पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 143 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी: Difference between revisions
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<p>अब मुख्य वृत्ति से आत्म-ध्यान निर्जरा का कारण है, ऐसा प्रगट करते हैं --</p> | <p>अब मुख्य वृत्ति से आत्म-ध्यान निर्जरा का कारण है, ऐसा प्रगट करते हैं --</p> | ||
<p>[जो संवरेण जुत्तो] जो संवर से युक्त; शुभाशुभ रागादि आस्रवों के निरोध लक्षण-मय संवर से सहित कर्तारूप जो [अप्पट्ठपसाहगो हि] वास्तव में आत्मार्थ का प्रसाधक है; हेय-उपादेय तत्त्व को जानकर पर सम्बन्धी प्रयोजनों से निवृत्त होकर, शुद्धात्मानुभूति लक्षणमय मात्र अपने कार्य को प्रकृष्ट रूप से साधने वाला; [अप्पाणं] सम्पूर्ण आत्मप्रदेशों में निर्विकार, नित्यानंद, एकाकार रूप से परिणत आत्मा को [मुणिदूण] मानकर, जानकर, रागादि विभाव रहित स्व-सम्वेदन-ज्ञान से जानकर, [झादि] निश्चल आत्मोपलब्धि लक्षण निर्विकल्प ध्यान द्वारा ध्याता है । [णियदं] निश्चित, घोर उपसर्ग-परिषह का प्रसंग आने पर निश्चल जैसा होता है । कैसे आत्मा का ध्यान करता है ? [णाणं] निश्चय की अपेक्षा गुण-गुणी का अभेद होने से विशिष्ट भेद-ज्ञान-रूप परिणत होने के कारण आत्मा ही ज्ञान है; सो वह पूर्वोक्त लक्षण परमात्मा का ध्यान करने-वाला ध्याता क्या करता है ? [संधुणोदि कम्मरयं] वह कर्मरज निर्जरित करता है ।</p> | <p><span class="SansWord">[जो संवरेण जुत्तो]</span> जो संवर से युक्त; शुभाशुभ रागादि आस्रवों के निरोध लक्षण-मय संवर से सहित कर्तारूप जो <span class="SansWord">[अप्पट्ठपसाहगो हि]</span> वास्तव में आत्मार्थ का प्रसाधक है; हेय-उपादेय तत्त्व को जानकर पर सम्बन्धी प्रयोजनों से निवृत्त होकर, शुद्धात्मानुभूति लक्षणमय मात्र अपने कार्य को प्रकृष्ट रूप से साधने वाला; <span class="SansWord">[अप्पाणं]</span> सम्पूर्ण आत्मप्रदेशों में निर्विकार, नित्यानंद, एकाकार रूप से परिणत आत्मा को <span class="SansWord">[मुणिदूण]</span> मानकर, जानकर, रागादि विभाव रहित स्व-सम्वेदन-ज्ञान से जानकर, <span class="SansWord">[झादि]</span> निश्चल आत्मोपलब्धि लक्षण निर्विकल्प ध्यान द्वारा ध्याता है । <span class="SansWord">[णियदं]</span> निश्चित, घोर उपसर्ग-परिषह का प्रसंग आने पर निश्चल जैसा होता है । कैसे आत्मा का ध्यान करता है ? <span class="SansWord">[णाणं]</span> निश्चय की अपेक्षा गुण-गुणी का अभेद होने से विशिष्ट भेद-ज्ञान-रूप परिणत होने के कारण आत्मा ही ज्ञान है; सो वह पूर्वोक्त लक्षण परमात्मा का ध्यान करने-वाला ध्याता क्या करता है ? <span class="SansWord">[संधुणोदि कम्मरयं]</span> वह कर्मरज निर्जरित करता है ।</p> | ||
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<p>यहाँ वस्तु-वृत्ति से (मुख्य-रूप से) ध्यान निर्जरा का कारण है, ऐसा व्याख्यान किया गया है, यह सूत्र-तात्पर्य है ॥१५३॥</p> | <p>यहाँ वस्तु-वृत्ति से (मुख्य-रूप से) ध्यान निर्जरा का कारण है, ऐसा व्याख्यान किया गया है, यह सूत्र-तात्पर्य है ॥१५३॥</p> | ||
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Latest revision as of 13:16, 30 June 2023
अब मुख्य वृत्ति से आत्म-ध्यान निर्जरा का कारण है, ऐसा प्रगट करते हैं --
[जो संवरेण जुत्तो] जो संवर से युक्त; शुभाशुभ रागादि आस्रवों के निरोध लक्षण-मय संवर से सहित कर्तारूप जो [अप्पट्ठपसाहगो हि] वास्तव में आत्मार्थ का प्रसाधक है; हेय-उपादेय तत्त्व को जानकर पर सम्बन्धी प्रयोजनों से निवृत्त होकर, शुद्धात्मानुभूति लक्षणमय मात्र अपने कार्य को प्रकृष्ट रूप से साधने वाला; [अप्पाणं] सम्पूर्ण आत्मप्रदेशों में निर्विकार, नित्यानंद, एकाकार रूप से परिणत आत्मा को [मुणिदूण] मानकर, जानकर, रागादि विभाव रहित स्व-सम्वेदन-ज्ञान से जानकर, [झादि] निश्चल आत्मोपलब्धि लक्षण निर्विकल्प ध्यान द्वारा ध्याता है । [णियदं] निश्चित, घोर उपसर्ग-परिषह का प्रसंग आने पर निश्चल जैसा होता है । कैसे आत्मा का ध्यान करता है ? [णाणं] निश्चय की अपेक्षा गुण-गुणी का अभेद होने से विशिष्ट भेद-ज्ञान-रूप परिणत होने के कारण आत्मा ही ज्ञान है; सो वह पूर्वोक्त लक्षण परमात्मा का ध्यान करने-वाला ध्याता क्या करता है ? [संधुणोदि कम्मरयं] वह कर्मरज निर्जरित करता है ।
यहाँ वस्तु-वृत्ति से (मुख्य-रूप से) ध्यान निर्जरा का कारण है, ऐसा व्याख्यान किया गया है, यह सूत्र-तात्पर्य है ॥१५३॥