पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 48 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी: Difference between revisions
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<p>अब ज्ञान और ज्ञानी के अत्यन्त भेद होने पर समवाय सम्बन्ध से भी एकत्व करना शक्य नहीं है, ऐसा प्रतिपादन करते हैं -- इसप्रकार व्यापदेशादि व्याख्यान की मुख्यता से तीन गाथायें पूर्ण हुईं --</p> | <p>अब ज्ञान और ज्ञानी के अत्यन्त भेद होने पर समवाय सम्बन्ध से भी एकत्व करना शक्य नहीं है, ऐसा प्रतिपादन करते हैं -- इसप्रकार व्यापदेशादि व्याख्यान की मुख्यता से तीन गाथायें पूर्ण हुईं --</p> | ||
<p><span class=" | <p><span class="SansWord">[सो]</span> जीव रूप कर्ता, <span class="SansWord">[णहि णाणी]</span> वास्तव में ज्ञानी नहीं होता है । वह किससे ज्ञानी नहीं होता है ? <span class="SansWord">[समवायादो]</span> समवाय सम्बन्ध से ज्ञानी नहीं होता है । कैसा होता हुआ उससे ज्ञानी नहीं होता है ? <span class="SansWord">[अत्थंतरिदो दु]</span> अर्थान्तरित, एकान्त से / सर्वथा भिन्न होता हुआ ज्ञानी नहीं होता है । किससे भिन्न होता हुआ ज्ञानी नहीं होता है ? <span class="SansWord">[णाणादो]</span> ज्ञान से भिन्न होता हुआ ज्ञानी नहीं होता है । <span class="SansWord">[अण्णाणित्तियवयणं एयत्तपसाधगं होदि]</span> और 'अज्ञानी' ऐसा वचन गुण-गुणी के एकत्व का प्रसाधक होता है ।</p> | ||
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<p>वह इसप्रकार -- ज्ञान के समवाय से पूर्व जीव ज्ञानी है कि अज्ञानी ? इसप्रकार दो विकल्प अवतरित होते हैं । वहाँ यदि ज्ञानी है तो ज्ञान का समवाय व्यर्थ है; क्योंकि उस समवाय से पूर्व ही ज्ञानीत्व है । अथवा यदि अज्ञानी है, तो वहाँ भी दो विकल्प हैं -- अज्ञान गुण के समवाय से अज्ञानी है कि स्वभाव से अज्ञानी है । अज्ञान गुण के समवाय से तो अज्ञानी हो नहीं सकता; अत: अज्ञानी जीव के अज्ञान गुण का समवाय व्यर्थ है; क्योंकि अज्ञानीत्व तो पहले से ही विद्यमान है; और यदि स्वभाव से अज्ञानीत्व है, तो उसीप्रकार गुण होने के कारण स्वभाव से ही ज्ञानीत्व भी है । </p> | <p>वह इसप्रकार -- ज्ञान के समवाय से पूर्व जीव ज्ञानी है कि अज्ञानी ? इसप्रकार दो विकल्प अवतरित होते हैं । वहाँ यदि ज्ञानी है तो ज्ञान का समवाय व्यर्थ है; क्योंकि उस समवाय से पूर्व ही ज्ञानीत्व है । अथवा यदि अज्ञानी है, तो वहाँ भी दो विकल्प हैं -- अज्ञान गुण के समवाय से अज्ञानी है कि स्वभाव से अज्ञानी है । अज्ञान गुण के समवाय से तो अज्ञानी हो नहीं सकता; अत: अज्ञानी जीव के अज्ञान गुण का समवाय व्यर्थ है; क्योंकि अज्ञानीत्व तो पहले से ही विद्यमान है; और यदि स्वभाव से अज्ञानीत्व है, तो उसीप्रकार गुण होने के कारण स्वभाव से ही ज्ञानीत्व भी है । </p> |
Latest revision as of 13:16, 30 June 2023
अब ज्ञान और ज्ञानी के अत्यन्त भेद होने पर समवाय सम्बन्ध से भी एकत्व करना शक्य नहीं है, ऐसा प्रतिपादन करते हैं -- इसप्रकार व्यापदेशादि व्याख्यान की मुख्यता से तीन गाथायें पूर्ण हुईं --
[सो] जीव रूप कर्ता, [णहि णाणी] वास्तव में ज्ञानी नहीं होता है । वह किससे ज्ञानी नहीं होता है ? [समवायादो] समवाय सम्बन्ध से ज्ञानी नहीं होता है । कैसा होता हुआ उससे ज्ञानी नहीं होता है ? [अत्थंतरिदो दु] अर्थान्तरित, एकान्त से / सर्वथा भिन्न होता हुआ ज्ञानी नहीं होता है । किससे भिन्न होता हुआ ज्ञानी नहीं होता है ? [णाणादो] ज्ञान से भिन्न होता हुआ ज्ञानी नहीं होता है । [अण्णाणित्तियवयणं एयत्तपसाधगं होदि] और 'अज्ञानी' ऐसा वचन गुण-गुणी के एकत्व का प्रसाधक होता है ।
वह इसप्रकार -- ज्ञान के समवाय से पूर्व जीव ज्ञानी है कि अज्ञानी ? इसप्रकार दो विकल्प अवतरित होते हैं । वहाँ यदि ज्ञानी है तो ज्ञान का समवाय व्यर्थ है; क्योंकि उस समवाय से पूर्व ही ज्ञानीत्व है । अथवा यदि अज्ञानी है, तो वहाँ भी दो विकल्प हैं -- अज्ञान गुण के समवाय से अज्ञानी है कि स्वभाव से अज्ञानी है । अज्ञान गुण के समवाय से तो अज्ञानी हो नहीं सकता; अत: अज्ञानी जीव के अज्ञान गुण का समवाय व्यर्थ है; क्योंकि अज्ञानीत्व तो पहले से ही विद्यमान है; और यदि स्वभाव से अज्ञानीत्व है, तो उसीप्रकार गुण होने के कारण स्वभाव से ही ज्ञानीत्व भी है ।
यहाँ जैसे मेघ-पटल से आच्छादित सूर्य में प्रकाश पहले से ही विद्यमान है, बाद में पटल-विघटन के अनुसार प्रगट होता है; उसीप्रकार जीव में निश्चय-नय से क्रम-करण व्यवधान से रहित, तीनलोक रूपी उदर-विवर (पेट) में स्थित समस्त वस्तुगत अनन्त धर्मों का प्रकाशक अखण्ड प्रतिभास-मय केवल ज्ञान पहले से ही स्थित है, परंतु व्यवहार-नय से अनादि कर्मों से आवृत होता हुआ ज्ञात नहीं होता है; बाद में कर्म-पटल के विघटनानुसार प्रगट होता है । जीव से बहिर्भूत दूसरा ज्ञान कुछ भी है ही नहीं; अत: बाद में समवाय सम्बन्ध के बल से जीव में सम्बद्ध भी नहीं होता -- ऐसा भावार्थ है ॥५५॥