समयसार - गाथा 336: Difference between revisions
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<div class="PravachanText"> | <div class="PravachanText"><p><strong>पुरिसित्थियाहिलासी इत्थीकम्मं च पुरिसमहिलसदि।एसा आयरियपरंपरागदा एरिसी दु सुदी।।336।।</strong> </p> | ||
पुरिसित्थियाहिलासी इत्थीकम्मं च | <p><strong>मैथुन भाव की कर्मकृतता का पक्ष</strong>―आचार्यों की परिपाटी से चले आए हुए आगम में लिखा है कि पुरूष वेद नामक कर्म स्त्री की अभिलाषा करते हैं और स्त्री वेद नामक कर्म पुरूष को चाहता है। इससे इतने उपदेश में तो यह आया कि कोई भी जीव व्यभिचारी नहीं है, कर्म ने ही स्त्री को चाहा, कर्म ने ही पुरूष को चाहा, कर्म ही तो सब अभिलाषा किया करते हैं। अब दोनों कहां उतर रहे है ये शंकाकार। एक कथानक में आया है कि एक ब्रह्म एकांतवादी किसी महिला को पढ़ाया करते थे। तो पढ़ाते-पढ़ाते कुछ समय बाद उसने कुछ स्पर्श किया। सो वह क्या कहती है कि क्या कर रहे हो। पाठक बोला हम परीक्षा कर रहे हैं। स्त्री ने एक तमाचा दिया। कहा तेरी वह परीक्षा है तो हमने तेरी परीक्षा करली । यहां सांख्य सिद्धांती कह रहा है कि देखो तुम्हारे आगम में कहा गया है ना पुरूष वेद नामक कर्म किसे कहते हैं जो स्त्री की अभिलाषा उत्पन्न करे। तो स्त्री को चाहने वाला कौन हुआ ? कर्म। और पुरूष को चाहने वाला कौन हुआ ? कर्म। तब फिर जीव कोई अब्रह्मचारी ही नहीं। </p> | ||
<p><strong>मैथुन भाव की कर्मकृतता पर आपत्ति</strong>―ये शब्द कुछ समाधान रूप भी हैं और शंका रूप भी है। समाधान रूप तो यों हैं कि फिर ऐसी आपत्ति आ जाय कि ये मनचले जीव फिर कोई अब्रह्मचारी ही न रहेंगे। चीज क्या चल रही है उसको न पकड़ोगे तो प्रकरण समझ में न आयगा। कर्म निमित्त है इसका खंडन रंच नहीं है। पुरूष वेद नामक कर्म के उदय का निमित्त पाकर जीव अपने में स्त्री की अभिलाषा रूप परिणमन करता है पर शंकाकार का तो यह मंतव्य है कि जीव तो अपरिणामी ही है और जो कुछ करते हैं वे सब कर्म करते हैं। </p> | |||
<p><strong>देह की अपवित्रता और व्यामोही का व्यामोह</strong>―भैया ! जगत में दु:ख केवल खोटे परिणामों का है। जीवों को क्लेश और कुछ नहीं लगा है। खोटे परिणामों का ही क्लेश है। देखो इस प्रसंग में शरीर भी अच्छा मिला है मनुष्य का सबसे ऊँचा अंग माना गया है, यह मस्तक, यह गोलमटोल कदुआ सा जो रखा है, यह सबसे ऊँचा माना गया है और सबसे ज्यादा मैल इतने ही अंग में भरे हैं। कान का कनेऊ आँख का कीचड़, नाक की नाक, मुँह का थूक, कंठ का कफ, खून, मांस मज्जा ये सब इसमें भरे हैं। और जरा सा कोई फोड़ा फुन्सी हो जाय तो भीतर की पोल सामने आ जाती है। पीव निकले, खून निकले, और मैल निकले। अभी थोड़ा सा पसीना आ जाय तो यह पसीना ही रूचिकर नहीं होता है। ऐसी अपवित्र चीजें शुरू से ऊपर तक इस शरीर में भरी हुई हैं। जिस पर जरा सी चाम चादर मढ़ी है और उस पर कुछ रंग बिरंग आ गये हैं इतने ही मात्र से यह सारी अपवित्रता ढकी हुई है, जिसे शरीर के भीतर की अशुचि का पता हैं उन्हें शरीर को देखकर रति नहीं होती है और जो मोही पुरूष हैं वे अंदर के अपवित्र अशुचि पदार्थों पर दृष्टि ही नहीं रखते। यह जीव खुद विभाव परिणत होकर व्यभिचारी बनता है, दुष्ट बनता है किंतु इस ऐब को न मान कर जो यह कथन है कि पुरूष वेदनामक कर्म स्त्री की अभिलाषा करता है और स्त्री वेदनामक कर्म पुरूष की अभिलाषा करता है सो इसमें शंकाकार क्या निश्चय करता है।</p> | |||
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Latest revision as of 12:32, 20 September 2021
पुरिसित्थियाहिलासी इत्थीकम्मं च पुरिसमहिलसदि।एसा आयरियपरंपरागदा एरिसी दु सुदी।।336।।
मैथुन भाव की कर्मकृतता का पक्ष―आचार्यों की परिपाटी से चले आए हुए आगम में लिखा है कि पुरूष वेद नामक कर्म स्त्री की अभिलाषा करते हैं और स्त्री वेद नामक कर्म पुरूष को चाहता है। इससे इतने उपदेश में तो यह आया कि कोई भी जीव व्यभिचारी नहीं है, कर्म ने ही स्त्री को चाहा, कर्म ने ही पुरूष को चाहा, कर्म ही तो सब अभिलाषा किया करते हैं। अब दोनों कहां उतर रहे है ये शंकाकार। एक कथानक में आया है कि एक ब्रह्म एकांतवादी किसी महिला को पढ़ाया करते थे। तो पढ़ाते-पढ़ाते कुछ समय बाद उसने कुछ स्पर्श किया। सो वह क्या कहती है कि क्या कर रहे हो। पाठक बोला हम परीक्षा कर रहे हैं। स्त्री ने एक तमाचा दिया। कहा तेरी वह परीक्षा है तो हमने तेरी परीक्षा करली । यहां सांख्य सिद्धांती कह रहा है कि देखो तुम्हारे आगम में कहा गया है ना पुरूष वेद नामक कर्म किसे कहते हैं जो स्त्री की अभिलाषा उत्पन्न करे। तो स्त्री को चाहने वाला कौन हुआ ? कर्म। और पुरूष को चाहने वाला कौन हुआ ? कर्म। तब फिर जीव कोई अब्रह्मचारी ही नहीं।
मैथुन भाव की कर्मकृतता पर आपत्ति―ये शब्द कुछ समाधान रूप भी हैं और शंका रूप भी है। समाधान रूप तो यों हैं कि फिर ऐसी आपत्ति आ जाय कि ये मनचले जीव फिर कोई अब्रह्मचारी ही न रहेंगे। चीज क्या चल रही है उसको न पकड़ोगे तो प्रकरण समझ में न आयगा। कर्म निमित्त है इसका खंडन रंच नहीं है। पुरूष वेद नामक कर्म के उदय का निमित्त पाकर जीव अपने में स्त्री की अभिलाषा रूप परिणमन करता है पर शंकाकार का तो यह मंतव्य है कि जीव तो अपरिणामी ही है और जो कुछ करते हैं वे सब कर्म करते हैं।
देह की अपवित्रता और व्यामोही का व्यामोह―भैया ! जगत में दु:ख केवल खोटे परिणामों का है। जीवों को क्लेश और कुछ नहीं लगा है। खोटे परिणामों का ही क्लेश है। देखो इस प्रसंग में शरीर भी अच्छा मिला है मनुष्य का सबसे ऊँचा अंग माना गया है, यह मस्तक, यह गोलमटोल कदुआ सा जो रखा है, यह सबसे ऊँचा माना गया है और सबसे ज्यादा मैल इतने ही अंग में भरे हैं। कान का कनेऊ आँख का कीचड़, नाक की नाक, मुँह का थूक, कंठ का कफ, खून, मांस मज्जा ये सब इसमें भरे हैं। और जरा सा कोई फोड़ा फुन्सी हो जाय तो भीतर की पोल सामने आ जाती है। पीव निकले, खून निकले, और मैल निकले। अभी थोड़ा सा पसीना आ जाय तो यह पसीना ही रूचिकर नहीं होता है। ऐसी अपवित्र चीजें शुरू से ऊपर तक इस शरीर में भरी हुई हैं। जिस पर जरा सी चाम चादर मढ़ी है और उस पर कुछ रंग बिरंग आ गये हैं इतने ही मात्र से यह सारी अपवित्रता ढकी हुई है, जिसे शरीर के भीतर की अशुचि का पता हैं उन्हें शरीर को देखकर रति नहीं होती है और जो मोही पुरूष हैं वे अंदर के अपवित्र अशुचि पदार्थों पर दृष्टि ही नहीं रखते। यह जीव खुद विभाव परिणत होकर व्यभिचारी बनता है, दुष्ट बनता है किंतु इस ऐब को न मान कर जो यह कथन है कि पुरूष वेदनामक कर्म स्त्री की अभिलाषा करता है और स्त्री वेदनामक कर्म पुरूष की अभिलाषा करता है सो इसमें शंकाकार क्या निश्चय करता है।