पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 53 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
||
(2 intermediate revisions by the same user not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
<div class="G_HindiText"> | <div class="G_HindiText"> | ||
<p>अब यद्यपि पर्यायार्थिक नय से विनाश-उत्पाद होते हैं, तथापि द्रव्यार्थिक नय से नहीं होते हैं; ऐसा होने पर भी पूर्वापर विरोध नहीं है, ऐसा कहते हैं --</p> | <p>अब यद्यपि पर्यायार्थिक नय से विनाश-उत्पाद होते हैं, तथापि द्रव्यार्थिक नय से नहीं होते हैं; ऐसा होने पर भी पूर्वापर विरोध नहीं है, ऐसा कहते हैं --</p> | ||
<p>[एवं सदो विणासो] इस प्रकार पूर्व-गाथा में कही गई पद्धति से औदयिक भाव द्वारा आयु के उच्छेद के वश मनुष्य-पर्याय रूप से सत, विद्यमान का विनाश है; [असदो जीवस्स हवदि उप्पादो] असत अविद्यमान देवादि जीव-पर्याय का गति नाम-कर्म के उदय से उत्पाद होता है । [इदि जिणवरेहिं भणियं] ऐसा जिनवर वीतराग-सर्वज्ञ द्वारा कहा गया है । यह व्याख्यात (किया गया कथन) किस प्रकार है ? [अण्णोण्णविरुद्धमविरुद्धं] परस्पर में विरुद्ध होने पर भी अविरुद्ध है । यह कैसे हैं ? यदि ऐसा प्रश्न हो तो कहते हैं -- द्रव्य-पीठिका में सत जीव का विनाश नहीं होता तथा असत का उत्पाद नहीं होता -- ऐसा कहा गया था और यहाँ सत जीव का विनाश होता है और असत का उत्पाद होता है -- ऐसा कहा गया है, उस कारण विरोध है; परन्तु वास्तव में यह विरोध नहीं है; वहाँ द्रव्य-पीठिका में द्रव्यार्थिक-नय से उत्पाद-व्यय का निषेध किया गया था और यहाँ पर्यायार्थिक-नय से उत्पाद-व्यय होते हैं, इसका प्रतिपादन है; -- इस प्रकार विरोध नहीं है । वह भी कैसे नहीं है ? यदि ऐसा प्रश्न हो तो कहते हैं -- द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय में परस्पर सापेक्षता होने से यह विरोध नहीं है । यहाँ यद्यपि पर्यायार्थिक-नय से सनिधन जीव-द्रव्य का व्याख्यान किया है; तथापि शुद्ध-निश्चय से जो अनादि-अनिधन टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एक स्वभाव-मय और निर्विकार सदानन्द एक स्वभावी है, वह ही उपादेय है ऐसा अभिप्राय है ॥६०॥</p> | <p><span class="SansWord">[एवं सदो विणासो]</span> इस प्रकार पूर्व-गाथा में कही गई पद्धति से औदयिक भाव द्वारा आयु के उच्छेद के वश मनुष्य-पर्याय रूप से सत, विद्यमान का विनाश है; <span class="SansWord">[असदो जीवस्स हवदि उप्पादो]</span> असत अविद्यमान देवादि जीव-पर्याय का गति नाम-कर्म के उदय से उत्पाद होता है । <span class="SansWord">[इदि जिणवरेहिं भणियं]</span> ऐसा जिनवर वीतराग-सर्वज्ञ द्वारा कहा गया है । यह व्याख्यात (किया गया कथन) किस प्रकार है ? <span class="SansWord">[अण्णोण्णविरुद्धमविरुद्धं]</span> परस्पर में विरुद्ध होने पर भी अविरुद्ध है । यह कैसे हैं ? यदि ऐसा प्रश्न हो तो कहते हैं -- द्रव्य-पीठिका में सत जीव का विनाश नहीं होता तथा असत का उत्पाद नहीं होता -- ऐसा कहा गया था और यहाँ सत जीव का विनाश होता है और असत का उत्पाद होता है -- ऐसा कहा गया है, उस कारण विरोध है; परन्तु वास्तव में यह विरोध नहीं है; वहाँ द्रव्य-पीठिका में द्रव्यार्थिक-नय से उत्पाद-व्यय का निषेध किया गया था और यहाँ पर्यायार्थिक-नय से उत्पाद-व्यय होते हैं, इसका प्रतिपादन है; -- इस प्रकार विरोध नहीं है । वह भी कैसे नहीं है ? यदि ऐसा प्रश्न हो तो कहते हैं -- द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय में परस्पर सापेक्षता होने से यह विरोध नहीं है । यहाँ यद्यपि पर्यायार्थिक-नय से सनिधन जीव-द्रव्य का व्याख्यान किया है; तथापि शुद्ध-निश्चय से जो अनादि-अनिधन टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एक स्वभाव-मय और निर्विकार सदानन्द एक स्वभावी है, वह ही उपादेय है ऐसा अभिप्राय है ॥६०॥</p> | ||
</div> | </div> |
Latest revision as of 13:16, 30 June 2023
अब यद्यपि पर्यायार्थिक नय से विनाश-उत्पाद होते हैं, तथापि द्रव्यार्थिक नय से नहीं होते हैं; ऐसा होने पर भी पूर्वापर विरोध नहीं है, ऐसा कहते हैं --
[एवं सदो विणासो] इस प्रकार पूर्व-गाथा में कही गई पद्धति से औदयिक भाव द्वारा आयु के उच्छेद के वश मनुष्य-पर्याय रूप से सत, विद्यमान का विनाश है; [असदो जीवस्स हवदि उप्पादो] असत अविद्यमान देवादि जीव-पर्याय का गति नाम-कर्म के उदय से उत्पाद होता है । [इदि जिणवरेहिं भणियं] ऐसा जिनवर वीतराग-सर्वज्ञ द्वारा कहा गया है । यह व्याख्यात (किया गया कथन) किस प्रकार है ? [अण्णोण्णविरुद्धमविरुद्धं] परस्पर में विरुद्ध होने पर भी अविरुद्ध है । यह कैसे हैं ? यदि ऐसा प्रश्न हो तो कहते हैं -- द्रव्य-पीठिका में सत जीव का विनाश नहीं होता तथा असत का उत्पाद नहीं होता -- ऐसा कहा गया था और यहाँ सत जीव का विनाश होता है और असत का उत्पाद होता है -- ऐसा कहा गया है, उस कारण विरोध है; परन्तु वास्तव में यह विरोध नहीं है; वहाँ द्रव्य-पीठिका में द्रव्यार्थिक-नय से उत्पाद-व्यय का निषेध किया गया था और यहाँ पर्यायार्थिक-नय से उत्पाद-व्यय होते हैं, इसका प्रतिपादन है; -- इस प्रकार विरोध नहीं है । वह भी कैसे नहीं है ? यदि ऐसा प्रश्न हो तो कहते हैं -- द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय में परस्पर सापेक्षता होने से यह विरोध नहीं है । यहाँ यद्यपि पर्यायार्थिक-नय से सनिधन जीव-द्रव्य का व्याख्यान किया है; तथापि शुद्ध-निश्चय से जो अनादि-अनिधन टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एक स्वभाव-मय और निर्विकार सदानन्द एक स्वभावी है, वह ही उपादेय है ऐसा अभिप्राय है ॥६०॥