निक्षेप 5: Difference between revisions
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<li class="HindiText"><strong>द्रव्य निक्षेप के भेद व लक्षण</strong></li> | |||
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<li class="HindiText">[[ #5.1 | द्रव्य निक्षेप सामान्य का लक्षण]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #5.2 | द्रव्य निक्षेप के भेद-प्रभेद]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #5.3 | आगम द्रव्य निक्षेप का लक्षण]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #5.4 | नोआगम द्रव्यनिक्षेप का लक्षण]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #5.5 | ज्ञायक शरीर सामान्य व विशेष के लक्षण]]</li> | |||
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<li class="HindiText">[[ #5.5.1 | ज्ञायक शरीर सामान्य]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #5.5.2 | च्युत च्यावित व त्यक्त अतीत ज्ञायक शरीर]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #5.5.3 | भूत वर्तमान व भावी ज्ञायक शरीर]]</li> | |||
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<li class="HindiText">[[ #5.6 | भावी नोआगम का लक्षण]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #5.7 | तद्वयतिरिक्त सामान्य व विशेष के लक्षण]]</li> | |||
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<li class="HindiText">[[ #5.7.1 | तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्य सामान्य]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #5.7.2 | कर्म तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्य]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #5.7.3 | नोकर्म तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्य सामान्य]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #5.7.4 | लौकिक व लोकोत्तर सामान्य नोकर्म तद्वयतिरिक्त]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #5.7.5 | सचित्त अचित्त मिश्र सामान्य नोकर्म तद्व्यतिरिक्त]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #5.7.6 | लौकिक व लोकोत्तर सचित्तादि नोकर्म तद्यतिरिक्त]]</li> | |||
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<li class="HindiText">[[ #5.8 | स्थित जित आदि भेदों के लक्षण]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #5.9 | ग्रंथिम आदि भेदों के लक्षण]]</li> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="5" id="5"> द्रव्य निक्षेप के भेद व लक्षण</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="5.1" id="5.1">द्रव्य निक्षेप सामान्य का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक 1/5/3-4/28/21 </span><span class="SanskritText">यद् भाविपरिणामप्राप्ति प्रति योग्यतामादधानं तद् द्रव्यमित्युच्यते। ...अथवा अतद्भाव वा द्रव्यमित्युच्यते। यथेंद्रमानीतं काष्ठमिंद्रप्रतिमापर्यायप्राप्ति प्रत्यभिमुखम् इंद्र: इत्युच्यते।</span> =<span class="HindiText">आगामी पर्याय की योग्यता वाले उस पदार्थ को द्रव्य कहते हैं, जो उस समय उस पर्याय के अभिमुख हो, अथवा अतद्भाव को द्रव्य कहते हैं। जैसे–इंद्रप्रतिमा के लिए लाये गये काष्ठ को भी इंद्र कहना। (क्योंकि, जो अपने गुणों व पर्यायों को प्राप्त होता है, हुआ था और होगा उसको ही द्रव्य कहते हैं देखें [[ द्रव्य#1.1 | द्रव्य - 1.1]]) <span class="GRef">( श्लोकवार्तिक 2/1/5/ श्लोक 60/266)</span>; <span class="GRef">( धवला 1/1,11,1/20/6 )</span>; <span class="GRef">( तत्त्वसार/1/12 )</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/743 </span><span class="SanskritText">ऋजुसूत्रनिरपेक्षतया, सापेक्ष भाविनैगमादिनयै:। छद्मस्थो जिनजीवो जिन इव मान्यो यथात्र तद्द्रव्यम् । </span>=<span class="HindiText">ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा न करके और भाविनैगमादिक नयों की अपेक्षा से जो कहा जाता है, वह द्रव्य निक्षेप है। जैसे कि छद्मस्थ अवस्था में वर्तमान जिन भगवान् के जीव को जिन कहना।<br /> | |||
नय | [[नय#III.2.5 | नय-III.2.5 ]] जैसे–आगे सेठ बनने वाले बालक को अभी से सेठ कहना, अथवा जो राजा दीक्षित होकर श्रमण अवस्था में विद्यमान है उसे भी राजा कहना)।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="5.2" id="5.2"> द्रव्य निक्षेप के भेद-प्रभेद</strong> <br /> | ||
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<li class="HindiText"> द्रव्य निक्षेप के दो भेद हैं—आगम व नोआगम ( षट्खंडागम/9/4,1/ | <li class="HindiText"> द्रव्य निक्षेप के दो भेद हैं—आगम व नोआगम <span class="GRef">( षट्खंडागम/9/4,1/ सूत्र 53/250)</span>; <span class="GRef">( षट्खंडागम ,14/5,6/ सूत्र 11/7)</span>; <span class="GRef">( सर्वार्थसिद्धि/1/5/18/1 )</span>; <span class="GRef">( राजवार्तिक/1/5/5/29/3 )</span>; <span class="GRef">( श्लोकवार्तिक 2/1/5/ श्लोक 60/266)</span>; <span class="GRef">( धवला 1/1,1,1/20/7 )</span>; <span class="GRef">( धवला 3/1,2,2/12/3 )</span>; <span class="GRef">( धवला 4/1,3,1/5/1 )</span>; <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड/54/53 )</span>; <span class="GRef">( नयचक्र बृहद्/274 )</span>।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> नो आगम द्रव्यनिक्षेप तीन प्रकार का है—ज्ञायक शरीर, भावी व तद्वयतिरिक्त। ( षट्खंडागम/9/4,1/ | <li class="HindiText"> नो आगम द्रव्यनिक्षेप तीन प्रकार का है—ज्ञायक शरीर, भावी व तद्वयतिरिक्त। <span class="GRef">( षट्खंडागम/9/4,1/ सूत्र 61/267)</span>; <span class="GRef">( सर्वार्थसिद्धि/1/5/18/3 )</span>; <span class="GRef">( राजवार्तिक/1/5/7/29/8 )</span>; <span class="GRef">( श्लोकवार्तिक 2/1/5/ श्लोक 62/267)</span>; <span class="GRef">( धवला 1/1,1,1/21/2 )</span>; <span class="GRef">( धवला 3/1,2,2/13/2 )</span>; <span class="GRef">( धवला 4/1,3,1/6/1 )</span>; <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड/55/54 )</span>; <span class="GRef">( नयचक्र बृहद्/275 )</span>।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> ज्ञायक शरीर तीन प्रकार का है—भूत, वर्तमान, व भावी।–( श्लोकवार्तिक 2/1/5/ | <li class="HindiText"> ज्ञायक शरीर तीन प्रकार का है—भूत, वर्तमान, व भावी।–<span class="GRef">( श्लोकवार्तिक 2/1/5/ श्लोक 62/267)</span>; <span class="GRef">( धवला 1/1,1,1/21/3 </span><span class="GRef">( धवला 4/1,3,1/6/2 )</span>; <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड/55/54 )</span>।<br /> | ||
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<li class="HindiText">भूत ज्ञायक शरीर तीन प्रकार का है—च्युत, च्यावित व त्यक्त।–( षट्खंडागम/9/4,1/ | <li class="HindiText">भूत ज्ञायक शरीर तीन प्रकार का है—च्युत, च्यावित व त्यक्त।–<span class="GRef">( षट्खंडागम/9/4,1/ सूत्र 63/269)</span>; <span class="GRef">( श्लोकवार्तिक 2/1/5/ श्लोक 62/267)</span>; <span class="GRef">( धवला 1/1,1,1/22/3 )</span>; <span class="GRef">( धवला 4/1,3,1/6/3 )</span>; <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड/56/54 )</span>;।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> त्यक्त ज्ञायक शरीर तीन प्रकार का है—भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनी व प्रायोपगमन।–( धवला 1/1,1,1/23/3 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड/59/56 )।<br /> | <li class="HindiText"> त्यक्त ज्ञायक शरीर तीन प्रकार का है—भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनी व प्रायोपगमन।–<span class="GRef">( धवला 1/1,1,1/23/3 )</span>; <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड/59/56 )</span>।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> तद्वयतिरिक्त नो आगम द्रव्यनिक्षेप दो प्रकार है—कर्म व नोकर्म।–( सर्वार्थसिद्धि/1/5/18/7 ); ( राजवार्तिक/1/5/7/29/11 ); ( श्लोकवार्तिक 2/1/5/ | <li class="HindiText"> तद्वयतिरिक्त नो आगम द्रव्यनिक्षेप दो प्रकार है—कर्म व नोकर्म।–<span class="GRef">( सर्वार्थसिद्धि/1/5/18/7 )</span>; <span class="GRef">( राजवार्तिक/1/5/7/29/11 )</span>; <span class="GRef">( श्लोकवार्तिक 2/1/5/ श्लोक 63/268)</span>; <span class="GRef">( धवला 1/1,1,1/26/4 )</span>; <span class="GRef">( धवला 3/1,2,2/15/1 )</span>; <span class="GRef">( धवला 4/1,3,1/6/9 )</span>; <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड/63/54 )</span>।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> नोकर्म तद्वयतिरिक्त दो प्रकार का है—लौकिक व लोकोत्तर।–( धवला 1/1,1,1/26/6 ); ( धवला 4/1,3,1/7/1 )।<br /> | <li class="HindiText"> नोकर्म तद्वयतिरिक्त दो प्रकार का है—लौकिक व लोकोत्तर।–<span class="GRef">( धवला 1/1,1,1/26/6 )</span>; <span class="GRef">( धवला 4/1,3,1/7/1 )</span>।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> लौकिक व लोकोत्तर दोनों ही तद्वयतिरिक्त तीन तीन प्रकार के हैं—सचित्त, अचित्त व मिश्र।–( धवला 1/1,1,1/27/1 व 28/1), ( धवला 5/1,7,1/184/7 )।<br /> | <li class="HindiText"> लौकिक व लोकोत्तर दोनों ही तद्वयतिरिक्त तीन तीन प्रकार के हैं—सचित्त, अचित्त व मिश्र।–<span class="GRef">( धवला 1/1,1,1/27/1 व 28/1)</span>, <span class="GRef">( धवला 5/1,7,1/184/7 )</span>।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> आगम द्रव्य निक्षेप के 9 भेद हैं—स्थित, जित, परिचित, वाचनोपगत, सूत्रसम, अर्थसम, ग्रंथसम, नामसम और घोषसम।–( षट्खंडागम/9/4,1/ | <li class="HindiText"> आगम द्रव्य निक्षेप के 9 भेद हैं—स्थित, जित, परिचित, वाचनोपगत, सूत्रसम, अर्थसम, ग्रंथसम, नामसम और घोषसम।–<span class="GRef">( षट्खंडागम/9/4,1/ सूत्र 54/251)</span>; <span class="GRef">( षट्खंडागम ,14/5,6/ सूत्र 25/27)</span>।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> ज्ञायक शरीर के भी उपरोक्त प्रकार स्थित जित आदि 9 भेद हैं–( षट्खंडागम/9/4,1/ | <li class="HindiText"> ज्ञायक शरीर के भी उपरोक्त प्रकार स्थित जित आदि 9 भेद हैं–<span class="GRef">( षट्खंडागम/9/4,1/ सूत्र 62/268)</span>।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"> तद्वयतिरिक्त नो आगम के अनेक भेद हैं— | ||
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<li class="HindiText"> चूर्ण, </li> | <li class="HindiText"> चूर्ण, </li> | ||
<li class="HindiText"> गंध, </li> | <li class="HindiText"> गंध, </li> | ||
<li class="HindiText"> विलेपन, इत्यादि। ( षट्खंडागम/9/4,1/ सू.65/272)।<br /> | <li class="HindiText"> विलेपन, इत्यादि। <span class="GRef">( षट्खंडागम/9/4,1/ </span>सू.65/272)।<br /> | ||
<strong>नोट—</strong>इन सब भेद प्रभेदों की तालिका देखें [[ निक्षेप#1.2 | निक्षेप - 1.2]])।<br /> | <strong>नोट—</strong>इन सब भेद प्रभेदों की तालिका देखें [[ निक्षेप#1.2 | निक्षेप - 1.2]])।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="5.3" id="5.3"> आगम द्रव्य निक्षेप का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/1/5/18/2 </span><span class="SanskritText">जीवप्राभृतज्ञायी मनुष्यजीवप्राभृतज्ञायी वा अनुपयुक्त आत्मा आगमद्रव्यजीव:।</span> =<span class="HindiText">जो जीवविषयक या मनुष्य जीव विषयक शास्त्र को जानता है, किंतु वर्तमान में उसके उपयोग से रहित है वह आगम द्रव्यजीव है। (इसी प्रकार अन्य भी जिस जिस विषय संबंधी शास्त्र को जानता हुआ उसके उपयोग से रहित रहने वाला आत्मा उस उस नामवाला ही आगम द्रव्य है। जैसे मंगल विषयक शास्त्र को जानने वाला आत्मा आगम द्रव्य मंगल है।) <span class="GRef">( राजवार्तिक/1/5/5/29/3 )</span>; <span class="GRef">( श्लोकवार्तिक 2/1/5/ श्लोक 61/267)</span>; <span class="GRef">( धवला 3/1,2,2/12/11 )</span>; <span class="GRef">( धवला 4/1,3,1/5/2 )</span>; <span class="GRef">( धवला 1/1,1,1/83/3 )</span>; <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड/54/53 )</span>; <span class="GRef">( नयचक्र बृहद्/274 )</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,1/21/1 </span><span class="PrakritText">तत्थ आगमदो दव्वमंगलं णाम मंगलपाहुड़जाणओ अणुवजुत्तो, मंगल-पाहुड़-सद्द-रयणा वा, तस्सत्थ-ट्ठवणक्खर-रयणा वा। </span>=<span class="HindiText">मंगल प्राभृत अर्थात् मंगल विषय का प्रतिपादन करने वाले शास्त्र को जानने वाला, किंतु वर्तमान में उसके उपयोग से रहित जीव को आगम द्रव्यमंगल कहते हैं। अथवा मंगलविषय के प्रतिपादक शास्त्र की शब्द रचना को आगम द्रव्यमंगल कहते हैं। अथवा मंगलविषय के प्रतिपादक शास्त्र की स्थापनारूप अक्षरों की रचना को भी आगम द्रव्य मंगल कहते हैं।<span class="GRef">( धवला 5/1,6,1/2/3 )</span>।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="5.4" id="5.4"> नोआगम द्रव्यनिक्षेप का लक्षण</strong><br /> | <li class="HindiText"><strong name="5.4" id="5.4"> नोआगम द्रव्यनिक्षेप का लक्षण</strong><br /> | ||
(पूर्वोक्त आगमद्रव्य की आत्मा का आरोप उसके शरीर में करके उस जीव के शरीर को ही नोआगम द्रव्य जीव या नोआगम द्रव्य मंगल आदि कह दिया जाता है। और वह शरीर ही तीन प्रकार का है भूत, भावि व वर्तमान। अथवा उसके शरीर के संबंध रखने वाले अन्य जो कर्म या नोकर्म रूप पदार्थ हैं उनको भी नोआगम द्रव्य कह दिया जाता है। इसी का नाम तद्वयतिरिक्त है। इनके पृथक्-पृथक् लक्षण आगे दिये जाते हैं।)<br /> | (पूर्वोक्त आगमद्रव्य की आत्मा का आरोप उसके शरीर में करके उस जीव के शरीर को ही नोआगम द्रव्य जीव या नोआगम द्रव्य मंगल आदि कह दिया जाता है। और वह शरीर ही तीन प्रकार का है भूत, भावि व वर्तमान। अथवा उसके शरीर के संबंध रखने वाले अन्य जो कर्म या नोकर्म रूप पदार्थ हैं उनको भी नोआगम द्रव्य कह दिया जाता है। इसी का नाम तद्वयतिरिक्त है। इनके पृथक्-पृथक् लक्षण आगे दिये जाते हैं।)<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="5.5" id="5.5">ज्ञायक शरीर सामान्य व विशेष के लक्षण</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="5.5.1" id="5.5.1"> ज्ञायक शरीर सामान्य</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/1/5/18/4 </span><span class="SanskritText">तत्र ज्ञातुर्यच्छशरीरं त्रिकालगोचरं तज्ज्ञायकशरीरम् ।</span> =<span class="HindiText">ज्ञाता का जो त्रिकाल गोचर शरीर है वह ज्ञायकशरीर नोआगम द्रव्य जीव है।<span class="GRef">( राजवार्तिक/1/5/7/29/9 )</span>, <span class="GRef">( श्लोकवार्तिक 2/1/5/ श्लोक 62/267)</span>, <span class="GRef">( धवला 1/1,1,1/21/3 )</span>, <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड/55/54 )</span>।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="5.5.2" id="5.5.2"><strong> च्युत च्यावित व त्यक्त अतीत ज्ञायक शरीर</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="5.5.2" id="5.5.2"><strong> च्युत च्यावित व त्यक्त अतीत ज्ञायक शरीर</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,1/22/3 </span><span class="PrakritText">तत्थ चुदं णाम कयलीघादेण विणा पक्कं पि फलं व कम्मोदएण ज्झीयमाणायुक्खयपदिदं। चइदं णाम कयलीघादेण छिण्णायुक्खयपदिसरीरं। चत्तसरीरं तिविहं, पावोगमण-विहाणेण, इंगिणीविहाणेण, भत्तपच्चक्खाणविहाणेण चत्तमिदि।</span> =<span class="HindiText">कदलीघात मरण के बिना कर्म के उदय से झड़ने वाले आयुकर्म के क्षय से, पके हुए फल के समान, अपने आप पतित शरीर को च्युतशरीर कहते हैं। कदलीघात के द्वारा आयु के छिन्न हो जाने से छूटे हुए शरीर को च्यावित शरीर कहते हैं। (कदलीघात का लक्षण देखें [[ मरण#4 | मरण - 4]])। त्यक्त शरीर तीन प्रकार का है–प्रायोपगमन विधान से छोड़ा गया, इंगिनी विधान से छोड़ा गया और भक्त प्रत्याख्यान विधान से छोड़ा गया। (इन तीनों का स्वरूप देखें [[ सल्लेखना#3 | सल्लेखना - 3]]), <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड/56,58/54 )</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,1/25/6 </span><span class="PrakritText">कयलीघादेण मरणकंखाए जीवियासाए जीवियमरणासाहि विणा पदिदं सरीरं चइदं। जीवियासाए मरणासाए जीवियमरणासाहि विणा वा कयलीघादेण अचत्तभावेण पदिदं सरीरं चुदं णाम। जीविदमरणासाहि विणा सरूवोवलद्धि णिमित्तं व चत्त बज्झंतरंगपरिग्गहस्स कयलीघादेणियरेण वा पदिदसरीरं चत्तदेहमिदि। </span>=<span class="HindiText">मरण की आशा से या जीवन की आशा से अथवा जीवन और मरण इन दोनों की आशा के बिना ही कदलीघात से छूटे हुए शरीर को च्यावित कहते हैं। जीवन की आशा से, मरण की आशा से अथवा जीवन और मरण इन दोनों की आशा के बिना ही कदलीघात व समाधिमरण से रहित होकर छूटे हुए शरीर को च्युत कहते हैं। आत्मस्वरूप की प्राप्ति के निमित्त, जिसने बहिरंग और अंतरंग परिग्रह का त्याग कर दिया है, ऐसे साधु के जीवन और मरण की आशा के बिना ही, कदलीघात से अथवा इतर कारणों से छूटे हुए शरीर को त्यक्त शरीर कहते हैं।<br /> | |||
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<li class="HindiText" name="5.5.3" id="5.5.3"><strong> भूत वर्तमान व भावी ज्ञायक शरीर</strong> <br /> | <li class="HindiText" name="5.5.3" id="5.5.3"><strong> भूत वर्तमान व भावी ज्ञायक शरीर</strong> <br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="5.6" id="5.6"><strong> भावी नोआगम का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="5.6" id="5.6"><strong> भावी नोआगम का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/1/5/18/5 </span><span class="SanskritText">सामान्यापेक्षया नोआगम-भाविजीवो नास्ति, जीवनसामान्यसदापि विद्यमानत्वात् । विशेषापेक्षया त्वस्ति। गत्यंतरे जीवो व्यवस्थितो मनुष्यभवप्राप्तिं प्रत्यभिमुखो मनुष्यभाविजीव:। </span>=<span class="HindiText">जीव सामान्य की अपेक्षा ‘नोआगम भावी जीव’ यह भेद नहीं बनता है; क्योंकि जीव में जीवत्व सदा पाया जाता है। हाँ, पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा ‘नोआगम भावी जीव’ यह भेद बन जाता है; क्योंकि जो जीव अभी दूसरी गति में विद्यमान है, वह (अज्ञायक जीव) जब मनुष्य भव को प्राप्त करने के प्रति अभिमुख होता है, तब वह मनुष्य भावी जीव कहलाता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/1/5/7/29/9 </span><span class="SanskritText">जीवन-सम्यग्दर्शनपरिणामप्राप्तिं प्रत्यभिमुखं द्रव्यं भावीत्युच्यते।</span> =<span class="HindiText">जीवन या सम्यग्दर्शन आदि पर्यायों की प्राप्ति के अभिमुख अज्ञायक जीव को जीवन या सम्यग्दर्शन आदि कहना भावी नोआगम द्रव्य जीव या भावी नोआगम सम्यग्दर्शन है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> श्लोकवार्तिक/2/1/5/ श्लोक 63/268</span> <span class="SanskritText">भाविनोआगमद्रव्यमेष्यत् पर्यायमेव तत् । </span>=<span class="HindiText">जो आत्मा भविष्यत् में आने वाली पर्यायों के अभिमुख है, उन पर्यायों से आक्रांत हो रहा वह आत्मा भावीनोआगम द्रव्य है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,1/26/3 </span><span class="SanskritText">भव्यनोआगमद्रव्यं भविष्यत्काले मंगलप्राभृतज्ञायको जीव: मंगलपर्यायं परिणंस्यतीति वा। </span>=<span class="HindiText">जो जीव भविष्यकाल में मंगल शास्त्र का जानने वाला होगा, अथवा मंगल पर्याय से परिणत होगा उसे भव्य नोआगम द्रव्यमंगल कहते हैं। <span class="GRef">( धवला 4/1,3,1/6/6 )</span>, <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड/62/58 )</span>।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="5.7" id="5.7"><strong> तद्वयतिरिक्त सामान्य व विशेष के लक्षण</strong><br /> | <li><span class="HindiText" name="5.7" id="5.7"><strong> तद्वयतिरिक्त सामान्य व विशेष के लक्षण</strong><br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="5.7.1" id="5.7.1"><strong> तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्य सामान्य</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="5.7.1" id="5.7.1"><strong> तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्य सामान्य</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/1/18/7 </span><span class="SanskritText">तद्वयतिरिक्त: कर्मनोकर्मविकल्प:। </span>=<span class="HindiText">तद्वयतिरिक्त के दो भेद हैं–कर्म व नोकर्म। <span class="GRef">( राजवार्तिक/1/5/7/29/11 )</span>, <span class="GRef">( श्लोकवार्तिक/2/1/5/ श्लोक 63/268)</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,1/83/5 </span><span class="PrakritText">तव्वदिरित्तं जीवट्ठाणाहार-भूदागास-दव्वं।</span> =<span class="HindiText">जीवस्थानों के अथवा जीवस्थान विषयक शास्त्र के आधारभूत आकाशद्रव्य को तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्य जीवस्थान कहते हैं। (अथवा उस-उस पर्याय के या शास्त्रज्ञान से परिणत जीव के निमित्तभूत कर्म वर्गणाओं या अन्य बाह्य द्रव्यों को उस-उस नाम से कहना तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्यनिक्षेप है)।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="5.7.2" id="5.7.2"><strong> कर्म तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्य</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="5.7.2" id="5.7.2"><strong> कर्म तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्य</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> श्लोकवार्तिक/2/1/5/श्लोक 64/268 </span> <span class="SanskritText">ज्ञानावृत्त्यादिभेदेन कर्मानेकविधंमतम् ।</span> =<span class="HindiText">ज्ञानावरण आदि भेद से कर्म अनेक प्रकार माने गये हैं। <span class="GRef">( धवला 4/1,3,1/6/10 )</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,1/26/4 </span><span class="SanskritText">तत्र कर्ममंगलं दर्शनविशुद्धयादिषोडशधाप्रविभक्ततीर्थंकर-नामकर्म-कारणैर्जीव-प्रदेश-निबद्ध-तीर्थंकरनामकर्म-मांगल्य-निबंधनत्वांमंगलम् । </span>=<span class="HindiText">दर्शन विशुद्धि आदि सोलह प्रकार के तीर्थंकर-नामकर्म के कारणों से जीवप्रदेशों के साथ बँधे हुए तीर्थंकर नामकर्म को, कर्म तद्वयतिरिक्त नोआगमद्रव्य मंगल कहते हैं; क्योंकि वह भी मंगलपने का सहकारी कारण है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड/63/58 </span><span class="PrakritText"> कम्मसरूवेणागयकम्मं दव्वं हवे णियमा।</span> =<span class="HindiText">ज्ञानावरणादि प्रकृतिरूप से परिणमे पुद्गलद्रव्य कर्म तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्य कर्म जानना। (यहाँ कर्म का प्रकरण होने से कर्म पर लागू करके दिखाया है)।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="5.7.3" id="5.7.3"><strong> नोकर्म तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्य सामान्य</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="5.7.3" id="5.7.3"><strong> नोकर्म तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्य सामान्य</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> श्लोकवार्तिक/2/1/5/ श्लोक 64-65 </span><span class="SanskritText">नोकर्म च शरीरत्वपरिणामनिरुत्सुकम् ।64। पुद्गलद्रव्यमाहारप्रभृत्युपचयात्मकम् ।65। </span>=<span class="HindiText">वर्तमान में शरीरपनारूप परिणति के लिए उत्साहरहित जो आहारवर्गणा, भाषावर्गणा आदि रूप एकत्रित हुआ पुद्गलद्रव्य है वह नोकर्म समझ लेना चाहिए।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 3/1,2,2/15/3 </span><span class="SanskritText">आगममधिगम्य विस्मृत: क्वांतर्भवतीति चेत्तद्व्यतिरिक्तद्रव्यानंते। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–जो आगम का अध्ययन करके भूल गया है उसका द्रव्यनिक्षेप के किस भेद में अंतर्भाव होता है? <strong>उत्तर</strong>–ऐसे जीव का नोकर्म तद्वयतिरिक्त द्रव्यानंत में अंतर्भाव होता है (यहाँ ‘अनंत’ का प्रकरण है)।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड/64,67/59,61 </span><span class="SanskritText">कम्मद्दव्वादण्णं णोकम्मदव्वमिदि होदि।65। पडपडिहारसिमज्जा आहारं देह उच्चणीचंगम् । भंडारी मूलाणं णोकम्मं दवियकम्मं तु।69। </span>=<span class="HindiText">कर्मस्वरूप से अन्य जो कार्य होते हैं उनके बाह्यकारणभूत वस्तु को नोकर्म तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यकर्म जानना (यहाँ ‘कर्म का प्रकरण है)।64। जैसे–ज्ञानावरण का नोकर्म सपीठ वस्त्र है, दर्शनावरण का नोकर्म द्वारविषै तिष्ठता द्वारपाल है। वेदनीय नोकर्म मधुलिप्त मधुलिप्त खड्ग है। मोहनीय का नोकर्म, मदिरा, आयु का नोकर्म चार प्रकार आहार, नामकर्म का नोकर्म औदारिकादि शरीर और गोत्रकर्म का नोकर्म ऊँचा-नीचा शरीर है। </span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="5.7.4" id="5.7.4"><strong> लौकिक व लोकोत्तर सामान्य नोकर्म तद्वयतिरिक्त</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="5.7.4" id="5.7.4"><strong> लौकिक व लोकोत्तर सामान्य नोकर्म तद्वयतिरिक्त</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 4/1,3,1/7/1 </span><span class="PrakritText">णोकम्मदव्वखेत्तं तं दुविहं ओवयारियं परमत्थियं चेदि। तत्थ ओवयारियं णोकम्मदव्वखेत्तं लोगपसिद्धं सालिखेत्तं वीहिखेत्तमेवमादि। पारमत्थियं णोकम्मदव्वखेत्तं आगासदव्वं। </span>=<span class="HindiText">नोकर्म द्रव्यक्षेत्र (यहाँ क्षेत्र का प्रकरण है) औपचारिक और पारमार्थिक के भेद से दो प्रकार का है। उनमें से लोक में प्रसिद्ध शालिक्षेत्र, व्रीहिक्षेत्र, इत्यादि औपचारिक नोकर्मतद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यक्षेत्र कहलाता है। आकाश द्रव्य पारमार्थिक नोकर्म तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यक्षेत्र है।<br /> | |||
<strong>नोट</strong>–(अन्य भी देखो वह-वह विषय)।<br /> | <strong>नोट</strong>–(अन्य भी देखो वह-वह विषय)।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="5.7.5" id="5.7.5"><strong> सचित्त अचित्त मिश्र सामान्य नोकर्म तद्व्यतिरिक्त</strong></span><strong> </strong><br /> | <li><span class="HindiText" name="5.7.5" id="5.7.5"><strong> सचित्त अचित्त मिश्र सामान्य नोकर्म तद्व्यतिरिक्त</strong></span><strong> </strong><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 5/1,7,1/184/7 </span><span class="PrakritText"> तव्वदिरित्तणोआगमदव्वभावो तिविहो सचित्ताचित्तमिस्सभेएण। तत्थ सचित्तो जीवदव्वं। अचित्तो पोग्गल-धम्मा-धम्म-कालागासदव्वाणि। पोग्गलजीवदव्वाणं संजोगोकधंचिज्जच्चंतरत्तमावण्णो णोआगममिस्सदव्वभावो णाम</span>।=<span class="HindiText">तद्वयतिरिक्त नोआगमद्रव्यभावनिक्षेप (यहाँ भाव का प्रकरण है) सचित्त अचित्त और मिश्र के भेद से तीन प्रकार का है। उनमें जीव द्रव्य सचित्त भाव है, पुद्गल धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय काल और आकाशद्रव्य अचित्तभाव हैं। कथंचित् जात्यंतर भाव को प्राप्त पुद्गल और जीव द्रव्यों का संयोग अर्थात् शरीरधारी जीव नोआगम मिश्रद्रव्य भावनिक्षेप है। <span class="GRef">( धवला 5/1,6,1/3/1 </span>–यहाँ ‘अंतर’ के प्रकरण में तीनों भेद दर्शाये हैं। नोट–(अन्य भी देखो वह वह विषय)।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="5.7.6" id="5.7.6"><strong> लौकिक व लोकोत्तर सचित्तादि नोकर्म तद्यतिरिक्त</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="5.7.6" id="5.7.6"><strong> लौकिक व लोकोत्तर सचित्तादि नोकर्म तद्यतिरिक्त</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,1/27/1 </span><span class="SanskritText">तत्र लौकिकं त्रिविधम्, सचित्तमचित्तं मिश्रमिति। तत्राचित्तमंगलम्-सिद्धत्थ–पुण्ण-कुंभो वंदणमाला य मंगलं छत्तं। सेदो वण्णो आदंसणो य कण्णा य जच्चस्यो।13। सचित्तमंगलम् । मिश्रमंगलं सालंकारकन्यादि:। लोकोत्तरमंगलमपि त्रिविधम्, सचित्तमचित्तं मिश्रमिति। सचित्तमर्हदादीनामनाद्यनिधनजीवद्रव्यम् । न केवलज्ञानादिमंगलपर्यायविशिष्टार्हंदादीनाम् जीवद्रव्यस्यैव ग्रहणं तस्य वर्तमानपर्यायोपलक्षितं द्रव्यं भावइति भाविनिक्षेपांतर्भावात् । न केवलज्ञानादिपर्यायाणां ग्रहणं तेषामपि भावरूपत्वात् । अचित्तमंगलं कृत्रिमाकृत्रिमचैत्यालयादि:, तत्स्थप्रतिमास्तु संस्थापनांतर्भावात् । अकृत्रिमाणां कथं स्थापनाव्यपदेश:। इति चेन्न, तत्रापि बुद्धया प्रतिनिधौ स्थापयितमुख्योपलंभात् । यथा अग्निरिव माणवकोऽग्नि: तथा स्थापनेव स्थापनेति तासां तद्वयपदेशोपपत्तेर्वा। तदुभयमपि मिश्रमंगलम् । </span>=<span class="HindiText">लौकिक मंगल (यहाँ मंगल का प्रकरण है) सचित्त-अचित्त और मिश्र के भेद से तीन प्रकार का है। इनमें सिद्धार्थ अर्थात् श्वेत सरसों, जल से भरा हुआ कलश, वंदनमाला, छत्र, श्वेतवर्ण और दर्पण आदि अचित्त मंगल हैं। और बालकन्या तथा उत्तम जातिका घोड़ा आदि सचित्त मंगल हैं।13। अलंकार सहित कन्या आदि मिश्रमंगल समझना चाहिए। (देखें [[ मंगल#1.4 | मंगल - 1.4]])। लोकोत्तर मंगल भी सचित्त अचित्त और मिश्र के भेद से तीन प्रकार का है। अर्हंतादि का अनादि अनिधन जीवद्रव्य सचित्त लोकोत्तर नोआगम तद्व्यतिरिक्तद्रव्य मंगल है। यहाँ पर केवलज्ञानादि मंगलपर्याययुक्त अर्हंत आदि का ग्रहण नहीं करना चाहिए, किंतु उनके सामान्य जीव द्रव्य का ही ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि वर्तमानपर्याय सहित द्रव्य का भाव निक्षेप में अंतर्भाव होता है। उसी प्रकार केवलज्ञानादि पर्यायों का भी इसमें ग्रहण नहीं होता, क्योंकि वे सब पर्यायें भावस्वरूप होने के कारण उनका भी भाव निक्षेप में ही अंतर्भाव होगा। कृत्रिम और अकृत्रिम चैत्यालयादि अचित्त लोकोत्तर नोआगम तद्व्यतिरिक्त द्रव्यमंगल हैं। उनमें स्थित प्रतिमाओं का इस निक्षेप में ग्रहण नहीं करना चाहिए; क्योंकि उनका स्थापना निक्षेप में अंतर्भाव होता है। <strong>प्रश्न</strong>–अकृत्रिम प्रतिमाओं में स्थापना का व्यवहार कैसे संभव है ? <strong>उत्तर</strong>–इस प्रकार की शंका उचित नहीं हैं; क्योंकि, अकृत्रिम प्रतिमाओं में भी बुद्धि के द्वारा प्रतिनिधित्व मान लेने पर ‘ये जिनेंद्रदेव हैं’ इस प्रकार के मुख्य व्यवहार की उपलब्धि होती है। अथवा अग्नि तुल्य तेजस्वी बालक को भी जिस प्रकार अग्नि कहा जाता है उसी प्रकार अकृत्रिम प्रतिमाओं में की गयी स्थापना के समान यह भी स्थापना है। इसलिए अकृत्रिम जिन प्रतिमाओं में स्थापना का व्यवहार हो सकता है। उन दोनों प्रकार के सचित्त और अचित्त मंगल को मिश्रमंगल कहते हैं (जैसे–साधु संघ सहित चैत्यालय)।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="5.8" id="5.8"><strong> स्थित जित आदि भेदों के लक्षण</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="5.8" id="5.8"><strong> स्थित जित आदि भेदों के लक्षण</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 9/4,1,54/251/10 </span><span class="PrakritText"> अवधृतमात्रं स्थितम्, जो पुरिसो भावागमम्मि वुड्ढओ गिलाणो व्व सणिं सणिं संचरदि सो तारिससंसकारजुत्तो पुरिसो तब्भावागमो च स्थित्वा वृत्ते: ट्ठिदं णाम। नैसंग्यवृत्तिर्जितम्, जेण संस्कारेण पुरिसो भावागमम्मि अक्खलिओ संचरइ तेण संजुत्तो पुरिसो तब्भावागमो च जिदमिदि भण्णदे। यत्र यत्र प्रश्न: क्रियते तत्र तत्र आशुतमवृत्ति: परिचितम्, क्रमेणोत्क्रमेणानुभयेन च भावागमांभोधौ मत्स्यवच्चटुलतमवृत्तिर्जीवो भावागमश्च परिचितम् । शिष्याध्यापनं वाचना। सा चतुर्विधा नंदा भद्रा जया सौम्या चेति। ...एतासां वाचनानामुपगतं वाचनोपगतं परप्रत्यायनसमर्थम् इति यावत् । <br> | |||
</span> धवला 9/4,1,54/259/7 <span class="PrakritText"> तित्थयरवयणविणिग्गयबीजपदं सुत्तं। तेण सुत्तेण समं वट्टदि उप्पज्जदि त्ति गणहरदेवम्मिट्ठिदसुदणाणं सुत्तसमं। अर्यते परिच्छिद्यते गम्यते इत्यर्थो द्वादशांगविषय:, तेण अत्थेण समं सह वट्टदि त्ति अत्थसमं। दव्वसुदाइरिए अणवेक्खिय संजमजणिदसुदणाणावरणक्खओवसमसमुप्पण्णबारहंगसुदं सयंबुद्धाधारमत्थसममिदि वुत्तं होदि। गणहरदेवविरइददव्वसुदं गंथो, तेण सह वट्टदि उप्पज्जदि त्ति बोहियबुद्धाइरिएसु ट्ठिदबारहंगसुदणाणं गंथसमं। नाना मिनोतीति नाम। अणेणेहि, पयारेहि अत्थपरिच्छित्तिं णामभेदेण कुणदि त्ति एगादिअक्खराण बारसंगाणिओगाणं मज्झट्ठिददव्वसुदणाणवियप्पा णाममिदि वुत्तं होदि। तेण नामेण दव्वसुदेणं समं सट्टवट्टदि उप्पज्जदि त्ति सेसाइरिएसु ट्ठिदसुदणाणं णामसमं। ...सुई मुद्दा...पंचैते... अणिओगस्स घोससण्णो णामेगदेसेण अणिओगो वुच्चदे। सच्चभामापदेण अवगम्ममाणत्थस्स तदेगदेसभामासद्दादो वि अवगमादो।...घोसेण दव्वाणिओगद्दारेण समं सह वट्टदि उप्पज्जदि त्ति घोससमं णाम अणियोगसुदणाणं। </span> | </span><span class="GRef"> धवला 9/4,1,54/259/7 </span><span class="PrakritText"> तित्थयरवयणविणिग्गयबीजपदं सुत्तं। तेण सुत्तेण समं वट्टदि उप्पज्जदि त्ति गणहरदेवम्मिट्ठिदसुदणाणं सुत्तसमं। अर्यते परिच्छिद्यते गम्यते इत्यर्थो द्वादशांगविषय:, तेण अत्थेण समं सह वट्टदि त्ति अत्थसमं। दव्वसुदाइरिए अणवेक्खिय संजमजणिदसुदणाणावरणक्खओवसमसमुप्पण्णबारहंगसुदं सयंबुद्धाधारमत्थसममिदि वुत्तं होदि। गणहरदेवविरइददव्वसुदं गंथो, तेण सह वट्टदि उप्पज्जदि त्ति बोहियबुद्धाइरिएसु ट्ठिदबारहंगसुदणाणं गंथसमं। नाना मिनोतीति नाम। अणेणेहि, पयारेहि अत्थपरिच्छित्तिं णामभेदेण कुणदि त्ति एगादिअक्खराण बारसंगाणिओगाणं मज्झट्ठिददव्वसुदणाणवियप्पा णाममिदि वुत्तं होदि। तेण नामेण दव्वसुदेणं समं सट्टवट्टदि उप्पज्जदि त्ति सेसाइरिएसु ट्ठिदसुदणाणं णामसमं। ...सुई मुद्दा...पंचैते... अणिओगस्स घोससण्णो णामेगदेसेण अणिओगो वुच्चदे। सच्चभामापदेण अवगम्ममाणत्थस्स तदेगदेसभामासद्दादो वि अवगमादो।...घोसेण दव्वाणिओगद्दारेण समं सह वट्टदि उप्पज्जदि त्ति घोससमं णाम अणियोगसुदणाणं। </span> | ||
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<li class="HindiText"> अवधारण किये हुए मात्र का नाम स्थितआगम है। अर्थात् जो पुरुष भावआगम में वृद्ध व व्याधिपीड़ित मनुष्य के समान धीरे-धीरे संचार करता है वह उस प्रकार के संस्कार से युक्त पुरुष और वह भावागम भी स्थित होकर प्रवृत्ति करने से अर्थात् रुक-रुककर चलने से स्थित कहलाता है। </li> | <li class="HindiText"> अवधारण किये हुए मात्र का नाम स्थितआगम है। अर्थात् जो पुरुष भावआगम में वृद्ध व व्याधिपीड़ित मनुष्य के समान धीरे-धीरे संचार करता है वह उस प्रकार के संस्कार से युक्त पुरुष और वह भावागम भी स्थित होकर प्रवृत्ति करने से अर्थात् रुक-रुककर चलने से स्थित कहलाता है। </li> | ||
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<li class="HindiText"> जिस जिस विषय में प्रश्न किया जाता है, उस-उसमें शीघ्रतापूर्ण प्रवृत्ति का नाम परिचित है। अर्थात् क्रम से, अक्रम से और अनुभयरूप से भावागमरूपी समुद्र में मछली के समान अत्यंत चंचलतापूर्ण प्रवृत्ति करने वाला जीव और वह भावागम भी परिचित कहा जाता है। </li> | <li class="HindiText"> जिस जिस विषय में प्रश्न किया जाता है, उस-उसमें शीघ्रतापूर्ण प्रवृत्ति का नाम परिचित है। अर्थात् क्रम से, अक्रम से और अनुभयरूप से भावागमरूपी समुद्र में मछली के समान अत्यंत चंचलतापूर्ण प्रवृत्ति करने वाला जीव और वह भावागम भी परिचित कहा जाता है। </li> | ||
<li class="HindiText"> शिष्यों केा पढ़ाने का नाम वाचना है। वह चार प्रकार है–नंदा, भद्रा, जया और सौम्या। (विशेष देखें [[ वाचना ]])। इन चार प्रकार की वाचनाओं को प्राप्त वाचनोपगत कहलाता है। अर्थात् जो दूसरों को ज्ञान कराने में समर्थ है वह वाचनोपगत है। </li> | <li class="HindiText"> शिष्यों केा पढ़ाने का नाम वाचना है। वह चार प्रकार है–नंदा, भद्रा, जया और सौम्या। (विशेष देखें [[ वाचना ]])। इन चार प्रकार की वाचनाओं को प्राप्त वाचनोपगत कहलाता है। अर्थात् जो दूसरों को ज्ञान कराने में समर्थ है वह वाचनोपगत है। </li> | ||
<li class="HindiText"> तीर्थंकर के मुख से निकला बीजपद सूत्र कहलाता है। (विशेष देखो आगम 7) उस सूत्र के साथ चूँकि रहता अर्थात् उत्पन्न होता है, अत: गणधरदेव में स्थित श्रुतज्ञान सूत्रसम कहा गया है। </li> | <li class="HindiText"> तीर्थंकर के मुख से निकला बीजपद सूत्र कहलाता है। (विशेष देखो [[आगम #7 | आगम-7]]) उस सूत्र के साथ चूँकि रहता अर्थात् उत्पन्न होता है, अत: गणधरदेव में स्थित श्रुतज्ञान सूत्रसम कहा गया है। </li> | ||
<li class="HindiText"> जो ‘अर्यते’ अर्थात् जाना जाता है वह द्वादशांग का विषयभूत अर्थ है, उस अर्थ के साथ रहने के कारण अर्थसम कहलाता है। द्रव्यश्रुत आचार्यों की अपेक्षा न करके संयम से उत्पन्न हुए श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से जन्य स्वयंबुद्धों में रहने वाला द्वादशांगश्रुत अर्थसम है यह अभिप्राय है। </li> | <li class="HindiText"> जो ‘अर्यते’ अर्थात् जाना जाता है वह द्वादशांग का विषयभूत अर्थ है, उस अर्थ के साथ रहने के कारण अर्थसम कहलाता है। द्रव्यश्रुत आचार्यों की अपेक्षा न करके संयम से उत्पन्न हुए श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से जन्य स्वयंबुद्धों में रहने वाला द्वादशांगश्रुत अर्थसम है यह अभिप्राय है। </li> | ||
<li class="HindiText"> गणधरदेव से रचा गया द्रव्यश्रुत ग्रंथ कहा जाता है। उसके साथ रहने अर्थात् उत्पन्न होने के कारण बोधितबुद्ध आचार्यों में स्थित द्वादशांग श्रुतज्ञान ग्रंथसम कहलाता है।</li> | <li class="HindiText"> गणधरदेव से रचा गया द्रव्यश्रुत ग्रंथ कहा जाता है। उसके साथ रहने अर्थात् उत्पन्न होने के कारण बोधितबुद्ध आचार्यों में स्थित द्वादशांग श्रुतज्ञान ग्रंथसम कहलाता है।</li> | ||
<li class="HindiText"> ‘नाना मिनोति’ अर्थात् नानारूप से जो जानता है उसे नाम कहते हैं। अर्थात् अनेक प्रकारों से अर्थज्ञान को नामभेद द्वारा भेद करने के कारण एक आदि अक्षरों स्वरूप बारह अंगों के अनुयोगों के मध्य में स्थित द्रव्यश्रुत ज्ञान के भेद नाम है, यह अभिप्राय है। उस नाम के अर्थात् द्रव्यश्रुत के साथ रहने अर्थात् उत्पन्न होने के कारण शेष आचार्यों में स्थित श्रुतज्ञान नामसम कहलाता है। </li> | <li class="HindiText"> ‘नाना मिनोति’ अर्थात् नानारूप से जो जानता है उसे नाम कहते हैं। अर्थात् अनेक प्रकारों से अर्थज्ञान को नामभेद द्वारा भेद करने के कारण एक आदि अक्षरों स्वरूप बारह अंगों के अनुयोगों के मध्य में स्थित द्रव्यश्रुत ज्ञान के भेद नाम है, यह अभिप्राय है। उस नाम के अर्थात् द्रव्यश्रुत के साथ रहने अर्थात् उत्पन्न होने के कारण शेष आचार्यों में स्थित श्रुतज्ञान नामसम कहलाता है। </li> | ||
<li class="HindiText"> सूची; मुद्रा आदि पाँच दृष्टांतों के वचन से (देखें [[ अनुयोग#2.1 | अनुयोग - 2.1]])...घोष संज्ञावाला अनुयोग का अनुयोग (घोषानुयोग) नाम का एकदेश होने से अनुयोग कहा जाता है; क्योंकि, सत्यभामा पद से अवगम्यमान अर्थ उक्तपद के एकदेशभूत भामा शब्द से भी जाना ही जाता है।...घोष अर्थात् द्रव्यानुयोगद्वार के समं अर्थात् साथ रहता है, अर्थात् उत्पन्न होता है, इस कारण अनुयोग श्रुतज्ञान घोषसम कहलाता है। <br> | <li class="HindiText"> सूची; मुद्रा आदि पाँच दृष्टांतों के वचन से (देखें [[ अनुयोग#2.1 | अनुयोग - 2.1]])...घोष संज्ञावाला अनुयोग का अनुयोग (घोषानुयोग) नाम का एकदेश होने से अनुयोग कहा जाता है; क्योंकि, सत्यभामा पद से अवगम्यमान अर्थ उक्तपद के एकदेशभूत भामा शब्द से भी जाना ही जाता है।...घोष अर्थात् द्रव्यानुयोगद्वार के समं अर्थात् साथ रहता है, अर्थात् उत्पन्न होता है, इस कारण अनुयोग श्रुतज्ञान घोषसम कहलाता है। <br> | ||
<strong>नोट</strong>–ये उपरोक्त नौ के नौ भेदों के लक्षण यहाँ भी दिये हैं–( धवला 9/4,1,62/62/268/5 ) ( धवला 14/5,6,12/7-9 )। </li> | <strong>नोट</strong>–ये उपरोक्त नौ के नौ भेदों के लक्षण यहाँ भी दिये हैं–<span class="GRef">( धवला 9/4,1,62/62/268/5 )</span> <span class="GRef">( धवला 14/5,6,12/7-9 )</span>। </li> | ||
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<li><span class="HindiText" name="5.9" id="5.9"><strong> ग्रंथिम आदि भेदों के लक्षण</strong></span><strong><br></strong> धवला 9/4,1,65/272/13 <span class="PrakritText">तत्थ गंथणकिरियाणिप्फण्णं फुल्लमादिदव्वं गंथिमं णाम। वायणकिरियाणिप्फण्णं सुप्प-पच्छियाचं गेरि-किदय-चालणि-कंबल-वत्थादिदव्वं वाइमं णाम। सुत्तिधुवकोसपल्लादिदव्वं वेदणकिरियाणिप्फण्णं वेदिमं णाम। तलावलि-जिणहराहिट्ठाणादिदव्वं पूरणकिरियाणिप्फण्णं पूरिमं णाम। कट्टिमजिणभवण घर-पायार-थूहादिदव्वं कट्टिट्ठय पत्थरादिसंघादणकिरियाणिप्पणं संघादिमं णाम। णिंबंबजंबुजंबीरादिदव्वं अहोदिमकिरियाणिप्फण्णमहोदिमं णाम। अहोदिमकिरियासचित्त-अचित्तदव्वाणं रोवणकिरिएत्ति वुत्तं होदि। पोक्खरिणी-वावी-कूव-तलाय-लेण-सुरुंगादिदव्वं णिक्खोदणकिरियाणिप्फण्णं णिक्खोदिमं णाम। णिक्खोदणं-खणणमिदिवुत्तं होदि। एक्क-दु-तिउणसुत्त-डोरावेट्ठादिदव्वमोवेल्लणकिरियाणिप्पण्णमोवेल्लिमं णाम। गंथिम-वाइमादिदव्वाणमुव्वेल्लणेण जाददव्वमुव्वेल्लिमं णाम। चित्तारयाणमण्णेसिं च वण्णुप्पायणकुसलाणं किरियाणिप्पण्णदव्वं णर-तुरयादिबहुसंठाणंवण्णंणामपिट्ठपिट्ठियाकणिकादिदव्वं | <li><span class="HindiText" name="5.9" id="5.9"><strong> ग्रंथिम आदि भेदों के लक्षण</strong></span><strong><br></strong><span class="GRef"> धवला 9/4,1,65/272/13 </span><span class="PrakritText">तत्थ गंथणकिरियाणिप्फण्णं फुल्लमादिदव्वं गंथिमं णाम। वायणकिरियाणिप्फण्णं सुप्प-पच्छियाचं गेरि-किदय-चालणि-कंबल-वत्थादिदव्वं वाइमं णाम। सुत्तिधुवकोसपल्लादिदव्वं वेदणकिरियाणिप्फण्णं वेदिमं णाम। तलावलि-जिणहराहिट्ठाणादिदव्वं पूरणकिरियाणिप्फण्णं पूरिमं णाम। कट्टिमजिणभवण घर-पायार-थूहादिदव्वं कट्टिट्ठय पत्थरादिसंघादणकिरियाणिप्पणं संघादिमं णाम। णिंबंबजंबुजंबीरादिदव्वं अहोदिमकिरियाणिप्फण्णमहोदिमं णाम। अहोदिमकिरियासचित्त-अचित्तदव्वाणं रोवणकिरिएत्ति वुत्तं होदि। पोक्खरिणी-वावी-कूव-तलाय-लेण-सुरुंगादिदव्वं णिक्खोदणकिरियाणिप्फण्णं णिक्खोदिमं णाम। णिक्खोदणं-खणणमिदिवुत्तं होदि। एक्क-दु-तिउणसुत्त-डोरावेट्ठादिदव्वमोवेल्लणकिरियाणिप्पण्णमोवेल्लिमं णाम। गंथिम-वाइमादिदव्वाणमुव्वेल्लणेण जाददव्वमुव्वेल्लिमं णाम। चित्तारयाणमण्णेसिं च वण्णुप्पायणकुसलाणं किरियाणिप्पण्णदव्वं णर-तुरयादिबहुसंठाणंवण्णंणामपिट्ठपिट्ठियाकणिकादिदव्वं चुण्णणकिरियाणिप्फण्णं चुण्णं णाम। बहूणं दव्वाणं संजोगेणुप्पाइदगंधपहाणं दव्वं गंधं णाम। घुट्ठ-पिट्ठ-चंदण-कुंकु-मादिदव्वं विलेवणं णाम।</span>= | ||
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<li class="HindiText"> गूंथनेरूप | <li class="HindiText"> गूंथनेरूप क्रिया से सिद्ध हुए फूल आदि द्रव्य को <strong>ग्रंथिम</strong> कहते हैं। </li> | ||
<li class="HindiText"> बुनना | <li class="HindiText"> बुनना क्रिया से सिद्ध हुए सूप, पिटारी, चंगेर, कृतक, चालनी, कंबल और वस्त्र आदि द्रव्य <strong>वाइम</strong> कहलाते हैं। </li> | ||
<li class="HindiText"> वेधन क्रिया से सिद्ध हुए सूति (सोम निकालने | <li class="HindiText"> वेधन क्रिया से सिद्ध हुए सूति (सोम निकालने का स्थान) इंधुव (भट्ठी) कोश और पल्य आदि द्रव्य <strong>वेधिम</strong> कहे जाते हैं। </li> | ||
<li class="HindiText"> पूरण क्रिया से सिद्ध हुए तालाब का बाँध व जिनग्रह का चबूतरा आदि द्रव्य का नाम <strong>पूरिम</strong> है।</li> | <li class="HindiText"> पूरण क्रिया से सिद्ध हुए तालाब का बाँध व जिनग्रह का चबूतरा आदि द्रव्य का नाम <strong>पूरिम</strong> है।</li> | ||
<li class="HindiText"> काष्ठ, ईंट और पत्थर आदि की संघातन क्रिया से सिद्ध हुए कृत्रिम जिनभवन, | <li class="HindiText"> काष्ठ, ईंट और पत्थर आदि की संघातन क्रिया से सिद्ध हुए कृत्रिम जिनभवन, गृह, प्राकार और स्तूप आदि द्रव्य <strong>संघातिम</strong> कहलाते हैं।</li> | ||
<li class="HindiText"> नीम, आम, जामुन और जंबीर आदि अधोधिम क्रिया से सिद्ध हुए द्रव्य को <strong>अधोधिन</strong> कहते हैं। अधोधिम क्रिया का अर्थ सचित्त और अचित्त द्रव्यों की रोपन क्रिया है। यह तात्पर्य है।</li> | <li class="HindiText"> नीम, आम, जामुन और जंबीर आदि अधोधिम क्रिया से सिद्ध हुए द्रव्य को <strong>अधोधिन</strong> कहते हैं। अधोधिम क्रिया का अर्थ सचित्त और अचित्त द्रव्यों की रोपन क्रिया है। यह तात्पर्य है।</li> | ||
<li class="HindiText"> पुष्कारिणी, वापी, कूप, तड़ाग, लयन और सुरंग आदि निष्खनन क्रिया से सिद्ध | <li class="HindiText"> पुष्कारिणी, वापी, कूप, तड़ाग, लयन और सुरंग आदि निष्खनन क्रिया से सिद्ध हुए द्रव्य <strong>णिक्खोदिम</strong> कहलाते हैं। णिक्खोदिम से अभिप्राय खोदना क्रिया से है। </li> | ||
<li class="HindiText"> उपवेल्लन क्रिया से सिद्ध हुए एकगुणे, दुगुणे एवं तिगुणे सूत्र, डोरा | <li class="HindiText"> उपवेल्लन क्रिया से सिद्ध हुए एकगुणे, दुगुणे एवं तिगुणे सूत्र, डोरा व वेष्ट आदि द्रव्य <strong>उपवेल्लन</strong> कहलाते हैं। </li> | ||
<li class="HindiText"> ग्रंथिम व वाइम आदि द्रव्यों | <li class="HindiText"> ग्रंथिम व वाइम आदि द्रव्यों के उद्वेल्लन से उत्पन्न हुए द्रव्य <strong>उद्वेल्लिम</strong> कहलाते हैं। </li> | ||
<li class="HindiText"> चित्रकार एवं वर्णों के उत्पादन में निपुण दूसरों की क्रिया से सिद्ध मनुष्य, | <li class="HindiText"> चित्रकार एवं वर्णों के उत्पादन में निपुण दूसरों की क्रिया से सिद्ध मनुष्य, तुरंग आदि अनेक आकाररूप द्रव्य <strong>वर्ण</strong> कहे जाते हैं। </li> | ||
<li class="HindiText"> चूर्णन क्रिया से सिद्ध हुए पिष्ट, पिष्टिका | <li class="HindiText"> चूर्णन क्रिया से सिद्ध हुए पिष्ट, पिष्टिका और कणिका आदि द्रव्य को <strong>चूर्ण</strong> कहते हैं। </li> | ||
<li class="HindiText"> बहुत द्रव्यों के संयोग से उत्पादित गंध की प्रधानता रखने वाले द्रव्य का नाम <strong>गंध</strong> है। </li> | <li class="HindiText"> बहुत द्रव्यों के संयोग से उत्पादित गंध की प्रधानता रखने वाले द्रव्य का नाम <strong>गंध</strong> है। </li> | ||
<li class="HindiText"> घिसे व पीसे गये चंदन और कंकुम आदि द्रव्य <strong>विलेपन</strong> कहे जाते हैं।</li> | <li class="HindiText"> घिसे व पीसे गये चंदन और कंकुम आदि द्रव्य <strong>विलेपन</strong> कहे जाते हैं।</li> | ||
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Latest revision as of 15:11, 27 November 2023
- द्रव्य निक्षेप के भेद व लक्षण
- द्रव्य निक्षेप सामान्य का लक्षण
- द्रव्य निक्षेप के भेद-प्रभेद
- आगम द्रव्य निक्षेप का लक्षण
- नोआगम द्रव्यनिक्षेप का लक्षण
- ज्ञायक शरीर सामान्य व विशेष के लक्षण
- भावी नोआगम का लक्षण
- तद्वयतिरिक्त सामान्य व विशेष के लक्षण
- तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्य सामान्य
- कर्म तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्य
- नोकर्म तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्य सामान्य
- लौकिक व लोकोत्तर सामान्य नोकर्म तद्वयतिरिक्त
- सचित्त अचित्त मिश्र सामान्य नोकर्म तद्व्यतिरिक्त
- लौकिक व लोकोत्तर सचित्तादि नोकर्म तद्यतिरिक्त
- स्थित जित आदि भेदों के लक्षण
- ग्रंथिम आदि भेदों के लक्षण
- द्रव्य निक्षेप के भेद व लक्षण
- द्रव्य निक्षेप सामान्य का लक्षण
राजवार्तिक 1/5/3-4/28/21 यद् भाविपरिणामप्राप्ति प्रति योग्यतामादधानं तद् द्रव्यमित्युच्यते। ...अथवा अतद्भाव वा द्रव्यमित्युच्यते। यथेंद्रमानीतं काष्ठमिंद्रप्रतिमापर्यायप्राप्ति प्रत्यभिमुखम् इंद्र: इत्युच्यते। =आगामी पर्याय की योग्यता वाले उस पदार्थ को द्रव्य कहते हैं, जो उस समय उस पर्याय के अभिमुख हो, अथवा अतद्भाव को द्रव्य कहते हैं। जैसे–इंद्रप्रतिमा के लिए लाये गये काष्ठ को भी इंद्र कहना। (क्योंकि, जो अपने गुणों व पर्यायों को प्राप्त होता है, हुआ था और होगा उसको ही द्रव्य कहते हैं देखें द्रव्य - 1.1) ( श्लोकवार्तिक 2/1/5/ श्लोक 60/266); ( धवला 1/1,11,1/20/6 ); ( तत्त्वसार/1/12 )।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/743 ऋजुसूत्रनिरपेक्षतया, सापेक्ष भाविनैगमादिनयै:। छद्मस्थो जिनजीवो जिन इव मान्यो यथात्र तद्द्रव्यम् । =ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा न करके और भाविनैगमादिक नयों की अपेक्षा से जो कहा जाता है, वह द्रव्य निक्षेप है। जैसे कि छद्मस्थ अवस्था में वर्तमान जिन भगवान् के जीव को जिन कहना।
नय-III.2.5 जैसे–आगे सेठ बनने वाले बालक को अभी से सेठ कहना, अथवा जो राजा दीक्षित होकर श्रमण अवस्था में विद्यमान है उसे भी राजा कहना)।
- द्रव्य निक्षेप के भेद-प्रभेद
- द्रव्य निक्षेप के दो भेद हैं—आगम व नोआगम ( षट्खंडागम/9/4,1/ सूत्र 53/250); ( षट्खंडागम ,14/5,6/ सूत्र 11/7); ( सर्वार्थसिद्धि/1/5/18/1 ); ( राजवार्तिक/1/5/5/29/3 ); ( श्लोकवार्तिक 2/1/5/ श्लोक 60/266); ( धवला 1/1,1,1/20/7 ); ( धवला 3/1,2,2/12/3 ); ( धवला 4/1,3,1/5/1 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड/54/53 ); ( नयचक्र बृहद्/274 )।
- नो आगम द्रव्यनिक्षेप तीन प्रकार का है—ज्ञायक शरीर, भावी व तद्वयतिरिक्त। ( षट्खंडागम/9/4,1/ सूत्र 61/267); ( सर्वार्थसिद्धि/1/5/18/3 ); ( राजवार्तिक/1/5/7/29/8 ); ( श्लोकवार्तिक 2/1/5/ श्लोक 62/267); ( धवला 1/1,1,1/21/2 ); ( धवला 3/1,2,2/13/2 ); ( धवला 4/1,3,1/6/1 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड/55/54 ); ( नयचक्र बृहद्/275 )।
- ज्ञायक शरीर तीन प्रकार का है—भूत, वर्तमान, व भावी।–( श्लोकवार्तिक 2/1/5/ श्लोक 62/267); ( धवला 1/1,1,1/21/3 ( धवला 4/1,3,1/6/2 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड/55/54 )।
- भूत ज्ञायक शरीर तीन प्रकार का है—च्युत, च्यावित व त्यक्त।–( षट्खंडागम/9/4,1/ सूत्र 63/269); ( श्लोकवार्तिक 2/1/5/ श्लोक 62/267); ( धवला 1/1,1,1/22/3 ); ( धवला 4/1,3,1/6/3 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड/56/54 );।
- त्यक्त ज्ञायक शरीर तीन प्रकार का है—भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनी व प्रायोपगमन।–( धवला 1/1,1,1/23/3 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड/59/56 )।
- तद्वयतिरिक्त नो आगम द्रव्यनिक्षेप दो प्रकार है—कर्म व नोकर्म।–( सर्वार्थसिद्धि/1/5/18/7 ); ( राजवार्तिक/1/5/7/29/11 ); ( श्लोकवार्तिक 2/1/5/ श्लोक 63/268); ( धवला 1/1,1,1/26/4 ); ( धवला 3/1,2,2/15/1 ); ( धवला 4/1,3,1/6/9 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड/63/54 )।
- नोकर्म तद्वयतिरिक्त दो प्रकार का है—लौकिक व लोकोत्तर।–( धवला 1/1,1,1/26/6 ); ( धवला 4/1,3,1/7/1 )।
- लौकिक व लोकोत्तर दोनों ही तद्वयतिरिक्त तीन तीन प्रकार के हैं—सचित्त, अचित्त व मिश्र।–( धवला 1/1,1,1/27/1 व 28/1), ( धवला 5/1,7,1/184/7 )।
- आगम द्रव्य निक्षेप के 9 भेद हैं—स्थित, जित, परिचित, वाचनोपगत, सूत्रसम, अर्थसम, ग्रंथसम, नामसम और घोषसम।–( षट्खंडागम/9/4,1/ सूत्र 54/251); ( षट्खंडागम ,14/5,6/ सूत्र 25/27)।
- ज्ञायक शरीर के भी उपरोक्त प्रकार स्थित जित आदि 9 भेद हैं–( षट्खंडागम/9/4,1/ सूत्र 62/268)।
- तद्वयतिरिक्त नो आगम के अनेक भेद हैं—
- ग्रंथिम,
- वाइम,
- वेदिम,
- पूरिम,
- संघातिम,
- अहोदिम,
- णिक्खेदिम,
- ओव्वेलिम,
- उद्वेलिम,
- वर्ण,
- चूर्ण,
- गंध,
- विलेपन, इत्यादि। ( षट्खंडागम/9/4,1/ सू.65/272)।
नोट—इन सब भेद प्रभेदों की तालिका देखें निक्षेप - 1.2)।
- द्रव्य निक्षेप के दो भेद हैं—आगम व नोआगम ( षट्खंडागम/9/4,1/ सूत्र 53/250); ( षट्खंडागम ,14/5,6/ सूत्र 11/7); ( सर्वार्थसिद्धि/1/5/18/1 ); ( राजवार्तिक/1/5/5/29/3 ); ( श्लोकवार्तिक 2/1/5/ श्लोक 60/266); ( धवला 1/1,1,1/20/7 ); ( धवला 3/1,2,2/12/3 ); ( धवला 4/1,3,1/5/1 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड/54/53 ); ( नयचक्र बृहद्/274 )।
- आगम द्रव्य निक्षेप का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/1/5/18/2 जीवप्राभृतज्ञायी मनुष्यजीवप्राभृतज्ञायी वा अनुपयुक्त आत्मा आगमद्रव्यजीव:। =जो जीवविषयक या मनुष्य जीव विषयक शास्त्र को जानता है, किंतु वर्तमान में उसके उपयोग से रहित है वह आगम द्रव्यजीव है। (इसी प्रकार अन्य भी जिस जिस विषय संबंधी शास्त्र को जानता हुआ उसके उपयोग से रहित रहने वाला आत्मा उस उस नामवाला ही आगम द्रव्य है। जैसे मंगल विषयक शास्त्र को जानने वाला आत्मा आगम द्रव्य मंगल है।) ( राजवार्तिक/1/5/5/29/3 ); ( श्लोकवार्तिक 2/1/5/ श्लोक 61/267); ( धवला 3/1,2,2/12/11 ); ( धवला 4/1,3,1/5/2 ); ( धवला 1/1,1,1/83/3 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड/54/53 ); ( नयचक्र बृहद्/274 )।
धवला 1/1,1,1/21/1 तत्थ आगमदो दव्वमंगलं णाम मंगलपाहुड़जाणओ अणुवजुत्तो, मंगल-पाहुड़-सद्द-रयणा वा, तस्सत्थ-ट्ठवणक्खर-रयणा वा। =मंगल प्राभृत अर्थात् मंगल विषय का प्रतिपादन करने वाले शास्त्र को जानने वाला, किंतु वर्तमान में उसके उपयोग से रहित जीव को आगम द्रव्यमंगल कहते हैं। अथवा मंगलविषय के प्रतिपादक शास्त्र की शब्द रचना को आगम द्रव्यमंगल कहते हैं। अथवा मंगलविषय के प्रतिपादक शास्त्र की स्थापनारूप अक्षरों की रचना को भी आगम द्रव्य मंगल कहते हैं।( धवला 5/1,6,1/2/3 )।
- नोआगम द्रव्यनिक्षेप का लक्षण
(पूर्वोक्त आगमद्रव्य की आत्मा का आरोप उसके शरीर में करके उस जीव के शरीर को ही नोआगम द्रव्य जीव या नोआगम द्रव्य मंगल आदि कह दिया जाता है। और वह शरीर ही तीन प्रकार का है भूत, भावि व वर्तमान। अथवा उसके शरीर के संबंध रखने वाले अन्य जो कर्म या नोकर्म रूप पदार्थ हैं उनको भी नोआगम द्रव्य कह दिया जाता है। इसी का नाम तद्वयतिरिक्त है। इनके पृथक्-पृथक् लक्षण आगे दिये जाते हैं।)
- ज्ञायक शरीर सामान्य व विशेष के लक्षण
- ज्ञायक शरीर सामान्य
सर्वार्थसिद्धि/1/5/18/4 तत्र ज्ञातुर्यच्छशरीरं त्रिकालगोचरं तज्ज्ञायकशरीरम् । =ज्ञाता का जो त्रिकाल गोचर शरीर है वह ज्ञायकशरीर नोआगम द्रव्य जीव है।( राजवार्तिक/1/5/7/29/9 ), ( श्लोकवार्तिक 2/1/5/ श्लोक 62/267), ( धवला 1/1,1,1/21/3 ), ( गोम्मटसार कर्मकांड/55/54 )। - च्युत च्यावित व त्यक्त अतीत ज्ञायक शरीर
धवला 1/1,1,1/22/3 तत्थ चुदं णाम कयलीघादेण विणा पक्कं पि फलं व कम्मोदएण ज्झीयमाणायुक्खयपदिदं। चइदं णाम कयलीघादेण छिण्णायुक्खयपदिसरीरं। चत्तसरीरं तिविहं, पावोगमण-विहाणेण, इंगिणीविहाणेण, भत्तपच्चक्खाणविहाणेण चत्तमिदि। =कदलीघात मरण के बिना कर्म के उदय से झड़ने वाले आयुकर्म के क्षय से, पके हुए फल के समान, अपने आप पतित शरीर को च्युतशरीर कहते हैं। कदलीघात के द्वारा आयु के छिन्न हो जाने से छूटे हुए शरीर को च्यावित शरीर कहते हैं। (कदलीघात का लक्षण देखें मरण - 4)। त्यक्त शरीर तीन प्रकार का है–प्रायोपगमन विधान से छोड़ा गया, इंगिनी विधान से छोड़ा गया और भक्त प्रत्याख्यान विधान से छोड़ा गया। (इन तीनों का स्वरूप देखें सल्लेखना - 3), ( गोम्मटसार कर्मकांड/56,58/54 )।
धवला 1/1,1,1/25/6 कयलीघादेण मरणकंखाए जीवियासाए जीवियमरणासाहि विणा पदिदं सरीरं चइदं। जीवियासाए मरणासाए जीवियमरणासाहि विणा वा कयलीघादेण अचत्तभावेण पदिदं सरीरं चुदं णाम। जीविदमरणासाहि विणा सरूवोवलद्धि णिमित्तं व चत्त बज्झंतरंगपरिग्गहस्स कयलीघादेणियरेण वा पदिदसरीरं चत्तदेहमिदि। =मरण की आशा से या जीवन की आशा से अथवा जीवन और मरण इन दोनों की आशा के बिना ही कदलीघात से छूटे हुए शरीर को च्यावित कहते हैं। जीवन की आशा से, मरण की आशा से अथवा जीवन और मरण इन दोनों की आशा के बिना ही कदलीघात व समाधिमरण से रहित होकर छूटे हुए शरीर को च्युत कहते हैं। आत्मस्वरूप की प्राप्ति के निमित्त, जिसने बहिरंग और अंतरंग परिग्रह का त्याग कर दिया है, ऐसे साधु के जीवन और मरण की आशा के बिना ही, कदलीघात से अथवा इतर कारणों से छूटे हुए शरीर को त्यक्त शरीर कहते हैं।
- भूत वर्तमान व भावी ज्ञायक शरीर
(वर्तमान प्राभृत का ज्ञाता पर अनुपयुक्त आत्मा का वर्तमान वाला शरीर; उस ही आत्मा का भूतकालीन च्युत, च्यावित या त्यक्त शरीर; तथा उस ही आत्मा का आगामी भव में होने वाला शरीर, क्रम से वर्तमान, भूत व भावी ज्ञायकशरीर नोआगमद्रव्य जीव या मंगल आदि कहे जाते हैं।)
- ज्ञायक शरीर सामान्य
- भावी नोआगम का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/1/5/18/5 सामान्यापेक्षया नोआगम-भाविजीवो नास्ति, जीवनसामान्यसदापि विद्यमानत्वात् । विशेषापेक्षया त्वस्ति। गत्यंतरे जीवो व्यवस्थितो मनुष्यभवप्राप्तिं प्रत्यभिमुखो मनुष्यभाविजीव:। =जीव सामान्य की अपेक्षा ‘नोआगम भावी जीव’ यह भेद नहीं बनता है; क्योंकि जीव में जीवत्व सदा पाया जाता है। हाँ, पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा ‘नोआगम भावी जीव’ यह भेद बन जाता है; क्योंकि जो जीव अभी दूसरी गति में विद्यमान है, वह (अज्ञायक जीव) जब मनुष्य भव को प्राप्त करने के प्रति अभिमुख होता है, तब वह मनुष्य भावी जीव कहलाता है।
राजवार्तिक/1/5/7/29/9 जीवन-सम्यग्दर्शनपरिणामप्राप्तिं प्रत्यभिमुखं द्रव्यं भावीत्युच्यते। =जीवन या सम्यग्दर्शन आदि पर्यायों की प्राप्ति के अभिमुख अज्ञायक जीव को जीवन या सम्यग्दर्शन आदि कहना भावी नोआगम द्रव्य जीव या भावी नोआगम सम्यग्दर्शन है।
श्लोकवार्तिक/2/1/5/ श्लोक 63/268 भाविनोआगमद्रव्यमेष्यत् पर्यायमेव तत् । =जो आत्मा भविष्यत् में आने वाली पर्यायों के अभिमुख है, उन पर्यायों से आक्रांत हो रहा वह आत्मा भावीनोआगम द्रव्य है।
धवला 1/1,1,1/26/3 भव्यनोआगमद्रव्यं भविष्यत्काले मंगलप्राभृतज्ञायको जीव: मंगलपर्यायं परिणंस्यतीति वा। =जो जीव भविष्यकाल में मंगल शास्त्र का जानने वाला होगा, अथवा मंगल पर्याय से परिणत होगा उसे भव्य नोआगम द्रव्यमंगल कहते हैं। ( धवला 4/1,3,1/6/6 ), ( गोम्मटसार कर्मकांड/62/58 )।
- तद्वयतिरिक्त सामान्य व विशेष के लक्षण
- तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्य सामान्य
सर्वार्थसिद्धि/1/18/7 तद्वयतिरिक्त: कर्मनोकर्मविकल्प:। =तद्वयतिरिक्त के दो भेद हैं–कर्म व नोकर्म। ( राजवार्तिक/1/5/7/29/11 ), ( श्लोकवार्तिक/2/1/5/ श्लोक 63/268)।
धवला 1/1,1,1/83/5 तव्वदिरित्तं जीवट्ठाणाहार-भूदागास-दव्वं। =जीवस्थानों के अथवा जीवस्थान विषयक शास्त्र के आधारभूत आकाशद्रव्य को तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्य जीवस्थान कहते हैं। (अथवा उस-उस पर्याय के या शास्त्रज्ञान से परिणत जीव के निमित्तभूत कर्म वर्गणाओं या अन्य बाह्य द्रव्यों को उस-उस नाम से कहना तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्यनिक्षेप है)।
- कर्म तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्य
श्लोकवार्तिक/2/1/5/श्लोक 64/268 ज्ञानावृत्त्यादिभेदेन कर्मानेकविधंमतम् । =ज्ञानावरण आदि भेद से कर्म अनेक प्रकार माने गये हैं। ( धवला 4/1,3,1/6/10 )।
धवला 1/1,1,1/26/4 तत्र कर्ममंगलं दर्शनविशुद्धयादिषोडशधाप्रविभक्ततीर्थंकर-नामकर्म-कारणैर्जीव-प्रदेश-निबद्ध-तीर्थंकरनामकर्म-मांगल्य-निबंधनत्वांमंगलम् । =दर्शन विशुद्धि आदि सोलह प्रकार के तीर्थंकर-नामकर्म के कारणों से जीवप्रदेशों के साथ बँधे हुए तीर्थंकर नामकर्म को, कर्म तद्वयतिरिक्त नोआगमद्रव्य मंगल कहते हैं; क्योंकि वह भी मंगलपने का सहकारी कारण है।
गोम्मटसार कर्मकांड/63/58 कम्मसरूवेणागयकम्मं दव्वं हवे णियमा। =ज्ञानावरणादि प्रकृतिरूप से परिणमे पुद्गलद्रव्य कर्म तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्य कर्म जानना। (यहाँ कर्म का प्रकरण होने से कर्म पर लागू करके दिखाया है)।
- नोकर्म तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्य सामान्य
श्लोकवार्तिक/2/1/5/ श्लोक 64-65 नोकर्म च शरीरत्वपरिणामनिरुत्सुकम् ।64। पुद्गलद्रव्यमाहारप्रभृत्युपचयात्मकम् ।65। =वर्तमान में शरीरपनारूप परिणति के लिए उत्साहरहित जो आहारवर्गणा, भाषावर्गणा आदि रूप एकत्रित हुआ पुद्गलद्रव्य है वह नोकर्म समझ लेना चाहिए।
धवला 3/1,2,2/15/3 आगममधिगम्य विस्मृत: क्वांतर्भवतीति चेत्तद्व्यतिरिक्तद्रव्यानंते। =प्रश्न–जो आगम का अध्ययन करके भूल गया है उसका द्रव्यनिक्षेप के किस भेद में अंतर्भाव होता है? उत्तर–ऐसे जीव का नोकर्म तद्वयतिरिक्त द्रव्यानंत में अंतर्भाव होता है (यहाँ ‘अनंत’ का प्रकरण है)।
गोम्मटसार कर्मकांड/64,67/59,61 कम्मद्दव्वादण्णं णोकम्मदव्वमिदि होदि।65। पडपडिहारसिमज्जा आहारं देह उच्चणीचंगम् । भंडारी मूलाणं णोकम्मं दवियकम्मं तु।69। =कर्मस्वरूप से अन्य जो कार्य होते हैं उनके बाह्यकारणभूत वस्तु को नोकर्म तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यकर्म जानना (यहाँ ‘कर्म का प्रकरण है)।64। जैसे–ज्ञानावरण का नोकर्म सपीठ वस्त्र है, दर्शनावरण का नोकर्म द्वारविषै तिष्ठता द्वारपाल है। वेदनीय नोकर्म मधुलिप्त मधुलिप्त खड्ग है। मोहनीय का नोकर्म, मदिरा, आयु का नोकर्म चार प्रकार आहार, नामकर्म का नोकर्म औदारिकादि शरीर और गोत्रकर्म का नोकर्म ऊँचा-नीचा शरीर है। - लौकिक व लोकोत्तर सामान्य नोकर्म तद्वयतिरिक्त
धवला 4/1,3,1/7/1 णोकम्मदव्वखेत्तं तं दुविहं ओवयारियं परमत्थियं चेदि। तत्थ ओवयारियं णोकम्मदव्वखेत्तं लोगपसिद्धं सालिखेत्तं वीहिखेत्तमेवमादि। पारमत्थियं णोकम्मदव्वखेत्तं आगासदव्वं। =नोकर्म द्रव्यक्षेत्र (यहाँ क्षेत्र का प्रकरण है) औपचारिक और पारमार्थिक के भेद से दो प्रकार का है। उनमें से लोक में प्रसिद्ध शालिक्षेत्र, व्रीहिक्षेत्र, इत्यादि औपचारिक नोकर्मतद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यक्षेत्र कहलाता है। आकाश द्रव्य पारमार्थिक नोकर्म तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यक्षेत्र है।
नोट–(अन्य भी देखो वह-वह विषय)।
- सचित्त अचित्त मिश्र सामान्य नोकर्म तद्व्यतिरिक्त
धवला 5/1,7,1/184/7 तव्वदिरित्तणोआगमदव्वभावो तिविहो सचित्ताचित्तमिस्सभेएण। तत्थ सचित्तो जीवदव्वं। अचित्तो पोग्गल-धम्मा-धम्म-कालागासदव्वाणि। पोग्गलजीवदव्वाणं संजोगोकधंचिज्जच्चंतरत्तमावण्णो णोआगममिस्सदव्वभावो णाम।=तद्वयतिरिक्त नोआगमद्रव्यभावनिक्षेप (यहाँ भाव का प्रकरण है) सचित्त अचित्त और मिश्र के भेद से तीन प्रकार का है। उनमें जीव द्रव्य सचित्त भाव है, पुद्गल धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय काल और आकाशद्रव्य अचित्तभाव हैं। कथंचित् जात्यंतर भाव को प्राप्त पुद्गल और जीव द्रव्यों का संयोग अर्थात् शरीरधारी जीव नोआगम मिश्रद्रव्य भावनिक्षेप है। ( धवला 5/1,6,1/3/1 –यहाँ ‘अंतर’ के प्रकरण में तीनों भेद दर्शाये हैं। नोट–(अन्य भी देखो वह वह विषय)।
- लौकिक व लोकोत्तर सचित्तादि नोकर्म तद्यतिरिक्त
धवला 1/1,1,1/27/1 तत्र लौकिकं त्रिविधम्, सचित्तमचित्तं मिश्रमिति। तत्राचित्तमंगलम्-सिद्धत्थ–पुण्ण-कुंभो वंदणमाला य मंगलं छत्तं। सेदो वण्णो आदंसणो य कण्णा य जच्चस्यो।13। सचित्तमंगलम् । मिश्रमंगलं सालंकारकन्यादि:। लोकोत्तरमंगलमपि त्रिविधम्, सचित्तमचित्तं मिश्रमिति। सचित्तमर्हदादीनामनाद्यनिधनजीवद्रव्यम् । न केवलज्ञानादिमंगलपर्यायविशिष्टार्हंदादीनाम् जीवद्रव्यस्यैव ग्रहणं तस्य वर्तमानपर्यायोपलक्षितं द्रव्यं भावइति भाविनिक्षेपांतर्भावात् । न केवलज्ञानादिपर्यायाणां ग्रहणं तेषामपि भावरूपत्वात् । अचित्तमंगलं कृत्रिमाकृत्रिमचैत्यालयादि:, तत्स्थप्रतिमास्तु संस्थापनांतर्भावात् । अकृत्रिमाणां कथं स्थापनाव्यपदेश:। इति चेन्न, तत्रापि बुद्धया प्रतिनिधौ स्थापयितमुख्योपलंभात् । यथा अग्निरिव माणवकोऽग्नि: तथा स्थापनेव स्थापनेति तासां तद्वयपदेशोपपत्तेर्वा। तदुभयमपि मिश्रमंगलम् । =लौकिक मंगल (यहाँ मंगल का प्रकरण है) सचित्त-अचित्त और मिश्र के भेद से तीन प्रकार का है। इनमें सिद्धार्थ अर्थात् श्वेत सरसों, जल से भरा हुआ कलश, वंदनमाला, छत्र, श्वेतवर्ण और दर्पण आदि अचित्त मंगल हैं। और बालकन्या तथा उत्तम जातिका घोड़ा आदि सचित्त मंगल हैं।13। अलंकार सहित कन्या आदि मिश्रमंगल समझना चाहिए। (देखें मंगल - 1.4)। लोकोत्तर मंगल भी सचित्त अचित्त और मिश्र के भेद से तीन प्रकार का है। अर्हंतादि का अनादि अनिधन जीवद्रव्य सचित्त लोकोत्तर नोआगम तद्व्यतिरिक्तद्रव्य मंगल है। यहाँ पर केवलज्ञानादि मंगलपर्याययुक्त अर्हंत आदि का ग्रहण नहीं करना चाहिए, किंतु उनके सामान्य जीव द्रव्य का ही ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि वर्तमानपर्याय सहित द्रव्य का भाव निक्षेप में अंतर्भाव होता है। उसी प्रकार केवलज्ञानादि पर्यायों का भी इसमें ग्रहण नहीं होता, क्योंकि वे सब पर्यायें भावस्वरूप होने के कारण उनका भी भाव निक्षेप में ही अंतर्भाव होगा। कृत्रिम और अकृत्रिम चैत्यालयादि अचित्त लोकोत्तर नोआगम तद्व्यतिरिक्त द्रव्यमंगल हैं। उनमें स्थित प्रतिमाओं का इस निक्षेप में ग्रहण नहीं करना चाहिए; क्योंकि उनका स्थापना निक्षेप में अंतर्भाव होता है। प्रश्न–अकृत्रिम प्रतिमाओं में स्थापना का व्यवहार कैसे संभव है ? उत्तर–इस प्रकार की शंका उचित नहीं हैं; क्योंकि, अकृत्रिम प्रतिमाओं में भी बुद्धि के द्वारा प्रतिनिधित्व मान लेने पर ‘ये जिनेंद्रदेव हैं’ इस प्रकार के मुख्य व्यवहार की उपलब्धि होती है। अथवा अग्नि तुल्य तेजस्वी बालक को भी जिस प्रकार अग्नि कहा जाता है उसी प्रकार अकृत्रिम प्रतिमाओं में की गयी स्थापना के समान यह भी स्थापना है। इसलिए अकृत्रिम जिन प्रतिमाओं में स्थापना का व्यवहार हो सकता है। उन दोनों प्रकार के सचित्त और अचित्त मंगल को मिश्रमंगल कहते हैं (जैसे–साधु संघ सहित चैत्यालय)।
- तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्य सामान्य
- स्थित जित आदि भेदों के लक्षण
धवला 9/4,1,54/251/10 अवधृतमात्रं स्थितम्, जो पुरिसो भावागमम्मि वुड्ढओ गिलाणो व्व सणिं सणिं संचरदि सो तारिससंसकारजुत्तो पुरिसो तब्भावागमो च स्थित्वा वृत्ते: ट्ठिदं णाम। नैसंग्यवृत्तिर्जितम्, जेण संस्कारेण पुरिसो भावागमम्मि अक्खलिओ संचरइ तेण संजुत्तो पुरिसो तब्भावागमो च जिदमिदि भण्णदे। यत्र यत्र प्रश्न: क्रियते तत्र तत्र आशुतमवृत्ति: परिचितम्, क्रमेणोत्क्रमेणानुभयेन च भावागमांभोधौ मत्स्यवच्चटुलतमवृत्तिर्जीवो भावागमश्च परिचितम् । शिष्याध्यापनं वाचना। सा चतुर्विधा नंदा भद्रा जया सौम्या चेति। ...एतासां वाचनानामुपगतं वाचनोपगतं परप्रत्यायनसमर्थम् इति यावत् ।
धवला 9/4,1,54/259/7 तित्थयरवयणविणिग्गयबीजपदं सुत्तं। तेण सुत्तेण समं वट्टदि उप्पज्जदि त्ति गणहरदेवम्मिट्ठिदसुदणाणं सुत्तसमं। अर्यते परिच्छिद्यते गम्यते इत्यर्थो द्वादशांगविषय:, तेण अत्थेण समं सह वट्टदि त्ति अत्थसमं। दव्वसुदाइरिए अणवेक्खिय संजमजणिदसुदणाणावरणक्खओवसमसमुप्पण्णबारहंगसुदं सयंबुद्धाधारमत्थसममिदि वुत्तं होदि। गणहरदेवविरइददव्वसुदं गंथो, तेण सह वट्टदि उप्पज्जदि त्ति बोहियबुद्धाइरिएसु ट्ठिदबारहंगसुदणाणं गंथसमं। नाना मिनोतीति नाम। अणेणेहि, पयारेहि अत्थपरिच्छित्तिं णामभेदेण कुणदि त्ति एगादिअक्खराण बारसंगाणिओगाणं मज्झट्ठिददव्वसुदणाणवियप्पा णाममिदि वुत्तं होदि। तेण नामेण दव्वसुदेणं समं सट्टवट्टदि उप्पज्जदि त्ति सेसाइरिएसु ट्ठिदसुदणाणं णामसमं। ...सुई मुद्दा...पंचैते... अणिओगस्स घोससण्णो णामेगदेसेण अणिओगो वुच्चदे। सच्चभामापदेण अवगम्ममाणत्थस्स तदेगदेसभामासद्दादो वि अवगमादो।...घोसेण दव्वाणिओगद्दारेण समं सह वट्टदि उप्पज्जदि त्ति घोससमं णाम अणियोगसुदणाणं।- अवधारण किये हुए मात्र का नाम स्थितआगम है। अर्थात् जो पुरुष भावआगम में वृद्ध व व्याधिपीड़ित मनुष्य के समान धीरे-धीरे संचार करता है वह उस प्रकार के संस्कार से युक्त पुरुष और वह भावागम भी स्थित होकर प्रवृत्ति करने से अर्थात् रुक-रुककर चलने से स्थित कहलाता है।
- नैसर्ग्यवृत्ति का नाम जित है। अर्थात् जिस संस्कार से पुरुष भावागम में अस्खलितरूप से संचार करता है, उससे युक्त पुरुष और भावागम भी ‘जित’ इस प्रकार का कहा जाता है।
- जिस जिस विषय में प्रश्न किया जाता है, उस-उसमें शीघ्रतापूर्ण प्रवृत्ति का नाम परिचित है। अर्थात् क्रम से, अक्रम से और अनुभयरूप से भावागमरूपी समुद्र में मछली के समान अत्यंत चंचलतापूर्ण प्रवृत्ति करने वाला जीव और वह भावागम भी परिचित कहा जाता है।
- शिष्यों केा पढ़ाने का नाम वाचना है। वह चार प्रकार है–नंदा, भद्रा, जया और सौम्या। (विशेष देखें वाचना )। इन चार प्रकार की वाचनाओं को प्राप्त वाचनोपगत कहलाता है। अर्थात् जो दूसरों को ज्ञान कराने में समर्थ है वह वाचनोपगत है।
- तीर्थंकर के मुख से निकला बीजपद सूत्र कहलाता है। (विशेष देखो आगम-7) उस सूत्र के साथ चूँकि रहता अर्थात् उत्पन्न होता है, अत: गणधरदेव में स्थित श्रुतज्ञान सूत्रसम कहा गया है।
- जो ‘अर्यते’ अर्थात् जाना जाता है वह द्वादशांग का विषयभूत अर्थ है, उस अर्थ के साथ रहने के कारण अर्थसम कहलाता है। द्रव्यश्रुत आचार्यों की अपेक्षा न करके संयम से उत्पन्न हुए श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से जन्य स्वयंबुद्धों में रहने वाला द्वादशांगश्रुत अर्थसम है यह अभिप्राय है।
- गणधरदेव से रचा गया द्रव्यश्रुत ग्रंथ कहा जाता है। उसके साथ रहने अर्थात् उत्पन्न होने के कारण बोधितबुद्ध आचार्यों में स्थित द्वादशांग श्रुतज्ञान ग्रंथसम कहलाता है।
- ‘नाना मिनोति’ अर्थात् नानारूप से जो जानता है उसे नाम कहते हैं। अर्थात् अनेक प्रकारों से अर्थज्ञान को नामभेद द्वारा भेद करने के कारण एक आदि अक्षरों स्वरूप बारह अंगों के अनुयोगों के मध्य में स्थित द्रव्यश्रुत ज्ञान के भेद नाम है, यह अभिप्राय है। उस नाम के अर्थात् द्रव्यश्रुत के साथ रहने अर्थात् उत्पन्न होने के कारण शेष आचार्यों में स्थित श्रुतज्ञान नामसम कहलाता है।
- सूची; मुद्रा आदि पाँच दृष्टांतों के वचन से (देखें अनुयोग - 2.1)...घोष संज्ञावाला अनुयोग का अनुयोग (घोषानुयोग) नाम का एकदेश होने से अनुयोग कहा जाता है; क्योंकि, सत्यभामा पद से अवगम्यमान अर्थ उक्तपद के एकदेशभूत भामा शब्द से भी जाना ही जाता है।...घोष अर्थात् द्रव्यानुयोगद्वार के समं अर्थात् साथ रहता है, अर्थात् उत्पन्न होता है, इस कारण अनुयोग श्रुतज्ञान घोषसम कहलाता है।
नोट–ये उपरोक्त नौ के नौ भेदों के लक्षण यहाँ भी दिये हैं–( धवला 9/4,1,62/62/268/5 ) ( धवला 14/5,6,12/7-9 )।
- ग्रंथिम आदि भेदों के लक्षण
धवला 9/4,1,65/272/13 तत्थ गंथणकिरियाणिप्फण्णं फुल्लमादिदव्वं गंथिमं णाम। वायणकिरियाणिप्फण्णं सुप्प-पच्छियाचं गेरि-किदय-चालणि-कंबल-वत्थादिदव्वं वाइमं णाम। सुत्तिधुवकोसपल्लादिदव्वं वेदणकिरियाणिप्फण्णं वेदिमं णाम। तलावलि-जिणहराहिट्ठाणादिदव्वं पूरणकिरियाणिप्फण्णं पूरिमं णाम। कट्टिमजिणभवण घर-पायार-थूहादिदव्वं कट्टिट्ठय पत्थरादिसंघादणकिरियाणिप्पणं संघादिमं णाम। णिंबंबजंबुजंबीरादिदव्वं अहोदिमकिरियाणिप्फण्णमहोदिमं णाम। अहोदिमकिरियासचित्त-अचित्तदव्वाणं रोवणकिरिएत्ति वुत्तं होदि। पोक्खरिणी-वावी-कूव-तलाय-लेण-सुरुंगादिदव्वं णिक्खोदणकिरियाणिप्फण्णं णिक्खोदिमं णाम। णिक्खोदणं-खणणमिदिवुत्तं होदि। एक्क-दु-तिउणसुत्त-डोरावेट्ठादिदव्वमोवेल्लणकिरियाणिप्पण्णमोवेल्लिमं णाम। गंथिम-वाइमादिदव्वाणमुव्वेल्लणेण जाददव्वमुव्वेल्लिमं णाम। चित्तारयाणमण्णेसिं च वण्णुप्पायणकुसलाणं किरियाणिप्पण्णदव्वं णर-तुरयादिबहुसंठाणंवण्णंणामपिट्ठपिट्ठियाकणिकादिदव्वं चुण्णणकिरियाणिप्फण्णं चुण्णं णाम। बहूणं दव्वाणं संजोगेणुप्पाइदगंधपहाणं दव्वं गंधं णाम। घुट्ठ-पिट्ठ-चंदण-कुंकु-मादिदव्वं विलेवणं णाम।=- गूंथनेरूप क्रिया से सिद्ध हुए फूल आदि द्रव्य को ग्रंथिम कहते हैं।
- बुनना क्रिया से सिद्ध हुए सूप, पिटारी, चंगेर, कृतक, चालनी, कंबल और वस्त्र आदि द्रव्य वाइम कहलाते हैं।
- वेधन क्रिया से सिद्ध हुए सूति (सोम निकालने का स्थान) इंधुव (भट्ठी) कोश और पल्य आदि द्रव्य वेधिम कहे जाते हैं।
- पूरण क्रिया से सिद्ध हुए तालाब का बाँध व जिनग्रह का चबूतरा आदि द्रव्य का नाम पूरिम है।
- काष्ठ, ईंट और पत्थर आदि की संघातन क्रिया से सिद्ध हुए कृत्रिम जिनभवन, गृह, प्राकार और स्तूप आदि द्रव्य संघातिम कहलाते हैं।
- नीम, आम, जामुन और जंबीर आदि अधोधिम क्रिया से सिद्ध हुए द्रव्य को अधोधिन कहते हैं। अधोधिम क्रिया का अर्थ सचित्त और अचित्त द्रव्यों की रोपन क्रिया है। यह तात्पर्य है।
- पुष्कारिणी, वापी, कूप, तड़ाग, लयन और सुरंग आदि निष्खनन क्रिया से सिद्ध हुए द्रव्य णिक्खोदिम कहलाते हैं। णिक्खोदिम से अभिप्राय खोदना क्रिया से है।
- उपवेल्लन क्रिया से सिद्ध हुए एकगुणे, दुगुणे एवं तिगुणे सूत्र, डोरा व वेष्ट आदि द्रव्य उपवेल्लन कहलाते हैं।
- ग्रंथिम व वाइम आदि द्रव्यों के उद्वेल्लन से उत्पन्न हुए द्रव्य उद्वेल्लिम कहलाते हैं।
- चित्रकार एवं वर्णों के उत्पादन में निपुण दूसरों की क्रिया से सिद्ध मनुष्य, तुरंग आदि अनेक आकाररूप द्रव्य वर्ण कहे जाते हैं।
- चूर्णन क्रिया से सिद्ध हुए पिष्ट, पिष्टिका और कणिका आदि द्रव्य को चूर्ण कहते हैं।
- बहुत द्रव्यों के संयोग से उत्पादित गंध की प्रधानता रखने वाले द्रव्य का नाम गंध है।
- घिसे व पीसे गये चंदन और कंकुम आदि द्रव्य विलेपन कहे जाते हैं।
- द्रव्य निक्षेप सामान्य का लक्षण