वनराज: Difference between revisions
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<p> वनगिरि-नगर के भिल्लराज हरिविक्रम तथा भीलनी सुंदरी का पुत्र । लोहजंघ और श्रीषेण इसके दो मित्र थे । ये दोनों मित्र इसके लिए हेमाभनगर के राजा की पुत्री श्रीचंद्रा को हरकर सुरंग से ले आये थे । श्रीचंद्रा के भाई किन्नरमित्र और यक्षमित्र ने इसके दोनों मित्रों के साथ युद्ध भी किया था किंतु दोनों पराजित हो गये थे । श्रीचंद्र । इस घटना से इससे विरक्त हो गयी थी । समझाने पर भी सफलता प्राप्त न होने पर दोनों ओर से युद्ध होना निश्चित हो गया । हेमाभनगर के जीवंधरकुमार ने युद्ध को जीव-घातक जानकर उसे टालना चाहा । उन्होने सुदर्शन यक्ष का स्मरण किया । यक्ष ने तुरंत आकर श्रीचंद्रा जीवंधरकुमार को सौंप दी । इसे | <div class="HindiText"> <p class="HindiText"> वनगिरि-नगर के भिल्लराज हरिविक्रम तथा भीलनी सुंदरी का पुत्र । लोहजंघ और श्रीषेण इसके दो मित्र थे । ये दोनों मित्र इसके लिए हेमाभनगर के राजा की पुत्री श्रीचंद्रा को हरकर सुरंग से ले आये थे । श्रीचंद्रा के भाई किन्नरमित्र और यक्षमित्र ने इसके दोनों मित्रों के साथ युद्ध भी किया था किंतु दोनों पराजित हो गये थे । श्रीचंद्र । इस घटना से इससे विरक्त हो गयी थी । समझाने पर भी सफलता प्राप्त न होने पर दोनों ओर से युद्ध होना निश्चित हो गया । हेमाभनगर के जीवंधरकुमार ने युद्ध को जीव-घातक जानकर उसे टालना चाहा । उन्होने सुदर्शन यक्ष का स्मरण किया । यक्ष ने तुरंत आकर श्रीचंद्रा जीवंधरकुमार को सौंप दी । इसे छोड़ शेष सभी नगर लौट गये । यह युद्ध की इच्छा से खड़ा रहा । फलत: यह यक्ष द्वारा पकड़ा गया तथा जीवंधरकुमार द्वारा कैद किया गया । हरिविक्रम ने इसके पकड़े जाने से क्षुब्ध होकर युद्ध करना चाहा किंतु यक्ष ने उसे भी पकड़कर जीवंधरकुमार को सौंप दिया । इसे अंत में अपने पूर्वभव का स्मरण हो आया था । इसका श्रीचंद्रा के साथ पूर्वभव का स्नेह जानकर सभी शांत हो गये और पिता-पुत्र दोनों को मुक्त कर दिया गया तथा श्रीचंद्रा नंदाढ्य के साथ विवाह दी गयी थी । <span class="GRef"> महापुराण 75.478-521 </span></p> | ||
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Latest revision as of 15:21, 27 November 2023
वनगिरि-नगर के भिल्लराज हरिविक्रम तथा भीलनी सुंदरी का पुत्र । लोहजंघ और श्रीषेण इसके दो मित्र थे । ये दोनों मित्र इसके लिए हेमाभनगर के राजा की पुत्री श्रीचंद्रा को हरकर सुरंग से ले आये थे । श्रीचंद्रा के भाई किन्नरमित्र और यक्षमित्र ने इसके दोनों मित्रों के साथ युद्ध भी किया था किंतु दोनों पराजित हो गये थे । श्रीचंद्र । इस घटना से इससे विरक्त हो गयी थी । समझाने पर भी सफलता प्राप्त न होने पर दोनों ओर से युद्ध होना निश्चित हो गया । हेमाभनगर के जीवंधरकुमार ने युद्ध को जीव-घातक जानकर उसे टालना चाहा । उन्होने सुदर्शन यक्ष का स्मरण किया । यक्ष ने तुरंत आकर श्रीचंद्रा जीवंधरकुमार को सौंप दी । इसे छोड़ शेष सभी नगर लौट गये । यह युद्ध की इच्छा से खड़ा रहा । फलत: यह यक्ष द्वारा पकड़ा गया तथा जीवंधरकुमार द्वारा कैद किया गया । हरिविक्रम ने इसके पकड़े जाने से क्षुब्ध होकर युद्ध करना चाहा किंतु यक्ष ने उसे भी पकड़कर जीवंधरकुमार को सौंप दिया । इसे अंत में अपने पूर्वभव का स्मरण हो आया था । इसका श्रीचंद्रा के साथ पूर्वभव का स्नेह जानकर सभी शांत हो गये और पिता-पुत्र दोनों को मुक्त कर दिया गया तथा श्रीचंद्रा नंदाढ्य के साथ विवाह दी गयी थी । महापुराण 75.478-521