पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 61 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी: Difference between revisions
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<p>अब निश्चयनय की अपेक्षा अभेद षट्कारकी रूप से कर्म पुद्गल स्वकीय स्वरूप को करता है; उसीप्रकार जीव भी ( अपने स्वरूप को ही करता है), ऐसा प्रतिपादन करते हैं -- </p> | <p>अब निश्चयनय की अपेक्षा अभेद षट्कारकी रूप से कर्म पुद्गल स्वकीय स्वरूप को करता है; उसीप्रकार जीव भी ( अपने स्वरूप को ही करता है), ऐसा प्रतिपादन करते हैं -- </p> | ||
<p><span class=" | <p><span class="SansWord">[कम्मंपि सयं]</span> कर्म रूप कर्ता स्वयं भी स्वयं ही <span class="SansWord">[कुव्वदि]</span> करता है । क्या करता है ? <span class="SansWord">[सम्ममप्पाणं]</span> सम्यक् जैसा है वैसे अपने द्रव्य-कर्म स्वभाव को करता है । किस कारण उसे करता है ? <span class="SansWord">[सगेण भावेण]</span> अपने स्वभाव के कारण अभेद षट्कारकी रूप से उसे करता है । <span class="SansWord">[जीवो वि य तारिसओ]</span> तथा जीव भी उसके समान ही करता है । वह किस कारण उसे करता है ? <span class="SansWord">[कम्मसहावेण भावेण]</span> कर्म-स्वभाव रूप अशुद्ध-भाव से, रागादि परिणाम के कारण उसे करता है । वह इसप्रकार -- <ul><li>कर्ता-रूप कर्म-पुद्गल, <li>कर्मता को प्राप्त कर्म पुद्गल को, <li>करण-भूत कर्म-पुद्गल द्वारा, <li>निमित्त (सम्प्रदान) रूप कर्म पुद्गल के लिए, <li>अपादान-रूप कर्म-पुद्गल से, <li>अधिकरण-भूत कर्म-पुद्गल में </ul>करता है -- इस प्रकार अभेद-षट्कारकी रूप से परिणमन करता हुआ कारकांतर की अपेक्षा नहीं करता है; उसी प्रकार <ul><li>जीवमय कर्ता-रूप आत्मा भी, <li>कर्मता को प्राप्त आत्मा को, <li>करण-भूत आत्मा द्वारा, <li>निमित्त (सम्प्रदान) रूप आत्मा के लिए, <li>अपादान-रूप आत्मा से, <li>अधिकरण-भूत आत्मा में करता है</ul> इसप्रकार अभेद षट्कारकी रूप से अवस्थित रहता हुआ कारकांतर की अपेक्षा नहीं करता है ।</p> | ||
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<p>यहाँ यह भावार्थ है -- जैसे अशुद्ध षट्कारकी रूप से परिणमन करता हुआ अशुद्ध आत्मा को करता है, उसीप्रकार शुद्धात्म-तत्त्व के सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान, अनुष्ठान रूप अभेद षट्कारकी स्वभाव से परिणमन करता हुआ शुद्ध आत्मा को करता है ॥६८॥</p> | <p>यहाँ यह भावार्थ है -- जैसे अशुद्ध षट्कारकी रूप से परिणमन करता हुआ अशुद्ध आत्मा को करता है, उसीप्रकार शुद्धात्म-तत्त्व के सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान, अनुष्ठान रूप अभेद षट्कारकी स्वभाव से परिणमन करता हुआ शुद्ध आत्मा को करता है ॥६८॥</p> |
Latest revision as of 13:16, 30 June 2023
अब निश्चयनय की अपेक्षा अभेद षट्कारकी रूप से कर्म पुद्गल स्वकीय स्वरूप को करता है; उसीप्रकार जीव भी ( अपने स्वरूप को ही करता है), ऐसा प्रतिपादन करते हैं --
[कम्मंपि सयं] कर्म रूप कर्ता स्वयं भी स्वयं ही [कुव्वदि] करता है । क्या करता है ? [सम्ममप्पाणं] सम्यक् जैसा है वैसे अपने द्रव्य-कर्म स्वभाव को करता है । किस कारण उसे करता है ? [सगेण भावेण] अपने स्वभाव के कारण अभेद षट्कारकी रूप से उसे करता है । [जीवो वि य तारिसओ] तथा जीव भी उसके समान ही करता है । वह किस कारण उसे करता है ? [कम्मसहावेण भावेण] कर्म-स्वभाव रूप अशुद्ध-भाव से, रागादि परिणाम के कारण उसे करता है । वह इसप्रकार --
- कर्ता-रूप कर्म-पुद्गल,
- कर्मता को प्राप्त कर्म पुद्गल को,
- करण-भूत कर्म-पुद्गल द्वारा,
- निमित्त (सम्प्रदान) रूप कर्म पुद्गल के लिए,
- अपादान-रूप कर्म-पुद्गल से,
- अधिकरण-भूत कर्म-पुद्गल में
- जीवमय कर्ता-रूप आत्मा भी,
- कर्मता को प्राप्त आत्मा को,
- करण-भूत आत्मा द्वारा,
- निमित्त (सम्प्रदान) रूप आत्मा के लिए,
- अपादान-रूप आत्मा से,
- अधिकरण-भूत आत्मा में करता है
यहाँ यह भावार्थ है -- जैसे अशुद्ध षट्कारकी रूप से परिणमन करता हुआ अशुद्ध आत्मा को करता है, उसीप्रकार शुद्धात्म-तत्त्व के सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान, अनुष्ठान रूप अभेद षट्कारकी स्वभाव से परिणमन करता हुआ शुद्ध आत्मा को करता है ॥६८॥
इसप्रकार आगम संवाद रूप से और अभेद षट्कारकी रूप से दो स्वतंत्र गाथायें पूर्ण हुईं ।
इसप्रकार सामूहिक छह गाथाओं द्वारा तृतीय अंतरस्थल समाप्त हुआ ।