रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 43: Difference between revisions
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<div class="PravachanText"><p | <div class="PravachanText"><p><strong>प्रथमानुयोग-मर्था-ख्यानं, चरितं पुराणमपि पुण्यम् ।</strong></p> | ||
<p | <p><strong>बोधिसमाधिनिधानं, बोधति बोध: समीचीन: ।।43।।</strong></p> | ||
<p | <p><strong> सम्यग्ज्ञान के साधनाप्रकारों में प्रथम प्रथमानुयोग का निर्देश</strong>―इससे पहली गाथा में यह बताया था कि न कम, न ज्यादह, न विपरीत, न संदेहयुक्त ऐसा ज्ञान होना सम्यग्ज्ञान है । सम्यग्ज्ञान में प्रयोजन आत्मा के सही स्वरूप का ज्ञान हैं, अन्यथा सम्यग्ज्ञान न कहलायगा । लौकिक दृष्टि से तो कहलायगा, पर अलौकिक दृष्टि में वह सम्यग्ज्ञान नहीं है जो अपने आत्मा के स्वरूप का स्पर्श न करे, सबका प्रयोजन 11 अंग 14 पूर्व द्वादशांग जितने भी आगम है सबका प्रयोजन यह है कि आत्मा अपने सहज स्वरूप को जान ले, मान ले और उसमें रम ले । तो ऐसी वृत्ति कैसे बन सकती है? उसका उपाय प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग इन चार प्रकार के अनुयोगों से ज्ञान करना है । प्रयोजन सबका यही मिलेगा कि अपने आपके स्वरूप को जानूं, मानूं और उसमें रमलूं, ‘आऊं, उतरुं, रमलूं, निज में, समस्त आगम का प्रयोजन इतना ही है, पर उस तक कैसे पहुंचे, उसके उपाय में यह 4 अनुयोगों द्वारा उपदेश किया गया है । (1) पहला है प्रथमानुयोग । प्रथम पुरुषों के लिए जानकारी का उपाय । प्रथम मायने बहुत-बहुत जो लोग धर्म में आये है या धर्म की बात को जानने का भाव रखते है ऐसे पुरुषों का कैसा विश्वास जमे कि हमें उस ज्ञान में बढ़ना चाहिए । तो यों कहो कि कथा कहानी सबको प्रिय होती है, ऐसी एक आदत है तो कल्पित कहानी न कह कर उन पुरुषों की कहानी बताते है जिन धीर वीर पुरुषों ने धर्मपालन करके आत्मकल्याण किया । उन धीर-वीर पुरुषों की कहानी कहना यह बहुत आवश्यक है ।</p> | ||
<p | <p> <strong>प्रथमानुयोग के स्वाध्याय की उपयोगिता का दिग्दर्शन</strong>―आज जो कोई भी कुछ अधिक पढ़ लिखकर ऐसा कहा करते है कि प्रथमानुयोग क्यों पढ़ना, वह तो किस्सा कहानी है, उसमें तत्त्व क्या रखा है? तो वे ही सोचें कि उन्होंने भी सर्वप्रथम इन पुराण पुरुषों के चरित्र का वाचन किया था कि नहीं । आज बड़े हो गए, ऊंची समझ आ गई तो कहने लगे कि कथाओं में, प्रथमानुयोग में क्या धरा है? अरे उन्होंने स्वयं प्रथमानुयोग पढ़ा था, उससे प्रेरणा मिली थी । तो प्रथमानुयोग चार अनुयोगों में प्रथम अनुयोग है । अनुयोग कहो, वेद कहो एक ही बात है । वेद का अर्थ है जिसके द्वारा ज्ञान बने सो वेद । सो यह प्रथम वेद कहा प्रथमानुयोग को, प्रथमानुयोग में यथाख्यान है धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ये चार पुरुषार्थ हैं । इन चारों पुरुषार्थों का वर्णन प्रथमानुयोग में मिलता है । कैसे धर्मप्रवृत्ति करना, कैसे धन कमाना, कैसे राज्य करना, कैसे प्रजाजनों का पालन करना, कैसे घर का बर्ताव रखना और फिर कैसे अपना हित करना, मोक्ष का पुरुषार्थ बनाना, ये सब बातें इस प्रथमानुयोग में मिलती हैं । और, इसमें चारित्र है एक-एक व्यक्ति का । त्रेशठशलाका पुरुषों का वर्णन है, इस कारण कहलाता है यह पुराण । पुराण पुरुषों का इसमें कथन है और केवल एक-एक व्यक्ति का अलग-अलग जितना बना उतना चारित्र बताया है । इस कारण प्रथमानुयोग चारित्र है और वह पुण्यवर्द्धक है ।</p> | ||
<p | <p> <strong>महापुरुषों के चरित्र के परिचय से आत्मप्रगति की प्रेरणा</strong>―जब कोई कथानक सुनते हैं जैसे कि इस तीर्थ के लंबे काल में सर्वप्रथम आदिनाथ भगवान हुए, ऋषभनाथ, मरुदेवी के नंदन, नाभिराजा के नंदन, कैसा वह समय था कि तीसरे काल का अंत हो रहा था, कल्पवृक्ष का अंत हो रहा था, लोग भूख प्यास की बाधा को, ठंड गर्मी की बाधा को दूर करने में किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए थे, क्या करना, जहाँ हाथी, शेर आदिक जानवर विरुद्ध होने लगे थे, तीसरे काल में ऐसा न था, शेर रहें, पुरुष रहें, पास बने रहें, पर कोई बात न थी, मगर अब सिंह दहाड़ने लगे, कुत्ते गुर्राने लगे, ऐसी परिस्थिति थी, खाने पीने का कोई उपाय समझ में न आ रहा था । उस समय ऋषभदेव ने गृहस्थावस्था में लोगों को मार्ग बताया । अधिकार तो था नाभिराजा का बताने का, क्योंकि वे 14वें कुलकर हुए । कुलकर ही सब व्यवस्था बनाते हैं, मगर जिस कुलकर के घर में तीर्थंकर उत्पन्न हुए वे आगे-आगे बढ़े लोग आये नाभिराजा के पास और विनती करने लगे कि हम लोग भूखों मर रहे हैं, कोई उपाय हो तो बताओ । तो उन्होंने भेजा ऋषभदेव के पास, कहा कि जावो ऋषभदेव के पास वे ही तुम्हारी समस्या का सब समाधान करेंगे? तो उन्होंने षट्कर्म रचना का उपाय, बताया 6 आवश्यक कर्तव्य बताया और अवधिज्ञान तो था ही जन्म से, सो सबकी योग्यता भी पहिचान ली, तो बताया कि देखो कुछ लोग कार्य करेंगे रक्षा का, शस्त्र चलाना सीखेंगे, दुष्टजन बाधा दें तो वहाँ रक्षा करेंगे, कुछ को ये काम बताया, और कुछ को बताया कि ये शिल्पकला करेंगे, और ये सेवा करेंगे ऐसी तीन भागों में बांट कर दी, जिसके आधार पर बने―क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र । शूद्र घृणा के योग्य नहीं हैं वह तो मिलजुलकर सेवा की बात बनी थी, पर कालांतर में मांस भक्षण, शराब खोरी, जीववध आदि अनेक खोटी बातें होने लगी थीं । तब से अच्छे लोग उनसे दूर होने लगे । पर स्वयं देखो मनुष्य हैं, मनुष्य के नाते और एक जैसे कार्य चल सके उस बंटवारे के काल में सब अपना अपना कार्य कर रहे थे, उनमें घृणा के योग्य कैसे थे, पर आचरण बिगड़ने से वह कुल और जाति घृणा के योग्य मान ली गई । उस समय तो सब एक ढंग की प्रजा थी, सब काम ठीकठीक चलता था । तो क्षत्रियों को असिका काम दिया, वेश्यों को मसि कृषि, वाणिज्य का काम दिया और शिल्पी और सेवा का काम रहा शूद्रों का । शूद्र शब्द कोई बुरे अर्थ वाला नहीं है । पर क्या करें, कोई बड़ा भी पुरुष हो और वह नीच काम करने लगे तो उसका नाम भी बदनाम हो जाता है । शुद्ध वातावरण में त्रिवर्ण व्यवस्था ऋषभदेव ने बनायी थी ।</p> | ||
<p | <p><strong> श्री ऋषभदेव के चारित्र से शिक्षा</strong>―वे ऋषभदेव बहुत गृहस्थी का राज्य वैभव भोगने के बीच जब उनकी राज्य सभा में नीलांजना नृत्य कर रही थी तो उस नृत्य करते हुए के बीच में ही नीलांजना का मरण हो गया, उस समय इंद्र के हुक्म से तुरंत ही दूसरी देवी उस रूप की धारणकर नृत्य करने लगी । इस रहस्य को अन्य दर्शक लोग नहीं समझ पाये क्योंकि उनका तुरंत का काम हुआ कोई जान ही न सका कि एक, देवी मरी और दूसरी आयी । अरे नृत्य करते-करते भी तो लोग बैठ जाते है कोई लेटकर भी नृत्य करते हैं, वहाँ तो तुरंत काम हुआ, और लोग न समझ सके, पर ऋषभदेव जान गए सारा रहस्य । उनको जन्म से अवधिज्ञान था, सो उस घटना को देखकर उनके वैराग्य जगा । बारह भावनाओं का चिंतन किया । संसार की असारता जाना, आत्मतत्व की ओर विशेष दृष्टि दृढ़ की, विरक्त हुए, मौनपूर्वक तपश्चरण किया केवलज्ञान हुआ, केवलज्ञान होने पर विशाल समवशरण की रचना हुई, उनका दिव्योपदेश हुआ । देखिये- कितने बड़े-बड़े उपकार किया ऋषभदेव ने । वे तो गृहस्थी के समय के उपकार थे । अब भगवान होने के समय के जो उपकार हुए सो सुनो । अन्य लोग तो किसी-किसी गृहस्थ के द्वारा जनता का उपकार हुआ हो तो उसे भी वे भगवान का रूप दे देते हैं । तो गृहस्थी के समय तक ऋषभदेव भी भगवान न कहलाते थे, भले ही उन्होंने बहुत उपकार किया पर भगवान वे तब हुए जब उनको केवलज्ञान हुआ । भले ही व्यवहार में लोग इस तरह बोलते कि भगवान ऋषभदेव का जन्म हुआ, तो वह द्रव्यनिक्षेप से बात है । वास्तव में भगवान कहलाते है केवल ज्ञान होने पर । केवलज्ञान हुए बाद उन्होंने दिव्योपदेश दिया और अंत में निर्वाण पाया ।</p> | ||
<p | <p><strong> प्रथमानुयोग के स्वाध्याय में भावसत्संग का लाभ</strong>―पुराणपुरुषों की कथा जानकर, चरित्र जानकर सुनने या बांचने वालों के परिणाम में क्या विषयसेवन की प्रेरण मिलेगी या धर्म में लगने की प्रेरणा मिलेंगी? धर्म में ही लगने की प्रेरणा मिलेगी? यदि प्रथमानुयोग का पढ़ना व्यर्थ है तब तो फिर सत्संग का करना भी व्यर्थ कहलायगा । फिर क्यों कहा जाता है कि स्वाध्याय करो । सत्संग करो । यहाँ तो सत्संग साक्षात् होता है अमुक त्यागी मिला है, संत मिला है, पर ग्रंथों में प्रथमानुयोग में पढ़ते हुए में स्मरण आता है ना उन ऋषियों का, आचार्यों का तो उस ख्याल में भी सत्संग चल रहा । जब किसी मुनि का, भगवान का या महापुरुष का चारित्र पढ़ रहे है तो वचन से और हृदय से वह सत्संग ही तो चल रहा । तो यह चारित्र वैराग्यवर्द्धक है । जो विषयकषायों से हटाये और अपने आत्मा के स्वरूप की ओर लगाये वह घटना भी पुण्यवर्द्धक है । यह जीव असहाय है, इसका दूसरा कोई मददगार नहीं है । पाप का उदय आ जाय या कोई घटना घट जाय, दिमाग बिगड़ जाय, अधिक बीमार हो गए, मरणासन्न हो गए, निर्धन हो गए तो फिर उसका कौन मददगार है? कौन उसकी सहायता करने आयगा? उसकी बड़ी-बड़ी चापलूसी, नम्रतायें, आदर विनय सब हो रहे । उसके असमर्थ हो जाने पर धर्मात्माजन तो भले ही उसकी मदद कर दें पर लौकिकजन, गृहस्थजन, अन्य-अन्य लोग उसके मददगार कोई न मिलेंगे । तो उस वक्त भी आपको जो लोग दिखते हैं कि यह मददगार हैं । यह हमारी ऐसी सेवा करता है । सुश्रुषा करता है । बड़े सुंदर मीठे वचन बोलता है । हमारी आज्ञा भी मानता है वह सब आपके पुष्य का ठाठ है । आप से उसका नाता नहीं है । ऐसे इस असार संसार में इन बाहरी पुद्गल ढेरों के ही चिंतन में, आश्रय लेने में जीवन खोया तो जैसे अनंत काल का समय यों ही व्यर्थ गंवाया ऐसे ही यह जीवन भी व्यर्थ जा रहा है । धर्मपालन की ओर विशेष दृष्टि दें । मान लो कदाचित कोई नाजुक स्थिति बनती है । लौकिक धन कम होता है तो वह जैसा होता हो होने दो, पर धर्म को न तजना । धर्मपालन के प्रताप से ही पापरस दूर होगा । न धर्मपालन करे कोई और पाप का उदय आता है तो दुर्दशा तो होगी, पर धर्मपालन से तत्काल शांति मिलेगी । आगे के लिए आत्मा का एक सही मार्ग मिलेगा । तो ये सब बड़े-बड़े पुरुषो के चारित्र पुण्यवर्द्धक है । मान लो तत्त्व की गहरी बातें कोई अधिक नहीं जानता और भगवान महावीर स्वामी की जय, और-और बड़ी उमँगों से पुराण पुरुषों का स्मरण कर रहा है और उनके जयवाद में उमंग ला रहा है तो पापबंध से तो बचा, पुण्य कितना ही बंध रहा हो, मगर उसके अशुभभाव नहीं है । अशुभभाव कहलाते है विषयसेवन और कषाय की पकड़ । ये अत्यंत अशुद्धभाव हैं । तो धर्म के प्रसंग में ऊपरी भी बात अगर मिली हो कोई और पुराण पुरुषों के चरित्र की बात सुन रहा हो कोई तो अशुभ भावों से तो बचा, पुण्यरस में आ रहा । तो यह प्रथमानुयोग पुण्यवर्द्धक है । यह बोधि समाधि का निधान है प्रथमानुयोग । बोधि मायने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की प्राप्ति । और समाधि मायने जो रत्नत्रय पाया है उसको परिपूर्णतया निभाना इन दोनों उपायों से निभाना यह पुराण पुरुषों का चारित्र है । तो इस चारित्र को यह सम्यग्ज्ञान सही बतलाता है । आत्मा का बोध यह है ।</p> | ||
<p | <p><strong> श्रीराम के चरित्र के श्रवण से आत्महितशिक्षण</strong>―श्रीराम भगवान का चरित्र आता है । उनकी सारी कहानी में आप यह पायेंगे कि मुनि होने से पहले श्रीरामचंद्रजी ने कहीं सुख आराम नहीं पाया । और ऐसे ही महापुरुषों का इतिहास बनता है जो धर्म पर अडिग रहे और सहर्ष दुःख सहते रहे, पर दुःख से घबड़ाकर कभी दुःख में पीड़ित नहीं हुए, ऐसे महापुरुषों का ही तो लोग नाम लेते है । अज्ञानीजन तो यों कहेंगे कि कुछ विवेक न था, क्यों खामोखा का जानबूझकर दुःख बनाया, अरे आराम से रहते घर में तो उन्हें कौन मनाकर सकता था? पर देखिये उन महापुरुषों को संसार के संघर्षों में ही आनंद रहा । जैसे किसी को खूब काम करने की आदत है वह अगर ठाली बैठा रहे तो उसे आराम नहीं मिलता और यदि काम में लगा रहे तो वह चैन मानता है । यह तो लोग खुद समझते है । महापुरुष डन्लप के गद्दों में, आराम कुर्सी में पड़े रहने से आराम नहीं मानते । वे तो अपना कर्तव्य निभाने में और धर्म युक्त चर्या करने में चैन मानते हैं तो यह ही महापुरुषों की निशानी है । साधारणजन तो शरीर को बड़े आराम से रखने में चैन समझते हैं पर महापुरुष जो जानते है कि यह शरीर जड़ है, अशुचि पदार्थो का समूह है इसको ऐसा ही पड़ा रहने दो । दूसरों के उपकार में यदि इसे न लगाया तो यह बड़ी गंदी बात है । इस अशुचि शरीर की भक्ति भगवान की तरह समझकर कर रहे ये अज्ञानीजन । महापुरुष धर्मपालन के प्रसंग में सर्व संघर्षों को समता से सहते हैं । उनमें वे विचलित नहीं होते । अपना चित्त अपने मूल उद्देश्य में ही रखते । श्रीरामजी बलभद्रभगवान हुए केवल ज्ञान के बाद, पर हुए भगवान इसलिए उन्हें भगवान पहिले से बोलते हैं । कहीं ऐसा नहीं है कि श्रीराम का आत्मा भगवान था और उसने यहाँ आकर शरीर धारण किया हो । वह विशिष्ट पुण्यवान जीव थे किंतु मुनि होने से पहले संकट ही सहे बचपन में स्वयंवर के समय, राज्य देन के समय, जंगल में सीताहरण के समय, युद्ध होते समय भाई को मूर्छा आने के समय, और जीत भी गए । और वापिस आ गए तो लोगों ने सीता को लाने की प्रार्थना की सीता आयी उस समय और फिर अग्निकुंड से परीक्षा दो ऐसा बोलते समय और जिस समय आँखों देख रहे हैं श्रीराम कि निर्दोष सीता इस अग्निकुंड में कूद रही है तो उस समय क्या-क्या कष्ट का वातावरण न था । सारी जिंदगी उनकी लौकिक दृष्टि से कष्टों-कष्टों में ही गुजरी और श्रीराम को उसमें ही संतोष था, उसमें ही आनंद था जब अग्निकुंड में सीताजी निर्दोष निकली । अग्निकुंड जलकुंड बन गया और वहाँ अत्यंत विरक्त होकर सीता बन को चलने लगी । आर्यिका होने लगी केशलोंच करने लगी । ऐसे प्रसंग में श्रीरामचंद्रजी ने सीता को कितना मनाया, माफी मांगी, मुझे क्षमा करो, तुम देवी हो लेकिन जिसका संसार से चित्त हट हो गया और केवल एक ब्रह्मस्वरूप में ही चित्त रम गया, वह सीता अपने धर्मपालन में लग गई। तो ऐसे संघर्षमय चरित्र को सुनने से और इतने संघर्षों में भी अपने धर्म से विचलित न होने के साहस को देखकर पढ़ने वालों के चित्त में उस प्रकार की उत्सुकता नहीं आती क्या? सत्संग और कहते किसे है? यह परोक्ष सत्संग है, ज्ञान के द्वारा सत्संग है । और यहाँ कोई महापुरुष आ जाये तो उनके साथ रहना यह साक्षात् सत्संग है । द्रव्यसत्संग है । और पुराण पुरुषों के चरित्र सुनना यह भाव सत्संग है । द्रव्यसत्संग में भी यदि भाव उज्जवल नहीं है तो वह सत्संग नहीं है और इन पुराण पुरुषों के चरित्र सुनते समय सत्संग बराबर बन रहा है ।</p> | ||
<p | <p> <strong>बोधिसमाधिनिधान प्रथमानुयोग के परिचय से आत्मलाभ की विधि का दिग्दर्शन</strong>―यह प्रथमानुयोग बोधि और समाधि का निधान है । बड़े-बड़े चक्रवर्तियों के जिनके चरित्र है उनके बड़ी विभूतियां बताया है । समस्त भरत क्षेत्र पर उनका आधिपत्य रहा, इतने करोड़ हाथी, इतने घोड़े, इतने हल, इतनी सेना, सारा भरतक्षेत्र उस चक्रवर्ती का था, इतने वैभववान चक्री के चक्रवर्ती के सामर्थ्य के समय भी उनको इस वैभव में मौज नहीं मिला, न उन्होनें मौज माना और सहज परमात्मस्वरूप की उपासना में ही अपना जीवन बिताया । बताओ यह है चक्रवर्ती की चर्या । 32 हजार मुकुटबद्ध राजा जिनके चरणों की सेवा करें और उनको किसी बात में मौज न आये, प्रसन्नता न आये । उनको प्रसन्नता मिली तो अपने धर्मपालन में आत्मस्वभाव के दर्शन में प्रसन्नता मिली । तो बड़े-बड़े पुरुषों के ऐसे चारित्र पढ़कर क्या खुद के प्रति, ऐसा ख्याल नहीं जगता किं अरे मैं कहां यहाँ की छोटी-छोटी बातों में विचलित होता रहता हूँ । तृष्णावश रात दिन जड़ पौद्गलिक चिंतन में ही रहा करता हूँ । अरे मेरे में बसा हुआ यह सहज परमात्मा मेरे को दृष्टिगत न हो और व्यर्थ बाह्य असार इन विभूतियों में ही अपना चित्त रमाऊँ यह कहां तक योग्य है? इस प्रकार का ख्याल न आयगा क्या? तो बताओ प्रथमानुयोग का स्वाध्याय उल्टी गैल बताता है या सीधी गैल में मददगार है? उल्टी गैल तो नहीं बताता सन्मार्ग में ही लगायगा । तो जो लोग थोड़ा सा भी बोलने लगते है, तत्त्व की गप्पें हांकने लगते हैं उन्हें यह स्वच्छंदता आती है कि प्रथमानुयोग का क्या पढ़ना? उसमें तो किस्सा कहानी है । पर जिसको आत्मकल्याण की धुन है । वह सब उपाय बनायगा कि मेरे आत्मा को सन्मार्ग ही मिले, कुमार्ग न मिले । तो जैसे किसी को मान लो अमेरिका जाना है तो पहले कुछ अमेरिका का वृत्तांत समझना, अमेरिका का चारित्र जानना, वहाँ कैसे गुजारा हो, वहाँ का भूगोल क्या है, जो लोग अमेरिका गये है उनका ध्यान होगा कि ये-ये लोग गए है, ये सब बातें उसके ध्यान में होंगी तब वह अमेरिका की यात्रा करता है । अगर ऐसी बात चित्त में न हो तो कैसे कोई यात्रा करे? ऐसे ही जिसे मोक्ष जाना है वह पहले जो मोक्ष गए है उनका चरित्र जानता है सामान्यरूप से कि इस तरह से निर्वाण हुआ है इन लोगो का तब ही वह खुद के निर्वाण के लिए स्पष्ट मार्ग समझ पायगा । इस कारण यह प्रथमानुयोग जिसमें महापुरुषों के चरित्र है इनका ज्ञान करना सम्यग्ज्ञान है । सम्यग्ज्ञान के चार अनुयोग बताये थे, उनमें यह प्रथमानुयोग का वर्णन है।</p> | ||
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Latest revision as of 16:35, 2 July 2021
प्रथमानुयोग-मर्था-ख्यानं, चरितं पुराणमपि पुण्यम् ।
बोधिसमाधिनिधानं, बोधति बोध: समीचीन: ।।43।।
सम्यग्ज्ञान के साधनाप्रकारों में प्रथम प्रथमानुयोग का निर्देश―इससे पहली गाथा में यह बताया था कि न कम, न ज्यादह, न विपरीत, न संदेहयुक्त ऐसा ज्ञान होना सम्यग्ज्ञान है । सम्यग्ज्ञान में प्रयोजन आत्मा के सही स्वरूप का ज्ञान हैं, अन्यथा सम्यग्ज्ञान न कहलायगा । लौकिक दृष्टि से तो कहलायगा, पर अलौकिक दृष्टि में वह सम्यग्ज्ञान नहीं है जो अपने आत्मा के स्वरूप का स्पर्श न करे, सबका प्रयोजन 11 अंग 14 पूर्व द्वादशांग जितने भी आगम है सबका प्रयोजन यह है कि आत्मा अपने सहज स्वरूप को जान ले, मान ले और उसमें रम ले । तो ऐसी वृत्ति कैसे बन सकती है? उसका उपाय प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग इन चार प्रकार के अनुयोगों से ज्ञान करना है । प्रयोजन सबका यही मिलेगा कि अपने आपके स्वरूप को जानूं, मानूं और उसमें रमलूं, ‘आऊं, उतरुं, रमलूं, निज में, समस्त आगम का प्रयोजन इतना ही है, पर उस तक कैसे पहुंचे, उसके उपाय में यह 4 अनुयोगों द्वारा उपदेश किया गया है । (1) पहला है प्रथमानुयोग । प्रथम पुरुषों के लिए जानकारी का उपाय । प्रथम मायने बहुत-बहुत जो लोग धर्म में आये है या धर्म की बात को जानने का भाव रखते है ऐसे पुरुषों का कैसा विश्वास जमे कि हमें उस ज्ञान में बढ़ना चाहिए । तो यों कहो कि कथा कहानी सबको प्रिय होती है, ऐसी एक आदत है तो कल्पित कहानी न कह कर उन पुरुषों की कहानी बताते है जिन धीर वीर पुरुषों ने धर्मपालन करके आत्मकल्याण किया । उन धीर-वीर पुरुषों की कहानी कहना यह बहुत आवश्यक है ।
प्रथमानुयोग के स्वाध्याय की उपयोगिता का दिग्दर्शन―आज जो कोई भी कुछ अधिक पढ़ लिखकर ऐसा कहा करते है कि प्रथमानुयोग क्यों पढ़ना, वह तो किस्सा कहानी है, उसमें तत्त्व क्या रखा है? तो वे ही सोचें कि उन्होंने भी सर्वप्रथम इन पुराण पुरुषों के चरित्र का वाचन किया था कि नहीं । आज बड़े हो गए, ऊंची समझ आ गई तो कहने लगे कि कथाओं में, प्रथमानुयोग में क्या धरा है? अरे उन्होंने स्वयं प्रथमानुयोग पढ़ा था, उससे प्रेरणा मिली थी । तो प्रथमानुयोग चार अनुयोगों में प्रथम अनुयोग है । अनुयोग कहो, वेद कहो एक ही बात है । वेद का अर्थ है जिसके द्वारा ज्ञान बने सो वेद । सो यह प्रथम वेद कहा प्रथमानुयोग को, प्रथमानुयोग में यथाख्यान है धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ये चार पुरुषार्थ हैं । इन चारों पुरुषार्थों का वर्णन प्रथमानुयोग में मिलता है । कैसे धर्मप्रवृत्ति करना, कैसे धन कमाना, कैसे राज्य करना, कैसे प्रजाजनों का पालन करना, कैसे घर का बर्ताव रखना और फिर कैसे अपना हित करना, मोक्ष का पुरुषार्थ बनाना, ये सब बातें इस प्रथमानुयोग में मिलती हैं । और, इसमें चारित्र है एक-एक व्यक्ति का । त्रेशठशलाका पुरुषों का वर्णन है, इस कारण कहलाता है यह पुराण । पुराण पुरुषों का इसमें कथन है और केवल एक-एक व्यक्ति का अलग-अलग जितना बना उतना चारित्र बताया है । इस कारण प्रथमानुयोग चारित्र है और वह पुण्यवर्द्धक है ।
महापुरुषों के चरित्र के परिचय से आत्मप्रगति की प्रेरणा―जब कोई कथानक सुनते हैं जैसे कि इस तीर्थ के लंबे काल में सर्वप्रथम आदिनाथ भगवान हुए, ऋषभनाथ, मरुदेवी के नंदन, नाभिराजा के नंदन, कैसा वह समय था कि तीसरे काल का अंत हो रहा था, कल्पवृक्ष का अंत हो रहा था, लोग भूख प्यास की बाधा को, ठंड गर्मी की बाधा को दूर करने में किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए थे, क्या करना, जहाँ हाथी, शेर आदिक जानवर विरुद्ध होने लगे थे, तीसरे काल में ऐसा न था, शेर रहें, पुरुष रहें, पास बने रहें, पर कोई बात न थी, मगर अब सिंह दहाड़ने लगे, कुत्ते गुर्राने लगे, ऐसी परिस्थिति थी, खाने पीने का कोई उपाय समझ में न आ रहा था । उस समय ऋषभदेव ने गृहस्थावस्था में लोगों को मार्ग बताया । अधिकार तो था नाभिराजा का बताने का, क्योंकि वे 14वें कुलकर हुए । कुलकर ही सब व्यवस्था बनाते हैं, मगर जिस कुलकर के घर में तीर्थंकर उत्पन्न हुए वे आगे-आगे बढ़े लोग आये नाभिराजा के पास और विनती करने लगे कि हम लोग भूखों मर रहे हैं, कोई उपाय हो तो बताओ । तो उन्होंने भेजा ऋषभदेव के पास, कहा कि जावो ऋषभदेव के पास वे ही तुम्हारी समस्या का सब समाधान करेंगे? तो उन्होंने षट्कर्म रचना का उपाय, बताया 6 आवश्यक कर्तव्य बताया और अवधिज्ञान तो था ही जन्म से, सो सबकी योग्यता भी पहिचान ली, तो बताया कि देखो कुछ लोग कार्य करेंगे रक्षा का, शस्त्र चलाना सीखेंगे, दुष्टजन बाधा दें तो वहाँ रक्षा करेंगे, कुछ को ये काम बताया, और कुछ को बताया कि ये शिल्पकला करेंगे, और ये सेवा करेंगे ऐसी तीन भागों में बांट कर दी, जिसके आधार पर बने―क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र । शूद्र घृणा के योग्य नहीं हैं वह तो मिलजुलकर सेवा की बात बनी थी, पर कालांतर में मांस भक्षण, शराब खोरी, जीववध आदि अनेक खोटी बातें होने लगी थीं । तब से अच्छे लोग उनसे दूर होने लगे । पर स्वयं देखो मनुष्य हैं, मनुष्य के नाते और एक जैसे कार्य चल सके उस बंटवारे के काल में सब अपना अपना कार्य कर रहे थे, उनमें घृणा के योग्य कैसे थे, पर आचरण बिगड़ने से वह कुल और जाति घृणा के योग्य मान ली गई । उस समय तो सब एक ढंग की प्रजा थी, सब काम ठीकठीक चलता था । तो क्षत्रियों को असिका काम दिया, वेश्यों को मसि कृषि, वाणिज्य का काम दिया और शिल्पी और सेवा का काम रहा शूद्रों का । शूद्र शब्द कोई बुरे अर्थ वाला नहीं है । पर क्या करें, कोई बड़ा भी पुरुष हो और वह नीच काम करने लगे तो उसका नाम भी बदनाम हो जाता है । शुद्ध वातावरण में त्रिवर्ण व्यवस्था ऋषभदेव ने बनायी थी ।
श्री ऋषभदेव के चारित्र से शिक्षा―वे ऋषभदेव बहुत गृहस्थी का राज्य वैभव भोगने के बीच जब उनकी राज्य सभा में नीलांजना नृत्य कर रही थी तो उस नृत्य करते हुए के बीच में ही नीलांजना का मरण हो गया, उस समय इंद्र के हुक्म से तुरंत ही दूसरी देवी उस रूप की धारणकर नृत्य करने लगी । इस रहस्य को अन्य दर्शक लोग नहीं समझ पाये क्योंकि उनका तुरंत का काम हुआ कोई जान ही न सका कि एक, देवी मरी और दूसरी आयी । अरे नृत्य करते-करते भी तो लोग बैठ जाते है कोई लेटकर भी नृत्य करते हैं, वहाँ तो तुरंत काम हुआ, और लोग न समझ सके, पर ऋषभदेव जान गए सारा रहस्य । उनको जन्म से अवधिज्ञान था, सो उस घटना को देखकर उनके वैराग्य जगा । बारह भावनाओं का चिंतन किया । संसार की असारता जाना, आत्मतत्व की ओर विशेष दृष्टि दृढ़ की, विरक्त हुए, मौनपूर्वक तपश्चरण किया केवलज्ञान हुआ, केवलज्ञान होने पर विशाल समवशरण की रचना हुई, उनका दिव्योपदेश हुआ । देखिये- कितने बड़े-बड़े उपकार किया ऋषभदेव ने । वे तो गृहस्थी के समय के उपकार थे । अब भगवान होने के समय के जो उपकार हुए सो सुनो । अन्य लोग तो किसी-किसी गृहस्थ के द्वारा जनता का उपकार हुआ हो तो उसे भी वे भगवान का रूप दे देते हैं । तो गृहस्थी के समय तक ऋषभदेव भी भगवान न कहलाते थे, भले ही उन्होंने बहुत उपकार किया पर भगवान वे तब हुए जब उनको केवलज्ञान हुआ । भले ही व्यवहार में लोग इस तरह बोलते कि भगवान ऋषभदेव का जन्म हुआ, तो वह द्रव्यनिक्षेप से बात है । वास्तव में भगवान कहलाते है केवल ज्ञान होने पर । केवलज्ञान हुए बाद उन्होंने दिव्योपदेश दिया और अंत में निर्वाण पाया ।
प्रथमानुयोग के स्वाध्याय में भावसत्संग का लाभ―पुराणपुरुषों की कथा जानकर, चरित्र जानकर सुनने या बांचने वालों के परिणाम में क्या विषयसेवन की प्रेरण मिलेगी या धर्म में लगने की प्रेरणा मिलेंगी? धर्म में ही लगने की प्रेरणा मिलेगी? यदि प्रथमानुयोग का पढ़ना व्यर्थ है तब तो फिर सत्संग का करना भी व्यर्थ कहलायगा । फिर क्यों कहा जाता है कि स्वाध्याय करो । सत्संग करो । यहाँ तो सत्संग साक्षात् होता है अमुक त्यागी मिला है, संत मिला है, पर ग्रंथों में प्रथमानुयोग में पढ़ते हुए में स्मरण आता है ना उन ऋषियों का, आचार्यों का तो उस ख्याल में भी सत्संग चल रहा । जब किसी मुनि का, भगवान का या महापुरुष का चारित्र पढ़ रहे है तो वचन से और हृदय से वह सत्संग ही तो चल रहा । तो यह चारित्र वैराग्यवर्द्धक है । जो विषयकषायों से हटाये और अपने आत्मा के स्वरूप की ओर लगाये वह घटना भी पुण्यवर्द्धक है । यह जीव असहाय है, इसका दूसरा कोई मददगार नहीं है । पाप का उदय आ जाय या कोई घटना घट जाय, दिमाग बिगड़ जाय, अधिक बीमार हो गए, मरणासन्न हो गए, निर्धन हो गए तो फिर उसका कौन मददगार है? कौन उसकी सहायता करने आयगा? उसकी बड़ी-बड़ी चापलूसी, नम्रतायें, आदर विनय सब हो रहे । उसके असमर्थ हो जाने पर धर्मात्माजन तो भले ही उसकी मदद कर दें पर लौकिकजन, गृहस्थजन, अन्य-अन्य लोग उसके मददगार कोई न मिलेंगे । तो उस वक्त भी आपको जो लोग दिखते हैं कि यह मददगार हैं । यह हमारी ऐसी सेवा करता है । सुश्रुषा करता है । बड़े सुंदर मीठे वचन बोलता है । हमारी आज्ञा भी मानता है वह सब आपके पुष्य का ठाठ है । आप से उसका नाता नहीं है । ऐसे इस असार संसार में इन बाहरी पुद्गल ढेरों के ही चिंतन में, आश्रय लेने में जीवन खोया तो जैसे अनंत काल का समय यों ही व्यर्थ गंवाया ऐसे ही यह जीवन भी व्यर्थ जा रहा है । धर्मपालन की ओर विशेष दृष्टि दें । मान लो कदाचित कोई नाजुक स्थिति बनती है । लौकिक धन कम होता है तो वह जैसा होता हो होने दो, पर धर्म को न तजना । धर्मपालन के प्रताप से ही पापरस दूर होगा । न धर्मपालन करे कोई और पाप का उदय आता है तो दुर्दशा तो होगी, पर धर्मपालन से तत्काल शांति मिलेगी । आगे के लिए आत्मा का एक सही मार्ग मिलेगा । तो ये सब बड़े-बड़े पुरुषो के चारित्र पुण्यवर्द्धक है । मान लो तत्त्व की गहरी बातें कोई अधिक नहीं जानता और भगवान महावीर स्वामी की जय, और-और बड़ी उमँगों से पुराण पुरुषों का स्मरण कर रहा है और उनके जयवाद में उमंग ला रहा है तो पापबंध से तो बचा, पुण्य कितना ही बंध रहा हो, मगर उसके अशुभभाव नहीं है । अशुभभाव कहलाते है विषयसेवन और कषाय की पकड़ । ये अत्यंत अशुद्धभाव हैं । तो धर्म के प्रसंग में ऊपरी भी बात अगर मिली हो कोई और पुराण पुरुषों के चरित्र की बात सुन रहा हो कोई तो अशुभ भावों से तो बचा, पुण्यरस में आ रहा । तो यह प्रथमानुयोग पुण्यवर्द्धक है । यह बोधि समाधि का निधान है प्रथमानुयोग । बोधि मायने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की प्राप्ति । और समाधि मायने जो रत्नत्रय पाया है उसको परिपूर्णतया निभाना इन दोनों उपायों से निभाना यह पुराण पुरुषों का चारित्र है । तो इस चारित्र को यह सम्यग्ज्ञान सही बतलाता है । आत्मा का बोध यह है ।
श्रीराम के चरित्र के श्रवण से आत्महितशिक्षण―श्रीराम भगवान का चरित्र आता है । उनकी सारी कहानी में आप यह पायेंगे कि मुनि होने से पहले श्रीरामचंद्रजी ने कहीं सुख आराम नहीं पाया । और ऐसे ही महापुरुषों का इतिहास बनता है जो धर्म पर अडिग रहे और सहर्ष दुःख सहते रहे, पर दुःख से घबड़ाकर कभी दुःख में पीड़ित नहीं हुए, ऐसे महापुरुषों का ही तो लोग नाम लेते है । अज्ञानीजन तो यों कहेंगे कि कुछ विवेक न था, क्यों खामोखा का जानबूझकर दुःख बनाया, अरे आराम से रहते घर में तो उन्हें कौन मनाकर सकता था? पर देखिये उन महापुरुषों को संसार के संघर्षों में ही आनंद रहा । जैसे किसी को खूब काम करने की आदत है वह अगर ठाली बैठा रहे तो उसे आराम नहीं मिलता और यदि काम में लगा रहे तो वह चैन मानता है । यह तो लोग खुद समझते है । महापुरुष डन्लप के गद्दों में, आराम कुर्सी में पड़े रहने से आराम नहीं मानते । वे तो अपना कर्तव्य निभाने में और धर्म युक्त चर्या करने में चैन मानते हैं तो यह ही महापुरुषों की निशानी है । साधारणजन तो शरीर को बड़े आराम से रखने में चैन समझते हैं पर महापुरुष जो जानते है कि यह शरीर जड़ है, अशुचि पदार्थो का समूह है इसको ऐसा ही पड़ा रहने दो । दूसरों के उपकार में यदि इसे न लगाया तो यह बड़ी गंदी बात है । इस अशुचि शरीर की भक्ति भगवान की तरह समझकर कर रहे ये अज्ञानीजन । महापुरुष धर्मपालन के प्रसंग में सर्व संघर्षों को समता से सहते हैं । उनमें वे विचलित नहीं होते । अपना चित्त अपने मूल उद्देश्य में ही रखते । श्रीरामजी बलभद्रभगवान हुए केवल ज्ञान के बाद, पर हुए भगवान इसलिए उन्हें भगवान पहिले से बोलते हैं । कहीं ऐसा नहीं है कि श्रीराम का आत्मा भगवान था और उसने यहाँ आकर शरीर धारण किया हो । वह विशिष्ट पुण्यवान जीव थे किंतु मुनि होने से पहले संकट ही सहे बचपन में स्वयंवर के समय, राज्य देन के समय, जंगल में सीताहरण के समय, युद्ध होते समय भाई को मूर्छा आने के समय, और जीत भी गए । और वापिस आ गए तो लोगों ने सीता को लाने की प्रार्थना की सीता आयी उस समय और फिर अग्निकुंड से परीक्षा दो ऐसा बोलते समय और जिस समय आँखों देख रहे हैं श्रीराम कि निर्दोष सीता इस अग्निकुंड में कूद रही है तो उस समय क्या-क्या कष्ट का वातावरण न था । सारी जिंदगी उनकी लौकिक दृष्टि से कष्टों-कष्टों में ही गुजरी और श्रीराम को उसमें ही संतोष था, उसमें ही आनंद था जब अग्निकुंड में सीताजी निर्दोष निकली । अग्निकुंड जलकुंड बन गया और वहाँ अत्यंत विरक्त होकर सीता बन को चलने लगी । आर्यिका होने लगी केशलोंच करने लगी । ऐसे प्रसंग में श्रीरामचंद्रजी ने सीता को कितना मनाया, माफी मांगी, मुझे क्षमा करो, तुम देवी हो लेकिन जिसका संसार से चित्त हट हो गया और केवल एक ब्रह्मस्वरूप में ही चित्त रम गया, वह सीता अपने धर्मपालन में लग गई। तो ऐसे संघर्षमय चरित्र को सुनने से और इतने संघर्षों में भी अपने धर्म से विचलित न होने के साहस को देखकर पढ़ने वालों के चित्त में उस प्रकार की उत्सुकता नहीं आती क्या? सत्संग और कहते किसे है? यह परोक्ष सत्संग है, ज्ञान के द्वारा सत्संग है । और यहाँ कोई महापुरुष आ जाये तो उनके साथ रहना यह साक्षात् सत्संग है । द्रव्यसत्संग है । और पुराण पुरुषों के चरित्र सुनना यह भाव सत्संग है । द्रव्यसत्संग में भी यदि भाव उज्जवल नहीं है तो वह सत्संग नहीं है और इन पुराण पुरुषों के चरित्र सुनते समय सत्संग बराबर बन रहा है ।
बोधिसमाधिनिधान प्रथमानुयोग के परिचय से आत्मलाभ की विधि का दिग्दर्शन―यह प्रथमानुयोग बोधि और समाधि का निधान है । बड़े-बड़े चक्रवर्तियों के जिनके चरित्र है उनके बड़ी विभूतियां बताया है । समस्त भरत क्षेत्र पर उनका आधिपत्य रहा, इतने करोड़ हाथी, इतने घोड़े, इतने हल, इतनी सेना, सारा भरतक्षेत्र उस चक्रवर्ती का था, इतने वैभववान चक्री के चक्रवर्ती के सामर्थ्य के समय भी उनको इस वैभव में मौज नहीं मिला, न उन्होनें मौज माना और सहज परमात्मस्वरूप की उपासना में ही अपना जीवन बिताया । बताओ यह है चक्रवर्ती की चर्या । 32 हजार मुकुटबद्ध राजा जिनके चरणों की सेवा करें और उनको किसी बात में मौज न आये, प्रसन्नता न आये । उनको प्रसन्नता मिली तो अपने धर्मपालन में आत्मस्वभाव के दर्शन में प्रसन्नता मिली । तो बड़े-बड़े पुरुषों के ऐसे चारित्र पढ़कर क्या खुद के प्रति, ऐसा ख्याल नहीं जगता किं अरे मैं कहां यहाँ की छोटी-छोटी बातों में विचलित होता रहता हूँ । तृष्णावश रात दिन जड़ पौद्गलिक चिंतन में ही रहा करता हूँ । अरे मेरे में बसा हुआ यह सहज परमात्मा मेरे को दृष्टिगत न हो और व्यर्थ बाह्य असार इन विभूतियों में ही अपना चित्त रमाऊँ यह कहां तक योग्य है? इस प्रकार का ख्याल न आयगा क्या? तो बताओ प्रथमानुयोग का स्वाध्याय उल्टी गैल बताता है या सीधी गैल में मददगार है? उल्टी गैल तो नहीं बताता सन्मार्ग में ही लगायगा । तो जो लोग थोड़ा सा भी बोलने लगते है, तत्त्व की गप्पें हांकने लगते हैं उन्हें यह स्वच्छंदता आती है कि प्रथमानुयोग का क्या पढ़ना? उसमें तो किस्सा कहानी है । पर जिसको आत्मकल्याण की धुन है । वह सब उपाय बनायगा कि मेरे आत्मा को सन्मार्ग ही मिले, कुमार्ग न मिले । तो जैसे किसी को मान लो अमेरिका जाना है तो पहले कुछ अमेरिका का वृत्तांत समझना, अमेरिका का चारित्र जानना, वहाँ कैसे गुजारा हो, वहाँ का भूगोल क्या है, जो लोग अमेरिका गये है उनका ध्यान होगा कि ये-ये लोग गए है, ये सब बातें उसके ध्यान में होंगी तब वह अमेरिका की यात्रा करता है । अगर ऐसी बात चित्त में न हो तो कैसे कोई यात्रा करे? ऐसे ही जिसे मोक्ष जाना है वह पहले जो मोक्ष गए है उनका चरित्र जानता है सामान्यरूप से कि इस तरह से निर्वाण हुआ है इन लोगो का तब ही वह खुद के निर्वाण के लिए स्पष्ट मार्ग समझ पायगा । इस कारण यह प्रथमानुयोग जिसमें महापुरुषों के चरित्र है इनका ज्ञान करना सम्यग्ज्ञान है । सम्यग्ज्ञान के चार अनुयोग बताये थे, उनमें यह प्रथमानुयोग का वर्णन है।