सागार: Difference between revisions
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<p><span class=" | <span class="GRef"> चारित्तपाहुड़/ मूल/21,23 </span><span class="PrakritText">सायारं सग्गंथे...।21। पंचेवाणुव्वयाइं गुणव्वयाइं हवंति तह तिण्णि। सिक्खावय चत्तारि य संजमचरणं च सायार।23।</span> =<span class="HindiText">सागार संयमाचरण परिग्रह सहित श्रावक के होता है।21। अणुव्रत पाँच, गुणव्रत तीन और शिक्षाव्रत चार ऐसे 12 प्रकार का संयमाचरण चारित्र सो सागार है-विशेष देखें [[ व्रत प्रतिमा ]]। <span class="GRef">( सागार धर्मामृत/1/12 )</span>।</span> | ||
<p><span class=" | <p><span class="GRef">पद्मनन्दि पंचविंशतिका/1/13 </span> <span class="SanskritText">आराध्यंते जिनेंद्रा गुरुषु च विनतिर्धार्मिकै: प्रीतिरुच्चै: पात्रेभ्यो दानमापन्निहतजनकृते तच्च कारुण्यबुद्धया। तत्त्वाभ्यास: स्वकीयव्रतरतिरमलं दर्शनं यत्र पूज्यं, तद्गार्हस्थ्यं बुधानामितरदिह पुनर्दु:खदो मोहपाश:।13।...एकादश स्थानानीति गृहिव्रते व्यसनितात्यागस्तदाद्य: स्मृत:।14।</span> =<span class="HindiText">जिस गृहस्थ अवस्था में जिनेंद्र की आराधना की जाती है, निर्ग्रंथ गुरुओं के प्रति विनय, धर्मात्माओं के प्रति प्रीति व वात्सल्य, पात्रों को दान, आपत्ति ग्रस्त पुरुषों को दया बुद्धि से दान, तत्त्वों का परिशीलन, व्रतों व गृहस्थ धर्म से प्रेम तथा निर्मल सम्यग्दर्शन धारण करना, ये सब किया जाता है वह गृहस्थ अवस्था विद्वानों के लिए पूजने के योग्य है अन्यथा दु:खरूप है। श्रावक धर्म में ग्यारह प्रतिमाएँ निर्दिष्ट की गयी हैं। उस सबके आदि में द्यूतादि व्यसनों का त्याग स्मरण किया गया है।14। (विशेष देखें [[ श्रावक ]])।</span></p> | ||
<p><span class="GRef"> सागार धर्मामृत/1/2 </span><span class="SanskritText">अनाद्यविद्यादोषोत्थचतु:संज्ञाज्वरातुरा:। शश्वत्स्वज्ञानविमुखा: सागारा विषयोन्मुखा:।2।</span> =<span class="HindiText">अनादिकालीन अविद्यारूपी वात पित्त कफ से उत्पन्न आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इन चार संज्ञारूपी ज्वरों से दु:खी और सदा अपने आत्मज्ञान से विमुख तथा पंचेंद्रिय के विषयों के उन्मुख, ऐसे सागार होते हैं। अर्थात् सकल परिग्रह सहित घर में रहने वाले सागार होते हैं।</span></p> | |||
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Latest revision as of 15:30, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
चारित्तपाहुड़/ मूल/21,23 सायारं सग्गंथे...।21। पंचेवाणुव्वयाइं गुणव्वयाइं हवंति तह तिण्णि। सिक्खावय चत्तारि य संजमचरणं च सायार।23। =सागार संयमाचरण परिग्रह सहित श्रावक के होता है।21। अणुव्रत पाँच, गुणव्रत तीन और शिक्षाव्रत चार ऐसे 12 प्रकार का संयमाचरण चारित्र सो सागार है-विशेष देखें व्रत प्रतिमा । ( सागार धर्मामृत/1/12 )।
पद्मनन्दि पंचविंशतिका/1/13 आराध्यंते जिनेंद्रा गुरुषु च विनतिर्धार्मिकै: प्रीतिरुच्चै: पात्रेभ्यो दानमापन्निहतजनकृते तच्च कारुण्यबुद्धया। तत्त्वाभ्यास: स्वकीयव्रतरतिरमलं दर्शनं यत्र पूज्यं, तद्गार्हस्थ्यं बुधानामितरदिह पुनर्दु:खदो मोहपाश:।13।...एकादश स्थानानीति गृहिव्रते व्यसनितात्यागस्तदाद्य: स्मृत:।14। =जिस गृहस्थ अवस्था में जिनेंद्र की आराधना की जाती है, निर्ग्रंथ गुरुओं के प्रति विनय, धर्मात्माओं के प्रति प्रीति व वात्सल्य, पात्रों को दान, आपत्ति ग्रस्त पुरुषों को दया बुद्धि से दान, तत्त्वों का परिशीलन, व्रतों व गृहस्थ धर्म से प्रेम तथा निर्मल सम्यग्दर्शन धारण करना, ये सब किया जाता है वह गृहस्थ अवस्था विद्वानों के लिए पूजने के योग्य है अन्यथा दु:खरूप है। श्रावक धर्म में ग्यारह प्रतिमाएँ निर्दिष्ट की गयी हैं। उस सबके आदि में द्यूतादि व्यसनों का त्याग स्मरण किया गया है।14। (विशेष देखें श्रावक )।
सागार धर्मामृत/1/2 अनाद्यविद्यादोषोत्थचतु:संज्ञाज्वरातुरा:। शश्वत्स्वज्ञानविमुखा: सागारा विषयोन्मुखा:।2। =अनादिकालीन अविद्यारूपी वात पित्त कफ से उत्पन्न आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इन चार संज्ञारूपी ज्वरों से दु:खी और सदा अपने आत्मज्ञान से विमुख तथा पंचेंद्रिय के विषयों के उन्मुख, ऐसे सागार होते हैं। अर्थात् सकल परिग्रह सहित घर में रहने वाले सागार होते हैं।
पुराणकोष से
गृहस्थ । चक्रवर्ती भरतेश ने परीक्षा करके इनके दो भेद किये थे― व्रती और अव्रती । इनमें उन्होने व्रती गृहस्थों को सम्मानित किया था तथा इन्हें इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप ये छ: कर्म करने का उपदेश भी दिया था । महापुराण 38.7-24