रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 42: Difference between revisions
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<div class="PravachanText"><p | <div class="PravachanText"><p><strong>अन्यूनमनतिरिक्तं याथातथ्यं बिना च विपरीतात् ।</strong></p> | ||
<p | <p><strong>निस्संदेहं वेद यदाहुस्तज्ज्ञानमागमिन: ।।42।।</strong></p> | ||
<p | <p> <strong>दुर्लभ मानवजीवन की धर्मपालन से ही सफलता</strong>―यह रत्नकरंड का दूसरा अधिकार चल रहा है । इसमें सम्यग्दर्शन के स्वरूप का वर्णन है । प्रथम अध्याय में सम्यग्दर्शन का वर्णन है । जीव का भला सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र परिणाम हुए । बिना हो ही नहीं सकता, इसके अतिरिक्त जो कुछ भी भाव बनाये जा रहे हैं विषय के, कषाय के, नामवरी के या अन्य-अन्य, वे सब थोथे हैं, ऊल जलूल हैं, व्यर्थ के हैं, संसार के बढ़ाने वाले हैं । मनुष्यभव जो कि एक बहुत दुर्लभ है संसार की अन्य पर्यायों को देखो कितनी-कितनी पर्यायें हैं । उन सबसे पार मनुष्यभव मिल जाना उतना दुर्लभ है जैसे कि चिंतामणिरत्न समुद्र में डूब जाय उस एक को निकालना कठिन है । बड़ी जिम्मेदारी से बात सोचना है, ऐसे दुर्लभ मनुष्यजन्म को पाकर, जैन शासन को हमें अपने को क्या करना चाहिए? देखिये जो गृहस्थावस्थायें है उनकी आजीविका चलाये बिना काम चल ही न सकेगा । गृहस्थी है, कुटुंब है और गृहस्थी बसायी, क्योंकि मुनि होने का, बिल्कुल एकाकी रहने का सामर्थ्य नहीं है, इस कारण गृहस्थी बसायी है । जब गृहस्थी है तो आजीविका मुख्य समस्या है । यह तो करना ही होगा किंतु आजीविका का फल कब मिलेगा? जब तक जीवन है तब तक आराम रह लिया, सुख सुविधा बना ली, किंतु यह सुख सुविधा आपको इस जीवन के बाद आगे कुछ काम न देगी । यह आत्मा अकेला ही जायगा । तो आगे जों आत्मा रहेगा वह किस ढंग में रहे, कैसे रहे, इसकी जिम्मेदारी अपने भावों पर है, अपने भाव यहाँ निर्मल रहे, सबकी भलाई के रहे, अपने आपके स्वरूप को पहिचान कर अपने में संतुष्ट होने के रहें तो अगला भव अच्छा मिलेगा । मुक्ति तो आजकल है नहीं, आगे धर्म के प्रसंग रहेंगे, भला हो जायगा ।</p> | ||
<p | <p> <strong>आजीविका और धर्मपालन में गौणता व मुख्यता का निर्णय</strong>―भैया, यह सोचिये कि गृहस्थजनों को केवल दो ही काम हैं―एक तो है । टेंप्रेरी और एक है परमानेन्ट याने एक गौण और एक मुख्य । गौण तो है आजीविका और मुख्य है धर्मपालन । भले ही अनेक लोगो के चित्त में यह बात है कि आजीविका है―मुख्य और धर्मपालन है गौण, मगर ऐसा नहीं है । आजीविका का फल आप कब तक पायेंगे? अधिक से अधिक इस जीवन तक जीवन के बाद यहाँ की संपत्ति से कोई संबंध नहीं । आगे काम देगा यहाँ का धर्मपालन । एक बात और समझिये, आगे ही काम देगा ऐसा ही क्यों कहें? वास्तविक रीति से आप धर्मपालन तो करें, यहां भी सुखी रहेंगे । और इस समय जो अनेक प्रकार के अनुकूल प्रतिकूल वातावरण होने से दिल को बेचैनी रहती हो, अनेक आरंभादिक के विषयों के कारण जो व्याकुलता रहती है वह बेचैनी को दूर करने में समर्थ वैभव नहीं है । वैभव के संपर्क से ही तो बेचैनी हुई और वैभव से ही उस बेचैनी को मिटा दिया जाय यह संभव नहीं । तो धर्मपालन से ही बेचैनी मिटती आज भी, अब भी । तो धर्मपालन एक ऐसा अद्भुत वैभव है कि इस भव में भी आपको शांति दे और आगे भी शांति दे । जब जीवन का मुख्य उद्देश्य धर्म होना चाहिए ।</p> | ||
<p | <p> <strong>मनुष्य का धनार्जन पर अनधिकार और धर्मपालन पर अधिकार</strong>―और भी सोचिये धन की कमायी आपके भावों पर आज निर्भर नहीं है, यह पूर्वकृत पुण्य के उदय पर निर्भर है । भले ही पूर्व में जो पुण्य बंधा था वह अच्छे भाव होने से बंधा था, तो यों भी कह सकते कि पूर्वभव के अच्छे भावों का फल है जो आज वैभव समागम मिल सके, पर आज के भावों का फल नहीं है कि आप धन को जोड़ सकें । कितना ही विचार करें, कितनी ही भावनायें बनायें, आज के भावों से आज धन मिले ऐसा कोई संबंध नहीं । तो यह पूर्वकृत पुण्य का फल है, उस पर आपका अधिकार नहीं, जोर नहीं, छांट नहीं, पर धर्मपालन में आपका आज से ही अधिकार है । यह भी अंतर जानें । इसी समय दृष्टि कीजिए अपने आत्मा के सहज स्वरूप की और तत्काल शांति लीजिए । धर्मपालन पर आपका आज अधिकार है पर धनार्जन पर आपका अधिकार नहीं है । पुण्य योग से किसी का पौरुष काम दे देता है तो उसे यह न समझना चाहिए कि मैंने ऐसा पुरुषार्थ किया उससे धन आया । धन आया है पूर्व पुण्य के उदय से । तो जब इतनी बात है कि धन संपदा इस जीवन के बाद काम नहीं देती और धर्मपालन इस जीवन के बाद भी काम दे देता है ।</p> | ||
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<p | <p><strong> वैभवसंपर्क से हुई अशांति को दूर करने का उपाय सम्यग्ज्ञान</strong>―और भी समझिये धन वैभव के संयोग से बेचैनी हुआ करती है अनेक तरह की । एक तो आगे की तृष्णा से, दूसरे पाये हुए की रक्षा की चिंता से, तीसरे जो कल्पना में मान लिया कि मुझ को इसमें इतना लाभ है और वह न हो सके तो मेरे विचार से आपको यही बेचैनी है । तो वैभव के संपर्क से हुई बेचैनी को वैभव के द्वारा दूर नहीं किया जा सकता, उसे धर्मपालन ही दूर कर सकेगा । फिर तीसरी बात यह है कि धनार्जन पर आपका अधिकार नहीं, धर्म पालन पर आपका अधिकार है । ऐसी सब बात समझकर जीवन में यह मुख्यता लाना चाहिए कि मुझे सही ढंग में धर्मपालन करना है । यों तो धर्म की बात बचपन से ही सब करते आ रहे मंदिर आये, समारोह हुए उनमें भाग लिया, विधान हुए, पूजन हुए, सब बातें धर्म के नाम पर करते चले आये पर वास्तविक यत्न क्या है, यह भी सहयोगी है, मगर सही ढंग में धर्मपालन कहां होता, कैसे होता वह बात समझना है, और उस ढंग से आप अपने अंदर गुप्त ही गुप्त विधि से धर्मपालन करें, वह काम देगा और मोक्ष के मार्ग में लगायगा तो उस धर्म की बात कही जायगी । यहाँ प्रकरण में यह बात जानना कि धर्मपालन का संबंध ज्ञान से है । शारीरिक क्रियायें तो उस ज्ञान का फल है कि इस तरह की सावधानी की और जिनेंद्र भक्ति की चेष्टायें होती हैं, पर वास्तव में धर्मपालन अपने आपके आत्मा में आत्मा के सहजस्वरूप का दर्शन करने से होता है ।</p> | ||
<p | <p> <strong>सम्यग्ज्ञान के साधन और उनका धर्मपालन में सहयोग</strong>―सम्यग्ज्ञान के ज्ञान के साधक 4 वेद है । (1) प्रथमानुयोग, (2) करणानुयोग, (3) चरणानुयोग और (4) द्रव्यानुयोग । इनका भली भांति थोड़ा अध्ययन होना चाहिए । ये चारों ही अनुयोग सम्यग्दर्शन के साधन हैं, कोई किसी विधि से ज्ञान बनाता है कोई किसी विधि से, मगर चारों ही अनुयोग सम्यग्ज्ञान के साधन हैं, तो सर्वप्रथम उन अनुयोगों का वर्णन करने के लिए सम्यग्ज्ञान का स्वरूप कह रहे हैं, पदार्थ जैसा है वैसा जानना सम्यग्ज्ञान है, न तो कम जाने न अधिक जाने, न उल्टा जाने, न संदेह सहित जाने, किंतु सही निःसंदेह यथार्थ जाने उसे सम्यग्ज्ञान कहते है । सुख दुःख होना सब ज्ञान की कला पर निर्भर है । कैसा ज्ञान बने कि सुख हो, कैसा ज्ञान बने कि दुःख हो, आप अनुभव से विचार लें, सब कुछ आपकी ज्ञान कला पर निर्भर है । बाह्य वस्तु का प्रसंग हमारे सुख दु:ख का कारण नहीं किंतु हमारे सुख दुःख भाव बनने का आश्रय है । कारण में और आश्रय में फर्क है । सुख दुःख का कारण तो उस प्रकार का ज्ञान, उस प्रकार का उदय और आश्रय है । जिस पदार्थ को हम दिल बसाकर सुख या दुःख पाते है वे पदार्थ आश्रयमात्र है । वे सुख दुख के कारण नहीं । तो जब सब कुछ बात हमारे ज्ञान पर ही निर्भर है तो उस ज्ञान की उपेक्षा न करना, अपने जीवन को शांत गंभीर पवित्र बनायें, भविष्य में संसार के संकटों से सदा के लिए छूट जायें, अगर ऐसा भाव है तो ज्ञान की आराधना करें । दूसरा कोई उपाय नहीं है कि इस जीव को शांति मिल सके । अधिक से अधिक लोक में धन की भावना चित्त में विशेष रहती है उसका ही ख्याल उसके ही अर्जन की तरकीब, वही चित्त में बसती रहती है । तो एक प्राकृतिक बात है कि ऐसा होता है, लेकिन यह तो सोचिये कि उन विकल्प विचारों में ही डूबे रहने से सिद्धि हुई क्या? और एक धर्म की दिशा में बढ़े, धर्मपालन की ओर रहे तो सारे कार्य स्वयमेव होते चले जायेंगे । बहुत पहले के पुरुषों की बात छोड़ो, अपने ही कुटुंब के दो चार लोगों को ले लो जो कि अच्छे घराने के लोग थे उनको धर्म से कितनी प्रीति थी और धर्मपालन में उनका कितना समय जाता था । उनके चित्त में कितनी उदारता थी और सब कार्य आसानी से चलता ही था ।</p> | ||
<p | <p> <strong>धर्मपालन का महत्त्व समझकर धर्मपालन के लिये सर्व पौरुष की आवश्यकता</strong>―भैया, अब कुछ चित्त बदलना होगा यह निर्णय रखना होगा कि धर्मपालन ही सारभूत कदम है दूसरा कोई भी कदम सारभूत नहीं है । बाकी तो गुजारा करने के लिए काम है । उद्धार के लिए तो धर्म काम है, गुजारा भी चाहिए और उद्धार भी चाहिए । गुजारे में तो कुछ घटा बढ़ी भी हो सकती है, कितने से ही गुजारे का काम कर लिया जाय मगर उद्धार के काम में यह घट बढ़ की बात न निभेगी कि ऐसा चलें इसमें भी उद्धार हो जायगा । इस तरह चलें तो इसमें भी उद्धार का काम हो जायगा । गुजारे के काम में तो सैकड़ों बातें निभ जायेंगी पर उद्धार के काम में ये दो बातें भी न निभेगी । कोई चाहे लखपति हो, चाहे करोड़पति हो, चाहे हजारपति हो, चाहे रोज-रोज खोम्चा फेरकर रोज कमाकर उससे रोज-रोज खर्च कर लेता हो, गुजारा सबका चलेगा, पर उद्धार के ढंग नहीं हो सकते । तब फिर गुजारे वाले साधन में चित्त को अधिक क्या लगाना? वह तो सुगमतया होगा । पर उद्धार वाले काम में अनेक प्रकार नहीं हो सकते वह तो एक ही विधि से होगा, उसमें विशेष उपयोग देना चाहिए । उद्धार का प्रारंभ है सम्यग्ज्ञान से । वस्तु को यथार्थ जानियेगा कि मैं क्या हूँ, शरीर क्या है । कुटुंब क्या हैं? ये बाहर में दिखने वाले पदार्थ क्या है? इसके बारे में यथार्थ परिचय तो होना चाहिए । यों तो स्वप्न में भी सब कुछ देखता है । जैसे यहाँ दिख रहा ऐसे ही सारी बातें स्वप्न में भी दिखा करती हैं, और स्वप्न में भी ये दुःखी होना, सुखी होना आदिक सारी बातें निभ जाती हैं, तो उस ही ढंग से जगत में भी देखते रहें तो स्वप्न में भी दुख और सुख पाने की अपेक्षा इस जगत में हमने क्या विशेषता पायी और हम पर बीती हुई एक बात से हम को तो यह निर्णय है कि कोई धर्मपालन स्वप्न में भी कर सकता । जिसको धर्मपालन करने की धुन बनी है वह स्वप्न में भी धर्मपालन किया करता है जिसे कहते है आत्मा का दर्शन, आत्मा की दृष्टि । आत्मा के गुणों को निरखना यह बात कोई स्वप्न में भी कर सकता, एक धुन होनी चाहिए उसकी । तो पहली बात निर्णय में यह रखें कि आजीविका से भी अधिक महत्त्व है धर्मपालन का । सो आजीविका के ही विकल्पों में निरंतर बने रहना यह काम नहीं है ।</p> | ||
<p | <p><strong> धन वैभव यश कीर्ति की आत्महित में अप्रयोजकता</strong>―मान लो कदाचित् थोड़ा धन कम मिला तो लोग यह चिंता करते कि लोग मुझे क्या कहेंगे । अरे लोम तो क्या कहेंगे इस पर से आपने जीवन चलाया तो समझो कि आप धर्म से बिल्कुल अलग हो गए । उनका क्या संकोच? धर्म पर अडिग रहें तो चाहे निर्धनता आये तो उसमें भी प्रशंसा ही है लोगों के और धर्म से डिगकर यदि बड़े-बड़े वैभवों में भी पले तो भी उसे शांति नहीं । और ऐसा कोई उपाय नहीं कि जिसको सब लोग भला कह सकें । है क्या कोई ऐसा काम कि जिसमें सारे लोग उसको कहने लगें कि उसने बड़ा अच्छा किया । कोई कितना ही अच्छा चल रहा है अपने जीवन में उसे सभी लोग भला कह सकें ऐसा हो नहीं सकता । आप कहें कि जो बड़े-बड़े तीर्थंकर हुए हैं उनको तो सब भला कहते तो भाई उन्हें भी सब लोग भला नहीं कहते । हां अधिक लोग भला कहने लगे मगर उनकी बुराई करने वाले, उनका विरोध करने वाले उन तीर्थंकरों के जमाने में भी रह आये । किसको आप ऐसा कहेंगे कि इसको सब भला कहने वाले है? देश के नेताओं में भी आप देख लो, बड़े से बड़े नेता हुए, आजकल जैसे गांधीजी प्रसिद्ध हुए तो बताओ उनको सभी भला कहने वाले थे क्या? नहीं थे, उनका भी विरोध करने वाले थे, तभी तो उनको विरोधियों ने उन्हें बान से मारा । यहाँ है कौन ऐसा जिसके सब समर्थक हों? तो इसका विकल्प छोड़ें कि हम अधिक धनी बनेंगे तो सब भला कह देंगे । धन आने दो पुण्योदय से जैसा आता है पर उसमें ही रातदिन विकल्प लगाकर रहे आये तो धर्म से विमुख हो जायेंगे । मुख्यता धर्म को दीजिए ।</p> | ||
<p | <p><strong> धर्म का आधार ज्ञान</strong>―धर्म मिलेगा ज्ञान से और ज्ञान वही सम्यक् है जिसमें न कम जाने न अधिक जाने, न उल्टा जाने, न संदेह सहित जाने । जैसे एक आत्मा के बारे में अगर यह जान लिया कि जैसा मेरा ज्ञान बना है बस यह ही मैं आत्मा हूं, शास्त्रीय परिभाषा में मतिज्ञान कह लीजिए, बस यह ही मैं आत्मा हूँ तो उसने भी कम जाना, वह भी एक अंश है आत्मा का, मगर वह परिपूर्ण बात नहीं है । और किसी ने यह जाना कि यह मैं आत्मा हूँ, देह को निरखकर, रूप रस वगैरह को देखकर तो उसने अधिक जान डाला । यह आत्मा नहीं है, यहाँ तक जान डाला । कोई आत्मा को समझे कि यह तो एक उत्पन्न ही होता है कभी और कोई दिन आता है कि मिट ही जाता है तो उसने यह विपरीत जाना, और कोई यों ही संदेह किया करे कि आत्मा है या नहीं तो यह उसका संदेह हो गया । यह सही ज्ञान नहीं है । सम्यग्दर्शन वह है कि जिसमें वस्तु का यथार्थ स्वरूप समाया हो । जब तक वस्तु का यथार्थ ज्ञान न होगा तब तक आकुलता न मिटेगी । आकुलता है मोह और राग की । खूब परख कर लो, राग में प्रेम करने में शांति मिलेगी क्या किसी को? पर ज्ञान की कमजोरी है ऐसी कि राग किए बिना नहीं रहा जाता, मोह किये बिना नहीं रहा जाता, पर ये उपाय शांति के नहीं है अशांति के है ।</p> | ||
<p | <p><strong> प्रभुमार्ग पर चलने की भावना में ही प्रभुदर्शन की वास्तविकता</strong>―एक यह ही मोटी बात देखो आप मंदिर में रोज प्रभु मूर्ति के सामने प्रभु के दर्शन करने, प्रभु का गुणगान करने क्यों आते हैं? किसी दिन न आये ऐसा आप से बनता नहीं, पहुंचना ही चाहिए, रोज ही आते, इसीलिए तो आते कि रागद्वेष मोहरहित आत्मा में हमारी दृष्टि जाय । प्रभु रागद्वेष मोहरहित हैं । जैसा उनका निज का स्वरूप है वैसा ही उनके प्रकट हुआ है इसी कारण आप यहाँ मंदिर में आते हैं । तो मंदिर में प्रभु के तो दर्शन करें और अपने आपके बारे में यह निर्णय बनायें कि मेरे को कष्ट मोह और राग से है, ये न होना चाहिये, यदि ऐसा निर्णय न बनाया तो भगवान के दर्शन क्या किये? फिर तो समझिये कि यदि यह उमंग नहीं जगती कि मेरे को मोह राग न चाहिए और फिर भी दर्शन करने आते है रोज तो उसका मतलब है कि आप प्रभु के दर्शन करने नहीं आते । प्रभु का स्वरूप सही समझा हो तो प्रभु के दर्शन कहलायेंगे, वह तो यों समझ लीजिए जैसे अन्य लोग भी देवी देवता मानते हैं कि इनके प्रसाद से हम को सांसारिक सुख मिलेंगे, कुटुंब बढ़ेगा, अनेक-अनेक संपन्नतायें होंगी जो जैसे अन्य जन देवताओं की आराधना कर लते हैं ऐसे ही जिन मंदिर में आकर वीतराग प्रभु की आराधना कर ली । वहाँ यदि यह भाव नहीं आता कि हे प्रभु मेरा तो मोह राग का कलंक छूटे और मैं अपने आपके सहज ज्ञानस्वरूप का दर्शन करता रहूं । जो काम आपने किया सो ही मुझे चाहिए, अगर यह बात नहीं आती चित्त में तो प्रभुदर्शन का क्या अर्थ? तो यह निर्णय करना हैं कि मेरे को जीवन में केवल दोष मेरे मिटें और मेरे गुण ही मेरे में विकसित हो, बस यह चाहिए । बाहरी कीचड़ पंक न चाहिए, क्योंकि बाहरी बात में गुजारा करने के सैकड़ों ढंग हैं, पर मेरा उद्धार हो । मुझे शांति मिले, इसका ढंग केवल एक ही है, दूसरा नहीं है, उस ही सम्यक्ज्ञान के विषय में इस अध्याय में वर्णन चलेगा ।</p> | ||
<p | <p><strong> आगम की प्रामाणिकता का संकेत व आगम के अनुसार सम्यग्ज्ञान का लाभ पाने का अनुरोध</strong>―जो आगम के जानने वाले है गणधरदेव, श्रुतकेवली, उनको बताया है कि सच्चा ज्ञान वही है जो वस्तु के स्वरूप को यथार्थ जाने । जैन शासन में जो आज शास्त्र उपलब्ध है उनकी परंपरा यों रही कि पहले तो साक्षात् तीर्थंकर थे, इस तीर्थ में महावीर भगवान थे । महावीर भगवान के समय साक्षात् उपदेश मिलते थे, दिव्यध्वनि खिरती थी, लोग अपनी-अपनी भाषा में समझते थे । भगवान महावीर स्वामी के निर्वाण के बाद गणधर देव से, और-और आचार्यों से श्रुत केवली से भगवान का उपदेश प्राप्त होता रहा, जब ये श्रुतकेवली भी न रहे तो जो थोड़े बहुत अंग पूर्व के ज्ञाता थे उन आचार्यों से मिलता रहा ये सब बातें मौखिक चल रही थीं । जब एक अंग के एक देश के ही जाननहार रहे और थोड़ा ज्ञान सभी उपदेशों का था तो उन आचार्यों ने सोचा कि अब इस ज्ञान को लिपिबद्ध करना चाहिए, नहीं तो आगे परंपरा कैसे चलेगी, सो वे लिपिबद्ध हुए बस उन शास्त्रों से अन्य शास्त्र, उनसे अन्य शास्त्र बनते गए । तो आज जो पूर्वाचार्यों के शास्त्र हैं उनमें वह बात पायी जाती जो कि भगवान महावीर के समय साक्षात् उपदेश में मिलती थी । उपदेश क्यों सुनते । शास्त्र क्यों पढ़ते? सबका एक ही उत्तर है कि मेरे को भेदविज्ञान जगे और अपने आत्मा के स्वरूप में मैं रमूं, इसके लिए है स्वाध्याय । बस दूसरा कोई प्रयोजन नहीं । तो सर्वप्रथम चाहिए भेद विज्ञान, जिनके बीच में रह रहे हों उन सबसे निराला मैं ज्ञानमात्र आत्मा हूँ, यह ज्ञान बसाना है और इस ज्ञान के बसाने के लिए एक बार ज्ञान हो भी जाय तो भी जिंदगी भर इस ही ज्ञान में रमण करना है, अन्यथा वह विघट जायगा । मेरे में यह ज्ञान जिसमें हो रहा है वह कोई वास्तविक चीज है, तो वह मैं हूँ । केवल ज्ञानस्वरूप, प्रतिभास मात्र, वास्तविक सत् उसको इन बाहरी बातों से अलग करना है और उस ही में अपनी दृष्टि बनाये रहना इसके लिए है स्वाध्याय । स्वाध्याय से तत्काल शांति, भविष्य में शांति, मोक्ष में पहुँचेंगे, मुक्ति में पहुंचेंगे । तो स्वाध्याय और सत्संग इन दो बातों से विशेष प्रेम होना चाहिए । भीतर से हृदय से भलाई का साधन दूसरा नहीं है, ज्ञान है और ज्ञान के उपाय ये दो है मुख्य (1) स्वाध्याय करना और (2) सत्संग करना । सत्संग मिलने से तत्काल उपयोग हमारा स्वच्छ होता है, बदलता है, उमंग मिलती है, उत्साह मिलता है, प्रेरणा मिलती है और ज्ञान भी मिलता है । स्वाध्याय करने से भी ज्ञान मिलता है पर उस स्वाध्याय के समय यह ध्यान आता है कि अमुक ऋषि के ये वचन हैं, तो उसमें भक्ति जगती है, हृदय स्वच्छ होता है, इस कारण स्वाध्याय? सत्संग के प्रयोग से ज्ञानवर्द्धन करना हैं, यह अपने जीवन का मुख्य उद्देश्य होना चाहिए ।</p> | ||
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Latest revision as of 16:35, 2 July 2021
अन्यूनमनतिरिक्तं याथातथ्यं बिना च विपरीतात् ।
निस्संदेहं वेद यदाहुस्तज्ज्ञानमागमिन: ।।42।।
दुर्लभ मानवजीवन की धर्मपालन से ही सफलता―यह रत्नकरंड का दूसरा अधिकार चल रहा है । इसमें सम्यग्दर्शन के स्वरूप का वर्णन है । प्रथम अध्याय में सम्यग्दर्शन का वर्णन है । जीव का भला सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र परिणाम हुए । बिना हो ही नहीं सकता, इसके अतिरिक्त जो कुछ भी भाव बनाये जा रहे हैं विषय के, कषाय के, नामवरी के या अन्य-अन्य, वे सब थोथे हैं, ऊल जलूल हैं, व्यर्थ के हैं, संसार के बढ़ाने वाले हैं । मनुष्यभव जो कि एक बहुत दुर्लभ है संसार की अन्य पर्यायों को देखो कितनी-कितनी पर्यायें हैं । उन सबसे पार मनुष्यभव मिल जाना उतना दुर्लभ है जैसे कि चिंतामणिरत्न समुद्र में डूब जाय उस एक को निकालना कठिन है । बड़ी जिम्मेदारी से बात सोचना है, ऐसे दुर्लभ मनुष्यजन्म को पाकर, जैन शासन को हमें अपने को क्या करना चाहिए? देखिये जो गृहस्थावस्थायें है उनकी आजीविका चलाये बिना काम चल ही न सकेगा । गृहस्थी है, कुटुंब है और गृहस्थी बसायी, क्योंकि मुनि होने का, बिल्कुल एकाकी रहने का सामर्थ्य नहीं है, इस कारण गृहस्थी बसायी है । जब गृहस्थी है तो आजीविका मुख्य समस्या है । यह तो करना ही होगा किंतु आजीविका का फल कब मिलेगा? जब तक जीवन है तब तक आराम रह लिया, सुख सुविधा बना ली, किंतु यह सुख सुविधा आपको इस जीवन के बाद आगे कुछ काम न देगी । यह आत्मा अकेला ही जायगा । तो आगे जों आत्मा रहेगा वह किस ढंग में रहे, कैसे रहे, इसकी जिम्मेदारी अपने भावों पर है, अपने भाव यहाँ निर्मल रहे, सबकी भलाई के रहे, अपने आपके स्वरूप को पहिचान कर अपने में संतुष्ट होने के रहें तो अगला भव अच्छा मिलेगा । मुक्ति तो आजकल है नहीं, आगे धर्म के प्रसंग रहेंगे, भला हो जायगा ।
आजीविका और धर्मपालन में गौणता व मुख्यता का निर्णय―भैया, यह सोचिये कि गृहस्थजनों को केवल दो ही काम हैं―एक तो है । टेंप्रेरी और एक है परमानेन्ट याने एक गौण और एक मुख्य । गौण तो है आजीविका और मुख्य है धर्मपालन । भले ही अनेक लोगो के चित्त में यह बात है कि आजीविका है―मुख्य और धर्मपालन है गौण, मगर ऐसा नहीं है । आजीविका का फल आप कब तक पायेंगे? अधिक से अधिक इस जीवन तक जीवन के बाद यहाँ की संपत्ति से कोई संबंध नहीं । आगे काम देगा यहाँ का धर्मपालन । एक बात और समझिये, आगे ही काम देगा ऐसा ही क्यों कहें? वास्तविक रीति से आप धर्मपालन तो करें, यहां भी सुखी रहेंगे । और इस समय जो अनेक प्रकार के अनुकूल प्रतिकूल वातावरण होने से दिल को बेचैनी रहती हो, अनेक आरंभादिक के विषयों के कारण जो व्याकुलता रहती है वह बेचैनी को दूर करने में समर्थ वैभव नहीं है । वैभव के संपर्क से ही तो बेचैनी हुई और वैभव से ही उस बेचैनी को मिटा दिया जाय यह संभव नहीं । तो धर्मपालन से ही बेचैनी मिटती आज भी, अब भी । तो धर्मपालन एक ऐसा अद्भुत वैभव है कि इस भव में भी आपको शांति दे और आगे भी शांति दे । जब जीवन का मुख्य उद्देश्य धर्म होना चाहिए ।
मनुष्य का धनार्जन पर अनधिकार और धर्मपालन पर अधिकार―और भी सोचिये धन की कमायी आपके भावों पर आज निर्भर नहीं है, यह पूर्वकृत पुण्य के उदय पर निर्भर है । भले ही पूर्व में जो पुण्य बंधा था वह अच्छे भाव होने से बंधा था, तो यों भी कह सकते कि पूर्वभव के अच्छे भावों का फल है जो आज वैभव समागम मिल सके, पर आज के भावों का फल नहीं है कि आप धन को जोड़ सकें । कितना ही विचार करें, कितनी ही भावनायें बनायें, आज के भावों से आज धन मिले ऐसा कोई संबंध नहीं । तो यह पूर्वकृत पुण्य का फल है, उस पर आपका अधिकार नहीं, जोर नहीं, छांट नहीं, पर धर्मपालन में आपका आज से ही अधिकार है । यह भी अंतर जानें । इसी समय दृष्टि कीजिए अपने आत्मा के सहज स्वरूप की और तत्काल शांति लीजिए । धर्मपालन पर आपका आज अधिकार है पर धनार्जन पर आपका अधिकार नहीं है । पुण्य योग से किसी का पौरुष काम दे देता है तो उसे यह न समझना चाहिए कि मैंने ऐसा पुरुषार्थ किया उससे धन आया । धन आया है पूर्व पुण्य के उदय से । तो जब इतनी बात है कि धन संपदा इस जीवन के बाद काम नहीं देती और धर्मपालन इस जीवन के बाद भी काम दे देता है ।
वैभवसंपर्क से हुई अशांति को दूर करने का उपाय सम्यग्ज्ञान―और भी समझिये धन वैभव के संयोग से बेचैनी हुआ करती है अनेक तरह की । एक तो आगे की तृष्णा से, दूसरे पाये हुए की रक्षा की चिंता से, तीसरे जो कल्पना में मान लिया कि मुझ को इसमें इतना लाभ है और वह न हो सके तो मेरे विचार से आपको यही बेचैनी है । तो वैभव के संपर्क से हुई बेचैनी को वैभव के द्वारा दूर नहीं किया जा सकता, उसे धर्मपालन ही दूर कर सकेगा । फिर तीसरी बात यह है कि धनार्जन पर आपका अधिकार नहीं, धर्म पालन पर आपका अधिकार है । ऐसी सब बात समझकर जीवन में यह मुख्यता लाना चाहिए कि मुझे सही ढंग में धर्मपालन करना है । यों तो धर्म की बात बचपन से ही सब करते आ रहे मंदिर आये, समारोह हुए उनमें भाग लिया, विधान हुए, पूजन हुए, सब बातें धर्म के नाम पर करते चले आये पर वास्तविक यत्न क्या है, यह भी सहयोगी है, मगर सही ढंग में धर्मपालन कहां होता, कैसे होता वह बात समझना है, और उस ढंग से आप अपने अंदर गुप्त ही गुप्त विधि से धर्मपालन करें, वह काम देगा और मोक्ष के मार्ग में लगायगा तो उस धर्म की बात कही जायगी । यहाँ प्रकरण में यह बात जानना कि धर्मपालन का संबंध ज्ञान से है । शारीरिक क्रियायें तो उस ज्ञान का फल है कि इस तरह की सावधानी की और जिनेंद्र भक्ति की चेष्टायें होती हैं, पर वास्तव में धर्मपालन अपने आपके आत्मा में आत्मा के सहजस्वरूप का दर्शन करने से होता है ।
सम्यग्ज्ञान के साधन और उनका धर्मपालन में सहयोग―सम्यग्ज्ञान के ज्ञान के साधक 4 वेद है । (1) प्रथमानुयोग, (2) करणानुयोग, (3) चरणानुयोग और (4) द्रव्यानुयोग । इनका भली भांति थोड़ा अध्ययन होना चाहिए । ये चारों ही अनुयोग सम्यग्दर्शन के साधन हैं, कोई किसी विधि से ज्ञान बनाता है कोई किसी विधि से, मगर चारों ही अनुयोग सम्यग्ज्ञान के साधन हैं, तो सर्वप्रथम उन अनुयोगों का वर्णन करने के लिए सम्यग्ज्ञान का स्वरूप कह रहे हैं, पदार्थ जैसा है वैसा जानना सम्यग्ज्ञान है, न तो कम जाने न अधिक जाने, न उल्टा जाने, न संदेह सहित जाने, किंतु सही निःसंदेह यथार्थ जाने उसे सम्यग्ज्ञान कहते है । सुख दुःख होना सब ज्ञान की कला पर निर्भर है । कैसा ज्ञान बने कि सुख हो, कैसा ज्ञान बने कि दुःख हो, आप अनुभव से विचार लें, सब कुछ आपकी ज्ञान कला पर निर्भर है । बाह्य वस्तु का प्रसंग हमारे सुख दु:ख का कारण नहीं किंतु हमारे सुख दुःख भाव बनने का आश्रय है । कारण में और आश्रय में फर्क है । सुख दुःख का कारण तो उस प्रकार का ज्ञान, उस प्रकार का उदय और आश्रय है । जिस पदार्थ को हम दिल बसाकर सुख या दुःख पाते है वे पदार्थ आश्रयमात्र है । वे सुख दुख के कारण नहीं । तो जब सब कुछ बात हमारे ज्ञान पर ही निर्भर है तो उस ज्ञान की उपेक्षा न करना, अपने जीवन को शांत गंभीर पवित्र बनायें, भविष्य में संसार के संकटों से सदा के लिए छूट जायें, अगर ऐसा भाव है तो ज्ञान की आराधना करें । दूसरा कोई उपाय नहीं है कि इस जीव को शांति मिल सके । अधिक से अधिक लोक में धन की भावना चित्त में विशेष रहती है उसका ही ख्याल उसके ही अर्जन की तरकीब, वही चित्त में बसती रहती है । तो एक प्राकृतिक बात है कि ऐसा होता है, लेकिन यह तो सोचिये कि उन विकल्प विचारों में ही डूबे रहने से सिद्धि हुई क्या? और एक धर्म की दिशा में बढ़े, धर्मपालन की ओर रहे तो सारे कार्य स्वयमेव होते चले जायेंगे । बहुत पहले के पुरुषों की बात छोड़ो, अपने ही कुटुंब के दो चार लोगों को ले लो जो कि अच्छे घराने के लोग थे उनको धर्म से कितनी प्रीति थी और धर्मपालन में उनका कितना समय जाता था । उनके चित्त में कितनी उदारता थी और सब कार्य आसानी से चलता ही था ।
धर्मपालन का महत्त्व समझकर धर्मपालन के लिये सर्व पौरुष की आवश्यकता―भैया, अब कुछ चित्त बदलना होगा यह निर्णय रखना होगा कि धर्मपालन ही सारभूत कदम है दूसरा कोई भी कदम सारभूत नहीं है । बाकी तो गुजारा करने के लिए काम है । उद्धार के लिए तो धर्म काम है, गुजारा भी चाहिए और उद्धार भी चाहिए । गुजारे में तो कुछ घटा बढ़ी भी हो सकती है, कितने से ही गुजारे का काम कर लिया जाय मगर उद्धार के काम में यह घट बढ़ की बात न निभेगी कि ऐसा चलें इसमें भी उद्धार हो जायगा । इस तरह चलें तो इसमें भी उद्धार का काम हो जायगा । गुजारे के काम में तो सैकड़ों बातें निभ जायेंगी पर उद्धार के काम में ये दो बातें भी न निभेगी । कोई चाहे लखपति हो, चाहे करोड़पति हो, चाहे हजारपति हो, चाहे रोज-रोज खोम्चा फेरकर रोज कमाकर उससे रोज-रोज खर्च कर लेता हो, गुजारा सबका चलेगा, पर उद्धार के ढंग नहीं हो सकते । तब फिर गुजारे वाले साधन में चित्त को अधिक क्या लगाना? वह तो सुगमतया होगा । पर उद्धार वाले काम में अनेक प्रकार नहीं हो सकते वह तो एक ही विधि से होगा, उसमें विशेष उपयोग देना चाहिए । उद्धार का प्रारंभ है सम्यग्ज्ञान से । वस्तु को यथार्थ जानियेगा कि मैं क्या हूँ, शरीर क्या है । कुटुंब क्या हैं? ये बाहर में दिखने वाले पदार्थ क्या है? इसके बारे में यथार्थ परिचय तो होना चाहिए । यों तो स्वप्न में भी सब कुछ देखता है । जैसे यहाँ दिख रहा ऐसे ही सारी बातें स्वप्न में भी दिखा करती हैं, और स्वप्न में भी ये दुःखी होना, सुखी होना आदिक सारी बातें निभ जाती हैं, तो उस ही ढंग से जगत में भी देखते रहें तो स्वप्न में भी दुख और सुख पाने की अपेक्षा इस जगत में हमने क्या विशेषता पायी और हम पर बीती हुई एक बात से हम को तो यह निर्णय है कि कोई धर्मपालन स्वप्न में भी कर सकता । जिसको धर्मपालन करने की धुन बनी है वह स्वप्न में भी धर्मपालन किया करता है जिसे कहते है आत्मा का दर्शन, आत्मा की दृष्टि । आत्मा के गुणों को निरखना यह बात कोई स्वप्न में भी कर सकता, एक धुन होनी चाहिए उसकी । तो पहली बात निर्णय में यह रखें कि आजीविका से भी अधिक महत्त्व है धर्मपालन का । सो आजीविका के ही विकल्पों में निरंतर बने रहना यह काम नहीं है ।
धन वैभव यश कीर्ति की आत्महित में अप्रयोजकता―मान लो कदाचित् थोड़ा धन कम मिला तो लोग यह चिंता करते कि लोग मुझे क्या कहेंगे । अरे लोम तो क्या कहेंगे इस पर से आपने जीवन चलाया तो समझो कि आप धर्म से बिल्कुल अलग हो गए । उनका क्या संकोच? धर्म पर अडिग रहें तो चाहे निर्धनता आये तो उसमें भी प्रशंसा ही है लोगों के और धर्म से डिगकर यदि बड़े-बड़े वैभवों में भी पले तो भी उसे शांति नहीं । और ऐसा कोई उपाय नहीं कि जिसको सब लोग भला कह सकें । है क्या कोई ऐसा काम कि जिसमें सारे लोग उसको कहने लगें कि उसने बड़ा अच्छा किया । कोई कितना ही अच्छा चल रहा है अपने जीवन में उसे सभी लोग भला कह सकें ऐसा हो नहीं सकता । आप कहें कि जो बड़े-बड़े तीर्थंकर हुए हैं उनको तो सब भला कहते तो भाई उन्हें भी सब लोग भला नहीं कहते । हां अधिक लोग भला कहने लगे मगर उनकी बुराई करने वाले, उनका विरोध करने वाले उन तीर्थंकरों के जमाने में भी रह आये । किसको आप ऐसा कहेंगे कि इसको सब भला कहने वाले है? देश के नेताओं में भी आप देख लो, बड़े से बड़े नेता हुए, आजकल जैसे गांधीजी प्रसिद्ध हुए तो बताओ उनको सभी भला कहने वाले थे क्या? नहीं थे, उनका भी विरोध करने वाले थे, तभी तो उनको विरोधियों ने उन्हें बान से मारा । यहाँ है कौन ऐसा जिसके सब समर्थक हों? तो इसका विकल्प छोड़ें कि हम अधिक धनी बनेंगे तो सब भला कह देंगे । धन आने दो पुण्योदय से जैसा आता है पर उसमें ही रातदिन विकल्प लगाकर रहे आये तो धर्म से विमुख हो जायेंगे । मुख्यता धर्म को दीजिए ।
धर्म का आधार ज्ञान―धर्म मिलेगा ज्ञान से और ज्ञान वही सम्यक् है जिसमें न कम जाने न अधिक जाने, न उल्टा जाने, न संदेह सहित जाने । जैसे एक आत्मा के बारे में अगर यह जान लिया कि जैसा मेरा ज्ञान बना है बस यह ही मैं आत्मा हूं, शास्त्रीय परिभाषा में मतिज्ञान कह लीजिए, बस यह ही मैं आत्मा हूँ तो उसने भी कम जाना, वह भी एक अंश है आत्मा का, मगर वह परिपूर्ण बात नहीं है । और किसी ने यह जाना कि यह मैं आत्मा हूँ, देह को निरखकर, रूप रस वगैरह को देखकर तो उसने अधिक जान डाला । यह आत्मा नहीं है, यहाँ तक जान डाला । कोई आत्मा को समझे कि यह तो एक उत्पन्न ही होता है कभी और कोई दिन आता है कि मिट ही जाता है तो उसने यह विपरीत जाना, और कोई यों ही संदेह किया करे कि आत्मा है या नहीं तो यह उसका संदेह हो गया । यह सही ज्ञान नहीं है । सम्यग्दर्शन वह है कि जिसमें वस्तु का यथार्थ स्वरूप समाया हो । जब तक वस्तु का यथार्थ ज्ञान न होगा तब तक आकुलता न मिटेगी । आकुलता है मोह और राग की । खूब परख कर लो, राग में प्रेम करने में शांति मिलेगी क्या किसी को? पर ज्ञान की कमजोरी है ऐसी कि राग किए बिना नहीं रहा जाता, मोह किये बिना नहीं रहा जाता, पर ये उपाय शांति के नहीं है अशांति के है ।
प्रभुमार्ग पर चलने की भावना में ही प्रभुदर्शन की वास्तविकता―एक यह ही मोटी बात देखो आप मंदिर में रोज प्रभु मूर्ति के सामने प्रभु के दर्शन करने, प्रभु का गुणगान करने क्यों आते हैं? किसी दिन न आये ऐसा आप से बनता नहीं, पहुंचना ही चाहिए, रोज ही आते, इसीलिए तो आते कि रागद्वेष मोहरहित आत्मा में हमारी दृष्टि जाय । प्रभु रागद्वेष मोहरहित हैं । जैसा उनका निज का स्वरूप है वैसा ही उनके प्रकट हुआ है इसी कारण आप यहाँ मंदिर में आते हैं । तो मंदिर में प्रभु के तो दर्शन करें और अपने आपके बारे में यह निर्णय बनायें कि मेरे को कष्ट मोह और राग से है, ये न होना चाहिये, यदि ऐसा निर्णय न बनाया तो भगवान के दर्शन क्या किये? फिर तो समझिये कि यदि यह उमंग नहीं जगती कि मेरे को मोह राग न चाहिए और फिर भी दर्शन करने आते है रोज तो उसका मतलब है कि आप प्रभु के दर्शन करने नहीं आते । प्रभु का स्वरूप सही समझा हो तो प्रभु के दर्शन कहलायेंगे, वह तो यों समझ लीजिए जैसे अन्य लोग भी देवी देवता मानते हैं कि इनके प्रसाद से हम को सांसारिक सुख मिलेंगे, कुटुंब बढ़ेगा, अनेक-अनेक संपन्नतायें होंगी जो जैसे अन्य जन देवताओं की आराधना कर लते हैं ऐसे ही जिन मंदिर में आकर वीतराग प्रभु की आराधना कर ली । वहाँ यदि यह भाव नहीं आता कि हे प्रभु मेरा तो मोह राग का कलंक छूटे और मैं अपने आपके सहज ज्ञानस्वरूप का दर्शन करता रहूं । जो काम आपने किया सो ही मुझे चाहिए, अगर यह बात नहीं आती चित्त में तो प्रभुदर्शन का क्या अर्थ? तो यह निर्णय करना हैं कि मेरे को जीवन में केवल दोष मेरे मिटें और मेरे गुण ही मेरे में विकसित हो, बस यह चाहिए । बाहरी कीचड़ पंक न चाहिए, क्योंकि बाहरी बात में गुजारा करने के सैकड़ों ढंग हैं, पर मेरा उद्धार हो । मुझे शांति मिले, इसका ढंग केवल एक ही है, दूसरा नहीं है, उस ही सम्यक्ज्ञान के विषय में इस अध्याय में वर्णन चलेगा ।
आगम की प्रामाणिकता का संकेत व आगम के अनुसार सम्यग्ज्ञान का लाभ पाने का अनुरोध―जो आगम के जानने वाले है गणधरदेव, श्रुतकेवली, उनको बताया है कि सच्चा ज्ञान वही है जो वस्तु के स्वरूप को यथार्थ जाने । जैन शासन में जो आज शास्त्र उपलब्ध है उनकी परंपरा यों रही कि पहले तो साक्षात् तीर्थंकर थे, इस तीर्थ में महावीर भगवान थे । महावीर भगवान के समय साक्षात् उपदेश मिलते थे, दिव्यध्वनि खिरती थी, लोग अपनी-अपनी भाषा में समझते थे । भगवान महावीर स्वामी के निर्वाण के बाद गणधर देव से, और-और आचार्यों से श्रुत केवली से भगवान का उपदेश प्राप्त होता रहा, जब ये श्रुतकेवली भी न रहे तो जो थोड़े बहुत अंग पूर्व के ज्ञाता थे उन आचार्यों से मिलता रहा ये सब बातें मौखिक चल रही थीं । जब एक अंग के एक देश के ही जाननहार रहे और थोड़ा ज्ञान सभी उपदेशों का था तो उन आचार्यों ने सोचा कि अब इस ज्ञान को लिपिबद्ध करना चाहिए, नहीं तो आगे परंपरा कैसे चलेगी, सो वे लिपिबद्ध हुए बस उन शास्त्रों से अन्य शास्त्र, उनसे अन्य शास्त्र बनते गए । तो आज जो पूर्वाचार्यों के शास्त्र हैं उनमें वह बात पायी जाती जो कि भगवान महावीर के समय साक्षात् उपदेश में मिलती थी । उपदेश क्यों सुनते । शास्त्र क्यों पढ़ते? सबका एक ही उत्तर है कि मेरे को भेदविज्ञान जगे और अपने आत्मा के स्वरूप में मैं रमूं, इसके लिए है स्वाध्याय । बस दूसरा कोई प्रयोजन नहीं । तो सर्वप्रथम चाहिए भेद विज्ञान, जिनके बीच में रह रहे हों उन सबसे निराला मैं ज्ञानमात्र आत्मा हूँ, यह ज्ञान बसाना है और इस ज्ञान के बसाने के लिए एक बार ज्ञान हो भी जाय तो भी जिंदगी भर इस ही ज्ञान में रमण करना है, अन्यथा वह विघट जायगा । मेरे में यह ज्ञान जिसमें हो रहा है वह कोई वास्तविक चीज है, तो वह मैं हूँ । केवल ज्ञानस्वरूप, प्रतिभास मात्र, वास्तविक सत् उसको इन बाहरी बातों से अलग करना है और उस ही में अपनी दृष्टि बनाये रहना इसके लिए है स्वाध्याय । स्वाध्याय से तत्काल शांति, भविष्य में शांति, मोक्ष में पहुँचेंगे, मुक्ति में पहुंचेंगे । तो स्वाध्याय और सत्संग इन दो बातों से विशेष प्रेम होना चाहिए । भीतर से हृदय से भलाई का साधन दूसरा नहीं है, ज्ञान है और ज्ञान के उपाय ये दो है मुख्य (1) स्वाध्याय करना और (2) सत्संग करना । सत्संग मिलने से तत्काल उपयोग हमारा स्वच्छ होता है, बदलता है, उमंग मिलती है, उत्साह मिलता है, प्रेरणा मिलती है और ज्ञान भी मिलता है । स्वाध्याय करने से भी ज्ञान मिलता है पर उस स्वाध्याय के समय यह ध्यान आता है कि अमुक ऋषि के ये वचन हैं, तो उसमें भक्ति जगती है, हृदय स्वच्छ होता है, इस कारण स्वाध्याय? सत्संग के प्रयोग से ज्ञानवर्द्धन करना हैं, यह अपने जीवन का मुख्य उद्देश्य होना चाहिए ।