दैव: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
||
(3 intermediate revisions by 2 users not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
| | ||
== सिद्धांतकोष से == | == सिद्धांतकोष से == | ||
देखें [[ नियति#3 | नियति - 3]]। | <span class="GRef"> अष्टशती/योग्यता </span> <span class="SanskritText">कर्मपूर्वं वा दैवमुभयदृष्टम्, पौरुषं पुनरिह चेष्टितं दृष्टम् । ताभ्यामर्थसिद्धि:, तदन्यतरापायेऽघटनात् । पौरुषमात्रेऽर्थादर्शनात् । दैवमात्रे वा समीहानर्थक्यप्रसंगात् ।</span>=<span class="HindiText">(संसारी जीवों में '''दैव''' व पुरुषार्थ संबंधी प्रकरण है।)–पदार्थ की योग्यता अर्थात् भवितव्य और पूर्वकर्म ये दोनों '''दैव''' कहलाते हैं। ये दोनों ही अदृष्ट हैं। तथा व्यक्ति की अपनी चेष्टा को पुरुषार्थ कहते हैं जो दृष्ट है। इन दोनों से ही अर्थसिद्धि होती है, क्योंकि, इनमें से किसी एक के अभाव में अर्थसिद्धि घटित नहीं हो सकती। केवल पुरुषार्थ से तो अर्थसिद्धि होती दिखाई नहीं देती (देखें [[ नियति#3.5 | नियति - 3.5]])। तथा केवल दैव के मानने पर इच्छा करना व्यर्थ हुआ जाता है। (देखें [[ नियति#3.2 | नियति - 3.2]])।</span></span> | ||
<span class="HindiText">अधिक जानकारी के लिये देखें [[ नियति#3 | नियति - 3]]।</span> | |||
<noinclude> | <noinclude> | ||
Line 13: | Line 16: | ||
== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
<div class="HindiText"> <p id="1"> (1) पूर्व पर्याय में कृत शुभाशुभ कर्म । <span class="GRef"> पद्मपुराण 96.9 </span></p> | <div class="HindiText"> <p id="1" class="HindiText"> (1) पूर्व पर्याय में कृत शुभाशुभ कर्म । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_96#9|पद्मपुराण - 96.9]] </span></p> | ||
<p id="2">(2) सौधर्मेंद्र स्तुत वृषभदेव का एक नाम । <span class="GRef"> महापुराण 25.187 </span></p> | <p id="2" class="HindiText">(2) सौधर्मेंद्र स्तुत वृषभदेव का एक नाम । <span class="GRef"> महापुराण 25.187 </span></p> | ||
</div> | </div> | ||
Line 25: | Line 28: | ||
[[Category: पुराण-कोष]] | [[Category: पुराण-कोष]] | ||
[[Category: द]] | [[Category: द]] | ||
[[Category: द्रव्यानुयोग]] |
Latest revision as of 15:11, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
अष्टशती/योग्यता कर्मपूर्वं वा दैवमुभयदृष्टम्, पौरुषं पुनरिह चेष्टितं दृष्टम् । ताभ्यामर्थसिद्धि:, तदन्यतरापायेऽघटनात् । पौरुषमात्रेऽर्थादर्शनात् । दैवमात्रे वा समीहानर्थक्यप्रसंगात् ।=(संसारी जीवों में दैव व पुरुषार्थ संबंधी प्रकरण है।)–पदार्थ की योग्यता अर्थात् भवितव्य और पूर्वकर्म ये दोनों दैव कहलाते हैं। ये दोनों ही अदृष्ट हैं। तथा व्यक्ति की अपनी चेष्टा को पुरुषार्थ कहते हैं जो दृष्ट है। इन दोनों से ही अर्थसिद्धि होती है, क्योंकि, इनमें से किसी एक के अभाव में अर्थसिद्धि घटित नहीं हो सकती। केवल पुरुषार्थ से तो अर्थसिद्धि होती दिखाई नहीं देती (देखें नियति - 3.5)। तथा केवल दैव के मानने पर इच्छा करना व्यर्थ हुआ जाता है। (देखें नियति - 3.2)।
अधिक जानकारी के लिये देखें नियति - 3।
पुराणकोष से
(1) पूर्व पर्याय में कृत शुभाशुभ कर्म । पद्मपुराण - 96.9
(2) सौधर्मेंद्र स्तुत वृषभदेव का एक नाम । महापुराण 25.187