बोधपाहुड़ गाथा 12-13: Difference between revisions
From जैनकोष
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<div class=" | <div class="HindiBhavarth"><div>अर्थ - जो अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतवीर्य और अनंतसुख सहित हैं; शाश्वत अविनाशी सुखस्वरूप है; अदेह है-कर्म नोकर्मरूप पुद्गलमयी देह जिनके नहीं है; अष्टकर्म के बंधन से रहित है; उपमारहित है, जिसकी उपमा दी जाय ऐसी लोक में वस्तु नहीं है; अचल है, प्रदेशों का चलना जिनके नहीं है; अक्षोभ है, जिनके उपयोग में कुछ क्षोभ नहीं है, निश्चल है; जंगमरूप से निर्मित है, कर्म से निर्मुक्त होने के बाद एक समयमात्र गमनरूप होते हैं, इसलिए जंगमरूप से निर्मापित है; सिद्धस्थान जो लोक का अग्रभाग उसमें स्थित हैं; इसीलिए व्युत्सर्ग अर्थात् कायरहित है, जैसा पूर्व शरीर में आकार था वैसा ही प्रदेशों का आकार चरम शरीर से कुछ कम है; ध्रुव है, संसार से मुक्त हो (उसी समय) एकसमयमात्र गमन कर लोक के अग्रभाग में जाकर स्थित हो जाते हैं, फिर चलाचल नहीं होते हैं - ऐसी प्रतिमा ‘सिद्धभगवान’ है ।</div> | ||
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<div class="HindiBhavarth"><div>पहिले दो गाथाओं में तो जंगम प्रतिमा संयमी मुनियों की देहसहित कही । इन दो गाथाओं में ‘थिरप्रतिमा’ सिद्धों की कही, इसप्रकार जंगम थावर प्रतिमा का स्वरूप कहा । अन्य कई अन्यथा बहुत प्रकार से कल्पना करते हैं, वह प्रतिमा वंदन करने योग्य नहीं है ।</div> | <div class="HindiBhavarth"><div>भावार्थ - पहिले दो गाथाओं में तो जंगम प्रतिमा संयमी मुनियों की देहसहित कही । इन दो गाथाओं में ‘थिरप्रतिमा’ सिद्धों की कही, इसप्रकार जंगम थावर प्रतिमा का स्वरूप कहा । अन्य कई अन्यथा बहुत प्रकार से कल्पना करते हैं, वह प्रतिमा वंदन करने योग्य नहीं है ।</div> | ||
<div>यहाँ प्रश्न यह तो परमार्थस्वरूप कहा और बाह्य व्यवहार में पाषाणादिक की प्रतिमा की वंदना करते हैं, वह कैसे ? इसका समाधान - जो बाह्य व्यवहार में मतान्तर के भेद से अनेक रीति प्रतिमा की प्रवृत्ति है, यहाँ परमार्थ को प्रधान कर कहा है और व्यवहार है वहाँ जैसा प्रतिमा का परमार्थरूप हो उसी को सूचित करता हो वह निर्बाध है । जैसा परमार्थरूप आकार कहा वैसा ही आकाररूप व्यवहार हो वह व्यवहार भी प्रशस्त है; व्यवहारी जीवों के यह भी वंदन करने योग्य है । स्याद्वाद न्याय से सिद्ध किये गये परमार्थ और व्यवहार में विरोध नहीं है ॥१२-१३ ॥</div> | <div>यहाँ प्रश्न यह तो परमार्थस्वरूप कहा और बाह्य व्यवहार में पाषाणादिक की प्रतिमा की वंदना करते हैं, वह कैसे ? इसका समाधान - जो बाह्य व्यवहार में मतान्तर के भेद से अनेक रीति प्रतिमा की प्रवृत्ति है, यहाँ परमार्थ को प्रधान कर कहा है और व्यवहार है वहाँ जैसा प्रतिमा का परमार्थरूप हो उसी को सूचित करता हो वह निर्बाध है । जैसा परमार्थरूप आकार कहा वैसा ही आकाररूप व्यवहार हो वह व्यवहार भी प्रशस्त है; व्यवहारी जीवों के यह भी वंदन करने योग्य है । स्याद्वाद न्याय से सिद्ध किये गये परमार्थ और व्यवहार में विरोध नहीं है ॥१२-१३ ॥</div> | ||
<div>इसप्रकार जिनप्रतिमा का स्वरूप कहा ।</div> | <div>इसप्रकार जिनप्रतिमा का स्वरूप कहा ।</div> |
Latest revision as of 17:25, 2 November 2013
दंसणअणंतणाणं अणंतवीरिय अणंतसुक्खा य ।
सासयसुक्ख अदेहा मुक्का कम्मट्ठबंधेहिं ॥१२॥
णिरुवममचलमखोहा णिम्मिविया १जंगमेण रूवेण ।
सिद्धठ्ठाणम्मि ठिया वोसरपडिमा धुवा सिद्धा ॥१३॥
दर्शनानन्तज्ञानं अनन्तवीर्या: अनन्तसुखा: च ।
शाश्वतसुखा अदेहा मुक्ता: कर्माष्टकबन्धै: ॥१२॥
निरुपमा अचला अक्षोभा: निर्मापिता जङ्गमेन रूपेण ।
सिद्धस्थाने स्थिता: व्युत्सर्गप्रतिमा ध्रुवा: सिद्धा: ॥१३॥
आगे फिर कहते हैं -
अर्थ - जो अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतवीर्य और अनंतसुख सहित हैं; शाश्वत अविनाशी सुखस्वरूप है; अदेह है-कर्म नोकर्मरूप पुद्गलमयी देह जिनके नहीं है; अष्टकर्म के बंधन से रहित है; उपमारहित है, जिसकी उपमा दी जाय ऐसी लोक में वस्तु नहीं है; अचल है, प्रदेशों का चलना जिनके नहीं है; अक्षोभ है, जिनके उपयोग में कुछ क्षोभ नहीं है, निश्चल है; जंगमरूप से निर्मित है, कर्म से निर्मुक्त होने के बाद एक समयमात्र गमनरूप होते हैं, इसलिए जंगमरूप से निर्मापित है; सिद्धस्थान जो लोक का अग्रभाग उसमें स्थित हैं; इसीलिए व्युत्सर्ग अर्थात् कायरहित है, जैसा पूर्व शरीर में आकार था वैसा ही प्रदेशों का आकार चरम शरीर से कुछ कम है; ध्रुव है, संसार से मुक्त हो (उसी समय) एकसमयमात्र गमन कर लोक के अग्रभाग में जाकर स्थित हो जाते हैं, फिर चलाचल नहीं होते हैं - ऐसी प्रतिमा ‘सिद्धभगवान’ है ।
भावार्थ - पहिले दो गाथाओं में तो जंगम प्रतिमा संयमी मुनियों की देहसहित कही । इन दो गाथाओं में ‘थिरप्रतिमा’ सिद्धों की कही, इसप्रकार जंगम थावर प्रतिमा का स्वरूप कहा । अन्य कई अन्यथा बहुत प्रकार से कल्पना करते हैं, वह प्रतिमा वंदन करने योग्य नहीं है ।
यहाँ प्रश्न यह तो परमार्थस्वरूप कहा और बाह्य व्यवहार में पाषाणादिक की प्रतिमा की वंदना करते हैं, वह कैसे ? इसका समाधान - जो बाह्य व्यवहार में मतान्तर के भेद से अनेक रीति प्रतिमा की प्रवृत्ति है, यहाँ परमार्थ को प्रधान कर कहा है और व्यवहार है वहाँ जैसा प्रतिमा का परमार्थरूप हो उसी को सूचित करता हो वह निर्बाध है । जैसा परमार्थरूप आकार कहा वैसा ही आकाररूप व्यवहार हो वह व्यवहार भी प्रशस्त है; व्यवहारी जीवों के यह भी वंदन करने योग्य है । स्याद्वाद न्याय से सिद्ध किये गये परमार्थ और व्यवहार में विरोध नहीं है ॥१२-१३ ॥
इसप्रकार जिनप्रतिमा का स्वरूप कहा ।