रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 3: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
||
(One intermediate revision by the same user not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
<div class="PravachanText"><p | <div class="PravachanText"><p><strong>सद्दृष्टिज्ञानवृत्तानि, धर्मं धर्मेश्वरा विदु: ।</strong></p> | ||
<p | <p><strong>यदीयप्रत्यनीकानि, भवंति भवपद्धति: ।।3।।</strong></p> | ||
<p | <p> <strong>सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र के एकत्व की धर्मरूपता</strong>―धर्म क्या चीज है उसका स्वरूप यहाँ कह रहे हैं । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इनको धर्म कहते है । धर्म तीन नहीं हैं, सम्यग्दर्शन भी धर्म, सम्यग्ज्ञान भी धर्म, सम्यक्चारित्र भी धर्म, और फिर जिसकी मर्जी आये सम्यग्दर्शन से मोक्ष जाय, कोई सम्यग्ज्ञान से मोक्ष जाय कोई सम्यक्चारित्र से मोक्ष जाय ऐसा नहीं है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीन का जो मेल है, परिपूर्णता है वह साक्षात् धर्म है, इसी कारण बोलते समय यों न बोलना कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र धर्म हैं । क्रिया को बहुवचन में न बोलना, सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र धर्म है, ऐसा न बोलना । एक वचन से बोलना, अर्थात् इस रत्नत्रय की पूर्णता धर्म है । जैसे प्रथम अध्याय के सूत्र में कहा है―जीवाजीवास्रवबंधसंवर-निर्जरामोक्षास्तत्त्वम् । यहाँ जैसे उन 7 बातों का नाम लेकर बहुवचन किया गया ऐसे ही तत्त्व में बहुवचन नहीं है वह एक वचन में है, जिससे सिद्ध होता कि उन तीनों का संप्रदाय धर्म है । जैसे कोई एक मिलकर काम होता है, अथवा जैसे एक कमेटी होती है या संसद सदस्य जैसी संविद समिति, तो प्रत्येक सदस्य कमेटी नहीं है, किंतु उन सदस्यों का जो समुदाय है वह कमेटी है । अगर सदस्यों का ही नाम कमेटी होता तो वे कितनी ही कमेटी कहलाती । सबकी जुदी-जुदी राय है अथवा जैसे आगे 9वें अध्याय में दसलक्षण धर्म का सूत्र दिया―उत्तम क्षमामार्दवार्जवशौच-सत्यसंयमतपस्त्यागाकिंचन्यब्रह्यचर्याणि धर्म:, धर्म: शब्द एक वचन है और 10 चूंकि संज्ञा है, नाम हैं सो वे बहुवचन में आये मगर वे 10 धर्म नहीं है । 10 धर्मों का एकत्व धर्म है । अगर 10 धर्म होते तो कोई क्षमा से ही मोक्ष चला जाता, फिर उसे मार्दव आर्जव आदि धर्म पालने की जरूरत ही न थी पर ऐसा तो नहीं है । जो दस धर्मो का समूह है वह धर्म है । ऐसे ही यहाँ कह रहे है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इनको भगवान ने, गणधर देव ने धर्मेश्वर ने बताया है, ये धर्म के अधिपति है । उन्होंने इन तीनों के समुदाय को मोक्षमार्ग कहा ।</p> | ||
<p | <p> <strong>रत्नत्रयभाव की धर्मरूपता व रत्नत्रय से प्रत्यनीक भावों की भवपद्धतिरूपता</strong>―जब मोक्षमार्ग चल रहा हो तो वहाँ प्रसन्नता रहती है । सम्यग्दर्शन क्या चीज है? सम्यक् मायने अच्छा, दर्शन मायने नजर आना, अच्छी बात नजर आ जाय तो उसे कहते हैं सम्यग्दर्शन । अब अच्छी बात क्या है? तो यह समझिये कि अच्छी बात वह होती है कि जो कभी बुरी न हो सके । अच्छी बात है आत्मा का स्वरूप उसका परिचय । यह है सम्यग्दर्शन । सम्यग्ज्ञान आगम का, शास्त्र का ज्ञान होना और उस कथन से अपने आपके स्वरूप में रमकर जैसा का तैसा जानना सम्यग्ज्ञान है । सम्यक्चारित्र―आत्मस्वरूप में मग्न होना कषाय न रहना यह है सम्यक्चारित्र । तो इन तीन का समुदाय मोक्ष मार्ग है । और इससे उल्टे श्रद्धान, वस्तु अन्य तरह है, मानता अन्य तरह है, वस्तु अनित्य है, मानता नित्य है, प्राप्त समागम सब बिछुड़ जायेंगे, पर यह मानता कि ये सदा रहेंगे, तो जहाँ यह मिथ्याभाव है वहाँ धर्म नहीं है । तो यह मिथ्यादर्शन धर्म से विपरीत वस्तु है । कभी किसी पुत्र को अपनी माँ से कोई ठेस पहुंची किसी भी बोली वाणी से तो पुत्र उसमें बुरा मान जाता, उसकी यह दृष्टि नहीं बन पाती कि यह माँ मेरे भले के लिए कह रही, किंतु वह इससे विपरीत सोचता पुत्र के स्वयं की कषाय है जिससे वह अपनी ही खुदगर्जी में रहता है ऐसे ही जो पुरुष या जो आत्मा परमात्मा के प्रतिकूल है उसको परमात्मस्वरूप समझ में नहीं आता और जैसे वह पुत्र माँ के दोष ही दोष देखता, माँ के द्वारा किए गए जीवन भर के उपकारों को भूल जाता बल्कि उन्हें अपने लिए अपकार बताता तो ऐसे ही जब मिथ्यात्व का उदय है तो उसको देवशास्त्र और गुरु में भी दोष नजर आते हैं, गुण नहीं, यह है मिथ्यादर्शन । मिथ्याज्ञान―जैसा पदार्थ का स्वरूप है वैसा ज्ञान में न आना, उससे उल्टा जानना यह है मिथ्याज्ञान । और उल्टा चलना, विषयों में प्रवृत्ति करना, कषायों में लगना यह सब है मिथ्याचारित्र । ये तीन भाव तो संसार के बढ़ाने वाले है और सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र ये संसार को हटाने वाले भाव हैं । तो सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान, सम्यक्चारित्र वे धर्म कहलाते है ऐसा गणधर देव ने बताया है ।</p> | ||
<p | <p><strong> </strong></p> | ||
</div> | </div> | ||
Line 11: | Line 11: | ||
[[ वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 4 | अगला पृष्ठ ]] | [[ वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 4 | अगला पृष्ठ ]] | ||
[[वर्णीजी-प्रवचन:क्षु. मनोहर वर्णी - रत्नकरंड श्रावकाचार प्रवचन | अनुक्रमणिका ]] | [[वर्णीजी-प्रवचन:क्षु. मनोहर वर्णी - रत्नकरंड श्रावकाचार प्रवचन अनुक्रमणिका | अनुक्रमणिका ]] | ||
</noinclude> | </noinclude> | ||
[[Category: रत्नकरंड श्रावकाचार]] | [[Category: रत्नकरंड श्रावकाचार]] | ||
[[Category: प्रवचन]] | [[Category: प्रवचन]] |
Latest revision as of 16:35, 2 July 2021
सद्दृष्टिज्ञानवृत्तानि, धर्मं धर्मेश्वरा विदु: ।
यदीयप्रत्यनीकानि, भवंति भवपद्धति: ।।3।।
सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र के एकत्व की धर्मरूपता―धर्म क्या चीज है उसका स्वरूप यहाँ कह रहे हैं । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इनको धर्म कहते है । धर्म तीन नहीं हैं, सम्यग्दर्शन भी धर्म, सम्यग्ज्ञान भी धर्म, सम्यक्चारित्र भी धर्म, और फिर जिसकी मर्जी आये सम्यग्दर्शन से मोक्ष जाय, कोई सम्यग्ज्ञान से मोक्ष जाय कोई सम्यक्चारित्र से मोक्ष जाय ऐसा नहीं है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीन का जो मेल है, परिपूर्णता है वह साक्षात् धर्म है, इसी कारण बोलते समय यों न बोलना कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र धर्म हैं । क्रिया को बहुवचन में न बोलना, सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र धर्म है, ऐसा न बोलना । एक वचन से बोलना, अर्थात् इस रत्नत्रय की पूर्णता धर्म है । जैसे प्रथम अध्याय के सूत्र में कहा है―जीवाजीवास्रवबंधसंवर-निर्जरामोक्षास्तत्त्वम् । यहाँ जैसे उन 7 बातों का नाम लेकर बहुवचन किया गया ऐसे ही तत्त्व में बहुवचन नहीं है वह एक वचन में है, जिससे सिद्ध होता कि उन तीनों का संप्रदाय धर्म है । जैसे कोई एक मिलकर काम होता है, अथवा जैसे एक कमेटी होती है या संसद सदस्य जैसी संविद समिति, तो प्रत्येक सदस्य कमेटी नहीं है, किंतु उन सदस्यों का जो समुदाय है वह कमेटी है । अगर सदस्यों का ही नाम कमेटी होता तो वे कितनी ही कमेटी कहलाती । सबकी जुदी-जुदी राय है अथवा जैसे आगे 9वें अध्याय में दसलक्षण धर्म का सूत्र दिया―उत्तम क्षमामार्दवार्जवशौच-सत्यसंयमतपस्त्यागाकिंचन्यब्रह्यचर्याणि धर्म:, धर्म: शब्द एक वचन है और 10 चूंकि संज्ञा है, नाम हैं सो वे बहुवचन में आये मगर वे 10 धर्म नहीं है । 10 धर्मों का एकत्व धर्म है । अगर 10 धर्म होते तो कोई क्षमा से ही मोक्ष चला जाता, फिर उसे मार्दव आर्जव आदि धर्म पालने की जरूरत ही न थी पर ऐसा तो नहीं है । जो दस धर्मो का समूह है वह धर्म है । ऐसे ही यहाँ कह रहे है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इनको भगवान ने, गणधर देव ने धर्मेश्वर ने बताया है, ये धर्म के अधिपति है । उन्होंने इन तीनों के समुदाय को मोक्षमार्ग कहा ।
रत्नत्रयभाव की धर्मरूपता व रत्नत्रय से प्रत्यनीक भावों की भवपद्धतिरूपता―जब मोक्षमार्ग चल रहा हो तो वहाँ प्रसन्नता रहती है । सम्यग्दर्शन क्या चीज है? सम्यक् मायने अच्छा, दर्शन मायने नजर आना, अच्छी बात नजर आ जाय तो उसे कहते हैं सम्यग्दर्शन । अब अच्छी बात क्या है? तो यह समझिये कि अच्छी बात वह होती है कि जो कभी बुरी न हो सके । अच्छी बात है आत्मा का स्वरूप उसका परिचय । यह है सम्यग्दर्शन । सम्यग्ज्ञान आगम का, शास्त्र का ज्ञान होना और उस कथन से अपने आपके स्वरूप में रमकर जैसा का तैसा जानना सम्यग्ज्ञान है । सम्यक्चारित्र―आत्मस्वरूप में मग्न होना कषाय न रहना यह है सम्यक्चारित्र । तो इन तीन का समुदाय मोक्ष मार्ग है । और इससे उल्टे श्रद्धान, वस्तु अन्य तरह है, मानता अन्य तरह है, वस्तु अनित्य है, मानता नित्य है, प्राप्त समागम सब बिछुड़ जायेंगे, पर यह मानता कि ये सदा रहेंगे, तो जहाँ यह मिथ्याभाव है वहाँ धर्म नहीं है । तो यह मिथ्यादर्शन धर्म से विपरीत वस्तु है । कभी किसी पुत्र को अपनी माँ से कोई ठेस पहुंची किसी भी बोली वाणी से तो पुत्र उसमें बुरा मान जाता, उसकी यह दृष्टि नहीं बन पाती कि यह माँ मेरे भले के लिए कह रही, किंतु वह इससे विपरीत सोचता पुत्र के स्वयं की कषाय है जिससे वह अपनी ही खुदगर्जी में रहता है ऐसे ही जो पुरुष या जो आत्मा परमात्मा के प्रतिकूल है उसको परमात्मस्वरूप समझ में नहीं आता और जैसे वह पुत्र माँ के दोष ही दोष देखता, माँ के द्वारा किए गए जीवन भर के उपकारों को भूल जाता बल्कि उन्हें अपने लिए अपकार बताता तो ऐसे ही जब मिथ्यात्व का उदय है तो उसको देवशास्त्र और गुरु में भी दोष नजर आते हैं, गुण नहीं, यह है मिथ्यादर्शन । मिथ्याज्ञान―जैसा पदार्थ का स्वरूप है वैसा ज्ञान में न आना, उससे उल्टा जानना यह है मिथ्याज्ञान । और उल्टा चलना, विषयों में प्रवृत्ति करना, कषायों में लगना यह सब है मिथ्याचारित्र । ये तीन भाव तो संसार के बढ़ाने वाले है और सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र ये संसार को हटाने वाले भाव हैं । तो सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान, सम्यक्चारित्र वे धर्म कहलाते है ऐसा गणधर देव ने बताया है ।