मोक्षमार्ग सामान्य निर्देश: Difference between revisions
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1" id="1"> मोक्षमार्ग सामान्य निर्देश</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> मोक्षमार्ग का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/1/1 </span><span class="SanskritText">सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः।1।</span> =<span class="HindiText"> सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र इन तीनों की एकता मोक्षमार्ग है। <br /> | <span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/1/1 </span><span class="SanskritText">सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः।1।</span> =<span class="HindiText"> सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र इन तीनों की एकता मोक्षमार्ग है। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> तीनों की युगपतता ही मोक्षमार्ग है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार/237 </span><span class="PrakritGatha"> ण हि आगमेण सिज्झदि सद्दहणं जदि वि णत्थि अत्थेसु। सद्दहमाणो अत्थे असंजदो वा ण णिव्वदि।237।</span> = <span class="HindiText">आगम से यदि पदार्थों का श्रद्धान न हो तो सिद्धि नहीं होती। पदार्थों का श्रद्धान करने वाला भी यदि असंयत हो तो निर्वाण को प्राप्त नहीं होता। </span><br /> | <span class="GRef"> प्रवचनसार/237 </span><span class="PrakritGatha"> ण हि आगमेण सिज्झदि सद्दहणं जदि वि णत्थि अत्थेसु। सद्दहमाणो अत्थे असंजदो वा ण णिव्वदि।237।</span> = <span class="HindiText">आगम से यदि पदार्थों का श्रद्धान न हो तो सिद्धि नहीं होती। पदार्थों का श्रद्धान करने वाला भी यदि असंयत हो तो निर्वाण को प्राप्त नहीं होता। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> मोक्षपाहुड़/59 </span><span class="PrakritGatha">तवरहियं जं णाणं णाणविजुत्तो तवो वि अकयत्थो। तम्हा णाणतवेणं संजुत्तो लहइ णिव्वाणं। </span>= <span class="HindiText">जो ज्ञान तप रहित है और जो तप ज्ञान रहित है, वे दोनों ही अकार्यकारी हैं। अतः ज्ञान व तप दोनों संयुक्त होने से ही निर्वाण प्राप्त होता है। </span><br /> | <span class="GRef"> मोक्षपाहुड़/59 </span><span class="PrakritGatha">तवरहियं जं णाणं णाणविजुत्तो तवो वि अकयत्थो। तम्हा णाणतवेणं संजुत्तो लहइ णिव्वाणं। </span>= <span class="HindiText">जो ज्ञान तप रहित है और जो तप ज्ञान रहित है, वे दोनों ही अकार्यकारी हैं। अतः ज्ञान व तप दोनों संयुक्त होने से ही निर्वाण प्राप्त होता है। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> दर्शनपाहुड़/ </span> | <span class="GRef"> दर्शनपाहुड़/मूल/30</span><span class="PrakritGatha"> णाणेण दंसणेण य तवेण चरियेण संजमगुणेण। चउहिं पि समाजोगे मोक्खो जिणसासणे दिट्ठो।30। </span>=<span class="HindiText"> सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र व सम्यक्तप इन चारों के मेल से ही संयम होता है। उससे जीव मोक्ष प्राप्त करता है। <span class="GRef">( दर्शनपाहुड़/मूल/32 )</span>। </span><br /> | ||
मू. आ./898-899 <span class="PrakritGatha">णिज्जावगो य णाणं वादो झाणं चरित्त णावा हि। भवसागरं तु भविया तरंति तिहिसण्णिपायेण।898। णाणं पयासओ तवो सोधओ संजमो य गुत्तियरो। तिण्हंपि य संजोगे होदि हु जिणसासणे मोक्खो।899।</span> = <span class="HindiText">जहा़ज चलाने वाला निर्यापक तो ज्ञान है, पवन की जगह ध्यान है और चारित्र जहा़ज है। इन ज्ञान ध्यान चारित्र तीनों के मेल से भव्य जीव संसारसमुद्र से पार हो जाते हैं।898। ज्ञान तो प्रकाशक है, तप-कर्म-विनाशक है और चारित्र रक्षक। इन तीनों के संयोग से मोक्ष होता है।899। </span><br /> | मू. आ./898-899 <span class="PrakritGatha">णिज्जावगो य णाणं वादो झाणं चरित्त णावा हि। भवसागरं तु भविया तरंति तिहिसण्णिपायेण।898। णाणं पयासओ तवो सोधओ संजमो य गुत्तियरो। तिण्हंपि य संजोगे होदि हु जिणसासणे मोक्खो।899।</span> = <span class="HindiText">जहा़ज चलाने वाला निर्यापक तो ज्ञान है, पवन की जगह ध्यान है और चारित्र जहा़ज है। इन ज्ञान ध्यान चारित्र तीनों के मेल से भव्य जीव संसारसमुद्र से पार हो जाते हैं।898। ज्ञान तो प्रकाशक है, तप-कर्म-विनाशक है और चारित्र रक्षक। इन तीनों के संयोग से मोक्ष होता है।899। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/1/1/7/5 </span><span class="SanskritText"> मार्गः इति च एकवचन-निर्देशः समस्तस्य मार्गभावज्ञापनार्थः। तेन व्यस्तस्य मार्गत्वनिवृत्तिः कृता भवति। अतः सम्यग्दर्शनं सम्यग्ज्ञानं सम्यक्चारित्रमित्येतत् त्रितयं मुदितं मोक्षस्य साक्षान्मार्गो वेदितव्यः।</span> = <span class="HindiText">सूत्र में ‘मार्गः’ ऐसा जो एकवचन निर्देश किया है, वह तीनों मिलकर मोक्षमार्ग है’, यह बताने के लिए किया है। इससे सम्यग्ज्ञान या सम्यग्दर्शन या सम्यक्चारित्र में पृथक्-पृथक् रहते हुए मार्गपने का निषेध हो जाता है। अतः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र तीनों मिलकर ही मोक्ष का साक्षत् मार्ग है, ऐसा जानना चाहिए। | <span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/1/1/7/5 </span><span class="SanskritText"> मार्गः इति च एकवचन-निर्देशः समस्तस्य मार्गभावज्ञापनार्थः। तेन व्यस्तस्य मार्गत्वनिवृत्तिः कृता भवति। अतः सम्यग्दर्शनं सम्यग्ज्ञानं सम्यक्चारित्रमित्येतत् त्रितयं मुदितं मोक्षस्य साक्षान्मार्गो वेदितव्यः।</span> = <span class="HindiText">सूत्र में ‘मार्गः’ ऐसा जो एकवचन निर्देश किया है, वह तीनों मिलकर मोक्षमार्ग है’, यह बताने के लिए किया है। इससे सम्यग्ज्ञान या सम्यग्दर्शन या सम्यक्चारित्र में पृथक्-पृथक् रहते हुए मार्गपने का निषेध हो जाता है। अतः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र तीनों मिलकर ही मोक्ष का साक्षत् मार्ग है, ऐसा जानना चाहिए। <span class="GRef">( महापुराण/24/120-122 )</span>, <span class="GRef">( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/236-237 )</span>; <span class="GRef">( न्यायदीपिका/3/73/113 )</span>। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/1/1/49/14/1 </span><span class="SanskritText">अतो रसायनज्ञानश्रद्धानक्रियासेवनोपेतस्य तत्फलेनाभिसंबंध इति निःप्रतिद्वंद्वमेतत्। तथा न मोक्षमार्गज्ञानादेव मोक्षेणाभिसंबंधो; दर्शनचारित्राभावात्। न च श्रद्धानादेव; मोक्षमार्गज्ञानपूर्वक्रियानुष्ठानाभावात्। न च क्रियामात्रादेव; ज्ञानश्रद्धानाभावात्। यतः क्रियाज्ञानश्रद्धानरहिता निःफलेति।..... यतो मोक्षमार्गत्रितयकल्पना ज्यायसीति।...उक्तंच−हतं ज्ञानं क्रियाहीनं हता चाज्ञानिनां क्रिया। धावन् किलांध को दग्धः पश्यन्नपि च पंगुलः।1। संयोगमेवेह वदंति तज्ज्ञा न ह्येकचक्रेण रथः प्रयाति। अंधश्च पंगुश्च वने प्रविष्टो तौ संप्रयुक्तौ नगरं प्रविष्टौ।2।</span> =<span class="HindiText"> औषधि के पूर्णफल की प्राप्ति के लिए जैसे उसका श्रद्धान ज्ञान व सेवनरूप क्रिया आवश्यक है, उसी प्रकार सम्यग्दर्शनादि तीनों के मेल से उनके फल की प्राप्ति होती है। दर्शन और चारित्र का अभाव होने के कारण ज्ञानमात्र से, ज्ञानपूर्वकक्रिया रूप अनुष्ठान के अभाव के कारण श्रद्धानमात्र से और ज्ञान तथा श्रद्धान के अभाव के कारण क्रियामात्र से मोक्ष नहीं होता, क्योंकि ज्ञान व श्रद्धान रहित क्रिया निष्फल है। इसलिए मोक्षमार्ग के तीनपने की कल्पना जागृत होती है। कहा भी है− ‘क्रियाहीन ज्ञान नष्ट है और अज्ञानियों के क्रिया निष्फल है। एक चक्र से रथ नहीं चलता, अतः ज्ञानक्रिया का संयोग ही कार्यकारी है। जैसे कि दावानल से व्याप्त वन में अंधा व्यक्ति तो भागता-भागता जल जाता है और लंगड़ा देखता-देखता जल जाता है। यदि अंधा और लंगड़ा दोनों मिल जायें और अंधे के कंधों पर लंगड़ा बैठ जाये तो दोनों का उद्धार हो जायेगा तब लंगड़ा तो रास्ता बताता हुआ ज्ञान का कार्य करेगा तथा अंधा चलता हुआ चारित्र का कार्य करेगा। इस प्रकार दोनों ही वन से बचकर नगर में आ सकते हैं। | <span class="GRef"> राजवार्तिक/1/1/49/14/1 </span><span class="SanskritText">अतो रसायनज्ञानश्रद्धानक्रियासेवनोपेतस्य तत्फलेनाभिसंबंध इति निःप्रतिद्वंद्वमेतत्। तथा न मोक्षमार्गज्ञानादेव मोक्षेणाभिसंबंधो; दर्शनचारित्राभावात्। न च श्रद्धानादेव; मोक्षमार्गज्ञानपूर्वक्रियानुष्ठानाभावात्। न च क्रियामात्रादेव; ज्ञानश्रद्धानाभावात्। यतः क्रियाज्ञानश्रद्धानरहिता निःफलेति।..... यतो मोक्षमार्गत्रितयकल्पना ज्यायसीति।...उक्तंच−हतं ज्ञानं क्रियाहीनं हता चाज्ञानिनां क्रिया। धावन् किलांध को दग्धः पश्यन्नपि च पंगुलः।1। संयोगमेवेह वदंति तज्ज्ञा न ह्येकचक्रेण रथः प्रयाति। अंधश्च पंगुश्च वने प्रविष्टो तौ संप्रयुक्तौ नगरं प्रविष्टौ।2।</span> =<span class="HindiText"> औषधि के पूर्णफल की प्राप्ति के लिए जैसे उसका श्रद्धान ज्ञान व सेवनरूप क्रिया आवश्यक है, उसी प्रकार सम्यग्दर्शनादि तीनों के मेल से उनके फल की प्राप्ति होती है। दर्शन और चारित्र का अभाव होने के कारण ज्ञानमात्र से, ज्ञानपूर्वकक्रिया रूप अनुष्ठान के अभाव के कारण श्रद्धानमात्र से और ज्ञान तथा श्रद्धान के अभाव के कारण क्रियामात्र से मोक्ष नहीं होता, क्योंकि ज्ञान व श्रद्धान रहित क्रिया निष्फल है। इसलिए मोक्षमार्ग के तीनपने की कल्पना जागृत होती है। कहा भी है− ‘क्रियाहीन ज्ञान नष्ट है और अज्ञानियों के क्रिया निष्फल है। एक चक्र से रथ नहीं चलता, अतः ज्ञानक्रिया का संयोग ही कार्यकारी है। जैसे कि दावानल से व्याप्त वन में अंधा व्यक्ति तो भागता-भागता जल जाता है और लंगड़ा देखता-देखता जल जाता है। यदि अंधा और लंगड़ा दोनों मिल जायें और अंधे के कंधों पर लंगड़ा बैठ जाये तो दोनों का उद्धार हो जायेगा तब लंगड़ा तो रास्ता बताता हुआ ज्ञान का कार्य करेगा तथा अंधा चलता हुआ चारित्र का कार्य करेगा। इस प्रकार दोनों ही वन से बचकर नगर में आ सकते हैं। <span class="GRef">(पद्मनन्दी पंचविंशतिका/1/75 )</span>, ([[विज्ञानवाद#2 | विज्ञानवाद - 2]])। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> सामायिक संयम या ज्ञानमात्र कहने से ही तीनों का ग्रहण हो जाता है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/1/1/49/14/14 </span><span class="SanskritText">‘अनंताः सामायिकसिद्धाः’ इत्येतदपि त्रितयमेव साधयति। कथम्। ज्ञस्वभावस्यात्मनस्तत्त्वं श्रद्धानस्य सामायिकचारित्रोपपत्तेः। समय एकत्वमभेद इत्यनर्थांतरम्, समय एव सामायिकं चारित्रं सर्वसावद्यनिवृत्तिरिति अभेदेन संग्रहादिति। </span>= <span class="HindiText">‘अनंत जीव सामायिक चारित्र से सिद्ध हो गये’ यह वचन भी तीनों के मोक्षमार्ग का समर्थन करता है। ज्ञानरूप आत्मा के तत्त्वश्रद्धानपूर्वक ही समताभावरूप चारित्र हो सकता है। समय, एकत्व और अभेद ये एकार्थवाची शब्द हैं। समय ही सामायिक चारित्र है। अर्थात् समस्त | <span class="GRef"> राजवार्तिक/1/1/49/14/14 </span><span class="SanskritText">‘अनंताः सामायिकसिद्धाः’ इत्येतदपि त्रितयमेव साधयति। कथम्। ज्ञस्वभावस्यात्मनस्तत्त्वं श्रद्धानस्य सामायिकचारित्रोपपत्तेः। समय एकत्वमभेद इत्यनर्थांतरम्, समय एव सामायिकं चारित्रं सर्वसावद्यनिवृत्तिरिति अभेदेन संग्रहादिति। </span>= <span class="HindiText">‘अनंत जीव सामायिक चारित्र से सिद्ध हो गये’ यह वचन भी तीनों के मोक्षमार्ग का समर्थन करता है। ज्ञानरूप आत्मा के तत्त्वश्रद्धानपूर्वक ही समताभावरूप चारित्र हो सकता है। समय, एकत्व और अभेद ये एकार्थवाची शब्द हैं। समय ही सामायिक चारित्र है। अर्थात् समस्त पाप योगों से निवृत्त होकर अभेद समता और वीतराग में प्रतिष्ठित होना सामायिक चारित्र है। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> परमात्मप्रकाश टीका/2/72/194/10 </span><span class="SanskritText"> अत्राह प्रभाकरभट्टः। हे भगवन्, यदि विज्ञानमात्रेण मोक्षो भवति तर्हि सांख्यादयो वदंति ज्ञानमात्रादेव मोक्षः तेषां किमिति दूषणं दीयते भवद्भिरिति। भगवानाह। अत्र वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनसम्यग्ज्ञानमिति भणितं तिष्ठति तेन वीतरागविशेषणेन चारित्रं लभ्यते सम्यग्विशेषणेन सम्यक्त्वमपि लभ्यते, पानकवदेकस्यापि मध्ये त्रयमस्ति। तेषां मते तु वीतरागविशेषणं नास्ति सम्यग्विशेषणं च नास्ति ज्ञानमात्रमेव। तेन दूषणं भवतीति भावार्थः। </span>=<span class="HindiText"> <strong>प्रश्न−</strong>हे भगवन् ! यदि विज्ञानमात्र से ही मोक्ष होता है(देखें [[ | <span class="GRef"> परमात्मप्रकाश टीका/2/72/194/10 </span><span class="SanskritText"> अत्राह प्रभाकरभट्टः। हे भगवन्, यदि विज्ञानमात्रेण मोक्षो भवति तर्हि सांख्यादयो वदंति ज्ञानमात्रादेव मोक्षः तेषां किमिति दूषणं दीयते भवद्भिरिति। भगवानाह। अत्र वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनसम्यग्ज्ञानमिति भणितं तिष्ठति तेन वीतरागविशेषणेन चारित्रं लभ्यते सम्यग्विशेषणेन सम्यक्त्वमपि लभ्यते, पानकवदेकस्यापि मध्ये त्रयमस्ति। तेषां मते तु वीतरागविशेषणं नास्ति सम्यग्विशेषणं च नास्ति ज्ञानमात्रमेव। तेन दूषणं भवतीति भावार्थः। </span>=<span class="HindiText"> <strong>प्रश्न−</strong>हे भगवन् ! यदि विज्ञानमात्र से ही मोक्ष होता है(देखें [[ मोक्षमार्ग#3 | आगे मोक्षमार्ग - 3]]) तो सांख्य, बौद्ध आदि लोग ज्ञान मात्र से ही मोक्ष कहते हैं; उन्हें दूषण क्यों देते हो ? <strong>उत्तर−</strong>हमारे यहाँ ‘वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदन सम्यग्ज्ञान’ ऐसा कहा गया है। वहाँ ‘वीतराग’ विशेषण से तो चारित्र का ग्रहण हो जाता है और ‘सम्यक् विशेषण से सम्यग्दर्शन का ग्रहण हो जाता है। पानकवत् एक को ही यहाँ तीनपना प्राप्त है। परंतु उनके मत में न वीतराग विशेषण है और न सम्यक् विशेषण। ज्ञान मात्र कहते हैं। इसलिए उनको दूषण दिया जाता है, ऐसा भावार्थ है। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/36/152/8 </span><span class="SanskritText">(क्रमशः) कश्चिदाह-सद्दृष्टीना वीतरागविशेषणं किमर्थं। रागादयो हेया मदीया न भवंतीति भेद विज्ञाने जाते सति रागानुभवेऽपि ज्ञानमात्रेण मोक्षो भवतीति। तत्र परिहारः। अंधकारे पुरुषद्वयम् एकः प्रदीपहस्तस्तिष्ठति, अन्यः पुनरेकः प्रदीपरहितस्तिष्ठति। स च कूपे पतनं सर्पादिकं वा न जानाति तस्य विनाशे दोषो नास्ति। यस्तु प्रदीपहस्तस्तस्य कूपपतनादिविनाशे प्रदीपफलं नास्ति। यस्तु कूपपतनादिकं त्यजति तस्य प्रदीपफलमस्ति। तथा कोऽपि रागादयो हेया मदीया न भवंतीति भेदविज्ञानं न जानाति स कर्मणा बध्यते तावत्। अन्यः कोऽपि रागादिभेदविज्ञाने जातेऽपि यावदंशेन रागादिकमनुभवति तावदंशेन सोऽपि बध्यत एव, तस्यापि रागादिभेदविज्ञानफलं नास्ति। यस्तु रागादिभेदविज्ञाने जाते सति रागादिकं त्यजति तस्य भेदविज्ञानफलमस्तीति ज्ञातव्यम्। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न−</strong>सम्यग्दृष्टियों को वीतराग विशेषण किसलिए दिया जाता है। ‘रागादिक हेय हैं, ये मेरे नहीं हैं’ इतना मात्र भेद विज्ञान हो जाने पर राग का अनुभव होते हुए भी ज्ञान मात्र से ही मोक्ष हो जाता है। <strong>उत्तर−</strong> अंधकार में दीपक रहित कोई पुरुष कुएँ में गिरता है तो कोई दोष नहीं, परंतु दीपक हाथ में लेकर भी यदि कोई कुएँ में गिरे तो उसे दीपक का कोई फल नहीं है, कुएँ में गिरने आदि का त्याग करना ही दीपक का फल है। इसी प्रकार भेदविज्ञान रहित व्यक्ति को तो कर्म बंधते ही हैं, परंतु भेदविज्ञान हो जाने पर भी जितने अंश में रागादि का अनुभव होता है, उतने अंश में बंधता ही है और उसको भी उतने अंश में भेदविज्ञान का फल नहीं है। जो भेदविज्ञान हो जाने पर रागादिक का त्याग करता है उसको ही भेद विज्ञान का फल हुआ जानना चाहिए। <br /> | <span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/36/152/8 </span><span class="SanskritText">(क्रमशः) कश्चिदाह-सद्दृष्टीना वीतरागविशेषणं किमर्थं। रागादयो हेया मदीया न भवंतीति भेद विज्ञाने जाते सति रागानुभवेऽपि ज्ञानमात्रेण मोक्षो भवतीति। तत्र परिहारः। अंधकारे पुरुषद्वयम् एकः प्रदीपहस्तस्तिष्ठति, अन्यः पुनरेकः प्रदीपरहितस्तिष्ठति। स च कूपे पतनं सर्पादिकं वा न जानाति तस्य विनाशे दोषो नास्ति। यस्तु प्रदीपहस्तस्तस्य कूपपतनादिविनाशे प्रदीपफलं नास्ति। यस्तु कूपपतनादिकं त्यजति तस्य प्रदीपफलमस्ति। तथा कोऽपि रागादयो हेया मदीया न भवंतीति भेदविज्ञानं न जानाति स कर्मणा बध्यते तावत्। अन्यः कोऽपि रागादिभेदविज्ञाने जातेऽपि यावदंशेन रागादिकमनुभवति तावदंशेन सोऽपि बध्यत एव, तस्यापि रागादिभेदविज्ञानफलं नास्ति। यस्तु रागादिभेदविज्ञाने जाते सति रागादिकं त्यजति तस्य भेदविज्ञानफलमस्तीति ज्ञातव्यम्। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न−</strong>सम्यग्दृष्टियों को वीतराग विशेषण किसलिए दिया जाता है। ‘रागादिक हेय हैं, ये मेरे नहीं हैं’ इतना मात्र भेद विज्ञान हो जाने पर राग का अनुभव होते हुए भी ज्ञान मात्र से ही मोक्ष हो जाता है। <strong>उत्तर−</strong> अंधकार में दीपक रहित कोई पुरुष कुएँ में गिरता है तो कोई दोष नहीं, परंतु दीपक हाथ में लेकर भी यदि कोई कुएँ में गिरे तो उसे दीपक का कोई फल नहीं है, कुएँ में गिरने आदि का त्याग करना ही दीपक का फल है। इसी प्रकार भेदविज्ञान रहित व्यक्ति को तो कर्म बंधते ही हैं, परंतु भेदविज्ञान हो जाने पर भी जितने अंश में रागादि का अनुभव होता है, उतने अंश में बंधता ही है और उसको भी उतने अंश में भेदविज्ञान का फल नहीं है। जो भेदविज्ञान हो जाने पर रागादिक का त्याग करता है उसको ही भेद विज्ञान का फल हुआ जानना चाहिए। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> वास्तव में मार्ग तीन नहीं एक है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> न्यायदीपिका/3/73/113 </span><span class="SanskritText">सम्यग्दर्शनादीनि मोक्षस्य सकलकर्मक्षयस्य मार्गः उपायः न तु मार्गाः।...इत्येकवचनप्रयोगतात्पर्यसिद्धः। </span>= <span class="HindiText">सम्यग्दर्शनादि मोक्ष का अर्थात् सकलकर्म के क्षय का एक मार्ग है, अनेक मार्ग नहीं हैं। सूत्र में एकवचन के प्रयोग से यह बात सिद्ध होती है। <br /> | <span class="GRef"> न्यायदीपिका/3/73/113 </span><span class="SanskritText">सम्यग्दर्शनादीनि मोक्षस्य सकलकर्मक्षयस्य मार्गः उपायः न तु मार्गाः।...इत्येकवचनप्रयोगतात्पर्यसिद्धः। </span>= <span class="HindiText">सम्यग्दर्शनादि मोक्ष का अर्थात् सकलकर्म के क्षय का एक मार्ग है, अनेक मार्ग नहीं हैं। सूत्र में एकवचन के प्रयोग से यह बात सिद्ध होती है। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> युगपत् होते हुए भी तीनों का स्वरूप भिन्न है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/1/1/ | <span class="GRef"> राजवार्तिक/1/1/वार्तिक/पृष्ठ/पंक्ति </span> <span class="SanskritText">ज्ञानदर्शनयोर्युगपत्प्रवृत्तेरेकत्वमिति चेत्; न; तत्त्वावायश्रद्धानभेदात् तापप्रकाशवत्। (60/16/3) । ज्ञानचारित्रयोरेकभेदादेकत्वम् अगम्याववोधवदिति चेत्; न; आशूत्पत्तौ सूक्ष्मकालाप्रतिपत्तेः उत्पलपत्रशतव्यधनवत् (63/16/23)। अर्थभेदाच्च। (64/17/1)। कालभेदाभावो नार्थभेदहेतुः गतिजात्यादिवत्। (65/17/3)। </span>=<span class="HindiText"> यद्यपि अग्नि के ताप व प्रकाशवत् सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान युगपत् उत्पन्न होते हैं परंतु तत्त्वों का ज्ञान व उनका श्रद्धान रूप से इनके स्वरूप में भेद है। जैसे अंधकार में ग्रहण की गयी माता को बिजली की चमक का प्रकाश होने पर अगम्य जानकर छोड़ देता है, उसी प्रकार ज्ञान व चारित्र यद्यपि युगपत् होते प्रतीत होते हैं परंतु वास्तव में उनमें कालभेद है, जो कि अत्यंत सूक्ष्म होने के कारण जानने में नहीं आता । जैसे कि सौ कमलपत्रों को एक सुई से बींधने पर प्रत्येक पत्र के बिंधने का काल पृथक्-पृथक् प्रतीति में नहीं आता है। अतः काल की एकता का हेतु देकर ज्ञान व चारित्र में एकता नहीं की जा सकती। दूसरे काल का अभेद हो जाने से अर्थ का भी अभेद हो जाता हो ऐसा कोई नियम नहीं है, जैसे कि मनुष्य गति और उसकी पंचेंद्रिय जाति का काल अभिन्न होने पर भी वे दोनों भिन्न हैं। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.6" id="1.6"> तीनों की पूर्णता युगपत् नहीं होती</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/1/1/ | <span class="GRef"> राजवार्तिक/1/1/ वार्तिक/पृष्ठ/पंक्ति</span>-<span class="SanskritText">एषां पूर्वस्य लाभे भजनीयमुत्तरम्। (69/17/24)। उत्तरलाभे तु नियतः पूर्वलाभ। (70/17/26)। तदनुपपत्तिः, अज्ञानपूर्वकश्रद्धानप्रसंगात्। (71/17/30)। न वा; यावति ज्ञानमित्येतत् परिसमाप्यते तावतोऽसंभवात्तयापेक्षं वचनम्।.....तदपेक्ष्य संपूर्णद्वादशांगचतुर्दशपूर्वलक्षणं श्रुतं केवलं च भजनीयमुक्तम्। तथा पूर्वं सम्यग्दर्शनलाभे देशचारित्रं संयतासंयतस्य सर्वचारित्रं च प्रमत्तदारभ्य सूक्ष्मसांपरायांतानां यच्च यावच्च नियमादस्ति, संपूर्णं यथाख्यातचारित्रं तु भजनीयम्। (74/18/7)। अथवा क्षायिकसम्यग्दर्शनस्य लाभे क्षायिकं सम्यग्ज्ञानं भजनीयम्।...सम्यग्दर्शनस्य सम्यग्ज्ञानस्य वा अन्यतरस्यात्मलाभे चारित्रमुत्तरं भजनीयम्। (75/18/20)।</span> = <span class="HindiText">सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र में पूर्व पूर्व की प्राप्ति होने पर उत्तर उत्तर की प्राप्ति भजनीय है अर्थात् हो भी और न भी हो। परंतु उत्तर की प्राप्ति में पूर्व का लाभ निश्चित है। जैसे−जिसे सम्यक्चारित्र होगा उसे सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान होंगे ही, पर जिसे सम्यग्दर्शन है उसे पूर्ण सम्यग्ज्ञान और चारित्र हो भी और न भी हो। <strong>प्रश्न−</strong>ऐसा मानने से अज्ञानपूर्वक श्रद्धान का प्रसंग आता है। <strong>उत्तर−</strong>पूर्ण ज्ञान को भजनीय कहा है न कि ज्ञानसामान्य को। ज्ञान की पूर्णता श्रुतकेवली और केवली के होती है। सम्यग्दर्शन के होने पर पूर्ण द्वादशांग और चतुर्दशपूर्वरूप श्रुतज्ञान और केवलज्ञान हो ही जायेगा यह नियम नहीं है। इसी तरह चारित्र भी समझ लेना चाहिए। सम्यग्दर्शन के होने पर देश, सकल या यथाख्यात चारित्र, संयतासंयत को सकल व यथाख्यात चारित्र, 6-10 गुणस्थानवर्ती साधु को यथाख्यात चारित्र भजनीय हैं। अथवा क्षायिक सम्यग्दर्शन हो जाने पर क्षायिक सम्यग्ज्ञान भजनीय है। अथवा सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान में से किसी एक या दोनों के प्राप्त हो जाने पर पूर्ण चारित्र (अयोगी गुणस्थान का यथाख्यात चारित्र) भजनीय है। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.7" id="1.7"> मोक्ष के अन्य कारणों का निर्देश</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/1/4/15/6 </span><span class="SanskritText"> मोक्षस्य प्रधानहेतुः संवरो निर्जरा च।</span> = <span class="HindiText">मोक्ष के प्रधान हेतु संवर निर्जरा हैं। | <span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/1/4/15/6 </span><span class="SanskritText"> मोक्षस्य प्रधानहेतुः संवरो निर्जरा च।</span> = <span class="HindiText">मोक्ष के प्रधान हेतु संवर निर्जरा हैं। <span class="GRef">( राजवार्तिक/1/4/3/25/9 )</span>। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 7/2, 1, 7/ </span> | <span class="GRef"> धवला 7/2, 1, 7/ गाथा 3/9</span> <span class="PrakritText">ओदइया बंधयरा उवसमखयमिस्सया य मोक्खयरा। भावो दु पारिणामिओ....।3। </span>= <span class="HindiText">औदयिक भाव बंध करने वाले हैं तथा औपशमिक, क्षायिक व क्षायोपशमिक भाव मोक्ष के कारण हैं। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 7/2, 1, 7/ </span> | <span class="GRef"> धवला 7/2, 1, 7/ पृष्ठ/पंक्ति</span> <span class="PrakritText">सम्मद्दंसण-संजमाकसायाजोगा मोक्खकरणाणि। (9/6)। एदेसिं पडिवक्खा सम्मत्तुपत्ती देससंजम-संजम-अणंताणुबंधिविसंयोजण-दंसणमोहक्खवणचरित्तमोहुवसामणुवसंत-कसाय-चरित्तमोहक्खवण-खीणकसाय-सजोगिकेवलीपरिणामा मोक्खपच्चया, एदेहिंतो समयं पडि असंखेज्जगुणसेडीए कम्मणिज्जरुवलंभादो। (13/10)।</span> = <span class="HindiText">बंध के मिथ्यात्वादि प्रत्ययों से विपरीत सम्यग्दर्शन, संयम, अकषाय, अयोग अथवा (गुणस्थानक्रम से) सम्यक्त्वोत्पत्ति, देशसंयम, संयम, अनंतानुबंधीविसंयोजन, दर्शनमोहक्षपण, चारित्रमोहोपशमन, उपशांतकषाय, चारित्रमोह क्षपण, क्षीणकषाय व सयोगकेवली के परिणाम भी मोक्ष के प्रत्यय हैं, क्योंकि इनके द्वारा प्रति समय असंख्यात गुणी कर्मों की निर्जरा पायी जाती है। </span></li> | ||
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Latest revision as of 15:20, 27 November 2023
- मोक्षमार्ग सामान्य निर्देश
- मोक्षमार्ग का लक्षण
तत्त्वार्थसूत्र/1/1 सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः।1। = सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र इन तीनों की एकता मोक्षमार्ग है।
- तीनों की युगपतता ही मोक्षमार्ग है
प्रवचनसार/237 ण हि आगमेण सिज्झदि सद्दहणं जदि वि णत्थि अत्थेसु। सद्दहमाणो अत्थे असंजदो वा ण णिव्वदि।237। = आगम से यदि पदार्थों का श्रद्धान न हो तो सिद्धि नहीं होती। पदार्थों का श्रद्धान करने वाला भी यदि असंयत हो तो निर्वाण को प्राप्त नहीं होता।
मोक्षपाहुड़/59 तवरहियं जं णाणं णाणविजुत्तो तवो वि अकयत्थो। तम्हा णाणतवेणं संजुत्तो लहइ णिव्वाणं। = जो ज्ञान तप रहित है और जो तप ज्ञान रहित है, वे दोनों ही अकार्यकारी हैं। अतः ज्ञान व तप दोनों संयुक्त होने से ही निर्वाण प्राप्त होता है।
दर्शनपाहुड़/मूल/30 णाणेण दंसणेण य तवेण चरियेण संजमगुणेण। चउहिं पि समाजोगे मोक्खो जिणसासणे दिट्ठो।30। = सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र व सम्यक्तप इन चारों के मेल से ही संयम होता है। उससे जीव मोक्ष प्राप्त करता है। ( दर्शनपाहुड़/मूल/32 )।
मू. आ./898-899 णिज्जावगो य णाणं वादो झाणं चरित्त णावा हि। भवसागरं तु भविया तरंति तिहिसण्णिपायेण।898। णाणं पयासओ तवो सोधओ संजमो य गुत्तियरो। तिण्हंपि य संजोगे होदि हु जिणसासणे मोक्खो।899। = जहा़ज चलाने वाला निर्यापक तो ज्ञान है, पवन की जगह ध्यान है और चारित्र जहा़ज है। इन ज्ञान ध्यान चारित्र तीनों के मेल से भव्य जीव संसारसमुद्र से पार हो जाते हैं।898। ज्ञान तो प्रकाशक है, तप-कर्म-विनाशक है और चारित्र रक्षक। इन तीनों के संयोग से मोक्ष होता है।899।
सर्वार्थसिद्धि/1/1/7/5 मार्गः इति च एकवचन-निर्देशः समस्तस्य मार्गभावज्ञापनार्थः। तेन व्यस्तस्य मार्गत्वनिवृत्तिः कृता भवति। अतः सम्यग्दर्शनं सम्यग्ज्ञानं सम्यक्चारित्रमित्येतत् त्रितयं मुदितं मोक्षस्य साक्षान्मार्गो वेदितव्यः। = सूत्र में ‘मार्गः’ ऐसा जो एकवचन निर्देश किया है, वह तीनों मिलकर मोक्षमार्ग है’, यह बताने के लिए किया है। इससे सम्यग्ज्ञान या सम्यग्दर्शन या सम्यक्चारित्र में पृथक्-पृथक् रहते हुए मार्गपने का निषेध हो जाता है। अतः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र तीनों मिलकर ही मोक्ष का साक्षत् मार्ग है, ऐसा जानना चाहिए। ( महापुराण/24/120-122 ), ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/236-237 ); ( न्यायदीपिका/3/73/113 )।
राजवार्तिक/1/1/49/14/1 अतो रसायनज्ञानश्रद्धानक्रियासेवनोपेतस्य तत्फलेनाभिसंबंध इति निःप्रतिद्वंद्वमेतत्। तथा न मोक्षमार्गज्ञानादेव मोक्षेणाभिसंबंधो; दर्शनचारित्राभावात्। न च श्रद्धानादेव; मोक्षमार्गज्ञानपूर्वक्रियानुष्ठानाभावात्। न च क्रियामात्रादेव; ज्ञानश्रद्धानाभावात्। यतः क्रियाज्ञानश्रद्धानरहिता निःफलेति।..... यतो मोक्षमार्गत्रितयकल्पना ज्यायसीति।...उक्तंच−हतं ज्ञानं क्रियाहीनं हता चाज्ञानिनां क्रिया। धावन् किलांध को दग्धः पश्यन्नपि च पंगुलः।1। संयोगमेवेह वदंति तज्ज्ञा न ह्येकचक्रेण रथः प्रयाति। अंधश्च पंगुश्च वने प्रविष्टो तौ संप्रयुक्तौ नगरं प्रविष्टौ।2। = औषधि के पूर्णफल की प्राप्ति के लिए जैसे उसका श्रद्धान ज्ञान व सेवनरूप क्रिया आवश्यक है, उसी प्रकार सम्यग्दर्शनादि तीनों के मेल से उनके फल की प्राप्ति होती है। दर्शन और चारित्र का अभाव होने के कारण ज्ञानमात्र से, ज्ञानपूर्वकक्रिया रूप अनुष्ठान के अभाव के कारण श्रद्धानमात्र से और ज्ञान तथा श्रद्धान के अभाव के कारण क्रियामात्र से मोक्ष नहीं होता, क्योंकि ज्ञान व श्रद्धान रहित क्रिया निष्फल है। इसलिए मोक्षमार्ग के तीनपने की कल्पना जागृत होती है। कहा भी है− ‘क्रियाहीन ज्ञान नष्ट है और अज्ञानियों के क्रिया निष्फल है। एक चक्र से रथ नहीं चलता, अतः ज्ञानक्रिया का संयोग ही कार्यकारी है। जैसे कि दावानल से व्याप्त वन में अंधा व्यक्ति तो भागता-भागता जल जाता है और लंगड़ा देखता-देखता जल जाता है। यदि अंधा और लंगड़ा दोनों मिल जायें और अंधे के कंधों पर लंगड़ा बैठ जाये तो दोनों का उद्धार हो जायेगा तब लंगड़ा तो रास्ता बताता हुआ ज्ञान का कार्य करेगा तथा अंधा चलता हुआ चारित्र का कार्य करेगा। इस प्रकार दोनों ही वन से बचकर नगर में आ सकते हैं। (पद्मनन्दी पंचविंशतिका/1/75 ), ( विज्ञानवाद - 2)।
- सामायिक संयम या ज्ञानमात्र कहने से ही तीनों का ग्रहण हो जाता है
राजवार्तिक/1/1/49/14/14 ‘अनंताः सामायिकसिद्धाः’ इत्येतदपि त्रितयमेव साधयति। कथम्। ज्ञस्वभावस्यात्मनस्तत्त्वं श्रद्धानस्य सामायिकचारित्रोपपत्तेः। समय एकत्वमभेद इत्यनर्थांतरम्, समय एव सामायिकं चारित्रं सर्वसावद्यनिवृत्तिरिति अभेदेन संग्रहादिति। = ‘अनंत जीव सामायिक चारित्र से सिद्ध हो गये’ यह वचन भी तीनों के मोक्षमार्ग का समर्थन करता है। ज्ञानरूप आत्मा के तत्त्वश्रद्धानपूर्वक ही समताभावरूप चारित्र हो सकता है। समय, एकत्व और अभेद ये एकार्थवाची शब्द हैं। समय ही सामायिक चारित्र है। अर्थात् समस्त पाप योगों से निवृत्त होकर अभेद समता और वीतराग में प्रतिष्ठित होना सामायिक चारित्र है।
परमात्मप्रकाश टीका/2/72/194/10 अत्राह प्रभाकरभट्टः। हे भगवन्, यदि विज्ञानमात्रेण मोक्षो भवति तर्हि सांख्यादयो वदंति ज्ञानमात्रादेव मोक्षः तेषां किमिति दूषणं दीयते भवद्भिरिति। भगवानाह। अत्र वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनसम्यग्ज्ञानमिति भणितं तिष्ठति तेन वीतरागविशेषणेन चारित्रं लभ्यते सम्यग्विशेषणेन सम्यक्त्वमपि लभ्यते, पानकवदेकस्यापि मध्ये त्रयमस्ति। तेषां मते तु वीतरागविशेषणं नास्ति सम्यग्विशेषणं च नास्ति ज्ञानमात्रमेव। तेन दूषणं भवतीति भावार्थः। = प्रश्न−हे भगवन् ! यदि विज्ञानमात्र से ही मोक्ष होता है(देखें आगे मोक्षमार्ग - 3) तो सांख्य, बौद्ध आदि लोग ज्ञान मात्र से ही मोक्ष कहते हैं; उन्हें दूषण क्यों देते हो ? उत्तर−हमारे यहाँ ‘वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदन सम्यग्ज्ञान’ ऐसा कहा गया है। वहाँ ‘वीतराग’ विशेषण से तो चारित्र का ग्रहण हो जाता है और ‘सम्यक् विशेषण से सम्यग्दर्शन का ग्रहण हो जाता है। पानकवत् एक को ही यहाँ तीनपना प्राप्त है। परंतु उनके मत में न वीतराग विशेषण है और न सम्यक् विशेषण। ज्ञान मात्र कहते हैं। इसलिए उनको दूषण दिया जाता है, ऐसा भावार्थ है।
द्रव्यसंग्रह टीका/36/152/8 (क्रमशः) कश्चिदाह-सद्दृष्टीना वीतरागविशेषणं किमर्थं। रागादयो हेया मदीया न भवंतीति भेद विज्ञाने जाते सति रागानुभवेऽपि ज्ञानमात्रेण मोक्षो भवतीति। तत्र परिहारः। अंधकारे पुरुषद्वयम् एकः प्रदीपहस्तस्तिष्ठति, अन्यः पुनरेकः प्रदीपरहितस्तिष्ठति। स च कूपे पतनं सर्पादिकं वा न जानाति तस्य विनाशे दोषो नास्ति। यस्तु प्रदीपहस्तस्तस्य कूपपतनादिविनाशे प्रदीपफलं नास्ति। यस्तु कूपपतनादिकं त्यजति तस्य प्रदीपफलमस्ति। तथा कोऽपि रागादयो हेया मदीया न भवंतीति भेदविज्ञानं न जानाति स कर्मणा बध्यते तावत्। अन्यः कोऽपि रागादिभेदविज्ञाने जातेऽपि यावदंशेन रागादिकमनुभवति तावदंशेन सोऽपि बध्यत एव, तस्यापि रागादिभेदविज्ञानफलं नास्ति। यस्तु रागादिभेदविज्ञाने जाते सति रागादिकं त्यजति तस्य भेदविज्ञानफलमस्तीति ज्ञातव्यम्। = प्रश्न−सम्यग्दृष्टियों को वीतराग विशेषण किसलिए दिया जाता है। ‘रागादिक हेय हैं, ये मेरे नहीं हैं’ इतना मात्र भेद विज्ञान हो जाने पर राग का अनुभव होते हुए भी ज्ञान मात्र से ही मोक्ष हो जाता है। उत्तर− अंधकार में दीपक रहित कोई पुरुष कुएँ में गिरता है तो कोई दोष नहीं, परंतु दीपक हाथ में लेकर भी यदि कोई कुएँ में गिरे तो उसे दीपक का कोई फल नहीं है, कुएँ में गिरने आदि का त्याग करना ही दीपक का फल है। इसी प्रकार भेदविज्ञान रहित व्यक्ति को तो कर्म बंधते ही हैं, परंतु भेदविज्ञान हो जाने पर भी जितने अंश में रागादि का अनुभव होता है, उतने अंश में बंधता ही है और उसको भी उतने अंश में भेदविज्ञान का फल नहीं है। जो भेदविज्ञान हो जाने पर रागादिक का त्याग करता है उसको ही भेद विज्ञान का फल हुआ जानना चाहिए।
- वास्तव में मार्ग तीन नहीं एक है
न्यायदीपिका/3/73/113 सम्यग्दर्शनादीनि मोक्षस्य सकलकर्मक्षयस्य मार्गः उपायः न तु मार्गाः।...इत्येकवचनप्रयोगतात्पर्यसिद्धः। = सम्यग्दर्शनादि मोक्ष का अर्थात् सकलकर्म के क्षय का एक मार्ग है, अनेक मार्ग नहीं हैं। सूत्र में एकवचन के प्रयोग से यह बात सिद्ध होती है।
- युगपत् होते हुए भी तीनों का स्वरूप भिन्न है
राजवार्तिक/1/1/वार्तिक/पृष्ठ/पंक्ति ज्ञानदर्शनयोर्युगपत्प्रवृत्तेरेकत्वमिति चेत्; न; तत्त्वावायश्रद्धानभेदात् तापप्रकाशवत्। (60/16/3) । ज्ञानचारित्रयोरेकभेदादेकत्वम् अगम्याववोधवदिति चेत्; न; आशूत्पत्तौ सूक्ष्मकालाप्रतिपत्तेः उत्पलपत्रशतव्यधनवत् (63/16/23)। अर्थभेदाच्च। (64/17/1)। कालभेदाभावो नार्थभेदहेतुः गतिजात्यादिवत्। (65/17/3)। = यद्यपि अग्नि के ताप व प्रकाशवत् सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान युगपत् उत्पन्न होते हैं परंतु तत्त्वों का ज्ञान व उनका श्रद्धान रूप से इनके स्वरूप में भेद है। जैसे अंधकार में ग्रहण की गयी माता को बिजली की चमक का प्रकाश होने पर अगम्य जानकर छोड़ देता है, उसी प्रकार ज्ञान व चारित्र यद्यपि युगपत् होते प्रतीत होते हैं परंतु वास्तव में उनमें कालभेद है, जो कि अत्यंत सूक्ष्म होने के कारण जानने में नहीं आता । जैसे कि सौ कमलपत्रों को एक सुई से बींधने पर प्रत्येक पत्र के बिंधने का काल पृथक्-पृथक् प्रतीति में नहीं आता है। अतः काल की एकता का हेतु देकर ज्ञान व चारित्र में एकता नहीं की जा सकती। दूसरे काल का अभेद हो जाने से अर्थ का भी अभेद हो जाता हो ऐसा कोई नियम नहीं है, जैसे कि मनुष्य गति और उसकी पंचेंद्रिय जाति का काल अभिन्न होने पर भी वे दोनों भिन्न हैं।
- तीनों की पूर्णता युगपत् नहीं होती
राजवार्तिक/1/1/ वार्तिक/पृष्ठ/पंक्ति-एषां पूर्वस्य लाभे भजनीयमुत्तरम्। (69/17/24)। उत्तरलाभे तु नियतः पूर्वलाभ। (70/17/26)। तदनुपपत्तिः, अज्ञानपूर्वकश्रद्धानप्रसंगात्। (71/17/30)। न वा; यावति ज्ञानमित्येतत् परिसमाप्यते तावतोऽसंभवात्तयापेक्षं वचनम्।.....तदपेक्ष्य संपूर्णद्वादशांगचतुर्दशपूर्वलक्षणं श्रुतं केवलं च भजनीयमुक्तम्। तथा पूर्वं सम्यग्दर्शनलाभे देशचारित्रं संयतासंयतस्य सर्वचारित्रं च प्रमत्तदारभ्य सूक्ष्मसांपरायांतानां यच्च यावच्च नियमादस्ति, संपूर्णं यथाख्यातचारित्रं तु भजनीयम्। (74/18/7)। अथवा क्षायिकसम्यग्दर्शनस्य लाभे क्षायिकं सम्यग्ज्ञानं भजनीयम्।...सम्यग्दर्शनस्य सम्यग्ज्ञानस्य वा अन्यतरस्यात्मलाभे चारित्रमुत्तरं भजनीयम्। (75/18/20)। = सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र में पूर्व पूर्व की प्राप्ति होने पर उत्तर उत्तर की प्राप्ति भजनीय है अर्थात् हो भी और न भी हो। परंतु उत्तर की प्राप्ति में पूर्व का लाभ निश्चित है। जैसे−जिसे सम्यक्चारित्र होगा उसे सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान होंगे ही, पर जिसे सम्यग्दर्शन है उसे पूर्ण सम्यग्ज्ञान और चारित्र हो भी और न भी हो। प्रश्न−ऐसा मानने से अज्ञानपूर्वक श्रद्धान का प्रसंग आता है। उत्तर−पूर्ण ज्ञान को भजनीय कहा है न कि ज्ञानसामान्य को। ज्ञान की पूर्णता श्रुतकेवली और केवली के होती है। सम्यग्दर्शन के होने पर पूर्ण द्वादशांग और चतुर्दशपूर्वरूप श्रुतज्ञान और केवलज्ञान हो ही जायेगा यह नियम नहीं है। इसी तरह चारित्र भी समझ लेना चाहिए। सम्यग्दर्शन के होने पर देश, सकल या यथाख्यात चारित्र, संयतासंयत को सकल व यथाख्यात चारित्र, 6-10 गुणस्थानवर्ती साधु को यथाख्यात चारित्र भजनीय हैं। अथवा क्षायिक सम्यग्दर्शन हो जाने पर क्षायिक सम्यग्ज्ञान भजनीय है। अथवा सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान में से किसी एक या दोनों के प्राप्त हो जाने पर पूर्ण चारित्र (अयोगी गुणस्थान का यथाख्यात चारित्र) भजनीय है।
- मोक्ष के अन्य कारणों का निर्देश
सर्वार्थसिद्धि/1/4/15/6 मोक्षस्य प्रधानहेतुः संवरो निर्जरा च। = मोक्ष के प्रधान हेतु संवर निर्जरा हैं। ( राजवार्तिक/1/4/3/25/9 )।
धवला 7/2, 1, 7/ गाथा 3/9 ओदइया बंधयरा उवसमखयमिस्सया य मोक्खयरा। भावो दु पारिणामिओ....।3। = औदयिक भाव बंध करने वाले हैं तथा औपशमिक, क्षायिक व क्षायोपशमिक भाव मोक्ष के कारण हैं।
धवला 7/2, 1, 7/ पृष्ठ/पंक्ति सम्मद्दंसण-संजमाकसायाजोगा मोक्खकरणाणि। (9/6)। एदेसिं पडिवक्खा सम्मत्तुपत्ती देससंजम-संजम-अणंताणुबंधिविसंयोजण-दंसणमोहक्खवणचरित्तमोहुवसामणुवसंत-कसाय-चरित्तमोहक्खवण-खीणकसाय-सजोगिकेवलीपरिणामा मोक्खपच्चया, एदेहिंतो समयं पडि असंखेज्जगुणसेडीए कम्मणिज्जरुवलंभादो। (13/10)। = बंध के मिथ्यात्वादि प्रत्ययों से विपरीत सम्यग्दर्शन, संयम, अकषाय, अयोग अथवा (गुणस्थानक्रम से) सम्यक्त्वोत्पत्ति, देशसंयम, संयम, अनंतानुबंधीविसंयोजन, दर्शनमोहक्षपण, चारित्रमोहोपशमन, उपशांतकषाय, चारित्रमोह क्षपण, क्षीणकषाय व सयोगकेवली के परिणाम भी मोक्ष के प्रत्यय हैं, क्योंकि इनके द्वारा प्रति समय असंख्यात गुणी कर्मों की निर्जरा पायी जाती है।
- मोक्षमार्ग का लक्षण