बोधपाहुड़ गाथा 14: Difference between revisions
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<div class="HindiUtthanika">(४) आगे दर्शन का स्वरूप कहते हैं -</div> | <div class="HindiUtthanika">(४) आगे दर्शन का स्वरूप कहते हैं -</div> | ||
<div class=" | <div class="HindiBhavarth"><div>अर्थ - जो मोक्षमार्ग को दिखाता है वह ‘दर्शन’ है, मोक्षमार्ग कैसा है ? सम्यक्त्व अर्थात् तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षण सम्यक्त्वस्वरूप है, संयम अर्थात् चारित्र-पंच महाव्रत, पंच समिति, तीन गुप्ति - ऐसे तेरह प्रकार चारित्ररूप है, सुधर्म अर्थात् उत्तमक्षमादिक दशलक्षण धर्मरूप है, निर्ग्रन्थरूप है, बाह्य-अभ्यंतर परिग्रह रहित है, ज्ञानमयी है, जीव अजीवादि पदार्थों को जाननेवाला है । यहाँ ‘निर्ग्रन्थ’ और ‘ज्ञानमयी’ ये दो विशेषण दर्शन के भी होते हैं, क्योंकि दर्शन है सो बाह्य तो इसकी मूर्ति निर्ग्रन्थ है और अंतरंग ज्ञानमयी है । इसप्रकार मुनि के रूप को जिनमार्ग में ‘दर्शन’ कहा है तथा इसप्रकार के रूप के श्रद्धानरूप सम्यक्त्व स्वरूप को ‘दर्शन’ कहते हैं ।</div> | ||
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<div class="HindiBhavarth"><div> | <div class="HindiBhavarth"><div>भावार्थ - परमार्थरूप ‘अंतरंग दर्शन’ तो सम्यक्त्व है और ‘बाह्य’ उसकी मूर्ति, ज्ञानसहित ग्रहण किया निर्ग्रन्थ रूप, इसप्रकार मुनि का रूप है सो ‘दर्शन’ है, क्योंकि मत की मूर्ति को दर्शन कहना लोक में प्रसिद्ध है ॥</div> | ||
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Latest revision as of 17:25, 2 November 2013
दंसेइ मोक्खमग्गं सम्मत्तं संजमं सुधम्मं च ।
णिग्गंथं णाणमयं जिणमग्गे दंसणं भणियं ॥१४॥
दर्शयति मोक्षमार्गं सम्यक्त्वं संयमं सुधर्मं च ।
निर्ग्रन्थं ज्ञानमयं जिनमार्गे दर्शनं भणितम् ॥१४॥
(४) आगे दर्शन का स्वरूप कहते हैं -
अर्थ - जो मोक्षमार्ग को दिखाता है वह ‘दर्शन’ है, मोक्षमार्ग कैसा है ? सम्यक्त्व अर्थात् तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षण सम्यक्त्वस्वरूप है, संयम अर्थात् चारित्र-पंच महाव्रत, पंच समिति, तीन गुप्ति - ऐसे तेरह प्रकार चारित्ररूप है, सुधर्म अर्थात् उत्तमक्षमादिक दशलक्षण धर्मरूप है, निर्ग्रन्थरूप है, बाह्य-अभ्यंतर परिग्रह रहित है, ज्ञानमयी है, जीव अजीवादि पदार्थों को जाननेवाला है । यहाँ ‘निर्ग्रन्थ’ और ‘ज्ञानमयी’ ये दो विशेषण दर्शन के भी होते हैं, क्योंकि दर्शन है सो बाह्य तो इसकी मूर्ति निर्ग्रन्थ है और अंतरंग ज्ञानमयी है । इसप्रकार मुनि के रूप को जिनमार्ग में ‘दर्शन’ कहा है तथा इसप्रकार के रूप के श्रद्धानरूप सम्यक्त्व स्वरूप को ‘दर्शन’ कहते हैं ।
भावार्थ - परमार्थरूप ‘अंतरंग दर्शन’ तो सम्यक्त्व है और ‘बाह्य’ उसकी मूर्ति, ज्ञानसहित ग्रहण किया निर्ग्रन्थ रूप, इसप्रकार मुनि का रूप है सो ‘दर्शन’ है, क्योंकि मत की मूर्ति को दर्शन कहना लोक में प्रसिद्ध है ॥