सुमेरु: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
No edit summary |
||
(8 intermediate revisions by 5 users not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
== सिद्धांतकोष से == | | ||
<p> | == सिद्धांतकोष से == | ||
<span class="HindiText">मध्यलोक का सर्व प्रधान पर्वत है। विदेह क्षेत्र के बहुमध्य भाग में स्थित स्वर्णवर्ण व कूटाकार पर्वत है। यह जंबूद्वीप में एक, धातकी खंड में दो, पुष्करार्ध द्वीप में दो पर्वत हैं, इस प्रकार कुल 5 सुमेरु हैं। इसमें से प्रत्येक पर 16-16 चैत्यालय हैं। इस प्रकार पाँचों मेरु के कुल 80 चैत्यालय हैं। (विशेष-देखें [[ लोक#3.6 | लोक - 3.6]])।</span></p> | <p align="justify"> | ||
<span class="HindiText">मध्यलोक का सर्व प्रधान पर्वत है। विदेह क्षेत्र के बहुमध्य भाग में स्थित स्वर्णवर्ण व कूटाकार पर्वत है। यह जंबूद्वीप में एक, धातकी खंड में दो, पुष्करार्ध द्वीप में दो पर्वत हैं, इस प्रकार कुल 5 सुमेरु हैं। इसमें से प्रत्येक पर 16-16 चैत्यालय हैं। इस प्रकार पाँचों मेरु के कुल 80 चैत्यालय हैं। (विशेष- देखें [[ लोक#3.6 | लोक - 3.6]])।</span></p> | |||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
<strong>1. सुमेरु का व्युत्पत्ति अर्थ</strong></p> | <strong>1. सुमेरु का व्युत्पत्ति अर्थ</strong></p> | ||
<p> | <p> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/3/10/13/181/6 </span><span class="SanskritText">लोकत्रयं मिनातीति मेरु: इति।</span> =<span class="HindiText"> तीनों लोकों का मानदंड है इसलिए इसे '''मेरु''' कहते हैं।</span></p> | |||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
<strong>2. इसके अनेकों अपर नाम</strong></p> | <strong>2. इसके अनेकों अपर नाम</strong></p> | ||
<p | <p align="justify"> | ||
<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/373-376 </span><span class="SanskritText">वज्रमूल: सवैडूर्यचूलिको मणिभिश्चित:। विचित्राश्चर्यसंकीर्ण: स्वर्णमध्य: सुरालय:।373। मेरुश्चैव सुमेरुश्च महामेरु: सुदर्शन:। मंदर: शैलराजश्च वसंत: प्रियदर्शन:।374। रत्नोच्चयो दिशामादिलोकनाभिर्मनोरम:। लोकमध्यो दिशामंत्यो दिशामुत्तर एव च।375। सूर्याचरणविख्याति: सूर्यावर्त: स्वयंप्रभ:। इत्थं सुरगिरिश्चेति लब्धवर्णै: स वर्णित:।376।</span> =<span class="HindiText"> वज्रमूल, सवैडूर्य चूलिक, मणिचित, विचित्राश्चर्यकीर्ण, स्वर्णमध्य, सुरालय, मेरु, सुमेरु, महामेरु, सुदर्शन, मंदर, शैलराज, वसंत, प्रियदर्शन, रत्नोच्चय, दिशामादि, लोकनाभि, मनोरम, लोकमध्य, दिशामंत्य, दिशामुत्तर, सूर्याचरण, सूर्यावर्त, स्वयंप्रभ, और सूरगिरि-इस प्रकार विद्वानों ने अनेकों नामों के द्वारा सुमेरु पर्वत का वर्णन किया है।373-376।</span></p> | |||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
<strong>* सुमेरु पर्वत का स्वरूप</strong>-देखें [[ लोक#3.6 | लोक - 3.6]]।</p> | <strong>* सुमेरु पर्वत का स्वरूप</strong>-देखें [[ लोक#3.6 | लोक - 3.6]]।</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
<strong>3. वर्तमान विद्वानों की अपेक्षा सुमेरु</strong></p> | <strong>3. वर्तमान विद्वानों की अपेक्षा सुमेरु</strong></p> | ||
<p> | <p align="justify"> | ||
<span class="GRef"> जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/ </span> | <span class="GRef"> जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/ प्रस्तावना 139,141 आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये, हीरालाल जैन </span><br> | ||
<span class="HindiText">वर्तमान भूगोल का पामीर प्रदेश वही पौराणिक मेरु है। जिसके पूर्व से यारकंद नदी (सीता) निकलती है और पश्चिम सितोदसर से आमू दरिया निकलता है। इसके दक्षिण में दरद (काश्मीर में बहने वाली कृष्णगंगा नदी) है। इसके उत्तर में थियानसान के अंचल में बसा हुआ देश (उत्तरकुरु), पूर्व में मूजताग (मूंज) एवं शीतान (शीतांत) पर्वत, पश्चिम में बदख्शां (वैदूर्य) पर्वत, और पश्चिम-दक्षिण में हिंदूकुश (निषध) पर्वत स्थित है।139। पुराणों के अनुसार मेरु की शरावाकृति है। इधर वर्तमान भूगोल के अनुसार 'पामीर देश' चारों हिंदुकुश, काराकोरम, काशार और अल्ताई पर्वत से घिरा होने के कारण शरावाकार हो गया है। इसी पामीर देश को मेरु कहते हैं। पामीर में शब्द आश्लिष्ट है, क्योंकि यह शब्द सपादमेरु का जन्य है। मेरु के संबंध में भी 'सपाद मेरु' मेरु के महापाद का व्यवहार प्राय: हुआ है। अत: यह व्युत्पत्ति अशंकनीय है। इसी प्रकार काश्मीर शब्द भी मेरु का अंग जान पड़ता है, क्योंकि काश्मीर शब्द कश्यपमेरु का अपभ्रंश है। नीलमत पुराण के भी अनुसार काशमीर कश्यप का क्षेत्र है। और तैत्तिरीय आरण्यक/1/7 में कहा गया है कि महामेरु को अरण्यक नहीं छोड़ता।</span></p> | |||
<noinclude> | <noinclude> | ||
Line 22: | Line 24: | ||
[[ सुयश | अगला पृष्ठ ]] | [[ सुयश | अगला पृष्ठ ]] | ||
== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
<p id="1"> (1) राम-लक्ष्मण का एक | <div class="HindiText"> <p id="1" class="HindiText"> (1) राम-लक्ष्मण का एक सामंत। <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_102#146|पद्मपुराण - 102.146]] </span></p> | ||
<p id="2">(2) मध्यलोक का सुप्रसिद्ध | <p align="justify" id="2" class="HindiText">(2) मध्यलोक का सुप्रसिद्ध पर्वत। यह स्वर्णवर्ण का और कूटाकार है। ऐसे पाँच पर्वत हैं― जंबूद्वीप में एक, घातकीखंडद्वीप में दो और पुष्करार्द्धद्वीप में दो। सूर्य और चंद्र दोनों इसकी परिक्रमा करते हैं। इसके अनेक नाम हैं― वज्रमूल, सवैडूर्य, चूलिक, मणिचित्त, विचित्राश्चर्यकीर्ण, स्वर्णमध्य, सुरालय, मेरु, सुमेरु, महामेरु, सुदर्शन, मंदर, शैलराज, वसंत, प्रियदर्शन, रत्नोच्चय, दिशामादि लोकनाभि, मनोरम, लोकमध्य, दिशामंत्य, दिशामुत्तर, सर्याचरण, सूर्यावर्त स्वयंप्रभ और सूरिगिरि। <span class="GRef"> महापुराण 3.154, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_5#373|हरिवंशपुराण - 5.373-376]], [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_5#536|536-537]], [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_5#576|576]] </span></p> | ||
</div> | |||
<noinclude> | <noinclude> | ||
Line 38: | Line 38: | ||
</noinclude> | </noinclude> | ||
[[Category: पुराण-कोष]] | [[Category: पुराण-कोष]] | ||
[[Category: प्रथमानुयोग]] | |||
[[Category: करणानुयोग]] | |||
[[Category: स]] | [[Category: स]] |
Latest revision as of 16:06, 28 November 2023
सिद्धांतकोष से
मध्यलोक का सर्व प्रधान पर्वत है। विदेह क्षेत्र के बहुमध्य भाग में स्थित स्वर्णवर्ण व कूटाकार पर्वत है। यह जंबूद्वीप में एक, धातकी खंड में दो, पुष्करार्ध द्वीप में दो पर्वत हैं, इस प्रकार कुल 5 सुमेरु हैं। इसमें से प्रत्येक पर 16-16 चैत्यालय हैं। इस प्रकार पाँचों मेरु के कुल 80 चैत्यालय हैं। (विशेष- देखें लोक - 3.6)।
1. सुमेरु का व्युत्पत्ति अर्थ
राजवार्तिक/3/10/13/181/6 लोकत्रयं मिनातीति मेरु: इति। = तीनों लोकों का मानदंड है इसलिए इसे मेरु कहते हैं।
2. इसके अनेकों अपर नाम
हरिवंशपुराण/373-376 वज्रमूल: सवैडूर्यचूलिको मणिभिश्चित:। विचित्राश्चर्यसंकीर्ण: स्वर्णमध्य: सुरालय:।373। मेरुश्चैव सुमेरुश्च महामेरु: सुदर्शन:। मंदर: शैलराजश्च वसंत: प्रियदर्शन:।374। रत्नोच्चयो दिशामादिलोकनाभिर्मनोरम:। लोकमध्यो दिशामंत्यो दिशामुत्तर एव च।375। सूर्याचरणविख्याति: सूर्यावर्त: स्वयंप्रभ:। इत्थं सुरगिरिश्चेति लब्धवर्णै: स वर्णित:।376। = वज्रमूल, सवैडूर्य चूलिक, मणिचित, विचित्राश्चर्यकीर्ण, स्वर्णमध्य, सुरालय, मेरु, सुमेरु, महामेरु, सुदर्शन, मंदर, शैलराज, वसंत, प्रियदर्शन, रत्नोच्चय, दिशामादि, लोकनाभि, मनोरम, लोकमध्य, दिशामंत्य, दिशामुत्तर, सूर्याचरण, सूर्यावर्त, स्वयंप्रभ, और सूरगिरि-इस प्रकार विद्वानों ने अनेकों नामों के द्वारा सुमेरु पर्वत का वर्णन किया है।373-376।
* सुमेरु पर्वत का स्वरूप-देखें लोक - 3.6।
3. वर्तमान विद्वानों की अपेक्षा सुमेरु
जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/ प्रस्तावना 139,141 आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये, हीरालाल जैन
वर्तमान भूगोल का पामीर प्रदेश वही पौराणिक मेरु है। जिसके पूर्व से यारकंद नदी (सीता) निकलती है और पश्चिम सितोदसर से आमू दरिया निकलता है। इसके दक्षिण में दरद (काश्मीर में बहने वाली कृष्णगंगा नदी) है। इसके उत्तर में थियानसान के अंचल में बसा हुआ देश (उत्तरकुरु), पूर्व में मूजताग (मूंज) एवं शीतान (शीतांत) पर्वत, पश्चिम में बदख्शां (वैदूर्य) पर्वत, और पश्चिम-दक्षिण में हिंदूकुश (निषध) पर्वत स्थित है।139। पुराणों के अनुसार मेरु की शरावाकृति है। इधर वर्तमान भूगोल के अनुसार 'पामीर देश' चारों हिंदुकुश, काराकोरम, काशार और अल्ताई पर्वत से घिरा होने के कारण शरावाकार हो गया है। इसी पामीर देश को मेरु कहते हैं। पामीर में शब्द आश्लिष्ट है, क्योंकि यह शब्द सपादमेरु का जन्य है। मेरु के संबंध में भी 'सपाद मेरु' मेरु के महापाद का व्यवहार प्राय: हुआ है। अत: यह व्युत्पत्ति अशंकनीय है। इसी प्रकार काश्मीर शब्द भी मेरु का अंग जान पड़ता है, क्योंकि काश्मीर शब्द कश्यपमेरु का अपभ्रंश है। नीलमत पुराण के भी अनुसार काशमीर कश्यप का क्षेत्र है। और तैत्तिरीय आरण्यक/1/7 में कहा गया है कि महामेरु को अरण्यक नहीं छोड़ता।
पुराणकोष से
(1) राम-लक्ष्मण का एक सामंत। पद्मपुराण - 102.146
(2) मध्यलोक का सुप्रसिद्ध पर्वत। यह स्वर्णवर्ण का और कूटाकार है। ऐसे पाँच पर्वत हैं― जंबूद्वीप में एक, घातकीखंडद्वीप में दो और पुष्करार्द्धद्वीप में दो। सूर्य और चंद्र दोनों इसकी परिक्रमा करते हैं। इसके अनेक नाम हैं― वज्रमूल, सवैडूर्य, चूलिक, मणिचित्त, विचित्राश्चर्यकीर्ण, स्वर्णमध्य, सुरालय, मेरु, सुमेरु, महामेरु, सुदर्शन, मंदर, शैलराज, वसंत, प्रियदर्शन, रत्नोच्चय, दिशामादि लोकनाभि, मनोरम, लोकमध्य, दिशामंत्य, दिशामुत्तर, सर्याचरण, सूर्यावर्त स्वयंप्रभ और सूरिगिरि। महापुराण 3.154, हरिवंशपुराण - 5.373-376, 536-537, 576