गुणित कर्मांशिक: Difference between revisions
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< | <span class="GRef">कर्मप्रकृति/गाथा 74-82/पृष्ठ 187-189</span> <span class="PrakritText">जो बायरतसकालेणूण कम्मट्ठिइं तु पुढवीए। बायरा (रि) पज्जत्तापज्जत्तगदीहेयरद्धासु।74। जोगकसाउक्कोसो बहुसो निच्चमवि आउबंधं च। जोगजहण्णेणुवरिल्लठिइणिसेगं बहुं क्किच्चा।75। बायरतसेसु तक्कालमेव मंते य सत्तमरिवईए सव्वलहुं पज्जत्तो जोगकसायाहिओ बहुसो।76। जोगजवमज्झुवरिं मुहुत्तमच्छित्तु जीवियवसाणे। तिचरिमदुचरिमसमए पुरित्तु कसायउक्कस्सं।77। जोगक्कोसं चरिम-दुचरिमे समए य चरिमसमयम्मि। संपुण्णगुणियकम्मो पगयं तेणेह सामित्ते।78। संछोभणाए दोण्हं मोहाणं वेयगस्स खणसेसे। उप्पाइय सम्मत्तं मिच्छत्तगए तमतमाए।82।</span>=<span class="HindiText">जो जीव अनेक भवों में उत्तरोत्तर गुणित क्रम से कर्म प्रदेशों का बंध करता रहा है उसे '''गुणित कर्मांशिक''' कहते हैं। जो जीव उत्कृष्ट योगों सहित बादर पृथिवीकायिक एकेंद्रिय पर्याप्त व अपर्याप्त भवों से लेकर पूर्वकोटि पृथक्त्व से अधिक दो हजार सागरोपम प्रमाण बादर त्रसकाय में परिभ्रमण करके जितने बार सातवीं पृथिवी में जाने योग्य होता है उतनी बार जाकर पश्चात् सप्तम पृथिवी में नारक पर्याय को धारण कर शीघ्रातिशीघ्र पर्याप्त होकर उत्कृष्ट योगस्थानों व उत्कृष्ट कषायों सहित होता हुआ उत्कृष्ट कर्मप्रदशों का संचय करता है और अंतर्मुहूर्त प्रमाण आयु के शेष रहने पर त्रिचरम और द्विचरम समय में वर्तमान रहकर उत्कृष्ट संक्लेशस्थान को तथा चरम और द्विचरम समय में उत्कृष्ट योगस्थान को भी पूर्ण करता है, वह जीव उसी नारक पर्याय के अंतिम समय में संपूर्ण '''गुणित कर्मांशिक''' होता है।</span> <span class="GRef">( धवला 6/1,9,8,12/257 की टिप्पणी व विशेषार्थ से उद्धृत)</span><br> | ||
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कर्मप्रकृति/गाथा 74-82/पृष्ठ 187-189 जो बायरतसकालेणूण कम्मट्ठिइं तु पुढवीए। बायरा (रि) पज्जत्तापज्जत्तगदीहेयरद्धासु।74। जोगकसाउक्कोसो बहुसो निच्चमवि आउबंधं च। जोगजहण्णेणुवरिल्लठिइणिसेगं बहुं क्किच्चा।75। बायरतसेसु तक्कालमेव मंते य सत्तमरिवईए सव्वलहुं पज्जत्तो जोगकसायाहिओ बहुसो।76। जोगजवमज्झुवरिं मुहुत्तमच्छित्तु जीवियवसाणे। तिचरिमदुचरिमसमए पुरित्तु कसायउक्कस्सं।77। जोगक्कोसं चरिम-दुचरिमे समए य चरिमसमयम्मि। संपुण्णगुणियकम्मो पगयं तेणेह सामित्ते।78। संछोभणाए दोण्हं मोहाणं वेयगस्स खणसेसे। उप्पाइय सम्मत्तं मिच्छत्तगए तमतमाए।82।=जो जीव अनेक भवों में उत्तरोत्तर गुणित क्रम से कर्म प्रदेशों का बंध करता रहा है उसे गुणित कर्मांशिक कहते हैं। जो जीव उत्कृष्ट योगों सहित बादर पृथिवीकायिक एकेंद्रिय पर्याप्त व अपर्याप्त भवों से लेकर पूर्वकोटि पृथक्त्व से अधिक दो हजार सागरोपम प्रमाण बादर त्रसकाय में परिभ्रमण करके जितने बार सातवीं पृथिवी में जाने योग्य होता है उतनी बार जाकर पश्चात् सप्तम पृथिवी में नारक पर्याय को धारण कर शीघ्रातिशीघ्र पर्याप्त होकर उत्कृष्ट योगस्थानों व उत्कृष्ट कषायों सहित होता हुआ उत्कृष्ट कर्मप्रदशों का संचय करता है और अंतर्मुहूर्त प्रमाण आयु के शेष रहने पर त्रिचरम और द्विचरम समय में वर्तमान रहकर उत्कृष्ट संक्लेशस्थान को तथा चरम और द्विचरम समय में उत्कृष्ट योगस्थान को भी पूर्ण करता है, वह जीव उसी नारक पर्याय के अंतिम समय में संपूर्ण गुणित कर्मांशिक होता है। ( धवला 6/1,9,8,12/257 की टिप्पणी व विशेषार्थ से उद्धृत)
देखें क्षपित कर्मांशिक ।