लिंगपाहुड़ गाथा 1: Difference between revisions
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Latest revision as of 17:06, 2 November 2013
काऊण णमोकारं अरहंताणं तहेव सिद्धाणं ।
वोच्छामि समणलिंगं पाहुडसत्थं समासेण ॥१॥
कृत्वा नमस्कारं अर्हतां तथैव सिद्धानाम् ।
वक्ष्यामि श्रमणलिङ्गं प्राभृतशास्त्रं समासेन ॥१॥
प्रथम ही आचार्य मंगल के लिए इष्ट को नमस्कार कर ग्रन्थ करने की प्रतिज्ञा करते हैं -
अर्थ - आचार्य कहते हैं कि मैं अरहन्तों को नमस्कार करके और वैसे ही सिद्धों को नमस्कार करके तथा जिसमें श्रमणलिंग का निरूपण है इसप्रकार पाहुडशास्त्र को कहूँगा ।
भावार्थ - इस काल में मुनि का लिंग जैसा जिनदेव ने कहा है उसमें विपर्यय हो गया, उसका निषेध करने के लिए यह लिंगनिरूपण शास्त्र आचार्य ने रचा है, इसकी आदि में घातिकर्म का नाश कर अनंतचतुष्टय प्राप्त करके अरहंत हुए इन्होंने यथार्थरूप से श्रमण का मार्ग प्रवर्ताया और उस लिंग को साधकर सिद्ध हुए, इसप्रकार अरहंत सिद्धों को नमस्कार करके ग्रन्थ करने की प्रतिज्ञा की है ॥१॥