चारित्रपाहुड - गाथा 9: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
||
Line 9: | Line 9: | ||
[[ वर्णीजी-प्रवचन:चारित्रपाहुड - गाथा 10 | अगला पृष्ठ ]] | [[ वर्णीजी-प्रवचन:चारित्रपाहुड - गाथा 10 | अगला पृष्ठ ]] | ||
[[वर्णीजी-प्रवचन:क्षु. मनोहर वर्णी - चारित्रपाहुड प्रवचन | अनुक्रमणिका ]] | [[वर्णीजी-प्रवचन:क्षु. मनोहर वर्णी - चारित्रपाहुड प्रवचन अनुक्रमणिका | अनुक्रमणिका ]] | ||
</noinclude> | </noinclude> | ||
[[Category: चारित्रपाहुड]] | [[Category: चारित्रपाहुड]] | ||
[[Category: प्रवचन]] | [[Category: प्रवचन]] |
Latest revision as of 11:55, 17 May 2021
सम्मत्तचरणसुद्धा संजमचरणस्स जइ व सुपसिद्धा ।
णाणी अमूढ़दिट्ठी अचिरे पावंति णिव्वाणं ।।9।।
(37) सम्यक्त्वाचरण चारित्र की महिमा―जों ज्ञानी पुरुष सम्यक्त्वाचरण से शुद्ध हुए है और संयमाचरण चारित्र से भले प्रकार सिद्ध होते हैं ऐसे ज्ञानी निर्मोह दृष्टि वाले पुरुष यथाशीघ्र निर्वाण को प्राप्त करते हैं । पहले तो पदार्थ का यथार्थ ज्ञान होना चाहिए, जिसमें मोह न हो, विशुद्ध सम्यग्दृष्टि हो, फिर सम्यक्चारित्ररूप संयम का आचरण करे वह मोक्ष को प्राप्त होता है । सम्यक्त्वाचरण से तो मार्गदर्शन हुआ और उस मार्ग की ओर अभिमुखता हुई, बस संयमाचरण चारित्र होने से एकाग्र धर्मध्यान का अतिशय बनता है । धर्मध्यान की पूर्णता इस सप्तम गुणस्थान में बनती है । वहाँ एकाग्र ध्यान होता है, उसके बल से सातिशय अप्रमत्त गुणस्थान बनता है । अप्रमत्तविरत इस प्रकार का है स्वस्थान और सातिशय । स्वस्थान अप्रमत्त विरत 7वें गुणस्थान से आगे नहीं वढ पाता, छठवें में आता और छठवें 7वें का थोड़ा ही काल है सो झूले की तरह छठे 7वे में मुनि के परिणाम चलते रहते हैं । किसी समय सातिशय धर्मध्यान जगे तो सातिशय अप्रमत्तविरत गुणस्थान बनता है । तो गुणस्थान में चारित्रमोह का विध्वंस करने के लिए अध:करण परिणाम होता है । क्षपक श्रेणी पर चढ़ने वाले जीव के अध:करण सातिशय अप्रमत्त विरत में हुआ, फिर अपूर्वकरण 8वाँ गुणस्थान हुआ जिसमें परिणामों की विशुद्धि अनंतगुणी बढ़ती जाती है । पूर्व बांधो हुई स्थिति का बंध होता है । अनुभाग भी बहुत नष्ट होता है, असंख्यात गुणी प्रदेश निर्जरा होती है । और अनेक पाप प्रकृतियों पुण्यरूप हो जाया करती हैं । अपूर्वकरण के बाद अनवृत्तिकरण गुणस्थान होता है । वहाँ बहुत विशुद्ध परिणाम होने के कारण चारित्रमोह की 20 प्रकृतियों का विध्वंस हो जाता है । अब तक यद्यपि अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण आदिक ये 8 प्रकृतियां उदय में नहीं चल रही थीं, पर सत्ता में मौजूद थीं, और संज्वलन की तीन प्रकृतियां उदय में भी चल रही थीं । क्षपकश्रेणी में चढ़ने वाले जीव के अनंतानुबंधी की सत्ता ही नहीं । यों अप्रत्याख्यानावरण आदिक 8 प्रकृतियाँ सत्ता में हैं और हास्यादिक 9 प्रकृतियाँ भी सत्ता में हैं और संज्वलन क्रोध, मान, माया, ये इस तरह 20 प्रकृतियाँ क्षीण हो जाती हैं । तो यह सब एक संयमाचरण के अतिशय का प्रभाव है, फिर अंतर्मुहूर्त में ही केवल ज्ञान उत्पन्न होता हे । 10वें और 12वें गुणस्थान में क्षय के बाद वहाँ अरहंत अवस्था मिलती है और अरहंत अवस्था में यह जीव अपनी आयु प्रमाण रहता है । केवल सूक्ष्म अंतर्मुहूर्त जब बाकी होता है 14वाँ गुणस्थान होकर अघातिया कर्मों से दूर होकर मोक्षपद प्राप्त करता है । तो मूल में यह सब सम्यक्त्वाचरण चारित्र का माहात्म्य है । जब कि बल से बढ़-बढ़कर संयमाचरण प्राप्त हुआ और उत्तरोत्तर ध्यान की विशेषता होती गई और परमात्मपद प्राप्त किया । सम्यक्त्व से जो भ्रष्ट है वे संयम का भी आचरण करें तब भी मोक्ष न प्राप्त कर सकेंगे । इस तरह सम्यक्त्वाचरण की यहाँ प्रधानता बताई गई है ।