अध्यवसाय: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
J2jinendra (talk | contribs) No edit summary |
||
(2 intermediate revisions by 2 users not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
<span class="GRef">समयसार / आत्मख्याति गाथा 250/331</span><p class="SanskritText">परजीवानहं जीवयामि परजीवैर्जीव्ये चाहमित्यध्यवसायो ध्रुवमज्ञानम् </p> | |||
<p class="HindiText">= मैं परजीवों को जिलाता हूँ और परजीव मुझे जिलाते हैं, ऐसा आशय निश्चय से अज्ञान है। (और भी देखें [[ अध्यवसान ]]) ।</p> | <p class="HindiText">= मैं परजीवों को जिलाता हूँ और परजीव मुझे जिलाते हैं, ऐसा आशय निश्चय से अज्ञान है। (और भी देखें [[ अध्यवसान ]]) ।</p><br> | ||
<p>1. स्थितिबंध अध्यवसायस्थान</p> | |||
< | <p class="HindiText"><b>1. स्थितिबंध अध्यवसायस्थान</b></p> | ||
<p class="HindiText">= सब मूल प्रकृतियों के अपने-अपने | <span class="GRef">धवला पुस्तक 11/4,2,6,165/310/6</span> <p class="PrakritText">सव्वमूलपयडीणं सग-उदयादो समुप्पण्णपरिणामाणं सग-सगट्ठिदिबंधकारणत्तेण ट्ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणं। </p> | ||
< | <p class="HindiText">= सब मूल प्रकृतियों के अपने-अपने उदय से जो परिणाम उत्पन्न होते हैं उनकी ही अपनी-अपनी स्थिति के बंध में कारण होने से स्थिति बंधाध्यवसानस्थान संज्ञा है।</p> | ||
<p>2. कषाय व स्थितिबंधाध्यवसायस्थान में अंतर</p> | <span class="GRef">गोम्मट्टसार जीवकांड / भाषा / गाथा 310/12</span> <p class="HindiText">ज्ञानावरणादिक कर्मनि का ज्ञान कौं आवरना इत्यादिक स्वभाव करि संयुक्त रहने को जो काल ताकौं स्थिति कहिये, तिसके संबंध कौं कारणभूत जे परिणामनि के स्थान तिनिका नाम स्थितिबंधाध्यवसायस्थान है।</p><br> | ||
< | |||
<p class="HindiText">= यदि कषायोदय स्थान ही स्थितिबंधाध्यवसानस्थान हों तो यह अल्पबहुत्व घटित नहीं हो सकता है क्योंकि कषायोदय | <p class="HindiText"><b>2. कषाय व स्थितिबंधाध्यवसायस्थान में अंतर</b></p> | ||
<p>3. अनुभाग बंधाध्यवसायस्थानों में हानि वृद्धि रचना</p> | <span class="GRef">धवला पुस्तक 11/4,2,6,165/310/3</span> <p class="PrakritText">(जदि पुण कसायउदयट्ठाणाणि चेव ट्ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि) होंति तो णेदमप्पाबहुगं घडदे, कसायोदयट्ठाणेण विणा मूलपयडिबंधाभावेण सव्वपयडिट्ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणं समाणत्तप्पसंगादो। तम्हा सव्वमूलपयडीणं सग-सग-उदयादो समुप्पण्णपरिणामाणं सग-सगट्ठिदिबंधकारणत्तेण ट्ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणं। </p> | ||
< | <p class="HindiText">= यदि कषायोदय स्थान ही स्थितिबंधाध्यवसानस्थान हों तो यह अल्पबहुत्व घटित नहीं हो सकता है क्योंकि कषायोदय स्थान के बिना मूल प्रकृतियों का बंध न हो सकने से सभी मूल प्रकृतियों के स्थितिबंधाध्यवसाय स्थानों की समानता का प्रसंग आता है। अतएव सब मूल प्रकृतियों के अपने-अपने उदय से जो परिणाम उत्पन्न होते हैं उनकी अपनी-अपनी स्थिति के बंध में कारण होने से स्थितिबंधाध्यवसायस्थान संज्ञा है।</p><br> | ||
<p class="HindiText">= सर्वस्थिति-बंधों संबंधी एक-एक स्थितिबंधाध्यवसायस्थान के नीचे उपर्युक्त षड्वृद्धि के क्रमसे असंख्यात लोकमात्र अनुभागबंधाध्यवसायस्थान होते हैं। वे अनुभागबंधाध्यवसायस्थान जघन्य कषायोदय संबंधी अनुभागबंधाध्यवसायस्थान से लेकर ऊपर जघन्य स्थिति के उत्कृष्ट कषायोदयस्थानसंबंधी अनुभागबंधाध्यवसायस्थान तक विशेष-विशेष अधिक हैं। यहाँ पर विशेष का प्रमाण असंख्यात लोक है।</p> | |||
<p>4. अनुभाग बंधाध्यवसायस्थानों में गुणहानि शलाका संबंधी दृष्टिभेद</p> | <p class="HindiText"><b>3. अनुभाग बंधाध्यवसायस्थानों में हानि वृद्धि रचना</b></p> | ||
< | <span class="GRef">धवला पुस्तक 6/1,9-7,43/200/3</span> <p class="PrakritText">सव्वट्ठिदिबंधट्ठाणाणं एक्केक्कट्ठिदि बंधट्ठाणाणं एक्केक्कट्ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणस्स हेट्ठा छवट्ठिकमेण असंखेज्जलोगमेत्ताणि अणुभागबंधज्झवसाणट्ठाणाणि होंति। ताणि च जहण्णकसाउदयअणुभागबंधज्झवसाणट्ठाणप्पहुडि उवरिं जाव जहण्णट्ठिदि-उक्कस्सकसाउदयट्ठाणअणुभागबंधज्झवसाणट्ठाणाणि त्ति विसेसाहियाणि। विसेसे पुण असंखेज्जा लोगा। </p> | ||
<p class="HindiText">= अनुभाग बंधाध्यवसायनि कै नाना गुणहानि शलाका हैं वा नाही हैं ऐसा आचार्यनि के मतिकरि दोऊ उपदेश हैं।</p> | <p class="HindiText">= सर्वस्थिति-बंधों संबंधी एक-एक स्थितिबंधाध्यवसायस्थान के नीचे उपर्युक्त षड्वृद्धि के क्रमसे असंख्यात लोकमात्र अनुभागबंधाध्यवसायस्थान होते हैं। वे अनुभागबंधाध्यवसायस्थान जघन्य कषायोदय संबंधी अनुभागबंधाध्यवसायस्थान से लेकर ऊपर जघन्य स्थिति के उत्कृष्ट कषायोदयस्थानसंबंधी अनुभागबंधाध्यवसायस्थान तक विशेष-विशेष अधिक हैं। यहाँ पर विशेष का प्रमाण असंख्यात लोक है।</p><br> | ||
<p>5. स्थितिबंध अध्यवसायस्थानों में हानि-वृद्धि रचना </p> | |||
< | <p class="HindiText"><b>4. अनुभाग बंधाध्यवसायस्थानों में गुणहानि शलाका संबंधी दृष्टिभेद</b></p> | ||
<p class="HindiText">= एक-एक स्थिति बंधस्थान के असंख्यात लोक प्रमाण स्थितिबंधाध्यवसाय स्थान होते हैं। जो कि यथाक्रम से विशेष-विशेष अधिक हैं। इस विशेष का प्रमाण असंख्यात लोक है। ...वे स्थितिबंधाध्यवसायस्थान जघन्य | <span class="GRef">गोम्मट्टसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या/964/1191/4</span> <p class="SanskritText">अनुभागबंधाध्यवसायानां नानागुणहानिशलाकाः संति न संतोत्युपदेशद्वयमस्ति। </p> | ||
<p>6. पहले- | <p class="HindiText">= अनुभाग बंधाध्यवसायनि कै नाना गुणहानि शलाका हैं वा नाही हैं ऐसा आचार्यनि के मतिकरि दोऊ उपदेश हैं।</p><br> | ||
< | |||
<p class="HindiText">= जो स्थिति बंध अध्यवसाय स्थान ( | <p class="HindiText"><b>5. स्थितिबंध अध्यवसायस्थानों में हानि-वृद्धि रचना</b> </p> | ||
<p>7. स्थिति व अनुभाग बंध अध्यवसायस्थानों में परस्पर संबंध</p> | <span class="GRef">धवला पुस्तक 6/1,9-7,43/199/4</span> <p class="PrakritText">एक्केक्कस्स ट्ठिदिबंधट्ठाणस्स असंखेज्जा लोगा ट्ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि जहाकमेण विसेसाहियाणि। विसेसो पुण असंखेज्जा लोगा। ...ताणि च ट्ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि जहण्णट्ठाणादो जावप्पप्पणो उक्कस्सट्ठाणं ताव अणंतभागवड्ढी असंखेज्जभागवड्ढी, संखेज्जभागवड्ढी, संखेज्जगुणवड्ढी, असंखेज्जगुणवड्ढी, अणंतगुणवड्ढी त्ति छव्विधाए वड्ढीए ट्ठिदाणि। अणंतभागवड्ढिकंडयं गंतूण, एगा असंखेज्जभागवड्ढी होदि। असंखेज्जभागवड्ढिकंडयं गंतूण एगा संखेज्जभागवड्ढी होदि। संखेज्जभागवड्ढिकंडयं गंतूण एगा संखेज्जगुणवड्ढी हादि। संखेज्जगुणवड्ढिकंडयं गंतूण एगा असंखेज्जगुणवड्ढी होदि। असंखेज्जगुणवड्ढिकंडयं गंतूण एगा अणंतगुणवड्ढि होदि। एदमेगं छट्ठाणं। एरिसाणि असंखेज्जलोगमेत्ताणि छट्ठाणाणि होंति। </p> | ||
< | <p class="HindiText">= एक-एक स्थिति बंधस्थान के असंख्यात लोक प्रमाण स्थितिबंधाध्यवसाय स्थान होते हैं। जो कि यथाक्रम से विशेष-विशेष अधिक हैं। इस विशेष का प्रमाण असंख्यात लोक है। ...वे स्थितिबंधाध्यवसायस्थान जघन्य स्थान से लेकर अपने अपने उत्कृष्ट स्थान तक अनंतभागवृद्धि, असंख्यात भागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, अनंतगुणवृद्धि, इस 6 प्रकारकी वृद्धि से अवस्थित हैं। अनंतभाग वृद्धिकांडक जाकर अर्थात् सूच्यंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र बार अनंतभागवृद्धि हो जाने पर एक बार असंख्यातभागवृद्धि होती है। असंख्यात भागवृद्धि कांडक जाकर एक बार संख्यात भागवृद्धि होती है। संख्यातभागवृद्धि कांडक जाकर एक बार संख्यातगुणवृद्धि होती है। संख्यातगुणवृद्धि कांडक जाकर एक बार असंख्यात गुणवृद्धि होती है। असंख्यातगुणवृद्धि कांडक जाकर एक बार अनंतगुण वृद्धि होती है। (यहाँ सर्वत्र कांडक से अभिप्राय सूच्यंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र बारों से है) यह एक षड्वृद्धि रूप स्थान है। इस प्रकार के असंख्यात लोकमात्र षड्वृद्धिरूप स्थान उन स्थितिबंधाध्यवसायस्थानों के होते हैं।</p><br> | ||
<p class="HindiText">= सर्व स्थिति बंधों संबंधी एक-एक स्थितिबंधाध्यवसायस्थान के नीचे उपर्युक्त षड्वृद्धि के | <p class="HindiText"><b>6. पहले-पहले वाले स्थितिबंध अध्यवसायस्थान अगले-अगले स्थानों में नहीं पाये जाते</b></p> | ||
<p>8. अनुभाग अध्यवसायस्थानों में परस्पर संबंध</p> | <span class="GRef">धवला पुस्तक 11/4,2,6,270/364/5</span> <p class="PrakritText">जाणि विदियाए ट्ठिदीए ट्ठिदिबंधज्झावसाणट्ठाणाणि ताणि तदियाए ट्ठिदीए ट्ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणेसु होंति त्ति ण घेत्तव्वं, पढमखंडज्झवसाणट्ठाणाणं तदियट्ठिदि अज्झवसाणट्ठाणेसु अणुवलंभादो। </p> | ||
<p>1. मूल प्रकृति – देखो | <p class="HindiText">= जो स्थिति बंध अध्यवसाय स्थान (कर्म की) द्वितीय स्थिति (बंध) में हैं, वे तृतीय स्थिति के अध्यवसायस्थानों में (भी) होते हैं, ऐसा नहीं ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि द्वितीय स्थिति के प्रथम खंड संबंधी अध्यवसायस्थान तृतीय स्थिति के अध्यवसायस्थानों में नहीं पाये जाते हैं।</p><br> | ||
<p class="HindiText"><b>7. स्थिति व अनुभाग बंध अध्यवसायस्थानों में परस्पर संबंध</b></p> | |||
<span class="GRef">धवला पुस्तक 6/1,9-7, 43/200/3</span> <p class="PrakritText">सव्वट्ठिदिबंधट्ठाणाणं एक्केक्कट्ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणस्स हेट्ठा छवड्ढिकमेण असंखेज्जलोगमेत्ताणि अणुभागबंधज्झवसाणट्ठाणाणि होंति। </p> | |||
<p class="HindiText">= सर्व स्थिति बंधों संबंधी एक-एक स्थितिबंधाध्यवसायस्थान के नीचे उपर्युक्त षड्वृद्धि के क्रम से असंख्यात लोकमात्र अनुभागबंधाध्यवसायस्थान होते हैं।</p><br> | |||
<p class="HindiText"><b>8. अनुभाग अध्यवसायस्थानों में परस्पर संबंध</b></p> | |||
<p class="HindiText">1. मूल प्रकृति – देखो <span class="GRef">महाबंध 4/371-386/168</span>। <br> | |||
<p class="HindiText">2. उत्तर प्रकृति - देखो <span class="GRef">महाबंध 5/626-658/372</span>।</p> | |||
Line 35: | Line 43: | ||
</noinclude> | </noinclude> | ||
[[Category: अ]] | [[Category: अ]] | ||
[[Category: द्रव्यानुयोग]] | |||
[[Category: करणानुयोग]] |
Latest revision as of 10:33, 12 December 2022
समयसार / आत्मख्याति गाथा 250/331
परजीवानहं जीवयामि परजीवैर्जीव्ये चाहमित्यध्यवसायो ध्रुवमज्ञानम्
= मैं परजीवों को जिलाता हूँ और परजीव मुझे जिलाते हैं, ऐसा आशय निश्चय से अज्ञान है। (और भी देखें अध्यवसान ) ।
1. स्थितिबंध अध्यवसायस्थान
धवला पुस्तक 11/4,2,6,165/310/6
सव्वमूलपयडीणं सग-उदयादो समुप्पण्णपरिणामाणं सग-सगट्ठिदिबंधकारणत्तेण ट्ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणं।
= सब मूल प्रकृतियों के अपने-अपने उदय से जो परिणाम उत्पन्न होते हैं उनकी ही अपनी-अपनी स्थिति के बंध में कारण होने से स्थिति बंधाध्यवसानस्थान संज्ञा है।
गोम्मट्टसार जीवकांड / भाषा / गाथा 310/12
ज्ञानावरणादिक कर्मनि का ज्ञान कौं आवरना इत्यादिक स्वभाव करि संयुक्त रहने को जो काल ताकौं स्थिति कहिये, तिसके संबंध कौं कारणभूत जे परिणामनि के स्थान तिनिका नाम स्थितिबंधाध्यवसायस्थान है।
2. कषाय व स्थितिबंधाध्यवसायस्थान में अंतर
धवला पुस्तक 11/4,2,6,165/310/3
(जदि पुण कसायउदयट्ठाणाणि चेव ट्ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि) होंति तो णेदमप्पाबहुगं घडदे, कसायोदयट्ठाणेण विणा मूलपयडिबंधाभावेण सव्वपयडिट्ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणं समाणत्तप्पसंगादो। तम्हा सव्वमूलपयडीणं सग-सग-उदयादो समुप्पण्णपरिणामाणं सग-सगट्ठिदिबंधकारणत्तेण ट्ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणं।
= यदि कषायोदय स्थान ही स्थितिबंधाध्यवसानस्थान हों तो यह अल्पबहुत्व घटित नहीं हो सकता है क्योंकि कषायोदय स्थान के बिना मूल प्रकृतियों का बंध न हो सकने से सभी मूल प्रकृतियों के स्थितिबंधाध्यवसाय स्थानों की समानता का प्रसंग आता है। अतएव सब मूल प्रकृतियों के अपने-अपने उदय से जो परिणाम उत्पन्न होते हैं उनकी अपनी-अपनी स्थिति के बंध में कारण होने से स्थितिबंधाध्यवसायस्थान संज्ञा है।
3. अनुभाग बंधाध्यवसायस्थानों में हानि वृद्धि रचना
धवला पुस्तक 6/1,9-7,43/200/3
सव्वट्ठिदिबंधट्ठाणाणं एक्केक्कट्ठिदि बंधट्ठाणाणं एक्केक्कट्ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणस्स हेट्ठा छवट्ठिकमेण असंखेज्जलोगमेत्ताणि अणुभागबंधज्झवसाणट्ठाणाणि होंति। ताणि च जहण्णकसाउदयअणुभागबंधज्झवसाणट्ठाणप्पहुडि उवरिं जाव जहण्णट्ठिदि-उक्कस्सकसाउदयट्ठाणअणुभागबंधज्झवसाणट्ठाणाणि त्ति विसेसाहियाणि। विसेसे पुण असंखेज्जा लोगा।
= सर्वस्थिति-बंधों संबंधी एक-एक स्थितिबंधाध्यवसायस्थान के नीचे उपर्युक्त षड्वृद्धि के क्रमसे असंख्यात लोकमात्र अनुभागबंधाध्यवसायस्थान होते हैं। वे अनुभागबंधाध्यवसायस्थान जघन्य कषायोदय संबंधी अनुभागबंधाध्यवसायस्थान से लेकर ऊपर जघन्य स्थिति के उत्कृष्ट कषायोदयस्थानसंबंधी अनुभागबंधाध्यवसायस्थान तक विशेष-विशेष अधिक हैं। यहाँ पर विशेष का प्रमाण असंख्यात लोक है।
4. अनुभाग बंधाध्यवसायस्थानों में गुणहानि शलाका संबंधी दृष्टिभेद
गोम्मट्टसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या/964/1191/4
अनुभागबंधाध्यवसायानां नानागुणहानिशलाकाः संति न संतोत्युपदेशद्वयमस्ति।
= अनुभाग बंधाध्यवसायनि कै नाना गुणहानि शलाका हैं वा नाही हैं ऐसा आचार्यनि के मतिकरि दोऊ उपदेश हैं।
5. स्थितिबंध अध्यवसायस्थानों में हानि-वृद्धि रचना
धवला पुस्तक 6/1,9-7,43/199/4
एक्केक्कस्स ट्ठिदिबंधट्ठाणस्स असंखेज्जा लोगा ट्ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि जहाकमेण विसेसाहियाणि। विसेसो पुण असंखेज्जा लोगा। ...ताणि च ट्ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि जहण्णट्ठाणादो जावप्पप्पणो उक्कस्सट्ठाणं ताव अणंतभागवड्ढी असंखेज्जभागवड्ढी, संखेज्जभागवड्ढी, संखेज्जगुणवड्ढी, असंखेज्जगुणवड्ढी, अणंतगुणवड्ढी त्ति छव्विधाए वड्ढीए ट्ठिदाणि। अणंतभागवड्ढिकंडयं गंतूण, एगा असंखेज्जभागवड्ढी होदि। असंखेज्जभागवड्ढिकंडयं गंतूण एगा संखेज्जभागवड्ढी होदि। संखेज्जभागवड्ढिकंडयं गंतूण एगा संखेज्जगुणवड्ढी हादि। संखेज्जगुणवड्ढिकंडयं गंतूण एगा असंखेज्जगुणवड्ढी होदि। असंखेज्जगुणवड्ढिकंडयं गंतूण एगा अणंतगुणवड्ढि होदि। एदमेगं छट्ठाणं। एरिसाणि असंखेज्जलोगमेत्ताणि छट्ठाणाणि होंति।
= एक-एक स्थिति बंधस्थान के असंख्यात लोक प्रमाण स्थितिबंधाध्यवसाय स्थान होते हैं। जो कि यथाक्रम से विशेष-विशेष अधिक हैं। इस विशेष का प्रमाण असंख्यात लोक है। ...वे स्थितिबंधाध्यवसायस्थान जघन्य स्थान से लेकर अपने अपने उत्कृष्ट स्थान तक अनंतभागवृद्धि, असंख्यात भागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, अनंतगुणवृद्धि, इस 6 प्रकारकी वृद्धि से अवस्थित हैं। अनंतभाग वृद्धिकांडक जाकर अर्थात् सूच्यंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र बार अनंतभागवृद्धि हो जाने पर एक बार असंख्यातभागवृद्धि होती है। असंख्यात भागवृद्धि कांडक जाकर एक बार संख्यात भागवृद्धि होती है। संख्यातभागवृद्धि कांडक जाकर एक बार संख्यातगुणवृद्धि होती है। संख्यातगुणवृद्धि कांडक जाकर एक बार असंख्यात गुणवृद्धि होती है। असंख्यातगुणवृद्धि कांडक जाकर एक बार अनंतगुण वृद्धि होती है। (यहाँ सर्वत्र कांडक से अभिप्राय सूच्यंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र बारों से है) यह एक षड्वृद्धि रूप स्थान है। इस प्रकार के असंख्यात लोकमात्र षड्वृद्धिरूप स्थान उन स्थितिबंधाध्यवसायस्थानों के होते हैं।
6. पहले-पहले वाले स्थितिबंध अध्यवसायस्थान अगले-अगले स्थानों में नहीं पाये जाते
धवला पुस्तक 11/4,2,6,270/364/5
जाणि विदियाए ट्ठिदीए ट्ठिदिबंधज्झावसाणट्ठाणाणि ताणि तदियाए ट्ठिदीए ट्ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणेसु होंति त्ति ण घेत्तव्वं, पढमखंडज्झवसाणट्ठाणाणं तदियट्ठिदि अज्झवसाणट्ठाणेसु अणुवलंभादो।
= जो स्थिति बंध अध्यवसाय स्थान (कर्म की) द्वितीय स्थिति (बंध) में हैं, वे तृतीय स्थिति के अध्यवसायस्थानों में (भी) होते हैं, ऐसा नहीं ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि द्वितीय स्थिति के प्रथम खंड संबंधी अध्यवसायस्थान तृतीय स्थिति के अध्यवसायस्थानों में नहीं पाये जाते हैं।
7. स्थिति व अनुभाग बंध अध्यवसायस्थानों में परस्पर संबंध
धवला पुस्तक 6/1,9-7, 43/200/3
सव्वट्ठिदिबंधट्ठाणाणं एक्केक्कट्ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणस्स हेट्ठा छवड्ढिकमेण असंखेज्जलोगमेत्ताणि अणुभागबंधज्झवसाणट्ठाणाणि होंति।
= सर्व स्थिति बंधों संबंधी एक-एक स्थितिबंधाध्यवसायस्थान के नीचे उपर्युक्त षड्वृद्धि के क्रम से असंख्यात लोकमात्र अनुभागबंधाध्यवसायस्थान होते हैं।
8. अनुभाग अध्यवसायस्थानों में परस्पर संबंध
1. मूल प्रकृति – देखो महाबंध 4/371-386/168।
2. उत्तर प्रकृति - देखो महाबंध 5/626-658/372।