दर्शन उपयोग 1: Difference between revisions
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<li class="HindiText"> निराकार व निर्विकल्प।–देखें [[ आकार व विकल्प ]]।<br /></li> | <li class="HindiText"> निराकार व निर्विकल्प।–देखें [[ आकार]] व [[विकल्प ]]।<br /></li> | ||
<li class="HindiText"> स्वभाव-विभाव दर्शन अथवा कारण-कार्यदर्शन निर्देश।–देखें [[ उपयोग#I.1 | उपयोग - I.1]]।<br /></li> | <li class="HindiText"> स्वभाव-विभाव दर्शन अथवा कारण-कार्यदर्शन निर्देश।–देखें [[ उपयोग#I.1 | उपयोग - I.1]]।<br /></li> | ||
<li class="HindiText"> सम्यक्त्व व श्रद्धा के अर्थ में दर्शन।–देखें [[ सम्यग्दर्शन#I.1 | सम्यग्दर्शन - I.1]]।<br /></li> | <li class="HindiText"> सम्यक्त्व व श्रद्धा के अर्थ में दर्शन।–देखें [[ सम्यग्दर्शन#I.1 | सम्यग्दर्शन - I.1]]।<br /></li> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong>[[ दर्शन उपयोग 1#2 | ज्ञान व दर्शन में अंतर ]]</strong><br /></span> | ||
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<li class="HindiText"> [[ दर्शन उपयोग 1#2.1 | दर्शन के लक्षण में देखने का अर्थ ज्ञान नहीं। ]]<br /></li> | <li class="HindiText"> [[ दर्शन उपयोग 1#2.1 | दर्शन के लक्षण में देखने का अर्थ ज्ञान नहीं। ]]<br /></li> | ||
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<li class="HindiText"> ज्ञान भी कथंचित् आत्मा को जानता है।–देखें [[ दर्शन#2.6 | दर्शन - 2.6]]।<br /></li> | <li class="HindiText"> ज्ञान भी कथंचित् आत्मा को जानता है।–देखें [[ दर्शन उपयोग 1#2.6 | दर्शन - 2.6]]।<br /></li> | ||
<li class="HindiText"> ज्ञान को ही द्विस्वभावी नहीं माना जा सकता।–देखें [[ दर्शन#5.9 | दर्शन - 5.9]]।<br /></li> | <li class="HindiText"> ज्ञान को ही द्विस्वभावी नहीं माना जा सकता।–देखें [[ दर्शन उपयोग 1#5.9 | दर्शन - 5.9]]।<br /></li> | ||
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<li class="HindiText"> दर्शन व ज्ञान के लक्षणों का समन्वय।–देखें [[ दर्शन#4.7 | दर्शन - 4.7]]।<br /> | <li class="HindiText"> दर्शन व ज्ञान के लक्षणों का समन्वय।–देखें [[ दर्शन उपयोग 1#4.7 | दर्शन - 4.7]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> [[ दर्शन उपयोग 1#2. | <li class="HindiText"> [[ दर्शन उपयोग 1#2.9 | दर्शन और अवग्रह ज्ञान में अंतर। ]]<br /></li> | ||
<li class="HindiText"> [[ दर्शन उपयोग 1#2. | <li class="HindiText"> [[ दर्शन उपयोग 1#2.10 | दर्शन व संग्रहनय में अंतर। ]]<br /></li> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong> [[ दर्शन उपयोग 1#3 | दर्शन व ज्ञान की क्रम व अक्रम प्रवृत्ति ]]</strong><br /></span> | ||
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<li class="HindiText"> [[ दर्शन उपयोग 1#3.1 | छद्मस्थों को दर्शन व ज्ञान क्रमपूर्वक होते हैं और केवली को अक्रम। ]]<br /></li> | <li class="HindiText"> [[ दर्शन उपयोग 1#3.1 | छद्मस्थों को दर्शन व ज्ञान क्रमपूर्वक होते हैं और केवली को अक्रम। ]]<br /></li> | ||
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<li class="HindiText"> अक्रमवृत्ति होने पर भी केवलदर्शन का उत्कृष्टकाल अंतर्मुहूर्त कहने का कारण।–देखें [[ दर्शन#3. | <li class="HindiText"> अक्रमवृत्ति होने पर भी केवलदर्शन का उत्कृष्टकाल अंतर्मुहूर्त कहने का कारण।–देखें [[ दर्शन उपयोग 1#3.2 | दर्शन - 3.2]]।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong> [[ दर्शन उपयोग 1#4 | दर्शनोपयोग सिद्धि ]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText"> दर्शन प्रमाण है।–देखें [[ दर्शन#4.1 | दर्शन - 4.1]]।<br /> | <li class="HindiText"> दर्शन प्रमाण है।–देखें [[ दर्शन उपयोग 1#4.1 | दर्शन - 4.1]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> दर्शन का अर्थ स्वरूप संवेदन करने पर सभी जीव सम्यग्दृष्टि हो जायेंगे।–देखें [[ सम्यग्दर्शन#I.1 | सम्यग्दर्शन - I.1]]।<br /> | <li class="HindiText"> दर्शन का अर्थ स्वरूप संवेदन करने पर सभी जीव सम्यग्दृष्टि हो जायेंगे।–देखें [[ सम्यग्दर्शन#I.1 | सम्यग्दर्शन - I.1]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> यदि आत्मग्राहक ही दर्शन है तो चक्षु आदि दर्शनों की बाह्यार्थाश्रित प्ररूपणा क्यों की।–देखें [[ दर्शन#5.3 | दर्शन - 5.3]], | <li class="HindiText"> यदि आत्मग्राहक ही दर्शन है तो चक्षु आदि दर्शनों की बाह्यार्थाश्रित प्ररूपणा क्यों की।–देखें [[ दर्शन उपयोग 1#5.3 | दर्शन - 5.3]], [[ दर्शन उपयोग 1#5.4 | दर्शन - 5.4]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> यदि दर्शन बाह्यार्थ को नहीं जानता तो सर्वांधत्व का प्रसंग आता है।–देखें [[ दर्शन#2.7 | दर्शन - 2.7]]।<br /> | <li class="HindiText"> यदि दर्शन बाह्यार्थ को नहीं जानता तो सर्वांधत्व का प्रसंग आता है।–देखें [[ दर्शन उपयोग 1#2.7 | दर्शन - 2.7]]।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong> [[ दर्शन उपयोग 1#5 | दर्शनोपयोग के भेदों का निर्देश ]]</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong> [[ दर्शन उपयोग 1#6 | श्रुत विभंग व मन:पर्यय के दर्शनों संबंधी ]]</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong> [[ दर्शन उपयोग 1#7| दर्शनोपयोग संबंधी कुछ प्ररूपणाएँ ]]</strong> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1" id="1"> दर्शनोपयोग निर्देश</strong> <strong> </strong> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> दर्शन का आध्यात्मिक अर्थ</strong></span><br> | ||
दर्शनपाहुड़/ | <span class="GRef"> दर्शनपाहुड़/मूल/14</span> <span class="PrakritGatha">दुविहं पि गंथचायं तीसु वि जोएसु संजमो ठादि। णाणम्मि करणसुद्धे उब्भसणे दंसणं होई।14।</span> =<span class="HindiText">बाह्याभ्यंतर परिग्रह का त्याग होय, तीनों योगविषै संयम होय, तीन करण जामें शुद्ध होय, ऐसा ज्ञान होय, बहुरि निर्दोष खड़ा पाणिपात्र आहार करै, ऐसे मूर्तिमंत दर्शन होय।</span><br/> | ||
<li | <span class="GRef"> बोधपाहुड़/मूल/14</span> <span class="PrakritGatha">दंसेइ मोक्खमग्गं सम्मत्तसंयमं सुधम्मं च। णिग्गंथणाणमयं जिणमग्गे दंसणं भणियं।14।</span>=<span class="HindiText">जो मोक्षमार्ग को दिखावे सो दर्शन है। वह मोक्षमार्ग सम्यक्त्व, संयम और उत्तमक्षमादि सुधर्म रूप है। तथा बाह्य में निर्ग्रंथ और अंतरंग में ज्ञानमयी ऐसे मुनि के रूप को जिनमार्ग में दर्शन कहा है। <br/> | ||
<li | <span class="GRef">दर्शनपाहुड़/ पं.जयचंद/1/3/10</span> दर्शन कहिये मत <span class="GRef">(दर्शनपाहुड़/ पं.जयचंद/14/26/3)</span><br/> | ||
<span class="GRef"> दर्शनपाहुड़/ पं.जयचंद/2/5/2 </span> दर्शन नाम देखने का है। ऐसे (उपरोक्त प्रकार) धर्म की मूर्ति (दिगंबर मुनि) देखने में आवै सो दर्शन है, सो प्रसिद्धता से जामें धर्म का ग्रहण होय ऐसा मतकूं दर्शन ऐसा नाम है। </span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2">दर्शन का व्युत्पत्ति अर्थ</strong> </span><br> | |||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/1/1/6/1</span> <span class="SanskritText">पश्यति दृश्यतेऽनेन दृष्टिमात्रं वा दर्शनम् </span>=<span class="HindiText">दर्शन शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है–जो देखता है, जिसके द्वारा देखा जाये अथवा देखनामात्र। <span class="GRef">(गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/483/889/2 )</span></span><br> | |||
<span class="GRef">राजवार्तिक/1/1/ वार्तिक नं.पृष्ठ नं./पंक्ति नं.</span><span class="SanskritText">पश्यति वा येन तद् दर्शनं। (1/1/4/4/24)। एवंभूतनयवक्तव्यवशात् – दर्शनपर्यायपरिणत आत्मैव...दर्शनम् (1/1/5/5/1) पश्यतीति दर्शनम् । (1/1/24/9/1)। दृष्टिर्दर्शनम्/(1/1/26/9/12)। </span>=<span class="HindiText">जिससे देखा जाये वह दर्शन है। एवंभूतनय की अपेक्षा दर्शनपर्याय से परिणत आत्मा ही दर्शन है। जो देखता है सो दर्शन है। देखना मात्र ही दर्शन है। </span> <span class="GRef">धवला 1/1,1,4/145/3</span> <span class="SanskritText">दृश्यतेऽनेनेति दर्शनम् ।</span> =<span class="HindiText">जिसके द्वारा देखा जाये या अवलोकन किया जाये उसे दर्शन कहते हैं।</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> दर्शनोपयोग के अनेकों लक्षण</strong> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.3.1" id="1.3.1"> विषयविषयी सन्निपात होने पर ‘कुछ है’ इतना मात्र ग्रहण।</strong></span><br> सर्वार्थसिद्धि/1/15/111/3 <span class="SanskritText">विषयविषयिसंनिपाते सति दर्शनं भवति। </span>=<span class="HindiText">विषय और विषयी का सन्निपात होने पर दर्शन होता है।</span> ( राजवार्तिक/1/15/1/60/2 ); (तत्त्वार्थवृत्ति/1/15)। धवला 1/1,1,4/149/2 <span class="SanskritText">विषयविषयिसंपातात् पूर्वावस्था दर्शनमित्यर्थ:।</span><br> धवला 11/4,2,6,205/333/7 <span class="PrakritText">सा बज्झत्थग्गहणुम्मुहावत्था चेव दंसणं, किंतु बज्झत्थग्गहणुवसंहरणपढमसमयप्पहुडि जाब बज्झत्थअग्गहणचरिमसमिओ त्ति दंसणुवजोगो त्ति घेत्तव्वं। </span>=<span class="HindiText">1. विषय और विषयी के योग्य देश में होने की पूर्वावस्था को दर्शन कहते हैं। बाह्य अर्थ के ग्रहण के उन्मुख होनेरूप जो अवस्था होती है, वही दर्शन हो, ऐसी बात भी नहीं है; किंतु बाह्यार्थग्रहण के उपसंहार के प्रथम समय से लेकर बाह्यार्थ के अग्रहण के अंतिम समय तक दर्शनोपयोग होता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए।</span> (विशेष देखें [[ दर्शन उपयोग 1#2.9 | दर्शन - 2.9]])। सप्तभंगीतरंगिणी/47/9 <span class="SanskritText">दर्शनस्य किंस्विदित्यादिरूपेणाकारग्रहणम् स्वरूपम् ।</span>=<span class="HindiText">विशेषण विशेष्यभाव से शून्य ‘कुछ है’ इत्यादि आकार का ग्रहण दर्शन का स्वरूप है।</span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.3.2" id="1.3.2"> सामान्य मात्र का ग्राही</strong></span><br> पं.सं./मू./1/138 <span class="PrakritText">जं सामण्णं गहणं भावाणं णेव कट्टु आयारं। अविसेसिऊण अत्थं दंसणमिदि भण्णदे समए।</span> =<span class="HindiText">सामान्य विशेषात्मक पदार्थों के आकार विशेष को ग्रहण न करके जो केवल निर्विकल्प रूप से अंश का या स्वरूपमात्र का सामान्य ग्रहण होता है, उसे परमागम में दर्शन कहते हैं। <span class="GRef">( धवला 1/1,14/ गा.93/149); ( धवला 7/5,5,56/ गा.19/100); ( परमात्मप्रकाश/ मूल /2/34); ( गोम्मटसार जीवकांड मूल /482/888); ( द्रव्यसंग्रह/43 )</span>।<br> | ||
देखें [[ दर्शन#4.3 | देखें [[ दर्शन उपयोग 1#4.3 | दर्शन - 4.3]](यह अमुक पदार्थ है यह अमुक पदार्थ है, ऐसी व्यवस्था किये बिना जानना ही आकार का न ग्रहण करना है)।</span> <span class="GRef">गोम्मटसार जीवकांड/483/889</span> <span class="PrakritGatha">भावाणं सामण्णविसेसयाणं सरूवमेत्तं जं। वण्णहीणग्गहणं जीवेण य दंसणं होदि।483। </span>=<span class="HindiText">सामान्य विशेषात्मक जे पदार्थ तिनिका स्वरूपमात्र भेद रहित जैसे है तैसे जीवकरि सहित जो स्वपर सत्ता का प्रकाशना सो दर्शन है।</span><br> द्रव्यसंग्रह टीका/43/186/10 <span class="SanskritText"> अयमत्र भाव:–यदा कोऽनि किमप्यवलोकयति पश्यति; तदा यावत् विकल्पं न करोति तावत् सत्तामात्रग्रहणं दर्शनं भण्यते। पश्चाच्छुक्लादिविकल्पे जाते ज्ञानमिति।</span> =<span class="HindiText">तात्पर्य यह है कि–जब कोई भी किसी पदार्थ को देखता है, तब जब तक वह देखने वाला विकल्प न करे तब तक तो जो सत्तामात्र का ग्रहण है उसको दर्शन कहते हैं। और फिर जब यह शुक्ल है, यह कृष्ण इत्यादि रूप से विकल्प उत्पन्न होते हैं तब उसको ज्ञान कहते हैं। </span> <span class="GRef">स्याद्वादमंजरी/1/10/22</span> <span class="SanskritText">सामान्यप्रधानमुपसर्जनीकृतविशेषमर्थग्रहणं दर्शनमुच्यते। तथा प्रधानविशेषमुपसर्जनीकृतसामान्यं च ज्ञानमिति।</span> =<span class="HindiText">सामान्य की मुख्यतापूर्वक विशेष को गौण करके पदार्थ के जानने को दर्शन कहते हैं और विशेष की मुख्तापूर्वक सामान्य को गौण करके पदार्थ के जानने को ज्ञान कहते हैं।</span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.3.3" id="1.3.3"> उत्तर ज्ञान की उत्पत्ति के लिए व्यापार विशेष</strong> </span><br> | ||
<li | <span class="GRef"> धवला 1/1,1,4/149/1 </span> <span class="SanskritText"> प्रकाशवृत्तिर्वा दर्शनम् । अस्य गमनिका, प्रकाशो ज्ञानम् । तदर्थमात्मनो वृत्ति: प्रकाशवृत्तिस्तद्दर्शनमिति।</span> =<span class="HindiText">अथवा प्रकाश वृत्ति को दर्शन कहते हैं। इसका अर्थ इस प्रकार है, कि प्रकाश ज्ञान को कहते हैं, और उस ज्ञान के लिए जो आत्मा का व्यापार होता है, उसे प्रकाश वृत्ति कहते हैं। और वही दर्शन है।</span><br> धवला 3/1,2,161/457/2 <span class="SanskritText">उत्तरज्ञानोत्पत्तिनिमित्तप्रयत्नविशिष्टस्वसंवेदनस्य दर्शनत्वात् । </span>=<span class="HindiText">उत्तरज्ञान की उत्पत्ति के निमित्तभूत प्रयत्नविशिष्ट स्वसंवेदन को दर्शन माना है।</span> <span class="GRef">( द्रव्यसंग्रह टीका/44/189/5 ) </span><br/> | ||
<li | <span class="GRef"> धवला 6/1,9-1,16/32/8 </span> <span class="SanskritText">ज्ञानोत्पादकप्रयत्नानुविद्धस्वसंवेदो दर्शनं आत्मविशेषोपयोग इत्यर्थ:। नात्र ज्ञानोत्पादकप्रयत्नस्य तंत्रता, प्रयत्नरहितक्षीणावरणांतरंगोपयोगस्स अदर्शनत्वप्रसंगात् ।</span>=<span class="HindiText">ज्ञान का उत्पादन करने वाले प्रयत्न से संबद्ध स्वसंवेदन अर्थात् आत्मविषयक उपयोग को दर्शन कहते हैं। इस दर्शन में ज्ञान के उत्पादक प्रयंत की पराधीनता नहीं है। यदि ऐसा न माना जाये तो प्रयत्न रहित क्षीणावरण और अंतरंग उपयोग वाले केवली के अदर्शनत्व का प्रसंग आता है।</span></li> | ||
<li class="HindiText"><strong name="1.3.4" id="1.3.4"> आलोचन या स्वरूप संवेदन</strong></span><br> <span class="GRef">राजवार्तिक/9/7/11/604/11</span> <span class="SanskritText">दर्शनावरणक्षयक्षयोपशमाविर्भूतवृत्तिरालोचनं दर्शनम् । </span>=<span class="HindiText">दर्शनावरण के क्षय और क्षयोपशम से होने वाला आलोचन दर्शन है।</span><br> <span class="GRef">धवला 1/1,1,4/148/6 </span> <span class="SanskritText">आलोकनवृत्तिर्वा दर्शनम् । अस्य गमनिका, आलोकत इत्यालोकनमात्मा, वर्तनं वृत्ति:, आलोकनस्य वृत्तिरालोकनवृत्ति: स्वसंवेदनं, तद्दर्शनमिति लक्ष्यनिर्देश:।</span> =<span class="HindiText">आलोकन अर्थात् आत्मा के व्यापार को दर्शन कहते हैं। इसका अर्थ यह है कि जो आलोकन करता है उसे आलोकन या आत्मा कहते हैं और वर्तन अर्थात् वृत्ति को आत्मा की वृत्ति कहते हैं। तथा आलोकन अर्थात् आत्मा की वृत्ति अर्थात् वेदनरूप व्यापार को आलोकन वृत्ति या स्वसंवेदन कहते हैं। और उसी को दर्शन कहते हैं। यहाँ पर दर्शन इस शब्द से लक्ष्य का निर्देश किया है। </span><br/> | |||
<span class="GRef">धवला 11/4,2,6,205/333/2</span> <span class="PrakritText">अंतरंगउवजोगो। ...वज्झत्थगहणसंते विसिट्ठसगसरूवसंवयणं दंसणमिदि सिद्धं। </span>=<span class="HindiText">अंतरंग उपयोग को दर्शनोपयोग कहते हैं। बाह्य अर्थ का ग्रहण होने पर जो विशिष्ट आत्मस्वरूप का वेदन होता है वह दर्शन है। <span class="GRef">( धवला 6/1,9-1,6/9/3 ); ( धवला 15/6/1 )</span>।</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="1.3.5" id="1.3.5"> अंतश्चित्प्रकाश</strong> </span><br> <span class="GRef">धवला 1/1,1,4/145/4 </span><span class="PrakritText"> अंतर्बहिर्मुखयोश्चित्प्रकाशयोर्दर्शनज्ञानव्यपदेशभाजो...।</span> =<span class="HindiText">अंतर्चित्प्रकाश को दर्शन और बहिर्चित्प्रकाश को ज्ञान माना है। <strong>नोट</strong>–(इस लक्षण संबंधी विशेष विस्तार के लिए देखो आगे [[दर्शन उपयोग 1#2 | दर्शन - 2]])।</span></li> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2" id="2"> ज्ञान व दर्शन में अंतर</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> दर्शन के लक्षण में देखने का अर्थ ज्ञान नहीं है</strong> </span><br /> | ||
धवला 1/1,1,4/145/3 <span class="SanskritText"> दृश्यतेऽनेनेति दर्शनम् । नाक्ष्णालोकेन चातिप्रसंगयोरनात्मधर्मत्वात् । दृश्यते ज्ञायतेऽनेनेति दर्शनमित्युच्यमाने ज्ञानदर्शनयोरविशेष: स्यादिति चेन्न, अंतर्बहिर्मुखयोश्चित्प्रकाशयोर्दर्शनज्ञानव्यपदेशभाजोरेकत्वविरोधात् ।</span> <span class="HindiText">=<strong>प्रश्न</strong>–‘‘जिसके द्वारा देखा जाये अर्थात् अवलोकन किया जाये उसे दर्शन कहते हैं’’, दर्शन का इस प्रकार लक्षण करने से, चक्षु इंद्रिय व आलोक भी देखने में सहकारी होने से, उनमें दर्शन का लक्षण चला जाता है, इसलिए अतिप्रसंग दोष आता है ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं आता, क्योंकि इंद्रिय और आलोक आत्मा के धर्म नहीं हैं। यहाँ चक्षु से द्रव्य चक्षु का ही ग्रहण करना चाहिए। <strong>प्रश्न–</strong>जिसके द्वारा देखा जाये, जाना जाये उसे दर्शन कहते हैं। दर्शन का इस प्रकार लक्षण करने पर, ज्ञान और दर्शन में कोई विशेषता नहीं रह जाती है, अर्थात् दोनों एक हो जाते हैं ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि अंतर्मुख चित्प्रकाश को दर्शन और बहिर्मुख चित्प्रकाश को ज्ञान माना है, इसलिए इन दोनों के एक होने में विरोध आता है।<br /> | धवला 1/1,1,4/145/3 <span class="SanskritText"> दृश्यतेऽनेनेति दर्शनम् । नाक्ष्णालोकेन चातिप्रसंगयोरनात्मधर्मत्वात् । दृश्यते ज्ञायतेऽनेनेति दर्शनमित्युच्यमाने ज्ञानदर्शनयोरविशेष: स्यादिति चेन्न, अंतर्बहिर्मुखयोश्चित्प्रकाशयोर्दर्शनज्ञानव्यपदेशभाजोरेकत्वविरोधात् ।</span> <span class="HindiText">=<strong>प्रश्न</strong>–‘‘जिसके द्वारा देखा जाये अर्थात् अवलोकन किया जाये उसे दर्शन कहते हैं’’, दर्शन का इस प्रकार लक्षण करने से, चक्षु इंद्रिय व आलोक भी देखने में सहकारी होने से, उनमें दर्शन का लक्षण चला जाता है, इसलिए अतिप्रसंग दोष आता है ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं आता, क्योंकि इंद्रिय और आलोक आत्मा के धर्म नहीं हैं। यहाँ चक्षु से द्रव्य चक्षु का ही ग्रहण करना चाहिए। <strong>प्रश्न–</strong>जिसके द्वारा देखा जाये, जाना जाये उसे दर्शन कहते हैं। दर्शन का इस प्रकार लक्षण करने पर, ज्ञान और दर्शन में कोई विशेषता नहीं रह जाती है, अर्थात् दोनों एक हो जाते हैं ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि अंतर्मुख चित्प्रकाश को दर्शन और बहिर्मुख चित्प्रकाश को ज्ञान माना है, इसलिए इन दोनों के एक होने में विरोध आता है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> अंतर्मुख व बहिर्मुख चित्प्रकाश का तात्पर्य–अनाकार व साकार ग्रहण</strong></span><br /> | ||
धवला 1/1,1,4/145/6 <span class="SanskritText"> सवतो व्यतिरिक्तबाह्यार्थावगति: प्रकाश इत्यंतर्बहिर्मुखयोश्चित्प्रकाशयोर्जानात्यनेनात्मानं बाह्यार्थमिति च ज्ञानमिति सिद्धत्वादेकत्वम्, ततो न ज्ञानदर्शनयोर्भेद इति चेन्न, ज्ञानादिव दर्शनात् प्रतिकर्मव्यवस्थाभावात् । </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–अपने से ‘भिन्न बाह्यपदार्थों के ज्ञान को प्रकाश कहते हैं, इसलिए अंतर्मुख चैतन्य और बहिर्मुख प्रकाश के होने पर जिसके द्वारा यह जीव अपने स्वरूप को और परपदार्थों को जानता है उसे ज्ञान कहते हैं। इस प्रकार की व्याख्या के सिद्ध हो जाने से ज्ञान और दर्शन में एकता आ जाती है, इसलिए उनमें भेद सिद्ध नहीं हो सकता है ? <strong>उत्तर</strong>–ऐसा नहीं है, क्योंकि जिस तरह ज्ञान के द्वारा ‘यह घट है’, यह पट है’ इत्यादि विशेष रूप से प्रतिनियत व्यवस्था होती है उस तरह दर्शन के द्वारा नहीं होती है, इसलिए इन दोनों में भेद है।</span><br /> | धवला 1/1,1,4/145/6 <span class="SanskritText"> सवतो व्यतिरिक्तबाह्यार्थावगति: प्रकाश इत्यंतर्बहिर्मुखयोश्चित्प्रकाशयोर्जानात्यनेनात्मानं बाह्यार्थमिति च ज्ञानमिति सिद्धत्वादेकत्वम्, ततो न ज्ञानदर्शनयोर्भेद इति चेन्न, ज्ञानादिव दर्शनात् प्रतिकर्मव्यवस्थाभावात् । </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–अपने से ‘भिन्न बाह्यपदार्थों के ज्ञान को प्रकाश कहते हैं, इसलिए अंतर्मुख चैतन्य और बहिर्मुख प्रकाश के होने पर जिसके द्वारा यह जीव अपने स्वरूप को और परपदार्थों को जानता है उसे ज्ञान कहते हैं। इस प्रकार की व्याख्या के सिद्ध हो जाने से ज्ञान और दर्शन में एकता आ जाती है, इसलिए उनमें भेद सिद्ध नहीं हो सकता है ? <strong>उत्तर</strong>–ऐसा नहीं है, क्योंकि जिस तरह ज्ञान के द्वारा ‘यह घट है’, यह पट है’ इत्यादि विशेष रूप से प्रतिनियत व्यवस्था होती है उस तरह दर्शन के द्वारा नहीं होती है, इसलिए इन दोनों में भेद है।</span><br /> | ||
कषायपाहुड़ 1/1-15/306/337/2 <span class="PrakritText">अंतरंगविसयस्स उवजोगस्स दंसणत्तब्भुवगमादो। तं कथं णव्वदे। अणायारत्तण्णहाणुववत्तीदो।</span> =<span class="HindiText">अंतरंग पदार्थ को विषय करने वाले उपयोग को दर्शन स्वीकार किया है। <strong>प्रश्न</strong>–दर्शन उपयोग का विषय अंतरंग पदार्थ है यह कैसे जाना जाता है ? <strong>उत्तर</strong>–यदि दर्शनोपयोग का विषय अंतरंग पदार्थ न माना जाये तो वह अनाकार नहीं बन सकता।<br /> | कषायपाहुड़ 1/1-15/306/337/2 <span class="PrakritText">अंतरंगविसयस्स उवजोगस्स दंसणत्तब्भुवगमादो। तं कथं णव्वदे। अणायारत्तण्णहाणुववत्तीदो।</span> =<span class="HindiText">अंतरंग पदार्थ को विषय करने वाले उपयोग को दर्शन स्वीकार किया है। <strong>प्रश्न</strong>–दर्शन उपयोग का विषय अंतरंग पदार्थ है यह कैसे जाना जाता है ? <strong>उत्तर</strong>–यदि दर्शनोपयोग का विषय अंतरंग पदार्थ न माना जाये तो वह अनाकार नहीं बन सकता।<br /> | ||
देखें [[ आकार#2.3 | आकार - 2.3 ]](‘मैं इस पदार्थ को जानता हूँ’ इस प्रकार का पृथग्भूत कर्ता कर्म नहीं पाये जाने से अंतरंग व निराकार उपयोग विषयाकार नहीं होता)</span><br /> | देखें [[ आकार#2.3 | आकार - 2.3 ]](‘मैं इस पदार्थ को जानता हूँ’ इस प्रकार का पृथग्भूत कर्ता कर्म नहीं पाये जाने से अंतरंग व निराकार उपयोग विषयाकार नहीं होता)</span><br /> | ||
द्रव्यसंग्रह टीका/44/189/7 <span class="SanskritText">यथा कोऽपि पुरुषो घटविषयविकल्पं कुर्वन्नास्ते, पश्चात् पटपरिज्ञानार्थं चित्ते जाते सति घटविकल्पाद् व्यावृत्त्य यत् स्वरूपे प्रयत्नमवलोकनं परिच्छेदनं करोति तद्दर्शनमिति। तदनंतरं पटोऽयमिति निश्चयं यद्बहिर्विषयरूपेण पदार्थग्रहणविकल्पं करोति तद् ज्ञानं भण्यते।</span> =<span class="HindiText">जैसे कोई पुरुष पहिले घट के विषय का विकल्प (मैं इस घट को जानता हूँ अथवा घट लाल है, इत्यादि) करता हुआ बैठा है। फिर उसी पुरुष का चित्त जब पट के जानने के लिए होता है, तब वह पुरुष घट के विकल्प से हटकर जो स्वरूप में प्रयत्न अर्थात् अवलोकन करता है, उसको दर्शन कहते हैं। उसके अनंतर ‘यह पट है’ इस प्रकार से निश्चय रूप जो बाह्य विषय रूप से पदार्थग्रहणस्वरूप विकल्प को करता है वह विकल्प ज्ञान कहलाता है। </span></li> | द्रव्यसंग्रह टीका/44/189/7 <span class="SanskritText">यथा कोऽपि पुरुषो घटविषयविकल्पं कुर्वन्नास्ते, पश्चात् पटपरिज्ञानार्थं चित्ते जाते सति घटविकल्पाद् व्यावृत्त्य यत् स्वरूपे प्रयत्नमवलोकनं परिच्छेदनं करोति तद्दर्शनमिति। तदनंतरं पटोऽयमिति निश्चयं यद्बहिर्विषयरूपेण पदार्थग्रहणविकल्पं करोति तद् ज्ञानं भण्यते।</span> =<span class="HindiText">जैसे कोई पुरुष पहिले घट के विषय का विकल्प (मैं इस घट को जानता हूँ अथवा घट लाल है, इत्यादि) करता हुआ बैठा है। फिर उसी पुरुष का चित्त जब पट के जानने के लिए होता है, तब वह पुरुष घट के विकल्प से हटकर जो स्वरूप में प्रयत्न अर्थात् अवलोकन करता है, उसको दर्शन कहते हैं। उसके अनंतर ‘यह पट है’ इस प्रकार से निश्चय रूप जो बाह्य विषय रूप से पदार्थग्रहणस्वरूप विकल्प को करता है वह विकल्प ज्ञान कहलाता है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="2.3" id="2.3"><strong> केवल सामान्य ग्राहक दर्शन और केवल विशेषग्राही ज्ञान–ऐसा नहीं है</strong> </span><br> धवला 1/1,1,4/146/3 <span class="SanskritText"> तर्ह्यस्त्वंतर्बाह्यसामांयग्रहणं दर्शनम्, विशेषग्रहणं ज्ञानमिति चेन्न, सामान्यविशेषात्मकस्य वस्तुनो विक्रमेणोपलंभात् । सीऽप्यवस्तु न कश्चिद्विरोध इति चेन्न, ‘हंदि दुवे णत्थि उवजोगा’ इत्यनेन सह विरोधात् । अपि च न ज्ञानं प्रमाणं सामान्यव्यतिरिक्तविशेषस्यार्थक्रियाकर्तृत्वं प्रत्यसमर्थत्वतोऽवस्तुनो ग्रहणात् । न तस्य ग्रहणमपि सामान्यव्यतिरिक्ते विशेषे ह्यवस्तुनि कर्तृकर्मरूपाभावात् । तत् एव न दर्शनमपि प्रमाणम् । </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–यदि ऐसा है तो (यदि दर्शन द्वारा प्रतिनियत घट पट आदि पदार्थों को नहीं जानता तो) अंतरंग सामान्य और बहिरंग सामान्य को ग्रहण करने वाला दर्शन है, और अंतर्बाह्य विशेष को ग्रहण करने वाला ज्ञान है, ऐसा मान लेना चाहिए ? <strong>उत्तर</strong>–ऐसा नहीं है, क्योंकि सामान्य और विशेषात्मक वस्तु का क्रम के बिना ही ग्रहण होता है। <strong>प्रश्न</strong>–यदि ऐसा है तो होने दो, क्योंकि क्रम के बिना भी सामान्य व विशेष का ग्रहण मानने में कोई विरोध नहीं है ? <strong>उत्तर</strong>–1. ऐसा नहीं है, क्योंकि, ‘छद्मस्थों के दोनों उपयोग एक साथ नहीं होते हैं’ इस कथन के साथ पूर्वोक्त कथन का विरोध आता है। (इस संबंधी विशेष देखो आगे ‘दर्शन/3’), ( धवला 13/5,5,19/208/3 ); ( धवला 6/1,9-1,16/33/8 ) 2. दूसरी बात यह है कि सामान्य को छोड़कर केवल विशेष अर्थ क्रिया करने में असमर्थ है। और जो अर्थ क्रिया करने में असमर्थ होता है वह अवस्तु रूप पड़ता है। ( कषायपाहुड़ 1/322/351/3 ) ( धवला 1/1,1,4/148/2 ); ( धवला 6/1,9-1,16/33/9 ), (देखें [[ सामान्य ]]) 3. उस (अवस्तु) का ग्रहण करने वाला ज्ञान प्रमाण नहीं हो सकता, और केवल विशेष का ग्रहण भी तो नहीं हो सकता है, क्योंकि, सामान्य रहित केवल विशेष में कर्ता कर्म रूप व्यवहार (मैं इसको जानता हूँ ऐसा भेद) नहीं बन सकता है। इस तरह केवल विशेष को ग्रहण करने वाले ज्ञान में प्रमाणता सिद्ध नहीं होने से केवल सामान्य को ग्रहण करने वाले दर्शन को भी प्रमाण नहीं मान सकते हैं। ( धवला 6/1,9-1,16/33/10 ), ( द्रव्यसंग्रह टीका/44/190/8 ) 4. और इस प्रकार दोनों उपयोगों का ही अभाव प्राप्त होता है। (देखें [[ | <li><span class="HindiText" name="2.3" id="2.3"><strong> केवल सामान्य ग्राहक दर्शन और केवल विशेषग्राही ज्ञान–ऐसा नहीं है</strong> </span><br> धवला 1/1,1,4/146/3 <span class="SanskritText"> तर्ह्यस्त्वंतर्बाह्यसामांयग्रहणं दर्शनम्, विशेषग्रहणं ज्ञानमिति चेन्न, सामान्यविशेषात्मकस्य वस्तुनो विक्रमेणोपलंभात् । सीऽप्यवस्तु न कश्चिद्विरोध इति चेन्न, ‘हंदि दुवे णत्थि उवजोगा’ इत्यनेन सह विरोधात् । अपि च न ज्ञानं प्रमाणं सामान्यव्यतिरिक्तविशेषस्यार्थक्रियाकर्तृत्वं प्रत्यसमर्थत्वतोऽवस्तुनो ग्रहणात् । न तस्य ग्रहणमपि सामान्यव्यतिरिक्ते विशेषे ह्यवस्तुनि कर्तृकर्मरूपाभावात् । तत् एव न दर्शनमपि प्रमाणम् । </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–यदि ऐसा है तो (यदि दर्शन द्वारा प्रतिनियत घट पट आदि पदार्थों को नहीं जानता तो) अंतरंग सामान्य और बहिरंग सामान्य को ग्रहण करने वाला दर्शन है, और अंतर्बाह्य विशेष को ग्रहण करने वाला ज्ञान है, ऐसा मान लेना चाहिए ? <strong>उत्तर</strong>–ऐसा नहीं है, क्योंकि सामान्य और विशेषात्मक वस्तु का क्रम के बिना ही ग्रहण होता है। <strong>प्रश्न</strong>–यदि ऐसा है तो होने दो, क्योंकि क्रम के बिना भी सामान्य व विशेष का ग्रहण मानने में कोई विरोध नहीं है ? <strong>उत्तर</strong>–1. ऐसा नहीं है, क्योंकि, ‘छद्मस्थों के दोनों उपयोग एक साथ नहीं होते हैं’ इस कथन के साथ पूर्वोक्त कथन का विरोध आता है। (इस संबंधी विशेष देखो आगे ‘दर्शन/3’), ( धवला 13/5,5,19/208/3 ); ( धवला 6/1,9-1,16/33/8 ) 2. दूसरी बात यह है कि सामान्य को छोड़कर केवल विशेष अर्थ क्रिया करने में असमर्थ है। और जो अर्थ क्रिया करने में असमर्थ होता है वह अवस्तु रूप पड़ता है। ( कषायपाहुड़ 1/322/351/3 ) ( धवला 1/1,1,4/148/2 ); ( धवला 6/1,9-1,16/33/9 ), (देखें [[ सामान्य ]]) 3. उस (अवस्तु) का ग्रहण करने वाला ज्ञान प्रमाण नहीं हो सकता, और केवल विशेष का ग्रहण भी तो नहीं हो सकता है, क्योंकि, सामान्य रहित केवल विशेष में कर्ता कर्म रूप व्यवहार (मैं इसको जानता हूँ ऐसा भेद) नहीं बन सकता है। इस तरह केवल विशेष को ग्रहण करने वाले ज्ञान में प्रमाणता सिद्ध नहीं होने से केवल सामान्य को ग्रहण करने वाले दर्शन को भी प्रमाण नहीं मान सकते हैं। ( धवला 6/1,9-1,16/33/10 ), ( द्रव्यसंग्रह टीका/44/190/8 ) 4. और इस प्रकार दोनों उपयोगों का ही अभाव प्राप्त होता है। (देखें आगे [[ दर्शन उपयोग 1#4 | दर्शन - 4]]) 5. (द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नय के बिना वस्तु का ग्रहण होने में विरोध आता है) </span>( धवला 13/5,5,19/208/4 ) धवला 6/1,9-1,16/33/6 <span class="SanskritText">बाह्यार्थसामान्यग्रहणं दर्शनमिति केचिदाचक्षते; तन्न; सामान्यग्रहणास्तित्वं प्रत्यविशेषत: श्रुतमन:पर्यययोरपि दर्शनस्यास्तित्वप्रसंगात् ।</span>=<span class="HindiText">6. बाह्य पदार्थ को सामान्य रूप से ग्रहण करना दर्शन है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। किंतु वह कथन समीचीन नहीं है, क्योंकि सामान्य ग्रहण के अस्तित्व के प्रति कोई विशेषता न होने से, श्रुतज्ञान और मन:पर्ययज्ञान, इन दोनों को भी दर्शन के अस्तित्व का प्रसंग आता है। (तथा इन दोनों के दर्शन माने नहीं गये हैं (देखें आगे [[ दर्शन उपयोग 1#4 | दर्शन - 4]])</span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="2.4" id="2.4"><strong> ज्ञान व दर्शन को केवल सामान्य या विशेषग्राही मानने से द्रव्य का जानना ही अशक्य है</strong> </span><br> धवला 7/2,1,56/97/1 <span class="PrakritText"> ण चासेसविसेसमेत्तग्गाही केवलणाणं चेव जेण सयलत्थसामण्ण केवलदंसणस्स विसओ होज्ज, संसारावत्थाए आवग्गवसेण कमेण पवट्टमाणणाणदंसणाणं दव्वागमाभावप्पसंगादो। कुदो। ण णाणं दव्वपरिच्छेदयं, सामण्णविदिरित्तविसेसेसु तस्स वावारादो। ण दंसणं पि दव्वपरिच्छेदयं, तस्स विसेसविदिरित्तसामण्णम्मि वावारादो। ण केवलं संसारावत्थाए चेव दव्वग्गहणाभावो, किंतु ण केवलिम्हि वि दव्वग्गहणमत्थि, सामण्णविसेसेसु एयंत दुरंतपंचसंठिएसु वावदाणं केवलदंसणणाणाणं दव्वम्मि, वावारविरोहादो। ण च एयंत सामण्णविसेसा अत्थि जेण तेसिं विसओ होज्ज। असंतस्स पमेयत्ते इच्छिज्जमाणे गद्दहसिंगं पि पमेयत्तमल्लिएज्ज, अभावं पडिविसेसाभावादो। पमेयाभावे ण पमाणं पि, तस्स तण्णिबंधणादो।</span> =<span class="HindiText">अशेष विशेषमात्र को ग्रहण करने वाला केवलज्ञान हो, ऐसा नहीं है, जिससे कि सकल पदार्थों का ज्ञान सामान्य धर्म केवल दर्शन का विषय हो जाये। क्योंकि ऐसा मानने से, ज्ञान दर्शन की क्रमप्रवृत्ति वाली संसारावस्था में द्रव्य के ज्ञान का अभाव होने का प्रसंग आता है। कैसे ?–ज्ञान तो द्रव्य को न जान सकेगा, क्योंकि सामान्य रहित केवल विशेष में ही उसका व्यापार परिमित हो गया है। दर्शन भी द्रव्य को नहीं जान सकता, क्योंकि विशेषों से रहित केवल सामान्य में उसका व्यापार परिमित हो गया है। केवल संसारावस्था में ही नहीं किंतु केवली में भी द्रव्य का ग्रहण नहीं हो सकेगा, क्योंकि, एकांतरूपी दुरंतपथ में स्थित सामान्य व विशेष में प्रवृत्त हुए केवलदर्शन और केवलज्ञान का (उभयरूप) द्रव्यमात्र में व्यापार मानने में विरोध आता है। एकांतत: पृथक् सामान्य व विशेष तो होते नहीं हैं, जिससे कि वे क्रमश: केवलदर्शन और केवलज्ञान के विषय हो सकें। और यदि असत् को भी प्रमेय मानोगे तो गधे का सींग भी प्रमेय कोटि में आ जायेगा, क्योंकि अभाव की अपेक्षा दोनों में कोई विशेषता नहीं रही। प्रमेय के न होने पर प्रमाण भी नहीं रहता, क्योंकि प्रमाण तो प्रमेयमूलक ही होता है। ( कषायपाहुड़/1/1-20/322/353/1; 324/356/1 )</span></li> | <li><span class="HindiText" name="2.4" id="2.4"><strong> ज्ञान व दर्शन को केवल सामान्य या विशेषग्राही मानने से द्रव्य का जानना ही अशक्य है</strong> </span><br> धवला 7/2,1,56/97/1 <span class="PrakritText"> ण चासेसविसेसमेत्तग्गाही केवलणाणं चेव जेण सयलत्थसामण्ण केवलदंसणस्स विसओ होज्ज, संसारावत्थाए आवग्गवसेण कमेण पवट्टमाणणाणदंसणाणं दव्वागमाभावप्पसंगादो। कुदो। ण णाणं दव्वपरिच्छेदयं, सामण्णविदिरित्तविसेसेसु तस्स वावारादो। ण दंसणं पि दव्वपरिच्छेदयं, तस्स विसेसविदिरित्तसामण्णम्मि वावारादो। ण केवलं संसारावत्थाए चेव दव्वग्गहणाभावो, किंतु ण केवलिम्हि वि दव्वग्गहणमत्थि, सामण्णविसेसेसु एयंत दुरंतपंचसंठिएसु वावदाणं केवलदंसणणाणाणं दव्वम्मि, वावारविरोहादो। ण च एयंत सामण्णविसेसा अत्थि जेण तेसिं विसओ होज्ज। असंतस्स पमेयत्ते इच्छिज्जमाणे गद्दहसिंगं पि पमेयत्तमल्लिएज्ज, अभावं पडिविसेसाभावादो। पमेयाभावे ण पमाणं पि, तस्स तण्णिबंधणादो।</span> =<span class="HindiText">अशेष विशेषमात्र को ग्रहण करने वाला केवलज्ञान हो, ऐसा नहीं है, जिससे कि सकल पदार्थों का ज्ञान सामान्य धर्म केवल दर्शन का विषय हो जाये। क्योंकि ऐसा मानने से, ज्ञान दर्शन की क्रमप्रवृत्ति वाली संसारावस्था में द्रव्य के ज्ञान का अभाव होने का प्रसंग आता है। कैसे ?–ज्ञान तो द्रव्य को न जान सकेगा, क्योंकि सामान्य रहित केवल विशेष में ही उसका व्यापार परिमित हो गया है। दर्शन भी द्रव्य को नहीं जान सकता, क्योंकि विशेषों से रहित केवल सामान्य में उसका व्यापार परिमित हो गया है। केवल संसारावस्था में ही नहीं किंतु केवली में भी द्रव्य का ग्रहण नहीं हो सकेगा, क्योंकि, एकांतरूपी दुरंतपथ में स्थित सामान्य व विशेष में प्रवृत्त हुए केवलदर्शन और केवलज्ञान का (उभयरूप) द्रव्यमात्र में व्यापार मानने में विरोध आता है। एकांतत: पृथक् सामान्य व विशेष तो होते नहीं हैं, जिससे कि वे क्रमश: केवलदर्शन और केवलज्ञान के विषय हो सकें। और यदि असत् को भी प्रमेय मानोगे तो गधे का सींग भी प्रमेय कोटि में आ जायेगा, क्योंकि अभाव की अपेक्षा दोनों में कोई विशेषता नहीं रही। प्रमेय के न होने पर प्रमाण भी नहीं रहता, क्योंकि प्रमाण तो प्रमेयमूलक ही होता है। ( कषायपाहुड़/1/1-20/322/353/1; 324/356/1 )</span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="2.5" id="2.5"><strong> सामान्य विशेषात्मक उभयरूप ही अंतरंग ग्रहण दर्शन और बाह्यग्रहण ज्ञान है</strong> </span><br> धवला 1/1,1,4/147/2 <span class="SanskritText">तत: सामान्यविशेषात्मकबाह्यार्थग्रहणं ज्ञानं तदात्मकस्वरूपग्रहणं दर्शनमिति सिद्धम् । </span>=<span class="HindiText">अत: सामान्य विशेषात्मक बाह्यपदार्थ को ग्रहण करने वाला ज्ञान है और सामान्य विशेषात्मक स्वरूप को ग्रहण करने वाला दर्शन है यह सिद्ध हो जाता है। ( कषायपाहुड़/1/1-20/325/356/9 )</span><br> धवला 1/1,1,131/380/3 <span class="SanskritText">अंतरंगार्थोऽपि सामान्यविशेषात्मक इति। तद्विधिप्रतिषेधसामान्ययोरुपयोगस्य क्रमेण प्रवृत्त्यनुपपत्तेरक्रमेण तत्रोपयोगस्य प्रवृत्तिरंगीकर्तव्या। तथा च न सोऽंतरंगोपयोगोऽपि दर्शनं तस्य सामान्यविशेषविषयत्वादिति चेन्न, सामान्यविशेषात्मकस्यात्मन: सामान्यशब्दवाच्यत्वेनोपादानात् । </span>=<span class="HindiText">अंतरंग पदार्थ भी सामान्य विशेषात्मक होता है, इसलिए विधि सामान्य और प्रतिषेध सामान्य में उपयोग की क्रम से प्रवृत्ति नहीं बनती है, अत: उनमें उपयोग की अक्रम से प्रवृत्ति स्वीकार करनी चाहिए। अर्थात् दोनों का युगपत् ही ग्रहण होता है। <strong>प्रश्न</strong>–इस कथन को मान लेने पर वह अंतरंग उपयोग दर्शन नहीं हो सकता है, क्योंकि (यहाँ) उस अंतरंग उपयोग को सामान्य विशेषात्मक पदार्थ को विषय करने वाला मान लिया गया है (जबकि उसका लक्षण केवल सामान्य को विषय करना है (देखें [[ दर्शन#1.3.2 | दर्शन - 1.3.2]])। <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, यहाँ पर सामान्य विशेषात्मक आत्मा का सामान्य शब्द के वाच्यरूप से ग्रहण किया है। (विशेष देखें [[ आगे दर्शन#3 | आगे दर्शन - 3]])। </span></li> | <li><span class="HindiText" name="2.5" id="2.5"><strong> सामान्य विशेषात्मक उभयरूप ही अंतरंग ग्रहण दर्शन और बाह्यग्रहण ज्ञान है</strong> </span><br> धवला 1/1,1,4/147/2 <span class="SanskritText">तत: सामान्यविशेषात्मकबाह्यार्थग्रहणं ज्ञानं तदात्मकस्वरूपग्रहणं दर्शनमिति सिद्धम् । </span>=<span class="HindiText">अत: सामान्य विशेषात्मक बाह्यपदार्थ को ग्रहण करने वाला ज्ञान है और सामान्य विशेषात्मक स्वरूप को ग्रहण करने वाला दर्शन है यह सिद्ध हो जाता है। ( कषायपाहुड़/1/1-20/325/356/9 )</span><br> धवला 1/1,1,131/380/3 <span class="SanskritText">अंतरंगार्थोऽपि सामान्यविशेषात्मक इति। तद्विधिप्रतिषेधसामान्ययोरुपयोगस्य क्रमेण प्रवृत्त्यनुपपत्तेरक्रमेण तत्रोपयोगस्य प्रवृत्तिरंगीकर्तव्या। तथा च न सोऽंतरंगोपयोगोऽपि दर्शनं तस्य सामान्यविशेषविषयत्वादिति चेन्न, सामान्यविशेषात्मकस्यात्मन: सामान्यशब्दवाच्यत्वेनोपादानात् । </span>=<span class="HindiText">अंतरंग पदार्थ भी सामान्य विशेषात्मक होता है, इसलिए विधि सामान्य और प्रतिषेध सामान्य में उपयोग की क्रम से प्रवृत्ति नहीं बनती है, अत: उनमें उपयोग की अक्रम से प्रवृत्ति स्वीकार करनी चाहिए। अर्थात् दोनों का युगपत् ही ग्रहण होता है। <strong>प्रश्न</strong>–इस कथन को मान लेने पर वह अंतरंग उपयोग दर्शन नहीं हो सकता है, क्योंकि (यहाँ) उस अंतरंग उपयोग को सामान्य विशेषात्मक पदार्थ को विषय करने वाला मान लिया गया है (जबकि उसका लक्षण केवल सामान्य को विषय करना है (देखें [[ दर्शन उपयोग 1#1.3.2 | दर्शन - 1.3.2]])। <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, यहाँ पर सामान्य विशेषात्मक आत्मा का सामान्य शब्द के वाच्यरूप से ग्रहण किया है। (विशेष देखें [[ आगे [[ दर्शन उपयोग 1#3 | आगे दर्शन - 3]])। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="2.6" id="2.6"><strong> दर्शन व ज्ञान की स्व-पर ग्राहकता का समन्वय</strong> </span><br> नियमसार/161-171 <span class="PrakritGatha">णाणं परप्पयासं दिट्ठी अप्पप्पयासया चेव। अप्पा सपरपयासो होदि त्ति हि मण्णदे जदि हि।161। णाणं परप्पयासं तइया णाणेण दंसणं भिण्णं। ण हव्वदि परदव्वगयं दंसणमिदि वण्णिदं तम्हा।162। अप्पा परप्पयासो तइया अप्पेण दंसणं भिण्णं। ण हवदि परदव्वगयं दंसणमिदि वण्णिदं तम्हा।163। णाणं परप्पयासं ववहारणयएण दंसणं तम्हा। अप्पा परप्पयासो ववहारणयएण दंसण तम्हा।164। णाणं अप्पपयासं णिच्छयणयएण दंसणं तम्हा अप्पा अप्पपयासो णिच्छयणयएण दंसणं तम्हा।165। </span>=<span class="HindiText">एकांत से ज्ञान को परप्रकाशक, दर्शन को स्वप्रकाशक तथा आत्मा को स्वपरप्रकाशक यदि कोई माने तो वह ठीक नहीं है, क्योंकि वैसा मानने में विरोध आता है।161। ज्ञान को एकांत से परप्रकाशक मानने पर वह दर्शन से भिन्न ही एक पदार्थ बन बैठेगा, क्योंकि दर्शन को वह सर्वथा परद्रव्यगत नहीं मानता।162। इसी प्रकार ज्ञान की अपेक्षा आत्मा को एकांत से परप्रकाशक मानने पर भी वह दर्शन से भिन्न हो जायेगा, क्योंकि दर्शन को वह सर्वथा परद्रव्यगत नहीं मानता।163। (ऐसे ही दर्शन को या आत्मा को एकांत से स्वप्रकाशक मानने पर वे ज्ञान से भिन्न हो जायेंगे, क्योंकि ज्ञान को वह सर्वथा स्वप्रकाशक न मान सकेगा। अत: इसका समन्वय अनेकांत द्वारा इस प्रकार किया जाना चाहिए, कि–) क्योंकि व्यवहारनय से अर्थात् भेद विवक्षा से ज्ञान व आत्मा दोनों परप्रकाशक हैं, इसलिए दर्शन भी पर प्रकाशक है। इसी प्रकार, क्योंकि निश्चयनय से अर्थात् अभेद विवक्षा से ज्ञान व आत्मा दोनों स्वप्रकाशक हैं इसलिए दर्शन भी स्वप्रकाशक है।165। (तात्पर्य यह कि दर्शन, ज्ञान व आत्मा ये तीनों कोई पृथक्-पृथक् स्वतंत्र पदार्थ तो हैं नहीं जो कि एक का धर्म दूसरे से सर्वथा अस्पृष्ट रहे। तीनों एक पदार्थस्वरूप होने के कारण एक रस हैं। अत: ज्ञान ज्ञाता ज्ञेय की अथवा दर्शन द्रष्टा दृश्य की भेद विवक्षा होने पर तीनों ही परप्रकाशक हैं तथा उन्हीं में अभेद विवक्षा होने पर जो ज्ञान है, वही ज्ञाता है, वही ज्ञेय है, वही दर्शन है, वही द्रष्टा है और वही दृश्य है। अत: ये तीनों ही स्वप्रकाशक हैं।) (अथवा–जब दर्शन के द्वारा आत्मा का ग्रहण होता है, तब स्वत: ज्ञान का तथा उसमें प्रतिबिंबित पर पदार्थों का भी ग्रहण कैसे न होगा, होगा ही।) (देखें [[ आगे शीर्षक नं#7 | आगे शीर्षक नं - 7]]); (केवलज्ञान/6/9) (देखें [[ अगले दोनों उद्धरण भी ]]) </span> धवला 6/1,9-1,16/34/4 <span class="SanskritText">तस्मादात्मा स्वपरावभासक इति निश्चेतव्यम् । तत्र स्वावभास: केवलदर्शनम्, परावभास: केवलज्ञानम् । तथा सति कथं केवलज्ञानदर्शनयो: साम्यमिति इति चेन्न, ज्ञेयप्रमाणज्ञानात्मकात्मानुभवस्य ज्ञानप्रमाणत्वाविरोधात् । </span>=<span class="HindiText">इसलिए (उपरोक्त व्याख्या के अनुसार) आत्मा ही (वास्तव में) स्व-पर अवभासक है, ऐसा निश्चय करना चाहिए। उसमें स्वप्रतिभास को केवल दर्शन कहते हैं और पर प्रतिभास को केवलज्ञान कहते हैं। ( कषायपाहुड़ 1/1-20/326/358/2 ); ( धवला 7/2,1,56/99/10 ) <strong>प्रश्न</strong>–उक्त प्रकार की व्यवस्था मानने पर केवलज्ञान और केवलदर्शन में समानता कैसे रह सकेगी ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, ज्ञेयप्रमाण ज्ञानात्मक आत्मानुभव के ज्ञान को प्रमाण होने में कोई विरोध नहीं है। ( धवला 1/1,1,135/385/7 )</span><br> | <li><span class="HindiText" name="2.6" id="2.6"><strong> दर्शन व ज्ञान की स्व-पर ग्राहकता का समन्वय</strong> </span><br> नियमसार/161-171 <span class="PrakritGatha">णाणं परप्पयासं दिट्ठी अप्पप्पयासया चेव। अप्पा सपरपयासो होदि त्ति हि मण्णदे जदि हि।161। णाणं परप्पयासं तइया णाणेण दंसणं भिण्णं। ण हव्वदि परदव्वगयं दंसणमिदि वण्णिदं तम्हा।162। अप्पा परप्पयासो तइया अप्पेण दंसणं भिण्णं। ण हवदि परदव्वगयं दंसणमिदि वण्णिदं तम्हा।163। णाणं परप्पयासं ववहारणयएण दंसणं तम्हा। अप्पा परप्पयासो ववहारणयएण दंसण तम्हा।164। णाणं अप्पपयासं णिच्छयणयएण दंसणं तम्हा अप्पा अप्पपयासो णिच्छयणयएण दंसणं तम्हा।165। </span>=<span class="HindiText">एकांत से ज्ञान को परप्रकाशक, दर्शन को स्वप्रकाशक तथा आत्मा को स्वपरप्रकाशक यदि कोई माने तो वह ठीक नहीं है, क्योंकि वैसा मानने में विरोध आता है।161। ज्ञान को एकांत से परप्रकाशक मानने पर वह दर्शन से भिन्न ही एक पदार्थ बन बैठेगा, क्योंकि दर्शन को वह सर्वथा परद्रव्यगत नहीं मानता।162। इसी प्रकार ज्ञान की अपेक्षा आत्मा को एकांत से परप्रकाशक मानने पर भी वह दर्शन से भिन्न हो जायेगा, क्योंकि दर्शन को वह सर्वथा परद्रव्यगत नहीं मानता।163। (ऐसे ही दर्शन को या आत्मा को एकांत से स्वप्रकाशक मानने पर वे ज्ञान से भिन्न हो जायेंगे, क्योंकि ज्ञान को वह सर्वथा स्वप्रकाशक न मान सकेगा। अत: इसका समन्वय अनेकांत द्वारा इस प्रकार किया जाना चाहिए, कि–) क्योंकि व्यवहारनय से अर्थात् भेद विवक्षा से ज्ञान व आत्मा दोनों परप्रकाशक हैं, इसलिए दर्शन भी पर प्रकाशक है। इसी प्रकार, क्योंकि निश्चयनय से अर्थात् अभेद विवक्षा से ज्ञान व आत्मा दोनों स्वप्रकाशक हैं इसलिए दर्शन भी स्वप्रकाशक है।165। (तात्पर्य यह कि दर्शन, ज्ञान व आत्मा ये तीनों कोई पृथक्-पृथक् स्वतंत्र पदार्थ तो हैं नहीं जो कि एक का धर्म दूसरे से सर्वथा अस्पृष्ट रहे। तीनों एक पदार्थस्वरूप होने के कारण एक रस हैं। अत: ज्ञान ज्ञाता ज्ञेय की अथवा दर्शन द्रष्टा दृश्य की भेद विवक्षा होने पर तीनों ही परप्रकाशक हैं तथा उन्हीं में अभेद विवक्षा होने पर जो ज्ञान है, वही ज्ञाता है, वही ज्ञेय है, वही दर्शन है, वही द्रष्टा है और वही दृश्य है। अत: ये तीनों ही स्वप्रकाशक हैं।) (अथवा–जब दर्शन के द्वारा आत्मा का ग्रहण होता है, तब स्वत: ज्ञान का तथा उसमें प्रतिबिंबित पर पदार्थों का भी ग्रहण कैसे न होगा, होगा ही।) (देखें [[ आगे शीर्षक नं#7 | आगे शीर्षक नं - 7]]); (केवलज्ञान/6/9) (देखें [[ अगले दोनों उद्धरण भी ]]) </span> धवला 6/1,9-1,16/34/4 <span class="SanskritText">तस्मादात्मा स्वपरावभासक इति निश्चेतव्यम् । तत्र स्वावभास: केवलदर्शनम्, परावभास: केवलज्ञानम् । तथा सति कथं केवलज्ञानदर्शनयो: साम्यमिति इति चेन्न, ज्ञेयप्रमाणज्ञानात्मकात्मानुभवस्य ज्ञानप्रमाणत्वाविरोधात् । </span>=<span class="HindiText">इसलिए (उपरोक्त व्याख्या के अनुसार) आत्मा ही (वास्तव में) स्व-पर अवभासक है, ऐसा निश्चय करना चाहिए। उसमें स्वप्रतिभास को केवल दर्शन कहते हैं और पर प्रतिभास को केवलज्ञान कहते हैं। ( कषायपाहुड़ 1/1-20/326/358/2 ); ( धवला 7/2,1,56/99/10 ) <strong>प्रश्न</strong>–उक्त प्रकार की व्यवस्था मानने पर केवलज्ञान और केवलदर्शन में समानता कैसे रह सकेगी ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, ज्ञेयप्रमाण ज्ञानात्मक आत्मानुभव के ज्ञान को प्रमाण होने में कोई विरोध नहीं है। ( धवला 1/1,1,135/385/7 )</span><br> | ||
द्रव्यसंग्रह टीका/44/189/11 <span class="SanskritText">अत्राह शिष्य:–यद्यात्मग्राहकं दर्शनं, परग्राहकं ज्ञानं भण्यते, तर्हि यथा नैयायिकमते ज्ञानमात्मानं न जानाति; तथा जैनमतेऽपि ज्ञानमात्मानं न जानातीति दूषणं प्राप्नोति। अत्र परिहार:। नैयायिकमते ज्ञानं पृथग्दर्शनं पृथगिति गुणद्वयं नास्ति; तेन कारणेन तेषामात्मपरिज्ञानाभावदूषणं प्राप्नोति। जैनमते पुनर्ज्ञानगुणेन परद्रव्यं जानाति, दर्शनगुणेनात्मानं च जानातीत्यात्मपरिज्ञानाभावदूषणं न प्राप्नोति। कस्मादिति चेत् – यथैकोऽप्यग्निर्दहतीति दाहक:, पचतीति पाचको, विषयभेदेन द्विधा भिद्यते। तथैवाभेदेनयेनैकमपि चैतन्यं भेदनयविवक्षायां यदात्मग्राहकत्वेन प्रवृत्तं तदा तस्य दर्शनमिति संज्ञा, पश्चात् यच्च परद्रव्यग्राहकत्वेन प्रवृत्तं तस्य ज्ञानसंज्ञेति विषयभेदेन द्विधा भिद्यते।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–यदि अपने को ग्रहण करने वाला दर्शन और पर पदार्थ को ग्रहण करने वाला ज्ञान है, तो नैयायिकों के मत में जैसे ज्ञान अपने को नहीं जानता है, वैसे ही जैनमत में भी ‘ज्ञान आत्मा को नहीं जानता है’ ऐसा दूषण आता है ? <strong>उत्तर</strong>–नैयायिकमत में ज्ञान और दर्शन दो अलग-अलग गुण नहीं माने गये हैं, इसलिए उनके यहाँ तो उपरोक्त दूषण प्राप्त हो सकता है; परंतु जैनसिद्धांत में ‘आत्मा’ ज्ञान गुण से तो परपदार्थ को जानता है, और दर्शन गुण से आत्मा को जानता है, इस कारण यहाँ वह दूषण प्राप्त नहीं होता। <strong>प्रश्न</strong>–यह दूषण क्यों नहीं होता ? <strong>उत्तर</strong>–जैसे कि एक ही अग्नि दहनगुण से जलाता होने से दाहक कहलाता है, और पाचन गुण से पकाता होने से पाचक कहलाता है। इस प्रकार विषय भेद से वह एक भी दाहक व पाचक रूप दो प्रकार का है। उसी प्रकार अभेदनय से एकही चैतन्य भेदनय की विवक्षा में जब आत्मग्रहण रूप से प्रवृत्त हुआ तब तो उसका नाम दर्शन हुआ; जब परपदार्थ को ग्रहण करने रूप प्रवृत्त हुआ तब उस चैतन्य का नाम ज्ञान हुआ; इस प्रकार विषयभेद से वह एक भी चैतन्य दो प्रकार का होता है। </span></li> | द्रव्यसंग्रह टीका/44/189/11 <span class="SanskritText">अत्राह शिष्य:–यद्यात्मग्राहकं दर्शनं, परग्राहकं ज्ञानं भण्यते, तर्हि यथा नैयायिकमते ज्ञानमात्मानं न जानाति; तथा जैनमतेऽपि ज्ञानमात्मानं न जानातीति दूषणं प्राप्नोति। अत्र परिहार:। नैयायिकमते ज्ञानं पृथग्दर्शनं पृथगिति गुणद्वयं नास्ति; तेन कारणेन तेषामात्मपरिज्ञानाभावदूषणं प्राप्नोति। जैनमते पुनर्ज्ञानगुणेन परद्रव्यं जानाति, दर्शनगुणेनात्मानं च जानातीत्यात्मपरिज्ञानाभावदूषणं न प्राप्नोति। कस्मादिति चेत् – यथैकोऽप्यग्निर्दहतीति दाहक:, पचतीति पाचको, विषयभेदेन द्विधा भिद्यते। तथैवाभेदेनयेनैकमपि चैतन्यं भेदनयविवक्षायां यदात्मग्राहकत्वेन प्रवृत्तं तदा तस्य दर्शनमिति संज्ञा, पश्चात् यच्च परद्रव्यग्राहकत्वेन प्रवृत्तं तस्य ज्ञानसंज्ञेति विषयभेदेन द्विधा भिद्यते।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–यदि अपने को ग्रहण करने वाला दर्शन और पर पदार्थ को ग्रहण करने वाला ज्ञान है, तो नैयायिकों के मत में जैसे ज्ञान अपने को नहीं जानता है, वैसे ही जैनमत में भी ‘ज्ञान आत्मा को नहीं जानता है’ ऐसा दूषण आता है ? <strong>उत्तर</strong>–नैयायिकमत में ज्ञान और दर्शन दो अलग-अलग गुण नहीं माने गये हैं, इसलिए उनके यहाँ तो उपरोक्त दूषण प्राप्त हो सकता है; परंतु जैनसिद्धांत में ‘आत्मा’ ज्ञान गुण से तो परपदार्थ को जानता है, और दर्शन गुण से आत्मा को जानता है, इस कारण यहाँ वह दूषण प्राप्त नहीं होता। <strong>प्रश्न</strong>–यह दूषण क्यों नहीं होता ? <strong>उत्तर</strong>–जैसे कि एक ही अग्नि दहनगुण से जलाता होने से दाहक कहलाता है, और पाचन गुण से पकाता होने से पाचक कहलाता है। इस प्रकार विषय भेद से वह एक भी दाहक व पाचक रूप दो प्रकार का है। उसी प्रकार अभेदनय से एकही चैतन्य भेदनय की विवक्षा में जब आत्मग्रहण रूप से प्रवृत्त हुआ तब तो उसका नाम दर्शन हुआ; जब परपदार्थ को ग्रहण करने रूप प्रवृत्त हुआ तब उस चैतन्य का नाम ज्ञान हुआ; इस प्रकार विषयभेद से वह एक भी चैतन्य दो प्रकार का होता है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="2.7" id="2.7"><strong> दर्शन में भी कथंचित् बाह्य पदार्थों का ग्रहण होता है</strong></span><br> द्रव्यसंग्रह टीका/44/191/3 <span class="SanskritText">अथ मतं–यदि दर्शनं बहिर्विषये न प्रवर्त्तते तदांधवत् सर्वजनानामंधत्वं प्राप्नोतीति। नैवं वक्तव्यम् । बहिर्विषये दर्शनाभावेऽपि ज्ञानेन विशेषेण सर्वं परिच्छिनत्तीति। अयं तु विशेष:–दर्शनेनात्मनि गृहीते सत्यात्माविनाभूतं ज्ञानमपि गृहीतं भवति; ज्ञाने च गृहीते सति ज्ञानविषयभूतं बहिर्वस्त्वपि गृहीतं भवतीति। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–यदि दर्शन बाह्य विषय को ग्रहण नहीं करता तो अंधे की तरह सब मनुष्यों के अंधेपने की प्राप्ति होती है ? <strong>उत्तर</strong>–ऐसा नहीं कहना चाहिए। क्योंकि यद्यपि बाह्य विषय में दर्शन का अभाव है, तो भी आत्मज्ञान द्वारा विशेष रूप से सब पदार्थों को जनाता है। उसका विशेष खुलासा इस प्रकार है, कि–जब दर्शन से आत्मा का ग्रहण होता है, तब आत्मा में व्याप्त जो ज्ञान है, वह भी दर्शन द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है; और जब दर्शन से ज्ञान को ग्रहण किया तो ज्ञान का विषयभूत जो बाह्य वस्तु है उसका भी (स्वत:) ग्रहण कर लिया (या हो गया)। (और भी–देखें [[ दर्शन#5.8 | दर्शन - 5.8]]) </span></li> | <li><span class="HindiText" name="2.7" id="2.7"><strong> दर्शन में भी कथंचित् बाह्य पदार्थों का ग्रहण होता है</strong></span><br> द्रव्यसंग्रह टीका/44/191/3 <span class="SanskritText">अथ मतं–यदि दर्शनं बहिर्विषये न प्रवर्त्तते तदांधवत् सर्वजनानामंधत्वं प्राप्नोतीति। नैवं वक्तव्यम् । बहिर्विषये दर्शनाभावेऽपि ज्ञानेन विशेषेण सर्वं परिच्छिनत्तीति। अयं तु विशेष:–दर्शनेनात्मनि गृहीते सत्यात्माविनाभूतं ज्ञानमपि गृहीतं भवति; ज्ञाने च गृहीते सति ज्ञानविषयभूतं बहिर्वस्त्वपि गृहीतं भवतीति। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–यदि दर्शन बाह्य विषय को ग्रहण नहीं करता तो अंधे की तरह सब मनुष्यों के अंधेपने की प्राप्ति होती है ? <strong>उत्तर</strong>–ऐसा नहीं कहना चाहिए। क्योंकि यद्यपि बाह्य विषय में दर्शन का अभाव है, तो भी आत्मज्ञान द्वारा विशेष रूप से सब पदार्थों को जनाता है। उसका विशेष खुलासा इस प्रकार है, कि–जब दर्शन से आत्मा का ग्रहण होता है, तब आत्मा में व्याप्त जो ज्ञान है, वह भी दर्शन द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है; और जब दर्शन से ज्ञान को ग्रहण किया तो ज्ञान का विषयभूत जो बाह्य वस्तु है उसका भी (स्वत:) ग्रहण कर लिया (या हो गया)। (और भी–देखें [[ दर्शन उपयोग 1#5.8 | दर्शन - 5.8]]) </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="2.8" id="2.8"><strong> दर्शन का विषय ज्ञान की अपेक्षा अधिक है</strong> </span><br> धवला 1/1,1,135/385/8 <span class="SanskritText">स्वजीवस्थपर्यायैर्ज्ञानद्दर्शनमधिकमिति चेन्न, इष्टत्वात् । कथं पुनस्तेन तस्य समानत्वम् । न; अन्योन्यात्मकयोस्तदविरोधात् । </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–(ज्ञान केवल बाह्य पदार्थों को ही ग्रहण करता है, आत्मा को नहीं; जबकि दर्शन आत्मा को व कथंचित् बाह्य पदार्थों को भी ग्रहण करता है। तो) जीव में रहने वाली स्वकीय पर्यायों की अपेक्षा ज्ञान से दर्शन अधिक है ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, यह बात इष्ट ही है। <strong>प्रश्न</strong>–ज्ञान के साथ दर्शन की समानता कैसे हो सकती है ? <strong>उत्तर</strong>–समानता नहीं हो सकती यह बात नहीं है, क्योंकि एक दूसरे की अपेक्षा करने वाले उन दोनों में ( कथंचित् ) समानता मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है। </span></li> | <li><span class="HindiText" name="2.8" id="2.8"><strong> दर्शन का विषय ज्ञान की अपेक्षा अधिक है</strong> </span><br> धवला 1/1,1,135/385/8 <span class="SanskritText">स्वजीवस्थपर्यायैर्ज्ञानद्दर्शनमधिकमिति चेन्न, इष्टत्वात् । कथं पुनस्तेन तस्य समानत्वम् । न; अन्योन्यात्मकयोस्तदविरोधात् । </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–(ज्ञान केवल बाह्य पदार्थों को ही ग्रहण करता है, आत्मा को नहीं; जबकि दर्शन आत्मा को व कथंचित् बाह्य पदार्थों को भी ग्रहण करता है। तो) जीव में रहने वाली स्वकीय पर्यायों की अपेक्षा ज्ञान से दर्शन अधिक है ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, यह बात इष्ट ही है। <strong>प्रश्न</strong>–ज्ञान के साथ दर्शन की समानता कैसे हो सकती है ? <strong>उत्तर</strong>–समानता नहीं हो सकती यह बात नहीं है, क्योंकि एक दूसरे की अपेक्षा करने वाले उन दोनों में ( कथंचित् ) समानता मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="2.9" id="2.9"><strong> दर्शन और अवग्रह ज्ञान में अंतर</strong> </span><br> राजवार्तिक/1/15/13/61/13 <span class="SanskritText"> कश्चिदाह–यदुक्तं भवता विषय-विषयिसंनिपाते दर्शनं भवति, तदनंतरमवग्रह इति; तदयुक्तम्; अवैलक्षण्यात् । ...अत्रोच्यंते–न; वैलक्षण्यात् । कथम् । इह चक्षुषा...किंचिदेतद्वस्तु इत्यालोकनमनाकारं दर्शनमित्युच्यते, बालवत् । यथा जातमात्रस्य बालस्य प्राथमिक उन्मेषोऽसौ अविभावितरूपद्रव्यविशेषालोचनाद्दर्शनं विवक्षितं तथा सर्वेषाम् । ततो द्वित्रादिसमयभाविषून्मेषेषु... ‘रूपमिदम्’ इति विभावितविशेषोऽवग्रह:। यत् प्रथमसमयोन्मेषितस्य बालस्य दर्शनं तद् यदि अवग्रहजातीयत्वात् ज्ञानमिष्टम्; तन्मिथ्याज्ञानं वा स्यात्, सम्यग्ज्ञानं वा। मिथ्याज्ञानत्वेऽपि संशयविपर्ययानध्यवसायात्मकं (वा) स्यात् । तत्र न तावत् संशयविपर्ययात्मकं वाऽचेष्टि; तस्य सम्यग्ज्ञानपूर्वकत्वात् । प्राथमिकत्वाच्च तत्रास्तीति। न वानध्यवसायरूपम्; जात्यंधबधिरशब्दवत् वस्तुमात्रप्रतिपत्ते:। न सम्यग्ज्ञानम्, अर्थाकारावलंबनाभावात् । किं च–कारणनानात्वात् कार्यनानात्वसिद्धे:। यथा मृत्तंतुकारणभेदात् घटपटकार्यभेद: तथा दर्शनज्ञानावरणक्षयोपशमकारणभेदात् तत्कार्यदर्शनज्ञानभेद इति।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–विषय विषयी के सन्निपात होने पर प्रथम क्षण में दर्शन होता है और तदनंतर अवग्रह, आपने जो ऐसा कहा है, सो युक्त नहीं है, क्योंकि दोनों के लक्षणों में कोई भेद नहीं है ? <strong>उत्तर</strong>–1. नहीं, क्योंकि दोनों के लक्षण भिन्न हैं। वह इस प्रकार कि–चक्षु इंद्रिय से ‘यह कुछ है’ इतना मात्र आलोकन दर्शन कहा गया है। इसके बाद दूसरे आदि समयों में ‘यह रूप है’ ‘यह पुरुष है’ इत्यादि रूप से विशेषांश का निश्चय अवग्रह कहलाता है। जैसे कि जातमात्र बालक का ज्ञान जातमात्र बालक के प्रथम समय में होने वाले सामान्यालोचन को यदि अवग्रह जातीय ज्ञान कहा जाये तो प्रश्न होता है कि कौन-सा ज्ञान है–मिथ्याज्ञान या सम्यग्ज्ञान ? मिथ्याज्ञान है तो संशयरूप है या विपर्ययरूप या अनध्यवसाय रूप ? तहाँ वह संशय और विपर्यय तो कहा नहीं जा सकता, क्योंकि ये दोनों ज्ञान सम्यग्ज्ञान पूर्वक होते हैं। अर्थात् जिसने पहले कभी स्थाणु, पुरुष आदि का निश्चय किया है उसे ही वर्तमान में देखे गये पदार्थ में संशय या विपर्यय हो सकता है। परंतु प्राथमिक होने के कारण उस प्रकार का सम्यग्ज्ञान यहाँ होना संभव नहीं है। यह ज्ञान अनध्यवसायरूप भी नहीं है; क्योंकि जंमांध और जन्मवधिर की तरह रूपमात्र व शब्दमात्र का तो स्पष्ट बोध हो ही रहा है। इसे सम्यग्ज्ञान भी नहीं कह सकते, क्योंकि उसे किसी भी अर्थ विशेष के आकार का निश्चय नहीं हुआ है। ( धवला 9/4,1,45/145/6 )। 2. जिस प्रकार मिट्टी और तंतु ऐसे विभिन्न कारणों से उत्पन्न होने के कारण घट व पट भिन्न हैं, उसी प्रकार दर्शनावरण और ज्ञानावरण के क्षयोपशमरूप विभिन्न कारणों से उत्पन्न होने के कारण दर्शन व ज्ञान में भेद है। (और भी देखें [[ दर्शन#5.5 | दर्शन - 5.5]])। </span></li> | <li><span class="HindiText" name="2.9" id="2.9"><strong> दर्शन और अवग्रह ज्ञान में अंतर</strong> </span><br> राजवार्तिक/1/15/13/61/13 <span class="SanskritText"> कश्चिदाह–यदुक्तं भवता विषय-विषयिसंनिपाते दर्शनं भवति, तदनंतरमवग्रह इति; तदयुक्तम्; अवैलक्षण्यात् । ...अत्रोच्यंते–न; वैलक्षण्यात् । कथम् । इह चक्षुषा...किंचिदेतद्वस्तु इत्यालोकनमनाकारं दर्शनमित्युच्यते, बालवत् । यथा जातमात्रस्य बालस्य प्राथमिक उन्मेषोऽसौ अविभावितरूपद्रव्यविशेषालोचनाद्दर्शनं विवक्षितं तथा सर्वेषाम् । ततो द्वित्रादिसमयभाविषून्मेषेषु... ‘रूपमिदम्’ इति विभावितविशेषोऽवग्रह:। यत् प्रथमसमयोन्मेषितस्य बालस्य दर्शनं तद् यदि अवग्रहजातीयत्वात् ज्ञानमिष्टम्; तन्मिथ्याज्ञानं वा स्यात्, सम्यग्ज्ञानं वा। मिथ्याज्ञानत्वेऽपि संशयविपर्ययानध्यवसायात्मकं (वा) स्यात् । तत्र न तावत् संशयविपर्ययात्मकं वाऽचेष्टि; तस्य सम्यग्ज्ञानपूर्वकत्वात् । प्राथमिकत्वाच्च तत्रास्तीति। न वानध्यवसायरूपम्; जात्यंधबधिरशब्दवत् वस्तुमात्रप्रतिपत्ते:। न सम्यग्ज्ञानम्, अर्थाकारावलंबनाभावात् । किं च–कारणनानात्वात् कार्यनानात्वसिद्धे:। यथा मृत्तंतुकारणभेदात् घटपटकार्यभेद: तथा दर्शनज्ञानावरणक्षयोपशमकारणभेदात् तत्कार्यदर्शनज्ञानभेद इति।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–विषय विषयी के सन्निपात होने पर प्रथम क्षण में दर्शन होता है और तदनंतर अवग्रह, आपने जो ऐसा कहा है, सो युक्त नहीं है, क्योंकि दोनों के लक्षणों में कोई भेद नहीं है ? <strong>उत्तर</strong>–1. नहीं, क्योंकि दोनों के लक्षण भिन्न हैं। वह इस प्रकार कि–चक्षु इंद्रिय से ‘यह कुछ है’ इतना मात्र आलोकन दर्शन कहा गया है। इसके बाद दूसरे आदि समयों में ‘यह रूप है’ ‘यह पुरुष है’ इत्यादि रूप से विशेषांश का निश्चय अवग्रह कहलाता है। जैसे कि जातमात्र बालक का ज्ञान जातमात्र बालक के प्रथम समय में होने वाले सामान्यालोचन को यदि अवग्रह जातीय ज्ञान कहा जाये तो प्रश्न होता है कि कौन-सा ज्ञान है–मिथ्याज्ञान या सम्यग्ज्ञान ? मिथ्याज्ञान है तो संशयरूप है या विपर्ययरूप या अनध्यवसाय रूप ? तहाँ वह संशय और विपर्यय तो कहा नहीं जा सकता, क्योंकि ये दोनों ज्ञान सम्यग्ज्ञान पूर्वक होते हैं। अर्थात् जिसने पहले कभी स्थाणु, पुरुष आदि का निश्चय किया है उसे ही वर्तमान में देखे गये पदार्थ में संशय या विपर्यय हो सकता है। परंतु प्राथमिक होने के कारण उस प्रकार का सम्यग्ज्ञान यहाँ होना संभव नहीं है। यह ज्ञान अनध्यवसायरूप भी नहीं है; क्योंकि जंमांध और जन्मवधिर की तरह रूपमात्र व शब्दमात्र का तो स्पष्ट बोध हो ही रहा है। इसे सम्यग्ज्ञान भी नहीं कह सकते, क्योंकि उसे किसी भी अर्थ विशेष के आकार का निश्चय नहीं हुआ है। ( धवला 9/4,1,45/145/6 )। 2. जिस प्रकार मिट्टी और तंतु ऐसे विभिन्न कारणों से उत्पन्न होने के कारण घट व पट भिन्न हैं, उसी प्रकार दर्शनावरण और ज्ञानावरण के क्षयोपशमरूप विभिन्न कारणों से उत्पन्न होने के कारण दर्शन व ज्ञान में भेद है। (और भी देखें [[ दर्शन उपयोग 1#5.5 | दर्शन - 5.5]])। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="2.10" id="2.10"><strong> दर्शन व संग्रहनय में अंतर</strong> </span><br> श्लोकवार्तिक 3/1/15/15/445/25 <span class="SanskritText">न हि सन्मात्रग्राही संग्रहो नयो दर्शनं स्यादित्यतिव्याप्ति: शंकनीया तस्य श्रुतभेदत्वादस्पष्टावभासितया नयत्वोपपत्ते: श्रुतभेदा नया इति वचनात् । </span>=<span class="HindiText">संपूर्ण वस्तुओं की संग्रहीत केवल सत्ता को ग्रहण करने वाला संग्रहनय दर्शनोपयोग हो जायेगा, ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वह संग्रहनय तो श्रुतज्ञान का भेद है। अविशद प्रतिभासवाला होने से उसे नयपना बन रहा है। और ग्रंथों में श्रुतज्ञान के भेद को नयज्ञान कहा गया है।</span></li></ol></li> | <li><span class="HindiText" name="2.10" id="2.10"><strong> दर्शन व संग्रहनय में अंतर</strong> </span><br> श्लोकवार्तिक 3/1/15/15/445/25 <span class="SanskritText">न हि सन्मात्रग्राही संग्रहो नयो दर्शनं स्यादित्यतिव्याप्ति: शंकनीया तस्य श्रुतभेदत्वादस्पष्टावभासितया नयत्वोपपत्ते: श्रुतभेदा नया इति वचनात् । </span>=<span class="HindiText">संपूर्ण वस्तुओं की संग्रहीत केवल सत्ता को ग्रहण करने वाला संग्रहनय दर्शनोपयोग हो जायेगा, ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वह संग्रहनय तो श्रुतज्ञान का भेद है। अविशद प्रतिभासवाला होने से उसे नयपना बन रहा है। और ग्रंथों में श्रुतज्ञान के भेद को नयज्ञान कहा गया है।</span></li></ol></li> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3" id="3">दर्शन व ज्ञान की क्रम व अक्रम प्रवृत्ति</strong> <strong> </strong> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1"> छद्मस्थों के दर्शन व ज्ञान क्रमपूर्वक होते हैं और केवली को अक्रम</strong></span><br> | ||
नियमसार 160 <span class="PrakritGatha">जुगवं वट्टइ णाणं केवलिणाणिस्स दंसणं च तहा। दिणयरपयासतापं जह वट्टइ तह मुणेयव्वं।60।</span> =<span class="HindiText">केवलज्ञानी को ज्ञान तथा दर्शन युगपत् वर्तते हैं। सूर्य के प्रकाश व ताप जिस प्रकार वर्तते हों, उसी प्रकार जानना। </span> धवला 13/5,5,85/356/1 <span class="PrakritText">छदुमत्थणाणाणि दंसणपुव्वाणि केवलणाणं पुण केवलदंसणसमकालभाभी णिरावणत्तादो। </span>=<span class="HindiText">छद्मस्थों के ज्ञान दर्शनपूर्वक होते हैं परंतु केवलज्ञान केवलदर्शन के समान काल में होता है; क्योंकि, उनके ज्ञान और दर्शन ये दोनों निरावरण हैं। ( राजवार्तिक/2/9/3/124/11 ); ( परमात्मप्रकाश/ मू./2/35); ( धवला 3/1,2,161/457/2 ); ( द्रव्यसंग्रह 44 )।</span></li> | नियमसार 160 <span class="PrakritGatha">जुगवं वट्टइ णाणं केवलिणाणिस्स दंसणं च तहा। दिणयरपयासतापं जह वट्टइ तह मुणेयव्वं।60।</span> =<span class="HindiText">केवलज्ञानी को ज्ञान तथा दर्शन युगपत् वर्तते हैं। सूर्य के प्रकाश व ताप जिस प्रकार वर्तते हों, उसी प्रकार जानना। </span> धवला 13/5,5,85/356/1 <span class="PrakritText">छदुमत्थणाणाणि दंसणपुव्वाणि केवलणाणं पुण केवलदंसणसमकालभाभी णिरावणत्तादो। </span>=<span class="HindiText">छद्मस्थों के ज्ञान दर्शनपूर्वक होते हैं परंतु केवलज्ञान केवलदर्शन के समान काल में होता है; क्योंकि, उनके ज्ञान और दर्शन ये दोनों निरावरण हैं। ( राजवार्तिक/2/9/3/124/11 ); ( परमात्मप्रकाश/ मू./2/35); ( धवला 3/1,2,161/457/2 ); ( द्रव्यसंग्रह 44 )।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="3.2" id="3.2"><strong> केवलदर्शन व केवलज्ञान की युगपत् प्रवृत्ति में हेतु</strong> </span><br> कषायपाहुड़ 1/1-20/ प्रकरण/पृष्ठ/पंक्ति–<span class="PrakritText">केवलणाणकेवलदंसणाणमुक्कस्स उवजोगकालो जेण ‘अंतोमुहुत्तमेत्तो’ त्ति भणिदो तेण णव्वदे जहा केवलणाणदंसणाणमक्कमेण उत्ती णहोदि त्ति। (319/351/2)। अथ परिहारो उच्चदे। तं जहा केवलणाणदंसणावरणाणं किमक्कमणक्खओ, आहो कमेणेत्ति।...अक्कमेण विणासे संते केवलणाणेण सह केवलदंसणेण वि उप्पज्जेयव्वं, अक्कमेण अविकलकारणे संते तेसिं कमुप्पत्तिविरोहादो। ...तम्हा अक्कमेण उप्पण्णत्तादो ण केवलणाणदंसणाणं कमउत्ती त्ति। (320/351/9) होउ णाम केवलणाणदंसणाणमक्कमेणुप्पत्ती; अक्कमेण विणट्ठावरणत्तादो, किंतु केवलणाणं दसणुवजोगो कमेण चेव होंति, सामण्णविसेसयत्तेण अव्वत्त वत्त-सरूवाणमक्कमेण पउत्तिविरोहादो त्ति।(321/352/7)। होदि एसो दोसो जदि केवलणाणं विसेसविसयं चेव केवलदंसणं पि सामण्णविसयं चेव। ण च एवं, दोण्हं पि विसयाभावेण अभावप्पसंगादो। (322/353/1)। तदो सामण्णविसेसविसयत्ते केवलणाण-दंसणाणमभावो होज्ज णिविसयत्तादो त्ति सिद्धं। उत्तं च–अद्दिट्ठं अण्णादं केवलि एसो हु भासइ सया वि। एएयसमयम्मि हंदि हु वयणविसेसी ण संभवइ।140। अण्णादं पासंतो अदिट्ठमराहा सया तो वियाणंतो। किं जाणइ किं पासइ कह सव्वणहो त्ति वा होइ।141। (324/356/3)। ण च दोण्हमुवजोगाणमक्कमेण वुत्ती विरुद्धा; कम्मकयस्स कम्मस्स तदभावेण अभावमुवगयस्स तत्थ सत्तविरोहादो।(325/356/10)। एवं संते केवलणाणदंसणाणमुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तमेत्तकालो कथं जुज्जदे। सहि वग्घ-छवल्ल-सिव-सियालाईहि खज्जमाणेसु उप्पण्ण केवलणाणदंसणुक्कस्सकालग्गहणादो जुज्जदे। (329/360/6)। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–चूँकि केवलज्ञान और केवलदर्शन का उत्कृष्ट उपयोगकाल अंतर्मुहूर्त कहा है, इससे जाना जाता है कि केवलज्ञान और केवलदर्शन की प्रवृत्ति एक साथ नहीं होती ? <strong>उत्तर</strong>–1. उक्त शंका का समाधान करते हैं। हम पूछते हैं कि केवलज्ञानावरण व केवलदर्शनावरण का क्षय एक साथ होता है या क्रम से होता है ? (क्रम से तो होता नहीं है, क्योंकि आगम में ज्ञानावरण, दर्शनावरण व अंतराय इन तीनों कर्मों की सत्त्व व्युच्छित्ति 12वें गुणस्थान के अंत में युगपत् बतायी है (देखें [[ सत्त्व ]])। यदि अक्रम से क्षय माना जाये तो केवलज्ञान के साथ केवलदर्शन भी उत्पन्न होना चाहिए, क्योंकि केवलज्ञान और केवलदर्शन की उत्पत्ति के सभी अविकल कारणों के एक साथ मिल जाने पर उनकी क्रम से उत्पत्ति मानने में विरोध आता है। और क्योंकि वे अक्रम से उत्पन्न होते हैं इसलिए उनकी प्रवृत्ति भी क्रम से नहीं बन सकती। 2. <strong>प्रश्न</strong>–केवलज्ञान व केवलदर्शन की उत्पत्ति एक साथ रही आओ क्योंकि उनके आवरणों का विनाश एक साथ होता है। किंतु केवलज्ञानोपयोग और केवलदर्शनोपयोग क्रम से ही होते हैं, क्योंकि केवलदर्शन सामान्य को विषय करने वाला होने से अव्यक्तरूप है और केवलज्ञान विशेष को विषय करने वाला होने से व्यक्तरूप है, इसलिए उनकी एक साथ प्रवृत्ति मानने में विरोध आता है। <strong>उत्तर</strong>–यदि केवलज्ञान केवल विशेष को और केवलदर्शन केवल सामान्य को विषय करता, तो यह दोष संभव होता, पर ऐसा नहीं है, क्योंकि केवल सामान्य और केवल विशेषरूप विषय का अभाव होने से उन दोनों (ज्ञान व दर्शन) के भी अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। अत: जबकि सामान्य विशेषात्मक वस्तु है तो केवलदर्शन को केवल सामान्य को विषय करने वाला और केवलज्ञान को केवल विशेष को विषय करने वाला मानने पर दोनों उपयोगों का अभाव प्राप्त होता है, क्योंकि केवल सामान्य और केवल विशेष रूप पदार्थ नहीं पाये जाते। कहा भी है–यदि दर्शन का विषय केवल सामान्य और ज्ञान का विषय केवल विशेष माना जाये तो जिनमें जो अदृष्ट है ऐसे ज्ञात पदार्थ को तथा जो अज्ञात है ऐसे दृष्ट पदार्थ को ही सदा कहते हैं, ऐसी आपत्ति प्राप्त होगी। और इसलिए ‘एक समय में ज्ञात और दृष्ट पदार्थ को केवली जिन कहते हैं’ यह वचन विशेष नहीं बन सकता है।140। अज्ञात पदार्थ को देखते हुए और अदृष्ट पदार्थ को जानते हुए अरहंत देव क्या जानते हैं और क्या देखते हैं ? तथा उनके सर्वज्ञता भी कैसे बन सकती है ?।141। (और भी देखें [[ दर्शन#2.3 | दर्शन - 2.3]],4)। 3. दोनों उपयोगों की एक साथ प्रवृत्ति मानने में विरोध भी नहीं आता है, क्योंकि, उपयोगों की क्रमवृत्ति कर्म का कार्य है, और कर्म का अभाव हो जाने से उपयोगों की क्रमवृत्ति का भी अभाव हो जाता है, इसलिए निरावरण केवलज्ञान और केवलदर्शन की क्रमवृत्ति के मानने में विरोध आता है। 4. <strong>प्रश्न</strong>–यदि ऐसा है तो इन दोनों का उत्कृष्टरूप से अंतर्मुहूर्तकाल कैसे बन सकता है ? <strong>उत्तर</strong>–चूँकि, यहाँ पर सिंह, व्याघ्र, छव्वल, शिवा और स्याल आदि के द्वारा खाये जाने वाले जीवों में उत्पन्न हुए केवलज्ञान दर्शन के उत्कृष्टकाल का ग्रहण किया है, इसलिए इनका अंतर्मुहूर्त प्रमाण काल बन जाता है।</span></li> | <li><span class="HindiText" name="3.2" id="3.2"><strong> केवलदर्शन व केवलज्ञान की युगपत् प्रवृत्ति में हेतु</strong> </span><br> कषायपाहुड़ 1/1-20/ प्रकरण/पृष्ठ/पंक्ति–<span class="PrakritText">केवलणाणकेवलदंसणाणमुक्कस्स उवजोगकालो जेण ‘अंतोमुहुत्तमेत्तो’ त्ति भणिदो तेण णव्वदे जहा केवलणाणदंसणाणमक्कमेण उत्ती णहोदि त्ति। (319/351/2)। अथ परिहारो उच्चदे। तं जहा केवलणाणदंसणावरणाणं किमक्कमणक्खओ, आहो कमेणेत्ति।...अक्कमेण विणासे संते केवलणाणेण सह केवलदंसणेण वि उप्पज्जेयव्वं, अक्कमेण अविकलकारणे संते तेसिं कमुप्पत्तिविरोहादो। ...तम्हा अक्कमेण उप्पण्णत्तादो ण केवलणाणदंसणाणं कमउत्ती त्ति। (320/351/9) होउ णाम केवलणाणदंसणाणमक्कमेणुप्पत्ती; अक्कमेण विणट्ठावरणत्तादो, किंतु केवलणाणं दसणुवजोगो कमेण चेव होंति, सामण्णविसेसयत्तेण अव्वत्त वत्त-सरूवाणमक्कमेण पउत्तिविरोहादो त्ति।(321/352/7)। होदि एसो दोसो जदि केवलणाणं विसेसविसयं चेव केवलदंसणं पि सामण्णविसयं चेव। ण च एवं, दोण्हं पि विसयाभावेण अभावप्पसंगादो। (322/353/1)। तदो सामण्णविसेसविसयत्ते केवलणाण-दंसणाणमभावो होज्ज णिविसयत्तादो त्ति सिद्धं। उत्तं च–अद्दिट्ठं अण्णादं केवलि एसो हु भासइ सया वि। एएयसमयम्मि हंदि हु वयणविसेसी ण संभवइ।140। अण्णादं पासंतो अदिट्ठमराहा सया तो वियाणंतो। किं जाणइ किं पासइ कह सव्वणहो त्ति वा होइ।141। (324/356/3)। ण च दोण्हमुवजोगाणमक्कमेण वुत्ती विरुद्धा; कम्मकयस्स कम्मस्स तदभावेण अभावमुवगयस्स तत्थ सत्तविरोहादो।(325/356/10)। एवं संते केवलणाणदंसणाणमुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तमेत्तकालो कथं जुज्जदे। सहि वग्घ-छवल्ल-सिव-सियालाईहि खज्जमाणेसु उप्पण्ण केवलणाणदंसणुक्कस्सकालग्गहणादो जुज्जदे। (329/360/6)। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–चूँकि केवलज्ञान और केवलदर्शन का उत्कृष्ट उपयोगकाल अंतर्मुहूर्त कहा है, इससे जाना जाता है कि केवलज्ञान और केवलदर्शन की प्रवृत्ति एक साथ नहीं होती ? <strong>उत्तर</strong>–1. उक्त शंका का समाधान करते हैं। हम पूछते हैं कि केवलज्ञानावरण व केवलदर्शनावरण का क्षय एक साथ होता है या क्रम से होता है ? (क्रम से तो होता नहीं है, क्योंकि आगम में ज्ञानावरण, दर्शनावरण व अंतराय इन तीनों कर्मों की सत्त्व व्युच्छित्ति 12वें गुणस्थान के अंत में युगपत् बतायी है (देखें [[ सत्त्व ]])। यदि अक्रम से क्षय माना जाये तो केवलज्ञान के साथ केवलदर्शन भी उत्पन्न होना चाहिए, क्योंकि केवलज्ञान और केवलदर्शन की उत्पत्ति के सभी अविकल कारणों के एक साथ मिल जाने पर उनकी क्रम से उत्पत्ति मानने में विरोध आता है। और क्योंकि वे अक्रम से उत्पन्न होते हैं इसलिए उनकी प्रवृत्ति भी क्रम से नहीं बन सकती। 2. <strong>प्रश्न</strong>–केवलज्ञान व केवलदर्शन की उत्पत्ति एक साथ रही आओ क्योंकि उनके आवरणों का विनाश एक साथ होता है। किंतु केवलज्ञानोपयोग और केवलदर्शनोपयोग क्रम से ही होते हैं, क्योंकि केवलदर्शन सामान्य को विषय करने वाला होने से अव्यक्तरूप है और केवलज्ञान विशेष को विषय करने वाला होने से व्यक्तरूप है, इसलिए उनकी एक साथ प्रवृत्ति मानने में विरोध आता है। <strong>उत्तर</strong>–यदि केवलज्ञान केवल विशेष को और केवलदर्शन केवल सामान्य को विषय करता, तो यह दोष संभव होता, पर ऐसा नहीं है, क्योंकि केवल सामान्य और केवल विशेषरूप विषय का अभाव होने से उन दोनों (ज्ञान व दर्शन) के भी अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। अत: जबकि सामान्य विशेषात्मक वस्तु है तो केवलदर्शन को केवल सामान्य को विषय करने वाला और केवलज्ञान को केवल विशेष को विषय करने वाला मानने पर दोनों उपयोगों का अभाव प्राप्त होता है, क्योंकि केवल सामान्य और केवल विशेष रूप पदार्थ नहीं पाये जाते। कहा भी है–यदि दर्शन का विषय केवल सामान्य और ज्ञान का विषय केवल विशेष माना जाये तो जिनमें जो अदृष्ट है ऐसे ज्ञात पदार्थ को तथा जो अज्ञात है ऐसे दृष्ट पदार्थ को ही सदा कहते हैं, ऐसी आपत्ति प्राप्त होगी। और इसलिए ‘एक समय में ज्ञात और दृष्ट पदार्थ को केवली जिन कहते हैं’ यह वचन विशेष नहीं बन सकता है।140। अज्ञात पदार्थ को देखते हुए और अदृष्ट पदार्थ को जानते हुए अरहंत देव क्या जानते हैं और क्या देखते हैं ? तथा उनके सर्वज्ञता भी कैसे बन सकती है ?।141। (और भी देखें [[ दर्शन उपयोग 1#2.3 | दर्शन - 2.3]], [[ दर्शन उपयोग 1#2.4 | दर्शन - 2.4]])। 3. दोनों उपयोगों की एक साथ प्रवृत्ति मानने में विरोध भी नहीं आता है, क्योंकि, उपयोगों की क्रमवृत्ति कर्म का कार्य है, और कर्म का अभाव हो जाने से उपयोगों की क्रमवृत्ति का भी अभाव हो जाता है, इसलिए निरावरण केवलज्ञान और केवलदर्शन की क्रमवृत्ति के मानने में विरोध आता है। 4. <strong>प्रश्न</strong>–यदि ऐसा है तो इन दोनों का उत्कृष्टरूप से अंतर्मुहूर्तकाल कैसे बन सकता है ? <strong>उत्तर</strong>–चूँकि, यहाँ पर सिंह, व्याघ्र, छव्वल, शिवा और स्याल आदि के द्वारा खाये जाने वाले जीवों में उत्पन्न हुए केवलज्ञान दर्शन के उत्कृष्टकाल का ग्रहण किया है, इसलिए इनका अंतर्मुहूर्त प्रमाण काल बन जाता है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="3.3" id="3.3"><strong> छद्मस्थों के दर्शनज्ञान की क्रमवृत्ति में हेतु</strong></span><br> धवला 1/1,1,133/384/3 <span class="SanskritText">भवतु छद्मस्थायामप्यक्रमेण क्षीणावरणे इव तयो: प्रवृत्तिरिति चेन्न, आवरणाविरुद्धाक्रमयोरक्रमप्रवृत्तिविरोधात् । अस्वसंविद्रूपो न कदाचिदप्यात्मोपलभ्यत इति चेन्न, बहिरंगोपयोगावस्थायामंतरंगोपयोगानुपलंभात् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–आवरण कर्म से रहित जीवों में जिस प्रकार ज्ञान और दर्शन की युगपत् प्रवृत्ति पायी जाती है, उसी प्रकार छद्मस्थ अवस्था में भी उन दोनों की एक साथ प्रवृत्ति होओ ? <strong>उत्तर</strong>–1. नहीं क्योंकि आवरण कर्म के उदय से जिनकी युगपत् प्रवृत्ति करने की शक्ति रुक गयी है, ऐसे छद्मस्थ जीवों के ज्ञान और दर्शन में युगपत् प्रवृत्ति मानने में विरोध आता है। <strong>प्रश्न</strong>–2. अपने आपके संवेदन से रहित आत्मा की तो कभी भी उपलब्धि नहीं होती है ? (अर्थात् निज संवेदन तो प्रत्येक जीव को हर समय रहता ही है) ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, बहिरंग पदार्थों के उपयोगरूप अवस्था में अंतरंग पदार्थ का उपयोग नहीं पाया जाता है।</span></li> | <li><span class="HindiText" name="3.3" id="3.3"><strong> छद्मस्थों के दर्शनज्ञान की क्रमवृत्ति में हेतु</strong></span><br> धवला 1/1,1,133/384/3 <span class="SanskritText">भवतु छद्मस्थायामप्यक्रमेण क्षीणावरणे इव तयो: प्रवृत्तिरिति चेन्न, आवरणाविरुद्धाक्रमयोरक्रमप्रवृत्तिविरोधात् । अस्वसंविद्रूपो न कदाचिदप्यात्मोपलभ्यत इति चेन्न, बहिरंगोपयोगावस्थायामंतरंगोपयोगानुपलंभात् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–आवरण कर्म से रहित जीवों में जिस प्रकार ज्ञान और दर्शन की युगपत् प्रवृत्ति पायी जाती है, उसी प्रकार छद्मस्थ अवस्था में भी उन दोनों की एक साथ प्रवृत्ति होओ ? <strong>उत्तर</strong>–1. नहीं क्योंकि आवरण कर्म के उदय से जिनकी युगपत् प्रवृत्ति करने की शक्ति रुक गयी है, ऐसे छद्मस्थ जीवों के ज्ञान और दर्शन में युगपत् प्रवृत्ति मानने में विरोध आता है। <strong>प्रश्न</strong>–2. अपने आपके संवेदन से रहित आत्मा की तो कभी भी उपलब्धि नहीं होती है ? (अर्थात् निज संवेदन तो प्रत्येक जीव को हर समय रहता ही है) ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, बहिरंग पदार्थों के उपयोगरूप अवस्था में अंतरंग पदार्थ का उपयोग नहीं पाया जाता है।</span></li> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4" id="4"> दर्शनोपयोग सिद्धि</strong> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.1" id="4.1"> आत्म ग्रहण अनध्यवसाय रूप नहीं है</strong></span><br> धवला 1/1,1,4/148/3 <span class="SanskritText">सत्येवमनध्यवसायो दर्शनं स्यादिति चेन्न, स्वाध्यवसायस्थानध्यवसितबाह्यार्थस्य दर्शनत्वात् । दर्शनं प्रमाणमेव अविसंवादित्वात्, प्रभास: प्रमाणं चाप्रमाणं च विसंवादाविसंवादीभयरूपस्य तत्रोपलंभात् ।</span>=<span class="HindiText">प्रश्न–दर्शन के लक्षण को इस प्रकार का (सामान्य आत्म पदार्थ ग्राहक) मान लेने पर अनध्यवसाय को दर्शन मानना पड़ेगा ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, बाह्यार्थ का निश्चय न करते हुए भी स्वरूप का निश्चय करने वाला दर्शन है, इसलिए वह अनध्यवसायरूप नहीं है। ऐसा दर्शन अविसंवादी होने के कारण प्रमाण ही है। और अनध्यवसायरूप जो प्रतिभास है वह प्रमाण भी है और अप्रमाण भी है, क्योंकि उसमें विसंवाद और अविसंवाद दोनों पाये जाते हैं। (‘कुछ है’ ऐसा अनध्यवसाय निश्चयात्मक या अविसंवादी है और ‘क्या है’ ऐसा अनध्यवसाय अनिश्चयात्मक या विसंवादी है)।</span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2"> दर्शन के लक्षण में ‘सामान्य‘ पद का अर्थ आत्मा ही है </strong></span><br> धवला 1/1,1,4/147/3 <span class="SanskritText">तथा च ‘जं सामण्णं गहणं तं दंसण’ इति वचनेन विरोध: स्यादिति चेन्न, तत्रात्मन: सकलबाह्यार्थसाधारणत्वत: सामान्यव्यपदेशभाजो ग्रहणात् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–उक्त प्रकार से दर्शन और ज्ञान का स्वरूप मान लेने पर अंतरंग सामान्य विशेष का ग्रहण दर्शन, बाह्य सामान्य विशेष का ग्रहण ज्ञान (देखें [[ दर्शन उपयोग 1#2.3 | दर्शन - 2.3 ]], [[ दर्शन उपयोग 1#2.4 | दर्शन - 2.4]]) ‘वस्तु का जो सामान्य ग्रहण होता है उसको दर्शन कहते हैं’ परमागम के इस वचन के साथ (देखें [[ दर्शन उपयोग 1#1.3.2 | दर्शन - 1.3.2]]) विरोध आता है ? <strong>उत्तर</strong>–ऐसा नहीं है, क्योंकि, आत्मा संपूर्ण बाह्य पदार्थों में साधारण रूप से पाया जाता है (अर्थात् सर्व पदार्थ प्रतिभासात्मक है), इसलिए उक्त वचन में सामान्य संज्ञा को प्राप्त आत्मा का ही सामान्य पद से ग्रहण किया है। ( धवला 1/1,1,131/380/5 ); ( धवला 7/2,1,56/100/7 ); ( धवला 13/5,5,85/354/11 ); ( कषायपाहुड़ 1/1-20/329/360/3 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/44/191/6 )–(विशेष देखें [[ दर्शन उपयोग 1#2.3 | दर्शन - 2.3]], [[ दर्शन उपयोग 1#2.4 | दर्शन - 2.4]])। </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3">सामान्य शब्द का अर्थ निर्विकल्प रूप से सामान्यविशेषात्मक ग्रहण है</strong></span><br> धवला 1/1,1,4/147/4 <span class="SanskritText">तदपि कथमवसीयत इति चेन्न, ‘भावाणं णेव कट्ठु आयारं’ इति वचनात् । तद्यथा भावानां बाह्यार्थानामाकारं प्रतिकर्मव्यवस्थामकृत्वा यद्ग्रहणं तद्दर्शनम् । अस्यैवार्थस्य पुनरपि दृढ़ीकरणार्थं, ‘अविसेसिऊण उट्ठे’ इति, अर्थानविशेष्य यद् ग्रहणं तद्दर्शनमिति। न बाह्यार्थगतसामान्यग्रहणं दर्शनमित्याशंकनीयं तस्यावस्तुन: कर्मत्वाभावात् । न च तदंतरेण विशेषो ग्राह्यत्वमास्कंदतीत्यतिप्रसंगात् ।</span> <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–यह कैसे जाना जाये कि यहाँ पर सामान्य पद से आत्मा का ही ग्रहण किया है ? <strong>उत्तर</strong>–ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि, ‘पदार्थों के आकार अर्थात् भेद को नहीं करके’ सूत्र में कहे गये इस वचन से उक्त कथन की पुष्टि होती है। इसी को स्पष्ट करते हैं, भावों के अर्थात् बाह्य पदार्थों के, आकाररूप प्रति कर्म व्यवस्था को नहीं करके, अर्थात् भेदरूप से प्रत्येक पदार्थ को ग्रहण नहीं करके, जो (सामान्य) ग्रहण होता है, उसको दर्शन कहते हैं। फिर भी इसी अर्थ को दृढ़ करने के लिए सूत्रकार कहते हैं (देखें [[ दर्शन उपयोग 1#1.3.2 | दर्शन - 1.3.2]]) कि ‘यह अमुक पदार्थ है, यह अमुक पदार्थ है’ इत्यादि रूप से पदार्थों की विशेषता न करके जो ग्रहण होता है, उसे दर्शन कहते हैं। इस कथन से यदि कोई ऐसी आशंका करे कि बाह्य पदार्थों में रहने वाले सामान्य को ग्रहण करना दर्शन है, तो उसकी ऐसी आशंका करनी भी ठीक नहीं है, क्योंकि विशेष की अपेक्षा रहित केवल सामान्य अवस्तुरूप है, इसलिए वह दर्शन के विषयभाव को नहीं प्राप्त कर सकता है। उसी प्रकार सामान्य के बिना केवल विशेष भी ज्ञान के द्वारा ग्राह्य नहीं हो सकता, क्योंकि, अवस्तुरूप केवल सामान्य अथवा केवल विशेष का ग्रहण मान लिया जाये तो अतिप्रसंग दोष आता है। (और भी देखें [[ दर्शन उपयोग 1#2.3 | दर्शन - 2.3]])। </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="4.4" id="4.4"> सामान्य विशेषात्मक आत्मा केवल सामान्य कैसे कहा जा सकता है</strong> </span><br> कषायपाहुड़ 1/1-20/329/360/4 <span class="PrakritText">सामण्णविसेसप्पओ जीवो कधं सामण्णं। ण असेसत्थपयासभावेण रायदोसाणमभावेण य तस्स समाणत्तदंसणादो।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–जीव सामान्य विशेषात्मक है, वह केवल सामान्य कैसे हो सकता है ? <strong>उत्तर</strong>–1. क्योंकि, जीव समस्त पदार्थों को बिना किसी भेद-भाव के जानता है और उसमें राग-द्वेष का अभाव है, इसलिए जीव में समानता देखी जाती है। ( धवला 13/5,5,85/355/1 )।</span> द्रव्यसंग्रह टीका/44/191/8 <span class="SanskritText">आत्मा वस्तुपरिच्छितिं कुर्वन्निदं जानामीदं न जानामीति विशेषपक्षपातं न करोति; किंतु सामान्येन वस्तु परिच्छिनत्ति, तेन कारणेन सामान्यशब्देन आत्मा भण्यते।</span> =<span class="HindiText">वस्तु का ज्ञान करता हुआ जो आत्मा है वह ‘मैं इसको जानता हूँ’ और ‘इसको नहीं जानता हूँ’, इस प्रकार विशेष पक्षपात को नहीं करता है किंतु सामान्य रूप से पदार्थ को जानता है। इस कारण ‘सामान्य’ इस शब्द से आत्मा कहा जाता है।</span><br> | ||
धवला 1/1,1,4/147/4 <span class="SanskritText">आत्मन: सकलबाह्यार्थसाधारणत्वत: सामान्यव्यपदेशभाजा। </span>=<span class="HindiText">आत्मा संपूर्ण बाह्य पदार्थों में साधारण रूप से पाया जाता है, इसलिए ‘सामान्य’ शब्द से आत्मा का व्यपदेश किया गया है।</span> धवला 7/2,1,56/100/5 <span class="PrakritText"> ण च जीवस्स सामण्णत्तमसिद्धं णियमेण विणा विसईकयत्तिकालगोयराणं तत्थवेंजणपज्जओवचियबज्झंतरंगाणं तत्थ सामणत्ताविरोहादो। </span>=<span class="HindiText">जीव का सामान्यत्व असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि नियम के बिना ज्ञान के विषयभूत किये गए त्रिकाल गोचर अनंत अर्थ और व्यंजन पर्यायों से संचित बहिरंग और अंतरंग पदार्थों का, जीव में सामान्यत्व मानने में विरोध नहीं आता।</span></li> | धवला 1/1,1,4/147/4 <span class="SanskritText">आत्मन: सकलबाह्यार्थसाधारणत्वत: सामान्यव्यपदेशभाजा। </span>=<span class="HindiText">आत्मा संपूर्ण बाह्य पदार्थों में साधारण रूप से पाया जाता है, इसलिए ‘सामान्य’ शब्द से आत्मा का व्यपदेश किया गया है।</span> धवला 7/2,1,56/100/5 <span class="PrakritText"> ण च जीवस्स सामण्णत्तमसिद्धं णियमेण विणा विसईकयत्तिकालगोयराणं तत्थवेंजणपज्जओवचियबज्झंतरंगाणं तत्थ सामणत्ताविरोहादो। </span>=<span class="HindiText">जीव का सामान्यत्व असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि नियम के बिना ज्ञान के विषयभूत किये गए त्रिकाल गोचर अनंत अर्थ और व्यंजन पर्यायों से संचित बहिरंग और अंतरंग पदार्थों का, जीव में सामान्यत्व मानने में विरोध नहीं आता।</span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="4.5" id="4.5"> दर्शन सामान्य के अस्तित्व की सिद्धि</strong> </span><br> | ||
धवला 7/2,1,56/ पृष्ठ/पंक्ति <span class="PrakritText">ण दंसणमत्थि विसयाभावादो। ण वज्जत्थसामण्णग्गहणं दंसणं, केवलदंसणस्साभावप्पसंगादो। कुदो। केवलणाणेण तिकालगोयराणं तत्थवेंजणपज्जयसरूवस्स सव्वदव्वेसु अवगएसु केवलदंसणस्स विसयाभावा (96/8)। ण चासेसविसेग्गाही केवलणाणं जेण सयलत्थसामण्णं केवलदंसणस्स विसओ होज्ज। (97/1) तम्हा ण दंसणमत्थि त्ति सिद्धं (97/10)।<br> | धवला 7/2,1,56/ पृष्ठ/पंक्ति <span class="PrakritText">ण दंसणमत्थि विसयाभावादो। ण वज्जत्थसामण्णग्गहणं दंसणं, केवलदंसणस्साभावप्पसंगादो। कुदो। केवलणाणेण तिकालगोयराणं तत्थवेंजणपज्जयसरूवस्स सव्वदव्वेसु अवगएसु केवलदंसणस्स विसयाभावा (96/8)। ण चासेसविसेग्गाही केवलणाणं जेण सयलत्थसामण्णं केवलदंसणस्स विसओ होज्ज। (97/1) तम्हा ण दंसणमत्थि त्ति सिद्धं (97/10)।<br> | ||
एत्थ परिहारो उच्चदे-अत्थि दंसणं, अट्ठकम्मणिदेसादो। ...ण चासंते आवरणिज्जे आवयरमत्थि, अण्णत्थतहाणुवलंभादो। ...ण चावरणिज्जं णत्थि, चक्खुदंसणी अचक्खुदंसणी ओहिदंसणी खवोसमियाए, केवलदंसणी खइयाए लद्धीए त्ति तदत्थिपटुप्पायणजिणवयणदंसणादो–(98/1)। एओ मे सस्सदो अप्पा णाणदंसण लक्खणो।16। इच्चादि उवसंहारसुत्तदंसणादो च (98/10)।<br> | एत्थ परिहारो उच्चदे-अत्थि दंसणं, अट्ठकम्मणिदेसादो। ...ण चासंते आवरणिज्जे आवयरमत्थि, अण्णत्थतहाणुवलंभादो। ...ण चावरणिज्जं णत्थि, चक्खुदंसणी अचक्खुदंसणी ओहिदंसणी खवोसमियाए, केवलदंसणी खइयाए लद्धीए त्ति तदत्थिपटुप्पायणजिणवयणदंसणादो–(98/1)। एओ मे सस्सदो अप्पा णाणदंसण लक्खणो।16। इच्चादि उवसंहारसुत्तदंसणादो च (98/10)।<br> | ||
आगमपमाणेण होदु णाम दंसणस्स अत्थित्तं, ण जुत्तीए च। ण, जुत्ती हि आमस्स बाहाभावादो। आगमेण वि जच्चा जुत्ती ण बाहिज्ज त्ति चे। सच्चं ण बाहिज्जदि जच्चा जुत्ती, किंतु इमा बाहिज्जदि जच्चदाभावादो। तं जहा–ण णाणेण विसेसो चेव घेप्पदि सामण्णविसेसप्पयत्तणेण पत्तजच्चंतरदव्वुवलंभादो (98/10)। ण च एवं संते दंसणास्स अभावो, वज्झत्थे मोत्तूण तस्स अंतरंगत्थे वावारादो। ण च केवलणाणमेव सत्तिदुवसंजुत्तत्तादो बहिरंतरंगत्थपरिच्छेदयं, ...तम्हा अंतरंगोवजोगादो बहिरंगुवजोगेण पुधभूदेण होदव्वमण्णहा सव्वण्हुत्ताणुववत्तीदो। अंतरंगबहिरंगुवजोगसण्णिददुसत्तीजुत्तो अप्पा इच्छिदव्वो। ‘जं सामण्णं ग्गहणं...’ ण च एदेण सुत्तेणेदं वक्खाणं विरुज्झदे, अप्पत्थम्मि पउत्तसामण्णसद्दग्गहणादो। (99/7)।<br>होदु णाम सामण्णेण दंसणस्स सिद्धी, केवलदंसणस्स सिद्धी च, ण सेस दंसणाणं। (100/6)।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–दर्शन है ही नहीं, क्योंकि, उसका कोई विषय नहीं है। बाह्य पदार्थों के सामान्य को ग्रहण करना दर्शन नहीं हो सकता, क्योंकि वैसा मानने पर केवलदर्शन के अभाव का प्रसंग आ जायेगा। इसका कारण यह है कि जब केवलज्ञान के द्वारा त्रिकाल गोचर अनंत अर्थ और व्यंजन पर्याय स्वरूप समस्त द्रव्यों को जान लिया जाता है, तब केवल दर्शन के (जानने के) लिए कोई विषय ही (शेष) नहीं रहता। यह भी नहीं हो सकता कि समस्त विशेषमात्र का ग्रहण करने वाला ही केवलज्ञान हो, जिससे कि समस्त पदार्थों का सामान्य धर्म दर्शन का विषय हो जाये (क्योंकि इसका पहले ही निराकरण कर दिया गया–देखें [[ दर्शन#2.3 | दर्शन - 2.3]]) इसलिए दर्शन की कोई पृथक् सत्ता है ही नहीं यह सिद्ध हुआ ? <strong>उत्तर</strong>–1. अब यहाँ उक्त शंका का परिहार करते हैं। दर्शन है, क्योंकि सूत्र में आठकर्मों का निर्देश किया गया है। आवरणीय के अभाव में आवरण हो नहीं सकता, क्योंकि अन्यत्र वैसा पाया नहीं जाता। ( कषायपाहुड़ 1/1-20/327/359/1 ) (और भी–देखें [[ अगला शीर्षक ]])। 2. आवरणीय है ही नहीं, सो बात भी नहीं है, ‘चक्षुदर्शनी’, अचक्षुदर्शनी और अवधिदर्शनी क्षायोपशमिक लब्धि से और केवलदर्शनी क्षायिक लब्धि से होते हैं ( षट्खंडागम 7/2,1/ सूत्र 57-59/102,103)। ऐसे आवरणीय के अस्तित्व का प्रतिपादन करने वाले जिन भगवान् के वचन देखे जाते हैं। तथा–‘ज्ञान और दर्शन लक्षण वाला मेरा एक आत्मा ही शाश्वत है’ इस प्रकार के अनेक उपसंहारसूत्र देखने से भी यही सिद्ध होता है, कि दर्शन है। <strong>प्रश्न</strong> <strong>2</strong>–आगमप्रमाण से भले ही दर्शन का अस्तित्व हो, किंतु युक्ति से तो दर्शन का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता ? <strong>उत्तर</strong>–होता है, क्योंकि युक्तियों से आगम को बाधा नहीं होती। <strong>प्रश्न</strong>–आगम से भी तो उत्तम युक्ति की बाधा नहीं होनी चाहिए ? <strong>उत्तर</strong>–सचमुच ही आगम से उत्तम युक्ति की बाधा नहीं होती, किंतु प्रस्तुत युक्ति की बाधा अवश्य होती है, क्योंकि वह (ऊपर दी गयी युक्ति) उत्तम युक्ति नहीं है। 3. वह इस प्रकार है–ज्ञान द्वारा केवल विशेष का ग्रहण नहीं होता, क्योंकि सामान्य विशेषात्मक होने से ही द्रव्य का जात्यंतर स्वरूप पाया जाता है (विशेष देखें [[ दर्शन#2.3 | दर्शन - 2.3]],4)। 4. इस प्रकार आगम और युक्ति दोनों से दर्शन का अस्तित्व सिद्ध होने पर उसका अभाव नहीं माना जा सकता, क्योंकि दर्शन का व्यापार बाह्य वस्तु को छोड़कर अंतरंग वस्तु में होता है। (विशेष देखें [[ दर्शन#2.2 | दर्शन - 2.2]])। 5. यहाँ यह भी नहीं कर सकते कि केवलज्ञान ही दो शक्तियों से संयुक्त होने के कारण, बहिरंग और अंतरंग दोनों वस्तुओं का परिच्छेदक है (क्योंकि इसका निराकरण पहले ही कर दिया जा चुका है) (देखें [[ दर्शन#5.9 | दर्शन - 5.9]])। 6. इसलिए अंतरंग उपयोग से बहिरंग उपयोग को पृथक् ही होना चाहिए अन्यथा सर्वज्ञत्व की उपपत्ति नहीं बनती। अतएव आत्मा को अंतरंग उपयोग और बहिरंग उपयोग ऐसी दो शक्तियों से युक्त मानना अभीष्ट सिद्ध होता है (विशेष देखें [[ दर्शन#2.6 | दर्शन - 2.6]])। 7. ऐसा मानने पर ‘वस्तुसामान्य का ग्राहक दर्शन है’ इस सूत्र से प्रस्तुत व्याख्यान विरुद्ध भी नहीं पड़ता है, क्योंकि उक्तसूत्र में ‘सामान्य’ शब्द का प्रयोग आत्म पदार्थ के लिए हो किया गया है (विशेष देखें [[ दर्शन#4.2 | दर्शन - 4.2]]-4)। <strong>प्रश्न</strong> <strong>8</strong>–इस प्रकार से सामान्य से दर्शन की सिद्धि और केवलदर्शन की सिद्धि भले हो जाये, किंतु उससे शेष दर्शनों की सिद्धि नहीं होती, क्योंकि (सूत्रवचनों में उनकी प्रारूपणा बाह्यार्थ विषयक रूप से की गयी है)। <strong>उत्तर</strong>–(अन्य दर्शनों की सिद्धि भी अवश्य होती है, क्योंकि वहाँ की गयी बाह्यार्थाश्रित प्ररूपणा भी वास्तव में अंतरंग विषय को ही बताती है–देखें [[ दर्शन#5.3 | दर्शन - 5.3]])। </span></li> | आगमपमाणेण होदु णाम दंसणस्स अत्थित्तं, ण जुत्तीए च। ण, जुत्ती हि आमस्स बाहाभावादो। आगमेण वि जच्चा जुत्ती ण बाहिज्ज त्ति चे। सच्चं ण बाहिज्जदि जच्चा जुत्ती, किंतु इमा बाहिज्जदि जच्चदाभावादो। तं जहा–ण णाणेण विसेसो चेव घेप्पदि सामण्णविसेसप्पयत्तणेण पत्तजच्चंतरदव्वुवलंभादो (98/10)। ण च एवं संते दंसणास्स अभावो, वज्झत्थे मोत्तूण तस्स अंतरंगत्थे वावारादो। ण च केवलणाणमेव सत्तिदुवसंजुत्तत्तादो बहिरंतरंगत्थपरिच्छेदयं, ...तम्हा अंतरंगोवजोगादो बहिरंगुवजोगेण पुधभूदेण होदव्वमण्णहा सव्वण्हुत्ताणुववत्तीदो। अंतरंगबहिरंगुवजोगसण्णिददुसत्तीजुत्तो अप्पा इच्छिदव्वो। ‘जं सामण्णं ग्गहणं...’ ण च एदेण सुत्तेणेदं वक्खाणं विरुज्झदे, अप्पत्थम्मि पउत्तसामण्णसद्दग्गहणादो। (99/7)।<br>होदु णाम सामण्णेण दंसणस्स सिद्धी, केवलदंसणस्स सिद्धी च, ण सेस दंसणाणं। (100/6)।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–दर्शन है ही नहीं, क्योंकि, उसका कोई विषय नहीं है। बाह्य पदार्थों के सामान्य को ग्रहण करना दर्शन नहीं हो सकता, क्योंकि वैसा मानने पर केवलदर्शन के अभाव का प्रसंग आ जायेगा। इसका कारण यह है कि जब केवलज्ञान के द्वारा त्रिकाल गोचर अनंत अर्थ और व्यंजन पर्याय स्वरूप समस्त द्रव्यों को जान लिया जाता है, तब केवल दर्शन के (जानने के) लिए कोई विषय ही (शेष) नहीं रहता। यह भी नहीं हो सकता कि समस्त विशेषमात्र का ग्रहण करने वाला ही केवलज्ञान हो, जिससे कि समस्त पदार्थों का सामान्य धर्म दर्शन का विषय हो जाये (क्योंकि इसका पहले ही निराकरण कर दिया गया–देखें [[ दर्शन उपयोग 1#2.3 | दर्शन - 2.3]]) इसलिए दर्शन की कोई पृथक् सत्ता है ही नहीं यह सिद्ध हुआ ? <strong>उत्तर</strong>–1. अब यहाँ उक्त शंका का परिहार करते हैं। दर्शन है, क्योंकि सूत्र में आठकर्मों का निर्देश किया गया है। आवरणीय के अभाव में आवरण हो नहीं सकता, क्योंकि अन्यत्र वैसा पाया नहीं जाता। ( कषायपाहुड़ 1/1-20/327/359/1 ) (और भी–देखें [[ अगला शीर्षक ]])। 2. आवरणीय है ही नहीं, सो बात भी नहीं है, ‘चक्षुदर्शनी’, अचक्षुदर्शनी और अवधिदर्शनी क्षायोपशमिक लब्धि से और केवलदर्शनी क्षायिक लब्धि से होते हैं ( षट्खंडागम 7/2,1/ सूत्र 57-59/102,103)। ऐसे आवरणीय के अस्तित्व का प्रतिपादन करने वाले जिन भगवान् के वचन देखे जाते हैं। तथा–‘ज्ञान और दर्शन लक्षण वाला मेरा एक आत्मा ही शाश्वत है’ इस प्रकार के अनेक उपसंहारसूत्र देखने से भी यही सिद्ध होता है, कि दर्शन है। <strong>प्रश्न</strong> <strong>2</strong>–आगमप्रमाण से भले ही दर्शन का अस्तित्व हो, किंतु युक्ति से तो दर्शन का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता ? <strong>उत्तर</strong>–होता है, क्योंकि युक्तियों से आगम को बाधा नहीं होती। <strong>प्रश्न</strong>–आगम से भी तो उत्तम युक्ति की बाधा नहीं होनी चाहिए ? <strong>उत्तर</strong>–सचमुच ही आगम से उत्तम युक्ति की बाधा नहीं होती, किंतु प्रस्तुत युक्ति की बाधा अवश्य होती है, क्योंकि वह (ऊपर दी गयी युक्ति) उत्तम युक्ति नहीं है। 3. वह इस प्रकार है–ज्ञान द्वारा केवल विशेष का ग्रहण नहीं होता, क्योंकि सामान्य विशेषात्मक होने से ही द्रव्य का जात्यंतर स्वरूप पाया जाता है (विशेष देखें [[ दर्शन उपयोग 1#2.3 | दर्शन - 2.3]], [[ दर्शन उपयोग 1#2.4 | दर्शन - 2.4]])। 4. इस प्रकार आगम और युक्ति दोनों से दर्शन का अस्तित्व सिद्ध होने पर उसका अभाव नहीं माना जा सकता, क्योंकि दर्शन का व्यापार बाह्य वस्तु को छोड़कर अंतरंग वस्तु में होता है। (विशेष देखें [[ दर्शन उपयोग 1#2.2 | दर्शन - 2.2]])। 5. यहाँ यह भी नहीं कर सकते कि केवलज्ञान ही दो शक्तियों से संयुक्त होने के कारण, बहिरंग और अंतरंग दोनों वस्तुओं का परिच्छेदक है (क्योंकि इसका निराकरण पहले ही कर दिया जा चुका है) (देखें [[ दर्शन उपयोग 1#5.9 | दर्शन - 5.9]])। 6. इसलिए अंतरंग उपयोग से बहिरंग उपयोग को पृथक् ही होना चाहिए अन्यथा सर्वज्ञत्व की उपपत्ति नहीं बनती। अतएव आत्मा को अंतरंग उपयोग और बहिरंग उपयोग ऐसी दो शक्तियों से युक्त मानना अभीष्ट सिद्ध होता है (विशेष देखें [[ दर्शन उपयोग 1#2.6 | दर्शन - 2.6]])। 7. ऐसा मानने पर ‘वस्तुसामान्य का ग्राहक दर्शन है’ इस सूत्र से प्रस्तुत व्याख्यान विरुद्ध भी नहीं पड़ता है, क्योंकि उक्तसूत्र में ‘सामान्य’ शब्द का प्रयोग आत्म पदार्थ के लिए हो किया गया है (विशेष देखें [[ दर्शन उपयोग 1#4.2 | दर्शन - 4.2]]-4)। <strong>प्रश्न</strong> <strong>8</strong>–इस प्रकार से सामान्य से दर्शन की सिद्धि और केवलदर्शन की सिद्धि भले हो जाये, किंतु उससे शेष दर्शनों की सिद्धि नहीं होती, क्योंकि (सूत्रवचनों में उनकी प्रारूपणा बाह्यार्थ विषयक रूप से की गयी है)। <strong>उत्तर</strong>–(अन्य दर्शनों की सिद्धि भी अवश्य होती है, क्योंकि वहाँ की गयी बाह्यार्थाश्रित प्ररूपणा भी वास्तव में अंतरंग विषय को ही बताती है–देखें [[ दर्शन उपयोग 1#5.3 | दर्शन - 5.3]])। </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="4.6" id="4.6"> दर्शनावरण प्रकृति भी स्वरूपसंवेदन को घातती है</strong> </span><br> धवला 6/1,9-1,16/32/6 <span class="SanskritText">कधमेदेसिं पंचण्हं दंसणावरणववएसो। ण, चेयणमवहरंतस्स सव्वदंसणविरोहिणो दंसणावरणत्तपडिविरोहाभावा। किं दर्शनम् ? ज्ञानोत्पादकप्रयत्नानुविद्धस्वसंवेदो दर्शनं आत्मविषयोपयोग इत्यर्थ:। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–इन पाँचों निद्राओं को दर्शनावरण संज्ञा कैसे है ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, आत्मा के चेतन गुण को अपहरण करने वाले और सर्वदर्शन के विरोधी कर्म के दर्शनावरणत्व के प्रति कोई विरोध नहीं है। =<strong>प्रश्न</strong>–दर्शन किसे कहते हैं ? <strong>उत्तर</strong>–ज्ञान को उत्पादन करने वाले प्रयत्न से संबद्ध स्व-संवेदन अर्थात् आत्मविषयक उपयोग को दर्शन कहते हैं। </span> धवला 7/5,5,85/355/2 <span class="PrakritText">एदासिं पंचण्णपयडीणं बहिरंतरंगत्थगहणपडिकूताणं कधं दंसणावरणसण्णा दोण्णमावारयाणमेगावारयत्तविरोहादो। ण, एदाओ पंच वि पयडीओ दंसणावरणीयं चेव, सगसंवेयणविणासणकारणादो। बहिरंगत्थगहणाभावो वि ततो चेव होदि त्ति ण वोत्तुं जुत्तं, दंसणाभावेण तव्विणासादो। किमट्ठं दंसणाभावेण णाणाभावो। णिद्दाए विणासिद बज्झत्थगहणजणणसत्तितादो। ण च तज्जणणसत्ती णाणं, तिस्से दंसणप्पयजीवत्तादो। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–ये पाँचों (निद्रादि) प्रकृतियाँ बहिरंग और अंतरंग दोनों ही प्रकार के अर्थ के ग्रहण में बाधक हैं, इसलिए इनकी दर्शनावरण संज्ञा कैसे हो सकती है, क्योंकि दोनों को आवरण करने वालों को एक का आवरण करने वाला मानने में विरोध आता है ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, ये पाँचों ही प्रकृतियाँ दर्शनावरणीय ही हैं, क्योंकि वे स्वसंवेदन का विनाश करती हैं ( धवला 5/11/9/1 ) <strong>प्रश्न</strong>–बहिरंग अर्थ के ग्रहण का अभाव भी तो उन्हीं से होता है ? <strong>उत्तर</strong>–ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि उसका विनाश दर्शन के अभाव से होता है। <strong>प्रश्न</strong>–दर्शन का अभाव होने से ज्ञान का अभाव क्यों होता है ? <strong>उत्तर</strong>–कारण कि निद्रा बाह्य अर्थ के ग्रहण को उत्पन्न करने वाली शक्ति (प्रयत्न विशेष) की विनाशक है। और यह शक्ति ज्ञान तो हो नहीं सकती, क्योंकि, वह दर्शनात्मक जीव स्वरूप है (देखें [[ दर्शन उपयोग 1#1.3.3 | दर्शन - 1.3.3]])।</span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="4.7" id="4.7"> सामान्य ग्रहण व आत्मग्रहण का समन्वय</strong> </span><br> द्रव्यसंग्रह टीका/44/192/2 <span class="SanskritText"> किं बहुना यदि कोऽपि तर्कार्थं सिद्धार्थं च ज्ञात्वैकांतदुराग्रहत्यागेन नयविभागेन मध्यस्थवृत्त्या व्याख्यानं करोति, तदा द्वयमपि घटत इति। कथमिति चेत्–तर्के मुख्यवृत्त्या परसमयव्याख्यानं, तत्र यदा कोऽपि परसमयी पृच्छति जैनागमे दर्शनं ज्ञानं चेति गुणद्वयं जीवस्य कथ्यते तत्कथं घटत इति। तदा तेषामात्मग्राहकं दर्शनमिति कथिते सति ते न जानंति। पश्चादाचार्यैस्तेषां प्रतीत्यर्थं स्थूलव्याख्यानेन बहिर्विषये यत्सामान्यपरिच्छेदनं तस्य सत्तावलोकनदर्शनसंज्ञा स्थापिता, यच्च शुक्लमिदमित्यादिविशेषपरिच्छेदनं तस्य ज्ञानसंज्ञा स्थापितेति दोषो नास्ति। सिद्धांते पुन: स्वसमयव्याख्यानं मुख्यवृत्त्या। तत्र सूक्ष्मव्याख्यानं क्रियमाणे सत्याचार्यैरात्मग्राहकं दर्शनं व्याख्यातमित्यत्रापि दोषो नास्ति। </span>=<span class="HindiText">अधिक कहने से क्या–यदि कोई भी तर्क और सिद्धांत के अर्थ को जानकर, एकांत दुराग्रह को त्याग करके, नयों के विभाग से मध्यस्थता धारण करके, व्याख्यान करता है तब तो सामान्य और आत्मा ये दोनों ही घटित होते हैं। सो कैसे?–तर्क में मुख्यता से अन्यमत को दृष्टि में रखकर कथन किया जाता है। इसलिए उसमें यदि कोई अन्यमतावलंबी पूछे कि जैन सिद्धांत में जीव के ‘दर्शन और ज्ञान’ ये जो दो गुण कहे जाते हैं, वे कैसे घटित होते हैं? तब इसके उत्तर में यदि उसे कहा जाये कि ‘आत्मग्राहक दर्शन है’ तो वह समझेगा नहीं। तब आचार्यों ने उनको प्रतीति करने के लिए विस्तृत व्याख्यान से ‘जो बाह्य विषय में सामान्य जानना है उसका नाम ‘दर्शन’ स्थापित किया और जो ‘यह सफेद है’ इत्यादि रूप से बाह्य में विशेष का जानना है उसका नाम ‘ज्ञान’ ठहराया, अत: दोष नहीं है। सिद्धांत में मुख्यता से निजसमय का व्याख्यान होता है, इसलिए सिद्धांत में जब सूक्ष्म व्याख्यान किया गया तब आचार्यों ने ‘आत्मग्राहक दर्शन है’ ऐसा कहा। अत: इसमें भी दोष नहीं है।</span></li> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="5" id="5"> दर्शनोपयोग के भेदों का निर्देश</strong> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="5.1" id="5.1"> दर्शन के भेदों के नाम निर्देश</strong> </span><br /> | ||
षट्खंडागम/1/1,1/ सूत्र 131/378 <span class="PrakritText">दंसणाणुवादेण अत्थि चक्खुदंसणी अचक्खुदंसणी ओधिदंसणी केवलदंसणी चेदि। </span>=<span class="HindiText">दर्शनमार्गणा के अनुवाद से चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन धारण करने वाले जीव हेते हैं। ( पंचास्तिकाय/42 ), ( नियमसार 13/14 ) ( सर्वार्थसिद्धि/2/9/163/9 ), ( राजवार्तिक/2/9/3/124/9 ), ( द्रव्यसंग्रह टीका/13/38/4 ), ( परमात्मप्रकाश/2/34/155/2 )</span></li> | षट्खंडागम/1/1,1/ सूत्र 131/378 <span class="PrakritText">दंसणाणुवादेण अत्थि चक्खुदंसणी अचक्खुदंसणी ओधिदंसणी केवलदंसणी चेदि। </span>=<span class="HindiText">दर्शनमार्गणा के अनुवाद से चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन धारण करने वाले जीव हेते हैं। ( पंचास्तिकाय/42 ), ( नियमसार 13/14 ) ( सर्वार्थसिद्धि/2/9/163/9 ), ( राजवार्तिक/2/9/3/124/9 ), ( द्रव्यसंग्रह टीका/13/38/4 ), ( परमात्मप्रकाश/2/34/155/2 )</span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="5.2" id="5.2"> चक्षु आदि दर्शनों के लक्षण</strong></span><br> पञ्चसंग्रह/1/139-141 <span class="PrakritGatha">चक्खूणाजं पयासइ दीसइ तं चक्खुदंसणं विंति। सेसिंदियप्पयासो णायव्वो सो अचक्खु त्ति।139। परमाणुआदियाइं अंतिमरखंध त्ति मुत्तदव्वाइं। तं ओहिदंसणं पुण जं पस्सइ ताइं पच्चक्खं।140। बहुविह बहुप्पयारा उज्जोवा परिवियम्हि खेतम्हि। लोयालोयवितिमिरो सो केवलदंसणुज्जोवो।141। </span>=<span class="HindiText">चक्षु इंद्रिय के द्वारा जो पदार्थ का सामान्य अंश प्रकाशित होता है, अथवा दिखाई देता है, उसे चक्षुदर्शन कहते हैं। शेष चार इंद्रियों से और मन से जो सामान्य प्रतिभास होता है उसे अचक्षुदर्शन जानना चाहिए।139। सब लघु परमाणु से आदि लेकर सर्वमहान् अंतिम स्कंध तक जितने मूर्तद्रव्य हैं, उन्हें जो प्रत्यक्ष देखता है, उसे अवधिदर्शन कहते हैं।140। बहुत जाति के और बहुत प्रकार के चंद्र सूर्य आदि के उद्योत तो परिमित क्षेत्र में ही पाये जाते हैं। अर्थात् वे थोड़े से ही पदार्थों को अल्प परिमाण प्रकाशित करते हैं। किंतु जो केवल दर्शन उद्योत है, वह लोक को और अलोक को भी प्रकाशित करता है, अर्थात् सर्व चराचर जगत् को स्पष्ट देखता है।141।</span> (धवला 1/1,1,131/ गा.195-197/382), (धवला 7/5,5,56/ गा.20-21/100), (गोम्मटसार जीवकांड/484-486/889 )।</br> | ||
<li | पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/42 <span class="SanskritText">तदावरणक्षयोपशमाच्चक्षुरिंद्रियवलंबाच्चमूर्त्तद्रव्यं विकलं सामान्येनावबुध्यते तच्चक्षुर्दर्शनम् । यत्तदावरणक्षयोपशमाच्चक्षुवर्जितेतरचतुरिंद्रियानिंद्रियावलंबाच्च मूर्तामूर्तद्रव्यं विकलं सामान्येनावबुध्यते तदचक्षुर्दर्शनम् । यत्तदावरणक्षयोपशमादेव मूर्तद्रव्यं विकलं सामान्येनावबुध्यते तदवधिदर्शनम् । यत्सकलावरणात्यंतक्षये केवल एव मूर्त्तामूर्त्तद्रव्यं सकलं सामान्येनावबुध्यते तत्स्वाभाविकं केवलदर्शनमिति स्वरूपाभिधानम् । </span>=<span class="HindiText">अपने आवरण के क्षयोपशम से और चक्षुइंद्रिय के आलंबन से मूर्त द्रव्य को विकलरूप से (एकदेश) जो सामान्यत: अवबोध करता है वह चक्षुदर्शन है। उस प्रकार के आवरण के क्षयोपशम से तथा चक्षु से अतिरिक्त शेष चार इंद्रियों और मन के अवलंबन से मूर्त अमूर्त द्रव्यों को विकलरूप से (एकदेश) जो सामान्यत: अवबोध करता है, वह अचक्षुदर्शन है। उस प्रकार के आवरण के क्षयोपशम से ही (बिना किसी इंद्रिय के अवलंबन के) मूर्त द्रव्य को विकलरूप से (एकदेश) जो सामान्यत: अवबोधन करता है, वह अवधिदर्शन है। समस्त आवरण के अत्यंत क्षय से केवल (आत्मा) ही मूर्त अमूर्त द्रव्य को सकलरूप से जो सामान्यत: अवबोध करता है वह स्वाभाविक केवलदर्शन है। इस प्रकार (दर्शनोपयोगों के भेदों का) स्वरूपकथन है। ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/13,14 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/4/13/6 )। </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="5.3" id="5.3"> बाह्यार्थाश्रित प्ररूपणा परमार्थ से अंतरंग विषय को ही बताती है</strong> </span><br> धवला 7/2,1,56/100/12 <span class="PrakritText">इदि बज्झत्थविसयदंसणपरूवणादो। ण एदाणं गाहाणं परमत्थात्थाणुवगमादो। को सो परमत्थत्थो। वुच्चदे–यत् चक्षुषां प्रकाशते चक्षुषा दृश्यते वा तत् चक्षुर्दर्शनमिति ब्रुवते। चक्खिंदियणाणादो जो पुव्वमेव सुवसत्तीए सामण्णए अणुहओ चक्खुणाणुप्पत्तिणिमित्तो तं चक्खुदंसणमिदि उत्तं होदि। गाहाए जलभंजणमकाऊण उज्जुवत्थो घेप्पदि। ण, तत्थ पुव्वुत्तासेसदोसप्पसंगादो।<br>शेषेंद्रियै: प्रतिपन्नस्यार्थस्य यस्मात् अवगमनं ज्ञातव्यं तत् अचक्षुर्दर्शनमिति। सेसिंदियणाणुप्पत्तीदो जो पुव्वमेव सुवसत्तीए अप्पणो विसयम्मि पडिबद्धाए सामण्णेण संवेदो अचक्खुणाणुप्पत्तिणिमित्तो तमचक्खुदंसणमिदि उत्तं होदि। परमाण्वादिकानि आ पश्चिमस्कंधादिति मूर्तिद्रव्याणि यस्मात् पश्यति जानीते तानि साक्षात् तत् अवधिदर्शनमिति द्रष्टव्यम् । परमाणुमादिं कादूण जाव पच्छिमखंधो त्ति टि्ठपोग्गलदव्वाणमवगमादो पचक्खादो जो पुव्वमेव सुवसत्तीविसयउवजोगो ओहिणाणुप्पत्तिणिमित्तो तं ओहिदंसणमिदि घेतव्वं। अण्णहा णाणदंसणाणं भेदाभावादो। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–इन सूत्रवचनों में (देखें [[ #5.2 | पहले वाला शीर्षक नं - 2]]) दर्शन की प्ररूपणा बाह्यार्थविषयक रूप से की गयी है ? <strong>उत्तर</strong>–ऐसा नहीं है, क्योंकि, तुमने इन गाथाओं का परमार्थ नहीं समझा। <strong>प्रश्न</strong>–वह परमार्थ कौन-सा है ? <strong>उत्तर</strong>–कहते हैं–1. (गाथा के पूर्वार्ध का इस प्रकार है) ‘जो चक्षुओं को प्रकाशित होता अर्थात् दिखता है, अथवा आँख द्वारा देखा जाता है, वह चक्षुदर्शन है’–इसका अर्थ ऐसा समझना चाहिए कि चक्षु इंद्रियज्ञान से जो पूर्व ही सामान्य स्वशक्ति का अनुभव होता है, जो कि चक्षु ज्ञान की उत्पत्ति में निमित्तरूप है, वह चक्षुदर्शन है। <strong>प्रश्न</strong>–गाथा का गला न घोंटकर सीधा अर्थ क्यों नहीं करते ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं करते, क्योंकि वैसा करने से पूर्वोक्त समस्त दोषों का प्रसंग आता है। 2–गाथा के उत्तरार्ध का अर्थ इस प्रकार है–‘जो देखा गया है, अर्थात् जो पदार्थ शेष इंद्रियों के द्वारा जाना गया है’ उससे जो ज्ञान होता है, उसे अचक्षुदर्शन जानना चाहिए। (इसका अर्थ ऐसा समझना चाहिए कि–) चक्षु इंद्रियों को छोड़कर शेष इंद्रियज्ञानों की उत्पत्ति से पूर्व ही अपने विषय में प्रतिबद्ध स्वशक्ति का, अचक्षुज्ञान की उत्पत्ति में निमित्तभूत जो सामान्य से संवेदन या अनुभव होता है, वह अचक्षुदर्शन है। 3–द्वितीय गाथा को अर्थ इस प्रकार है–‘परमाणु से लगाकर अंतिम स्कंध पर्यंत जितने मूर्त द्रव्य हैं, उन्हें जिसके द्वारा साक्षात् देखता है या जानता है, वह अवधिदर्शन है।’ इसका अर्थ ऐसा समझना चाहिए, कि–परमाणु से लेकर अंतिम स्कंध पर्यंत जो पुद्गलद्रव्य स्थित हैं, उनके प्रत्यक्ष ज्ञान से पूर्व ही जो अवधिज्ञान की उत्पत्ति का निमित्तभूत स्वशक्ति विषयक उपयोग होता है, वही अवधिदर्शन है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए। अन्यथा ज्ञान और दर्शन में कोई भेद नहीं रहता। ( धवला 6/1,9-1,16/33/2 ); ( धवला 13/5,5,85/355/7 )।</span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="5.4" id="5.4">बाह्यार्थाश्रित प्ररूपणा का कारण</strong> </span><br> धवला 15/9/11 <span class="PrakritText">पुव्वं सव्वं पि दंसणमज्झत्थविसयमिदि परूविदं, संपहिं चक्खुदंसणस्स बज्झत्थविसत्तं परूविदं ति णेदं घडदे, पुब्वावरविरोहादो। ण एस दोसो, एवंविहेसु बज्झत्थेसु पडिबद्धसगसत्तिसंवेयणं चक्खुदंसणं ति जाणावणट्ठं बज्झत्थविसयपरूवणाकरणादो।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> <strong>1</strong>–सभी दर्शन अध्यात्म अर्थ को विषय करने वाले हैं, ऐसी प्ररूपणा पहिले की जा चुकी है। किंतु इस समय बाह्यार्थ को चक्षुदर्शन का विषय कहा है, इस प्रकार यह कथन संगत नहीं है, क्योंकि इससे पूर्वापर विरोध होता है ? <strong>उत्तर</strong>–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि इस प्रकार के बाह्यार्थ में प्रतिबद्ध आत्म शक्ति का संवेदन करने को चक्षुदर्शन कहा जाता है, यह बतलाने के लिए उपर्युक्त बाह्यार्थ विषयता की प्ररूपणा की गई है।</span><br> धवला 7/2,1,56/101/4 <span class="PrakritText">कधमंतरंगाए चक्खिंदियविसयपडिबद्धाए सत्तीए चक्खिंदियस्स पउत्ती। ण अंतरंगे बहिरंगत्थोवयारेण बालजणबोहणट्ठं चक्खूणं च दिस्सदि तं चक्खूदंसणमिदि परूवणादो। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> <strong>2</strong>–उस चक्षु इंद्रिय से प्रतिबद्ध अंतरंग शक्ति में चक्षु इंद्रिय की प्रवृत्ति कैसे हो सकती है ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, यथार्थ में तो चक्षु इंद्रिय की अंतरंग में ही प्रवृत्ति होती है, किंतु बालकजनों के ज्ञान कराने के लिए अंतरंग में बाह्यर्थ के उपचार से ‘चक्षुओं को जो दिखता है, वही चक्षुदर्शन है, ऐसा प्ररूपण किया गया है। </span> कषायपाहुड़ 1/1-20/355/357/3 <span class="PrakritText">इदि बज्झत्थणिद्देसादो ण दंसणमंतरगत्थविसयमिदि णासंकणिज्जं, विसयणिद्देसदुवारेण विसयिणिद्देसादो अण्णेण पयारेण अंतरंगविसयणिरूवणाणुववत्तीदो।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न 3</strong>–इसमें (पूर्वोक्त अवधिदर्शन की व्याख्या में) दर्शन का विषय बाह्य पदार्थ बतलाया है, अत: दर्शन अंतरंग पदार्थ को विषय करता है, यह कहना ठीक नहीं है ? <strong>उत्तर</strong>–ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि गाथा में विषय के निर्देश द्वारा विषयी का निर्देश किया गया है। क्योंकि अंतरंग विषय का निरूपण अन्य प्रकार से किया नहीं जा सकता है।</span></li> | ||
अथ स्याच्चक्षुषा यत्प्रकाशते तद्दर्शनम् । न चात्मा चक्षुषा प्रकाशते तथानुपलंभात् । प्रकाशते च रूपसामान्यविशेषविशिष्टार्थ:। न स दर्शनमर्थस्योपयोगरूपत्वविरोधात् । न तस्योपयोगोऽपि दर्शनं तस्य ज्ञानरूपत्वात् । ततो न चक्षुर्दर्शनमिति, न चक्षुर्दर्शनावरणीयस्य कर्मणोऽस्तित्वान्यथानुपपत्तेराधार्याभावे आधारकस्याप्यभावात् । तस्माच्चक्षुर्दर्शनमंतरंगविषयमित्यंगीकर्तव्यम् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न 1</strong>–विषय और विषयी के योग्य संबंध के अनंतर प्रथम ग्रहण को जो अवग्रह कहा है। सो उस अवग्रह के द्वारा बाह्य अर्थ में रहने वाले विधिसामान्य का ज्ञान तो हो नहीं सकता है, क्योंकि, बाह्य अर्थ में रहने वाला विधि सामान्य अवस्तु है। इसलिए वह कर्म अर्थात् ज्ञान का विषय नहीं हो सकता है। इसलिए विधिनिषेधात्मक बाह्यपदार्थ को अवग्रह मानना चाहिए। परंतु वह अवग्रह दर्शनरूप तो हो नहीं सकता, क्योंकि जो सामान्य को ग्रहण करता है उसे दर्शन कहा है (देखें [[ दर्शन#1.3.2 | दर्शन - 1.3.2]]) अत: चक्षुदर्शन नहीं बनता है ? <strong>उत्तर</strong>–ऊपर दिये गये ये सब दोष (चक्षु) दर्शन को नहीं प्राप्त होते हैं, क्योंकि वह अंतरंग पदार्थ को विषय करता है। और अंतरंग पदार्थ भी सामान्य विशेषात्मक होता है। ...(देखें [[ दर्शन#2.4 | दर्शन - 2.4]])। और वह उस सामान्यविशेषात्मक आत्मा का ही ‘सामान्य’ शब्द के वाच्यरूप में ग्रहण किया है। <strong>प्रश्न 2</strong>–उस (आत्मा) को सामान्यपना कैसे है ? <strong>उत्तर</strong>–चक्षुइंद्रियावरण का क्षयोपशम रूप में ही नियमित है। इसलिए उससे रूपविशिष्ट ही पदार्थ का ग्रहण पाया जाता है। वहाँ पर भी चक्षुदर्शन में रूपसामान्य ही नियमित है, इसलिए उससे नीलादिक में किसी एक रूप के द्वारा ही विशिष्ट वस्तु की उपलब्धि नहीं होती है। अत: चक्षुइंद्रियावरण का क्षयोपशम रूपविशिष्ट अर्थ के प्रति समान हैं। आत्मा को छोड़कर क्षयोपशम पाया नहीं जाता है, इसलिए आत्मा भी क्षयोपशम की अपेक्षा समान है। उस समान के भाव को सामान्य कहते हैं। वह दर्शन का विषय है। <strong>प्रश्न 3</strong>–चक्षु इंद्रिय से जो प्रकाशित होता है उसे दर्शन कहते हैं। परंतु आत्मा तो चक्षु इंद्रिय से प्रकाशित होता नहीं है, क्योंकि, चक्षु इंद्रिय से आत्मा की उपलब्धि होती हुई नहीं देखी जाती है। 4. चक्षु इंद्रिय से रूप सामान्य और रूपविशेष से युक्त पदार्थ प्रकाशित होता है। परंतु पदार्थ तो उपयोगरूप हो नहीं सकता, क्योंकि, पदार्थ को उपयोगरूप मानने में विरोध आता है। 5. पदार्थ का उपयोग भी दर्शन नहीं हो सकता है, क्योंकि उपयोग ज्ञानरूप पड़ता है। इसलिए चक्षुदर्शन का अस्तित्व नहीं बनता है। <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, यदि चक्षुदर्शन नहीं हो तो चक्षुदर्शनावरण कर्म नहीं बन सकता है, क्योंकि, आधार्य के अभाव में आधारक का भी अभाव हो जाता है। इसलिए अंतरंग पदार्थ को विषय करने वाला चक्षुदर्शन है, यह बात स्वीकार कर लेना चाहिए। </span></li> | <li class="HindiText"><strong name="5.5" id="5.5">चक्षुदर्शन सिद्धि</strong> </span><br> धवला 1/1,1,131/379/1 <span class="SanskritText">अथ स्याद्विषयविषयिसंपातसमनंतरमाद्यग्रहणं अवग्रह:। न तेन बाह्यार्थगतविधिसामान्यं परिच्छिद्यते तस्यावस्तुन: कर्मत्वाभावात् ।...तस्माद्विधिनिषेधात्मकबाह्यार्थग्रहणमवग्रह:। न स दर्शनं सामान्यग्रहणस्य दर्शनव्यपदेशात् । ततो न चक्षुदर्शनमिति। अत्र प्रतिविधीयते, नैते दोषा: दर्शनमाढौकंते तस्यांतरंगार्थविषयत्वात् ।...सामान्यविशेषात्मकस्यात्मन: सामान्यशब्दवाच्यत्वेनोपादानात् । तस्य कथं सामान्यतेति चेदुच्यते। चक्षुरिंद्रियक्षयोपशमो हि नाम रूप एव नियमितस्ततो रूपविशिष्टस्यैवार्थग्रहणस्योपलंभात् । तत्रापि रूपसामान्य एव नियमितस्ततो नीलादिष्वेकरूपेणैव विशिष्टवस्त्वनुपलंभात् । तस्माच्चक्षुरिंद्रियक्षयोपशमो रूपविशिष्टार्थं प्रति समान: आत्मव्यतिरिक्तक्षयोपशमाभावादात्मापि तद्द्वारेण समान:। तस्य भाव: सामान्यं तद्दर्शनस्य विषय इति स्थितम् ।<br> | ||
<li | अथ स्याच्चक्षुषा यत्प्रकाशते तद्दर्शनम् । न चात्मा चक्षुषा प्रकाशते तथानुपलंभात् । प्रकाशते च रूपसामान्यविशेषविशिष्टार्थ:। न स दर्शनमर्थस्योपयोगरूपत्वविरोधात् । न तस्योपयोगोऽपि दर्शनं तस्य ज्ञानरूपत्वात् । ततो न चक्षुर्दर्शनमिति, न चक्षुर्दर्शनावरणीयस्य कर्मणोऽस्तित्वान्यथानुपपत्तेराधार्याभावे आधारकस्याप्यभावात् । तस्माच्चक्षुर्दर्शनमंतरंगविषयमित्यंगीकर्तव्यम् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न 1</strong>–विषय और विषयी के योग्य संबंध के अनंतर प्रथम ग्रहण को जो अवग्रह कहा है। सो उस अवग्रह के द्वारा बाह्य अर्थ में रहने वाले विधिसामान्य का ज्ञान तो हो नहीं सकता है, क्योंकि, बाह्य अर्थ में रहने वाला विधि सामान्य अवस्तु है। इसलिए वह कर्म अर्थात् ज्ञान का विषय नहीं हो सकता है। इसलिए विधिनिषेधात्मक बाह्यपदार्थ को अवग्रह मानना चाहिए। परंतु वह अवग्रह दर्शनरूप तो हो नहीं सकता, क्योंकि जो सामान्य को ग्रहण करता है उसे दर्शन कहा है (देखें [[ दर्शन उपयोग 1#1.3.2 | दर्शन - 1.3.2]]) अत: चक्षुदर्शन नहीं बनता है ? <strong>उत्तर</strong>–ऊपर दिये गये ये सब दोष (चक्षु) दर्शन को नहीं प्राप्त होते हैं, क्योंकि वह अंतरंग पदार्थ को विषय करता है। और अंतरंग पदार्थ भी सामान्य विशेषात्मक होता है। ...(देखें [[ दर्शन उपयोग 1#2.4 | दर्शन - 2.4]])। और वह उस सामान्यविशेषात्मक आत्मा का ही ‘सामान्य’ शब्द के वाच्यरूप में ग्रहण किया है। <strong>प्रश्न 2</strong>–उस (आत्मा) को सामान्यपना कैसे है ? <strong>उत्तर</strong>–चक्षुइंद्रियावरण का क्षयोपशम रूप में ही नियमित है। इसलिए उससे रूपविशिष्ट ही पदार्थ का ग्रहण पाया जाता है। वहाँ पर भी चक्षुदर्शन में रूपसामान्य ही नियमित है, इसलिए उससे नीलादिक में किसी एक रूप के द्वारा ही विशिष्ट वस्तु की उपलब्धि नहीं होती है। अत: चक्षुइंद्रियावरण का क्षयोपशम रूपविशिष्ट अर्थ के प्रति समान हैं। आत्मा को छोड़कर क्षयोपशम पाया नहीं जाता है, इसलिए आत्मा भी क्षयोपशम की अपेक्षा समान है। उस समान के भाव को सामान्य कहते हैं। वह दर्शन का विषय है। <strong>प्रश्न 3</strong>–चक्षु इंद्रिय से जो प्रकाशित होता है उसे दर्शन कहते हैं। परंतु आत्मा तो चक्षु इंद्रिय से प्रकाशित होता नहीं है, क्योंकि, चक्षु इंद्रिय से आत्मा की उपलब्धि होती हुई नहीं देखी जाती है। 4. चक्षु इंद्रिय से रूप सामान्य और रूपविशेष से युक्त पदार्थ प्रकाशित होता है। परंतु पदार्थ तो उपयोगरूप हो नहीं सकता, क्योंकि, पदार्थ को उपयोगरूप मानने में विरोध आता है। 5. पदार्थ का उपयोग भी दर्शन नहीं हो सकता है, क्योंकि उपयोग ज्ञानरूप पड़ता है। इसलिए चक्षुदर्शन का अस्तित्व नहीं बनता है। <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, यदि चक्षुदर्शन नहीं हो तो चक्षुदर्शनावरण कर्म नहीं बन सकता है, क्योंकि, आधार्य के अभाव में आधारक का भी अभाव हो जाता है। इसलिए अंतरंग पदार्थ को विषय करने वाला चक्षुदर्शन है, यह बात स्वीकार कर लेना चाहिए। </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="5.6" id="5.6"> दृष्ट की स्मृति का नाम अचक्षुदर्शन नहीं है</strong></span><br> धवला 1/1,1,133/383/8 <span class="SanskritText">दृष्टांतस्मरणमचक्षुर्दर्शनमिति केचिदाचक्षते तन्न घटते एकेंद्रियेषु चक्षुरभावतोऽचक्षुदर्शनस्याभावासंजननात् । दृष्टशब्दउपलंभवाचक इति चेन्न उपलब्धार्थविषयस्मृतेर्दर्शनत्वेंगीक्रियमाणे मनसो निर्विषयतापत्ते:। तत: स्वरूपसंवेदनं दर्शनमित्यंगीकर्तव्यम् ।</span>=<span class="HindiText">दृष्टांत अर्थात् देखे हुए पदार्थ का स्मरण करना अचक्षुदर्शन है, इस प्रकार कितने ही पुरुष कहते हैं, परंतु उनका ऐसा कहना घटित नहीं होता है, क्योंकि, ऐसा मानने पर एकेंद्रियजीवों में चक्षुइंद्रिय का अभाव होने से (पदार्थ को पहिले देखना ही असंभव होने के कारण) उनके अचक्षुदर्शन के अभाव का प्रसंग आ जायेगा। <strong>प्रश्न</strong>–दृष्टांत में ‘दृष्ट‘ शब्द उपलंभवाचक ग्रहण करना चाहिए? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, उपलब्ध पदार्थ को विषय करने वाली स्मृति को दर्शन स्वीकार कर लेने पर मन को विषय रहितपने की आपत्ति आ जाती है। इसलिए स्वरूपसंवेदन (अचक्षु) दर्शन है, ऐसा स्वीकार करना चाहिए। </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="5.7" id="5.7"> पाँच दर्शनों के लिए एक अचक्षुदर्शन नाम क्यों</strong> </span><br> धवला 15/10/2 <span class="PrakritText">पंचण्णं दंसणाणमचक्खुदंसणमिदि एगणिद्देसो किमट्ठं कदो। तेसिं पच्चासत्ती अत्थि त्ति जाणावणट्ठं कदो। कधं तेसिं पच्चासत्ती। विसईदो पुथभूदस्स अक्कमेण सग-परपच्चक्खस्स चक्खुदंसणविसयस्सेव तेसिं विसयस्स परेसिं जाणावणोवायाभावं पडिसमाणत्तादो।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–(चक्षु इंद्रिय से अतिरिक्त चार इंद्रिय व मन विषयक) पाँच दर्शनों के लिए अचक्षुदर्शन ऐसा एक निर्देश किस लिए किया। (अर्थात् चक्षुदर्शनवत् इनका भी रसना दर्शन आदि रूप से पृथक्-पृथक् व्यपदेश क्यों न किया)? <strong>उत्तर–</strong>उनकी परस्पर में प्रत्यासत्ति है, इस बात के जतलाने के लिए वैसा निर्देश किया गया है। <strong>प्रश्न</strong>–उनकी परस्पर में प्रत्यासत्ति कैसे है ? <strong>उत्तर</strong>–विषयी से पृथग्भूत अतएव युगपत् स्व और पर को प्रत्यक्ष होने वाले ऐसे चक्षुदर्शन के विषय के समान उन पाँचों दर्शनों के विषय का दूसरों के लिए ज्ञान कराने का कोई उपाय नहीं हे। इसकी समानता पाँचों की दर्शनों में है। यही उनमें प्रत्यासत्ति है। </span></li> | ||
देखें [[ दर्शन#2.8 | दर्शन - 2.8 ]](यद्यपि स्वकीय पर्यायों की अपेक्षा दर्शन का विषय ज्ञान से अधिक है, फिर भी एक दूसरे की अपेक्षा करने के कारण उनमें समानता बन जाती है)। </span></li> | <li class="HindiText"><strong name="5.8" id="5.8">केवल ज्ञान व दर्शन दोनों कथंचित् एक हैं</strong> </span><br> कषायपाहुड़ 1/1-20/ गा.143/357 <span class="PrakritGatha">मणपज्जवणाणंतो णाणस्स य दंसणस्स य विसेसो। केवलियं णाणं पुण णाणं त्ति य दंसणं त्ति य समाणं।143।</span> =<span class="HindiText">मन:पर्यय ज्ञानपर्यंत ज्ञान और दर्शन इन दोनों में विशेष अर्थात् भेद है, परंतु केवलज्ञान की अपेक्षा से तो ज्ञान और दर्शन दोनों समान हैं। नोट–यद्यपि अगले शीर्षक नं.9 के अनुसार इनकी एकता को स्वीकार नहीं किया जाता है और उपरोक्त गाथा का भी खंडन किया गया है, परंतु धवला/1 में इसी बात की पुष्टि की है। यथा–)।</span> ( धवला 6/34/2 )। धवला 1/1,1,135/385/6 <span class="SanskritText">अनंतत्रिकालगोचरबाह्येऽर्थें प्रवृत्तं केवलज्ञानं (स्वतोऽभिन्नवस्तुपरिच्छेदकं च दर्शनमिति) कथमनयो: समानतेति चेत्कथ्यते। ज्ञानप्रमाणमात्मा ज्ञानं च त्रिकालगोचरानंतद्रव्यपर्यायपरिमाणं ततो ज्ञानदर्शनयो: समानत्वमिति।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–त्रिकालगोचर अनंत बाह्यपदार्थों में प्रवृत्ति करने वाला ज्ञान है और स्वरूप मात्र में प्रवृत्ति करने वाला दर्शन है, इसलिए इन दोनों में समानता कैसे हो सकती है? <strong>उत्तर</strong>–आत्मा ज्ञानप्रमाण है और ज्ञान त्रिकाल के विषयभूत द्रव्यों की अनंत पर्यायों को जानने वाला होने से तत्परिमाण है, इसलिए ज्ञान और दर्शन में समानता है। ( धवला 7/2,1,56/102/6 ) ( धवला 6/1,9-1,17/34/6 ) (और भी देखें [[ दर्शन उपयोग 1#2.7 | दर्शन - 2.7]])।<br> | ||
<li | देखें [[ दर्शन उपयोग 1#2.8 | दर्शन - 2.8 ]](यद्यपि स्वकीय पर्यायों की अपेक्षा दर्शन का विषय ज्ञान से अधिक है, फिर भी एक दूसरे की अपेक्षा करने के कारण उनमें समानता बन जाती है)। </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="5.9" id="5.9"> केवलज्ञान से भिन्न केवल दर्शन की सिद्धि</strong> </span><br> कषायपाहुड़ 1/1-20/ प्रकरण/पृष्ठ/पंक्ति <span class="PrakritText">जेण केवलणाणं सपरपयासयं, तेण केवलदंसणं णत्थि त्ति के वि भणंति। एत्थुवउज्जंतीओ गाहाओ–‘‘मणपज्जवणाणंतो–’’ (325/357/4)। एदं पि ण घडदे; केवलणाणस्स पज्जायस्स पज्जायाभावादो। ण पज्जायस्स पज्जाया अत्थि अणवत्थाभावप्पसंगादो। ण केवलणाणं जाणइ पस्सइ वा; तस्स कत्तारत्ताभावादो। तम्हा सपरप्पयासओ जीवो त्ति इच्छियव्वं। ण च दोण्हं पयासाणमेयत्तं; बज्झं तरंगत्थविसयाणं सायार-अणायारणमे-यत्तविरोहादो। (326/357/8)। केवलणाणादो केवलदंसणमभिण्णमिदि केवलदंसणस्स केवलणाणत्तं किण्ण होज्ज। ण एवं संते विसेसाभावेण णाणस्स वि दंसणप्पसंगादो (327/358/4)।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–चूँकि केवलज्ञान स्व और पर दोनों का प्रकाशक है, इसलिए केवलदर्शन नहीं है, ऐसा कुछ आचार्य कहते हैं। और इस विषय की उपयुक्त गाथा देते हैं–मन:पर्ययज्ञानपर्यंत ...(देखें [[ दर्शन उपयोग 1#5.8 | दर्शन - 5.8]]) <strong>उत्तर</strong>–परंतु उनका ऐसा कहना भी नहीं बनता है। 1. क्योंकि केवलज्ञान स्वयं पर्याय है, इसलिए उसकी दूसरी पर्याय नहीं हो सकती है। पर्याय की पर्याय नहीं होती, क्योंकि, ऐसा मानने पर अनवस्था दोष आता है। ( धवला 6/1,9-1,17/34/2 )। ( धवला 7/2,1,56/99/8 )। 2. केवलज्ञान स्वयं तो न जानता ही है और न देखता ही है, क्योंकि वह स्वयं जानने व देखने का कर्ता नहीं है (आत्मा ही उसके द्वारा जानता है।) इसलिए ज्ञान को अंतरंग व बहिरंग दोनों का प्रकाशक न मानकर जीव स्व व पर का प्रकाशक है, ऐसा मानना चाहिए। (विशेष देखें [[ दर्शन उपयोग 1#2.6 | दर्शन - 2.6]])। 3–केवलदर्शन व केवलज्ञान ये दोनों प्रकाश एक हैं, ऐसा भी नहीं कहना चाहिए, क्योंकि बाह्य पदार्थों को विषय करने वाले साकार उपयोग और अंतरंग पदार्थ को विषय करने वाले अनाकार उपयोग को एक मानने में विरोध आता है। ( धवला 1/1,1,133/383/11 ); ( धवला 7/2,1,56/99/9 )। <strong>4.</strong> <strong>प्रश्न</strong>–केवलज्ञान से केवलदर्शन अभिन्न है, इसलिए केवलदर्शन केवलज्ञान क्यों नहीं हो जाता ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, ऐसा होने पर ज्ञान और दर्शन इन दोनों में कोई विशेषता नहीं रहती है, इसलिए ज्ञान को भी दर्शनपने का प्रसंग प्राप्त होता है। (विशेष देखें [[ दर्शन उपयोग 1#2 | दर्शन - 2]])। </span></li> | ||
<li class="HindiText"><strong name="5.10" id="5.10"> आवरण कर्म के अभाव से केवलदर्शन का अभाव नहीं होता</strong> </span><br> कषायपाहुड़ 1/1-20/328-329/359/2 <span class="PrakritText"> मइणाणं व जेण दंसणमावरणणिबंधणं तेण खीणावरणिज्जे ण दंसणमिदि के वि भणंति। एत्थुवउज्जंती गाहा–‘भण्णइ खीणावरणे...’ (328)। एदं पि ण घडदे; आवरणकयस्स मइणाणस्सेव होउ णाम आवरणकयचक्खुअचक्खुओहिदंसणाणमावरणाभावेण अभावो ण केवलदंसणस्स तस्स कम्मेण अजणिदत्तादो। ण कम्मजणिदं केवलदंसणं, सगसरूवपयासेण विणा णिच्चेयणस्स जीवस्स णाणस्स वि अभावप्पसंगादो। </span>=<span class="HindiText">चूँकि दर्शन मतिज्ञान के समान आवरण के निमित्त से होता है, इसलिए आवरण के नष्ट हो जाने पर दर्शन नहीं रहता है, ऐसा कुछ आचार्य कहते हैं। इस विषय से उपयुक्त गाथा इस प्रकार है–‘जिस प्रकार ज्ञानावरण से रहित जिनभगवान् में ...इत्यादि’...पर उनका ऐसा कहना भी नहीं बनता है, क्योंकि जिस प्रकार मतिज्ञान आवरण का कार्य है, इसलिए अवरण के नष्ट हो जाने पर मतिज्ञान का अभाव हो जाता है। उसी प्रकार आवरण का अभाव होने से आवरण के कार्य चक्षुदर्शन अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन का भी अभाव होता है तो होओ पर इससे केवल दर्शन का अभाव नहीं हो सकता है, क्योंकि केवलदर्शन कर्मजनित नहीं है। उसे कर्मजनित मानना भी ठीक नहीं है, ऐसा मानने से, दर्शनावरण का अभाव हो जाने से भगवान् को केवलदर्शन की उत्पत्ति नहीं होगी, और उसकी उत्पत्ति न होने से वे अपने स्वरूप को न जान सकेंगे, जिससे वे अचेतन हो जायेंगे और ऐसी अवस्था में उसके ज्ञान का भी अभाव प्राप्त होगा।</span></li> | |||
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<ol start="6"> | <ol start="6"> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="6" id="6"> श्रुत विभंग व मन:पर्यय के दर्शन संबंधी</strong> | ||
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<ol> | <ol> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="6.1" id="6.1"> श्रुतदर्शन के अभाव में युक्ति</strong></span><br /> | ||
धवला 1/1,1,133/384/5 <span class="SanskritText">श्रुतदर्शनं किमिति नोच्यते इति चेन्न, तस्य मतिपूर्वकस्य दर्शनपूर्वकत्वविरोधात् । यदि बहिरंगार्थसामान्यविषयं दर्शनमभविष्यत्तदा श्रुतज्ञानदर्शनमपि समभविष्यत् । </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–श्रुतदर्शन क्यों नहीं कहा ? <strong>उत्तर</strong>–1. नहीं, क्योंकि, मतिज्ञानपूर्वक होने वाले श्रुतज्ञान को दर्शनपूर्वक मानने में विरोध आता है। ( धवला 3/1,2,161/456/10 ); ( धवला 13/5,5,85/356/2 ) (और भी देखें [[ आगे दर्शन#6.4 | आगे दर्शन - 6.4]]) 2. दूसरे यदि बहिरंग पदार्थ को सामान्य रूप से विषय करने वाला दर्शन होता तो श्रुतज्ञान संबंधी दर्शन भी होता। परंतु ऐसा नहीं (अर्थात् श्रुत ज्ञान का व्यापार बाह्य पदार्थ है अंतरंग नहीं, जबकि दर्शन का विषय अंतरंग पदार्थ है) इसलिए श्रुतज्ञान के पहिले दर्शन नहीं होता।</span><br /> | धवला 1/1,1,133/384/5 <span class="SanskritText">श्रुतदर्शनं किमिति नोच्यते इति चेन्न, तस्य मतिपूर्वकस्य दर्शनपूर्वकत्वविरोधात् । यदि बहिरंगार्थसामान्यविषयं दर्शनमभविष्यत्तदा श्रुतज्ञानदर्शनमपि समभविष्यत् । </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–श्रुतदर्शन क्यों नहीं कहा ? <strong>उत्तर</strong>–1. नहीं, क्योंकि, मतिज्ञानपूर्वक होने वाले श्रुतज्ञान को दर्शनपूर्वक मानने में विरोध आता है। ( धवला 3/1,2,161/456/10 ); ( धवला 13/5,5,85/356/2 ) (और भी देखें [[ आगे [[ दर्शन उपयोग 1#6.4 | आगे दर्शन - 6.4]]) 2. दूसरे यदि बहिरंग पदार्थ को सामान्य रूप से विषय करने वाला दर्शन होता तो श्रुतज्ञान संबंधी दर्शन भी होता। परंतु ऐसा नहीं (अर्थात् श्रुत ज्ञान का व्यापार बाह्य पदार्थ है अंतरंग नहीं, जबकि दर्शन का विषय अंतरंग पदार्थ है) इसलिए श्रुतज्ञान के पहिले दर्शन नहीं होता।</span><br /> | ||
धवला 3/1,2,161/457/1 <span class="SanskritText">जदि सरूवसंवेदणं दंसणं तो एदेसि पि दंसणस्स अत्थित्तं पसज्जदे चेन्न, उत्तरज्ञानोत्पत्तिनिमित्तप्रयत्नविशिष्टस्वसंवेदनस्य दर्शनत्वात् ।</span> <span class="HindiText"><strong>3.प्रश्न</strong>–यदिस्वरूपसंवेदन दर्शन है, तो इन दोनों (श्रुत व मन:पर्यय) ज्ञानों के भी दर्शन के अस्तित्व की प्राप्ति होती है? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, उत्तरज्ञान की उत्पत्ति के निमित्तभूत प्रयत्नविशिष्ट स्वसंवेदन को दर्शन माना गया है। (यहाँ वह कार्य दर्शन की अपेक्षा मतिज्ञान से सिद्ध होता है।)<br /> | धवला 3/1,2,161/457/1 <span class="SanskritText">जदि सरूवसंवेदणं दंसणं तो एदेसि पि दंसणस्स अत्थित्तं पसज्जदे चेन्न, उत्तरज्ञानोत्पत्तिनिमित्तप्रयत्नविशिष्टस्वसंवेदनस्य दर्शनत्वात् ।</span> <span class="HindiText"><strong>3.प्रश्न</strong>–यदिस्वरूपसंवेदन दर्शन है, तो इन दोनों (श्रुत व मन:पर्यय) ज्ञानों के भी दर्शन के अस्तित्व की प्राप्ति होती है? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, उत्तरज्ञान की उत्पत्ति के निमित्तभूत प्रयत्नविशिष्ट स्वसंवेदन को दर्शन माना गया है। (यहाँ वह कार्य दर्शन की अपेक्षा मतिज्ञान से सिद्ध होता है।)<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="6.2" id="6.2"> विभंग दर्शन के अस्तित्व का कथंचित् विधि निषेध</strong> <br /> | ||
देखें [[ सत् प्ररूपणा ]](विभंगज्ञानी को अवधि दर्शन नहीं होता)।</span><br /> | देखें [[ सत् प्ररूपणा ]](विभंगज्ञानी को अवधि दर्शन नहीं होता)।</span><br /> | ||
धवला 1/1,1,134/385/1 <span class="SanskritText">विभंगदर्शनं किमिति पृथग् नोपदिष्टमिति चेन्न, तस्यावधिदर्शनेऽंतर्भावात् ।</span> <span class="HindiText">=विभंग दर्शन का पृथक्रूप से उपदेश क्यों नहीं किया ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि उसका अवधि दर्शन में अंतर्भाव हो जाता है। ( धवला 13/5,5,85/356 )।</span><br /> | धवला 1/1,1,134/385/1 <span class="SanskritText">विभंगदर्शनं किमिति पृथग् नोपदिष्टमिति चेन्न, तस्यावधिदर्शनेऽंतर्भावात् ।</span> <span class="HindiText">=विभंग दर्शन का पृथक्रूप से उपदेश क्यों नहीं किया ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि उसका अवधि दर्शन में अंतर्भाव हो जाता है। ( धवला 13/5,5,85/356 )।</span><br /> | ||
धवला 13/5,5,85/356/4 <span class="SanskritText">तथा सिद्धिविनिश्चयेऽप्युक्तम् – अवधिविभंगयोरवधिदर्शनम्’ इति। </span>=<span class="HindiText">ऐसा ही सिद्धिविनिश्चय में भी कहा है, –‘अवधिज्ञान व विभंगज्ञान के अवधिदर्शन ही होता है’।<br /> | धवला 13/5,5,85/356/4 <span class="SanskritText">तथा सिद्धिविनिश्चयेऽप्युक्तम् – अवधिविभंगयोरवधिदर्शनम्’ इति। </span>=<span class="HindiText">ऐसा ही सिद्धिविनिश्चय में भी कहा है, –‘अवधिज्ञान व विभंगज्ञान के अवधिदर्शन ही होता है’।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="6.3" id="6.3"> मन:पर्यय दर्शन के अभाव में युक्ति</strong> </span><br /> | ||
राजवार्तिक/6/10 वार्तिक/पृष्ठ/पंक्ति–<span class="SanskritText">यथा अवधिज्ञानं दर्शनपूर्वकं तथा मन:पर्ययज्ञानेनापि दर्शनपुरस्सरेण भवितव्यमिति चेत्; तन्न; किं कारणम् । कारणाभावात् । न मन:पर्ययदर्शनावरणमस्ति। दर्शनावरणचतुष्टयोपदेशात्, तद्भावात् तत्क्षयोपशमाभावे तन्निमित्तमन:पर्ययदर्शनोपयोगाभाव:। (18/518/32)। मन:पर्ययज्ञानं स्वविषये अवधिज्ञानवत् न स्वमुखेन वर्तते। कथं तर्हि। परकीयमन:प्रणालिकथा। ततो यथा मनोऽतीतानागतार्थांश्चितयति न तु पश्यति तथा मन:पर्ययज्ञान्यपि भूतभविष्यंतौ वेत्ति न पश्यति। वर्तमानमतिमनोविषयविशेषाकारेणै व प्रतिपद्यते, तत: सामान्यपूर्वकवृत्त्यभावात् मन:पर्ययदर्शनाभाव: (19/519/3)। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–जिस प्रकार अवधिज्ञान दर्शनपूर्वक होता है, उसी प्रकार मन:पर्ययज्ञान को भी दर्शनपूर्वक होना चाहिए ? <strong>उत्तर</strong>–1. ऐसा नहीं है, क्योंकि, तहाँ कारण का अभाव है। मन:पर्यय दर्शनावरण नहीं है, क्योंकि चक्षु आदि चार ही दर्शनावरणों का उपदेश उपलब्ध है। और उसके अभाव के कारण उसके क्षयोपशम का भी अभाव है, और उसके अभाव में तन्निमित्तक मन:पर्ययदर्शनोपयोग का भी अभाव है। 2. मन:पर्ययज्ञान अवधिज्ञान की तरह स्वमुख से विषयों को नहीं जानता, किंतु परकीय मनप्रणाली से जानता है। अत: जिस प्रकार मन अतीत व अनागत अर्थों का विचार चिंतन तो करता है पर देखता नहीं, उसी तरह मन:पर्ययज्ञानी भी भूत और भविष्यत् को जानता तो है, पर देखता नहीं। वह वर्तमान भी मन को विषयविशेषाकार से जानता है, अत: सामान्यावलोकन पूर्वक प्रवृत्ति न होने से मन:पर्यय दर्शन नहीं बनता। </span><br /> | राजवार्तिक/6/10 वार्तिक/पृष्ठ/पंक्ति–<span class="SanskritText">यथा अवधिज्ञानं दर्शनपूर्वकं तथा मन:पर्ययज्ञानेनापि दर्शनपुरस्सरेण भवितव्यमिति चेत्; तन्न; किं कारणम् । कारणाभावात् । न मन:पर्ययदर्शनावरणमस्ति। दर्शनावरणचतुष्टयोपदेशात्, तद्भावात् तत्क्षयोपशमाभावे तन्निमित्तमन:पर्ययदर्शनोपयोगाभाव:। (18/518/32)। मन:पर्ययज्ञानं स्वविषये अवधिज्ञानवत् न स्वमुखेन वर्तते। कथं तर्हि। परकीयमन:प्रणालिकथा। ततो यथा मनोऽतीतानागतार्थांश्चितयति न तु पश्यति तथा मन:पर्ययज्ञान्यपि भूतभविष्यंतौ वेत्ति न पश्यति। वर्तमानमतिमनोविषयविशेषाकारेणै व प्रतिपद्यते, तत: सामान्यपूर्वकवृत्त्यभावात् मन:पर्ययदर्शनाभाव: (19/519/3)। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–जिस प्रकार अवधिज्ञान दर्शनपूर्वक होता है, उसी प्रकार मन:पर्ययज्ञान को भी दर्शनपूर्वक होना चाहिए ? <strong>उत्तर</strong>–1. ऐसा नहीं है, क्योंकि, तहाँ कारण का अभाव है। मन:पर्यय दर्शनावरण नहीं है, क्योंकि चक्षु आदि चार ही दर्शनावरणों का उपदेश उपलब्ध है। और उसके अभाव के कारण उसके क्षयोपशम का भी अभाव है, और उसके अभाव में तन्निमित्तक मन:पर्ययदर्शनोपयोग का भी अभाव है। 2. मन:पर्ययज्ञान अवधिज्ञान की तरह स्वमुख से विषयों को नहीं जानता, किंतु परकीय मनप्रणाली से जानता है। अत: जिस प्रकार मन अतीत व अनागत अर्थों का विचार चिंतन तो करता है पर देखता नहीं, उसी तरह मन:पर्ययज्ञानी भी भूत और भविष्यत् को जानता तो है, पर देखता नहीं। वह वर्तमान भी मन को विषयविशेषाकार से जानता है, अत: सामान्यावलोकन पूर्वक प्रवृत्ति न होने से मन:पर्यय दर्शन नहीं बनता। </span><br /> | ||
धवला 1/1,1,134/385/2 <span class="SanskritText">मन:पर्ययदर्शनं तर्हि वक्तव्यमिति चेन्न, मतिपूर्वकत्वात्तस्य दर्शनाभावात् । </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–मन:पर्यय दर्शन को भिन्नरूप से कहना चाहिए ? <strong>उत्तर</strong>–3. नहीं, क्योंकि, मन:पर्ययज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है, इसलिए मन:पर्यय दर्शन नहीं होता। ( धवला 3/1,2,161/456/10 ); ( धवला 13/5,5,85/356/5 ); ( धवला 6/1,1-9,14/29/2 ); ( धवला 9/4,1,6/53/3 )।<br /> | धवला 1/1,1,134/385/2 <span class="SanskritText">मन:पर्ययदर्शनं तर्हि वक्तव्यमिति चेन्न, मतिपूर्वकत्वात्तस्य दर्शनाभावात् । </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–मन:पर्यय दर्शन को भिन्नरूप से कहना चाहिए ? <strong>उत्तर</strong>–3. नहीं, क्योंकि, मन:पर्ययज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है, इसलिए मन:पर्यय दर्शन नहीं होता। <span class="GRef">( धवला 3/1,2,161/456/10 ); ( धवला 13/5,5,85/356/5 ); ( धवला 6/1,1-9,14/29/2 ); ( धवला 9/4,1,6/53/3 )</span>।<br /> | ||
देखें [[ ऊपर श्रुतदर्शन संबंधी ]]–(उत्तर ज्ञान की उत्पत्ति में कारणभूत प्रयत्नरूप स्वसंवेदन को दर्शन कहते हैं, परंतु यहाँ उत्तर ज्ञान की उत्पत्ति का कार्य मतिज्ञान ही सिद्ध कर देता है।) </span></li> | देखें [[#6.1 | ऊपर श्रुतदर्शन संबंधी ]]–(उत्तर ज्ञान की उत्पत्ति में कारणभूत प्रयत्नरूप स्वसंवेदन को दर्शन कहते हैं, परंतु यहाँ उत्तर ज्ञान की उत्पत्ति का कार्य मतिज्ञान ही सिद्ध कर देता है।) </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="6.4" id="6.4"> मतिज्ञान ही श्रुत व मन:पर्यय का दर्शन है</strong></span><br> द्रव्यसंग्रह टीका/44/188/6 <span class="SanskritText">श्रुतज्ञानमन:पर्ययज्ञानजनकं यदवग्रहेहादिरूपं मतिज्ञानं भणितम्, तदपि दर्शनपूर्वकत्वात्तदुपचारेण दर्शनं भण्यते, यतस्तेन कारणेन श्रुतज्ञानमन:पर्ययज्ञानद्वयमपि दर्शनपूर्वकं ज्ञातव्यमिति। </span>=<span class="HindiText">यहाँ श्रुतज्ञान को उत्पन्न करने वाला जो अवग्रह और मन:पर्ययज्ञान को उत्पन्न करने वाला ईहारूप मतिज्ञान कहा है; वह मतिज्ञान भी दर्शनपूर्वक होता है इसलिए वह मतिज्ञान भी उपचार से दर्शन कहलाता है। इस कारण श्रुतज्ञान और मन:पर्ययज्ञान इन दोनों को भी दर्शनपूर्वक जानना चाहिए।</span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
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<p> </p> | <p> </p> | ||
<ol start="7"> | <ol start="7"> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="7" id="7">दर्शनोपयोग संबंधी कुछ प्ररूपणाएँ</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="7.1" id="7.1"> दर्शनोपयोग अंतर्मुहूर्त अवस्थायी है</strong> </span><br /> | ||
धवला 13/5,5,23/216/13 <span class="SanskritText"> ज्ञानोत्पत्ते: पूर्वावस्था विषयविषयिसंपात: ज्ञानोत्पादनकारणपरिणामविशेषसंतत्युत्पत्त्युपलक्षित: अंतर्मुहूर्तकाल: दर्शनव्यपदेशभाक् । </span>=<span class="HindiText">ज्ञानोत्पत्ति की पूर्वावस्था विषय व विषयी का संपात (संबंध) है, जो दर्शन नाम से कहा जाता है। यह दर्शन ज्ञानोत्पत्ति के कारणभूत परिणाम विशेष की संतति की उत्पत्ति से उपलक्षित होकर अंतर्मुहूर्त कालस्थायी है।) <br>देखें [[ दर्शन#3.2 | दर्शन - 3.2 ]](केवलदर्शनोपयोग भी तद्भवस्थ उपसर्ग केवलियों की अंतर्मुहूर्त कालस्थायी है) <strong>नोट</strong>–(उपरोक्त अंतर्मुहूर्तकाल दर्शनोपयोग की अपेक्षा है और काल प्ररूपणा में दिये गये काल क्षयोपशम सामान्य की अपेक्षा है, अत: दोनों में विरोध नहीं है।) </span></li> | धवला 13/5,5,23/216/13 <span class="SanskritText"> ज्ञानोत्पत्ते: पूर्वावस्था विषयविषयिसंपात: ज्ञानोत्पादनकारणपरिणामविशेषसंतत्युत्पत्त्युपलक्षित: अंतर्मुहूर्तकाल: दर्शनव्यपदेशभाक् । </span>=<span class="HindiText">ज्ञानोत्पत्ति की पूर्वावस्था विषय व विषयी का संपात (संबंध) है, जो दर्शन नाम से कहा जाता है। यह दर्शन ज्ञानोत्पत्ति के कारणभूत परिणाम विशेष की संतति की उत्पत्ति से उपलक्षित होकर अंतर्मुहूर्त कालस्थायी है।) <br>देखें [[दर्शन उपयोग 1#3.2 | दर्शन - 3.2 ]](केवलदर्शनोपयोग भी तद्भवस्थ उपसर्ग केवलियों की अंतर्मुहूर्त कालस्थायी है) <strong>नोट</strong>–(उपरोक्त अंतर्मुहूर्तकाल दर्शनोपयोग की अपेक्षा है और काल प्ररूपणा में दिये गये काल क्षयोपशम सामान्य की अपेक्षा है, अत: दोनों में विरोध नहीं है।) </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="7.2" id="7.2"> लब्ध्यपर्याप्त दशा में चक्षुदर्शनोपयोग संभव नहीं पर निवृत्त्यपर्याप्त दशा में संभव है</strong></span><br> | ||
धवला 4/1,3,67/126/8 <span class="PrakritText">यदि एवं, तो लद्धिअपज्जत्ताणं पि चक्खुदंसणित्तं पसज्जदे। तं च णत्थि, चक्खुदंसणिअवहारकालस्स पदरंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तपमाणप्पसंगादो। ण एस दोसो, णिव्वत्तिअपज्जत्ताणं चक्खुदंसणमत्थि; उत्तरकाले णिच्छएण चक्खुदंसणोवजोगसमुप्पत्तीए अविणाभाविचक्खुदंसणखओवसमदंसणादो। चउरिंदियपंचिंदियलद्धिअपज्जत्ताणं चक्खुदंसणं णत्थि, तत्थ चक्खुदंसणोवओगसमुप्पत्तीए अविणाभाविचक्खुदंसणक्खओवसमाभावादो।</span> <span class="HindiText">=<strong>प्रश्न</strong>–यदि ऐसा है (अर्थात् अपर्याप्तकाल में भी क्षयोपशम की अपेक्षा चक्षुदर्शन पाया जाता है) तो लब्ध्यपर्याप्तक जीवों में भी चक्षुदर्शनीपने का प्रसंग प्राप्त होता है। किंतु लब्ध्यपर्याप्तक जीवों के चक्षुदर्शन होता नहीं है। यदि लब्ध्यपर्याप्त जीवों के भी चक्षुदर्शनोपयोग का सद्भाव माना जायेगा, तो चक्षुदर्शनी जीवों के अवहारकाल को प्रतरांगुल के असंख्यातवें भागमात्र प्रमाणपने का प्रसंग प्राप्त होता है। <strong>उत्तर</strong>–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, निवृत्त्यपर्याप्त जीवों के चक्षुदर्शन होता है। इसका कारण यह है, कि उत्तरकाल में अर्थात् अपर्याप्त काल समाप्त होने के पश्चात् निश्चय से चक्षुदर्शनोपयोग की समुत्पत्ति का अविनाभावी चक्षुदर्शन का क्षयोपशम देखा जाता है। हाँ चतुरिंद्रिय और पंचेंद्रिय लब्ध्यपर्याप्त जीवों चक्षुदर्शन नहीं होता, क्योंकि, उनमें चक्षुदर्शनोपयोग की समुत्पत्ति का अविनाभावी चक्षुदर्शनावरण कर्म के क्षयोपशम का अभाव है। ( धवला 4/1,5,278/454/6 )। </span></li> | धवला 4/1,3,67/126/8 <span class="PrakritText">यदि एवं, तो लद्धिअपज्जत्ताणं पि चक्खुदंसणित्तं पसज्जदे। तं च णत्थि, चक्खुदंसणिअवहारकालस्स पदरंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तपमाणप्पसंगादो। ण एस दोसो, णिव्वत्तिअपज्जत्ताणं चक्खुदंसणमत्थि; उत्तरकाले णिच्छएण चक्खुदंसणोवजोगसमुप्पत्तीए अविणाभाविचक्खुदंसणखओवसमदंसणादो। चउरिंदियपंचिंदियलद्धिअपज्जत्ताणं चक्खुदंसणं णत्थि, तत्थ चक्खुदंसणोवओगसमुप्पत्तीए अविणाभाविचक्खुदंसणक्खओवसमाभावादो।</span> <span class="HindiText">=<strong>प्रश्न</strong>–यदि ऐसा है (अर्थात् अपर्याप्तकाल में भी क्षयोपशम की अपेक्षा चक्षुदर्शन पाया जाता है) तो लब्ध्यपर्याप्तक जीवों में भी चक्षुदर्शनीपने का प्रसंग प्राप्त होता है। किंतु लब्ध्यपर्याप्तक जीवों के चक्षुदर्शन होता नहीं है। यदि लब्ध्यपर्याप्त जीवों के भी चक्षुदर्शनोपयोग का सद्भाव माना जायेगा, तो चक्षुदर्शनी जीवों के अवहारकाल को प्रतरांगुल के असंख्यातवें भागमात्र प्रमाणपने का प्रसंग प्राप्त होता है। <strong>उत्तर</strong>–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, निवृत्त्यपर्याप्त जीवों के चक्षुदर्शन होता है। इसका कारण यह है, कि उत्तरकाल में अर्थात् अपर्याप्त काल समाप्त होने के पश्चात् निश्चय से चक्षुदर्शनोपयोग की समुत्पत्ति का अविनाभावी चक्षुदर्शन का क्षयोपशम देखा जाता है। हाँ चतुरिंद्रिय और पंचेंद्रिय लब्ध्यपर्याप्त जीवों चक्षुदर्शन नहीं होता, क्योंकि, उनमें चक्षुदर्शनोपयोग की समुत्पत्ति का अविनाभावी चक्षुदर्शनावरण कर्म के क्षयोपशम का अभाव है। ( धवला 4/1,5,278/454/6 )। </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="7.3" id="7.3"> मिश्र व कार्माणकाययोगियों में चक्षुदर्शनोपयोग का अभाव</strong> </span><br> | ||
पं.सं./प्रा./4/27-29 <span class="PrakritText">ओरालमिस्स–कम्मे मणपज्जविहंगचक्खुहीण ते।27। तम्मिस्से केवलदुग मणपज्जविहंगचक्खूणा।28। केवलदुयमणपज्जव-अण्णाणेतिएहिं होंति ते ऊणा। आहारजुयलजोए...।29।</span> =<span class="HindiText">योगमार्गणा की अपेक्षा औदारिक मिश्र व कार्माण काययोग में मन:पर्ययज्ञान विभंगावधि और चक्षुदर्शन इन तीन रहित 9 उपयोग होते हैं।26। वैक्रियक मिश्र काययोग केवलद्विक, मन:पर्यय, विभंगावधि और चक्षुदर्शन इन पाँच को छोड़कर शेष 7 उपयोग होते हैं।28। आहारक मिश्रकाय योग में केवलद्विक, मन:पर्ययज्ञान और अज्ञानत्रिक, इन छह को छोड़कर शेष छ: उपयोग होते हैं (अर्थात् आहारमिश्र में चक्षुदर्शनोपयोग होता है)। </span></li> | पं.सं./प्रा./4/27-29 <span class="PrakritText">ओरालमिस्स–कम्मे मणपज्जविहंगचक्खुहीण ते।27। तम्मिस्से केवलदुग मणपज्जविहंगचक्खूणा।28। केवलदुयमणपज्जव-अण्णाणेतिएहिं होंति ते ऊणा। आहारजुयलजोए...।29।</span> =<span class="HindiText">योगमार्गणा की अपेक्षा औदारिक मिश्र व कार्माण काययोग में मन:पर्ययज्ञान विभंगावधि और चक्षुदर्शन इन तीन रहित 9 उपयोग होते हैं।26। वैक्रियक मिश्र काययोग केवलद्विक, मन:पर्यय, विभंगावधि और चक्षुदर्शन इन पाँच को छोड़कर शेष 7 उपयोग होते हैं।28। आहारक मिश्रकाय योग में केवलद्विक, मन:पर्ययज्ञान और अज्ञानत्रिक, इन छह को छोड़कर शेष छ: उपयोग होते हैं (अर्थात् आहारमिश्र में चक्षुदर्शनोपयोग होता है)। </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="7.4" id="7.4"> दर्शनमार्गणा में गुणस्थानों का स्वामित्व</strong> </span><br> | ||
षट्खंडागम 1/1,1/ सू.132-135/383-385 <span class="PrakritText">चक्खुदंसणी चउरिंदियप्पहुडि जाव खीणकसायवीयरायछदुमत्थात्ति।132। अचक्खुदंसणी एइंदियप्पहुडि जाव खीणकसायवीयराय छदुमत्था त्ति।133। ओधिदंसणी असंजदसम्माइट्ठिप्पहुडि जाव खीणकसायवीयरायछदुमत्थात्ति।134। केवलदंसणी तिसुट्ठाणेसु सजोगिकेवली अजोगिकेवली सिद्धा चेदि।135। </span>=<span class="HindiText">चक्षुदर्शन उपयोग वाले जीव चतुरिंद्रिय (मिथ्यादृष्टि) से लेकर (संज्ञी पंचेंद्रिय) क्षीण कषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं।132। अचक्षुदर्शन उपयोग वाले जीव एकेंद्रिय (मिथ्यादृष्टि) से लेकर (संज्ञी पंचेंद्रिय) क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं।133। अवधिदर्शन वाले जीव (संज्ञी पंचेंद्रिय ही) असंयत सम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं।134। केवल दर्शन के धारक जीव (संज्ञी पंचेंद्रिय | षट्खंडागम 1/1,1/ सू.132-135/383-385 <span class="PrakritText">चक्खुदंसणी चउरिंदियप्पहुडि जाव खीणकसायवीयरायछदुमत्थात्ति।132। अचक्खुदंसणी एइंदियप्पहुडि जाव खीणकसायवीयराय छदुमत्था त्ति।133। ओधिदंसणी असंजदसम्माइट्ठिप्पहुडि जाव खीणकसायवीयरायछदुमत्थात्ति।134। केवलदंसणी तिसुट्ठाणेसु सजोगिकेवली अजोगिकेवली सिद्धा चेदि।135। </span>=<span class="HindiText">चक्षुदर्शन उपयोग वाले जीव चतुरिंद्रिय (मिथ्यादृष्टि) से लेकर (संज्ञी पंचेंद्रिय) क्षीण कषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं।132। अचक्षुदर्शन उपयोग वाले जीव एकेंद्रिय (मिथ्यादृष्टि) से लेकर (संज्ञी पंचेंद्रिय) क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं।133। अवधिदर्शन वाले जीव (संज्ञी पंचेंद्रिय ही) असंयत सम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं।134। केवल दर्शन के धारक जीव (संज्ञी पंचेंद्रिय व अनिंद्रिय) सयोगिकेवली, अयोगिकेवली और सिद्ध इन तीन स्थानों में होते हैं।135।</span></li></ol></li> | ||
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[[Category: प्रथमानुयोग]] |
Latest revision as of 22:24, 14 February 2024
जीव की चैतन्यशक्ति दर्पण को स्वच्छत्व शक्तिवत् है। जैसे–बाह्य पदार्थों के प्रतिबिंबों के बिना का दर्पण पाषाण है, उसी प्रकार ज्ञेयाकारों के बिना की चेतना जड़ है। तहाँ दर्पण की निजी स्वच्छतावत् चेतन का निजी प्रतिभास दर्शन है और दर्पण के प्रतिबिंबोंवत् चेतना में पड़े ज्ञेयाकार ज्ञान हैं। जिस प्रकार प्रतिबिंब विशिष्ट स्वच्छता परिपूर्ण दर्पण है उसी प्रकार ज्ञान विशिष्ट दर्शन परिपूर्ण चेतना है। तहाँ दर्शनरूप अंतर चित्प्रकाश तो सामान्य व निर्विकल्प है, और ज्ञानरूप बाह्य चित्प्रकाश विशेष व सविकल्प है। यद्यपि दर्शन सामान्य होने के कारण एक है परंतु साधारण जनों को समझाने के लिए उसके चक्षु आदि भेद कर दिये गये हैं। जिस प्रकार दर्पण को देखने पर तो दर्पण व प्रतिबिंब दोनों युगपत् दिखाई देते हैं, परंतु पृथक्-पृथक् पदार्थों को देखने से वे आगे-पीछे दिखाई देते हैं, इसी प्रकार आत्म समाधि में लीन महायोगियों को तो दर्शन व ज्ञान युगपत् प्रतिभासित होते हैं, परंतु लौकिकजनों को वे क्रम से होते हैं। यद्यपि सभी संसारी जीवों को इंद्रियज्ञान से पूर्व दर्शन अवश्य होता है, परंतु क्षणिक व सूक्ष्म होने के कारण उसकी पकड़ वे नहीं कर पाते। समाधिगत योगी उसका प्रत्यक्ष करते हैं। निज स्वरूप का परिचय या स्वसंवेदन क्योंकि दर्शनोपयोग से ही होता है, इसलिए सम्यग्दर्शन में श्रद्धा शब्द का प्रयोग न करके दर्शन शब्द का प्रयोग किया है। चेतना दर्शन व ज्ञान स्वरूप होने के कारण ही सम्यग्दर्शन को सामान्य और सम्यग्ज्ञान को विशेष धर्म कहा है।
- दर्शनोपयोग निर्देश
- निराकार व निर्विकल्प।–देखें आकार व विकल्प ।
- स्वभाव-विभाव दर्शन अथवा कारण-कार्यदर्शन निर्देश।–देखें उपयोग - I.1।
- सम्यक्त्व व श्रद्धा के अर्थ में दर्शन।–देखें सम्यग्दर्शन - I.1।
- सम्यक् व मिथ्यादर्शन निर्देश।–देखें वह वह नाम ।
- दर्शनोपयोग व शुद्धोपयोग में अंतर।–देखें उपयोग - I.2।
- शुद्धात्मदर्शन के अपर नाम।–देखें मोक्षमार्ग - 2.5।
- देवदर्शन निर्देश।–देखें पूजा ।
- निराकार व निर्विकल्प।–देखें आकार व विकल्प ।
- ज्ञान व दर्शन में अंतर
- दर्शन के लक्षण में देखने का अर्थ ज्ञान नहीं।
- अंतर व बाहर चित्प्रकाश का तात्पर्य अनाकार व साकार ग्रहण है।
- केवल सामान्यग्राहक दर्शन और केवल विशेषग्राहक ज्ञान हो, ऐसा नहीं है। (इसमें हेतु)।
- केवल सामान्य का ग्रहण मानने से द्रव्य का जानना ही अशक्य है।
- अत: सामान्य विशेषात्मक उभयरूप ही अंतरंग व बाह्य का ग्रहण दर्शन व ज्ञान है।
- ज्ञान भी कथंचित् आत्मा को जानता है।–देखें दर्शन - 2.6।
- ज्ञान को ही द्विस्वभावी नहीं माना जा सकता।–देखें दर्शन - 5.9।
- दर्शन व ज्ञान की स्व-पर ग्राहकता का समन्वय।।
- दर्शन में भी कथंचित् बाह्य पदार्थ का ग्रहण।।
- दर्शन का विषय ज्ञान की अपेक्षा अधिक है।।
- दर्शन व ज्ञान के लक्षणों का समन्वय।–देखें दर्शन - 4.7।
- दर्शन के लक्षण में देखने का अर्थ ज्ञान नहीं।
- दर्शन व ज्ञान की क्रम व अक्रम प्रवृत्ति
- छद्मस्थों को दर्शन व ज्ञान क्रमपूर्वक होते हैं और केवली को अक्रम।
- केवली के दर्शनज्ञान की अक्रमवृत्ति में हेतु।
- अक्रमवृत्ति होने पर भी केवलदर्शन का उत्कृष्टकाल अंतर्मुहूर्त कहने का कारण।–देखें दर्शन - 3.2।
- छद्मस्थों को दर्शन व ज्ञान क्रमपूर्वक होते हैं और केवली को अक्रम।
- दर्शनपूर्वक ईहा आदि ज्ञान होने का क्रम।–देखें मतिज्ञान - 3।
- दर्शनोपयोग सिद्धि
- दर्शन प्रमाण है।–देखें दर्शन - 4.1।
- आत्मग्रहण अनध्यवसायरूप नहीं है।
- दर्शन के लक्षण में सामान्यपद का अर्थ आत्मा।
- सामान्य शब्द का अर्थ यहाँ निर्विकल्परूप से सामान्य विशेषात्मक ग्रहण है।
- सामान्यविशेषात्मक आत्मा केवल सामान्य कैसे कहा जा सकता है।
- दर्शन का अर्थ स्वरूप संवेदन करने पर सभी जीव सम्यग्दृष्टि हो जायेंगे।–देखें सम्यग्दर्शन - I.1।
- यदि आत्मग्राहक ही दर्शन है तो चक्षु आदि दर्शनों की बाह्यार्थाश्रित प्ररूपणा क्यों की।–देखें दर्शन - 5.3, दर्शन - 5.4।
- यदि दर्शन बाह्यार्थ को नहीं जानता तो सर्वांधत्व का प्रसंग आता है।–देखें दर्शन - 2.7।
- अनाकार व अव्यक्त उपयोग के अस्तित्व की सिद्धि।–देखें आकार - 2.3।
- दर्शन प्रमाण है।–देखें दर्शन - 4.1।
- दर्शनोपयोग के भेदों का निर्देश
- दर्शनोपयोग के भेदों का नाम निर्देश।
- चक्षु आदि दर्शनों के लक्षण।
- बाह्यार्थाश्रित प्ररूपणा परमार्थ से अंतरंग विषय को ही बताती है।
- बाह्यार्थाश्रित प्ररूपणा का कारण।
- चक्षुदर्शन सिद्धि।
- दृष्ट की स्मृति का नाम अचक्षुदर्शन नहीं।
- पाँच दर्शनों के लिए एक अचक्षुदर्शन नाम क्यों?
- चक्षु, अचक्षु व अवधिदर्शन क्षायोपशमिक कैसे हैं ?–देखें मतिज्ञान - 2.4।
- दर्शनोपयोग के भेदों का नाम निर्देश।
- श्रुत विभंग व मन:पर्यय के दर्शनों संबंधी
- दर्शनोपयोग संबंधी कुछ प्ररूपणाएँ
- ज्ञान दर्शन उपयोग व ज्ञान-दर्शनमार्गणा में अंतर।–देखें उपयोग - I.2।
- दर्शनोपयोग अंतर्मुहूर्त अवस्थायी है।
- लब्ध्यपर्याप्त दशा में चक्षुदर्शन का उपयोग नहीं होता पर निवृत्त्यपर्याप्त दशा में कथंचित् होता है।
- मिश्र व कार्माणकाययोगियों में चक्षुदर्शनोपयोग का अभाव।
- उत्कृष्ट संक्लेश व विशुद्ध परिणामों में दर्शनोपयोग संभव नहीं।–देखें विशुद्धि ।
- दर्शन मार्गणा विषयक गुणस्थान, जीवसमास, मार्गणास्थान आदि के स्वामित्व की 20 प्ररूपणा।–देखें सत् ।
- दर्शन विषयक सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव व अल्पबहुत्व।–देखें वह वह नाम ।
- दर्शनमार्गणा में आय के अनुसार ही व्यय होने का नियम।–देखें मार्गणा ।
- दर्शन मार्गणा में कर्मों का बंध उदय सत्त्व।–देखें वह वह नाम ।
- दर्शनोपयोग निर्देश
- दर्शन का आध्यात्मिक अर्थ
दर्शनपाहुड़/मूल/14 दुविहं पि गंथचायं तीसु वि जोएसु संजमो ठादि। णाणम्मि करणसुद्धे उब्भसणे दंसणं होई।14। =बाह्याभ्यंतर परिग्रह का त्याग होय, तीनों योगविषै संयम होय, तीन करण जामें शुद्ध होय, ऐसा ज्ञान होय, बहुरि निर्दोष खड़ा पाणिपात्र आहार करै, ऐसे मूर्तिमंत दर्शन होय।
बोधपाहुड़/मूल/14 दंसेइ मोक्खमग्गं सम्मत्तसंयमं सुधम्मं च। णिग्गंथणाणमयं जिणमग्गे दंसणं भणियं।14।=जो मोक्षमार्ग को दिखावे सो दर्शन है। वह मोक्षमार्ग सम्यक्त्व, संयम और उत्तमक्षमादि सुधर्म रूप है। तथा बाह्य में निर्ग्रंथ और अंतरंग में ज्ञानमयी ऐसे मुनि के रूप को जिनमार्ग में दर्शन कहा है।
दर्शनपाहुड़/ पं.जयचंद/1/3/10 दर्शन कहिये मत (दर्शनपाहुड़/ पं.जयचंद/14/26/3)
दर्शनपाहुड़/ पं.जयचंद/2/5/2 दर्शन नाम देखने का है। ऐसे (उपरोक्त प्रकार) धर्म की मूर्ति (दिगंबर मुनि) देखने में आवै सो दर्शन है, सो प्रसिद्धता से जामें धर्म का ग्रहण होय ऐसा मतकूं दर्शन ऐसा नाम है। - दर्शन का व्युत्पत्ति अर्थ
सर्वार्थसिद्धि/1/1/6/1 पश्यति दृश्यतेऽनेन दृष्टिमात्रं वा दर्शनम् =दर्शन शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है–जो देखता है, जिसके द्वारा देखा जाये अथवा देखनामात्र। (गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/483/889/2 )
राजवार्तिक/1/1/ वार्तिक नं.पृष्ठ नं./पंक्ति नं.पश्यति वा येन तद् दर्शनं। (1/1/4/4/24)। एवंभूतनयवक्तव्यवशात् – दर्शनपर्यायपरिणत आत्मैव...दर्शनम् (1/1/5/5/1) पश्यतीति दर्शनम् । (1/1/24/9/1)। दृष्टिर्दर्शनम्/(1/1/26/9/12)। =जिससे देखा जाये वह दर्शन है। एवंभूतनय की अपेक्षा दर्शनपर्याय से परिणत आत्मा ही दर्शन है। जो देखता है सो दर्शन है। देखना मात्र ही दर्शन है। धवला 1/1,1,4/145/3 दृश्यतेऽनेनेति दर्शनम् । =जिसके द्वारा देखा जाये या अवलोकन किया जाये उसे दर्शन कहते हैं। - दर्शनोपयोग के अनेकों लक्षण
- विषयविषयी सन्निपात होने पर ‘कुछ है’ इतना मात्र ग्रहण।
सर्वार्थसिद्धि/1/15/111/3 विषयविषयिसंनिपाते सति दर्शनं भवति। =विषय और विषयी का सन्निपात होने पर दर्शन होता है। ( राजवार्तिक/1/15/1/60/2 ); (तत्त्वार्थवृत्ति/1/15)। धवला 1/1,1,4/149/2 विषयविषयिसंपातात् पूर्वावस्था दर्शनमित्यर्थ:।
धवला 11/4,2,6,205/333/7 सा बज्झत्थग्गहणुम्मुहावत्था चेव दंसणं, किंतु बज्झत्थग्गहणुवसंहरणपढमसमयप्पहुडि जाब बज्झत्थअग्गहणचरिमसमिओ त्ति दंसणुवजोगो त्ति घेत्तव्वं। =1. विषय और विषयी के योग्य देश में होने की पूर्वावस्था को दर्शन कहते हैं। बाह्य अर्थ के ग्रहण के उन्मुख होनेरूप जो अवस्था होती है, वही दर्शन हो, ऐसी बात भी नहीं है; किंतु बाह्यार्थग्रहण के उपसंहार के प्रथम समय से लेकर बाह्यार्थ के अग्रहण के अंतिम समय तक दर्शनोपयोग होता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए। (विशेष देखें दर्शन - 2.9)। सप्तभंगीतरंगिणी/47/9 दर्शनस्य किंस्विदित्यादिरूपेणाकारग्रहणम् स्वरूपम् ।=विशेषण विशेष्यभाव से शून्य ‘कुछ है’ इत्यादि आकार का ग्रहण दर्शन का स्वरूप है। - सामान्य मात्र का ग्राही
पं.सं./मू./1/138 जं सामण्णं गहणं भावाणं णेव कट्टु आयारं। अविसेसिऊण अत्थं दंसणमिदि भण्णदे समए। =सामान्य विशेषात्मक पदार्थों के आकार विशेष को ग्रहण न करके जो केवल निर्विकल्प रूप से अंश का या स्वरूपमात्र का सामान्य ग्रहण होता है, उसे परमागम में दर्शन कहते हैं। ( धवला 1/1,14/ गा.93/149); ( धवला 7/5,5,56/ गा.19/100); ( परमात्मप्रकाश/ मूल /2/34); ( गोम्मटसार जीवकांड मूल /482/888); ( द्रव्यसंग्रह/43 )।
देखें दर्शन - 4.3(यह अमुक पदार्थ है यह अमुक पदार्थ है, ऐसी व्यवस्था किये बिना जानना ही आकार का न ग्रहण करना है)। गोम्मटसार जीवकांड/483/889 भावाणं सामण्णविसेसयाणं सरूवमेत्तं जं। वण्णहीणग्गहणं जीवेण य दंसणं होदि।483। =सामान्य विशेषात्मक जे पदार्थ तिनिका स्वरूपमात्र भेद रहित जैसे है तैसे जीवकरि सहित जो स्वपर सत्ता का प्रकाशना सो दर्शन है।
द्रव्यसंग्रह टीका/43/186/10 अयमत्र भाव:–यदा कोऽनि किमप्यवलोकयति पश्यति; तदा यावत् विकल्पं न करोति तावत् सत्तामात्रग्रहणं दर्शनं भण्यते। पश्चाच्छुक्लादिविकल्पे जाते ज्ञानमिति। =तात्पर्य यह है कि–जब कोई भी किसी पदार्थ को देखता है, तब जब तक वह देखने वाला विकल्प न करे तब तक तो जो सत्तामात्र का ग्रहण है उसको दर्शन कहते हैं। और फिर जब यह शुक्ल है, यह कृष्ण इत्यादि रूप से विकल्प उत्पन्न होते हैं तब उसको ज्ञान कहते हैं। स्याद्वादमंजरी/1/10/22 सामान्यप्रधानमुपसर्जनीकृतविशेषमर्थग्रहणं दर्शनमुच्यते। तथा प्रधानविशेषमुपसर्जनीकृतसामान्यं च ज्ञानमिति। =सामान्य की मुख्यतापूर्वक विशेष को गौण करके पदार्थ के जानने को दर्शन कहते हैं और विशेष की मुख्तापूर्वक सामान्य को गौण करके पदार्थ के जानने को ज्ञान कहते हैं। - उत्तर ज्ञान की उत्पत्ति के लिए व्यापार विशेष
धवला 1/1,1,4/149/1 प्रकाशवृत्तिर्वा दर्शनम् । अस्य गमनिका, प्रकाशो ज्ञानम् । तदर्थमात्मनो वृत्ति: प्रकाशवृत्तिस्तद्दर्शनमिति। =अथवा प्रकाश वृत्ति को दर्शन कहते हैं। इसका अर्थ इस प्रकार है, कि प्रकाश ज्ञान को कहते हैं, और उस ज्ञान के लिए जो आत्मा का व्यापार होता है, उसे प्रकाश वृत्ति कहते हैं। और वही दर्शन है।
धवला 3/1,2,161/457/2 उत्तरज्ञानोत्पत्तिनिमित्तप्रयत्नविशिष्टस्वसंवेदनस्य दर्शनत्वात् । =उत्तरज्ञान की उत्पत्ति के निमित्तभूत प्रयत्नविशिष्ट स्वसंवेदन को दर्शन माना है। ( द्रव्यसंग्रह टीका/44/189/5 )
धवला 6/1,9-1,16/32/8 ज्ञानोत्पादकप्रयत्नानुविद्धस्वसंवेदो दर्शनं आत्मविशेषोपयोग इत्यर्थ:। नात्र ज्ञानोत्पादकप्रयत्नस्य तंत्रता, प्रयत्नरहितक्षीणावरणांतरंगोपयोगस्स अदर्शनत्वप्रसंगात् ।=ज्ञान का उत्पादन करने वाले प्रयत्न से संबद्ध स्वसंवेदन अर्थात् आत्मविषयक उपयोग को दर्शन कहते हैं। इस दर्शन में ज्ञान के उत्पादक प्रयंत की पराधीनता नहीं है। यदि ऐसा न माना जाये तो प्रयत्न रहित क्षीणावरण और अंतरंग उपयोग वाले केवली के अदर्शनत्व का प्रसंग आता है। - आलोचन या स्वरूप संवेदन
राजवार्तिक/9/7/11/604/11 दर्शनावरणक्षयक्षयोपशमाविर्भूतवृत्तिरालोचनं दर्शनम् । =दर्शनावरण के क्षय और क्षयोपशम से होने वाला आलोचन दर्शन है।
धवला 1/1,1,4/148/6 आलोकनवृत्तिर्वा दर्शनम् । अस्य गमनिका, आलोकत इत्यालोकनमात्मा, वर्तनं वृत्ति:, आलोकनस्य वृत्तिरालोकनवृत्ति: स्वसंवेदनं, तद्दर्शनमिति लक्ष्यनिर्देश:। =आलोकन अर्थात् आत्मा के व्यापार को दर्शन कहते हैं। इसका अर्थ यह है कि जो आलोकन करता है उसे आलोकन या आत्मा कहते हैं और वर्तन अर्थात् वृत्ति को आत्मा की वृत्ति कहते हैं। तथा आलोकन अर्थात् आत्मा की वृत्ति अर्थात् वेदनरूप व्यापार को आलोकन वृत्ति या स्वसंवेदन कहते हैं। और उसी को दर्शन कहते हैं। यहाँ पर दर्शन इस शब्द से लक्ष्य का निर्देश किया है।
धवला 11/4,2,6,205/333/2 अंतरंगउवजोगो। ...वज्झत्थगहणसंते विसिट्ठसगसरूवसंवयणं दंसणमिदि सिद्धं। =अंतरंग उपयोग को दर्शनोपयोग कहते हैं। बाह्य अर्थ का ग्रहण होने पर जो विशिष्ट आत्मस्वरूप का वेदन होता है वह दर्शन है। ( धवला 6/1,9-1,6/9/3 ); ( धवला 15/6/1 )। - अंतश्चित्प्रकाश
धवला 1/1,1,4/145/4 अंतर्बहिर्मुखयोश्चित्प्रकाशयोर्दर्शनज्ञानव्यपदेशभाजो...। =अंतर्चित्प्रकाश को दर्शन और बहिर्चित्प्रकाश को ज्ञान माना है। नोट–(इस लक्षण संबंधी विशेष विस्तार के लिए देखो आगे दर्शन - 2)।
- विषयविषयी सन्निपात होने पर ‘कुछ है’ इतना मात्र ग्रहण।
- दर्शन का आध्यात्मिक अर्थ
- ज्ञान व दर्शन में अंतर
- दर्शन के लक्षण में देखने का अर्थ ज्ञान नहीं है
धवला 1/1,1,4/145/3 दृश्यतेऽनेनेति दर्शनम् । नाक्ष्णालोकेन चातिप्रसंगयोरनात्मधर्मत्वात् । दृश्यते ज्ञायतेऽनेनेति दर्शनमित्युच्यमाने ज्ञानदर्शनयोरविशेष: स्यादिति चेन्न, अंतर्बहिर्मुखयोश्चित्प्रकाशयोर्दर्शनज्ञानव्यपदेशभाजोरेकत्वविरोधात् । =प्रश्न–‘‘जिसके द्वारा देखा जाये अर्थात् अवलोकन किया जाये उसे दर्शन कहते हैं’’, दर्शन का इस प्रकार लक्षण करने से, चक्षु इंद्रिय व आलोक भी देखने में सहकारी होने से, उनमें दर्शन का लक्षण चला जाता है, इसलिए अतिप्रसंग दोष आता है ? उत्तर–नहीं आता, क्योंकि इंद्रिय और आलोक आत्मा के धर्म नहीं हैं। यहाँ चक्षु से द्रव्य चक्षु का ही ग्रहण करना चाहिए। प्रश्न–जिसके द्वारा देखा जाये, जाना जाये उसे दर्शन कहते हैं। दर्शन का इस प्रकार लक्षण करने पर, ज्ञान और दर्शन में कोई विशेषता नहीं रह जाती है, अर्थात् दोनों एक हो जाते हैं ? उत्तर–नहीं, क्योंकि अंतर्मुख चित्प्रकाश को दर्शन और बहिर्मुख चित्प्रकाश को ज्ञान माना है, इसलिए इन दोनों के एक होने में विरोध आता है।
- अंतर्मुख व बहिर्मुख चित्प्रकाश का तात्पर्य–अनाकार व साकार ग्रहण
धवला 1/1,1,4/145/6 सवतो व्यतिरिक्तबाह्यार्थावगति: प्रकाश इत्यंतर्बहिर्मुखयोश्चित्प्रकाशयोर्जानात्यनेनात्मानं बाह्यार्थमिति च ज्ञानमिति सिद्धत्वादेकत्वम्, ततो न ज्ञानदर्शनयोर्भेद इति चेन्न, ज्ञानादिव दर्शनात् प्रतिकर्मव्यवस्थाभावात् । =प्रश्न–अपने से ‘भिन्न बाह्यपदार्थों के ज्ञान को प्रकाश कहते हैं, इसलिए अंतर्मुख चैतन्य और बहिर्मुख प्रकाश के होने पर जिसके द्वारा यह जीव अपने स्वरूप को और परपदार्थों को जानता है उसे ज्ञान कहते हैं। इस प्रकार की व्याख्या के सिद्ध हो जाने से ज्ञान और दर्शन में एकता आ जाती है, इसलिए उनमें भेद सिद्ध नहीं हो सकता है ? उत्तर–ऐसा नहीं है, क्योंकि जिस तरह ज्ञान के द्वारा ‘यह घट है’, यह पट है’ इत्यादि विशेष रूप से प्रतिनियत व्यवस्था होती है उस तरह दर्शन के द्वारा नहीं होती है, इसलिए इन दोनों में भेद है।
कषायपाहुड़ 1/1-15/306/337/2 अंतरंगविसयस्स उवजोगस्स दंसणत्तब्भुवगमादो। तं कथं णव्वदे। अणायारत्तण्णहाणुववत्तीदो। =अंतरंग पदार्थ को विषय करने वाले उपयोग को दर्शन स्वीकार किया है। प्रश्न–दर्शन उपयोग का विषय अंतरंग पदार्थ है यह कैसे जाना जाता है ? उत्तर–यदि दर्शनोपयोग का विषय अंतरंग पदार्थ न माना जाये तो वह अनाकार नहीं बन सकता।
देखें आकार - 2.3 (‘मैं इस पदार्थ को जानता हूँ’ इस प्रकार का पृथग्भूत कर्ता कर्म नहीं पाये जाने से अंतरंग व निराकार उपयोग विषयाकार नहीं होता)
द्रव्यसंग्रह टीका/44/189/7 यथा कोऽपि पुरुषो घटविषयविकल्पं कुर्वन्नास्ते, पश्चात् पटपरिज्ञानार्थं चित्ते जाते सति घटविकल्पाद् व्यावृत्त्य यत् स्वरूपे प्रयत्नमवलोकनं परिच्छेदनं करोति तद्दर्शनमिति। तदनंतरं पटोऽयमिति निश्चयं यद्बहिर्विषयरूपेण पदार्थग्रहणविकल्पं करोति तद् ज्ञानं भण्यते। =जैसे कोई पुरुष पहिले घट के विषय का विकल्प (मैं इस घट को जानता हूँ अथवा घट लाल है, इत्यादि) करता हुआ बैठा है। फिर उसी पुरुष का चित्त जब पट के जानने के लिए होता है, तब वह पुरुष घट के विकल्प से हटकर जो स्वरूप में प्रयत्न अर्थात् अवलोकन करता है, उसको दर्शन कहते हैं। उसके अनंतर ‘यह पट है’ इस प्रकार से निश्चय रूप जो बाह्य विषय रूप से पदार्थग्रहणस्वरूप विकल्प को करता है वह विकल्प ज्ञान कहलाता है। - केवल सामान्य ग्राहक दर्शन और केवल विशेषग्राही ज्ञान–ऐसा नहीं है
धवला 1/1,1,4/146/3 तर्ह्यस्त्वंतर्बाह्यसामांयग्रहणं दर्शनम्, विशेषग्रहणं ज्ञानमिति चेन्न, सामान्यविशेषात्मकस्य वस्तुनो विक्रमेणोपलंभात् । सीऽप्यवस्तु न कश्चिद्विरोध इति चेन्न, ‘हंदि दुवे णत्थि उवजोगा’ इत्यनेन सह विरोधात् । अपि च न ज्ञानं प्रमाणं सामान्यव्यतिरिक्तविशेषस्यार्थक्रियाकर्तृत्वं प्रत्यसमर्थत्वतोऽवस्तुनो ग्रहणात् । न तस्य ग्रहणमपि सामान्यव्यतिरिक्ते विशेषे ह्यवस्तुनि कर्तृकर्मरूपाभावात् । तत् एव न दर्शनमपि प्रमाणम् । =प्रश्न–यदि ऐसा है तो (यदि दर्शन द्वारा प्रतिनियत घट पट आदि पदार्थों को नहीं जानता तो) अंतरंग सामान्य और बहिरंग सामान्य को ग्रहण करने वाला दर्शन है, और अंतर्बाह्य विशेष को ग्रहण करने वाला ज्ञान है, ऐसा मान लेना चाहिए ? उत्तर–ऐसा नहीं है, क्योंकि सामान्य और विशेषात्मक वस्तु का क्रम के बिना ही ग्रहण होता है। प्रश्न–यदि ऐसा है तो होने दो, क्योंकि क्रम के बिना भी सामान्य व विशेष का ग्रहण मानने में कोई विरोध नहीं है ? उत्तर–1. ऐसा नहीं है, क्योंकि, ‘छद्मस्थों के दोनों उपयोग एक साथ नहीं होते हैं’ इस कथन के साथ पूर्वोक्त कथन का विरोध आता है। (इस संबंधी विशेष देखो आगे ‘दर्शन/3’), ( धवला 13/5,5,19/208/3 ); ( धवला 6/1,9-1,16/33/8 ) 2. दूसरी बात यह है कि सामान्य को छोड़कर केवल विशेष अर्थ क्रिया करने में असमर्थ है। और जो अर्थ क्रिया करने में असमर्थ होता है वह अवस्तु रूप पड़ता है। ( कषायपाहुड़ 1/322/351/3 ) ( धवला 1/1,1,4/148/2 ); ( धवला 6/1,9-1,16/33/9 ), (देखें सामान्य ) 3. उस (अवस्तु) का ग्रहण करने वाला ज्ञान प्रमाण नहीं हो सकता, और केवल विशेष का ग्रहण भी तो नहीं हो सकता है, क्योंकि, सामान्य रहित केवल विशेष में कर्ता कर्म रूप व्यवहार (मैं इसको जानता हूँ ऐसा भेद) नहीं बन सकता है। इस तरह केवल विशेष को ग्रहण करने वाले ज्ञान में प्रमाणता सिद्ध नहीं होने से केवल सामान्य को ग्रहण करने वाले दर्शन को भी प्रमाण नहीं मान सकते हैं। ( धवला 6/1,9-1,16/33/10 ), ( द्रव्यसंग्रह टीका/44/190/8 ) 4. और इस प्रकार दोनों उपयोगों का ही अभाव प्राप्त होता है। (देखें आगे दर्शन - 4) 5. (द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नय के बिना वस्तु का ग्रहण होने में विरोध आता है) ( धवला 13/5,5,19/208/4 ) धवला 6/1,9-1,16/33/6 बाह्यार्थसामान्यग्रहणं दर्शनमिति केचिदाचक्षते; तन्न; सामान्यग्रहणास्तित्वं प्रत्यविशेषत: श्रुतमन:पर्यययोरपि दर्शनस्यास्तित्वप्रसंगात् ।=6. बाह्य पदार्थ को सामान्य रूप से ग्रहण करना दर्शन है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। किंतु वह कथन समीचीन नहीं है, क्योंकि सामान्य ग्रहण के अस्तित्व के प्रति कोई विशेषता न होने से, श्रुतज्ञान और मन:पर्ययज्ञान, इन दोनों को भी दर्शन के अस्तित्व का प्रसंग आता है। (तथा इन दोनों के दर्शन माने नहीं गये हैं (देखें आगे दर्शन - 4) - ज्ञान व दर्शन को केवल सामान्य या विशेषग्राही मानने से द्रव्य का जानना ही अशक्य है
धवला 7/2,1,56/97/1 ण चासेसविसेसमेत्तग्गाही केवलणाणं चेव जेण सयलत्थसामण्ण केवलदंसणस्स विसओ होज्ज, संसारावत्थाए आवग्गवसेण कमेण पवट्टमाणणाणदंसणाणं दव्वागमाभावप्पसंगादो। कुदो। ण णाणं दव्वपरिच्छेदयं, सामण्णविदिरित्तविसेसेसु तस्स वावारादो। ण दंसणं पि दव्वपरिच्छेदयं, तस्स विसेसविदिरित्तसामण्णम्मि वावारादो। ण केवलं संसारावत्थाए चेव दव्वग्गहणाभावो, किंतु ण केवलिम्हि वि दव्वग्गहणमत्थि, सामण्णविसेसेसु एयंत दुरंतपंचसंठिएसु वावदाणं केवलदंसणणाणाणं दव्वम्मि, वावारविरोहादो। ण च एयंत सामण्णविसेसा अत्थि जेण तेसिं विसओ होज्ज। असंतस्स पमेयत्ते इच्छिज्जमाणे गद्दहसिंगं पि पमेयत्तमल्लिएज्ज, अभावं पडिविसेसाभावादो। पमेयाभावे ण पमाणं पि, तस्स तण्णिबंधणादो। =अशेष विशेषमात्र को ग्रहण करने वाला केवलज्ञान हो, ऐसा नहीं है, जिससे कि सकल पदार्थों का ज्ञान सामान्य धर्म केवल दर्शन का विषय हो जाये। क्योंकि ऐसा मानने से, ज्ञान दर्शन की क्रमप्रवृत्ति वाली संसारावस्था में द्रव्य के ज्ञान का अभाव होने का प्रसंग आता है। कैसे ?–ज्ञान तो द्रव्य को न जान सकेगा, क्योंकि सामान्य रहित केवल विशेष में ही उसका व्यापार परिमित हो गया है। दर्शन भी द्रव्य को नहीं जान सकता, क्योंकि विशेषों से रहित केवल सामान्य में उसका व्यापार परिमित हो गया है। केवल संसारावस्था में ही नहीं किंतु केवली में भी द्रव्य का ग्रहण नहीं हो सकेगा, क्योंकि, एकांतरूपी दुरंतपथ में स्थित सामान्य व विशेष में प्रवृत्त हुए केवलदर्शन और केवलज्ञान का (उभयरूप) द्रव्यमात्र में व्यापार मानने में विरोध आता है। एकांतत: पृथक् सामान्य व विशेष तो होते नहीं हैं, जिससे कि वे क्रमश: केवलदर्शन और केवलज्ञान के विषय हो सकें। और यदि असत् को भी प्रमेय मानोगे तो गधे का सींग भी प्रमेय कोटि में आ जायेगा, क्योंकि अभाव की अपेक्षा दोनों में कोई विशेषता नहीं रही। प्रमेय के न होने पर प्रमाण भी नहीं रहता, क्योंकि प्रमाण तो प्रमेयमूलक ही होता है। ( कषायपाहुड़/1/1-20/322/353/1; 324/356/1 ) - सामान्य विशेषात्मक उभयरूप ही अंतरंग ग्रहण दर्शन और बाह्यग्रहण ज्ञान है
धवला 1/1,1,4/147/2 तत: सामान्यविशेषात्मकबाह्यार्थग्रहणं ज्ञानं तदात्मकस्वरूपग्रहणं दर्शनमिति सिद्धम् । =अत: सामान्य विशेषात्मक बाह्यपदार्थ को ग्रहण करने वाला ज्ञान है और सामान्य विशेषात्मक स्वरूप को ग्रहण करने वाला दर्शन है यह सिद्ध हो जाता है। ( कषायपाहुड़/1/1-20/325/356/9 )
धवला 1/1,1,131/380/3 अंतरंगार्थोऽपि सामान्यविशेषात्मक इति। तद्विधिप्रतिषेधसामान्ययोरुपयोगस्य क्रमेण प्रवृत्त्यनुपपत्तेरक्रमेण तत्रोपयोगस्य प्रवृत्तिरंगीकर्तव्या। तथा च न सोऽंतरंगोपयोगोऽपि दर्शनं तस्य सामान्यविशेषविषयत्वादिति चेन्न, सामान्यविशेषात्मकस्यात्मन: सामान्यशब्दवाच्यत्वेनोपादानात् । =अंतरंग पदार्थ भी सामान्य विशेषात्मक होता है, इसलिए विधि सामान्य और प्रतिषेध सामान्य में उपयोग की क्रम से प्रवृत्ति नहीं बनती है, अत: उनमें उपयोग की अक्रम से प्रवृत्ति स्वीकार करनी चाहिए। अर्थात् दोनों का युगपत् ही ग्रहण होता है। प्रश्न–इस कथन को मान लेने पर वह अंतरंग उपयोग दर्शन नहीं हो सकता है, क्योंकि (यहाँ) उस अंतरंग उपयोग को सामान्य विशेषात्मक पदार्थ को विषय करने वाला मान लिया गया है (जबकि उसका लक्षण केवल सामान्य को विषय करना है (देखें दर्शन - 1.3.2)। उत्तर–नहीं, क्योंकि, यहाँ पर सामान्य विशेषात्मक आत्मा का सामान्य शब्द के वाच्यरूप से ग्रहण किया है। (विशेष देखें [[ आगे आगे दर्शन - 3)। - दर्शन व ज्ञान की स्व-पर ग्राहकता का समन्वय
नियमसार/161-171 णाणं परप्पयासं दिट्ठी अप्पप्पयासया चेव। अप्पा सपरपयासो होदि त्ति हि मण्णदे जदि हि।161। णाणं परप्पयासं तइया णाणेण दंसणं भिण्णं। ण हव्वदि परदव्वगयं दंसणमिदि वण्णिदं तम्हा।162। अप्पा परप्पयासो तइया अप्पेण दंसणं भिण्णं। ण हवदि परदव्वगयं दंसणमिदि वण्णिदं तम्हा।163। णाणं परप्पयासं ववहारणयएण दंसणं तम्हा। अप्पा परप्पयासो ववहारणयएण दंसण तम्हा।164। णाणं अप्पपयासं णिच्छयणयएण दंसणं तम्हा अप्पा अप्पपयासो णिच्छयणयएण दंसणं तम्हा।165। =एकांत से ज्ञान को परप्रकाशक, दर्शन को स्वप्रकाशक तथा आत्मा को स्वपरप्रकाशक यदि कोई माने तो वह ठीक नहीं है, क्योंकि वैसा मानने में विरोध आता है।161। ज्ञान को एकांत से परप्रकाशक मानने पर वह दर्शन से भिन्न ही एक पदार्थ बन बैठेगा, क्योंकि दर्शन को वह सर्वथा परद्रव्यगत नहीं मानता।162। इसी प्रकार ज्ञान की अपेक्षा आत्मा को एकांत से परप्रकाशक मानने पर भी वह दर्शन से भिन्न हो जायेगा, क्योंकि दर्शन को वह सर्वथा परद्रव्यगत नहीं मानता।163। (ऐसे ही दर्शन को या आत्मा को एकांत से स्वप्रकाशक मानने पर वे ज्ञान से भिन्न हो जायेंगे, क्योंकि ज्ञान को वह सर्वथा स्वप्रकाशक न मान सकेगा। अत: इसका समन्वय अनेकांत द्वारा इस प्रकार किया जाना चाहिए, कि–) क्योंकि व्यवहारनय से अर्थात् भेद विवक्षा से ज्ञान व आत्मा दोनों परप्रकाशक हैं, इसलिए दर्शन भी पर प्रकाशक है। इसी प्रकार, क्योंकि निश्चयनय से अर्थात् अभेद विवक्षा से ज्ञान व आत्मा दोनों स्वप्रकाशक हैं इसलिए दर्शन भी स्वप्रकाशक है।165। (तात्पर्य यह कि दर्शन, ज्ञान व आत्मा ये तीनों कोई पृथक्-पृथक् स्वतंत्र पदार्थ तो हैं नहीं जो कि एक का धर्म दूसरे से सर्वथा अस्पृष्ट रहे। तीनों एक पदार्थस्वरूप होने के कारण एक रस हैं। अत: ज्ञान ज्ञाता ज्ञेय की अथवा दर्शन द्रष्टा दृश्य की भेद विवक्षा होने पर तीनों ही परप्रकाशक हैं तथा उन्हीं में अभेद विवक्षा होने पर जो ज्ञान है, वही ज्ञाता है, वही ज्ञेय है, वही दर्शन है, वही द्रष्टा है और वही दृश्य है। अत: ये तीनों ही स्वप्रकाशक हैं।) (अथवा–जब दर्शन के द्वारा आत्मा का ग्रहण होता है, तब स्वत: ज्ञान का तथा उसमें प्रतिबिंबित पर पदार्थों का भी ग्रहण कैसे न होगा, होगा ही।) (देखें आगे शीर्षक नं - 7); (केवलज्ञान/6/9) (देखें अगले दोनों उद्धरण भी ) धवला 6/1,9-1,16/34/4 तस्मादात्मा स्वपरावभासक इति निश्चेतव्यम् । तत्र स्वावभास: केवलदर्शनम्, परावभास: केवलज्ञानम् । तथा सति कथं केवलज्ञानदर्शनयो: साम्यमिति इति चेन्न, ज्ञेयप्रमाणज्ञानात्मकात्मानुभवस्य ज्ञानप्रमाणत्वाविरोधात् । =इसलिए (उपरोक्त व्याख्या के अनुसार) आत्मा ही (वास्तव में) स्व-पर अवभासक है, ऐसा निश्चय करना चाहिए। उसमें स्वप्रतिभास को केवल दर्शन कहते हैं और पर प्रतिभास को केवलज्ञान कहते हैं। ( कषायपाहुड़ 1/1-20/326/358/2 ); ( धवला 7/2,1,56/99/10 ) प्रश्न–उक्त प्रकार की व्यवस्था मानने पर केवलज्ञान और केवलदर्शन में समानता कैसे रह सकेगी ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, ज्ञेयप्रमाण ज्ञानात्मक आत्मानुभव के ज्ञान को प्रमाण होने में कोई विरोध नहीं है। ( धवला 1/1,1,135/385/7 )
द्रव्यसंग्रह टीका/44/189/11 अत्राह शिष्य:–यद्यात्मग्राहकं दर्शनं, परग्राहकं ज्ञानं भण्यते, तर्हि यथा नैयायिकमते ज्ञानमात्मानं न जानाति; तथा जैनमतेऽपि ज्ञानमात्मानं न जानातीति दूषणं प्राप्नोति। अत्र परिहार:। नैयायिकमते ज्ञानं पृथग्दर्शनं पृथगिति गुणद्वयं नास्ति; तेन कारणेन तेषामात्मपरिज्ञानाभावदूषणं प्राप्नोति। जैनमते पुनर्ज्ञानगुणेन परद्रव्यं जानाति, दर्शनगुणेनात्मानं च जानातीत्यात्मपरिज्ञानाभावदूषणं न प्राप्नोति। कस्मादिति चेत् – यथैकोऽप्यग्निर्दहतीति दाहक:, पचतीति पाचको, विषयभेदेन द्विधा भिद्यते। तथैवाभेदेनयेनैकमपि चैतन्यं भेदनयविवक्षायां यदात्मग्राहकत्वेन प्रवृत्तं तदा तस्य दर्शनमिति संज्ञा, पश्चात् यच्च परद्रव्यग्राहकत्वेन प्रवृत्तं तस्य ज्ञानसंज्ञेति विषयभेदेन द्विधा भिद्यते। =प्रश्न–यदि अपने को ग्रहण करने वाला दर्शन और पर पदार्थ को ग्रहण करने वाला ज्ञान है, तो नैयायिकों के मत में जैसे ज्ञान अपने को नहीं जानता है, वैसे ही जैनमत में भी ‘ज्ञान आत्मा को नहीं जानता है’ ऐसा दूषण आता है ? उत्तर–नैयायिकमत में ज्ञान और दर्शन दो अलग-अलग गुण नहीं माने गये हैं, इसलिए उनके यहाँ तो उपरोक्त दूषण प्राप्त हो सकता है; परंतु जैनसिद्धांत में ‘आत्मा’ ज्ञान गुण से तो परपदार्थ को जानता है, और दर्शन गुण से आत्मा को जानता है, इस कारण यहाँ वह दूषण प्राप्त नहीं होता। प्रश्न–यह दूषण क्यों नहीं होता ? उत्तर–जैसे कि एक ही अग्नि दहनगुण से जलाता होने से दाहक कहलाता है, और पाचन गुण से पकाता होने से पाचक कहलाता है। इस प्रकार विषय भेद से वह एक भी दाहक व पाचक रूप दो प्रकार का है। उसी प्रकार अभेदनय से एकही चैतन्य भेदनय की विवक्षा में जब आत्मग्रहण रूप से प्रवृत्त हुआ तब तो उसका नाम दर्शन हुआ; जब परपदार्थ को ग्रहण करने रूप प्रवृत्त हुआ तब उस चैतन्य का नाम ज्ञान हुआ; इस प्रकार विषयभेद से वह एक भी चैतन्य दो प्रकार का होता है। - दर्शन में भी कथंचित् बाह्य पदार्थों का ग्रहण होता है
द्रव्यसंग्रह टीका/44/191/3 अथ मतं–यदि दर्शनं बहिर्विषये न प्रवर्त्तते तदांधवत् सर्वजनानामंधत्वं प्राप्नोतीति। नैवं वक्तव्यम् । बहिर्विषये दर्शनाभावेऽपि ज्ञानेन विशेषेण सर्वं परिच्छिनत्तीति। अयं तु विशेष:–दर्शनेनात्मनि गृहीते सत्यात्माविनाभूतं ज्ञानमपि गृहीतं भवति; ज्ञाने च गृहीते सति ज्ञानविषयभूतं बहिर्वस्त्वपि गृहीतं भवतीति। =प्रश्न–यदि दर्शन बाह्य विषय को ग्रहण नहीं करता तो अंधे की तरह सब मनुष्यों के अंधेपने की प्राप्ति होती है ? उत्तर–ऐसा नहीं कहना चाहिए। क्योंकि यद्यपि बाह्य विषय में दर्शन का अभाव है, तो भी आत्मज्ञान द्वारा विशेष रूप से सब पदार्थों को जनाता है। उसका विशेष खुलासा इस प्रकार है, कि–जब दर्शन से आत्मा का ग्रहण होता है, तब आत्मा में व्याप्त जो ज्ञान है, वह भी दर्शन द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है; और जब दर्शन से ज्ञान को ग्रहण किया तो ज्ञान का विषयभूत जो बाह्य वस्तु है उसका भी (स्वत:) ग्रहण कर लिया (या हो गया)। (और भी–देखें दर्शन - 5.8) - दर्शन का विषय ज्ञान की अपेक्षा अधिक है
धवला 1/1,1,135/385/8 स्वजीवस्थपर्यायैर्ज्ञानद्दर्शनमधिकमिति चेन्न, इष्टत्वात् । कथं पुनस्तेन तस्य समानत्वम् । न; अन्योन्यात्मकयोस्तदविरोधात् । =प्रश्न–(ज्ञान केवल बाह्य पदार्थों को ही ग्रहण करता है, आत्मा को नहीं; जबकि दर्शन आत्मा को व कथंचित् बाह्य पदार्थों को भी ग्रहण करता है। तो) जीव में रहने वाली स्वकीय पर्यायों की अपेक्षा ज्ञान से दर्शन अधिक है ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, यह बात इष्ट ही है। प्रश्न–ज्ञान के साथ दर्शन की समानता कैसे हो सकती है ? उत्तर–समानता नहीं हो सकती यह बात नहीं है, क्योंकि एक दूसरे की अपेक्षा करने वाले उन दोनों में ( कथंचित् ) समानता मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है। - दर्शन और अवग्रह ज्ञान में अंतर
राजवार्तिक/1/15/13/61/13 कश्चिदाह–यदुक्तं भवता विषय-विषयिसंनिपाते दर्शनं भवति, तदनंतरमवग्रह इति; तदयुक्तम्; अवैलक्षण्यात् । ...अत्रोच्यंते–न; वैलक्षण्यात् । कथम् । इह चक्षुषा...किंचिदेतद्वस्तु इत्यालोकनमनाकारं दर्शनमित्युच्यते, बालवत् । यथा जातमात्रस्य बालस्य प्राथमिक उन्मेषोऽसौ अविभावितरूपद्रव्यविशेषालोचनाद्दर्शनं विवक्षितं तथा सर्वेषाम् । ततो द्वित्रादिसमयभाविषून्मेषेषु... ‘रूपमिदम्’ इति विभावितविशेषोऽवग्रह:। यत् प्रथमसमयोन्मेषितस्य बालस्य दर्शनं तद् यदि अवग्रहजातीयत्वात् ज्ञानमिष्टम्; तन्मिथ्याज्ञानं वा स्यात्, सम्यग्ज्ञानं वा। मिथ्याज्ञानत्वेऽपि संशयविपर्ययानध्यवसायात्मकं (वा) स्यात् । तत्र न तावत् संशयविपर्ययात्मकं वाऽचेष्टि; तस्य सम्यग्ज्ञानपूर्वकत्वात् । प्राथमिकत्वाच्च तत्रास्तीति। न वानध्यवसायरूपम्; जात्यंधबधिरशब्दवत् वस्तुमात्रप्रतिपत्ते:। न सम्यग्ज्ञानम्, अर्थाकारावलंबनाभावात् । किं च–कारणनानात्वात् कार्यनानात्वसिद्धे:। यथा मृत्तंतुकारणभेदात् घटपटकार्यभेद: तथा दर्शनज्ञानावरणक्षयोपशमकारणभेदात् तत्कार्यदर्शनज्ञानभेद इति।=प्रश्न–विषय विषयी के सन्निपात होने पर प्रथम क्षण में दर्शन होता है और तदनंतर अवग्रह, आपने जो ऐसा कहा है, सो युक्त नहीं है, क्योंकि दोनों के लक्षणों में कोई भेद नहीं है ? उत्तर–1. नहीं, क्योंकि दोनों के लक्षण भिन्न हैं। वह इस प्रकार कि–चक्षु इंद्रिय से ‘यह कुछ है’ इतना मात्र आलोकन दर्शन कहा गया है। इसके बाद दूसरे आदि समयों में ‘यह रूप है’ ‘यह पुरुष है’ इत्यादि रूप से विशेषांश का निश्चय अवग्रह कहलाता है। जैसे कि जातमात्र बालक का ज्ञान जातमात्र बालक के प्रथम समय में होने वाले सामान्यालोचन को यदि अवग्रह जातीय ज्ञान कहा जाये तो प्रश्न होता है कि कौन-सा ज्ञान है–मिथ्याज्ञान या सम्यग्ज्ञान ? मिथ्याज्ञान है तो संशयरूप है या विपर्ययरूप या अनध्यवसाय रूप ? तहाँ वह संशय और विपर्यय तो कहा नहीं जा सकता, क्योंकि ये दोनों ज्ञान सम्यग्ज्ञान पूर्वक होते हैं। अर्थात् जिसने पहले कभी स्थाणु, पुरुष आदि का निश्चय किया है उसे ही वर्तमान में देखे गये पदार्थ में संशय या विपर्यय हो सकता है। परंतु प्राथमिक होने के कारण उस प्रकार का सम्यग्ज्ञान यहाँ होना संभव नहीं है। यह ज्ञान अनध्यवसायरूप भी नहीं है; क्योंकि जंमांध और जन्मवधिर की तरह रूपमात्र व शब्दमात्र का तो स्पष्ट बोध हो ही रहा है। इसे सम्यग्ज्ञान भी नहीं कह सकते, क्योंकि उसे किसी भी अर्थ विशेष के आकार का निश्चय नहीं हुआ है। ( धवला 9/4,1,45/145/6 )। 2. जिस प्रकार मिट्टी और तंतु ऐसे विभिन्न कारणों से उत्पन्न होने के कारण घट व पट भिन्न हैं, उसी प्रकार दर्शनावरण और ज्ञानावरण के क्षयोपशमरूप विभिन्न कारणों से उत्पन्न होने के कारण दर्शन व ज्ञान में भेद है। (और भी देखें दर्शन - 5.5)। - दर्शन व संग्रहनय में अंतर
श्लोकवार्तिक 3/1/15/15/445/25 न हि सन्मात्रग्राही संग्रहो नयो दर्शनं स्यादित्यतिव्याप्ति: शंकनीया तस्य श्रुतभेदत्वादस्पष्टावभासितया नयत्वोपपत्ते: श्रुतभेदा नया इति वचनात् । =संपूर्ण वस्तुओं की संग्रहीत केवल सत्ता को ग्रहण करने वाला संग्रहनय दर्शनोपयोग हो जायेगा, ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वह संग्रहनय तो श्रुतज्ञान का भेद है। अविशद प्रतिभासवाला होने से उसे नयपना बन रहा है। और ग्रंथों में श्रुतज्ञान के भेद को नयज्ञान कहा गया है।
- दर्शन के लक्षण में देखने का अर्थ ज्ञान नहीं है
- दर्शन व ज्ञान की क्रम व अक्रम प्रवृत्ति
- छद्मस्थों के दर्शन व ज्ञान क्रमपूर्वक होते हैं और केवली को अक्रम
नियमसार 160 जुगवं वट्टइ णाणं केवलिणाणिस्स दंसणं च तहा। दिणयरपयासतापं जह वट्टइ तह मुणेयव्वं।60। =केवलज्ञानी को ज्ञान तथा दर्शन युगपत् वर्तते हैं। सूर्य के प्रकाश व ताप जिस प्रकार वर्तते हों, उसी प्रकार जानना। धवला 13/5,5,85/356/1 छदुमत्थणाणाणि दंसणपुव्वाणि केवलणाणं पुण केवलदंसणसमकालभाभी णिरावणत्तादो। =छद्मस्थों के ज्ञान दर्शनपूर्वक होते हैं परंतु केवलज्ञान केवलदर्शन के समान काल में होता है; क्योंकि, उनके ज्ञान और दर्शन ये दोनों निरावरण हैं। ( राजवार्तिक/2/9/3/124/11 ); ( परमात्मप्रकाश/ मू./2/35); ( धवला 3/1,2,161/457/2 ); ( द्रव्यसंग्रह 44 )। - केवलदर्शन व केवलज्ञान की युगपत् प्रवृत्ति में हेतु
कषायपाहुड़ 1/1-20/ प्रकरण/पृष्ठ/पंक्ति–केवलणाणकेवलदंसणाणमुक्कस्स उवजोगकालो जेण ‘अंतोमुहुत्तमेत्तो’ त्ति भणिदो तेण णव्वदे जहा केवलणाणदंसणाणमक्कमेण उत्ती णहोदि त्ति। (319/351/2)। अथ परिहारो उच्चदे। तं जहा केवलणाणदंसणावरणाणं किमक्कमणक्खओ, आहो कमेणेत्ति।...अक्कमेण विणासे संते केवलणाणेण सह केवलदंसणेण वि उप्पज्जेयव्वं, अक्कमेण अविकलकारणे संते तेसिं कमुप्पत्तिविरोहादो। ...तम्हा अक्कमेण उप्पण्णत्तादो ण केवलणाणदंसणाणं कमउत्ती त्ति। (320/351/9) होउ णाम केवलणाणदंसणाणमक्कमेणुप्पत्ती; अक्कमेण विणट्ठावरणत्तादो, किंतु केवलणाणं दसणुवजोगो कमेण चेव होंति, सामण्णविसेसयत्तेण अव्वत्त वत्त-सरूवाणमक्कमेण पउत्तिविरोहादो त्ति।(321/352/7)। होदि एसो दोसो जदि केवलणाणं विसेसविसयं चेव केवलदंसणं पि सामण्णविसयं चेव। ण च एवं, दोण्हं पि विसयाभावेण अभावप्पसंगादो। (322/353/1)। तदो सामण्णविसेसविसयत्ते केवलणाण-दंसणाणमभावो होज्ज णिविसयत्तादो त्ति सिद्धं। उत्तं च–अद्दिट्ठं अण्णादं केवलि एसो हु भासइ सया वि। एएयसमयम्मि हंदि हु वयणविसेसी ण संभवइ।140। अण्णादं पासंतो अदिट्ठमराहा सया तो वियाणंतो। किं जाणइ किं पासइ कह सव्वणहो त्ति वा होइ।141। (324/356/3)। ण च दोण्हमुवजोगाणमक्कमेण वुत्ती विरुद्धा; कम्मकयस्स कम्मस्स तदभावेण अभावमुवगयस्स तत्थ सत्तविरोहादो।(325/356/10)। एवं संते केवलणाणदंसणाणमुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तमेत्तकालो कथं जुज्जदे। सहि वग्घ-छवल्ल-सिव-सियालाईहि खज्जमाणेसु उप्पण्ण केवलणाणदंसणुक्कस्सकालग्गहणादो जुज्जदे। (329/360/6)। =प्रश्न–चूँकि केवलज्ञान और केवलदर्शन का उत्कृष्ट उपयोगकाल अंतर्मुहूर्त कहा है, इससे जाना जाता है कि केवलज्ञान और केवलदर्शन की प्रवृत्ति एक साथ नहीं होती ? उत्तर–1. उक्त शंका का समाधान करते हैं। हम पूछते हैं कि केवलज्ञानावरण व केवलदर्शनावरण का क्षय एक साथ होता है या क्रम से होता है ? (क्रम से तो होता नहीं है, क्योंकि आगम में ज्ञानावरण, दर्शनावरण व अंतराय इन तीनों कर्मों की सत्त्व व्युच्छित्ति 12वें गुणस्थान के अंत में युगपत् बतायी है (देखें सत्त्व )। यदि अक्रम से क्षय माना जाये तो केवलज्ञान के साथ केवलदर्शन भी उत्पन्न होना चाहिए, क्योंकि केवलज्ञान और केवलदर्शन की उत्पत्ति के सभी अविकल कारणों के एक साथ मिल जाने पर उनकी क्रम से उत्पत्ति मानने में विरोध आता है। और क्योंकि वे अक्रम से उत्पन्न होते हैं इसलिए उनकी प्रवृत्ति भी क्रम से नहीं बन सकती। 2. प्रश्न–केवलज्ञान व केवलदर्शन की उत्पत्ति एक साथ रही आओ क्योंकि उनके आवरणों का विनाश एक साथ होता है। किंतु केवलज्ञानोपयोग और केवलदर्शनोपयोग क्रम से ही होते हैं, क्योंकि केवलदर्शन सामान्य को विषय करने वाला होने से अव्यक्तरूप है और केवलज्ञान विशेष को विषय करने वाला होने से व्यक्तरूप है, इसलिए उनकी एक साथ प्रवृत्ति मानने में विरोध आता है। उत्तर–यदि केवलज्ञान केवल विशेष को और केवलदर्शन केवल सामान्य को विषय करता, तो यह दोष संभव होता, पर ऐसा नहीं है, क्योंकि केवल सामान्य और केवल विशेषरूप विषय का अभाव होने से उन दोनों (ज्ञान व दर्शन) के भी अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। अत: जबकि सामान्य विशेषात्मक वस्तु है तो केवलदर्शन को केवल सामान्य को विषय करने वाला और केवलज्ञान को केवल विशेष को विषय करने वाला मानने पर दोनों उपयोगों का अभाव प्राप्त होता है, क्योंकि केवल सामान्य और केवल विशेष रूप पदार्थ नहीं पाये जाते। कहा भी है–यदि दर्शन का विषय केवल सामान्य और ज्ञान का विषय केवल विशेष माना जाये तो जिनमें जो अदृष्ट है ऐसे ज्ञात पदार्थ को तथा जो अज्ञात है ऐसे दृष्ट पदार्थ को ही सदा कहते हैं, ऐसी आपत्ति प्राप्त होगी। और इसलिए ‘एक समय में ज्ञात और दृष्ट पदार्थ को केवली जिन कहते हैं’ यह वचन विशेष नहीं बन सकता है।140। अज्ञात पदार्थ को देखते हुए और अदृष्ट पदार्थ को जानते हुए अरहंत देव क्या जानते हैं और क्या देखते हैं ? तथा उनके सर्वज्ञता भी कैसे बन सकती है ?।141। (और भी देखें दर्शन - 2.3, दर्शन - 2.4)। 3. दोनों उपयोगों की एक साथ प्रवृत्ति मानने में विरोध भी नहीं आता है, क्योंकि, उपयोगों की क्रमवृत्ति कर्म का कार्य है, और कर्म का अभाव हो जाने से उपयोगों की क्रमवृत्ति का भी अभाव हो जाता है, इसलिए निरावरण केवलज्ञान और केवलदर्शन की क्रमवृत्ति के मानने में विरोध आता है। 4. प्रश्न–यदि ऐसा है तो इन दोनों का उत्कृष्टरूप से अंतर्मुहूर्तकाल कैसे बन सकता है ? उत्तर–चूँकि, यहाँ पर सिंह, व्याघ्र, छव्वल, शिवा और स्याल आदि के द्वारा खाये जाने वाले जीवों में उत्पन्न हुए केवलज्ञान दर्शन के उत्कृष्टकाल का ग्रहण किया है, इसलिए इनका अंतर्मुहूर्त प्रमाण काल बन जाता है। - छद्मस्थों के दर्शनज्ञान की क्रमवृत्ति में हेतु
धवला 1/1,1,133/384/3 भवतु छद्मस्थायामप्यक्रमेण क्षीणावरणे इव तयो: प्रवृत्तिरिति चेन्न, आवरणाविरुद्धाक्रमयोरक्रमप्रवृत्तिविरोधात् । अस्वसंविद्रूपो न कदाचिदप्यात्मोपलभ्यत इति चेन्न, बहिरंगोपयोगावस्थायामंतरंगोपयोगानुपलंभात् ।=प्रश्न–आवरण कर्म से रहित जीवों में जिस प्रकार ज्ञान और दर्शन की युगपत् प्रवृत्ति पायी जाती है, उसी प्रकार छद्मस्थ अवस्था में भी उन दोनों की एक साथ प्रवृत्ति होओ ? उत्तर–1. नहीं क्योंकि आवरण कर्म के उदय से जिनकी युगपत् प्रवृत्ति करने की शक्ति रुक गयी है, ऐसे छद्मस्थ जीवों के ज्ञान और दर्शन में युगपत् प्रवृत्ति मानने में विरोध आता है। प्रश्न–2. अपने आपके संवेदन से रहित आत्मा की तो कभी भी उपलब्धि नहीं होती है ? (अर्थात् निज संवेदन तो प्रत्येक जीव को हर समय रहता ही है) ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, बहिरंग पदार्थों के उपयोगरूप अवस्था में अंतरंग पदार्थ का उपयोग नहीं पाया जाता है।
- छद्मस्थों के दर्शन व ज्ञान क्रमपूर्वक होते हैं और केवली को अक्रम
- दर्शनोपयोग सिद्धि
- आत्म ग्रहण अनध्यवसाय रूप नहीं है
धवला 1/1,1,4/148/3 सत्येवमनध्यवसायो दर्शनं स्यादिति चेन्न, स्वाध्यवसायस्थानध्यवसितबाह्यार्थस्य दर्शनत्वात् । दर्शनं प्रमाणमेव अविसंवादित्वात्, प्रभास: प्रमाणं चाप्रमाणं च विसंवादाविसंवादीभयरूपस्य तत्रोपलंभात् ।=प्रश्न–दर्शन के लक्षण को इस प्रकार का (सामान्य आत्म पदार्थ ग्राहक) मान लेने पर अनध्यवसाय को दर्शन मानना पड़ेगा ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, बाह्यार्थ का निश्चय न करते हुए भी स्वरूप का निश्चय करने वाला दर्शन है, इसलिए वह अनध्यवसायरूप नहीं है। ऐसा दर्शन अविसंवादी होने के कारण प्रमाण ही है। और अनध्यवसायरूप जो प्रतिभास है वह प्रमाण भी है और अप्रमाण भी है, क्योंकि उसमें विसंवाद और अविसंवाद दोनों पाये जाते हैं। (‘कुछ है’ ऐसा अनध्यवसाय निश्चयात्मक या अविसंवादी है और ‘क्या है’ ऐसा अनध्यवसाय अनिश्चयात्मक या विसंवादी है)। - दर्शन के लक्षण में ‘सामान्य‘ पद का अर्थ आत्मा ही है
धवला 1/1,1,4/147/3 तथा च ‘जं सामण्णं गहणं तं दंसण’ इति वचनेन विरोध: स्यादिति चेन्न, तत्रात्मन: सकलबाह्यार्थसाधारणत्वत: सामान्यव्यपदेशभाजो ग्रहणात् ।=प्रश्न–उक्त प्रकार से दर्शन और ज्ञान का स्वरूप मान लेने पर अंतरंग सामान्य विशेष का ग्रहण दर्शन, बाह्य सामान्य विशेष का ग्रहण ज्ञान (देखें दर्शन - 2.3 , दर्शन - 2.4) ‘वस्तु का जो सामान्य ग्रहण होता है उसको दर्शन कहते हैं’ परमागम के इस वचन के साथ (देखें दर्शन - 1.3.2) विरोध आता है ? उत्तर–ऐसा नहीं है, क्योंकि, आत्मा संपूर्ण बाह्य पदार्थों में साधारण रूप से पाया जाता है (अर्थात् सर्व पदार्थ प्रतिभासात्मक है), इसलिए उक्त वचन में सामान्य संज्ञा को प्राप्त आत्मा का ही सामान्य पद से ग्रहण किया है। ( धवला 1/1,1,131/380/5 ); ( धवला 7/2,1,56/100/7 ); ( धवला 13/5,5,85/354/11 ); ( कषायपाहुड़ 1/1-20/329/360/3 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/44/191/6 )–(विशेष देखें दर्शन - 2.3, दर्शन - 2.4)। - सामान्य शब्द का अर्थ निर्विकल्प रूप से सामान्यविशेषात्मक ग्रहण है
धवला 1/1,1,4/147/4 तदपि कथमवसीयत इति चेन्न, ‘भावाणं णेव कट्ठु आयारं’ इति वचनात् । तद्यथा भावानां बाह्यार्थानामाकारं प्रतिकर्मव्यवस्थामकृत्वा यद्ग्रहणं तद्दर्शनम् । अस्यैवार्थस्य पुनरपि दृढ़ीकरणार्थं, ‘अविसेसिऊण उट्ठे’ इति, अर्थानविशेष्य यद् ग्रहणं तद्दर्शनमिति। न बाह्यार्थगतसामान्यग्रहणं दर्शनमित्याशंकनीयं तस्यावस्तुन: कर्मत्वाभावात् । न च तदंतरेण विशेषो ग्राह्यत्वमास्कंदतीत्यतिप्रसंगात् । प्रश्न–यह कैसे जाना जाये कि यहाँ पर सामान्य पद से आत्मा का ही ग्रहण किया है ? उत्तर–ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि, ‘पदार्थों के आकार अर्थात् भेद को नहीं करके’ सूत्र में कहे गये इस वचन से उक्त कथन की पुष्टि होती है। इसी को स्पष्ट करते हैं, भावों के अर्थात् बाह्य पदार्थों के, आकाररूप प्रति कर्म व्यवस्था को नहीं करके, अर्थात् भेदरूप से प्रत्येक पदार्थ को ग्रहण नहीं करके, जो (सामान्य) ग्रहण होता है, उसको दर्शन कहते हैं। फिर भी इसी अर्थ को दृढ़ करने के लिए सूत्रकार कहते हैं (देखें दर्शन - 1.3.2) कि ‘यह अमुक पदार्थ है, यह अमुक पदार्थ है’ इत्यादि रूप से पदार्थों की विशेषता न करके जो ग्रहण होता है, उसे दर्शन कहते हैं। इस कथन से यदि कोई ऐसी आशंका करे कि बाह्य पदार्थों में रहने वाले सामान्य को ग्रहण करना दर्शन है, तो उसकी ऐसी आशंका करनी भी ठीक नहीं है, क्योंकि विशेष की अपेक्षा रहित केवल सामान्य अवस्तुरूप है, इसलिए वह दर्शन के विषयभाव को नहीं प्राप्त कर सकता है। उसी प्रकार सामान्य के बिना केवल विशेष भी ज्ञान के द्वारा ग्राह्य नहीं हो सकता, क्योंकि, अवस्तुरूप केवल सामान्य अथवा केवल विशेष का ग्रहण मान लिया जाये तो अतिप्रसंग दोष आता है। (और भी देखें दर्शन - 2.3)। - सामान्य विशेषात्मक आत्मा केवल सामान्य कैसे कहा जा सकता है
कषायपाहुड़ 1/1-20/329/360/4 सामण्णविसेसप्पओ जीवो कधं सामण्णं। ण असेसत्थपयासभावेण रायदोसाणमभावेण य तस्स समाणत्तदंसणादो। =प्रश्न–जीव सामान्य विशेषात्मक है, वह केवल सामान्य कैसे हो सकता है ? उत्तर–1. क्योंकि, जीव समस्त पदार्थों को बिना किसी भेद-भाव के जानता है और उसमें राग-द्वेष का अभाव है, इसलिए जीव में समानता देखी जाती है। ( धवला 13/5,5,85/355/1 )। द्रव्यसंग्रह टीका/44/191/8 आत्मा वस्तुपरिच्छितिं कुर्वन्निदं जानामीदं न जानामीति विशेषपक्षपातं न करोति; किंतु सामान्येन वस्तु परिच्छिनत्ति, तेन कारणेन सामान्यशब्देन आत्मा भण्यते। =वस्तु का ज्ञान करता हुआ जो आत्मा है वह ‘मैं इसको जानता हूँ’ और ‘इसको नहीं जानता हूँ’, इस प्रकार विशेष पक्षपात को नहीं करता है किंतु सामान्य रूप से पदार्थ को जानता है। इस कारण ‘सामान्य’ इस शब्द से आत्मा कहा जाता है।
धवला 1/1,1,4/147/4 आत्मन: सकलबाह्यार्थसाधारणत्वत: सामान्यव्यपदेशभाजा। =आत्मा संपूर्ण बाह्य पदार्थों में साधारण रूप से पाया जाता है, इसलिए ‘सामान्य’ शब्द से आत्मा का व्यपदेश किया गया है। धवला 7/2,1,56/100/5 ण च जीवस्स सामण्णत्तमसिद्धं णियमेण विणा विसईकयत्तिकालगोयराणं तत्थवेंजणपज्जओवचियबज्झंतरंगाणं तत्थ सामणत्ताविरोहादो। =जीव का सामान्यत्व असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि नियम के बिना ज्ञान के विषयभूत किये गए त्रिकाल गोचर अनंत अर्थ और व्यंजन पर्यायों से संचित बहिरंग और अंतरंग पदार्थों का, जीव में सामान्यत्व मानने में विरोध नहीं आता। - दर्शन सामान्य के अस्तित्व की सिद्धि
धवला 7/2,1,56/ पृष्ठ/पंक्ति ण दंसणमत्थि विसयाभावादो। ण वज्जत्थसामण्णग्गहणं दंसणं, केवलदंसणस्साभावप्पसंगादो। कुदो। केवलणाणेण तिकालगोयराणं तत्थवेंजणपज्जयसरूवस्स सव्वदव्वेसु अवगएसु केवलदंसणस्स विसयाभावा (96/8)। ण चासेसविसेग्गाही केवलणाणं जेण सयलत्थसामण्णं केवलदंसणस्स विसओ होज्ज। (97/1) तम्हा ण दंसणमत्थि त्ति सिद्धं (97/10)।
एत्थ परिहारो उच्चदे-अत्थि दंसणं, अट्ठकम्मणिदेसादो। ...ण चासंते आवरणिज्जे आवयरमत्थि, अण्णत्थतहाणुवलंभादो। ...ण चावरणिज्जं णत्थि, चक्खुदंसणी अचक्खुदंसणी ओहिदंसणी खवोसमियाए, केवलदंसणी खइयाए लद्धीए त्ति तदत्थिपटुप्पायणजिणवयणदंसणादो–(98/1)। एओ मे सस्सदो अप्पा णाणदंसण लक्खणो।16। इच्चादि उवसंहारसुत्तदंसणादो च (98/10)।
आगमपमाणेण होदु णाम दंसणस्स अत्थित्तं, ण जुत्तीए च। ण, जुत्ती हि आमस्स बाहाभावादो। आगमेण वि जच्चा जुत्ती ण बाहिज्ज त्ति चे। सच्चं ण बाहिज्जदि जच्चा जुत्ती, किंतु इमा बाहिज्जदि जच्चदाभावादो। तं जहा–ण णाणेण विसेसो चेव घेप्पदि सामण्णविसेसप्पयत्तणेण पत्तजच्चंतरदव्वुवलंभादो (98/10)। ण च एवं संते दंसणास्स अभावो, वज्झत्थे मोत्तूण तस्स अंतरंगत्थे वावारादो। ण च केवलणाणमेव सत्तिदुवसंजुत्तत्तादो बहिरंतरंगत्थपरिच्छेदयं, ...तम्हा अंतरंगोवजोगादो बहिरंगुवजोगेण पुधभूदेण होदव्वमण्णहा सव्वण्हुत्ताणुववत्तीदो। अंतरंगबहिरंगुवजोगसण्णिददुसत्तीजुत्तो अप्पा इच्छिदव्वो। ‘जं सामण्णं ग्गहणं...’ ण च एदेण सुत्तेणेदं वक्खाणं विरुज्झदे, अप्पत्थम्मि पउत्तसामण्णसद्दग्गहणादो। (99/7)।
होदु णाम सामण्णेण दंसणस्स सिद्धी, केवलदंसणस्स सिद्धी च, ण सेस दंसणाणं। (100/6)। =प्रश्न–दर्शन है ही नहीं, क्योंकि, उसका कोई विषय नहीं है। बाह्य पदार्थों के सामान्य को ग्रहण करना दर्शन नहीं हो सकता, क्योंकि वैसा मानने पर केवलदर्शन के अभाव का प्रसंग आ जायेगा। इसका कारण यह है कि जब केवलज्ञान के द्वारा त्रिकाल गोचर अनंत अर्थ और व्यंजन पर्याय स्वरूप समस्त द्रव्यों को जान लिया जाता है, तब केवल दर्शन के (जानने के) लिए कोई विषय ही (शेष) नहीं रहता। यह भी नहीं हो सकता कि समस्त विशेषमात्र का ग्रहण करने वाला ही केवलज्ञान हो, जिससे कि समस्त पदार्थों का सामान्य धर्म दर्शन का विषय हो जाये (क्योंकि इसका पहले ही निराकरण कर दिया गया–देखें दर्शन - 2.3) इसलिए दर्शन की कोई पृथक् सत्ता है ही नहीं यह सिद्ध हुआ ? उत्तर–1. अब यहाँ उक्त शंका का परिहार करते हैं। दर्शन है, क्योंकि सूत्र में आठकर्मों का निर्देश किया गया है। आवरणीय के अभाव में आवरण हो नहीं सकता, क्योंकि अन्यत्र वैसा पाया नहीं जाता। ( कषायपाहुड़ 1/1-20/327/359/1 ) (और भी–देखें अगला शीर्षक )। 2. आवरणीय है ही नहीं, सो बात भी नहीं है, ‘चक्षुदर्शनी’, अचक्षुदर्शनी और अवधिदर्शनी क्षायोपशमिक लब्धि से और केवलदर्शनी क्षायिक लब्धि से होते हैं ( षट्खंडागम 7/2,1/ सूत्र 57-59/102,103)। ऐसे आवरणीय के अस्तित्व का प्रतिपादन करने वाले जिन भगवान् के वचन देखे जाते हैं। तथा–‘ज्ञान और दर्शन लक्षण वाला मेरा एक आत्मा ही शाश्वत है’ इस प्रकार के अनेक उपसंहारसूत्र देखने से भी यही सिद्ध होता है, कि दर्शन है। प्रश्न 2–आगमप्रमाण से भले ही दर्शन का अस्तित्व हो, किंतु युक्ति से तो दर्शन का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता ? उत्तर–होता है, क्योंकि युक्तियों से आगम को बाधा नहीं होती। प्रश्न–आगम से भी तो उत्तम युक्ति की बाधा नहीं होनी चाहिए ? उत्तर–सचमुच ही आगम से उत्तम युक्ति की बाधा नहीं होती, किंतु प्रस्तुत युक्ति की बाधा अवश्य होती है, क्योंकि वह (ऊपर दी गयी युक्ति) उत्तम युक्ति नहीं है। 3. वह इस प्रकार है–ज्ञान द्वारा केवल विशेष का ग्रहण नहीं होता, क्योंकि सामान्य विशेषात्मक होने से ही द्रव्य का जात्यंतर स्वरूप पाया जाता है (विशेष देखें दर्शन - 2.3, दर्शन - 2.4)। 4. इस प्रकार आगम और युक्ति दोनों से दर्शन का अस्तित्व सिद्ध होने पर उसका अभाव नहीं माना जा सकता, क्योंकि दर्शन का व्यापार बाह्य वस्तु को छोड़कर अंतरंग वस्तु में होता है। (विशेष देखें दर्शन - 2.2)। 5. यहाँ यह भी नहीं कर सकते कि केवलज्ञान ही दो शक्तियों से संयुक्त होने के कारण, बहिरंग और अंतरंग दोनों वस्तुओं का परिच्छेदक है (क्योंकि इसका निराकरण पहले ही कर दिया जा चुका है) (देखें दर्शन - 5.9)। 6. इसलिए अंतरंग उपयोग से बहिरंग उपयोग को पृथक् ही होना चाहिए अन्यथा सर्वज्ञत्व की उपपत्ति नहीं बनती। अतएव आत्मा को अंतरंग उपयोग और बहिरंग उपयोग ऐसी दो शक्तियों से युक्त मानना अभीष्ट सिद्ध होता है (विशेष देखें दर्शन - 2.6)। 7. ऐसा मानने पर ‘वस्तुसामान्य का ग्राहक दर्शन है’ इस सूत्र से प्रस्तुत व्याख्यान विरुद्ध भी नहीं पड़ता है, क्योंकि उक्तसूत्र में ‘सामान्य’ शब्द का प्रयोग आत्म पदार्थ के लिए हो किया गया है (विशेष देखें दर्शन - 4.2-4)। प्रश्न 8–इस प्रकार से सामान्य से दर्शन की सिद्धि और केवलदर्शन की सिद्धि भले हो जाये, किंतु उससे शेष दर्शनों की सिद्धि नहीं होती, क्योंकि (सूत्रवचनों में उनकी प्रारूपणा बाह्यार्थ विषयक रूप से की गयी है)। उत्तर–(अन्य दर्शनों की सिद्धि भी अवश्य होती है, क्योंकि वहाँ की गयी बाह्यार्थाश्रित प्ररूपणा भी वास्तव में अंतरंग विषय को ही बताती है–देखें दर्शन - 5.3)। - दर्शनावरण प्रकृति भी स्वरूपसंवेदन को घातती है
धवला 6/1,9-1,16/32/6 कधमेदेसिं पंचण्हं दंसणावरणववएसो। ण, चेयणमवहरंतस्स सव्वदंसणविरोहिणो दंसणावरणत्तपडिविरोहाभावा। किं दर्शनम् ? ज्ञानोत्पादकप्रयत्नानुविद्धस्वसंवेदो दर्शनं आत्मविषयोपयोग इत्यर्थ:। =प्रश्न–इन पाँचों निद्राओं को दर्शनावरण संज्ञा कैसे है ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, आत्मा के चेतन गुण को अपहरण करने वाले और सर्वदर्शन के विरोधी कर्म के दर्शनावरणत्व के प्रति कोई विरोध नहीं है। =प्रश्न–दर्शन किसे कहते हैं ? उत्तर–ज्ञान को उत्पादन करने वाले प्रयत्न से संबद्ध स्व-संवेदन अर्थात् आत्मविषयक उपयोग को दर्शन कहते हैं। धवला 7/5,5,85/355/2 एदासिं पंचण्णपयडीणं बहिरंतरंगत्थगहणपडिकूताणं कधं दंसणावरणसण्णा दोण्णमावारयाणमेगावारयत्तविरोहादो। ण, एदाओ पंच वि पयडीओ दंसणावरणीयं चेव, सगसंवेयणविणासणकारणादो। बहिरंगत्थगहणाभावो वि ततो चेव होदि त्ति ण वोत्तुं जुत्तं, दंसणाभावेण तव्विणासादो। किमट्ठं दंसणाभावेण णाणाभावो। णिद्दाए विणासिद बज्झत्थगहणजणणसत्तितादो। ण च तज्जणणसत्ती णाणं, तिस्से दंसणप्पयजीवत्तादो। =प्रश्न–ये पाँचों (निद्रादि) प्रकृतियाँ बहिरंग और अंतरंग दोनों ही प्रकार के अर्थ के ग्रहण में बाधक हैं, इसलिए इनकी दर्शनावरण संज्ञा कैसे हो सकती है, क्योंकि दोनों को आवरण करने वालों को एक का आवरण करने वाला मानने में विरोध आता है ? उत्तर–नहीं, ये पाँचों ही प्रकृतियाँ दर्शनावरणीय ही हैं, क्योंकि वे स्वसंवेदन का विनाश करती हैं ( धवला 5/11/9/1 ) प्रश्न–बहिरंग अर्थ के ग्रहण का अभाव भी तो उन्हीं से होता है ? उत्तर–ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि उसका विनाश दर्शन के अभाव से होता है। प्रश्न–दर्शन का अभाव होने से ज्ञान का अभाव क्यों होता है ? उत्तर–कारण कि निद्रा बाह्य अर्थ के ग्रहण को उत्पन्न करने वाली शक्ति (प्रयत्न विशेष) की विनाशक है। और यह शक्ति ज्ञान तो हो नहीं सकती, क्योंकि, वह दर्शनात्मक जीव स्वरूप है (देखें दर्शन - 1.3.3)। - सामान्य ग्रहण व आत्मग्रहण का समन्वय
द्रव्यसंग्रह टीका/44/192/2 किं बहुना यदि कोऽपि तर्कार्थं सिद्धार्थं च ज्ञात्वैकांतदुराग्रहत्यागेन नयविभागेन मध्यस्थवृत्त्या व्याख्यानं करोति, तदा द्वयमपि घटत इति। कथमिति चेत्–तर्के मुख्यवृत्त्या परसमयव्याख्यानं, तत्र यदा कोऽपि परसमयी पृच्छति जैनागमे दर्शनं ज्ञानं चेति गुणद्वयं जीवस्य कथ्यते तत्कथं घटत इति। तदा तेषामात्मग्राहकं दर्शनमिति कथिते सति ते न जानंति। पश्चादाचार्यैस्तेषां प्रतीत्यर्थं स्थूलव्याख्यानेन बहिर्विषये यत्सामान्यपरिच्छेदनं तस्य सत्तावलोकनदर्शनसंज्ञा स्थापिता, यच्च शुक्लमिदमित्यादिविशेषपरिच्छेदनं तस्य ज्ञानसंज्ञा स्थापितेति दोषो नास्ति। सिद्धांते पुन: स्वसमयव्याख्यानं मुख्यवृत्त्या। तत्र सूक्ष्मव्याख्यानं क्रियमाणे सत्याचार्यैरात्मग्राहकं दर्शनं व्याख्यातमित्यत्रापि दोषो नास्ति। =अधिक कहने से क्या–यदि कोई भी तर्क और सिद्धांत के अर्थ को जानकर, एकांत दुराग्रह को त्याग करके, नयों के विभाग से मध्यस्थता धारण करके, व्याख्यान करता है तब तो सामान्य और आत्मा ये दोनों ही घटित होते हैं। सो कैसे?–तर्क में मुख्यता से अन्यमत को दृष्टि में रखकर कथन किया जाता है। इसलिए उसमें यदि कोई अन्यमतावलंबी पूछे कि जैन सिद्धांत में जीव के ‘दर्शन और ज्ञान’ ये जो दो गुण कहे जाते हैं, वे कैसे घटित होते हैं? तब इसके उत्तर में यदि उसे कहा जाये कि ‘आत्मग्राहक दर्शन है’ तो वह समझेगा नहीं। तब आचार्यों ने उनको प्रतीति करने के लिए विस्तृत व्याख्यान से ‘जो बाह्य विषय में सामान्य जानना है उसका नाम ‘दर्शन’ स्थापित किया और जो ‘यह सफेद है’ इत्यादि रूप से बाह्य में विशेष का जानना है उसका नाम ‘ज्ञान’ ठहराया, अत: दोष नहीं है। सिद्धांत में मुख्यता से निजसमय का व्याख्यान होता है, इसलिए सिद्धांत में जब सूक्ष्म व्याख्यान किया गया तब आचार्यों ने ‘आत्मग्राहक दर्शन है’ ऐसा कहा। अत: इसमें भी दोष नहीं है।
- आत्म ग्रहण अनध्यवसाय रूप नहीं है
- दर्शनोपयोग के भेदों का निर्देश
- दर्शन के भेदों के नाम निर्देश
षट्खंडागम/1/1,1/ सूत्र 131/378 दंसणाणुवादेण अत्थि चक्खुदंसणी अचक्खुदंसणी ओधिदंसणी केवलदंसणी चेदि। =दर्शनमार्गणा के अनुवाद से चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन धारण करने वाले जीव हेते हैं। ( पंचास्तिकाय/42 ), ( नियमसार 13/14 ) ( सर्वार्थसिद्धि/2/9/163/9 ), ( राजवार्तिक/2/9/3/124/9 ), ( द्रव्यसंग्रह टीका/13/38/4 ), ( परमात्मप्रकाश/2/34/155/2 ) - चक्षु आदि दर्शनों के लक्षण
पञ्चसंग्रह/1/139-141 चक्खूणाजं पयासइ दीसइ तं चक्खुदंसणं विंति। सेसिंदियप्पयासो णायव्वो सो अचक्खु त्ति।139। परमाणुआदियाइं अंतिमरखंध त्ति मुत्तदव्वाइं। तं ओहिदंसणं पुण जं पस्सइ ताइं पच्चक्खं।140। बहुविह बहुप्पयारा उज्जोवा परिवियम्हि खेतम्हि। लोयालोयवितिमिरो सो केवलदंसणुज्जोवो।141। =चक्षु इंद्रिय के द्वारा जो पदार्थ का सामान्य अंश प्रकाशित होता है, अथवा दिखाई देता है, उसे चक्षुदर्शन कहते हैं। शेष चार इंद्रियों से और मन से जो सामान्य प्रतिभास होता है उसे अचक्षुदर्शन जानना चाहिए।139। सब लघु परमाणु से आदि लेकर सर्वमहान् अंतिम स्कंध तक जितने मूर्तद्रव्य हैं, उन्हें जो प्रत्यक्ष देखता है, उसे अवधिदर्शन कहते हैं।140। बहुत जाति के और बहुत प्रकार के चंद्र सूर्य आदि के उद्योत तो परिमित क्षेत्र में ही पाये जाते हैं। अर्थात् वे थोड़े से ही पदार्थों को अल्प परिमाण प्रकाशित करते हैं। किंतु जो केवल दर्शन उद्योत है, वह लोक को और अलोक को भी प्रकाशित करता है, अर्थात् सर्व चराचर जगत् को स्पष्ट देखता है।141। (धवला 1/1,1,131/ गा.195-197/382), (धवला 7/5,5,56/ गा.20-21/100), (गोम्मटसार जीवकांड/484-486/889 )।
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/42 तदावरणक्षयोपशमाच्चक्षुरिंद्रियवलंबाच्चमूर्त्तद्रव्यं विकलं सामान्येनावबुध्यते तच्चक्षुर्दर्शनम् । यत्तदावरणक्षयोपशमाच्चक्षुवर्जितेतरचतुरिंद्रियानिंद्रियावलंबाच्च मूर्तामूर्तद्रव्यं विकलं सामान्येनावबुध्यते तदचक्षुर्दर्शनम् । यत्तदावरणक्षयोपशमादेव मूर्तद्रव्यं विकलं सामान्येनावबुध्यते तदवधिदर्शनम् । यत्सकलावरणात्यंतक्षये केवल एव मूर्त्तामूर्त्तद्रव्यं सकलं सामान्येनावबुध्यते तत्स्वाभाविकं केवलदर्शनमिति स्वरूपाभिधानम् । =अपने आवरण के क्षयोपशम से और चक्षुइंद्रिय के आलंबन से मूर्त द्रव्य को विकलरूप से (एकदेश) जो सामान्यत: अवबोध करता है वह चक्षुदर्शन है। उस प्रकार के आवरण के क्षयोपशम से तथा चक्षु से अतिरिक्त शेष चार इंद्रियों और मन के अवलंबन से मूर्त अमूर्त द्रव्यों को विकलरूप से (एकदेश) जो सामान्यत: अवबोध करता है, वह अचक्षुदर्शन है। उस प्रकार के आवरण के क्षयोपशम से ही (बिना किसी इंद्रिय के अवलंबन के) मूर्त द्रव्य को विकलरूप से (एकदेश) जो सामान्यत: अवबोधन करता है, वह अवधिदर्शन है। समस्त आवरण के अत्यंत क्षय से केवल (आत्मा) ही मूर्त अमूर्त द्रव्य को सकलरूप से जो सामान्यत: अवबोध करता है वह स्वाभाविक केवलदर्शन है। इस प्रकार (दर्शनोपयोगों के भेदों का) स्वरूपकथन है। ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/13,14 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/4/13/6 )। - बाह्यार्थाश्रित प्ररूपणा परमार्थ से अंतरंग विषय को ही बताती है
धवला 7/2,1,56/100/12 इदि बज्झत्थविसयदंसणपरूवणादो। ण एदाणं गाहाणं परमत्थात्थाणुवगमादो। को सो परमत्थत्थो। वुच्चदे–यत् चक्षुषां प्रकाशते चक्षुषा दृश्यते वा तत् चक्षुर्दर्शनमिति ब्रुवते। चक्खिंदियणाणादो जो पुव्वमेव सुवसत्तीए सामण्णए अणुहओ चक्खुणाणुप्पत्तिणिमित्तो तं चक्खुदंसणमिदि उत्तं होदि। गाहाए जलभंजणमकाऊण उज्जुवत्थो घेप्पदि। ण, तत्थ पुव्वुत्तासेसदोसप्पसंगादो।
शेषेंद्रियै: प्रतिपन्नस्यार्थस्य यस्मात् अवगमनं ज्ञातव्यं तत् अचक्षुर्दर्शनमिति। सेसिंदियणाणुप्पत्तीदो जो पुव्वमेव सुवसत्तीए अप्पणो विसयम्मि पडिबद्धाए सामण्णेण संवेदो अचक्खुणाणुप्पत्तिणिमित्तो तमचक्खुदंसणमिदि उत्तं होदि। परमाण्वादिकानि आ पश्चिमस्कंधादिति मूर्तिद्रव्याणि यस्मात् पश्यति जानीते तानि साक्षात् तत् अवधिदर्शनमिति द्रष्टव्यम् । परमाणुमादिं कादूण जाव पच्छिमखंधो त्ति टि्ठपोग्गलदव्वाणमवगमादो पचक्खादो जो पुव्वमेव सुवसत्तीविसयउवजोगो ओहिणाणुप्पत्तिणिमित्तो तं ओहिदंसणमिदि घेतव्वं। अण्णहा णाणदंसणाणं भेदाभावादो। =प्रश्न–इन सूत्रवचनों में (देखें पहले वाला शीर्षक नं - 2) दर्शन की प्ररूपणा बाह्यार्थविषयक रूप से की गयी है ? उत्तर–ऐसा नहीं है, क्योंकि, तुमने इन गाथाओं का परमार्थ नहीं समझा। प्रश्न–वह परमार्थ कौन-सा है ? उत्तर–कहते हैं–1. (गाथा के पूर्वार्ध का इस प्रकार है) ‘जो चक्षुओं को प्रकाशित होता अर्थात् दिखता है, अथवा आँख द्वारा देखा जाता है, वह चक्षुदर्शन है’–इसका अर्थ ऐसा समझना चाहिए कि चक्षु इंद्रियज्ञान से जो पूर्व ही सामान्य स्वशक्ति का अनुभव होता है, जो कि चक्षु ज्ञान की उत्पत्ति में निमित्तरूप है, वह चक्षुदर्शन है। प्रश्न–गाथा का गला न घोंटकर सीधा अर्थ क्यों नहीं करते ? उत्तर–नहीं करते, क्योंकि वैसा करने से पूर्वोक्त समस्त दोषों का प्रसंग आता है। 2–गाथा के उत्तरार्ध का अर्थ इस प्रकार है–‘जो देखा गया है, अर्थात् जो पदार्थ शेष इंद्रियों के द्वारा जाना गया है’ उससे जो ज्ञान होता है, उसे अचक्षुदर्शन जानना चाहिए। (इसका अर्थ ऐसा समझना चाहिए कि–) चक्षु इंद्रियों को छोड़कर शेष इंद्रियज्ञानों की उत्पत्ति से पूर्व ही अपने विषय में प्रतिबद्ध स्वशक्ति का, अचक्षुज्ञान की उत्पत्ति में निमित्तभूत जो सामान्य से संवेदन या अनुभव होता है, वह अचक्षुदर्शन है। 3–द्वितीय गाथा को अर्थ इस प्रकार है–‘परमाणु से लगाकर अंतिम स्कंध पर्यंत जितने मूर्त द्रव्य हैं, उन्हें जिसके द्वारा साक्षात् देखता है या जानता है, वह अवधिदर्शन है।’ इसका अर्थ ऐसा समझना चाहिए, कि–परमाणु से लेकर अंतिम स्कंध पर्यंत जो पुद्गलद्रव्य स्थित हैं, उनके प्रत्यक्ष ज्ञान से पूर्व ही जो अवधिज्ञान की उत्पत्ति का निमित्तभूत स्वशक्ति विषयक उपयोग होता है, वही अवधिदर्शन है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए। अन्यथा ज्ञान और दर्शन में कोई भेद नहीं रहता। ( धवला 6/1,9-1,16/33/2 ); ( धवला 13/5,5,85/355/7 )। - बाह्यार्थाश्रित प्ररूपणा का कारण
धवला 15/9/11 पुव्वं सव्वं पि दंसणमज्झत्थविसयमिदि परूविदं, संपहिं चक्खुदंसणस्स बज्झत्थविसत्तं परूविदं ति णेदं घडदे, पुब्वावरविरोहादो। ण एस दोसो, एवंविहेसु बज्झत्थेसु पडिबद्धसगसत्तिसंवेयणं चक्खुदंसणं ति जाणावणट्ठं बज्झत्थविसयपरूवणाकरणादो। =प्रश्न 1–सभी दर्शन अध्यात्म अर्थ को विषय करने वाले हैं, ऐसी प्ररूपणा पहिले की जा चुकी है। किंतु इस समय बाह्यार्थ को चक्षुदर्शन का विषय कहा है, इस प्रकार यह कथन संगत नहीं है, क्योंकि इससे पूर्वापर विरोध होता है ? उत्तर–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि इस प्रकार के बाह्यार्थ में प्रतिबद्ध आत्म शक्ति का संवेदन करने को चक्षुदर्शन कहा जाता है, यह बतलाने के लिए उपर्युक्त बाह्यार्थ विषयता की प्ररूपणा की गई है।
धवला 7/2,1,56/101/4 कधमंतरंगाए चक्खिंदियविसयपडिबद्धाए सत्तीए चक्खिंदियस्स पउत्ती। ण अंतरंगे बहिरंगत्थोवयारेण बालजणबोहणट्ठं चक्खूणं च दिस्सदि तं चक्खूदंसणमिदि परूवणादो। =प्रश्न 2–उस चक्षु इंद्रिय से प्रतिबद्ध अंतरंग शक्ति में चक्षु इंद्रिय की प्रवृत्ति कैसे हो सकती है ? उत्तर–नहीं, यथार्थ में तो चक्षु इंद्रिय की अंतरंग में ही प्रवृत्ति होती है, किंतु बालकजनों के ज्ञान कराने के लिए अंतरंग में बाह्यर्थ के उपचार से ‘चक्षुओं को जो दिखता है, वही चक्षुदर्शन है, ऐसा प्ररूपण किया गया है। कषायपाहुड़ 1/1-20/355/357/3 इदि बज्झत्थणिद्देसादो ण दंसणमंतरगत्थविसयमिदि णासंकणिज्जं, विसयणिद्देसदुवारेण विसयिणिद्देसादो अण्णेण पयारेण अंतरंगविसयणिरूवणाणुववत्तीदो। =प्रश्न 3–इसमें (पूर्वोक्त अवधिदर्शन की व्याख्या में) दर्शन का विषय बाह्य पदार्थ बतलाया है, अत: दर्शन अंतरंग पदार्थ को विषय करता है, यह कहना ठीक नहीं है ? उत्तर–ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि गाथा में विषय के निर्देश द्वारा विषयी का निर्देश किया गया है। क्योंकि अंतरंग विषय का निरूपण अन्य प्रकार से किया नहीं जा सकता है। - चक्षुदर्शन सिद्धि
धवला 1/1,1,131/379/1 अथ स्याद्विषयविषयिसंपातसमनंतरमाद्यग्रहणं अवग्रह:। न तेन बाह्यार्थगतविधिसामान्यं परिच्छिद्यते तस्यावस्तुन: कर्मत्वाभावात् ।...तस्माद्विधिनिषेधात्मकबाह्यार्थग्रहणमवग्रह:। न स दर्शनं सामान्यग्रहणस्य दर्शनव्यपदेशात् । ततो न चक्षुदर्शनमिति। अत्र प्रतिविधीयते, नैते दोषा: दर्शनमाढौकंते तस्यांतरंगार्थविषयत्वात् ।...सामान्यविशेषात्मकस्यात्मन: सामान्यशब्दवाच्यत्वेनोपादानात् । तस्य कथं सामान्यतेति चेदुच्यते। चक्षुरिंद्रियक्षयोपशमो हि नाम रूप एव नियमितस्ततो रूपविशिष्टस्यैवार्थग्रहणस्योपलंभात् । तत्रापि रूपसामान्य एव नियमितस्ततो नीलादिष्वेकरूपेणैव विशिष्टवस्त्वनुपलंभात् । तस्माच्चक्षुरिंद्रियक्षयोपशमो रूपविशिष्टार्थं प्रति समान: आत्मव्यतिरिक्तक्षयोपशमाभावादात्मापि तद्द्वारेण समान:। तस्य भाव: सामान्यं तद्दर्शनस्य विषय इति स्थितम् ।
अथ स्याच्चक्षुषा यत्प्रकाशते तद्दर्शनम् । न चात्मा चक्षुषा प्रकाशते तथानुपलंभात् । प्रकाशते च रूपसामान्यविशेषविशिष्टार्थ:। न स दर्शनमर्थस्योपयोगरूपत्वविरोधात् । न तस्योपयोगोऽपि दर्शनं तस्य ज्ञानरूपत्वात् । ततो न चक्षुर्दर्शनमिति, न चक्षुर्दर्शनावरणीयस्य कर्मणोऽस्तित्वान्यथानुपपत्तेराधार्याभावे आधारकस्याप्यभावात् । तस्माच्चक्षुर्दर्शनमंतरंगविषयमित्यंगीकर्तव्यम् ।=प्रश्न 1–विषय और विषयी के योग्य संबंध के अनंतर प्रथम ग्रहण को जो अवग्रह कहा है। सो उस अवग्रह के द्वारा बाह्य अर्थ में रहने वाले विधिसामान्य का ज्ञान तो हो नहीं सकता है, क्योंकि, बाह्य अर्थ में रहने वाला विधि सामान्य अवस्तु है। इसलिए वह कर्म अर्थात् ज्ञान का विषय नहीं हो सकता है। इसलिए विधिनिषेधात्मक बाह्यपदार्थ को अवग्रह मानना चाहिए। परंतु वह अवग्रह दर्शनरूप तो हो नहीं सकता, क्योंकि जो सामान्य को ग्रहण करता है उसे दर्शन कहा है (देखें दर्शन - 1.3.2) अत: चक्षुदर्शन नहीं बनता है ? उत्तर–ऊपर दिये गये ये सब दोष (चक्षु) दर्शन को नहीं प्राप्त होते हैं, क्योंकि वह अंतरंग पदार्थ को विषय करता है। और अंतरंग पदार्थ भी सामान्य विशेषात्मक होता है। ...(देखें दर्शन - 2.4)। और वह उस सामान्यविशेषात्मक आत्मा का ही ‘सामान्य’ शब्द के वाच्यरूप में ग्रहण किया है। प्रश्न 2–उस (आत्मा) को सामान्यपना कैसे है ? उत्तर–चक्षुइंद्रियावरण का क्षयोपशम रूप में ही नियमित है। इसलिए उससे रूपविशिष्ट ही पदार्थ का ग्रहण पाया जाता है। वहाँ पर भी चक्षुदर्शन में रूपसामान्य ही नियमित है, इसलिए उससे नीलादिक में किसी एक रूप के द्वारा ही विशिष्ट वस्तु की उपलब्धि नहीं होती है। अत: चक्षुइंद्रियावरण का क्षयोपशम रूपविशिष्ट अर्थ के प्रति समान हैं। आत्मा को छोड़कर क्षयोपशम पाया नहीं जाता है, इसलिए आत्मा भी क्षयोपशम की अपेक्षा समान है। उस समान के भाव को सामान्य कहते हैं। वह दर्शन का विषय है। प्रश्न 3–चक्षु इंद्रिय से जो प्रकाशित होता है उसे दर्शन कहते हैं। परंतु आत्मा तो चक्षु इंद्रिय से प्रकाशित होता नहीं है, क्योंकि, चक्षु इंद्रिय से आत्मा की उपलब्धि होती हुई नहीं देखी जाती है। 4. चक्षु इंद्रिय से रूप सामान्य और रूपविशेष से युक्त पदार्थ प्रकाशित होता है। परंतु पदार्थ तो उपयोगरूप हो नहीं सकता, क्योंकि, पदार्थ को उपयोगरूप मानने में विरोध आता है। 5. पदार्थ का उपयोग भी दर्शन नहीं हो सकता है, क्योंकि उपयोग ज्ञानरूप पड़ता है। इसलिए चक्षुदर्शन का अस्तित्व नहीं बनता है। उत्तर–नहीं, क्योंकि, यदि चक्षुदर्शन नहीं हो तो चक्षुदर्शनावरण कर्म नहीं बन सकता है, क्योंकि, आधार्य के अभाव में आधारक का भी अभाव हो जाता है। इसलिए अंतरंग पदार्थ को विषय करने वाला चक्षुदर्शन है, यह बात स्वीकार कर लेना चाहिए। - दृष्ट की स्मृति का नाम अचक्षुदर्शन नहीं है
धवला 1/1,1,133/383/8 दृष्टांतस्मरणमचक्षुर्दर्शनमिति केचिदाचक्षते तन्न घटते एकेंद्रियेषु चक्षुरभावतोऽचक्षुदर्शनस्याभावासंजननात् । दृष्टशब्दउपलंभवाचक इति चेन्न उपलब्धार्थविषयस्मृतेर्दर्शनत्वेंगीक्रियमाणे मनसो निर्विषयतापत्ते:। तत: स्वरूपसंवेदनं दर्शनमित्यंगीकर्तव्यम् ।=दृष्टांत अर्थात् देखे हुए पदार्थ का स्मरण करना अचक्षुदर्शन है, इस प्रकार कितने ही पुरुष कहते हैं, परंतु उनका ऐसा कहना घटित नहीं होता है, क्योंकि, ऐसा मानने पर एकेंद्रियजीवों में चक्षुइंद्रिय का अभाव होने से (पदार्थ को पहिले देखना ही असंभव होने के कारण) उनके अचक्षुदर्शन के अभाव का प्रसंग आ जायेगा। प्रश्न–दृष्टांत में ‘दृष्ट‘ शब्द उपलंभवाचक ग्रहण करना चाहिए? उत्तर–नहीं, क्योंकि, उपलब्ध पदार्थ को विषय करने वाली स्मृति को दर्शन स्वीकार कर लेने पर मन को विषय रहितपने की आपत्ति आ जाती है। इसलिए स्वरूपसंवेदन (अचक्षु) दर्शन है, ऐसा स्वीकार करना चाहिए। - पाँच दर्शनों के लिए एक अचक्षुदर्शन नाम क्यों
धवला 15/10/2 पंचण्णं दंसणाणमचक्खुदंसणमिदि एगणिद्देसो किमट्ठं कदो। तेसिं पच्चासत्ती अत्थि त्ति जाणावणट्ठं कदो। कधं तेसिं पच्चासत्ती। विसईदो पुथभूदस्स अक्कमेण सग-परपच्चक्खस्स चक्खुदंसणविसयस्सेव तेसिं विसयस्स परेसिं जाणावणोवायाभावं पडिसमाणत्तादो। =प्रश्न–(चक्षु इंद्रिय से अतिरिक्त चार इंद्रिय व मन विषयक) पाँच दर्शनों के लिए अचक्षुदर्शन ऐसा एक निर्देश किस लिए किया। (अर्थात् चक्षुदर्शनवत् इनका भी रसना दर्शन आदि रूप से पृथक्-पृथक् व्यपदेश क्यों न किया)? उत्तर–उनकी परस्पर में प्रत्यासत्ति है, इस बात के जतलाने के लिए वैसा निर्देश किया गया है। प्रश्न–उनकी परस्पर में प्रत्यासत्ति कैसे है ? उत्तर–विषयी से पृथग्भूत अतएव युगपत् स्व और पर को प्रत्यक्ष होने वाले ऐसे चक्षुदर्शन के विषय के समान उन पाँचों दर्शनों के विषय का दूसरों के लिए ज्ञान कराने का कोई उपाय नहीं हे। इसकी समानता पाँचों की दर्शनों में है। यही उनमें प्रत्यासत्ति है। - केवल ज्ञान व दर्शन दोनों कथंचित् एक हैं
कषायपाहुड़ 1/1-20/ गा.143/357 मणपज्जवणाणंतो णाणस्स य दंसणस्स य विसेसो। केवलियं णाणं पुण णाणं त्ति य दंसणं त्ति य समाणं।143। =मन:पर्यय ज्ञानपर्यंत ज्ञान और दर्शन इन दोनों में विशेष अर्थात् भेद है, परंतु केवलज्ञान की अपेक्षा से तो ज्ञान और दर्शन दोनों समान हैं। नोट–यद्यपि अगले शीर्षक नं.9 के अनुसार इनकी एकता को स्वीकार नहीं किया जाता है और उपरोक्त गाथा का भी खंडन किया गया है, परंतु धवला/1 में इसी बात की पुष्टि की है। यथा–)। ( धवला 6/34/2 )। धवला 1/1,1,135/385/6 अनंतत्रिकालगोचरबाह्येऽर्थें प्रवृत्तं केवलज्ञानं (स्वतोऽभिन्नवस्तुपरिच्छेदकं च दर्शनमिति) कथमनयो: समानतेति चेत्कथ्यते। ज्ञानप्रमाणमात्मा ज्ञानं च त्रिकालगोचरानंतद्रव्यपर्यायपरिमाणं ततो ज्ञानदर्शनयो: समानत्वमिति। =प्रश्न–त्रिकालगोचर अनंत बाह्यपदार्थों में प्रवृत्ति करने वाला ज्ञान है और स्वरूप मात्र में प्रवृत्ति करने वाला दर्शन है, इसलिए इन दोनों में समानता कैसे हो सकती है? उत्तर–आत्मा ज्ञानप्रमाण है और ज्ञान त्रिकाल के विषयभूत द्रव्यों की अनंत पर्यायों को जानने वाला होने से तत्परिमाण है, इसलिए ज्ञान और दर्शन में समानता है। ( धवला 7/2,1,56/102/6 ) ( धवला 6/1,9-1,17/34/6 ) (और भी देखें दर्शन - 2.7)।
देखें दर्शन - 2.8 (यद्यपि स्वकीय पर्यायों की अपेक्षा दर्शन का विषय ज्ञान से अधिक है, फिर भी एक दूसरे की अपेक्षा करने के कारण उनमें समानता बन जाती है)। - केवलज्ञान से भिन्न केवल दर्शन की सिद्धि
कषायपाहुड़ 1/1-20/ प्रकरण/पृष्ठ/पंक्ति जेण केवलणाणं सपरपयासयं, तेण केवलदंसणं णत्थि त्ति के वि भणंति। एत्थुवउज्जंतीओ गाहाओ–‘‘मणपज्जवणाणंतो–’’ (325/357/4)। एदं पि ण घडदे; केवलणाणस्स पज्जायस्स पज्जायाभावादो। ण पज्जायस्स पज्जाया अत्थि अणवत्थाभावप्पसंगादो। ण केवलणाणं जाणइ पस्सइ वा; तस्स कत्तारत्ताभावादो। तम्हा सपरप्पयासओ जीवो त्ति इच्छियव्वं। ण च दोण्हं पयासाणमेयत्तं; बज्झं तरंगत्थविसयाणं सायार-अणायारणमे-यत्तविरोहादो। (326/357/8)। केवलणाणादो केवलदंसणमभिण्णमिदि केवलदंसणस्स केवलणाणत्तं किण्ण होज्ज। ण एवं संते विसेसाभावेण णाणस्स वि दंसणप्पसंगादो (327/358/4)।=प्रश्न–चूँकि केवलज्ञान स्व और पर दोनों का प्रकाशक है, इसलिए केवलदर्शन नहीं है, ऐसा कुछ आचार्य कहते हैं। और इस विषय की उपयुक्त गाथा देते हैं–मन:पर्ययज्ञानपर्यंत ...(देखें दर्शन - 5.8) उत्तर–परंतु उनका ऐसा कहना भी नहीं बनता है। 1. क्योंकि केवलज्ञान स्वयं पर्याय है, इसलिए उसकी दूसरी पर्याय नहीं हो सकती है। पर्याय की पर्याय नहीं होती, क्योंकि, ऐसा मानने पर अनवस्था दोष आता है। ( धवला 6/1,9-1,17/34/2 )। ( धवला 7/2,1,56/99/8 )। 2. केवलज्ञान स्वयं तो न जानता ही है और न देखता ही है, क्योंकि वह स्वयं जानने व देखने का कर्ता नहीं है (आत्मा ही उसके द्वारा जानता है।) इसलिए ज्ञान को अंतरंग व बहिरंग दोनों का प्रकाशक न मानकर जीव स्व व पर का प्रकाशक है, ऐसा मानना चाहिए। (विशेष देखें दर्शन - 2.6)। 3–केवलदर्शन व केवलज्ञान ये दोनों प्रकाश एक हैं, ऐसा भी नहीं कहना चाहिए, क्योंकि बाह्य पदार्थों को विषय करने वाले साकार उपयोग और अंतरंग पदार्थ को विषय करने वाले अनाकार उपयोग को एक मानने में विरोध आता है। ( धवला 1/1,1,133/383/11 ); ( धवला 7/2,1,56/99/9 )। 4. प्रश्न–केवलज्ञान से केवलदर्शन अभिन्न है, इसलिए केवलदर्शन केवलज्ञान क्यों नहीं हो जाता ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, ऐसा होने पर ज्ञान और दर्शन इन दोनों में कोई विशेषता नहीं रहती है, इसलिए ज्ञान को भी दर्शनपने का प्रसंग प्राप्त होता है। (विशेष देखें दर्शन - 2)। - आवरण कर्म के अभाव से केवलदर्शन का अभाव नहीं होता
कषायपाहुड़ 1/1-20/328-329/359/2 मइणाणं व जेण दंसणमावरणणिबंधणं तेण खीणावरणिज्जे ण दंसणमिदि के वि भणंति। एत्थुवउज्जंती गाहा–‘भण्णइ खीणावरणे...’ (328)। एदं पि ण घडदे; आवरणकयस्स मइणाणस्सेव होउ णाम आवरणकयचक्खुअचक्खुओहिदंसणाणमावरणाभावेण अभावो ण केवलदंसणस्स तस्स कम्मेण अजणिदत्तादो। ण कम्मजणिदं केवलदंसणं, सगसरूवपयासेण विणा णिच्चेयणस्स जीवस्स णाणस्स वि अभावप्पसंगादो। =चूँकि दर्शन मतिज्ञान के समान आवरण के निमित्त से होता है, इसलिए आवरण के नष्ट हो जाने पर दर्शन नहीं रहता है, ऐसा कुछ आचार्य कहते हैं। इस विषय से उपयुक्त गाथा इस प्रकार है–‘जिस प्रकार ज्ञानावरण से रहित जिनभगवान् में ...इत्यादि’...पर उनका ऐसा कहना भी नहीं बनता है, क्योंकि जिस प्रकार मतिज्ञान आवरण का कार्य है, इसलिए अवरण के नष्ट हो जाने पर मतिज्ञान का अभाव हो जाता है। उसी प्रकार आवरण का अभाव होने से आवरण के कार्य चक्षुदर्शन अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन का भी अभाव होता है तो होओ पर इससे केवल दर्शन का अभाव नहीं हो सकता है, क्योंकि केवलदर्शन कर्मजनित नहीं है। उसे कर्मजनित मानना भी ठीक नहीं है, ऐसा मानने से, दर्शनावरण का अभाव हो जाने से भगवान् को केवलदर्शन की उत्पत्ति नहीं होगी, और उसकी उत्पत्ति न होने से वे अपने स्वरूप को न जान सकेंगे, जिससे वे अचेतन हो जायेंगे और ऐसी अवस्था में उसके ज्ञान का भी अभाव प्राप्त होगा।
- दर्शन के भेदों के नाम निर्देश
- श्रुत विभंग व मन:पर्यय के दर्शन संबंधी
- श्रुतदर्शन के अभाव में युक्ति
धवला 1/1,1,133/384/5 श्रुतदर्शनं किमिति नोच्यते इति चेन्न, तस्य मतिपूर्वकस्य दर्शनपूर्वकत्वविरोधात् । यदि बहिरंगार्थसामान्यविषयं दर्शनमभविष्यत्तदा श्रुतज्ञानदर्शनमपि समभविष्यत् । =प्रश्न–श्रुतदर्शन क्यों नहीं कहा ? उत्तर–1. नहीं, क्योंकि, मतिज्ञानपूर्वक होने वाले श्रुतज्ञान को दर्शनपूर्वक मानने में विरोध आता है। ( धवला 3/1,2,161/456/10 ); ( धवला 13/5,5,85/356/2 ) (और भी देखें [[ आगे आगे दर्शन - 6.4) 2. दूसरे यदि बहिरंग पदार्थ को सामान्य रूप से विषय करने वाला दर्शन होता तो श्रुतज्ञान संबंधी दर्शन भी होता। परंतु ऐसा नहीं (अर्थात् श्रुत ज्ञान का व्यापार बाह्य पदार्थ है अंतरंग नहीं, जबकि दर्शन का विषय अंतरंग पदार्थ है) इसलिए श्रुतज्ञान के पहिले दर्शन नहीं होता।
धवला 3/1,2,161/457/1 जदि सरूवसंवेदणं दंसणं तो एदेसि पि दंसणस्स अत्थित्तं पसज्जदे चेन्न, उत्तरज्ञानोत्पत्तिनिमित्तप्रयत्नविशिष्टस्वसंवेदनस्य दर्शनत्वात् । 3.प्रश्न–यदिस्वरूपसंवेदन दर्शन है, तो इन दोनों (श्रुत व मन:पर्यय) ज्ञानों के भी दर्शन के अस्तित्व की प्राप्ति होती है? उत्तर–नहीं, क्योंकि, उत्तरज्ञान की उत्पत्ति के निमित्तभूत प्रयत्नविशिष्ट स्वसंवेदन को दर्शन माना गया है। (यहाँ वह कार्य दर्शन की अपेक्षा मतिज्ञान से सिद्ध होता है।)
- विभंग दर्शन के अस्तित्व का कथंचित् विधि निषेध
देखें सत् प्ररूपणा (विभंगज्ञानी को अवधि दर्शन नहीं होता)।
धवला 1/1,1,134/385/1 विभंगदर्शनं किमिति पृथग् नोपदिष्टमिति चेन्न, तस्यावधिदर्शनेऽंतर्भावात् । =विभंग दर्शन का पृथक्रूप से उपदेश क्यों नहीं किया ? उत्तर–नहीं, क्योंकि उसका अवधि दर्शन में अंतर्भाव हो जाता है। ( धवला 13/5,5,85/356 )।
धवला 13/5,5,85/356/4 तथा सिद्धिविनिश्चयेऽप्युक्तम् – अवधिविभंगयोरवधिदर्शनम्’ इति। =ऐसा ही सिद्धिविनिश्चय में भी कहा है, –‘अवधिज्ञान व विभंगज्ञान के अवधिदर्शन ही होता है’।
- मन:पर्यय दर्शन के अभाव में युक्ति
राजवार्तिक/6/10 वार्तिक/पृष्ठ/पंक्ति–यथा अवधिज्ञानं दर्शनपूर्वकं तथा मन:पर्ययज्ञानेनापि दर्शनपुरस्सरेण भवितव्यमिति चेत्; तन्न; किं कारणम् । कारणाभावात् । न मन:पर्ययदर्शनावरणमस्ति। दर्शनावरणचतुष्टयोपदेशात्, तद्भावात् तत्क्षयोपशमाभावे तन्निमित्तमन:पर्ययदर्शनोपयोगाभाव:। (18/518/32)। मन:पर्ययज्ञानं स्वविषये अवधिज्ञानवत् न स्वमुखेन वर्तते। कथं तर्हि। परकीयमन:प्रणालिकथा। ततो यथा मनोऽतीतानागतार्थांश्चितयति न तु पश्यति तथा मन:पर्ययज्ञान्यपि भूतभविष्यंतौ वेत्ति न पश्यति। वर्तमानमतिमनोविषयविशेषाकारेणै व प्रतिपद्यते, तत: सामान्यपूर्वकवृत्त्यभावात् मन:पर्ययदर्शनाभाव: (19/519/3)। =प्रश्न–जिस प्रकार अवधिज्ञान दर्शनपूर्वक होता है, उसी प्रकार मन:पर्ययज्ञान को भी दर्शनपूर्वक होना चाहिए ? उत्तर–1. ऐसा नहीं है, क्योंकि, तहाँ कारण का अभाव है। मन:पर्यय दर्शनावरण नहीं है, क्योंकि चक्षु आदि चार ही दर्शनावरणों का उपदेश उपलब्ध है। और उसके अभाव के कारण उसके क्षयोपशम का भी अभाव है, और उसके अभाव में तन्निमित्तक मन:पर्ययदर्शनोपयोग का भी अभाव है। 2. मन:पर्ययज्ञान अवधिज्ञान की तरह स्वमुख से विषयों को नहीं जानता, किंतु परकीय मनप्रणाली से जानता है। अत: जिस प्रकार मन अतीत व अनागत अर्थों का विचार चिंतन तो करता है पर देखता नहीं, उसी तरह मन:पर्ययज्ञानी भी भूत और भविष्यत् को जानता तो है, पर देखता नहीं। वह वर्तमान भी मन को विषयविशेषाकार से जानता है, अत: सामान्यावलोकन पूर्वक प्रवृत्ति न होने से मन:पर्यय दर्शन नहीं बनता।
धवला 1/1,1,134/385/2 मन:पर्ययदर्शनं तर्हि वक्तव्यमिति चेन्न, मतिपूर्वकत्वात्तस्य दर्शनाभावात् । =प्रश्न–मन:पर्यय दर्शन को भिन्नरूप से कहना चाहिए ? उत्तर–3. नहीं, क्योंकि, मन:पर्ययज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है, इसलिए मन:पर्यय दर्शन नहीं होता। ( धवला 3/1,2,161/456/10 ); ( धवला 13/5,5,85/356/5 ); ( धवला 6/1,1-9,14/29/2 ); ( धवला 9/4,1,6/53/3 )।
देखें ऊपर श्रुतदर्शन संबंधी –(उत्तर ज्ञान की उत्पत्ति में कारणभूत प्रयत्नरूप स्वसंवेदन को दर्शन कहते हैं, परंतु यहाँ उत्तर ज्ञान की उत्पत्ति का कार्य मतिज्ञान ही सिद्ध कर देता है।) - मतिज्ञान ही श्रुत व मन:पर्यय का दर्शन है
द्रव्यसंग्रह टीका/44/188/6 श्रुतज्ञानमन:पर्ययज्ञानजनकं यदवग्रहेहादिरूपं मतिज्ञानं भणितम्, तदपि दर्शनपूर्वकत्वात्तदुपचारेण दर्शनं भण्यते, यतस्तेन कारणेन श्रुतज्ञानमन:पर्ययज्ञानद्वयमपि दर्शनपूर्वकं ज्ञातव्यमिति। =यहाँ श्रुतज्ञान को उत्पन्न करने वाला जो अवग्रह और मन:पर्ययज्ञान को उत्पन्न करने वाला ईहारूप मतिज्ञान कहा है; वह मतिज्ञान भी दर्शनपूर्वक होता है इसलिए वह मतिज्ञान भी उपचार से दर्शन कहलाता है। इस कारण श्रुतज्ञान और मन:पर्ययज्ञान इन दोनों को भी दर्शनपूर्वक जानना चाहिए।
- श्रुतदर्शन के अभाव में युक्ति
- दर्शनोपयोग संबंधी कुछ प्ररूपणाएँ
- दर्शनोपयोग अंतर्मुहूर्त अवस्थायी है
धवला 13/5,5,23/216/13 ज्ञानोत्पत्ते: पूर्वावस्था विषयविषयिसंपात: ज्ञानोत्पादनकारणपरिणामविशेषसंतत्युत्पत्त्युपलक्षित: अंतर्मुहूर्तकाल: दर्शनव्यपदेशभाक् । =ज्ञानोत्पत्ति की पूर्वावस्था विषय व विषयी का संपात (संबंध) है, जो दर्शन नाम से कहा जाता है। यह दर्शन ज्ञानोत्पत्ति के कारणभूत परिणाम विशेष की संतति की उत्पत्ति से उपलक्षित होकर अंतर्मुहूर्त कालस्थायी है।)
देखें दर्शन - 3.2 (केवलदर्शनोपयोग भी तद्भवस्थ उपसर्ग केवलियों की अंतर्मुहूर्त कालस्थायी है) नोट–(उपरोक्त अंतर्मुहूर्तकाल दर्शनोपयोग की अपेक्षा है और काल प्ररूपणा में दिये गये काल क्षयोपशम सामान्य की अपेक्षा है, अत: दोनों में विरोध नहीं है।) - लब्ध्यपर्याप्त दशा में चक्षुदर्शनोपयोग संभव नहीं पर निवृत्त्यपर्याप्त दशा में संभव है
धवला 4/1,3,67/126/8 यदि एवं, तो लद्धिअपज्जत्ताणं पि चक्खुदंसणित्तं पसज्जदे। तं च णत्थि, चक्खुदंसणिअवहारकालस्स पदरंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तपमाणप्पसंगादो। ण एस दोसो, णिव्वत्तिअपज्जत्ताणं चक्खुदंसणमत्थि; उत्तरकाले णिच्छएण चक्खुदंसणोवजोगसमुप्पत्तीए अविणाभाविचक्खुदंसणखओवसमदंसणादो। चउरिंदियपंचिंदियलद्धिअपज्जत्ताणं चक्खुदंसणं णत्थि, तत्थ चक्खुदंसणोवओगसमुप्पत्तीए अविणाभाविचक्खुदंसणक्खओवसमाभावादो। =प्रश्न–यदि ऐसा है (अर्थात् अपर्याप्तकाल में भी क्षयोपशम की अपेक्षा चक्षुदर्शन पाया जाता है) तो लब्ध्यपर्याप्तक जीवों में भी चक्षुदर्शनीपने का प्रसंग प्राप्त होता है। किंतु लब्ध्यपर्याप्तक जीवों के चक्षुदर्शन होता नहीं है। यदि लब्ध्यपर्याप्त जीवों के भी चक्षुदर्शनोपयोग का सद्भाव माना जायेगा, तो चक्षुदर्शनी जीवों के अवहारकाल को प्रतरांगुल के असंख्यातवें भागमात्र प्रमाणपने का प्रसंग प्राप्त होता है। उत्तर–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, निवृत्त्यपर्याप्त जीवों के चक्षुदर्शन होता है। इसका कारण यह है, कि उत्तरकाल में अर्थात् अपर्याप्त काल समाप्त होने के पश्चात् निश्चय से चक्षुदर्शनोपयोग की समुत्पत्ति का अविनाभावी चक्षुदर्शन का क्षयोपशम देखा जाता है। हाँ चतुरिंद्रिय और पंचेंद्रिय लब्ध्यपर्याप्त जीवों चक्षुदर्शन नहीं होता, क्योंकि, उनमें चक्षुदर्शनोपयोग की समुत्पत्ति का अविनाभावी चक्षुदर्शनावरण कर्म के क्षयोपशम का अभाव है। ( धवला 4/1,5,278/454/6 )। - मिश्र व कार्माणकाययोगियों में चक्षुदर्शनोपयोग का अभाव
पं.सं./प्रा./4/27-29 ओरालमिस्स–कम्मे मणपज्जविहंगचक्खुहीण ते।27। तम्मिस्से केवलदुग मणपज्जविहंगचक्खूणा।28। केवलदुयमणपज्जव-अण्णाणेतिएहिं होंति ते ऊणा। आहारजुयलजोए...।29। =योगमार्गणा की अपेक्षा औदारिक मिश्र व कार्माण काययोग में मन:पर्ययज्ञान विभंगावधि और चक्षुदर्शन इन तीन रहित 9 उपयोग होते हैं।26। वैक्रियक मिश्र काययोग केवलद्विक, मन:पर्यय, विभंगावधि और चक्षुदर्शन इन पाँच को छोड़कर शेष 7 उपयोग होते हैं।28। आहारक मिश्रकाय योग में केवलद्विक, मन:पर्ययज्ञान और अज्ञानत्रिक, इन छह को छोड़कर शेष छ: उपयोग होते हैं (अर्थात् आहारमिश्र में चक्षुदर्शनोपयोग होता है)। - दर्शनमार्गणा में गुणस्थानों का स्वामित्व
षट्खंडागम 1/1,1/ सू.132-135/383-385 चक्खुदंसणी चउरिंदियप्पहुडि जाव खीणकसायवीयरायछदुमत्थात्ति।132। अचक्खुदंसणी एइंदियप्पहुडि जाव खीणकसायवीयराय छदुमत्था त्ति।133। ओधिदंसणी असंजदसम्माइट्ठिप्पहुडि जाव खीणकसायवीयरायछदुमत्थात्ति।134। केवलदंसणी तिसुट्ठाणेसु सजोगिकेवली अजोगिकेवली सिद्धा चेदि।135। =चक्षुदर्शन उपयोग वाले जीव चतुरिंद्रिय (मिथ्यादृष्टि) से लेकर (संज्ञी पंचेंद्रिय) क्षीण कषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं।132। अचक्षुदर्शन उपयोग वाले जीव एकेंद्रिय (मिथ्यादृष्टि) से लेकर (संज्ञी पंचेंद्रिय) क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं।133। अवधिदर्शन वाले जीव (संज्ञी पंचेंद्रिय ही) असंयत सम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं।134। केवल दर्शन के धारक जीव (संज्ञी पंचेंद्रिय व अनिंद्रिय) सयोगिकेवली, अयोगिकेवली और सिद्ध इन तीन स्थानों में होते हैं।135।
- दर्शनोपयोग अंतर्मुहूर्त अवस्थायी है