चारित्रपाहुड - गाथा 2: Difference between revisions
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Latest revision as of 11:55, 17 May 2021
णाणं दंसण सम्मं चारित्तं सोहिकारणं तेसिं ।
मुक्खाराहणहेउं चारित्तं पाहुडं वोच्छे ।।2।। युग्मम् ।
(1) चारित्रपाहुड ग्रंथ के मंगलाचरण में सर्वज्ञ अरहंतदेव को वंदन―यह चारित्रपाहुड नाम का ग्रंथ है, इसमें चारित्र की विधियां बतायी जायेगी । इस चारित्रपाहुड ग्रंथ से पहले मंगलाचरण किया है कि अरहंत परमेष्ठी को वंदना करके चारित्रपाहुड कहेंगे । ये अरहंत सर्वज्ञ हैं । तीन लोक तीन काल के समस्त पदार्थों के जाननहार हैं । चारित्रपाहुड जो कहा जायेगा सो सर्वज्ञ देव की वाणी की परंपरा से आया हुआ ही कहा जायेगा । इस बात का संकेत देने के लिए अरहंत की वंदना में सर्वप्रथम सर्वज्ञ शब्द कहा है, क्योंकि वाणी उसी की ही प्रामाणिक होती है जो सर्वज्ञ और वीतराग हो । यहाँ वीतराग विशेषण शब्द प्रथम कहा गया । ये दोनों ही मुख्य बनकर यह बात बतला रहे हैं कि जो वीतराग हो, सर्वज्ञ हो उसकी वाणी ही निर्दोष है और उस वाणी की परंपरा से चला आया व्याख्यान निर्दोष है । वह चारित्रपाहुड ग्रंथ ऐसा ही निर्दोष विषय है । जो समस्त पदार्थों को जाने उसे सर्वज्ञ कहते हैं । सर्वज्ञ और वीतराग इन दो में पहले वीतराग बनता है और बाद में सर्वज्ञ होता है । वीतराग हुए बिना सर्वज्ञ कोई नहीं हो सकता । राग रखते हुए एक-एक पदार्थ को क्रम से जान जानकर सब पदार्थों को कोई जान ले ऐसा कभी संभव नहीं है, किंतु सर्व राग छोड़कर केवल एक अविकार सहज चैतन्य स्वरूप का ही ध्यान रखे तो पहले वीतरागता प्रकट होती है और पश्चात् सर्वज्ञता होती है । यद्यपि वीतराग 12वें गुणस्थान में हो जाता, 11वें गुणस्थान में भी हो जाता है, पर असत्य वचन योग 12वें गुणस्थान तक बताया है, सत्य वचनयोग भी है, असत्य वचन योग भी है, तो यद्यपि यह असत्य वचन रागकृत नहीं किंतु अल्पज्ञता के कारण यह असत्य योग रहता है । तो सर्वज्ञ हुए बिना उस की वाणी प्रामाणिक नहीं और जो कुछ ग्रंथ में कहा जाये वह सर्वज्ञ की वाणी का परंपरा का हो तो वह निर्दोष होता है ।
(2) सर्वज्ञता के लाभ का साधन अविकार सर्वज्ञतास्वभाव का आश्रय―सर्वज्ञता केवल आत्मज्ञ बनने से होगी । सर्व पदार्थों को जानने का विकल्प रखकर सर्वज्ञता नहीं बन सकती । आत्मा का स्वरूप सर्वज्ञता का ही है । इस आत्मा का स्वभाव है प्रतिभास करना । किसका प्रतिभास? जो सत् है उस का प्रतिभास होना । चाहे वह सामने हो, चाहे पीठ पीछे हो या नीचे ऊपर ही, कहीं भी पदार्थ हो, जो पदार्थ है वह ज्ञान का विषय बनता है । तो इस समय चूँकि रागद्वेष के संस्कार में पला आया है, ज्ञानावरण कर्म का विपाक चला आया है तो यह ज्ञानस्वभाव कुछ तिरोहित हो गया । साधारण ज्ञान हो पाता है, पर जिस काल रागद्वेष का संस्कार मिट जायेगा । ज्ञानावरण कर्म का सत्व समाप्त हो जायेगा तो निरावरण होने से यही ज्ञान पूर्ण सर्वज्ञ हो जायेगा । अरहंत परमेष्ठी सर्वज्ञ हैं । इस मंगलाचरण में अरहंत परमेष्ठी का क्यों स्मरण किया है? इस कारण स्मरण किया कि उनका, स्मरण कराकर श्रोतावों को यहाँ विश्वास बनता है कि यह अरहंत परमेष्ठी के वचनों में से कहा जा रहा है, और यह चारित्रपाहुड प्रामाणिक ग्रंथ है । दूसरी बात जिसकी कृपा से, उपकार से उपकृत होकर ये आचार्य कुंदकुंददेव ऐसे ज्ञान का वैभव पा रहे हैं वह उपकारी प्रभु का विस्मरण कैसे कर सकेगा? तीसरी बात यह है कि भला कार्य करने के लिए किसी भले का स्मरण किया जाये तो उस कार्य में निर्विघ्नता रहती है । आत्मा में बल बढ़ता है । इन सब बातों से यहाँ अरहंत देव को नमस्कार किया गया है । ये प्रभु सर्वज्ञ हैं अर्थात् लोक के समस्त पदार्थों के जाननहार हैं । जानन किसे कहते हैं? जिस जानन का यहाँ जिक्र किया जा रहा है वह जानन यहाँ संसारी जीवों में नहीं पाया जा रहा है । यद्यपि जानन बिना कोई जीव है नहीं और जो कुछ भी विचार विकल्प बन रहे हैं वे सब ज्ञान में ही लद गए हैं । जानन न हो तो राग द्वेष भी कहां से बने? लेकिन विचार विकल्प वाला जानन शुद्ध जानन नहीं है । शुद्ध जानन में किसी पदार्थ विषयक विकल्प नहीं रहता । न उसके प्रति रागद्वेष रहता । वह कहलाता है शुद्ध जानन । तो जब आत्मा की स्थिति शुद्ध जानन की होती है तो वहाँ सर्वज्ञता प्रकट होती है । तो ये अरहंत प्रभु सर्वज्ञ हैं ।
(3) सर्वदर्शी अरहंतदेव को वंदन―अरहंत भगवान सर्वदर्शी हैं, सबको देखने वाले हैं । यहाँ देखने का मतलब आँखों से देखना नहीं है, किंतु सर्व पदार्थों का सामान्य प्रतिभास करने वाला । अब सर्व पदार्थों का सामान्य प्रतिभास किस विधि से होता है इस पर विचार करना? यदि पदार्थों की ओर ही आकर्षित होकर इन पदार्थों को ही देखकर निहार कर इनके बारे में प्रतिभास करे कोई तो वह प्रतिभास तो विशेष हो जायेगा सामान्य न रहेगा । तो सर्व पदार्थों का सामान्य प्रतिभास किस ढंग से होता है प्रभु में । वह प्रभु ने समस्त पदार्थों को जाना और सर्व पदार्थों के जाननहार अपने आत्मा का प्रतिभास किया तो उस प्रतिभास में सारे पदार्थों का प्रतिभास आ गया । जैसे कोई दर्पण में ही निहारकर सर्व चीजों का प्रतिभास कर लेता है कि इतने लड़के खड़े, भींत पर ये चीजें टंगी, एक तो यह ढंग है सब चीजों का प्रतिभास होने का और एक यह ढंग है कि मुड़कर देख लिया कि कौन-कौन लोग बैठे-हैं और कौन-कौन खड़े हैं, तथा भींत पर क्या-क्या चीजें टंगी हैं । तो जैसे उन्हीं चीजों का प्रतिभास करने के दो ढंग हैं कि सीधे उन्हीं चीजों का प्रतिभास कर किया या दर्पण को ही निरख ले जिसमें कि सब चीजों का फोटो आया है तो इस तरह से यहाँ भी समझिये प्रतिभास करने की दो विधियाँ हैं । एक तो समस्त पदार्थों का सीधा ही प्रतिभास करे और एक समस्त पदार्थ जिस आत्मा में प्रतिभासित हो रहे हैं ऐसे प्रतिभासित हो रहे इस धाम को प्रतिभासित कर लें, एक यों सबका प्रतिभास है । तो सबके जाननहार आत्मा का प्रतिभास करना यह तो हुआ दर्शन और सीधा ज्ञान के विषय में जानन हो रहा, यह हुआ ज्ञान । ऐसा ज्ञान दर्शन युगपत हो रहा सो केवल प्रभु के होता है । छद्मस्थों के दर्शन की विधि कुछ और बन जाती है । बिल्कुल अलग नहीं बनती किंतु निकटता लिए हुए है । जैसे भिन्न-भिन्न पदार्थों का ज्ञान किया जा रहा तो ज्ञान से तुरंत पहले उस ज्ञान के लिए उद्यम रूप जो प्रतिभास है वह दर्शन होता है । तो ये प्रभु सर्वदर्शी हैं ।
(4) निर्मोह प्रभु को वंदन―प्रभु को नमस्कार करके चारित्रपाहुड ग्रंथ कहा जा रहा, उन अरहंत प्रभु की विशेषता बतला रहे । ये प्रभु निर्मोह हैं, इनके दर्शन मोह नहीं है । दर्शन मोह तो बहुत ही पहले नष्ट हो गया था । क्षायिक सम्यक्त्व होते समय ही दर्शन मोह नष्ट था । उसके बाद चारित्रमोह का विनाश हुआ । सर्व मोह से रहित हुए, पर निर्मोह शब्द कहने से उस दर्शनमोह से रहितपने की याद दिलायी गई है प्रभु निर्मोह है, प्रभु वीतराग हैं, चारित्रमोह से अलग हैं । यह बात चौथे विशेषण में कही जायेगी । तो जब रागरहितपने की बात अलग विशेषण में कही गई है तो निर्मोह शब्द से यह बात विशेषतया लेना कि वह दर्शनमोह से रहित है । दर्शनमोह मायने सम्यग्दर्शन न होने दे, ऐसी बेसुधी रखना, बेहोशी का नाम है मोह । राग और मोह में यही तो अंतर है । प्रीति करने का नाम हैं राग और बेहोश हो जाने का नाम है मोह । मोह में भी राग चलता है;, पर अपने आपकी ओर से बेहोश होकर राग चलता है तो वहाँ मोह और राग दोनों ही एक साथ बन रहे हैं । मोह का अर्थ है बेहोशी । दर्शनमोह―अरहंतदेव दर्शनमोह से रहित हैं । जिसके दर्शनमोह है आत्मा की सुध नहीं है वह पुरुष राजा भी हो, धनिक भी हो तो भी गरीब है, आकुलतावान है । संसार में रुलने वाला, दरिद्र है । धनी था राजा को देखकर जो ईर्ष्या रखता कि ऐसा मैं क्यों न हुआ यह क्यों आगे बढ़ गया, वह ईर्ष्या रखने वाला भी गरीब है । जो दूसरे की दरिद्रता को नहीं पहिचान सकता और उस ही दरिद्रता में जो कुछ ऊपरी तड़क भड़क है उस पर आकर्षित हो गया तो वह ईर्ष्या करने वाला भी गरीब है । क्यों नहीं अपने आपके अनंत वैभव को निरखा जा रहा? ये बाहरी वैभव क्या इस जीव के साथ जायेंगे जो उनकी ओर इतना अधिक आकर्षित होते हैं । जो अपने स्वरूप में तृप्त नहीं हो सकता वह क्या बाहरी चीजों के समागम से तृप्त हो जायेगा? कभी भी संभव नहीं, लेकिन यह मोही जीव ऐसी ही बेसुधी रखता है कि इसको अपने आत्मीय अनंत वैभव की तो सुध नहीं रहती और बाह्य तड़क-भड़क की ओर यह आकर्षण कराता है । प्रभु इस मोह से कभी के ही दूर हो गए थे । प्रभु निर्मोह हैं ।
(5) वीतराग प्रभु को वंदन―अरहंतदेव वीतराग हैं । वीतरागपना अरहंत होते से अंतर्मुहूर्त पहले हो जाता है, और उस वीतरागता के ही तपश्चरण का यह प्रभाव है कि ज्ञानावरणादिक ये सब आवरण एकदम विलय को प्राप्त हो जाते हैं । और ये सर्वज्ञ हो जाते हैं, अरहंत हो जाते हैं । तो अरहंत प्रभु वीतराग हैं, रागद्वेष से रहित हैं । वीतरागता 10वें गुणस्थान के अंत में आयी या यह कहो कि 11वें 12वें के आदि में आयी । 10वें गुणस्थान तक राग है, उसके अंत में राग नहीं । 10वें गुणस्थान का अंत, 11वें या 12वें गुणस्थान का आदि समय, यह एक ही बात है । जैसे कोई किसी अपने मित्र को पास की नहर तक पहुंचाने गया, उससे पूछा जाये कि बताओ तुम्हारा उस मित्र से वियोग कहां हुआ? तो वह कहता है कि नहर पर हुआ ।....अरे नहर पर वियोग कैसे हुआ, वहां पर तो एक साथ थे । तो भाई जहाँ एक साथ थे वहीं का वियोग कहा पर संयोग का जो आखिरी समय है उसमें वियोग का उपचार किया है । वास्तविक वियोग तो उसके आगे है । तो राग का वियोग, राग का अभाव 11वें और 12वें गुणस्थान के आदि में है । ये प्रभु वीतराग हैं । वीतरागता होना एक बहुत प्रमाणिकता का प्रमाण है और वीतरागता के ही कारण सर्वज्ञता होती तब वह पूर्ण प्रमाणरूप है ।
(6) त्रिजगद᳭न्द्य अरहंत परमेष्ठी को वंदन―अरहंत परमेष्ठी तीनों जगत के द्वारा वंदनीय हैं । ये भव्य जीवों के द्वारा पूज्य हैं । प्रभु तीनों लोक के द्वारा वंदनीक कैसे ? तो अधोलोक में सप्तम नरक के नारकी भी सम्यग्दृष्टि हो सकते हैं । जो सम्यग्दृष्टि होते हैं उनके भावों में पूर्ण आत्मविकास वांछनीय है । प्रभु भी पूर्ण आत्मविकास है । लो सप्तम नरक के नारकी के द्वारा भी यह आत्मविकास वंदनीय हुआ । ऊर्द्धलोक में सर्वोपरि सिद्ध के द्वारा सम्यग्दृष्टि ही होते । अनुत्तर विमानवासी और अनुदिश विमानवासी सर्व अहमिंद्र सम्यग्दृष्टि ही होते । उसके नीचे भी अनेक सम्यग्दृष्टि हैं । सम्यग्दृष्टि पूर्ण आत्मविकास का आदर करते हैं, तो उनके द्वारा भी वंदनीय हुए । मध्य लोक के मनुष्य सम्यग्दृष्टि ज्ञानी तो परमात्मा की वंदना करते ही हैं । अब सम्मुख वंदना की बात देखिये । तो अरहंत भगवान वीतराग हैं और इसी कारण वे सर्वज्ञ हुए और इस ही कारण वे मोक्ष भी पधारे । उनकी तीनों जगत के देव सन्मुख वंदना करते हैं । भवनवासी और व्यंतर जाति के देव अधोलोक में रहते हैं । इस पहली पृथ्वी के नीचे तीन हिस्से हैं, जिनमें ऊपर के दो हिस्सों में भवनवासी और व्यंतर रहते हैं । यह मध्य लोक से नीचे है । मध्यलोक तो मेरू पर्वत की जड़ तक माना गया । इसके नीचे अधोलोक है । वहाँ से देव और इंद्र मध्य लोक में अरहंत प्रभु की वंदना करते हैं । तो जहाँ अधोलोक के इंद्रों ने, राजाओं ने, सन्मुख आकर वंदना की तो यह समझ लीजिए कि अधोलोक के सब जीवों के द्वारा वंदना हो गई । राजा जिसको अपना समर्पण कर दे तो वह प्रजा का भी समर्पण कहा जाता है । मध्य लोक के जीव तो साक्षात् वंदना का लाभ लेते ही हैं, ऊर्द्ध लोक के भी देवेंद्र आकर यहाँ अरहंत की वंदना करते हैं तो यों तीनों जगत के द्वारा अरहंत प्रभु वंदनीक हैं । इसमें 5वां विशेषण दिया है―परमेष्ठी, जो परम पद में स्थित हो, परम मायने उत्कृष्ट । सर्वोत्कृष्ट पद क्या है आत्मा का? जैसा आत्मा का सहज स्वरूप है वैसा ही प्रकट हो जाना यह है जीव का परम पद । ऐसे पद में स्थित ये परमेष्ठी हैं जिनको कहा गया है कि ये तीनों जगत के द्वारा वंदनीय हैं । परम पद तो एक ही होता है, मगर उस परम पद में चलने के लिए जो पौरुष कर रहे हैं और कुछ-कुछ सफल भी हुए हैं, ऐसे मुनियों को भी परम पद में स्थित कहा जाता है, पर वस्तुत: परमेष्ठी तो अरहंत और सिद्ध हैं, वे परम पद के ध्येय में चल रहे हैं इसलिए अपूर्ण में पूर्ण का उपचार करके उन्हें भी परमेष्ठी कहते हैं । पर ये तो साक्षात् परमेष्ठी हैं, आत्मा के उत्कृष्ट विकास में मौजूद हैं, ऐसे अरहंत प्रभु की इसमें वंदना की गई है ।
(7) चार घातियाकर्म से रहित अरहंतदेव को वंदन करके चारित्रपाहुड की रचना का प्रतिज्ञापन―अरहंत मायने चार घातिया कर्मों से रहित, यह अर्थ अरहंत शब्द से भी निकल बैठता । अ मायने अरि, इन 8 कर्मों में प्रधान शत्रु कौन? मोहनीय और र मायने रज और रहस्य । रज कहते हैं धुल को, आवरण को । तो रज मायने ज्ञानावरण और दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय, इन चार कर्मों से रहित आत्मा को कहते हैं अरहंत । अरहंत शब्द बना है अर्ह धातु से, जिसका अथ है पूजा, तो जो उत्कृष्ट पूज्य हैं उन्हें कहते हैं अरहंत । तो अरहंत प्रभु को वंदन करके चारित्रपाहुड ग्रंथ कहेंगे । जो चारित्रपाहुड ग्रंथ कहा जायगा उसमें चारित्र की विधिका, चारित्र की विशेषता व्यवहार और अंतरंग चारित्र के स्वरूप इन सब बातों का वर्णन न होगा ।
(8) चारित्र का मौलिक स्वरूप और चारित्र का प्रभाव―यहाँ संक्षेप में यह जान ले कि चारित्र का मूल स्वरूप क्या है ? आत्मा में दर्शन और ज्ञान ये दो गुण हैं और ये उपयोग वाले हैं, ‘उपयोगों लक्षणं’ कहा ही है । ज्ञान का अर्थ है जानना । ज्ञप्ति, आत्मा के अंतरंग में प्रदेशों में जो वृत्ति जग रही है उस वृत्ति को निरखकर ज्ञान का स्वरूप समझना । उसमें बाह्य पदार्थ विषय होते हैं । मगर बाह्य पदार्थों का रिश्ता रखकर नहीं समझना, किंतु आत्मा में क्या गुजरता है उस समय ऐसी दृष्टि रखकर समझना । ज्ञान है विशेष प्रतिभास और दर्शन है सामान्य प्रतिभास और चारित्र है ज्ञान और दर्शन । ये स्थिर हो जायें, यह है चारित्र का मूल स्वरूप । भट्ट अकलंक देव ने ‘स्वरूप संबोधन’ में बताया है कि यह स्थिरता से ज्ञाता दृष्टा रहें यह चारित्र कहलाता है । चारित्र का परिचय कराने वाला सुगम बाह्य रूप यह ही तो है कि विकल्प रागद्वेष न हों । रागद्वेष का अभाव करना चारित्र है । पर यह तो अभावरूप से वर्णन हुआ । कोई भी चीज विधिरूप तो होती है । विधि हुए बिना अभाव क्या? अभाव मात्र कोई वस्तु नहीं । अगर रागद्वेष के अभाव का ही नाम चारित्र है और वहाँ विधिरूप कुछ वृत्ति नहीं चारित्र की, तो इस पुद्गल में भी रागद्वेष का अभाव तो है ही । किमी आत्मा में रागद्वेष है तो क्या यहाँ चारित्र कहलायेगा? मुख्य तो विधि होती है । जिसको निरखा जाता है, तो विधिरूप चारित्र क्या है? ज्ञान और दर्शन गुण स्थिरता से अपनी वृत्ति कर रहे, इस कला को चारित्र कहते हैं । सो यह चारित्र का परिपूर्ण रूप है किंतु सामान्यतया यह समझना कि रत्नत्रय तीन हैं―सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र । सो यह चारित्र इन तीन की विशुद्धि का कारण है । चारित्र के होने से सम्यग्दर्शन भी निर्मल चलेगा, सम्यग्दर्शन हो गया पर उसमें और विशेषता चारित्र के कारण आती है । परिपूर्ण होकर भी कोई बात एक सही सम्हालकर रखना, उसमें कोई दोष न आ जाय, ये विशेषतायें चारित्र के प्रभाव से बनती हैं । चारित्र ने सम्यक्त्व को नहीं बनाया मगर यह प्रभाव है, तब ही तो आत्मानुशासन में सम्यक्त्व के दस भेदों में अवगाह परम अवगाह भी सम्यग्दर्शन के प्रकार बताया है । ज्ञान में निर्दोषता भी चारित्र से होती और चारित्र का तो नाम ही है । तो इन सबकी निर्दोषता का कारण मुख्य आराधना का हेतुभूत इस चारित्रपाहुड ग्रंथ में अब कहा जायेगा ।