पुष्कर: Difference between revisions
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<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/3/34/4 </span><span class="SanskritText">यत्र जंबूवृक्षस्तत्र पुष्करं सपरिवारम्। तत एव तस्य द्वीपस्य नाम रूढे पुष्करद्वीप इति। ...मानुषोत्तरशैलेन विभक्तार्धत्वात्पुष्करार्धसंज्ञा।</span> = <span class="HindiText">जहाँ पर जंबू द्वीप में जंबू वृक्ष है पुष्कर द्वीप में अपने वहाँ परिवार के साथ पुष्कर वृक्ष है। और इसीलिए इस द्वीप का नाम पुष्करद्वीप रूढ हुआ है। ...इस द्वीप के (मध्य भाग में मानुषोत्तर पर्वत है उस, मानुषोत्तर पर्वत के कारण (इसके) दो विभाग हो गये हैं। अतः आधे द्वीप को पुष्करार्ध यह संज्ञा प्राप्त हुई। </span></li> | <span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/3/34/4 </span><span class="SanskritText">यत्र जंबूवृक्षस्तत्र पुष्करं सपरिवारम्। तत एव तस्य द्वीपस्य नाम रूढे पुष्करद्वीप इति। ...मानुषोत्तरशैलेन विभक्तार्धत्वात्पुष्करार्धसंज्ञा।</span> = <span class="HindiText">जहाँ पर जंबू द्वीप में जंबू वृक्ष है पुष्कर द्वीप में अपने वहाँ परिवार के साथ पुष्कर वृक्ष है। और इसीलिए इस द्वीप का नाम पुष्करद्वीप रूढ हुआ है। ...इस द्वीप के (मध्य भाग में मानुषोत्तर पर्वत है उस, मानुषोत्तर पर्वत के कारण (इसके) दो विभाग हो गये हैं। अतः आधे द्वीप को पुष्करार्ध यह संज्ञा प्राप्त हुई। </span></li> | ||
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<p id="2">(2) अच्युत स्वर्ग का एक विमान । <span class="GRef"> महापुराण 73. 30 </span></p> | <p id="2" class="HindiText">(2) अच्युत स्वर्ग का एक विमान । <span class="GRef"> महापुराण 73. 30 </span></p> | ||
<p id="3">(3) तीसरा द्वीप । चंद्रादित्य नगर इसी में स्थित था । इसकी पूर्व पश्चिम दिशाओं में दो मेरु हैं । यह कमल के विशाल चिह्न से युक्त है । इसका विस्तार कालोदधि से दुगुना है और यह उसे चारों ओर से घेरे हुए है । इसका आधा भाग मनुष्य क्षेत्र की सीमा निश्चित करने वाले मानुषोत्तर पर्वत से घिरा हुआ है । उत्तर-दक्षिण दिशा में इष्वाकार पर्वतों से विभक्त होने से इसके पूर्व पुष्करार्ध और पश्चिम पुष्करार्ध ये दो भेद हैं । दोनों खंडों के मध्य में मेरु पर्वत है । इसकी बाह्य परिधि एक | <p id="3" class="HindiText">(3) तीसरा द्वीप । चंद्रादित्य नगर इसी में स्थित था । इसकी पूर्व पश्चिम दिशाओं में दो मेरु हैं । यह कमल के विशाल चिह्न से युक्त है । इसका विस्तार कालोदधि से दुगुना है और यह उसे चारों ओर से घेरे हुए है । इसका आधा भाग मनुष्य क्षेत्र की सीमा निश्चित करने वाले मानुषोत्तर पर्वत से घिरा हुआ है । उत्तर-दक्षिण दिशा में इष्वाकार पर्वतों से विभक्त होने से इसके पूर्व पुष्करार्ध और पश्चिम पुष्करार्ध ये दो भेद हैं । दोनों खंडों के मध्य में मेरु पर्वत है । इसकी बाह्य परिधि एक करोड़ बयालीस लाख तीस हजार दो सौ पच्चीस योजन से कुछ अधिक है । इसका तीन लाख पचपन हजार छ: सौ चौरासी योजन प्रमाण क्षेत्र पर्वतों से रुका हुआ है <span class="GRef"> महापुराण 7.13, 54.8, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_85#96|पद्मपुराण - 85.96]], </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_5#576|हरिवंशपुराण - 5.576-589]] </span></p> | ||
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Latest revision as of 15:15, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
- मध्य लोक का द्वितीय द्वीप - देखें लोक - 4.4।
- मध्य लोक का तृतीय सागर - देखें लोक - 5.1।
- पुष्कर द्वीप के नाम की सार्थकता
सर्वार्थसिद्धि/3/34/4 यत्र जंबूवृक्षस्तत्र पुष्करं सपरिवारम्। तत एव तस्य द्वीपस्य नाम रूढे पुष्करद्वीप इति। ...मानुषोत्तरशैलेन विभक्तार्धत्वात्पुष्करार्धसंज्ञा। = जहाँ पर जंबू द्वीप में जंबू वृक्ष है पुष्कर द्वीप में अपने वहाँ परिवार के साथ पुष्कर वृक्ष है। और इसीलिए इस द्वीप का नाम पुष्करद्वीप रूढ हुआ है। ...इस द्वीप के (मध्य भाग में मानुषोत्तर पर्वत है उस, मानुषोत्तर पर्वत के कारण (इसके) दो विभाग हो गये हैं। अतः आधे द्वीप को पुष्करार्ध यह संज्ञा प्राप्त हुई।
- पुष्कर द्वीप का नक्शा- देखें लोक - 4.2।
पुराणकोष से
(1) वाद्यों की एक जाति । ये चर्मावृत होते हैं । मुरज, पटह, पखावजक आदि वाद्य पुष्कर वाद्य ही हैं । महापुराण 3. 174, 14.115
(2) अच्युत स्वर्ग का एक विमान । महापुराण 73. 30
(3) तीसरा द्वीप । चंद्रादित्य नगर इसी में स्थित था । इसकी पूर्व पश्चिम दिशाओं में दो मेरु हैं । यह कमल के विशाल चिह्न से युक्त है । इसका विस्तार कालोदधि से दुगुना है और यह उसे चारों ओर से घेरे हुए है । इसका आधा भाग मनुष्य क्षेत्र की सीमा निश्चित करने वाले मानुषोत्तर पर्वत से घिरा हुआ है । उत्तर-दक्षिण दिशा में इष्वाकार पर्वतों से विभक्त होने से इसके पूर्व पुष्करार्ध और पश्चिम पुष्करार्ध ये दो भेद हैं । दोनों खंडों के मध्य में मेरु पर्वत है । इसकी बाह्य परिधि एक करोड़ बयालीस लाख तीस हजार दो सौ पच्चीस योजन से कुछ अधिक है । इसका तीन लाख पचपन हजार छ: सौ चौरासी योजन प्रमाण क्षेत्र पर्वतों से रुका हुआ है महापुराण 7.13, 54.8, पद्मपुराण - 85.96, हरिवंशपुराण - 5.576-589