संसक्त साधु: Difference between revisions
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1. <span class="GRef"> भगवती आराधना/1313-1314 </span><span class="PrakritText">इंदियकसायदोसेहिं अधवा समण्णजोगपरितंतो। जो उव्वायदि सो होदि णियत्तो साधुसत्थादो।1313। इंदियकसायवसिया केई ठाणाणि ताणि सव्वाणि। पाविज्जंते दोसेहिं तेहिं सव्वेहिं संसत्ता।1314।</span> = <span class="HindiText">इंद्रिय और कषायों के दोष से अथवा सामान्य ध्यानादिक से विरक्त होकर जो साधु चारित्र से भ्रष्ट होता है वह साधु सार्थ से अलग होता है।1313। इंद्रिय विषय और कषाय के वशीभूत कितनेक भ्रष्ट मुनि सर्व दोषों से युक्त होकर सर्व अशुभ स्थान को प्राप्ति कराने वाले परिणामों को प्राप्त होते हैं।1314।</span> | |||
<p | <p><span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1950/1722/24 </span><span class="SanskritText">संसक्तो निरूप्यते - प्रियचारित्रे प्रियचारित्र: अप्रियचारित्रे दृष्टे अप्रियचारित्र:, नटवदनेकरूपग्राही संसक्त:, पंचेंद्रियेषु प्रसक्त: विविधगौरवप्रतिबद्ध:, स्त्रीविषये संक्लेशसहित:, गृहस्थजनप्रियश्च संसक्त:।</span> =<span class="HindiText">संसक्त मुनि का वर्णन - ऐसे मुनि चारित्रप्रिय मुनि के सहवास से चारित्रप्रिय और चारित्रअप्रिय मुनि के सहवास से चारित्र अप्रिय बनते हैं। नट के समान इनका आचरण रहता है। ये संसक्त मुनि इंद्रियों के विषय में आसक्त रहते हैं, तथा तीन प्रकार गारवों में आसक्त होते हैं। स्त्री के विषय में इनके परिणाम संक्लेश युक्त होते हैं। गृहस्थों पर इनका विशेष प्रेम होता है।</span></p> | ||
<p | <p><span class="GRef"> चारित्रसार/144/1 1 </span>.<span class="SanskritText">मंत्रवैद्यकज्योतिष्कोपजीवी राजादिसेवक: संसक्त:।</span> = <span class="HindiText">जो मंत्र, वैद्यक वा ज्योतिष शास्त्र से अपनी जीविका करते हैं और राजा आदिकों की सेवा करते हैं वे संसक्त साधु हैं। <span class="GRef">( भावपाहुड़ टीका/14/137/20 )</span>। <br> | ||
2. संसक्त साधु संबंधी विषय - देखें [[ साधु#5 | साधु - 5]]।</span></p> | |||
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1. भगवती आराधना/1313-1314 इंदियकसायदोसेहिं अधवा समण्णजोगपरितंतो। जो उव्वायदि सो होदि णियत्तो साधुसत्थादो।1313। इंदियकसायवसिया केई ठाणाणि ताणि सव्वाणि। पाविज्जंते दोसेहिं तेहिं सव्वेहिं संसत्ता।1314। = इंद्रिय और कषायों के दोष से अथवा सामान्य ध्यानादिक से विरक्त होकर जो साधु चारित्र से भ्रष्ट होता है वह साधु सार्थ से अलग होता है।1313। इंद्रिय विषय और कषाय के वशीभूत कितनेक भ्रष्ट मुनि सर्व दोषों से युक्त होकर सर्व अशुभ स्थान को प्राप्ति कराने वाले परिणामों को प्राप्त होते हैं।1314।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1950/1722/24 संसक्तो निरूप्यते - प्रियचारित्रे प्रियचारित्र: अप्रियचारित्रे दृष्टे अप्रियचारित्र:, नटवदनेकरूपग्राही संसक्त:, पंचेंद्रियेषु प्रसक्त: विविधगौरवप्रतिबद्ध:, स्त्रीविषये संक्लेशसहित:, गृहस्थजनप्रियश्च संसक्त:। =संसक्त मुनि का वर्णन - ऐसे मुनि चारित्रप्रिय मुनि के सहवास से चारित्रप्रिय और चारित्रअप्रिय मुनि के सहवास से चारित्र अप्रिय बनते हैं। नट के समान इनका आचरण रहता है। ये संसक्त मुनि इंद्रियों के विषय में आसक्त रहते हैं, तथा तीन प्रकार गारवों में आसक्त होते हैं। स्त्री के विषय में इनके परिणाम संक्लेश युक्त होते हैं। गृहस्थों पर इनका विशेष प्रेम होता है।
चारित्रसार/144/1 1 .मंत्रवैद्यकज्योतिष्कोपजीवी राजादिसेवक: संसक्त:। = जो मंत्र, वैद्यक वा ज्योतिष शास्त्र से अपनी जीविका करते हैं और राजा आदिकों की सेवा करते हैं वे संसक्त साधु हैं। ( भावपाहुड़ टीका/14/137/20 )।
2. संसक्त साधु संबंधी विषय - देखें साधु - 5।