दर्शन उपयोग 7: Difference between revisions
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<li | <li class="HindiText"><strong name="7.1" id="7.1"> दर्शनोपयोग अंतर्मुहूर्त अवस्थायी है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 13/5,5,23/216/13 </span><span class="SanskritText"> ज्ञानोत्पत्ते: पूर्वावस्था विषयविषयिसंपात: ज्ञानोत्पादनकारणपरिणामविशेषसंतत्युत्पत्त्युपलक्षित: अंतर्मुहूर्तकाल: दर्शनव्यपदेशभाक् । </span>=<span class="HindiText">ज्ञानोत्पत्ति की पूर्वावस्था विषय व विषयी का संपात (संबंध) है, जो दर्शन नाम से कहा जाता है। यह दर्शन ज्ञानोत्पत्ति के कारणभूत परिणाम विशेष की संतति की उत्पत्ति से उपलक्षित होकर अंतर्मुहूर्त कालस्थायी है।) <br>देखें [[ दर्शन#3.2 | दर्शन - 3.2 ]](केवलदर्शनोपयोग भी तद्भवस्थ उपसर्ग केवलियों की अंतर्मुहूर्त कालस्थायी है) <strong>नोट</strong>–(उपरोक्त अंतर्मुहूर्तकाल दर्शनोपयोग की अपेक्षा है और काल प्ररूपणा में दिये गये काल क्षयोपशम सामान्य की अपेक्षा है, अत: दोनों में विरोध नहीं है।) </span></li> | |||
<li | <li class="HindiText"><strong name="7.2" id="7.2"> लब्ध्यपर्याप्त दशा में चक्षुदर्शनोपयोग संभव नहीं पर निवृत्त्यपर्याप्त दशा में संभव है</strong></span><br> | ||
<span class="GRef"> धवला 4/1,3,67/126/8 </span><span class="PrakritText">यदि एवं, तो लद्धिअपज्जत्ताणं पि चक्खुदंसणित्तं पसज्जदे। तं च णत्थि, चक्खुदंसणिअवहारकालस्स पदरंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तपमाणप्पसंगादो। ण एस दोसो, णिव्वत्तिअपज्जत्ताणं चक्खुदंसणमत्थि; उत्तरकाले णिच्छएण चक्खुदंसणोवजोगसमुप्पत्तीए अविणाभाविचक्खुदंसणखओवसमदंसणादो। चउरिंदियपंचिंदियलद्धिअपज्जत्ताणं चक्खुदंसणं णत्थि, तत्थ चक्खुदंसणोवओगसमुप्पत्तीए अविणाभाविचक्खुदंसणक्खओवसमाभावादो।</span> <span class="HindiText">=<strong>प्रश्न</strong>–यदि ऐसा है (अर्थात् अपर्याप्तकाल में भी क्षयोपशम की अपेक्षा चक्षुदर्शन पाया जाता है) तो लब्ध्यपर्याप्तक जीवों में भी चक्षुदर्शनीपने का प्रसंग प्राप्त होता है। किंतु लब्ध्यपर्याप्तक जीवों के चक्षुदर्शन होता नहीं है। यदि लब्ध्यपर्याप्त जीवों के भी चक्षुदर्शनोपयोग का सद्भाव माना जायेगा, तो चक्षुदर्शनी जीवों के अवहारकाल को प्रतरांगुल के असंख्यातवें भागमात्र प्रमाणपने का प्रसंग प्राप्त होता है। <strong>उत्तर</strong>–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, निवृत्त्यपर्याप्त जीवों के चक्षुदर्शन होता है। इसका कारण यह है, कि उत्तरकाल में अर्थात् अपर्याप्त काल समाप्त होने के पश्चात् निश्चय से चक्षुदर्शनोपयोग की समुत्पत्ति का अविनाभावी चक्षुदर्शन का क्षयोपशम देखा जाता है। हाँ चतुरिंद्रिय और पंचेंद्रिय लब्ध्यपर्याप्त जीवों चक्षुदर्शन नहीं होता, क्योंकि, उनमें चक्षुदर्शनोपयोग की समुत्पत्ति का अविनाभावी चक्षुदर्शनावरण कर्म के क्षयोपशम का अभाव है। <span class="GRef">( धवला 4/1,5,278/454/6 )</span>। </span></li> | |||
<li | <li class="HindiText"><strong name="7.3" id="7.3"> मिश्र व कार्माणकाय योगियों में चक्षुदर्शनोपयोग का अभाव</strong> </span><br> | ||
<span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/4/27-29 </span><span class="PrakritText">ओरालमिस्स–कम्मे मणपज्जविहंगचक्खुहीण ते।27। तम्मिस्से केवलदुग मणपज्जविहंगचक्खूणा।28। केवलदुयमणपज्जव-अण्णाणेतिएहिं होंति ते ऊणा। आहारजुयलजोए...।29।</span> =<span class="HindiText">योगमार्गणा की अपेक्षा औदारिक मिश्र व कार्माण काय योग में मन:पर्ययज्ञान विभंगावधि और चक्षुदर्शन इन तीन रहित 9 उपयोग होते हैं।26। वैक्रियक मिश्र काययोग केवलद्विक, मन:पर्यय, विभंगावधि और चक्षुदर्शन इन पाँच को छोड़कर शेष 7 उपयोग होते हैं।28। आहारक मिश्रकाय योग में केवलद्विक, मन:पर्ययज्ञान और अज्ञानत्रिक, इन छह को छोड़कर शेष छ: उपयोग होते हैं (अर्थात् आहारमिश्र में चक्षुदर्शनोपयोग होता है)। </span></li> | |||
<li | <li class="HindiText"><strong name="7.4" id="7.4"> दर्शनमार्गणा में गुणस्थानों का स्वामित्व</strong> </span><br> | ||
<span class="GRef"> षट्खंडागम 1/1,1/ </span>सू.132-135/383-385 <span class="PrakritText">चक्खुदंसणी चउरिंदियप्पहुडि जाव खीणकसायवीयरायछदुमत्थात्ति।132। अचक्खुदंसणी एइंदियप्पहुडि जाव खीणकसायवीयराय छदुमत्था त्ति।133। ओधिदंसणी असंजदसम्माइट्ठिप्पहुडि जाव खीणकसायवीयरायछदुमत्थात्ति।134। केवलदंसणी तिसुट्ठाणेसु सजोगिकेवली अजोगिकेवली सिद्धा चेदि।135। </span>=<span class="HindiText">चक्षुदर्शन उपयोग वाले जीव चतुरिंद्रिय (मिथ्यादृष्टि) से लेकर (संज्ञी पंचेंद्रिय) क्षीण कषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं।132। अचक्षुदर्शन उपयोग वाले जीव एकेंद्रिय (मिथ्यादृष्टि) से लेकर (संज्ञी पंचेंद्रिय) क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं।133। अवधिदर्शन वाले जीव (संज्ञी पंचेंद्रिय ही) असंयत सम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं।134। केवल दर्शन के धारक जीव (संज्ञी पंचेंद्रिय व अनिंद्रिय सयोगिकेवली, अयोगिकेवली और सिद्ध इन तीन स्थानों में होते हैं।135।</span></li></ol></li> | |||
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Latest revision as of 15:10, 27 November 2023
- दर्शनोपयोग संबंधी कुछ प्ररूपणाएँ
- दर्शनोपयोग अंतर्मुहूर्त अवस्थायी है
धवला 13/5,5,23/216/13 ज्ञानोत्पत्ते: पूर्वावस्था विषयविषयिसंपात: ज्ञानोत्पादनकारणपरिणामविशेषसंतत्युत्पत्त्युपलक्षित: अंतर्मुहूर्तकाल: दर्शनव्यपदेशभाक् । =ज्ञानोत्पत्ति की पूर्वावस्था विषय व विषयी का संपात (संबंध) है, जो दर्शन नाम से कहा जाता है। यह दर्शन ज्ञानोत्पत्ति के कारणभूत परिणाम विशेष की संतति की उत्पत्ति से उपलक्षित होकर अंतर्मुहूर्त कालस्थायी है।)
देखें दर्शन - 3.2 (केवलदर्शनोपयोग भी तद्भवस्थ उपसर्ग केवलियों की अंतर्मुहूर्त कालस्थायी है) नोट–(उपरोक्त अंतर्मुहूर्तकाल दर्शनोपयोग की अपेक्षा है और काल प्ररूपणा में दिये गये काल क्षयोपशम सामान्य की अपेक्षा है, अत: दोनों में विरोध नहीं है।) - लब्ध्यपर्याप्त दशा में चक्षुदर्शनोपयोग संभव नहीं पर निवृत्त्यपर्याप्त दशा में संभव है
धवला 4/1,3,67/126/8 यदि एवं, तो लद्धिअपज्जत्ताणं पि चक्खुदंसणित्तं पसज्जदे। तं च णत्थि, चक्खुदंसणिअवहारकालस्स पदरंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तपमाणप्पसंगादो। ण एस दोसो, णिव्वत्तिअपज्जत्ताणं चक्खुदंसणमत्थि; उत्तरकाले णिच्छएण चक्खुदंसणोवजोगसमुप्पत्तीए अविणाभाविचक्खुदंसणखओवसमदंसणादो। चउरिंदियपंचिंदियलद्धिअपज्जत्ताणं चक्खुदंसणं णत्थि, तत्थ चक्खुदंसणोवओगसमुप्पत्तीए अविणाभाविचक्खुदंसणक्खओवसमाभावादो। =प्रश्न–यदि ऐसा है (अर्थात् अपर्याप्तकाल में भी क्षयोपशम की अपेक्षा चक्षुदर्शन पाया जाता है) तो लब्ध्यपर्याप्तक जीवों में भी चक्षुदर्शनीपने का प्रसंग प्राप्त होता है। किंतु लब्ध्यपर्याप्तक जीवों के चक्षुदर्शन होता नहीं है। यदि लब्ध्यपर्याप्त जीवों के भी चक्षुदर्शनोपयोग का सद्भाव माना जायेगा, तो चक्षुदर्शनी जीवों के अवहारकाल को प्रतरांगुल के असंख्यातवें भागमात्र प्रमाणपने का प्रसंग प्राप्त होता है। उत्तर–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, निवृत्त्यपर्याप्त जीवों के चक्षुदर्शन होता है। इसका कारण यह है, कि उत्तरकाल में अर्थात् अपर्याप्त काल समाप्त होने के पश्चात् निश्चय से चक्षुदर्शनोपयोग की समुत्पत्ति का अविनाभावी चक्षुदर्शन का क्षयोपशम देखा जाता है। हाँ चतुरिंद्रिय और पंचेंद्रिय लब्ध्यपर्याप्त जीवों चक्षुदर्शन नहीं होता, क्योंकि, उनमें चक्षुदर्शनोपयोग की समुत्पत्ति का अविनाभावी चक्षुदर्शनावरण कर्म के क्षयोपशम का अभाव है। ( धवला 4/1,5,278/454/6 )। - मिश्र व कार्माणकाय योगियों में चक्षुदर्शनोपयोग का अभाव
पंचसंग्रह / प्राकृत/4/27-29 ओरालमिस्स–कम्मे मणपज्जविहंगचक्खुहीण ते।27। तम्मिस्से केवलदुग मणपज्जविहंगचक्खूणा।28। केवलदुयमणपज्जव-अण्णाणेतिएहिं होंति ते ऊणा। आहारजुयलजोए...।29। =योगमार्गणा की अपेक्षा औदारिक मिश्र व कार्माण काय योग में मन:पर्ययज्ञान विभंगावधि और चक्षुदर्शन इन तीन रहित 9 उपयोग होते हैं।26। वैक्रियक मिश्र काययोग केवलद्विक, मन:पर्यय, विभंगावधि और चक्षुदर्शन इन पाँच को छोड़कर शेष 7 उपयोग होते हैं।28। आहारक मिश्रकाय योग में केवलद्विक, मन:पर्ययज्ञान और अज्ञानत्रिक, इन छह को छोड़कर शेष छ: उपयोग होते हैं (अर्थात् आहारमिश्र में चक्षुदर्शनोपयोग होता है)। - दर्शनमार्गणा में गुणस्थानों का स्वामित्व
षट्खंडागम 1/1,1/ सू.132-135/383-385 चक्खुदंसणी चउरिंदियप्पहुडि जाव खीणकसायवीयरायछदुमत्थात्ति।132। अचक्खुदंसणी एइंदियप्पहुडि जाव खीणकसायवीयराय छदुमत्था त्ति।133। ओधिदंसणी असंजदसम्माइट्ठिप्पहुडि जाव खीणकसायवीयरायछदुमत्थात्ति।134। केवलदंसणी तिसुट्ठाणेसु सजोगिकेवली अजोगिकेवली सिद्धा चेदि।135। =चक्षुदर्शन उपयोग वाले जीव चतुरिंद्रिय (मिथ्यादृष्टि) से लेकर (संज्ञी पंचेंद्रिय) क्षीण कषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं।132। अचक्षुदर्शन उपयोग वाले जीव एकेंद्रिय (मिथ्यादृष्टि) से लेकर (संज्ञी पंचेंद्रिय) क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं।133। अवधिदर्शन वाले जीव (संज्ञी पंचेंद्रिय ही) असंयत सम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं।134। केवल दर्शन के धारक जीव (संज्ञी पंचेंद्रिय व अनिंद्रिय सयोगिकेवली, अयोगिकेवली और सिद्ध इन तीन स्थानों में होते हैं।135।
- दर्शनोपयोग अंतर्मुहूर्त अवस्थायी है