समयसार - गाथा 338: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
||
Line 1: | Line 1: | ||
<div class="PravachanText">जम्हा घादेदि परं परेण घादिज्जदे य सा | <div class="PravachanText"><p><strong>जम्हा घादेदि परं परेण घादिज्जदे य सा पयडी।एदेणत्थेण किर भण्णदि परघादणामेत्ति।।338।।</strong> </p> | ||
<p><strong>हिंसा की कर्मकृतता का पक्ष</strong>―शंकाकार कह रहा हैं कि जिस कारण से पर जीव के द्वारा पर को मारा जाता है तो वह परघात नामक प्रकृति है। जो परजीव का घात करे सो परघात है, इस तरह तो हम जानते हैं कि प्रकृति ने ही हिंसा की, जीव हिंसा नहीं करता जीव को हिंसा नहीं लगती। जीव तो चैतन्यस्वरूप है। अच्छी मन की बात कही जा रही है जो साधारण जनों को बड़ी अच्छी लगे, पर मनमाफिक तो बात होती नहीं। मन तो ऐसा चाहता है कि कर्म ही को हिंसा लगे, कर्म ही खराब हों। हम सदा शुद्ध ही रहें किंतु ऐसा होता तो नहीं। परघात नामक प्रकृति का उदय होने पर यह जीव ऐसे अंग पाता है कि जो दूसरे जीव के घात में सहकारी होता है। जैसे सिंह के नख दाँत, कुत्ते के दाँत। सो सब परघात प्रकृति के काम हैं। </p> | |||
<p> </p> | |||
<p><strong>उपघात की प्रकृति का उदाहरण</strong>―जैसे उपघात प्रकृति के उदय में अपने आपके ही अंग ऐसे उत्पन्न होते हैं कि जिससे खुद को बाधा होती है। जैसे बहुत बड़ा लंबा चौड़ा पेट हो जाय तो खुद को बाधा होती है कि नहीं ? जिस भैंस के सींग लंबे हैं उसने जहां मुँह फेरा कि सींग पट्ट पेट में लग जाते है। भैंस के सींग अच्छे तो नहीं लगते मगर किसी किसी भैंस के सींग अच्छे होते हैं। जैसे पंजाबी भैंस के सींग अच्छे होते है।</p> | |||
<p><strong>विचार कर भी अशुभ का करना क्या ?</strong>–एक सेठ जी थे सो सबेरे 7 बजे रोज अपने घर के चबूतरे पर बैठकर दातुन करते थे। दातुन करने में उन्हें एक घंटा लगता था, 7 बजे रोज वहां से गाय भैंस निकले। एक भैंस की सींग बड़ी अच्छी थी, गोलमटोल अच्छी बढ़िया । जैसे बरसात में बड़ी गिजाई हो जाती है तो वह चिपट जाती है ऐसी बढ़िया ऐंठी हुई नीवें थी। वह दातुन करता जाय और सोचता जाय कि ऐसी सींग यदि हमारे होती तो हम भी खूब अच्छे लगते। 7 बजे रोज दातुन करने बैठे रोज वही भैंस निकले सो उसके सींग को देखकर फिर सोचें ऐसी भावना करते-करते 6 माह हो गये, अब इसकी सींगों को अपने सिर में लगा लेना चाहिए, ऐसा सोचकर उसने अपने सिर को उस भैंस की सींग में लगा दिया भैंस ने अपना सर ऊँचा उठा दिया सो उसके गले में लटक गया। इसी तरह से ठर्राते हुए भैंस एक फर्लांग तक उसे ले गई। उसके कहीं हाथ टूटा, कहीं पैर टूटा तो कहीं सिर फटा। वह दृश्य देखकर गांव के तमाम लोग जुड़ आए। पूछा कि सेठ जी आपने यह क्या कर डाला ? बिना विचारे ऐसा काम नहीं करना चाहिये। सेठ जी कहते हैं कि भैया विचार तो हमने खूब किया, 6 माह तक बड़ी गंभीर दृष्टि से विचार करता रहा। 6 माह तक खूब विचार करने के बाद मैंने सोचा कि आज यह काम कर डालना चाहिये। सो आज कर डाला। गांव के लोगों न कहा कि ऐसी बात 6 माह तक विचारो चाहे जिंदगी भर विचारों खोटी बात तो खोटी ही रहती है। </p> | |||
<p><strong>मोह की सर्वत्र कटुकता</strong>―लोग कहते हैं कि भैया तुम बहुत दंद में पड़ गए। तुम बिना विचारे बड़े मोह में फंस गए अरे कहां बिना विचारे फंस गये, 10, 20 वर्ष तो खूब विचार किया अरे 10, 20 वर्ष ही क्या चिरकाल से खूब विचार किया और अब तक उसी में ही पगे हुए जीव चल रहे हैं।<strong> </strong></p> | |||
<p><strong>प्रकृति का देह निर्वृत्ति से निमित्त नैमित्तिक संबंध</strong>―उपघात नामक कर्म का उदय है सो किसी-किसी का एक पैर हाथी के पैर जैसा हो जाता हैं। जो बिहार प्रांत में बादीली जगह में रहते हैं उनका एक-एक पैर हाथी के पैर जैसा मोटा रहता है। उनके चलने में तकलीफ होती है। वह उपघात नामक कर्म का उदय है। भाई बूढ़े का बुरा न मानों। (बूढ़े और बच्चे बराबर होते हैं। जैसे बच्चे के दाँत नहीं वैसे बूढ़े के दाँत नहीं) और अपने शरीर में जो पित्त कफ आदि हैं ये भी उपघात नामक कर्म के उदय से होते हैं। जब ये कुपित हो जाते हैं तो विकार हो जाता है, सिर दर्द हो जाता है तो उपघात नामक कर्म के उदय से अपना ही अंग ऐसा बन जाय जो अपने को बाधा करने में भी निमित्त बने और परघात नामक कर्म के उदय से अपना वह अंग ऐसा हो जाय कि दूसरे का घात करने के निमित्त बने यह है शरीर के अंग का और नाम कर्म के उदय का निमित्त नैमित्तिक संबंध। </p> | |||
<p><strong>अपनी करनी अपनी भरनी</strong>―यहां ऐसा नहीं जानना कि कर्म ने ही दूसरे को मारा सो हिंसक तो कर्म हुआ। हम तो हिंसक नहीं हैं। जैसे सांई बाबा होते हैं ना, तो उन्हें 2 टका मिलते हैं, और वे छुरी चलाते हैं। तो मालिक कहता है कि हमने तो छुरा नहीं चलायी, सांई बाबा ने चलाई है। तो सांई कहता है कि हमें तो खुदा ने भेजा है, उनका नाम लेकर हम छुरी चला देते हैं, हमें काहे हिंसा लगे। बहाने कितने ही ढूंढ लिये जाते हैं। जैसे जैनियों ने एक बहाना ढूंढा है, धर्मात्मा भी बने रहें और बाल बच्चों का सब काम भी सफाई के साथ करते रहें। क्या बहाना है ? भाई चारित्र मोह का उदय है। सम्यग्दर्शन होता सही है और निश्चय श्रुतकेवली ने बताया है कि लो निश्चयत: शुद्ध आत्मा को जाने सो निश्चय ही केवली है। दूसरी बात यह है कि छोटे-छोटे बाल बच्चे हैं, इन्हें छोड़ दें तो फिर उनकी हिंसा का पाप तो होता है। सो उनकी दया भी करनी पड़ती है। वह अपना प्रधान कर्तव्य है, दीक्षा तो बाद की चीज है। और चरित्र मोह का उदय उसके कहा जाय जो घर में रहते हुए भी घर की बातों को व्यर्थ मानता है, और उसमें रति नहीं मानता है नहीं तो दर्शनमोहनीय सीधा कहना चाहिए। यहां जिज्ञासु कह रहा है कि परघात नाम प्रकृति घात करती हैं इससे हम यह निर्णय करते हैं कि प्रकृति ही हिंसक है। </p> | |||
<p><strong> </strong></p> | |||
</div> | </div> | ||
Latest revision as of 12:32, 20 September 2021
जम्हा घादेदि परं परेण घादिज्जदे य सा पयडी।एदेणत्थेण किर भण्णदि परघादणामेत्ति।।338।।
हिंसा की कर्मकृतता का पक्ष―शंकाकार कह रहा हैं कि जिस कारण से पर जीव के द्वारा पर को मारा जाता है तो वह परघात नामक प्रकृति है। जो परजीव का घात करे सो परघात है, इस तरह तो हम जानते हैं कि प्रकृति ने ही हिंसा की, जीव हिंसा नहीं करता जीव को हिंसा नहीं लगती। जीव तो चैतन्यस्वरूप है। अच्छी मन की बात कही जा रही है जो साधारण जनों को बड़ी अच्छी लगे, पर मनमाफिक तो बात होती नहीं। मन तो ऐसा चाहता है कि कर्म ही को हिंसा लगे, कर्म ही खराब हों। हम सदा शुद्ध ही रहें किंतु ऐसा होता तो नहीं। परघात नामक प्रकृति का उदय होने पर यह जीव ऐसे अंग पाता है कि जो दूसरे जीव के घात में सहकारी होता है। जैसे सिंह के नख दाँत, कुत्ते के दाँत। सो सब परघात प्रकृति के काम हैं।
उपघात की प्रकृति का उदाहरण―जैसे उपघात प्रकृति के उदय में अपने आपके ही अंग ऐसे उत्पन्न होते हैं कि जिससे खुद को बाधा होती है। जैसे बहुत बड़ा लंबा चौड़ा पेट हो जाय तो खुद को बाधा होती है कि नहीं ? जिस भैंस के सींग लंबे हैं उसने जहां मुँह फेरा कि सींग पट्ट पेट में लग जाते है। भैंस के सींग अच्छे तो नहीं लगते मगर किसी किसी भैंस के सींग अच्छे होते हैं। जैसे पंजाबी भैंस के सींग अच्छे होते है।
विचार कर भी अशुभ का करना क्या ?–एक सेठ जी थे सो सबेरे 7 बजे रोज अपने घर के चबूतरे पर बैठकर दातुन करते थे। दातुन करने में उन्हें एक घंटा लगता था, 7 बजे रोज वहां से गाय भैंस निकले। एक भैंस की सींग बड़ी अच्छी थी, गोलमटोल अच्छी बढ़िया । जैसे बरसात में बड़ी गिजाई हो जाती है तो वह चिपट जाती है ऐसी बढ़िया ऐंठी हुई नीवें थी। वह दातुन करता जाय और सोचता जाय कि ऐसी सींग यदि हमारे होती तो हम भी खूब अच्छे लगते। 7 बजे रोज दातुन करने बैठे रोज वही भैंस निकले सो उसके सींग को देखकर फिर सोचें ऐसी भावना करते-करते 6 माह हो गये, अब इसकी सींगों को अपने सिर में लगा लेना चाहिए, ऐसा सोचकर उसने अपने सिर को उस भैंस की सींग में लगा दिया भैंस ने अपना सर ऊँचा उठा दिया सो उसके गले में लटक गया। इसी तरह से ठर्राते हुए भैंस एक फर्लांग तक उसे ले गई। उसके कहीं हाथ टूटा, कहीं पैर टूटा तो कहीं सिर फटा। वह दृश्य देखकर गांव के तमाम लोग जुड़ आए। पूछा कि सेठ जी आपने यह क्या कर डाला ? बिना विचारे ऐसा काम नहीं करना चाहिये। सेठ जी कहते हैं कि भैया विचार तो हमने खूब किया, 6 माह तक बड़ी गंभीर दृष्टि से विचार करता रहा। 6 माह तक खूब विचार करने के बाद मैंने सोचा कि आज यह काम कर डालना चाहिये। सो आज कर डाला। गांव के लोगों न कहा कि ऐसी बात 6 माह तक विचारो चाहे जिंदगी भर विचारों खोटी बात तो खोटी ही रहती है।
मोह की सर्वत्र कटुकता―लोग कहते हैं कि भैया तुम बहुत दंद में पड़ गए। तुम बिना विचारे बड़े मोह में फंस गए अरे कहां बिना विचारे फंस गये, 10, 20 वर्ष तो खूब विचार किया अरे 10, 20 वर्ष ही क्या चिरकाल से खूब विचार किया और अब तक उसी में ही पगे हुए जीव चल रहे हैं।
प्रकृति का देह निर्वृत्ति से निमित्त नैमित्तिक संबंध―उपघात नामक कर्म का उदय है सो किसी-किसी का एक पैर हाथी के पैर जैसा हो जाता हैं। जो बिहार प्रांत में बादीली जगह में रहते हैं उनका एक-एक पैर हाथी के पैर जैसा मोटा रहता है। उनके चलने में तकलीफ होती है। वह उपघात नामक कर्म का उदय है। भाई बूढ़े का बुरा न मानों। (बूढ़े और बच्चे बराबर होते हैं। जैसे बच्चे के दाँत नहीं वैसे बूढ़े के दाँत नहीं) और अपने शरीर में जो पित्त कफ आदि हैं ये भी उपघात नामक कर्म के उदय से होते हैं। जब ये कुपित हो जाते हैं तो विकार हो जाता है, सिर दर्द हो जाता है तो उपघात नामक कर्म के उदय से अपना ही अंग ऐसा बन जाय जो अपने को बाधा करने में भी निमित्त बने और परघात नामक कर्म के उदय से अपना वह अंग ऐसा हो जाय कि दूसरे का घात करने के निमित्त बने यह है शरीर के अंग का और नाम कर्म के उदय का निमित्त नैमित्तिक संबंध।
अपनी करनी अपनी भरनी―यहां ऐसा नहीं जानना कि कर्म ने ही दूसरे को मारा सो हिंसक तो कर्म हुआ। हम तो हिंसक नहीं हैं। जैसे सांई बाबा होते हैं ना, तो उन्हें 2 टका मिलते हैं, और वे छुरी चलाते हैं। तो मालिक कहता है कि हमने तो छुरा नहीं चलायी, सांई बाबा ने चलाई है। तो सांई कहता है कि हमें तो खुदा ने भेजा है, उनका नाम लेकर हम छुरी चला देते हैं, हमें काहे हिंसा लगे। बहाने कितने ही ढूंढ लिये जाते हैं। जैसे जैनियों ने एक बहाना ढूंढा है, धर्मात्मा भी बने रहें और बाल बच्चों का सब काम भी सफाई के साथ करते रहें। क्या बहाना है ? भाई चारित्र मोह का उदय है। सम्यग्दर्शन होता सही है और निश्चय श्रुतकेवली ने बताया है कि लो निश्चयत: शुद्ध आत्मा को जाने सो निश्चय ही केवली है। दूसरी बात यह है कि छोटे-छोटे बाल बच्चे हैं, इन्हें छोड़ दें तो फिर उनकी हिंसा का पाप तो होता है। सो उनकी दया भी करनी पड़ती है। वह अपना प्रधान कर्तव्य है, दीक्षा तो बाद की चीज है। और चरित्र मोह का उदय उसके कहा जाय जो घर में रहते हुए भी घर की बातों को व्यर्थ मानता है, और उसमें रति नहीं मानता है नहीं तो दर्शनमोहनीय सीधा कहना चाहिए। यहां जिज्ञासु कह रहा है कि परघात नाम प्रकृति घात करती हैं इससे हम यह निर्णय करते हैं कि प्रकृति ही हिंसक है।