व अनुमान प्रमाणों की) निश्चित पदार्थों में प्रवृत्ति होती है। (अर्थात् जिस समय जिस विषय को रोकने वाला कर्म नष्ट हो जाता है उस समय उसी विषय का ज्ञान प्रकाशित हो सकता है, अन्य नहीं)
- मतिज्ञानावरण के संख्यात व असंख्यात भेद
षट्खण्डागम 13/5,5/सूत्र 35/234 एवमाभिणिबोहियणाणावरणीयस्स कम्मस्स चउव्विहं वा चदुवीसदिविधं वा अट्ठावीसदिविधं वा बत्तीसदिविधं वा अड़दालीसविधं वा चोद्दाल-सदविधं वा अट्ठसटि्ठ-सदविधं वा बाणउदि-सदविधं वा वेसद-अट्ठासीदिविधं तिसदछत्तौसदिविधं वा तिसद-चुलसीदिविधं वा णादव्वाणि भवंति।34।=इस प्रकार आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय कर्म के चार भेद (अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणावरणीय); चौबीस (उपरोक्त चारों को 6 इंद्रियों से गुणा करने से 24); अट्ठाईस भेद, बत्तीस भेद, अड़तालीस भेद, 144 भेद, 148 भेद, 192 भेद, 248 भेद, 336 भेद, और 384 भेद ज्ञातव्य हैं (विशेष देखो मतिज्ञान - 1)
धवला 12/4,2,15,4/501/13 मदिणाणावरणीयपयडीओ...असंखेज्जलोग्गमेत्ताओ।=मतिज्ञानावरण की प्रकृतियाँ असंख्यात लोकमात्र है।
महापुराण/63/71 लब्धबोधिर्मतिज्ञानक्षयोपशमनावृत:।71।=मतिज्ञान के क्षयोपशम से युक्त होकर आत्मज्ञान प्राप्त कर लिया।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/407,855,856 (स्वानुभूत्यावरण कर्म)।
- श्रुतज्ञानावरणीय के संख्यात व असंख्यात भेद
षट्खंडागम 13/5,5/44,45,48,247,260 सुदणाणवरणीयस्स कम्मस्स संखेज्जाओ पयडीओ।44। जावदियाणि अक्खराणि अक्खरसंजोगा वा।45। तस्सेव सुदणाणावरणीयस्स कम्मस्स वीसदिविधा परूवणा कायव्वा भवदि।47। पज्जयावरणीयं पज्जयसमासावरणीयं अक्खरावरणीयं अक्खरसमासावरणीयं पदावरणीयं पदसमासावरणीयं संघादावरणीयं संघादसमासावरणीयं पडिवत्तिआवरणीयं पडिवत्तिसमासावरणीयं अणियोगद्दारावरणीयं अणियोगद्दारसमासावरणीयं पाहुडपाहुडावरणीयं पाहुडपाहुडसमासावरणीयं पाहुडावरणीयं पाहुडसमासावरणीयं वत्थुआवरणीयं वत्थुसमासावरणीयं पुव्वावरणीयं पुव्वसमासावरणीयं।48।=श्रुतज्ञानावरणीय कर्म की संख्यात प्रकृतियाँ है।44। जितने अक्षर हैं और जितने अक्षर संयोग हैं (देखें अक्षर ) उतनी श्रुतज्ञानावरणीय कर्म की प्रकृतियाँ हैं।45। उसी श्रुतज्ञानावरणीय की 20 प्रकार की प्ररूपणा करनी चाहिए।47। पर्यायावरणीय, पर्यायसमासावरणीय, अक्षरावरणीय, अक्षरसमासावरणीय, पदावरणीय, पदसमासावरणीय, संघातावरणीय, संघातसमासावरणीय, प्रतिपत्ति आवरणीय, प्रतिपत्ति समासावरणीय, अनुयोगद्वारावरणीय, अनुयोगद्वारसमासावरणीय, प्राभृतप्राभृतावरणींय, प्राभृतप्राभृतसमासावरणीय, प्राभृतावरणीय, प्राभृतसमासावरणीय, वस्तुआवरणीय, वस्तुसमासावरणीय, पूर्वावरणीय, पूर्वसमासावरणीय, ये श्रुतज्ञानावरण के 20 भेद हैं।
धवला 12/5,2,15,4/502/2 सुदणाणावरणीयपयडीओ असंखेज्जालोगमेत्ताओ।=श्रुतज्ञानावरणीय की प्रकृतियाँ असंख्यात लोकमात्र हैं। - अवधिज्ञानावरणीय के संख्यात व असंख्यात भेद
षट्खंडागम 13/5,5/ सूत्र 52/289 ओहिणाणावरणीयस्स कम्मस्स असंखेज्जाओ पयडीओ।52। धवला 13/5,5,52/289/12 असंखेज्जाओ त्ति कुदोवगम्मदे। आवरणिज्जस्स ओहिणाणस्स असंखेज्जविपप्पत्तादो।=अवधिज्ञानावरण कर्म की असंख्यात प्रकृतियाँ हैं।52। प्रश्न–असंख्यात हैं, यह किस प्रमाण से जाना जाता है, उत्तर–क्योंकि, आवरणीय अवधिज्ञान के असंख्यात विकल्प हैं। (विशेष देखें अवधिज्ञान के भेद ) धवला 12/4,2,15,4/501/11 )
- मन:पर्ययज्ञानावरणीय के संख्यात व असंख्यात भेद—
षट्खंडागम 13/5,5/ सूत्र 60-62,70/328-329,340।
चार्ट
धवला 12/4,2,15,4/502/3 मणपज्जवणाणावरणीयपयडीओ असंखेज्जकप्पमेत्ताओ।=मन:पर्ययज्ञानावरणीय की प्रकृतियाँ असंख्यात कल्पमात्र हैं।
- ज्ञानावरण सामान्य के असंख्यात भेद
- केवलज्ञानावरण की एक ही प्रकृति है
षट्खंडागम/13/5,5/ सूत्र 80/345 केवलणाणावरणीयस्स कम्मस्स एया चेव पयडी।80।=केवलज्ञानावरणीय कर्म की एक ही प्रकृति है।
- ज्ञानावरण व दर्शनावरण के बंध योग्य परिणाम
देखें अभ्याख्यान आदि वचनों से ज्ञानावरणीय की वेदना होती है ।
तत्त्वार्थसूत्र/6/10 तत्प्रदोषनिह्ंवमात्सर्यांतरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयो:।10। सर्वार्थसिद्धि/6/10/328/5 एतेन ज्ञानदर्शनवत्सु तत्साधनेषु च प्रदोषादयो योज्या: तन्निमित्तत्वात् । ज्ञानविषया: प्रदोषादयो ज्ञानावरणस्य। दर्शनविषया: प्रदोषादयो दर्शनावरणस्येति।=ज्ञान और दर्शन के विषय में 1 प्रदोष, 2 निह्नव, 3 मात्सर्य, 4 अंतराय, 5 आसादन, और 6 उपघात ये ज्ञानावरण और दर्शनावरण के आस्रव हैं।10। ज्ञान और दर्शनवालों के विषय में तथा उनके साधनों के विषय में प्रदोषादि की योजना करनी चाहिए, क्योंकि ये उनके निमित्त से होते हैं। अथवा ज्ञान संबंधी प्रदोषादिक ज्ञानावरण के आस्रव हैं और दर्शन संबंधी प्रदोषादिक दर्शनावरण के आस्रव हैं ( गोम्मटसार कर्मकांड/800/979 )
राजवार्तिक/6/10/20/519/10 अपि च, आचार्योपाध्यायवत्यनीकत्वअकालाध्ययन-श्रद्धाभाव-अभ्यासालस्य–अनादरार्थ-श्रावण-तीर्थोपरोध-बहुश्रुतगर्वं-मिथ्योपदेश-बहुश्रुतावमान-स्वपक्षपरिग्रहपंडितत्वस्वपक्षपरित्याग-अबद्धप्रलाप-उत्सूत्रवाद-साध्यपूर्वकज्ञानाधिगमशास्त्रविक्रय-प्राणातिपातादय: ज्ञानावरणस्यास्रवा:। दर्शनमात्सर्यांतराय-नेत्रोत्पाटनेंद्रियप्रत्यनीकत्व-दृष्टिगौरव-आयतस्वापिता-दिवाशयनालस्य-नास्तिक्यपरिग्रह-सम्यग्दृष्टिसंदूषण-कुतीर्थप्रशंसा, प्राणव्यपरोपण-यतिजनजुगुप्सादयो दर्शनावरणस्यास्रवा:, इत्यस्ति आस्रवभेद:।=(उपरोक्त से अतिरिक्त और भी ज्ञानावरण और दर्शनावरण के कुछ आस्रवों का निर्देश निम्न प्रकार है) 7. आचार्य और उपाध्याय के प्रतिकूल चलना; 8. अकाल अध्ययन; 9. अश्रद्धा; 10. अभ्यास में आलस्य; 11. अनादर से अर्थ सुनना; 12. तीर्थोपरोध अर्थात् दिव्यध्वनि के समय स्वयं व्याख्या करने लगना; 13. बहुश्रुतपने का गर्व; 14. मिथ्योपदेश; 15. बहुश्रुत का अपमान करना; 16. स्वपक्ष का दुराग्रह; 17. दुराग्रहवश असंबद्ध प्रलाप करना 18. स्वपक्ष परित्याग या सूत्र विरुद्ध बोलना; 19. असिद्ध से ज्ञानप्राप्ति 20. शास्त्रविक्रय; और 21. हिंसा आदि ज्ञानावरण के आस्रव के कारण हैं । 7. दर्शनमात्सर्य; 8. दर्शन अंतराय; 9. आँखें फोड़ना; 10. इंद्रियों के विपरीत प्रवृत्ति; 11. दृष्टि का गर्व, 12. दीर्घ निद्रा; 13. दिन में सोना; 14. आलस्य; 15. नास्तिकता; 16. सम्यग्दृष्टि में दूषण लगाना; 17. कृतीर्थ की प्रशंसा; 18. हिंसा; और 19. यतिजनों के प्रति ग्लानि के भाव आदि भी दर्शनावरणीय के आस्रव के कारण हैं। इस प्रकार इन दोनों के आस्रव में भेद भी है। (तत्त्वसार/4/13-19)
- ज्ञानावरणीय सामान्य का लक्षण
- ज्ञानावरणीय विषयक शंका-समाधान
- ज्ञानावरणीय को ज्ञान विनाशक कहें तो ?
धवला 6/1,9-1,5/6/9 णाणविणासयमिदि किण्ण उच्चदे। ण, जीवलक्खणाणं णाणदंसणाण विणासाभावा। विणासे वा जीवस्स वि विणासो होज्ज, लक्खणरहियलक्खाणुवलंभा। णाणस्स विणासभावे सव्वजीवाणं णाणत्थित्तं पसज्जदे चे, होदु णाम विरोहाभावा; अक्खरस्स अणंतभाओ णिच्चुग्घाडियओ इदि सुत्ताणुकूलत्तादो वा। ण सव्वावयवेहि णाणस्सुवलंभोहोदुत्ति वोत्तुं जुत्तं, आवरिदणाणभागाणमुवलंभविरोहा।=प्रश्न–‘ज्ञानावरण’ नाम के स्थान पर ‘ज्ञानविनाशक’ ऐसा नाम क्यों नहीं कहा ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, जीव के लक्षणस्वरूप ज्ञान और दर्शन का विनाश नहीं होता है। यदि ज्ञान और दर्शन का विनाश माना जाये, तो जीव का भी विनाश हो जायेगा, क्योंकि, लक्षण से रहित लक्ष्य पाया नहीं जाता। प्रश्न–ज्ञान का विनाश नहीं मानने पर सभी जीवों के ज्ञान का अस्तित्व प्राप्त होता है? उत्तर–ज्ञान का विनाश नहीं मानने पर यदि सर्व जीवों के ज्ञान का अस्तित्व प्राप्त होता है तो होने दो, उसमें कोई विरोध नहीं है। अथवा ‘अक्षर का अनंतवाँ भाग ज्ञान नित्य उद्घाटित रहता है’ इस सूत्र के अनुकूल होने से सर्व जीवों के ज्ञान का अस्तित्व सिद्ध है। प्रश्न–तो फिर सर्व अवयवों के साथ ज्ञान का उपलंभ होना चाहिए (हीन ज्ञान का नहीं) ? उत्तर–यह कहना उपयुक्त नहीं है, क्योंकि, आवरण किये गये ज्ञान के भागों का उपलंभ मानने में विरोध आता है।
- ज्ञानावरण कर्म सद्भूत ज्ञानांश का आवरण करता है या असद्भूत का
राजवार्तिक/8/6/4-6/571/4 इदमिहं संपधार्यम्–सतां मत्यादीनां कर्म आवरणं भवेत्, असतां वेति। किं चात: यदि सताम्; परिप्राप्तात्मलाभत्वात् सत्त्वादेव आवृत्तिर्नोपपद्यते। अथासताम्; नन्वावरणाभाव:। न हि खरविषाणवदसदाव्रियते।4। न वैष दोष:। किं कारणम् । आदेशवचनात् । ...द्रव्यार्थादेशेन सतां मत्यादीनामावरणम्, पर्यायार्थादेशेनासताम् ।5।...न कुटोभूतानि मत्यादीनि कानिचित् संति येषामावरणात् मत्याद्यावरणानाम् आवरणत्वं भवेत् किंतु मत्याद्यावरणसंनिधाने आत्मा मत्यादिज्ञानपर्यायैर्नोत्पद्यते इत्यतो मत्याद्यावरणानाम् आवरणत्वम् ।61।=प्रश्न–कर्म विद्यमान मत्यादि का आवरण करता है या अविद्यमान का ? यदि विद्यमान का तो जब वह स्वरूपलाभ करके विद्यमान ही है तो आवरण कैसा ? और यदि अविद्यमान का तो भी खरविषाण की तरह उसका आवरण कैसा ? उत्तर–द्रव्यार्थदृष्टि से सत् और पर्यायदृष्टि से असत् मति आदि का आवरण होता है। अथवा मति आदि का कहीं प्रत्यक्षीभूत ढेर नहीं लगा है जिसको ढक देने से मत्यावरण आदि कहे जाते हों, किंतु मत्यावरण आदि के उदय से आत्मा में मति आदि ज्ञान उत्पन्न नहीं होते इसलिए उन्हें आवरण संज्ञा दी गयी है। (प्रत्याख्यानावरण की भाँति)। ( धवला 6/1,9-1,5/7/3 )।
- आवृत व अनावृत ज्ञानांशों में एकत्व कैसे–देखें ज्ञान ।/4/3।
- अभव्य में केवल व मन:पर्यय ज्ञानावरण का सत्त्व कैसे–देखें भव्य - 3.1।
- सात ज्ञानों के सात ही आवरण क्यों नहीं
धवला 7/2,1,45/87/7 सत्तण्हं णाणाणं सत्त चेव आवरणाणि किण्ण होदि चे। ण, पंचणाणवदिरित्तणाणाणुवलंभा। मदि अण्णाण-सुदअण्णाण-विभंगणाणमभावो वि णत्थि, जहाकमेण आभिणिबोहिय-सुदओहिणाणेसु तेसिमंतब्भावादो।=प्रश्न–इन सातों ज्ञानों के सात ही आवरण क्यों नहीं? उत्तर–नहीं होते, क्योंकि, पाँच ज्ञानों के अतिरिक्त अन्य कोई ज्ञान पाये नहीं जाते। किंतु इससे मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान और विभंगज्ञान का अभाव नहीं हो जाता, क्योंकि, उनका यथाक्रम से आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, और अवधिज्ञान में अंतर्भाव होता है। - ज्ञानावरण और दर्शनावरण के आस्रवों में समानता कैसे हो सकती है
राजवार्तिक/7/10-12/518/4 स्यान्मतम्-तुल्यास्रवत्वादनयोरेकत्वं प्राप्नोति, तुल्यकारणानां हि लोके एकत्वं दृष्टमिति; तन्न; किं कारणम् । तुल्यहेतुत्वेऽपि वचनं स्वपक्षस्य साधकमेव परपक्षस्य दूषकमेवेति न साधकदूषकधर्मयोरेकत्वमिति मतम् ।10।...यस्य तुल्यहेतुकानामेकत्वं यस्य मृत्पिडादितुल्यहेतुकानां घटशरावादीनां नानात्वं व्याहन्यत इति दृष्टव्याघात:।11।...आवरणात्यंतसंक्षये केवलिनि युगपत् केवलज्ञानदर्शनयो: साहचर्यं भास्करे प्रतापप्रकाशसाहचर्यवत् । ततश्चानयोस्तुल्यहेतुत्वं युक्तम् ।15। =प्रश्न–ज्ञानावरण और दर्शनावरण के आस्रव के कारण तुल्य हैं, अत: दोनों को एक ही कहना चाहिए, क्योंकि, जिनके कारण तुल्य होते हैं वे एक देखे जाते हैं ? उत्तर–तुल्य कारण होने से कार्यैक्य माना जाये तो एक हेतुक होने पर भी वचन स्वपक्ष के ही साधक तथा परपक्ष के ही दूषक होते हैं, इस प्रकार साधक और दूषक दोनों धर्मों में एकत्व प्राप्त होता है। एक मिट्टी रूप कारण से ही घट घटी शराव शकोरा आदि अनेक कार्यों की प्रत्यक्ष सिद्धि है। आवरण के अत्यंत संक्षय होने पर केवलज्ञान और केवलदर्शन दोनों, सूर्य के प्रताप और प्रकाश की तरह प्रगट हो जाते हैं, अत: इनमें तुल्य कारणों से आस्रव मानना उचित है।
- ज्ञानावरणीय को ज्ञान विनाशक कहें तो ?