पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 40.5 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी: Difference between revisions
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<p>इस प्रकार मति-ज्ञानादि पाँच ज्ञान के व्याख्यान-रूप से पाँच गाथायें पूर्ण हुईं ।</p> | <p>इस प्रकार मति-ज्ञानादि पाँच ज्ञान के व्याख्यान-रूप से पाँच गाथायें पूर्ण हुईं ।</p> | ||
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Latest revision as of 13:16, 30 June 2023
[केवलणाणं णाणं णेयणिमित्तिं ण होदि] केवलज्ञान रूप जो ज्ञान है, वह घट-पट आदि ज्ञेय पदार्थ का आश्रय लेकर उत्पन्न नहीं होता है । तब फिर वह श्रुतज्ञान स्वरूप होगा ? [ण होदि सुदणाणं] जैसे केवलज्ञान ज्ञेय निमित्तक नहीं है; उसीप्रकार श्रुतज्ञान स्वरूप भी नहीं है । [णेयं केवल णाणं] इसप्रकार पूर्वोक्त प्रकार से केवलज्ञान जानना चाहिए । यहाँ अर्थ यह है -- यद्यपि दिव्यध्वनि के समय उसके आधार से गणधरदेवादि के श्रुत-ज्ञान परिणमित होता है; तथापि वह श्रुत-ज्ञान गणधरदेव के ही है, केवली के तो केवल-ज्ञान ही है । [णाणाणाणं च णत्थि केवलिणो] केवली के मात्र श्रुत-ज्ञान ही नहीं है, इतना ही नहीं; अपितु उनके ज्ञानाज्ञान भी नहीं है; किसी विषय सम्बन्धी ज्ञान और किसी विषय सम्बन्धी अज्ञान हो, ऐसा उनके नहीं है; अपितु सर्वत्र ज्ञान ही है / वे सकलज्ञ हैं; अथवा मति-ज्ञानादि के भेद से अनेक भेद वाला ज्ञान उनके नहीं है । मात्र एक केवल-ज्ञान ही है । यहाँ मतिज्ञानादि भेद से जो पाँचप्रकार के ज्ञानों का व्याख्यान किया, वे व्यवहार से हैं; निश्चय से मेघावरण रहित सूर्य के समान, आत्मा अखण्ड, एक ज्ञान प्रतिभासमय है -- यह भावार्थ है ॥४६॥
इस प्रकार मति-ज्ञानादि पाँच ज्ञान के व्याख्यान-रूप से पाँच गाथायें पूर्ण हुईं ।