आनुपूर्वी: Difference between revisions
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<p class="HindiText">= पूर्वानुपूर्वी, पश्चातानुपूर्वी और यथातथानुपूर्वी इस प्रकार | <span class="GRef">धवला पुस्तक 1/1,1,1/73/1</span> <p class=" PrakritText ">पुव्वाणुपुव्वी पच्छाणुपुव्वी जत्थतत्थ णुपुव्वी चेदि तिविहा आणुपुव्वी। </p> | ||
<p>( धवला पुस्तक 9/4,1,45/135/1) ( कषायपाहुड़ पुस्तक 1/1,1/ | <p class="HindiText">= पूर्वानुपूर्वी, पश्चातानुपूर्वी और यथातथानुपूर्वी इस प्रकार आनुपूर्वी के तीन भेद है।</p> | ||
<p>2. पूर्वानुपूर्वी | <p><span class="GRef">(धवला पुस्तक 9/4,1,45/135/1)</span> <span class="GRef">(कषायपाहुड़ पुस्तक 1/1,1/22/28/1)</span> <span class="GRef">(महापुराण 2/04)</span></p> | ||
< | <p class="HindiText"><b>2. पूर्वानुपूर्वी आदि के लक्षण</b></p> | ||
<p class="HindiText">= जो | <span class="GRef">धवला पुस्तक 1/1,1,1/73/1</span> <p class=" PrakritText ">जं मूलादो परिवाडीए उच्चदे सा पुव्वाणुपुव्वी। तिस्से उदाहरणं-उसहमजियं च वंदे इच्चेवमादि। जं उवरीदो हेट्टा परिवाडीए उच्चदि सा पच्छाणुपुव्वी। तिस्से उदाहरणं - एस करेमि य पणमं जिणवरसहस्स वड्ढमाणस्स। सेसाणं च जिणाणं सिव-सुह-कंखा विलोमेण ॥65॥ इदि। जमणुलोम-विलोमेहि विणा जहा तहा उच्चदि सा जत्थतत्थाणुपुव्वी। तिस्से उदाहरणं-गय-गवल-सजल-जलहर-परहुव-सिहि -गलय-भमर-संकासो। हरिउल-वंसपईवो सिव-माउव-वच्छओ-जयऊ ॥66॥ इच्चेवमादिं।</p> | ||
< | <p class="HindiText">= जो वस्तु का विवेचन मूल से परिपाटी द्वारा किया जाता है उसे पूर्वानुपूर्वी कहते हैं। उसका उदाहरण इस प्रकार है, ऋषभनाथ की वंदना करता हूँ, अजितनाथ की वंदना करता हूँ इत्यादि। क्रम से ऋषभनाथ को आदि लेकर महावीर स्वामी पर्यंत क्रमवार वंदना करना सो पूर्वानुपूर्वी उपक्रम है। | ||
<p class="HindiText">= जो पदार्थ जिस | जो वस्तु का विवेचन ऊपर से अर्थात् अंत से लेकर आदि तक परिपाटी क्रम से (प्रतिलोम पद्धति से) किया जाता है। उसे पश्चातानुपूर्वी उपक्रम कहते हैं। जैसे-मोक्ष सुख की अभिलाषा से यह मैं जिनवरों में श्रेष्ठ ऐसे महावीर स्वामी को नमस्कार करता हूँ। और विलोम क्रम से अर्थात् वर्द्धमान के बाद पार्श्वनाथ को, पार्श्वानाथ के बाद नेमिनाथ को इत्यादि क्रम से शेष जिनेंद्रों को भी नमस्कार करता हूँ ॥65॥ <br> | ||
<p>( धवला पुस्तक 9/4,1,45/135/1)</p> | जो कथन अनुलोम और प्रतिलोम क्रम के बिना जहाँ कहीं से भी किया जाता है उसे यथातथानुपूर्वी कहते हैं। जैसे - हाथी, अरण्य, भैंसा, जलपरिपूर्ण और सघनमेघ, कोयल, मयूर का कंठ और भ्रमर के समान वर्ण वाले हरिवंश के प्रदीप और शिवादेवी माता के लाल ऐसे नेमिनाथ भगवान् जयवंत हों। इत्यादि।</p> | ||
<span class="GRef">कषायपाहुड़ पुस्तक 1/1,1/22/28/2</span> <p class=" PrakritText ">जं जेण कमेण सुत्तकारेहि ठइदमुप्पण्णं वा तस्स तेण कमेण गणणा पुव्वाणुपुव्वी णाम। तस्स विलोमेण गणणा पच्छाणुपुव्वी। जत्थ व तत्थ वा अप्पणो इच्छिइदमादिं कादूण गणणा जत्थतत्थाणुपुव्वी होदि।</p> | |||
<p class="HindiText">= जो पदार्थ जिस क्रम से सूत्रकार के द्वारा स्थापित किया गया हो, अथवा, जो पदार्थ जिस क्रम से उत्पन्न हुआ हो उसकी उसी क्रम से गणना करना पूर्वानुपूर्वी है। उस पदार्थ की विलोम क्रम से अर्थात् अंत से लेकर आदि तक गणना करना पश्चातानुपूर्वी है। और जहाँ कहीँ से अपने इच्छित पदार्थ का आदि करके गणना यत्रतत्रानुपूर्वी है।</p> | |||
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<p> उपक्रम के पाँच भेदों में एक भेद । इसके तीन भेद हैं—पूर्वानुपूर्वी, अनंतानुपूर्वी और यथातथानुपूर्वी । <span class="GRef"> महापुराण 2.104 </span></p> | <div class="HindiText"> <p class="HindiText"> उपक्रम के पाँच भेदों में एक भेद । इसके तीन भेद हैं—पूर्वानुपूर्वी, अनंतानुपूर्वी और यथातथानुपूर्वी । <span class="GRef"> महापुराण 2.104 </span></p> | ||
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Latest revision as of 14:40, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
1. आनुपूर्वी के भेद
धवला पुस्तक 1/1,1,1/73/1
पुव्वाणुपुव्वी पच्छाणुपुव्वी जत्थतत्थ णुपुव्वी चेदि तिविहा आणुपुव्वी।
= पूर्वानुपूर्वी, पश्चातानुपूर्वी और यथातथानुपूर्वी इस प्रकार आनुपूर्वी के तीन भेद है।
(धवला पुस्तक 9/4,1,45/135/1) (कषायपाहुड़ पुस्तक 1/1,1/22/28/1) (महापुराण 2/04)
2. पूर्वानुपूर्वी आदि के लक्षण
धवला पुस्तक 1/1,1,1/73/1
जं मूलादो परिवाडीए उच्चदे सा पुव्वाणुपुव्वी। तिस्से उदाहरणं-उसहमजियं च वंदे इच्चेवमादि। जं उवरीदो हेट्टा परिवाडीए उच्चदि सा पच्छाणुपुव्वी। तिस्से उदाहरणं - एस करेमि य पणमं जिणवरसहस्स वड्ढमाणस्स। सेसाणं च जिणाणं सिव-सुह-कंखा विलोमेण ॥65॥ इदि। जमणुलोम-विलोमेहि विणा जहा तहा उच्चदि सा जत्थतत्थाणुपुव्वी। तिस्से उदाहरणं-गय-गवल-सजल-जलहर-परहुव-सिहि -गलय-भमर-संकासो। हरिउल-वंसपईवो सिव-माउव-वच्छओ-जयऊ ॥66॥ इच्चेवमादिं।
= जो वस्तु का विवेचन मूल से परिपाटी द्वारा किया जाता है उसे पूर्वानुपूर्वी कहते हैं। उसका उदाहरण इस प्रकार है, ऋषभनाथ की वंदना करता हूँ, अजितनाथ की वंदना करता हूँ इत्यादि। क्रम से ऋषभनाथ को आदि लेकर महावीर स्वामी पर्यंत क्रमवार वंदना करना सो पूर्वानुपूर्वी उपक्रम है।
जो वस्तु का विवेचन ऊपर से अर्थात् अंत से लेकर आदि तक परिपाटी क्रम से (प्रतिलोम पद्धति से) किया जाता है। उसे पश्चातानुपूर्वी उपक्रम कहते हैं। जैसे-मोक्ष सुख की अभिलाषा से यह मैं जिनवरों में श्रेष्ठ ऐसे महावीर स्वामी को नमस्कार करता हूँ। और विलोम क्रम से अर्थात् वर्द्धमान के बाद पार्श्वनाथ को, पार्श्वानाथ के बाद नेमिनाथ को इत्यादि क्रम से शेष जिनेंद्रों को भी नमस्कार करता हूँ ॥65॥
जो कथन अनुलोम और प्रतिलोम क्रम के बिना जहाँ कहीं से भी किया जाता है उसे यथातथानुपूर्वी कहते हैं। जैसे - हाथी, अरण्य, भैंसा, जलपरिपूर्ण और सघनमेघ, कोयल, मयूर का कंठ और भ्रमर के समान वर्ण वाले हरिवंश के प्रदीप और शिवादेवी माता के लाल ऐसे नेमिनाथ भगवान् जयवंत हों। इत्यादि।
कषायपाहुड़ पुस्तक 1/1,1/22/28/2
जं जेण कमेण सुत्तकारेहि ठइदमुप्पण्णं वा तस्स तेण कमेण गणणा पुव्वाणुपुव्वी णाम। तस्स विलोमेण गणणा पच्छाणुपुव्वी। जत्थ व तत्थ वा अप्पणो इच्छिइदमादिं कादूण गणणा जत्थतत्थाणुपुव्वी होदि।
= जो पदार्थ जिस क्रम से सूत्रकार के द्वारा स्थापित किया गया हो, अथवा, जो पदार्थ जिस क्रम से उत्पन्न हुआ हो उसकी उसी क्रम से गणना करना पूर्वानुपूर्वी है। उस पदार्थ की विलोम क्रम से अर्थात् अंत से लेकर आदि तक गणना करना पश्चातानुपूर्वी है। और जहाँ कहीँ से अपने इच्छित पदार्थ का आदि करके गणना यत्रतत्रानुपूर्वी है।
( धवला पुस्तक 9/4,1,45/135/1)
पुराणकोष से
उपक्रम के पाँच भेदों में एक भेद । इसके तीन भेद हैं—पूर्वानुपूर्वी, अनंतानुपूर्वी और यथातथानुपूर्वी । महापुराण 2.104