अर्थलिंगज श्रुतज्ञान विशेष निर्देश: Difference between revisions
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<p class="HindiText" id="II"><strong>अर्थलिंगज श्रुतज्ञान विशेष निर्देश</strong></p> | <ol> | ||
<li class="HindiText"><strong>भेद व लक्षण</strong></li> | |||
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<li class="HindiText">[[ #II.1.1 | अर्थ लिंगज 20 प्रकार का है]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #II.1.2 | अर्थ लिंगज के 20 भेदों का नाम निर्देश]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #II.1.3 | बीस भेदों के लक्षण]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #II.1.4 | उपरोक्त ज्ञानों की वह संज्ञाएँ क्यों]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #II.1.5 | अक्षर ज्ञान में कौन सा अक्षर इष्ट है]]</li> | |||
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<li class="HindiText"><strong>अर्थलिंगज निर्देश</strong></li> | |||
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<li class="HindiText">[[ #II.2.1 | लब्ध्यक्षर ज्ञान का प्रमाण]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #II.2.2 | लब्ध्यक्षर ज्ञान सदा निरावरण होता है]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #II.2.3 | पर्याय आदि ज्ञानों में वृद्धि क्रम]]</li> | |||
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<p class="HindiText" id="II"><strong>अर्थलिंगज श्रुतज्ञान विशेष निर्देश</strong></p> | |||
<hr/><p class="HindiText" id="II.1"><strong>1. भेद व लक्षण</strong></p> | <hr/><p class="HindiText" id="II.1"><strong>1. भेद व लक्षण</strong></p> | ||
<hr/><p class="HindiText" id="II.1.1">1. अर्थ लिंगज 20 प्रकार का है</p> | <hr/><p class="HindiText" id="II.1.1">1. अर्थ लिंगज 20 प्रकार का है</p> | ||
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<span class="GRef"> षट्खंडागम 13/5,5/ सूत्र 47/260</span> <span class="PrakritText">तस्सेव सुदणाणावरणीयस्स कम्मस्स वीसदिविधा परूवणा कायव्वा भवदि।47। पुव्वं संजोगक्खरमेत्ताणि सुदणाणावरणाणि परूविदाणि। संपहि ताणि चेव सुदणाणावरणाणि वीसदिविधाणि त्ति भण्णमाणे एदस्स सुत्तस्स पुव्वसुत्तेण विरोहो किण्ण जायदे। ण एस दोसो, भिण्णाहिप्पायंतादो। पुव्विल्लसुत्तमक्खरणिबंधणभेदपरूवयं, एदं पुण खओवसमगदभेदमस्सिदूण आवरणभेदपरूवयं। तम्हा दोसो णत्थि त्ति घेत्तव्वो।</span> =<span class="HindiText">श्रुतज्ञानावरणीय कर्म की 20 प्रकार की प्ररूपणा करनी चाहिए।47। <strong>प्रश्न</strong> पहले जितने संयोगाक्षर होते हैं उतने श्रुतज्ञानावरण कर्म कहे गये हैं। अब वे ही श्रुतज्ञानावरण 20 प्रकार के हैं, ऐसा कथन करने पर इस सूत्र का पूर्व सूत्र के साथ विरोध क्यों नहीं होता? <br> | |||
<strong>उत्तर</strong> यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि भिन्न अभिप्राय से यह सूत्र कहा गया है। पूर्व सूत्र अक्षर निमित्तक श्रुतभेदों का कथन करता है, परंतु यह सूत्र क्षयोपशम का अवलंबन लेकर आवरण के भेदों का कथन करता है। इसलिए कोई दोष नहीं है। ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए।</span></p> | |||
<hr/><p class="HindiText" id="II.1.2">2. अर्थ लिंगज के 20 भेदों का नाम निर्देश</p> | <hr/><p class="HindiText" id="II.1.2">2. अर्थ लिंगज के 20 भेदों का नाम निर्देश</p> | ||
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<span class="GRef"> षट्खंडागम 13/5,5 गाथा 1 व सूत्र 48/260</span> <span class="PrakritText">पज्जय-अक्खर पद-संघादयपडिवत्ति-जोगदाराइं। पाहुडपाहुडवत्थू पुव्वसमासाय बोद्धव्वा।1। पज्जयावरणीयं पज्जयसमासावरणीयं अक्खरावरणीयं अक्खरसमासावरणीयं पदावरणीयं पदसमासावरणीयं संघादावरणीयं संघातसमासावरणीयं पडिवत्तिआवरणीयं पडिवत्तिसमासावरणीयं अणियोगद्दारावरणीयं अणियोगद्दारसमासावरणीयं पाहुडपाहुडावरणीयं पाहुडपाहुडसमासावरणीयं पाहुडावरणीयं पाहुडसमासावरणीयं वत्थुआवरणीयं वत्थुसमासावरणीयं पुव्वावरणीयं पुव्वसमासावरणीयं चेदि।48।</span> | |||
<span class="HindiText">1. पर्याय, पर्यायसमास, अक्षर, अक्षरसमास, पद, पदसमास:, संघात, संघात समास, प्रतिपत्ति, प्रतिपत्तिसमास, अनुयोगद्वार, | <span class="HindiText">1. पर्याय, पर्यायसमास, अक्षर, अक्षरसमास, पद, पदसमास:, संघात, संघात समास, प्रतिपत्ति, प्रतिपत्तिसमास, अनुयोगद्वार, अनुयोगद्वारसमास, प्राभृतप्राभृत, प्राभृत-प्राभृतसमास, प्राभृत, प्राभृतसमास, वस्तु, वस्तुसमास, पूर्व और पूर्व समास, ये श्रुतज्ञान के बीस भेद जानने चाहिए।1। 2. पर्याय ज्ञानावरणीय, पर्यायसमास ज्ञानावरणीय, अक्षरावरणीय, अक्षरसमासावरणीय, पदावरणीय, पदसमासावरणीय, संघातावरणीय, संघातसमासावरणीय, प्रतिपत्ति-आवरणीय, प्रतिपत्तिसमासावरणीय, अनुयोगद्वारावरणीय, अनुयोगद्वारसमासावरणीय, प्राभृतप्राभृतावरणीय, प्राभृतप्राभृतसमासावरणीय, प्राभृतावरणीय, प्राभृतसमासावरणीय, वस्तु आवरणीय, वस्तुसमासावरणीय, पूर्वावरणीय, पूर्वसमासावरणीय, ये श्रुतावरण के बीस भेद हैं।48। <span class="GRef">( हरिवंशपुराण/10/12-13 )</span>; <span class="GRef">( धवला 6/1,9-1,14/21/8 )</span>; <span class="GRef">( धवला 12/4,2,14,5/480/12 )</span>; <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड/317-318/677 )</span>।</span></p> | ||
<hr/><p class="HindiText" id="II.1.3">3. बीस भेदों के लक्षण</p> | <hr/><p class="HindiText" id="II.1.3">3. बीस भेदों के लक्षण</p> | ||
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<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/10/14-26 </span><span class="SanskritText">श्रुतज्ञानविकल्प: स्यादेकह्रस्वाक्षरात्मक:। अनंतानंतभेदाणुपुद्गलस्कंधसंचय:।14। अनंतानंतभागैस्तु भिद्यमानस्य तस्य च। भाग: पर्याय इत्युक्त: श्रुतभेदो ह्यनल्पश:।15। सोऽपि सूक्ष्मनिगोदस्यालब्धपर्याप्तदेहिन:। संभवी सर्वथा तावान् श्रुतावरणवर्जित:।16। सर्वस्यैव हि जीवस्य तावन्मात्रस्य नावृति:। आवृतौ तु न जीव: स्यादुपयोगवियोगत:।17। जीवोपयोगशक्तेश्च न विनाश: सयुक्तिक:। स्यादेवात्यभ्ररोधेऽपि सूर्याचंद्रमसो: प्रभा।18। पर्यायानंतभागेन पर्यायो युज्यते यदा। स पर्यायसमास: स्यात् श्रुतभेदो हि सावृति:।19। अनंतसंखयसंखयेभागवृद्धिक्षयांवित:। संखयेयासंखयकानंतगुणवृद्धिक्रमेण च।20। स्यात्पर्यायसमासोऽसौ यावदक्षरपूर्णता। एकैकाक्षरवृद्धया स्यात् तत्समास: पदावधि:।21। पदमर्थपदं ज्ञेयं प्रमाणपदमित्यपि। मध्यमं पदमित्येवं त्रिविधं तु पदस्थितम् ।22। एकद्वित्रिचतु:पंच षट्सप्ताक्षरमर्थवत् । पदमाद्यं द्वितीयं तु पदमष्टाक्षरात्मकम् ।23। कोट्यश्चैव चतुस्त्रिंशत् तच्छतान्यपि षोडश। त्र्यशीतिश्च पुनर्लक्षा: शतान्यष्टौ च सप्तति:।24। अष्टाशीतिश्च वर्णा: स्युर्मध्यमे तु पदे स्थिता:। पूर्वांगपदसंखया स्यान्मध्यमेन पदेन सा।25। एकैकाक्षरवृद्धया तु तत्समासभिदस्तत:। इत्थं पूर्वसमासांतं द्वादशांगं श्रुतं स्थितम् ।26।</span> =<span class="HindiText">श्रुतज्ञान के अनेक विकल्पों में एक विकल्प एक ह्रस्व अक्षर रूप भी है। इस विकल्प में द्रव्य की अपेक्षा अनंतानंत पुद्गल परमाणुओं से निष्पन्न स्कंध का संचय होता है।14। इस एक ह्रस्वाक्षर रूप विकल्प के अनेक बार अनंतानंत भाग किये जावें तो उनमें एक भाग पर्याय नाम का श्रुतज्ञान होता है।15। वह पर्याय ज्ञान सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव के होता है और श्रुतज्ञानावरण के आवरण से रहित होता है।16। सभी जीवों के उतने ज्ञान के ऊपर कभी आवरण नहीं पड़ता। यदि उस पर भी आवरण पड़ जावे तो ज्ञानोपयोग का सर्वथा अभाव हो जायेगा और ज्ञानोपयोग का अभाव होने से जीव का अभाव हो जायेगा।17। यह निश्चय से सिद्ध है कि जीव की उपयोग शक्ति का कभी विनाश नहीं होता। जिस प्रकार कि मेघ का आवरण होने पर भी सूर्य और चंद्रमा की प्रभा कुछ अंशों में प्रगट रही आती है उसी प्रकार श्रुतज्ञान का आवरण होने पर भी पर्याय नाम का ज्ञान प्रकट रहा आता है।18। जब यही पर्याय ज्ञान पर्याय ज्ञान के अनंतवें भाग के साथ मिल जाता है तब यह पर्यायसमास नाम का श्रुतज्ञान कहलाने लगता है, यह श्रुतज्ञान आवरण से सहित है।19। यह पर्याय-समास-ज्ञान अनंतभागवृद्धि, असंख्यभाग वृद्धि, संख्यातभागवृद्धि तथा अनंतभाग हानि, असंख्यात भागहानि, एवं संख्यात भाग-हानि से सहित हैं। पर्यायज्ञान के ऊपर संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनंतगुण वृद्धि के क्रम से वृद्धि होते-होते जब तक अक्षर ज्ञान पूर्णता होती है तब तक का ज्ञान पर्याय समास ज्ञान कहलाता है। उसके बाद अक्षरसमासज्ञान प्रारंभ होता है उसके ऊपर पद ज्ञान तक एक-एक अक्षर की वृद्धि होती है। इस वृद्धि प्राप्त ज्ञान को अक्षर-समास ज्ञान कहते हैं। अक्षर समास के बाद पदज्ञान होता है।20-21। अर्थपद, प्रमाणपद, और मध्यम पद के भेद से पद तीन प्रकार का है।22। इनमें एक, दो, तीन, चार, पाँच और छह व सात अक्षर तक का पद अर्थपद कहलाता है। आठ अक्षर रूप प्रमाण पद होता है और मध्यम पद में सोलह सौ चौंतीस करोड़ तिरासी लाख सात हजार आठसौ अठासी अक्षर होते हैं, और अंग तथा पूर्वों के पद की संख्या इसी मध्यम पद से होती है।23-24। एक अक्षर की वृद्धिकर पद समास से लेकर पूर्व-मास पर्यंत समस्त द्वादशांग श्रुत स्थित है।26। <span class="GRef">( धवला 13/5,5,48/262-271 )</span>; <span class="GRef">( धवला 6/1,9-1,14/21-250 )</span>; <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड/322-349 )</span>।</span></p> | |||
<hr/><p class="HindiText" id="II.1.4">4. उपरोक्त ज्ञानों की वह संज्ञाएँ क्यों</p> | <hr/><p class="HindiText" id="II.1.4">4. उपरोक्त ज्ञानों की वह संज्ञाएँ क्यों</p> | ||
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<span class="GRef"> धवला 6/1,9-1,14/27/7 </span><span class="PrakritText">कधमेदस्स अक्खरववएसो। ण, दव्वसुदपडिबद्धेयक्खरुप्पण्णस्स उवयारेण अक्खरववएसादो।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> उक्त प्रकार के इस श्रुतज्ञान की 'अक्षर' ऐसी संज्ञा कैसे हुई ? <br> | |||
<strong>उत्तर</strong> नहीं, क्योंकि, द्रव्य श्रुत प्रतिबद्ध एक अक्षर से उत्पन्न श्रुतज्ञान की उपचार से 'अक्षर' ऐसी संज्ञा है।</span></p> | |||
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<span class="GRef"> धवला 13/5,5,48/ पृष्ठ/पंक्ति </span><span class="PrakritText">कधं तस्स अक्खरसण्णा। खरणेण विणा एगसरूवेण अवट्ठाणादो। केवलणाणमक्खरं, तत्थ वडि्ढ-हाणीणमभावादो। दव्वट्ठियणए सुहुमणिगोदणाणं तं चेवे त्ति व अक्खरं। (262/5)। को पज्जओ णाम। णाणाविभागपडिच्छेदपक्खेवो पज्जओ णाम। तस्स समासो जेसु णाणट्ठाणेसु अत्थि तेसिं णाणट्ठाणाणं पज्जयसमासो त्ति सण्णा (264/2)।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> इसकी (सूक्ष्म निगोदिया के ज्ञान की) अक्षर संज्ञा किस कारण से है ? <br> | |||
<strong>उत्तर</strong> क्योंकि यह ज्ञान नाश के बिना एक स्वरूप से अवस्थित रहता है। अथवा केवलज्ञान अक्षर है, क्योंकि उसमें वृद्धि और हानि नहीं होती। द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा चूँकि सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक का ज्ञान भी वही है, इसलिए भी इस ज्ञान को अक्षर कहते हैं। <br> | |||
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<strong>प्रश्न</strong> पर्याय किसका नाम है ? <br> | |||
<strong>उत्तर</strong> ज्ञानाविभागप्रतिच्छेदों के प्रक्षेप का नाम पर्याय है। उनका समास जिन ज्ञानस्थानों में होता है उन ज्ञानस्थानों में पर्याय समास संज्ञा है। परंतु जहाँ एक ही प्रक्षेप होता है उस ज्ञान की पर्याय संज्ञा है, क्योंकि, एक पर्याय में उनका समास नहीं बन सकता।</span></p> | |||
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देखें [[ पद#6 | पद - 6 ]]एक पद के 16348307888 अक्षरों से होने के कारण ज्ञान को उपचार से पद ज्ञान कह देते हैं।</p> | देखें [[ पद#6 | पद - 6 ]]एक पद के 16348307888 अक्षरों से होने के कारण ज्ञान को उपचार से पद ज्ञान कह देते हैं।</p> | ||
<hr/><p class="HindiText" id="II.1.5">5. अक्षर ज्ञान में कौन सा अक्षर इष्ट है</p> | <hr/><p class="HindiText" id="II.1.5">5. अक्षर ज्ञान में कौन सा अक्षर इष्ट है</p> | ||
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<span class="GRef"> धवला 13/5,5,48/265/5 </span><span class="PrakritText">एदेसु तिसु अक्खरेसु केणेत्थ अक्खरेण पयदं। लद्धि अक्खरेण, ण सेसेहि, जडत्तादो। | |||
</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> इन तीन अक्षरों में से ( | </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> इन तीन अक्षरों में से (लब्ध्यक्षर, निर्वृत्यक्षर, और संस्थानाक्षर में से) प्रकृत में कौन से अक्षर से प्रयोजन है। <br> | ||
<strong>उत्तर</strong> लब्धि अक्षर से प्रयोजन है, शेष अक्षरों से नहीं। क्योंकि वे जड़ स्वरूप हैं।</span></p> | |||
<hr/><p class="HindiText" id="II.2"><strong>2. अर्थलिंगज निर्देश</strong></p> | <hr/><p class="HindiText" id="II.2"><strong>2. अर्थलिंगज निर्देश</strong></p> | ||
<hr/><p class="HindiText" id="II.2.1">1. लब्ध्यक्षर ज्ञान का प्रमाण</p> | <hr/><p class="HindiText" id="II.2.1">1. लब्ध्यक्षर ज्ञान का प्रमाण</p> | ||
<p | <p><span class="GRef"> धवला 13/5,5,48/262/7 </span><span class="PrakritText">किमेदस्स पमाणं। केवलणाणस्स अणंतिमभागो।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> इसका (लब्ध्यक्षर श्रुतज्ञान का) प्रमाण क्या है ? <br> | ||
<strong>उत्तर</strong> इसका प्रमाण केवल-ज्ञान का अनंतवाँ भाग है।</span></p> | |||
<hr/><p class="HindiText" id="II.2.2">2. लब्ध्यक्षर ज्ञान सदा निरावरण होता है</p> | <hr/><p class="HindiText" id="II.2.2">2. लब्ध्यक्षर ज्ञान सदा निरावरण होता है</p> | ||
<p | <p><span class="GRef"> धवला 13/5,5,48/262/7 </span><span class="PrakritText">एदं णिरावरणं, 'अक्खरस्साणंतिमभागो णिच्चुग्घाडिओ' त्ति वयणादो एदम्मि आवरिदे जीवाभावप्पसंगादो वा। एदम्हि लद्धि अक्खरे सव्वजीवरासिणा भागे हिदे सव्वजीवरासीदो अणंतगुणणाणाविभागपडिच्छेदो आगच्छंति।</span> =<span class="HindiText">यह (लब्ध्यक्षर) ज्ञान निरावरण है, क्योंकि अक्षर का अनंतवाँ भाग नित्य उद्घाटित (प्रगट) रहता है। ऐसा आगम वचन है। अथवा इसके आवृत होने पर जीव के अभाव का प्रसंग आता है। इस लब्ध्यक्षर ज्ञान में सब जीव राशि का भाग देने पर सब जीव राशि से अनंतगुणे ज्ञानाविभागप्रतिच्छेद होते हैं (13/4,2,14,4/479/5), (और भी | ||
देखें [[ | देखें [[ अर्थलिंगज_श्रुतज्ञान_विशेष_निर्देश#II.1.3 | श्रुतज्ञान - II.1.3]])।</span></p> | ||
<p | <p><span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/319-320 </span><span class="PrakritText">सुहुमणिगोदअपज्जत्तस्स जादस्स पढमसमयम्हि। हवदि हु सव्वजहण्णं णिच्चुग्घाडं णिरावरणं।319। सुहमणिगोद अपज्जत्तगेसु सगसंभवेसु भमिऊण। चरिमापुण्णतिवक्काणादिमवक्कट्ठियेव हवे।320।</span> =<span class="HindiText">सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्त जीव के उत्पन्न होने के प्रथम समय में सबसे जघन्य ज्ञान होता है। इसी को प्राय: लब्ध्यक्षर ज्ञान कहते हैं। इतना ज्ञान हमेशा निवारण तथा प्रकाशमान रहता है।319। सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्त जीव के अपने अपने जितने भव (6012) संभव हैं, उनमें भ्रमण करके अंत के अपर्याप्त शरीर को तीन मोड़ाओं के द्वारा ग्रहण करने वाले जीव के प्रथम मोड़ा के समय में सर्वजघन्य ज्ञान होता है।</span></p> | ||
<hr/><p class="HindiText" id="II.2.3">3. पर्याय आदि ज्ञानों में वृद्धि क्रम</p> | <hr/><p class="HindiText" id="II.2.3">3. पर्याय आदि ज्ञानों में वृद्धि क्रम</p> | ||
<p | <p><span class="GRef"> धवला 6/1,9-1,14/21/11 </span><span class="PrakritText">तस्स (केवलणाणस्स) अणंतिमभागो पज्जाओणाम मदिणाणं। तं च केवलणाणं व णिरावरणमक्खरं च। एदम्हादो सुहुमणिगोदलद्धिअक्खरादो जमुप्पज्जइ सुदणाणं तं पि पज्जाओ उच्चदि,...तदो अणंतभागवड्ढी असंखेज्जभागवड्ढी संखेज्जभागवड्ढी, संखेज्जगुणवड्ढी असंखेज्जगुणवड्ढी अणंतगुणवड्ढी त्ति एसा एक्का छवड्ढी। एरिसाओ असंखेज्जलोगमेत्तीओ छवड्ढीओ गंतूण पज्जायसमाससुदणाणस्स अपच्छिमो वियप्पो होदि। तमणंतेहि रूवेहि गुणिदे अक्खरं णाम सुदणाणं होदि।...एदस्सुवरि अक्खरवड्ढी चेव होदि, अवराओ वड्ढीओ णत्थि त्ति आइरियपरंपरागदुवदेसादो। केइं पुणं आइरिया अक्खरसुदणाणं पि छब्बिहाए वड्ढीए वड्ढदि ति भणंति, णेदं घडदे, सयलसुदणाणस्स संखेज्जदिभागादो अक्खरणाणादो उवरि छवड्ढीणं संभवाभावा।</span>=<span class="HindiText">केवलज्ञान अक्षर कहलाता है उसका अनंतवाँ भाग पर्याय नाम का मतिज्ञान है, वह पर्याय नाम का मतिज्ञान केवलज्ञान के समान निरावरण है और अविनाशी है। इस सूक्ष्म निगोद लब्धि अक्षर से जो श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है वह पर्याय ज्ञान है, इस पर्याय श्रुतज्ञान से जो अनंतवें भाग से अधिक श्रुतज्ञान होता है वह पर्याय समास कहलाता है। अनंत भागवृद्धि, संख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागवृद्धि, संख्यात गुणवृद्धि, असंख्यात गुणवृद्धि, और अनंतगुणवृद्धि होती है इस प्रकार की असंख्यात लोक प्रमाण षड्वृद्धियाँ ऊपर जाकर पर्याय समास नामक श्रुतज्ञान का अंतिम विकल्प होता है। उस अंतिम विकल्प को अनंत रूपों से गुणित करने पर अक्षर-नामक श्रुतज्ञान होता है।...इस अक्षर श्रुतज्ञान के ऊपर एक-एक अक्षर की वृद्धि होती है। अन्य वृद्धियाँ नहीं होती हैं, इस प्रकार परंपरागत उपदेश पाया जाता है। कितने ही आचार्य ऐसा कहते हैं कि अक्षर-श्रुतज्ञान भी छह प्रकार की वृद्धि से बढ़ता है। किंतु उनका यह कथन घटित नहीं होता है, क्योंकि समस्त श्रुतज्ञान के संख्यातवें भागरूप अक्षर-ज्ञान से ऊपर छह प्रकार की वृद्धियों का होना संभव नहीं है।</span></p> | ||
<p | <p><span class="GRef"> धवला 13/5,5,48/268/3 </span><span class="PrakritText">अक्खरणाणादो उवरि छव्विहवडि्ढ परूविदवेयणावक्खाणेण सह किण्ण विरोहो। ण, भिण्णाहिप्पायत्तादो। एयक्खरक्खओवसमादो जेसिमाइरियाणमहिप्पाएण उवरिमक्खओवसमा छव्विहवड्ढीए वडि्ढदा अत्थि तमस्सिय तं वक्खाणं तत्थ परूविदं। एगक्खरसुदणाणं जेसिमाइरियाणमहिप्पाएण सयलसुदणाणस्स संखेज्जदिभागो चेव तेसिमहिप्पाएणेदं वक्खाणं। तेण ण दोण्णं विरोहो।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> अक्षर-ज्ञान के ऊपर छह प्रकार की वृद्धि का कथन करने वाले वेदना अनुयोगद्वार के व्याख्यान के साथ इस व्याख्यान का विरोध क्यों नहीं होता ? <br> | ||
<p | <strong>उत्तर</strong> नहीं, क्योंकि उसका इससे भिन्न अभिप्राय है। जिन आचार्यों के अभिप्रायानुसार एक अक्षर के क्षयोपशम से आगे के क्षयोपशम छह वृद्धियों द्वारा वृद्धि को लिये हुए होते हैं उन आचार्यों के अभिप्राय को ध्यान में रखकर वेदना अनुयोगद्वार में यह व्याख्यान किया है। किंतु जिन आचार्यों के अभिप्रायानुसार एक अक्षर श्रुतज्ञान समस्त श्रुतज्ञान के संख्यातवें भाग प्रमाण ही होता है। उन आचार्यों के अभिप्रायानुसार यह व्याख्यान किया है, इसलिए इन दोनों व्याख्यानों में विरोध नहीं है।</span></p> | ||
देखें [[ श्रुतज्ञान#II.1.3 | श्रुतज्ञान - II.1.3]]। अंत के उर्वंक का अर्थाक्षर समूह में भाग देने से जो लब्ध आवे उसको अंत में उर्वंक से गुणा करने पर अर्थाक्षर ज्ञान का प्रमाण होता है।332। (विशेष देखें | <p><span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/322-332 </span><span class="PrakritText">अवरुवरिम्मि अणंतमसंखं संखं च भागवड्ढीए। संखमसंखमणंतं गुणवड्ढी होंति हु कमेण।322। जीवाणं च य रासी असंखलोगा वरं खु संखेज्जं। भागगुणम्हि य कमसो अवटि्ठदा होंति छट्ठाणा।323। उव्बंकं चउरंकं पणछस्सत्तंक अट्ठअंकं च। छवड्ढीणं सण्णा कमसो संदिट्ठिकरणट्ठं।324। अंगुलअसंखभागे पुव्वंगवड्ढीगदे दु परवड्ढी। एकं वारं होदि हु पुणो पुणो चरिमउडि्ढत्ती।325। आदिमछट्ठाणम्हि य पंच य वड्ढी हवंति सेसेसु। छव्वड्ढीओ होंति हु सरिसा सव्वत्थ पदसंखा।326। छट्ठाणाणं आदि अट्ठंकं होदि चरिममुव्वंकं। जम्हा जहण्णणाणं अट्ठंकं होदि जिणदिट्ठं।327। एक्कं खलु अट्ठंकं सत्तंकं कंडयं तदो हेट्ठा। रूवहियकंडएण य गुणिदकमा जावमुव्वंकं।328। सव्वसमासो णियमा रूवाहियकंडयस्स वग्गस्स। विंदस्स य संवग्गो होदित्ति जिणेहिं णिद्दिट्ठं।329। उक्कस्ससंखमेत्त तत्तिचउत्थेकदालछप्पण्णं। सतदसमं च भागं गंतूण य लद्धिअक्खरं दुगुणं।330। एवं असंखलोगा अणक्खरप्पे हवंति छट्ठाणा। ते पज्जायसमासा अक्खरगं उवरि वोच्छामि।331। चरिमुव्वंकेण वट्टिदअत्थक्खरगुणिदचरिममुव्वंकं। अत्थक्खरं तु णाणं होदित्ति जिणेहिं णिद्दिट्ठं।332।</span>=<span class="HindiText">सर्वजघन्य पर्याय ज्ञान के ऊपर क्रम से अनंतभाग वृद्धि, असंख्यात भागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, अनंतगुणवृद्धि ये छह वृद्धि होती हैं।322। अनंतभाग वृद्धि और अनंतगुणवृद्धि इनका भागहार और गुणाकार समस्त जीवराशि प्रमाण अवस्थित है। असंख्यातभाग वृद्धि और असंख्यात गुणवृद्धि इनका भागहार और गुणाकार असंख्यात लोकप्रमाण अवस्थित है। संख्यात भागवृद्धि संख्यातगुणवृद्धि इनका भागहार और गुणाकार उत्कृष्ट संख्यात अवस्थित है।323। लघुरूप संदृष्टि के लिए क्रम से छह वृद्धियों की ये छह संज्ञा हैं। अनंतभाग वृद्धि की उर्वक, असंख्यात भागवृद्धि की चतुरंक, संख्यात भागवृद्धि की पंचांक, संख्यात गुणवृद्धि की षडंक, असंख्यात गुणवृद्धि की सप्तांक, अनंतगुण वृद्धि की अष्टांक।324। सूच्यंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण पूर्व वृद्धि होने पर एक बार उत्तर वृद्धि होती है। यह नियम अंत की वृद्धि पर्यंत समझना चाहिए।325। असंख्यात लोक प्रमाण षट्स्थानों में से प्रथम षट्स्थानों में पाँच ही वृद्धि होती हैं, अष्टांक वृद्धि नहीं होती। शेष संपूर्ण षट् स्थानों में 'अष्टांक' सहित छह वृद्धि होती हैं। सूच्यंगुल का असंख्यातवाँ भाग अवस्थित है इसलिए पदों की संख्या सब जगह सदृश ही समझनी चाहिए।326। संपूर्ण षट्स्थानों में आदि के स्थान को अष्टांक, और अंत के स्थान को उर्वंक कहते हैं, क्योंकि जघन्य पर्यय ज्ञान भी अगुरुलघु गुण के अविभाग प्रतिच्छेदों की अपेक्षा अष्टांक हो सकता है।327। एक षट्स्थान में एक ही अष्टांक होता है। और सप्तांक सूच्यंगुल के असंख्यात में भागमात्र होते हैं। इसके नीचे षडंक, पंचांक, चतुरंक, उर्वंक ये एक एक अधिक बार सूच्यंगुल के असंख्यातवें भाग से गुणित कम हैं।328। एक अधिक कांडक के वर्ग और घन को परस्पर गुणा करने से जो प्रमाण लब्ध आवे उतना ही एक षट्स्थान पतित वृद्धियों के प्रमाण का जोड़ है।329। एक अधिक कांडक से गुणित सूच्यंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण अनंत भाग वृद्धि के स्थान, और सूच्यंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण असंख्यात भागवृद्धि के स्थान, इन दो वृद्धियों को जघन्य ज्ञान के ऊपर हो जाने परएक बार संख्यात भागवृद्धि का स्थान होता है, इसके आगे उक्त क्रमानुसार उत्कृष्ट संख्यात मात्र पूर्वोक्त संख्यातवृद्धि के हो जाने पर उसमें प्रक्षेपक वृद्धि के होने से लब्ध्यक्षर का प्रमाण दूना हो जाता है।330। इस प्रकार से अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान के असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थान होते हैं, ये सब ही पर्याय समास ज्ञान के भेद हैं।331। और भी | ||
देखें [[ श्रुतज्ञान#II.1.3 | श्रुतज्ञान - II.1.3]]। अंत के उर्वंक का अर्थाक्षर समूह में भाग देने से जो लब्ध आवे उसको अंत में उर्वंक से गुणा करने पर अर्थाक्षर ज्ञान का प्रमाण होता है।332। (विशेष देखें नीचे यंत्र ) एक स्थान की संदृष्टि तदनुसार है: </span> </p> | |||
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<span class="GRef">( कषायपाहुड़ 5/4-12/572/ पृष्ठ 342)</span>; <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड/ भाषा./326/694)</span>।</p> | |||
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Latest revision as of 14:55, 14 April 2024
- भेद व लक्षण
- अर्थ लिंगज 20 प्रकार का है
- अर्थ लिंगज के 20 भेदों का नाम निर्देश
- बीस भेदों के लक्षण
- उपरोक्त ज्ञानों की वह संज्ञाएँ क्यों
- अक्षर ज्ञान में कौन सा अक्षर इष्ट है
- अर्थलिंगज निर्देश
अर्थलिंगज श्रुतज्ञान विशेष निर्देश
1. भेद व लक्षण
1. अर्थ लिंगज 20 प्रकार का है
षट्खंडागम 13/5,5/ सूत्र 47/260 तस्सेव सुदणाणावरणीयस्स कम्मस्स वीसदिविधा परूवणा कायव्वा भवदि।47। पुव्वं संजोगक्खरमेत्ताणि सुदणाणावरणाणि परूविदाणि। संपहि ताणि चेव सुदणाणावरणाणि वीसदिविधाणि त्ति भण्णमाणे एदस्स सुत्तस्स पुव्वसुत्तेण विरोहो किण्ण जायदे। ण एस दोसो, भिण्णाहिप्पायंतादो। पुव्विल्लसुत्तमक्खरणिबंधणभेदपरूवयं, एदं पुण खओवसमगदभेदमस्सिदूण आवरणभेदपरूवयं। तम्हा दोसो णत्थि त्ति घेत्तव्वो। =श्रुतज्ञानावरणीय कर्म की 20 प्रकार की प्ररूपणा करनी चाहिए।47। प्रश्न पहले जितने संयोगाक्षर होते हैं उतने श्रुतज्ञानावरण कर्म कहे गये हैं। अब वे ही श्रुतज्ञानावरण 20 प्रकार के हैं, ऐसा कथन करने पर इस सूत्र का पूर्व सूत्र के साथ विरोध क्यों नहीं होता?
उत्तर यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि भिन्न अभिप्राय से यह सूत्र कहा गया है। पूर्व सूत्र अक्षर निमित्तक श्रुतभेदों का कथन करता है, परंतु यह सूत्र क्षयोपशम का अवलंबन लेकर आवरण के भेदों का कथन करता है। इसलिए कोई दोष नहीं है। ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए।
2. अर्थ लिंगज के 20 भेदों का नाम निर्देश
षट्खंडागम 13/5,5 गाथा 1 व सूत्र 48/260 पज्जय-अक्खर पद-संघादयपडिवत्ति-जोगदाराइं। पाहुडपाहुडवत्थू पुव्वसमासाय बोद्धव्वा।1। पज्जयावरणीयं पज्जयसमासावरणीयं अक्खरावरणीयं अक्खरसमासावरणीयं पदावरणीयं पदसमासावरणीयं संघादावरणीयं संघातसमासावरणीयं पडिवत्तिआवरणीयं पडिवत्तिसमासावरणीयं अणियोगद्दारावरणीयं अणियोगद्दारसमासावरणीयं पाहुडपाहुडावरणीयं पाहुडपाहुडसमासावरणीयं पाहुडावरणीयं पाहुडसमासावरणीयं वत्थुआवरणीयं वत्थुसमासावरणीयं पुव्वावरणीयं पुव्वसमासावरणीयं चेदि।48। 1. पर्याय, पर्यायसमास, अक्षर, अक्षरसमास, पद, पदसमास:, संघात, संघात समास, प्रतिपत्ति, प्रतिपत्तिसमास, अनुयोगद्वार, अनुयोगद्वारसमास, प्राभृतप्राभृत, प्राभृत-प्राभृतसमास, प्राभृत, प्राभृतसमास, वस्तु, वस्तुसमास, पूर्व और पूर्व समास, ये श्रुतज्ञान के बीस भेद जानने चाहिए।1। 2. पर्याय ज्ञानावरणीय, पर्यायसमास ज्ञानावरणीय, अक्षरावरणीय, अक्षरसमासावरणीय, पदावरणीय, पदसमासावरणीय, संघातावरणीय, संघातसमासावरणीय, प्रतिपत्ति-आवरणीय, प्रतिपत्तिसमासावरणीय, अनुयोगद्वारावरणीय, अनुयोगद्वारसमासावरणीय, प्राभृतप्राभृतावरणीय, प्राभृतप्राभृतसमासावरणीय, प्राभृतावरणीय, प्राभृतसमासावरणीय, वस्तु आवरणीय, वस्तुसमासावरणीय, पूर्वावरणीय, पूर्वसमासावरणीय, ये श्रुतावरण के बीस भेद हैं।48। ( हरिवंशपुराण/10/12-13 ); ( धवला 6/1,9-1,14/21/8 ); ( धवला 12/4,2,14,5/480/12 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/317-318/677 )।
3. बीस भेदों के लक्षण
हरिवंशपुराण/10/14-26 श्रुतज्ञानविकल्प: स्यादेकह्रस्वाक्षरात्मक:। अनंतानंतभेदाणुपुद्गलस्कंधसंचय:।14। अनंतानंतभागैस्तु भिद्यमानस्य तस्य च। भाग: पर्याय इत्युक्त: श्रुतभेदो ह्यनल्पश:।15। सोऽपि सूक्ष्मनिगोदस्यालब्धपर्याप्तदेहिन:। संभवी सर्वथा तावान् श्रुतावरणवर्जित:।16। सर्वस्यैव हि जीवस्य तावन्मात्रस्य नावृति:। आवृतौ तु न जीव: स्यादुपयोगवियोगत:।17। जीवोपयोगशक्तेश्च न विनाश: सयुक्तिक:। स्यादेवात्यभ्ररोधेऽपि सूर्याचंद्रमसो: प्रभा।18। पर्यायानंतभागेन पर्यायो युज्यते यदा। स पर्यायसमास: स्यात् श्रुतभेदो हि सावृति:।19। अनंतसंखयसंखयेभागवृद्धिक्षयांवित:। संखयेयासंखयकानंतगुणवृद्धिक्रमेण च।20। स्यात्पर्यायसमासोऽसौ यावदक्षरपूर्णता। एकैकाक्षरवृद्धया स्यात् तत्समास: पदावधि:।21। पदमर्थपदं ज्ञेयं प्रमाणपदमित्यपि। मध्यमं पदमित्येवं त्रिविधं तु पदस्थितम् ।22। एकद्वित्रिचतु:पंच षट्सप्ताक्षरमर्थवत् । पदमाद्यं द्वितीयं तु पदमष्टाक्षरात्मकम् ।23। कोट्यश्चैव चतुस्त्रिंशत् तच्छतान्यपि षोडश। त्र्यशीतिश्च पुनर्लक्षा: शतान्यष्टौ च सप्तति:।24। अष्टाशीतिश्च वर्णा: स्युर्मध्यमे तु पदे स्थिता:। पूर्वांगपदसंखया स्यान्मध्यमेन पदेन सा।25। एकैकाक्षरवृद्धया तु तत्समासभिदस्तत:। इत्थं पूर्वसमासांतं द्वादशांगं श्रुतं स्थितम् ।26। =श्रुतज्ञान के अनेक विकल्पों में एक विकल्प एक ह्रस्व अक्षर रूप भी है। इस विकल्प में द्रव्य की अपेक्षा अनंतानंत पुद्गल परमाणुओं से निष्पन्न स्कंध का संचय होता है।14। इस एक ह्रस्वाक्षर रूप विकल्प के अनेक बार अनंतानंत भाग किये जावें तो उनमें एक भाग पर्याय नाम का श्रुतज्ञान होता है।15। वह पर्याय ज्ञान सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव के होता है और श्रुतज्ञानावरण के आवरण से रहित होता है।16। सभी जीवों के उतने ज्ञान के ऊपर कभी आवरण नहीं पड़ता। यदि उस पर भी आवरण पड़ जावे तो ज्ञानोपयोग का सर्वथा अभाव हो जायेगा और ज्ञानोपयोग का अभाव होने से जीव का अभाव हो जायेगा।17। यह निश्चय से सिद्ध है कि जीव की उपयोग शक्ति का कभी विनाश नहीं होता। जिस प्रकार कि मेघ का आवरण होने पर भी सूर्य और चंद्रमा की प्रभा कुछ अंशों में प्रगट रही आती है उसी प्रकार श्रुतज्ञान का आवरण होने पर भी पर्याय नाम का ज्ञान प्रकट रहा आता है।18। जब यही पर्याय ज्ञान पर्याय ज्ञान के अनंतवें भाग के साथ मिल जाता है तब यह पर्यायसमास नाम का श्रुतज्ञान कहलाने लगता है, यह श्रुतज्ञान आवरण से सहित है।19। यह पर्याय-समास-ज्ञान अनंतभागवृद्धि, असंख्यभाग वृद्धि, संख्यातभागवृद्धि तथा अनंतभाग हानि, असंख्यात भागहानि, एवं संख्यात भाग-हानि से सहित हैं। पर्यायज्ञान के ऊपर संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनंतगुण वृद्धि के क्रम से वृद्धि होते-होते जब तक अक्षर ज्ञान पूर्णता होती है तब तक का ज्ञान पर्याय समास ज्ञान कहलाता है। उसके बाद अक्षरसमासज्ञान प्रारंभ होता है उसके ऊपर पद ज्ञान तक एक-एक अक्षर की वृद्धि होती है। इस वृद्धि प्राप्त ज्ञान को अक्षर-समास ज्ञान कहते हैं। अक्षर समास के बाद पदज्ञान होता है।20-21। अर्थपद, प्रमाणपद, और मध्यम पद के भेद से पद तीन प्रकार का है।22। इनमें एक, दो, तीन, चार, पाँच और छह व सात अक्षर तक का पद अर्थपद कहलाता है। आठ अक्षर रूप प्रमाण पद होता है और मध्यम पद में सोलह सौ चौंतीस करोड़ तिरासी लाख सात हजार आठसौ अठासी अक्षर होते हैं, और अंग तथा पूर्वों के पद की संख्या इसी मध्यम पद से होती है।23-24। एक अक्षर की वृद्धिकर पद समास से लेकर पूर्व-मास पर्यंत समस्त द्वादशांग श्रुत स्थित है।26। ( धवला 13/5,5,48/262-271 ); ( धवला 6/1,9-1,14/21-250 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/322-349 )।
4. उपरोक्त ज्ञानों की वह संज्ञाएँ क्यों
धवला 6/1,9-1,14/27/7 कधमेदस्स अक्खरववएसो। ण, दव्वसुदपडिबद्धेयक्खरुप्पण्णस्स उवयारेण अक्खरववएसादो। =प्रश्न उक्त प्रकार के इस श्रुतज्ञान की 'अक्षर' ऐसी संज्ञा कैसे हुई ?
उत्तर नहीं, क्योंकि, द्रव्य श्रुत प्रतिबद्ध एक अक्षर से उत्पन्न श्रुतज्ञान की उपचार से 'अक्षर' ऐसी संज्ञा है।
धवला 13/5,5,48/ पृष्ठ/पंक्ति कधं तस्स अक्खरसण्णा। खरणेण विणा एगसरूवेण अवट्ठाणादो। केवलणाणमक्खरं, तत्थ वडि्ढ-हाणीणमभावादो। दव्वट्ठियणए सुहुमणिगोदणाणं तं चेवे त्ति व अक्खरं। (262/5)। को पज्जओ णाम। णाणाविभागपडिच्छेदपक्खेवो पज्जओ णाम। तस्स समासो जेसु णाणट्ठाणेसु अत्थि तेसिं णाणट्ठाणाणं पज्जयसमासो त्ति सण्णा (264/2)। =प्रश्न इसकी (सूक्ष्म निगोदिया के ज्ञान की) अक्षर संज्ञा किस कारण से है ?
उत्तर क्योंकि यह ज्ञान नाश के बिना एक स्वरूप से अवस्थित रहता है। अथवा केवलज्ञान अक्षर है, क्योंकि उसमें वृद्धि और हानि नहीं होती। द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा चूँकि सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक का ज्ञान भी वही है, इसलिए भी इस ज्ञान को अक्षर कहते हैं।
प्रश्न पर्याय किसका नाम है ?
उत्तर ज्ञानाविभागप्रतिच्छेदों के प्रक्षेप का नाम पर्याय है। उनका समास जिन ज्ञानस्थानों में होता है उन ज्ञानस्थानों में पर्याय समास संज्ञा है। परंतु जहाँ एक ही प्रक्षेप होता है उस ज्ञान की पर्याय संज्ञा है, क्योंकि, एक पर्याय में उनका समास नहीं बन सकता।
देखें पद - 6 एक पद के 16348307888 अक्षरों से होने के कारण ज्ञान को उपचार से पद ज्ञान कह देते हैं।
5. अक्षर ज्ञान में कौन सा अक्षर इष्ट है
धवला 13/5,5,48/265/5 एदेसु तिसु अक्खरेसु केणेत्थ अक्खरेण पयदं। लद्धि अक्खरेण, ण सेसेहि, जडत्तादो।
=प्रश्न इन तीन अक्षरों में से (लब्ध्यक्षर, निर्वृत्यक्षर, और संस्थानाक्षर में से) प्रकृत में कौन से अक्षर से प्रयोजन है।
उत्तर लब्धि अक्षर से प्रयोजन है, शेष अक्षरों से नहीं। क्योंकि वे जड़ स्वरूप हैं।
2. अर्थलिंगज निर्देश
1. लब्ध्यक्षर ज्ञान का प्रमाण
धवला 13/5,5,48/262/7 किमेदस्स पमाणं। केवलणाणस्स अणंतिमभागो। =प्रश्न इसका (लब्ध्यक्षर श्रुतज्ञान का) प्रमाण क्या है ?
उत्तर इसका प्रमाण केवल-ज्ञान का अनंतवाँ भाग है।
2. लब्ध्यक्षर ज्ञान सदा निरावरण होता है
धवला 13/5,5,48/262/7 एदं णिरावरणं, 'अक्खरस्साणंतिमभागो णिच्चुग्घाडिओ' त्ति वयणादो एदम्मि आवरिदे जीवाभावप्पसंगादो वा। एदम्हि लद्धि अक्खरे सव्वजीवरासिणा भागे हिदे सव्वजीवरासीदो अणंतगुणणाणाविभागपडिच्छेदो आगच्छंति। =यह (लब्ध्यक्षर) ज्ञान निरावरण है, क्योंकि अक्षर का अनंतवाँ भाग नित्य उद्घाटित (प्रगट) रहता है। ऐसा आगम वचन है। अथवा इसके आवृत होने पर जीव के अभाव का प्रसंग आता है। इस लब्ध्यक्षर ज्ञान में सब जीव राशि का भाग देने पर सब जीव राशि से अनंतगुणे ज्ञानाविभागप्रतिच्छेद होते हैं (13/4,2,14,4/479/5), (और भी देखें श्रुतज्ञान - II.1.3)।
गोम्मटसार जीवकांड/319-320 सुहुमणिगोदअपज्जत्तस्स जादस्स पढमसमयम्हि। हवदि हु सव्वजहण्णं णिच्चुग्घाडं णिरावरणं।319। सुहमणिगोद अपज्जत्तगेसु सगसंभवेसु भमिऊण। चरिमापुण्णतिवक्काणादिमवक्कट्ठियेव हवे।320। =सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्त जीव के उत्पन्न होने के प्रथम समय में सबसे जघन्य ज्ञान होता है। इसी को प्राय: लब्ध्यक्षर ज्ञान कहते हैं। इतना ज्ञान हमेशा निवारण तथा प्रकाशमान रहता है।319। सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्त जीव के अपने अपने जितने भव (6012) संभव हैं, उनमें भ्रमण करके अंत के अपर्याप्त शरीर को तीन मोड़ाओं के द्वारा ग्रहण करने वाले जीव के प्रथम मोड़ा के समय में सर्वजघन्य ज्ञान होता है।
3. पर्याय आदि ज्ञानों में वृद्धि क्रम
धवला 6/1,9-1,14/21/11 तस्स (केवलणाणस्स) अणंतिमभागो पज्जाओणाम मदिणाणं। तं च केवलणाणं व णिरावरणमक्खरं च। एदम्हादो सुहुमणिगोदलद्धिअक्खरादो जमुप्पज्जइ सुदणाणं तं पि पज्जाओ उच्चदि,...तदो अणंतभागवड्ढी असंखेज्जभागवड्ढी संखेज्जभागवड्ढी, संखेज्जगुणवड्ढी असंखेज्जगुणवड्ढी अणंतगुणवड्ढी त्ति एसा एक्का छवड्ढी। एरिसाओ असंखेज्जलोगमेत्तीओ छवड्ढीओ गंतूण पज्जायसमाससुदणाणस्स अपच्छिमो वियप्पो होदि। तमणंतेहि रूवेहि गुणिदे अक्खरं णाम सुदणाणं होदि।...एदस्सुवरि अक्खरवड्ढी चेव होदि, अवराओ वड्ढीओ णत्थि त्ति आइरियपरंपरागदुवदेसादो। केइं पुणं आइरिया अक्खरसुदणाणं पि छब्बिहाए वड्ढीए वड्ढदि ति भणंति, णेदं घडदे, सयलसुदणाणस्स संखेज्जदिभागादो अक्खरणाणादो उवरि छवड्ढीणं संभवाभावा।=केवलज्ञान अक्षर कहलाता है उसका अनंतवाँ भाग पर्याय नाम का मतिज्ञान है, वह पर्याय नाम का मतिज्ञान केवलज्ञान के समान निरावरण है और अविनाशी है। इस सूक्ष्म निगोद लब्धि अक्षर से जो श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है वह पर्याय ज्ञान है, इस पर्याय श्रुतज्ञान से जो अनंतवें भाग से अधिक श्रुतज्ञान होता है वह पर्याय समास कहलाता है। अनंत भागवृद्धि, संख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागवृद्धि, संख्यात गुणवृद्धि, असंख्यात गुणवृद्धि, और अनंतगुणवृद्धि होती है इस प्रकार की असंख्यात लोक प्रमाण षड्वृद्धियाँ ऊपर जाकर पर्याय समास नामक श्रुतज्ञान का अंतिम विकल्प होता है। उस अंतिम विकल्प को अनंत रूपों से गुणित करने पर अक्षर-नामक श्रुतज्ञान होता है।...इस अक्षर श्रुतज्ञान के ऊपर एक-एक अक्षर की वृद्धि होती है। अन्य वृद्धियाँ नहीं होती हैं, इस प्रकार परंपरागत उपदेश पाया जाता है। कितने ही आचार्य ऐसा कहते हैं कि अक्षर-श्रुतज्ञान भी छह प्रकार की वृद्धि से बढ़ता है। किंतु उनका यह कथन घटित नहीं होता है, क्योंकि समस्त श्रुतज्ञान के संख्यातवें भागरूप अक्षर-ज्ञान से ऊपर छह प्रकार की वृद्धियों का होना संभव नहीं है।
धवला 13/5,5,48/268/3 अक्खरणाणादो उवरि छव्विहवडि्ढ परूविदवेयणावक्खाणेण सह किण्ण विरोहो। ण, भिण्णाहिप्पायत्तादो। एयक्खरक्खओवसमादो जेसिमाइरियाणमहिप्पाएण उवरिमक्खओवसमा छव्विहवड्ढीए वडि्ढदा अत्थि तमस्सिय तं वक्खाणं तत्थ परूविदं। एगक्खरसुदणाणं जेसिमाइरियाणमहिप्पाएण सयलसुदणाणस्स संखेज्जदिभागो चेव तेसिमहिप्पाएणेदं वक्खाणं। तेण ण दोण्णं विरोहो। =प्रश्न अक्षर-ज्ञान के ऊपर छह प्रकार की वृद्धि का कथन करने वाले वेदना अनुयोगद्वार के व्याख्यान के साथ इस व्याख्यान का विरोध क्यों नहीं होता ?
उत्तर नहीं, क्योंकि उसका इससे भिन्न अभिप्राय है। जिन आचार्यों के अभिप्रायानुसार एक अक्षर के क्षयोपशम से आगे के क्षयोपशम छह वृद्धियों द्वारा वृद्धि को लिये हुए होते हैं उन आचार्यों के अभिप्राय को ध्यान में रखकर वेदना अनुयोगद्वार में यह व्याख्यान किया है। किंतु जिन आचार्यों के अभिप्रायानुसार एक अक्षर श्रुतज्ञान समस्त श्रुतज्ञान के संख्यातवें भाग प्रमाण ही होता है। उन आचार्यों के अभिप्रायानुसार यह व्याख्यान किया है, इसलिए इन दोनों व्याख्यानों में विरोध नहीं है।
गोम्मटसार जीवकांड/322-332 अवरुवरिम्मि अणंतमसंखं संखं च भागवड्ढीए। संखमसंखमणंतं गुणवड्ढी होंति हु कमेण।322। जीवाणं च य रासी असंखलोगा वरं खु संखेज्जं। भागगुणम्हि य कमसो अवटि्ठदा होंति छट्ठाणा।323। उव्बंकं चउरंकं पणछस्सत्तंक अट्ठअंकं च। छवड्ढीणं सण्णा कमसो संदिट्ठिकरणट्ठं।324। अंगुलअसंखभागे पुव्वंगवड्ढीगदे दु परवड्ढी। एकं वारं होदि हु पुणो पुणो चरिमउडि्ढत्ती।325। आदिमछट्ठाणम्हि य पंच य वड्ढी हवंति सेसेसु। छव्वड्ढीओ होंति हु सरिसा सव्वत्थ पदसंखा।326। छट्ठाणाणं आदि अट्ठंकं होदि चरिममुव्वंकं। जम्हा जहण्णणाणं अट्ठंकं होदि जिणदिट्ठं।327। एक्कं खलु अट्ठंकं सत्तंकं कंडयं तदो हेट्ठा। रूवहियकंडएण य गुणिदकमा जावमुव्वंकं।328। सव्वसमासो णियमा रूवाहियकंडयस्स वग्गस्स। विंदस्स य संवग्गो होदित्ति जिणेहिं णिद्दिट्ठं।329। उक्कस्ससंखमेत्त तत्तिचउत्थेकदालछप्पण्णं। सतदसमं च भागं गंतूण य लद्धिअक्खरं दुगुणं।330। एवं असंखलोगा अणक्खरप्पे हवंति छट्ठाणा। ते पज्जायसमासा अक्खरगं उवरि वोच्छामि।331। चरिमुव्वंकेण वट्टिदअत्थक्खरगुणिदचरिममुव्वंकं। अत्थक्खरं तु णाणं होदित्ति जिणेहिं णिद्दिट्ठं।332।=सर्वजघन्य पर्याय ज्ञान के ऊपर क्रम से अनंतभाग वृद्धि, असंख्यात भागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, अनंतगुणवृद्धि ये छह वृद्धि होती हैं।322। अनंतभाग वृद्धि और अनंतगुणवृद्धि इनका भागहार और गुणाकार समस्त जीवराशि प्रमाण अवस्थित है। असंख्यातभाग वृद्धि और असंख्यात गुणवृद्धि इनका भागहार और गुणाकार असंख्यात लोकप्रमाण अवस्थित है। संख्यात भागवृद्धि संख्यातगुणवृद्धि इनका भागहार और गुणाकार उत्कृष्ट संख्यात अवस्थित है।323। लघुरूप संदृष्टि के लिए क्रम से छह वृद्धियों की ये छह संज्ञा हैं। अनंतभाग वृद्धि की उर्वक, असंख्यात भागवृद्धि की चतुरंक, संख्यात भागवृद्धि की पंचांक, संख्यात गुणवृद्धि की षडंक, असंख्यात गुणवृद्धि की सप्तांक, अनंतगुण वृद्धि की अष्टांक।324। सूच्यंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण पूर्व वृद्धि होने पर एक बार उत्तर वृद्धि होती है। यह नियम अंत की वृद्धि पर्यंत समझना चाहिए।325। असंख्यात लोक प्रमाण षट्स्थानों में से प्रथम षट्स्थानों में पाँच ही वृद्धि होती हैं, अष्टांक वृद्धि नहीं होती। शेष संपूर्ण षट् स्थानों में 'अष्टांक' सहित छह वृद्धि होती हैं। सूच्यंगुल का असंख्यातवाँ भाग अवस्थित है इसलिए पदों की संख्या सब जगह सदृश ही समझनी चाहिए।326। संपूर्ण षट्स्थानों में आदि के स्थान को अष्टांक, और अंत के स्थान को उर्वंक कहते हैं, क्योंकि जघन्य पर्यय ज्ञान भी अगुरुलघु गुण के अविभाग प्रतिच्छेदों की अपेक्षा अष्टांक हो सकता है।327। एक षट्स्थान में एक ही अष्टांक होता है। और सप्तांक सूच्यंगुल के असंख्यात में भागमात्र होते हैं। इसके नीचे षडंक, पंचांक, चतुरंक, उर्वंक ये एक एक अधिक बार सूच्यंगुल के असंख्यातवें भाग से गुणित कम हैं।328। एक अधिक कांडक के वर्ग और घन को परस्पर गुणा करने से जो प्रमाण लब्ध आवे उतना ही एक षट्स्थान पतित वृद्धियों के प्रमाण का जोड़ है।329। एक अधिक कांडक से गुणित सूच्यंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण अनंत भाग वृद्धि के स्थान, और सूच्यंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण असंख्यात भागवृद्धि के स्थान, इन दो वृद्धियों को जघन्य ज्ञान के ऊपर हो जाने परएक बार संख्यात भागवृद्धि का स्थान होता है, इसके आगे उक्त क्रमानुसार उत्कृष्ट संख्यात मात्र पूर्वोक्त संख्यातवृद्धि के हो जाने पर उसमें प्रक्षेपक वृद्धि के होने से लब्ध्यक्षर का प्रमाण दूना हो जाता है।330। इस प्रकार से अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान के असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थान होते हैं, ये सब ही पर्याय समास ज्ञान के भेद हैं।331। और भी देखें श्रुतज्ञान - II.1.3। अंत के उर्वंक का अर्थाक्षर समूह में भाग देने से जो लब्ध आवे उसको अंत में उर्वंक से गुणा करने पर अर्थाक्षर ज्ञान का प्रमाण होता है।332। (विशेष देखें नीचे यंत्र ) एक स्थान की संदृष्टि तदनुसार है:
उ उ 4 | उ उ 4 | उ उ 5 | उ उ 4 | उ उ 4 | उ उ 5 | उ उ 4 | उ उ 4 | उ उ 6 |
उ उ 4 | उ उ 4 | उ उ 5 | उ उ 4 | उ उ 4 | उ उ 5 | उ उ 4 | उ उ 4 | उ उ 6 |
उ उ 4 | उ उ 4 | उ उ 5 | उ उ 4 | उ उ 4 | उ उ 5 | उ उ 4 | उ उ 4 | उ उ 7 |
उ उ 4 | उ उ 4 | उ उ 5 | उ उ 4 | उ उ 4 | उ उ 5 | उ उ 4 | उ उ 4 | उ उ 6 |
उ उ 4 | उ उ 4 | उ उ 5 | उ उ 4 | उ उ 4 | उ उ 5 | उ उ 4 | उ उ 4 | उ उ 6 |
उ उ 4 | उ उ 4 | उ उ 5 | उ उ 4 | उ उ 4 | उ उ 5 | उ उ 4 | उ उ 4 | उ उ 7 |
उ उ 4 | उ उ 4 | उ उ 5 | उ उ 4 | उ उ 4 | उ उ 5 | उ उ 4 | उ उ 4 | उ उ 6 |
उ उ 4 | उ उ 4 | उ उ 5 | उ उ 4 | उ उ 4 | उ उ 5 | उ उ 4 | उ उ 4 | उ उ 6 |
उ उ 4 | उ उ 4 | उ उ 5 | उ उ 4 | उ उ 4 | उ उ 5 | उ उ 4 | उ उ 4 | उ उ 8 |
( कषायपाहुड़ 5/4-12/572/ पृष्ठ 342); ( गोम्मटसार जीवकांड/ भाषा./326/694)।