चारित्रपाहुड - गाथा 40: Difference between revisions
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Latest revision as of 11:55, 17 May 2021
दसणणाणचरित्तं तिण्ण वि जाणेह परमसद्धाए ।
जं जाणिऊण जोइ अइरेण लहंति णिव्वाणं ।।40।।
दर्शन ज्ञान चारित्र इन तीनों को परम श्रद्धा से जाना और ऐसी श्रद्धा से जाना, ऐसा एक तान होकर जाना कि वहाँं विकल्प दूर हो जायें और यह मात्र ज्ञानस्वरूप रहे, इस विधि से जो उन तीनों को जानता है वह योगी यथा शीघ्र निर्वाण को प्राप्त करता है अपने अंदर यह मैं आत्मा एक पदार्थ हूँ । एक वह कहलाता है कि जिसके खंड न बनें । भले ही कुछ लोग कहते हैं कि आधा या पाव । आधा या पाव कोई वस्तु नहीं होती । कई चीजों के समूह को एक मान रखा है, इस दृष्टि से वे आधा या पाव कहते हैं । जैसे आधा किलो कहा तो उसकी दृष्टि में क्या एक किलो पदार्थ नहीं है? अरे 1 हजार ग्राम (एक किलो) उसकी दृष्टि में है तब वह आधा व पात्र बोल सका । अगर एक को अभेद रूप से निरखता तो आधा कह ही न सकता था । जैसे आधा रुपया । उसकी निगाह में रुपया अभेद रूप नहीं है किंतु उसमें 100 पैसे मान रखा है सो कहने को तो कहा है रुपया मगर अर्थ उसका यह है कि 100 का आधा । यदि कोई वस्तु एक है तो वह अखंड ही होती है । और यदि उसके खंड होते हैं तो उसको एक न समझना । जैसे कागज काठ, इनके टुकड़े करके जाना तो पाटिया के दो टुकड़े कर दो । दो टुकड़े हो गए तो वस्तुत: वह एक चीज नहीं है । अनंत परमाणुवों का वह पिंड है और उसमें इसने अपने मनोरथ के माफिक जैसा कि सोच रखा है किसी काम के लिए उसे हम एक कह देते हैं । जो वास्तव में एक पदार्थ है उसका कभी खंड नहीं होता । वास्तव में एक पदार्थ है परमाणु, सो परमाणु का कभी खंड नहीं होता, आधा परमाणु न होता । ये दिखने वाले सब स्कंध है, अनंत परमाणुओं का पिंड है, इससे इसका आधा हो जाता, सो आधा के मायने यह है कि वे पूरे-पूरे पदार्थ अनंत थे, सो कुछ पूरे पदार्थ एक ओर हो गए, कुछ पूरे पदार्थ एक ओर हो गए, तो यह मैं आत्मा एक हूँ, अखंड हूँ, तो इसका जो भी परिणमन होगा वह एक ही होगा । हूँ मैं और किसी एक अवस्था में आ गया । तो वस्तुत: परिणमन अखंड और वस्तु भी अखंड । मैं अखंड हूँ और मेरी प्रति क्षण में जो-जो भी पर्यायें होती हैं वे भी अखंड-अखंड होती हैं । अब इतना कहने से तो कुछ समझ में आया नहीं, तो इस अखंड वस्तु की समझ बनाने के लिए व्यवहार से खंड करके समझाना पड़ता है । मैं आत्मा अखंड हूँ । आत्मा अखंड है इस बात से अज्ञानी जन कुछ समझ नहीं पाते तो उनके गुण भेद करके समझाया जाता है । जिसमें ज्ञान हो वह आत्मा, जिसमें श्रद्धान हो वह आत्मा, जिसमें चारित्र हो वह आत्मा । तो ज्ञान, श्रद्धान और चारित्र एक अखंड आत्मा की तारीफ है । कहीं वे तीन भिन्न-भिन्न वस्तु नहीं हैं । तो जैसे एक अखंड आत्मा को समझाने के लिए गुणभेद बनाया, बताया तो अखंड जो एक परिणाम है, पर्याय है उसको समझाने के लिए भी गुणानुसार पर्यायभेद बताकर श्रद्धा जाना है । जैसा जो यह नाना प्रकार का जानन चल रहा है यह ज्ञानगुण की पर्याय है और जो किसी वस्तु में हितरूप से ज्ञान करके धारण करने की वृत्ति है वह श्रद्धा गुण की पर्याय है और जो रम जानें की परिणति है वह चारित्र गुण की पर्याय है । तो मोक्षमार्ग भी एक परिणाम है । जो भी स्वच्छता है वही मोक्षमार्ग है । अब उसको स्पष्ट रूप से कैसे समझा जायेगा? तो इसके लिए व्यवहार से भेद करके समझाया जाता है, और मोक्ष के लिए उपाय कैसे बन सके यह भी समझाने के लिए भेद करके बताया जाता है, तो वही भेद हुए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र । सो इन तीनों को परम श्रद्धा से जाने, उसको जानकर यह जीव शीघ्र मोक्ष को प्राप्त करता है । परम श्रद्धा से जानने का भाव क्या है कि ऐसी लीनता के साथ जाना कि वह अभेद परिणाम बने और मात्र एक ज्ञानस्वरूप का ही अनुभव रहे, यह है मोक्षमार्ग । सब चीजों को एक ज्ञान के रूप में निहारने की कला आ जाना यह मुमुक्षु के लिए बहुत बड़ा आलंबन है । जैसे सुख क्या? ज्ञान का इस प्रकार परिणमन होना, इस ढंग से जानना कि यह चीज मेरे लिए बड़ी सुखकारी है, इससे मेरे को बड़ा आनंद है । इसके रहने से मैं सनाथ हूँ, अच्छा हूँ, इस ढंग से को ज्ञान का परिणमन है वही तो सुख है । और दुःख भी क्या है? मेरा बड़ा प्यारा था, वियोग हो गया अथवा इतना धन कम हो गया, अभेद रूप से जो ज्ञान का परिणमना है वही दुःख है । तो मिथ्यादर्शन क्या है कि जगत के पदार्थों को एक दूसरे का संबंधी मानन के ढंग से जानना यह मिथ्यादर्शन है । तो इस तरह से देखें तो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र भी एक आत्मा का ही नाम हैं । वह ज्ञानस्वरूप है । तो सम्यग्दर्शन क्या कि जीवादिक प्रयोजनभूत तत्त्वों को यथार्थता की श्रद्धा सहित जानना सो सम्यग्दर्शन है । सम्यग्ज्ञान क्या है? इस ज्ञानगुण का पदार्थों के यथार्थ जानन रूप से परिणमन सम्यग्ज्ञान है और सम्यक्चारित्र क्या? ज्ञान तो ज्ञान हीं है । वह ज्ञान ज्ञानमात्र ही रहे, अपने रागादिक के परिहार के स्वभाव से उस ज्ञान का परिणमन रहे, यह है सम्यक्चारित्र । तो इन तीनों को परम श्रद्धा से जानो, एक ज्ञानमात्र के रूप से ध्यान करा, उस रूप अपन का अनुभवा तो इन उपायों से योगीजन जो ध्यान करते हैं वे शीघ्र ही निर्वाण को प्राप्त होते हैं ।