चेतना: Difference between revisions
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<span class="HindiText"> | <span class="HindiText">स्वसंवेदन गम्य अंतरंग प्रकाश स्वरूप भाव विशेष को चेतना कहते हैं। वह दो प्रकार की है–शुद्ध व अशुद्ध। ज्ञानी व वीतरीगी जीवों का केवल जानने रूप भाव शुद्ध चेतना है। इसे ही <strong> ज्ञान चेतना </strong> भी कहते हैं। इसमें ज्ञान की केवल ज्ञप्ति रूप क्रिया होती है। ज्ञाता द्रष्टा भाव से पदार्थों को मात्र जानना, उनमें इष्टानिष्ट बुद्धि न करना यह इसका अर्थ है। अशुद्ध चेतना दो प्रकार की है–कर्म चेतना व कर्मफल चेतना। इष्टानिष्ट बुद्धि सहित परपदार्थों में करने-धरने के अहंकार सहित जानना सो <strong>कर्म चेतना</strong> है, और इंद्रियजन्य सुख-दु:ख में तन्मय होकर ‘सुखी-दुखी’ ऐसा अनुभव करना <strong>कर्मफल चेतना</strong> है। सर्व संसारी जीवों में यह दोनों कर्म व कर्मफल चेतना ही मुख्यत: पायी जाती है। तहाँ भी बुद्धि हीन असंज्ञी जीवों में केवल कर्मफल चेतना है, क्योंकि वहाँ केवल सुख-दु:ख का भोगना मात्र है, बुद्धि पूर्वक कुछ करने का उन्हें अवकाश नहीं। </span> | ||
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<li class="HindiText"><strong>[[ #1 | भेद व लक्षण]]</strong></li> | <li class="HindiText"><strong>[[ #1 | भेद व लक्षण]]</strong></li> | ||
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<li class="HindiText"><strong>[[ #2 | ज्ञान अज्ञान चेतना निर्देश]]</strong></li> | <li class="HindiText"><strong>[[ #2 | ज्ञान अज्ञान चेतना निर्देश]]</strong></li> | ||
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<li class="HindiText">[[ #2.1 | सम्यग्दृष्टि को | <li class="HindiText">[[ #2.1 | सम्यग्दृष्टि को ज्ञान चेतना ही इष्ट है]]</li> | ||
<li class="HindiText">[[ #2.2 | | <li class="HindiText">[[ #2.2 | ज्ञान चेतना सम्यग्दृष्टि को ही होती है]]</li> | ||
<li class="HindiText">[[ #2.3 | निजात्म तत्त्व को छोड़कर | <li class="HindiText">[[ #2.3 | निजात्म तत्त्व को छोड़कर ज्ञान चेतना अन्य अर्थों में नहीं प्रवर्तती]]</li> | ||
<li class="HindiText">[[ #2.4 | मिथ्यादृष्टि को कर्म व कर्मफल चेतना ही होती है ]]</li> | <li class="HindiText">[[ #2.4 | मिथ्यादृष्टि को कर्म व कर्मफल चेतना ही होती है ]]</li> | ||
<li class="HindiText">[[ #2.5 | | <li class="HindiText">[[ #2.5 | अज्ञान चेतना संसार का बीज है]]</li> | ||
<li class="HindiText">[[ #2.6 | त्रस स्थावर आदि की अपेक्षा तीनों चेतनाओं का स्वामित्व]]</li> | <li class="HindiText">[[ #2.6 | त्रस स्थावर आदि की अपेक्षा तीनों चेतनाओं का स्वामित्व]]</li> | ||
<li class="HindiText">[[ #2.7 | अन्य संबंधित विषय]]</li> | <li class="HindiText">[[ #2.7 | अन्य संबंधित विषय]]</li> | ||
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<li class="HindiText">[[ #3.6 | कर्मधारा में ही कर्तापना है ज्ञानधारा में नहीं]]</li> | <li class="HindiText">[[ #3.6 | कर्मधारा में ही कर्तापना है ज्ञानधारा में नहीं]]</li> | ||
<li class="HindiText">[[ #3.7 | जब तक बुद्धि है, तब तक अज्ञानी है]]</li> | <li class="HindiText">[[ #3.7 | जब तक बुद्धि है, तब तक अज्ञानी है]]</li> | ||
<li class="HindiText">[[ #3.8 | वास्तव में | <li class="HindiText">[[ #3.8 | वास्तव में ज्ञप्ति क्रियायुक्त ही ज्ञानी है]]</li> | ||
<li class="HindiText">[[ #3.9 | कर्ताबुद्धि छोड़ने का उपाय]]</li> | <li class="HindiText">[[ #3.9 | कर्ताबुद्धि छोड़ने का उपाय]]</li> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1" id="1"> भेद व लक्षण</strong> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1">चेतना सामान्य का लक्षण</strong></span><br><span class="GRef"> राजवार्तिक/1/4/14/26/11 </span><span class="SanskritText">जीवस्वभावश्चेतना।...यत्संनिधानादात्मा ज्ञाना द्रष्टा कर्ता भोक्ता व भवति तल्लक्षणो जीव:। </span>=<span class="HindiText">जिस शक्ति के सान्निध्य से आत्मा ज्ञाता, द्रष्टा अथवा कर्ता-भोक्ता होता है वह चेतना है और वही जीव का स्वभाव होने से उसका लक्षण है।</span><br> | ||
<span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/64 </span><span class="SanskritText">अणुहवभावो चेयणम् ।</span>=<span class="HindiText"> | <span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/64 </span><span class="SanskritText">अणुहवभावो चेयणम् ।</span>=<span class="HindiText">अनुभव रूप भाव का नाम चेतन है। <span class="GRef"> (आलापपद्धति/6), (नय चक्र श्रुत/57)</span></span><br> | ||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/298-299 </span><span class="SanskritText">चेतना तावत्प्रतिभासरूपा: सा तु तेषामेव वस्तूनां सामान्यविशेषात्मकत्वात् द्वैरूप्यं नातिक्रामति। ये तु तस्या द्वे रूपे ते दर्शनज्ञाने।</span> =<span class="HindiText">चेतना प्रतिभास रूप होती है। वह चेतना द्विरूपता का उल्लंघन नहीं करती, क्योंकि समस्त वस्तुएँ सामान्य विशेषात्मक हैं। उसके जो दो रूप हैं वे दर्शन और ज्ञान हैं।</span><br><span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/39 </span><span class="SanskritText"> चेतनानुभूत्युपलब्धिवेदनानामेकार्थत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">चेतना, अनुभूति, उपलब्धि, वेदना इन | <span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/298-299 </span><span class="SanskritText">चेतना तावत्प्रतिभासरूपा: सा तु तेषामेव वस्तूनां सामान्यविशेषात्मकत्वात् द्वैरूप्यं नातिक्रामति। ये तु तस्या द्वे रूपे ते दर्शनज्ञाने।</span> =<span class="HindiText">चेतना प्रतिभास रूप होती है। वह चेतना द्विरूपता का उल्लंघन नहीं करती, क्योंकि समस्त वस्तुएँ सामान्य विशेषात्मक हैं। उसके जो दो रूप हैं - वे दर्शन और ज्ञान हैं।</span><br> | ||
<li | <span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/39 </span><span class="SanskritText"> चेतनानुभूत्युपलब्धिवेदनानामेकार्थत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">चेतना, अनुभूति, उपलब्धि, वेदना इन सबका एक अर्थ है।</span></li> | ||
<li class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2">चेतना के भेद दर्शन व ज्ञान</strong></span><strong><br></strong><span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/298-299 </span><span class="SanskritText">ये तु तस्या द्वे रूपे ते दर्शनज्ञाने।</span> =<span class="HindiText">उस चेतना के जो दो रूप हैं - वे दर्शन और ज्ञान हैं।</span></li> | |||
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<li class="HindiText"><strong> उपयोग व | <li class="HindiText"><strong> उपयोग व लब्धि रूप चेतना–देखें [[ उपयोग#I | उपयोग - I]]।</strong></li> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> चेतना के भेद शुद्ध व अशुद्ध आदि</strong></span><br><span class="GRef"> प्रवचनसार/123 </span><span class="PrakritGatha">परिणमदि चेदणाए आदा पुण चेदणा तिधाभिमदा। सा पुण णाणे कम्मे फलम्मि वा कम्मणो भणिदा।</span> =<span class="HindiText">आत्मा चेतना रूप से परिणमित होता है। और चेतना तीन प्रकार से मानी गयी है–ज्ञानसंबंधी, कर्मसंबंधी अथवा कर्मफलसंबंधी। <span class="GRef"> (पंचास्तिकाय/28) </span></span><br> | ||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति व तात्पर्यवृत्ति /387 </span><span class="SanskritGatha">ज्ञानाज्ञानभेदेन चेतना तावद्द्विविधा भवति। अज्ञानचेतना। सा द्विधा कर्मचेतना कर्मफलचेतना च।</span> =<span class="HindiText">ज्ञान और अज्ञान के भेद से चेतना दो प्रकार की है। तहाँ अज्ञान चेतना दो प्रकार की है–कर्मचेतना और कर्मफलचेतना।</span><br> | |||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/124 </span><span class="SanskritText">अथ ज्ञानकर्मकर्मफलरूपेण त्रिधां चेतनां विशेषेण विचारयति। ज्ञानं मत्यादिभेदेनाष्टविकल्पं भवति। ...कर्म शुभाशुभशुद्धोपयोगभेदेनानेकविधं त्रिविधं भणितम् ।</span> =<span class="HindiText">ज्ञान, कर्म व कर्मफल ऐसी जो तीन प्रकार चेतना उसका विशेष विचार करते हैं। ज्ञान मति ज्ञान आदि आठ रूप आठ प्रकार का है। कर्म शुभ, अशुभ व शुद्धोपयोग आदि के भेद से अनेक प्रकार का है अथवा इन्हीं तीन भेदरूप है।</span><br> | |||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/192-195 </span><span class="SanskritGatha">स्वरूपं चेतना जंतो: सा सामान्यात्सदेकधा। सद्विशेषादपि द्वेधा क्रमात्सा नाक्रमादिह।192। एकधा चेतना शुद्धाशुद्धस्यैकविधत्वत:। शुद्धाशुद्धोपलब्धित्वाज्ज्ञानत्वाज्ज्ञानचेतना ।194। अशुद्धा चेतना द्वेधा तद्यथा कर्मचेतना। चेतनत्वात्फलस्यास्य स्यात्कर्मफलचेतना।195।</span> =<span class="HindiText">जीव के स्वरूप को चेतना कहते हैं, और वह सामान्यरूप से अर्थात् द्रव्यदृष्टि से सदा एक प्रकार की होती है। परंतु विशेष रूप से अर्थात् पर्याय दृष्टि से वह ही दो प्रकार होती है – शुद्ध चेतना और अशुद्ध चेतना।192। शुद्धात्मा को विषय करने वाला शुद्धज्ञान एक ही प्रकार का होने से शुद्ध चेतना एक ही प्रकार की है।194। अशुद्ध चेतना दो प्रकार की है – कर्मचेतना व कर्मफल चेतना।195।<br> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4">ज्ञान व अज्ञान चेतना के लक्षण</strong></span><br><span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/गाथा </span><span class="SanskritGatha">ज्ञानी हि...ज्ञानचेतनामयत्वेन केवलं ज्ञातृत्वात्कर्मबंधं कर्मफलं च शुभमशुभं वा केवलमेव जानाति।319। चारित्रं तु भवन् स्वस्य ज्ञानमात्रस्य चेतनात् स्वयमेव ज्ञानचेतना भवतीति भाव:।386। ज्ञानादन्यत्रेदमहमिति चेतनं अज्ञानचेतना।387।</span> =<span class="HindiText">ज्ञानी तो ज्ञान चेतनामय होने के कारण केवल ज्ञाता ही है, इसलिए वह शुभ तथा अशुभ कर्मबंध को तथा कर्मफल को मात्र जानता ही है।319। चारित्र स्वरूप होता हुआ (वह आत्मा) अपने को अर्थात् ज्ञानमात्र को चेतता है इसलिए स्वयं ही ज्ञानचेतना है। ज्ञान से अन्य (भावों में) ‘यह मैं हूँ’ ऐसा अनुभव करना सो अज्ञान चेतना है।</span><br> | ||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/196-197 </span><span class="SanskritGatha"> अत्रात्मा ज्ञानशब्देन वाच्यस्तन्मात्रत: स्वयं। स चेत्यते अनया शुद्ध: शुद्धा सा ज्ञानचेतना।196। अर्थाज्ज्ञानं गुण: सम्यक् प्राप्तावस्थांतरं यदा। आत्मोपलब्धिरूपं स्यादुच्यते ज्ञानचेतना।197।</span> =<span class="HindiText">इस ज्ञान चेतना शब्द में ज्ञान शब्द से आत्मा वाच्य है, क्योंकि वह स्वयं ज्ञान स्वरूप है और वह शुद्धात्मा इस चेतना के द्वारा अनुभव होता है, इसलिए वह ज्ञान चेतना शुद्ध कहलाती है।196। अर्थात् मिथ्यात्वोदय के अभाव में सम्यक्त्व युक्त ज्ञान ज्ञानचेतना है।197।<br> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> शुद्ध व अशुद्ध चेतना का लक्षण</strong></span><br><span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/16 </span><span class="SanskritText">ज्ञानानुभूतिलक्षणा शुद्धचेतना, कार्यानुभूतिलक्षणा कर्मफलानुभूतिलक्षणा चाशुद्धचेतना।</span> =<span class="HindiText">ज्ञानानुभूति स्वरूप शुद्ध चेतना है और कार्यानुभूति स्वरूप तथा कर्मफलानुभूति स्वरूप अशुद्धचेतना है।<br> | ||
<li | <span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/15/50/8 </span><span class="SanskritText">केवलज्ञानरूपा शुद्धचेतना। </span> <span class="HindiText">=केवलज्ञानरूप शुद्ध चेतना है।</span><br><span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/193 </span><span class="SanskritGatha">एका स्याच्चेतना शुद्धा स्यादशुद्धा परा तत:। शुद्धा स्यादात्मनस्तत्त्वमस्त्यशुद्धात्मकर्मजा।193।</span> =<span class="HindiText">एक शुद्ध चेतना है और उससे विपरीत दूसरी अशुद्ध चेतना है। उनमें से शुद्ध चेतना आत्मा का स्वरूप है और अशुद्ध चेतना आत्मा और कर्म के संयोग से उत्पन्न होने वाली है।</span><br><span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/196,213 </span><span class="SanskritText">शुद्धा सा ज्ञानचेतना।196। अस्त्यशुद्धोपलब्धि: सा ज्ञानाभासाच्चिदन्वयात् । न ज्ञानचेतना किंतु कर्म तत्फलचेतना।213।</span>=<span class="HindiText">ज्ञानचेतना शुद्ध कहलाती है।196। अशुद्धोपलब्धि शुद्धात्मा के आभास रूप होती है। चिदन्वय से अशुद्धात्मा के प्रतिभासरूप होने से ज्ञानचेतनारूप नहीं कही जा सकती है, किंतु कर्मचेतना तथा कर्मफल चेतना स्वरूप कही जाती है।213।</span></li> | ||
<li class="HindiText"><strong name="1.6" id="1.6">कर्मचेतना व कर्मफल चेतना के लक्षण</strong></span><br><span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/387 </span><span class="SanskritText">तत्राज्ञानादन्यत्रेदमहं करोमीति चेतनं कर्मचेतना। ज्ञानादन्येत्रेदं वेदयेऽहमिति चेतनं कर्मफलचेतना। </span>=<span class="HindiText">ज्ञान से अन्य (भावों में) ऐसा अनुभव करना कि ‘इसे मैं करता हूँ’ सो कर्म चेतना है, और ज्ञान से अन्य (भावों में) ऐसा अनुभव करना कि ‘इसे मैं भोगता हूँ’ सो कर्मफल चेतना है।</span><br><span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/123-124 </span><span class="SanskritText">कर्मपरिणति: कर्म चेतना, कर्मफलपरिणति: कर्मफलचेतना।123।... क्रियमाणमात्मना कर्म।...तस्य कर्मणो यन्निष्पाद्यं सुखदु:खं तत्कर्मफलम् ।124।</span> =<span class="HindiText">कर्म परिणति कर्मचेतना और कर्मफल परिणति कर्मफल चेतना है।123। आत्मा के द्वारा किया जाता है वह कर्म है और उस कर्म से उत्पन्न किया जाने वाला सुख-दु:ख कर्मफल है।124।</span><br> | |||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/15/50/6 </span><span class="SanskritText">अव्यक्तसुखदु:खानुभवनरूपा कर्मफलचेतना।... स्वेहापूर्वेंष्टानिष्टविकल्परूपेण विशेषरागद्वेष-परिणमनं कर्मचेतना। </span>=<span class="HindiText">अव्यक्त सुख-दु:खानुभव स्वरूप कर्मफल चेतना है, तथा निज चेष्टा पूर्वक अर्थात् बुद्धिपूर्वक इष्ट-अनिष्ट विकल्परूप से विशेष राग-द्वेष रूप जो परिणाम हैं वह कर्मचेतना है।</span></li> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2" id="2"> ज्ञान अज्ञान चेतना निर्देश</strong> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1">सम्यग्दृष्टि को ज्ञान चेतना ही इष्ट है</strong></span><br><span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/822 </span><span class="SanskritGatha">प्रकृतं तद्यथास्ति स्वं स्वरूपं चेतनात्मन:। सा त्रिधात्राप्युपादेया सदृष्टेर्ज्ञानचेतना।822। </span>=<span class="HindiText">चेतना निज स्वरूप है और वह तीन प्रकार की है। तो भी सम्यग्दर्शन का लक्षण करते समय सम्यग्दृष्टि को एक ज्ञान चेतना ही उपादेय होती है। <span class="GRef"> (समयसार / आत्मख्याति/387) </span></span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> ज्ञान चेतना सम्यग्दृष्टि को ही होती है</strong></span><br><span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/198 </span><span class="SanskritGatha">सा ज्ञानचेतना नूनमस्ति सम्यग्दृगात्मन:। न स्यान्मिथ्यादृश: क्वापि तदात्वे तदसंभावात् ।</span>=<span class="HindiText">निश्चय से वह ज्ञानचेतना सम्यग्दृष्टि जीव के होती है, क्योंकि, मिथ्यात्व का उदय होने पर उस आत्मोपलब्धि का होना असंभव है, इसलिए वह ज्ञानचेतना मिथ्यादृष्टि जीव के किसी भी अवस्था में नहीं होती।</span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> निजात्म तत्त्व को छोड़कर ज्ञानचेतना अन्य अर्थों में नहीं प्रवर्तती</strong></span><br><span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/850 </span><span class="SanskritGatha"> सत्यं हेतोर्विपक्षत्वे वृत्तित्वाद्वयभिचारिता। यतोऽत्रान्यात्मनोऽन्यत्र स्वात्मनि ज्ञानचेतना। </span>=<span class="HindiText">ठीक है–हेतु के विपक्ष में वृत्ति होने से उसमें व्यभिचारीपना आता है क्योंकि परस्वरूप परपदार्थ से भिन्न अपने इस स्वात्मा में ज्ञानचेतना होती है।</span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> मिथ्यादृष्टि को कर्म व कर्मफल चेतना ही होती है</strong> </span><br> | ||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/223 </span><span class="SanskritGatha">यद्वा विशेषरूपेण स्वदते तत्कुदृष्टिनाम् । अर्थात् सा चेतना नूनं कर्मकार्येऽथ कर्मणि।223।</span> =<span class="HindiText">अथवा मिथ्यादृष्टियों को | <span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/223 </span><span class="SanskritGatha">यद्वा विशेषरूपेण स्वदते तत्कुदृष्टिनाम् । अर्थात् सा चेतना नूनं कर्मकार्येऽथ कर्मणि।223।</span> =<span class="HindiText">अथवा मिथ्यादृष्टियों को विशेषरूप से अर्थात् पर्यायरूप से उस सत् का स्वाद आता है, इसलिए वास्तव में उनकी वह चेतना कर्मफल में और कर्म में ही होती है।</span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5">अज्ञान चेतना संसार का बीज है</strong></span><br><span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/387-389 </span><span class="SanskritText">सा तु समस्तापि संसारबीजं, संसारबीजस्याष्टविधकर्मणो बीजत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">वह समस्त अज्ञान चेतना संसार का बीज है, क्योंकि संसार के बीजभूत अष्टविध कर्मों की वह बीज है।</span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6"> त्रस स्थावर आदि की अपेक्षा तीनों चेतनाओं का स्वामित्व</strong></span><br><span class="GRef"> पंचास्तिकाय/39 </span><span class="PrakritText">सव्वे खलु कम्मफलं थावरकाया तसा हि कज्जजुदं। पाणित्तमदिक्कंता णाणं विदंति ते जीवा। </span>=<span class="HindiText">सर्व स्थावर जीव वास्तव में कर्मफल को वेदते हैं, त्रस कर्म व कर्मफल इन दो चेतनाओं को वेदते हैं और प्राणित्व का अतिक्रम कर गये हैं ऐसे केवलज्ञानी ज्ञानचेतना को वेदते हैं।</span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="2.7" id="2.7">अन्य संबंधित विषय</strong> | ||
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<li class="HindiText"> ज्ञान | <li class="HindiText"> ज्ञान चेतना में निर्विकल्पता–देखें [[ विकल्प ]]।</li> | ||
<li class="HindiText"> सम्यग्दृष्टि की कर्म व कर्मफल चेतना भी ज्ञान चेतना ही है–देखें [[ सम्यग्दृष्टि#2 | सम्यग्दृष्टि - 2]]।</li> | <li class="HindiText"> सम्यग्दृष्टि की कर्म व कर्मफल चेतना भी ज्ञान चेतना ही है–देखें [[ सम्यग्दृष्टि#2 | सम्यग्दृष्टि - 2]]।</li> | ||
<li class="HindiText"> लौकिक कार्य करते भी सम्यग्दृष्टि को ज्ञान चेतना रहती है–देखें [[ सम्यग्दृष्टि#2 | सम्यग्दृष्टि - 2]]।</li> | <li class="HindiText"> लौकिक कार्य करते भी सम्यग्दृष्टि को ज्ञान चेतना रहती है–देखें [[ सम्यग्दृष्टि#2 | सम्यग्दृष्टि - 2]]।</li> | ||
<li class="HindiText"> सम्यग्दृष्टि को ज्ञान चेतना अवश्य होती है–देखें [[ अनुभव#5 | अनुभव - 5]]।</li> | <li class="HindiText"> सम्यग्दृष्टि को ज्ञान चेतना अवश्य होती है–देखें [[ अनुभव#5 | अनुभव - 5]]।</li> | ||
<li class="HindiText"> शुद्ध व अशुद्ध चेतना निर्देश–देखें [[ उपयोग# | <li class="HindiText"> शुद्ध व अशुद्ध चेतना निर्देश–देखें [[ उपयोग#II | उपयोग - II]]।</li> | ||
<li class="HindiText"> ज्ञप्ति व करोति क्रिया निर्देश–देखें [[ चेतना#3.5 | चेतना - 3.5]]।</li> | <li class="HindiText"> ज्ञप्ति व करोति क्रिया निर्देश–देखें [[ चेतना#3.5 | चेतना - 3.5]]।</li> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3" id="3"> ज्ञातृत्व कर्तृत्व विचार</strong> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1">ज्ञान क्रिया व अज्ञान क्रिया निर्देश</strong> </span><br> <span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/70 </span><span class="SanskritText">आत्मज्ञानयोरविशेषाद्भेदमपश्यन्ननिश्शंकमात्मतया ज्ञाने वर्तते तत्र वर्तमानश्चज्ञानक्रियाया: स्वभावभूतत्वेनाप्रतिषिद्धत्वाज्जानाति ...। तदत्र योऽयमात्मा स्वयमज्ञानभवने...ज्ञानभवनव्याप्रियमाणत्वेभ्यो भिन्नं क्रियमाणत्वेनांतरुत्प्लवमानं प्रतिभाति क्रोधादि तत्कर्म। </span>=<span class="HindiText">आत्मा और ज्ञान में विशेष न होने से उनके भेद को न देखता हुआ नित्यपने ज्ञान में आत्मपने से प्रवर्तता है, और वहाँ प्रवर्तता हुआ वह ज्ञानक्रिया का स्वभावभूत होने से निषेध नहीं किया गया है, इसलिए जानता है, जानने रूप में परिणमित होता है।...जो यह आत्मा अपने अज्ञान भाव से ज्ञान भवनरूप प्रवृत्ति से भिन्न जो क्रियमाणरूप से अंतरंग उत्पन्न होते हुए प्रतिभासित होते हैं ऐसे क्रोधादि वे (उस आत्मरूप कर्ता के) कर्म है। </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2">परद्रव्यों में अध्यवसान करने के कारण ही जीव कर्ता प्रतिभासित होता है</strong> </span><br><span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/376 </span><span class="PrakritGatha">भेदुवयारे जइया वट्टदि सो विय सुहासुहाधीणो। तइया कत्ता भणिदो संसारी तेण सो आदा।376।</span> =<span class="HindiText">शुभ और अशुभ के आधीन भेद उपचार जब तक वर्तता है तब तक संसारी आत्मा कर्ता कहा जाता है। </span><span class="GRef">( धवला 1/1,1,2/119/3 )</span>।<br/> | ||
<li | <span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/312-313 </span><span class="SanskritText">अयं हि आसंसारत एव प्रतिनियतस्वलक्षणानिर्ज्ञानेन परात्मनोरेकत्वाध्यासस्य करणात्कर्ता। </span>=<span class="HindiText">यह आत्मा अनादि संसार से ही (अपने और पर के भिन्न-भिन्न) निश्चित स्वलक्षणों का ज्ञान न होने से दूसरे का और अपना एकत्व का अध्यास करने से कर्ता होता है। <span class="GRef"> (समयसार / आत्मख्याति/314-315) (अनगारधर्मामृत/8/6/734) </span></span><br> | ||
<span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/377 </span><span class="PrakritGatha"> जइया तब्विवरीए आदसहावेहि संठियो होदि। तइया किंच ण कुव्वदि सहावलाहो हवे तेण।377।</span> = <span class="HindiText">उस शुभाशुभ रूप भेदोपचार परिणति से विपरीत जब वह आत्मा स्वभाव में स्थित होकर कुछ | <span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/97 </span><span class="SanskritText"> येनायमज्ञानात्परात्मनोरेकत्वविकल्पमात्मन: करोति तेनात्मा निश्चयत: कर्ता प्रतिभाति...आसंसारप्रसिद्धेन मिलितस्वाद स्वादनेन मुद्रितभेदसंवेदनशक्तिरनादित एव स्यात; तत: परात्मनावेकत्वेन जानाति, तत: क्रोधोऽहमित्यादिविकल्पमात्मन: करोति; ततो निर्विकल्पादकृतकादेकस्माद्विज्ञानघनात्प्रभ्रष्टो वारंवारमनेकविकल्पै: परिणमनकर्ता प्रतिभाति। </span>=<span class="HindiText">क्योंकि यह आत्मा अज्ञान के कारण पर के और अपने एकत्व का आत्म विकल्प करता है, इसलिए वह निश्चय से कर्ता प्रतिभासित होता है। अनादि संसार से लेकर मिश्रित स्वाद का स्वादन या अनुभवन होने से जिसकी भेद संवेदन की शक्ति संकुचित हो गयी है ऐसा अनादि से ही है। इसलिए वह स्वपर का एकरूप जानता है; इसलिए मैं क्रोध हूँ इत्यादि आत्मविकल्प करता है; इसलिए निर्विकल्प, अकृत्रिम, एक विज्ञानघन (स्वभाव) से भ्रष्ट होता हुआ, बारंबार अनेक विकल्परूप परिणमित होता हुआ कर्ता प्रतिभासित होता है।</span> <span class="GRef"> (समयसार / आत्मख्याति/92,70,283-285) </span><br/> | ||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/314-315 </span><span class="SanskritText"> यदा त्वयमेव प्रतिनियतस्वलक्षणनिर्ज्ञानात् ...परात्मनोरेकत्वाध्यासस्याकरणादकर्ता भवति।</span>=<span class="HindiText">जब यही आत्मा (अपने और पर के भिन्न–भिन्न) निश्चित स्वलक्षणों के ज्ञान के कारण स्व पर के एकत्व का अध्यास नहीं करता तब अकर्ता होता है।</span> < | <span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/147/213/15</span><span class="SanskritText">यदायमात्मा निश्चयनयेन शुद्धबुद्धैकस्वभावोऽपि व्यवहारेणानादिबंधनोपाधिवशाद्रक्त: सन् निर्मलज्ञानानंदादिगुणास्पदशुद्धात्मस्वरूपपरिणते: पृथग्भूतामुदयागतं शुभाशुभं वा स्वसंवित्तिश्च्युतो भूत्वा भावं परिणाम करोति तदा स आत्मा तेन रागपरिणामेन कर्तृभूतेन बंधो भवति।</span> =<span class="HindiText">यद्यपि निश्चयनय से यह आत्मा शुद्ध-बुद्ध एकस्वभाव है, तो भी व्यवहार से अनादि बंध की उपाधि के वश से अनुरक्त हुआ, निर्मल ज्ञानानंद आदि गुणरूप शुद्धात्मस्वरूप परिणति से पृथग्भूत उदयागत शुभाशुभ कर्म को अथवा स्वसंवित्ति से च्युत होकर भावों या परिणामों को करता है, तब वह आत्मा उस कर्ताभूत रागपरिणाम से बंधरूप होता है।</span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3"> स्व-पर भेदज्ञान होने पर वही ज्ञाता मात्र रहता हुआ अकर्ता प्रतिभासित होता है</strong> </span><br> | ||
<span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/377 </span><span class="PrakritGatha"> जइया तब्विवरीए आदसहावेहि संठियो होदि। तइया किंच ण कुव्वदि सहावलाहो हवे तेण।377।</span> = <span class="HindiText">उस शुभाशुभ रूप भेदोपचार परिणति से विपरीत जब वह आत्मा स्वभाव में स्थित होकर कुछ नहीं करता तब उसे स्वभाव (ज्ञाताद्रष्टापने) का लाभ होता है।</span><br> | |||
<li | <span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/314-315 </span><span class="SanskritText"> यदा त्वयमेव प्रतिनियतस्वलक्षणनिर्ज्ञानात् ...परात्मनोरेकत्वाध्यासस्याकरणादकर्ता भवति।</span>=<span class="HindiText">जब यही आत्मा (अपने और पर के भिन्न–भिन्न) निश्चित स्वलक्षणों के ज्ञान के कारण स्व पर के एकत्व का अध्यास नहीं करता तब अकर्ता होता है।</span><br/> | ||
<li | <span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/97 </span><span class="SanskritText">ज्ञानी तु सन् ...निखिलरसांतरविविक्तात्यंतमधुरचैतंयैकरसोऽयमात्मा भिन्नरसा: कषायास्तै: सह यदेकत्वविकल्पकरणं तदज्ञानादित्येवं नानात्वेन परात्मानौ जानाति, ततोऽकृतकमेकं ज्ञानमेवाहं न पुन: कृतकोऽनेक: क्रोधादिरपीति ...ततो निर्विकल्पोऽकृतक एको विज्ञानघनो भूतोऽत्यंतमकर्ता प्रतिभाति। </span>=<span class="HindiText">जब आत्मा ज्ञानी होता है तब समस्त अन्य रसों से विलक्षण अत्यंत मधुर चैतन्य रस ही एक जिसका रस है ऐसा आत्मा है और कषायें उससे भिन्न रसवाली हैं, उनके साथ जो एकत्व का विकल्प करना है वह अज्ञान से है, इस प्रकार पर को और अपने को भिन्नरूप जानता है, इसलिए अकृत्रिम (नित्य) एक ज्ञान ही मैं हूँ, किंतु कृत्रिम (अनित्य) अनेक जो क्रोधादिक हैं वह मैं नहीं हूँ ऐसा जानता हुआ; निर्विकल्प, अकृत्रिम, एक, विज्ञानघन होता हुआ अकर्ता प्रतिभासित होता है। </span><span class="GRef"> (समयसार/भा./93; 71,283-285)</span>।<br> | ||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/344/ </span> | <span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/97/कलश 59 </span><span class="SanskritGatha"> ज्ञानाद्विवेचकया तु परात्मनोर्यो, जानाति हंस इव वा: पयसोर्विशेषम् । चैतन्यधातुमचलं स सदाधिरूढो, जानीत एव हि करोति न किंचनापि। </span>=<span class="HindiText">जैसे हंस दूध और पानी के विशेष को जानता है, उसी प्रकार जो जीव ज्ञान के कारण विवेक वाला होने से पर के और अपने विशेष को जानता है, वह अचल चैतन्य धातु में आरूढ़ होता हुआ, मात्र जानता ही है, किंचित् मात्र भी कर्ता नहीं होता।</span><br/> | ||
<li | <span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/72/कलश 47 </span><span class="SanskritText">परपरिणतिमुज्झत् खंडयद्भेदवादानिदमुदितमखंडं ज्ञानमुच्चंडमुच्चै:। ननु कथमवकाश: कर्तृकर्मप्रवृत्तेरिह भवति कथं वा पौद्गल: कर्मबंध:। </span>=<span class="HindiText">पर परिणति को छोड़ता हुआ, भेद के कथनों को तोड़ता हुआ, यह अत्यंत अखंड और प्रचंड ज्ञान प्रत्यक्ष उदय को प्राप्त हुआ है। अहो ! ऐसे ज्ञान में कर्ता-कर्म की प्रवृत्ति का अवकाश कैसे हो सकता है ? तथा पौद्गलिक कर्मबंध भी कैसे हो सकता है।</span></li> | ||
<span class="GRef"> समयसार/247 </span><span class="PrakritGatha"> जो मण्णदि हिंसामि य हिंसिज्जामि य परेहिं सत्तेहिं। सो मूढो अण्णाणी णाणी एतो दु विवरीदो। </span>=<span class="HindiText">जो यह मानता है कि मैं परजीवों को मारता हूँ और परजीव मुझे मारते हैं, वह मूढ़ | <li class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4"> ज्ञानी जीव कर्म करता हुआ भी अकर्ता ही है</strong></span><br> <span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/227/कलश 153 </span><span class="SanskritText">त्यक्तं येन फलं स कर्म कुरुते नेति प्रतीमो वयं, किंत्वस्यापि कुतोऽपि किंचिदपि तत्कर्मावशेनापतेत् । तस्मिन्नापतिते त्वकंपपरमज्ञानस्वभावे स्थितो, ज्ञानी कि कुरुतेऽथ किं न कुरुते कर्मेति जानाति क:।153।</span> =<span class="HindiText">जिसने कर्म का फल छोड़ दिया है, वह कर्म करता है ऐसी प्रतीति तो हम नहीं कर सकते। किंतु वहाँ इतना विशेष है कि–उसे (ज्ञानी को) भी किसी कारण से कोई ऐसा कर्म अवशता से आ पड़ता है। उसके आ पड़ने पर भी जो अकंप परमज्ञान में स्थित है, ऐसा ज्ञानी कर्म करता है या नहीं यह कौन जानता है ?</span><br> | ||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/74/ </span> | <span class="GRef"> योगसार /अ./9/59</span> <span class="SanskritGatha">य: कर्म मन्यते कर्माऽकर्म वाऽकर्म सर्वथा। स सर्वकर्मणां कर्ता निराकर्ता च जायते।59। </span>=<span class="HindiText">जो बुद्धिमान पुरुष सर्वथा कर्म को कर्म और अकर्म को अकर्म मानता है वह समस्त कर्मों का कर्ता भी अकर्ता है। </span><br/> | ||
<li | <span class="GRef"> सागार धर्मामृत/1/13 </span><span class="SanskritText"> भ्रूरेखादिसदृक्कषायवशगो यो विश्वदृश्वाज्ञया, हेयं वैषयिकं सुखं निजमुपादेयं त्विति श्रद्दधत् । चौरो मारयितुं धृतस्तलवरेणेवात्मनिंदादिमां, शर्माक्षं भजते रुजत्यपि परं नोत्तप्यतेसोऽप्यघै:।</span> =<span class="HindiText">जो सर्वज्ञ देव की आज्ञा से वैषयिक सुखों को हेय और निजात्म तत्त्व को उपादेय रूप श्रद्धान करता है। कोतवाल के द्वारा पकड़े गये चोर की भाँति सदा अपनी निंदा करता है। भ्रूरेखा सदृश अप्रत्याख्यान कर्म के उदय से यद्यपि रागादि करता है तो भी मोक्ष को भजने वाला वह कर्मों से नहीं लिप्तता।</span><br> | ||
<li | <span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/265 </span><span class="SanskritText">यथा कश्चित्परायत्त: कुर्वाणोऽनुचितां क्रियाम् । कर्ता तस्या: क्रियायाश्च न स्यादस्ताभिलाषवान् । </span>=<span class="HindiText">जैसे कि अपनी इच्छा के बिना कोई पराधीन पुरुष अनुचित क्रिया को करता हुआ भी वास्तव में उस क्रिया का कर्ता नहीं माना जाता, (उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव कर्मों के आधीन कर्म करता हुआ भी अकर्ता ही है।) और भी देखें [[ राग#6 | राग - 6 ]](विषय सेवता हुआ भी नहीं सेवता)।</span></li> | ||
<li class="HindiText"><strong name="3.5" id="3.5"> वास्तव में जो करता है वह ज्ञाता नहीं और जो ज्ञाता है वह कर्ता नहीं</strong></span><br> <span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/96-97 </span><span class="SanskritText">य: करोति स करोति केवलं, यस्तु वेत्ति स तु वेत्ति केवलम् । य: करोति न हि वेत्ति स क्वचित्, यस्तु वेत्ति न करोति स क्वचित् ।96। ज्ञप्ति: करोतौ न हि भासतेऽंत:, ज्ञप्तौ करोतिश्च न भासतेऽंत:। ज्ञप्ति: करोतिश्च ततो विभिन्ने, ज्ञाता न कर्तेति तत: स्थितं च।97। </span>=<span class="HindiText">जो करता है सो मात्र करता ही है। और जो जानता है सो जानता ही है। जो करता है वह कभी जानता नहीं और जो जानता है वह कभी करता नहीं।96। करनेरूप क्रिया के भीतर जानने रूप क्रिया भासित नहीं होती और जानने रूप क्रिया के भीतर करनेरूप क्रिया भासित नहीं होती। इसलिए ज्ञप्ति क्रिया और करोति क्रिया दोनों भिन्न हैं। इससे यह सिद्ध हुआ कि जो ज्ञाता है वह कर्ता नहीं है।97।</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="3.6" id="3.6"> कर्मधारा में ही कर्तापना है ज्ञानधारा में नहीं</strong> </span><br> | |||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/344/कलश 205</span><span class="SanskritText">माकर्तारममी स्पृशंतु पुरुषं सांख्या इवाप्यार्हता:, कर्तारं कलयंतु तं किल सदा भेदावबोधादध:। ऊर्ध्वं तूद्धतबोधधामनियतं प्रत्यक्षमेनं स्वयं, पश्यंतु च्युतकर्तृ भावमचलं ज्ञातारमेकं परम् । </span>=<span class="HindiText">यह जैनमतानुयायी सांख्यमतियों की भाँति आत्मा को (सर्वथा) अकर्ता न मानो। भेदज्ञान होने से पूर्व उसे निरंतर कर्ता मानो, और भेदज्ञान होने के बाद, उद्धत ज्ञानधाम (ज्ञानप्रकाश) में निश्चित इस स्वयं प्रत्यक्ष आत्मा को कर्तृत्व रहित, अचल, एक परम ज्ञाता ही देखो।</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="3.7" id="3.7"> जब तक बुद्धि है, तब तक अज्ञानी है</strong> </span><br> | |||
<span class="GRef"> समयसार/247 </span><span class="PrakritGatha"> जो मण्णदि हिंसामि य हिंसिज्जामि य परेहिं सत्तेहिं। सो मूढो अण्णाणी णाणी एतो दु विवरीदो। </span>=<span class="HindiText">जो यह मानता है कि मैं परजीवों को मारता हूँ और परजीव मुझे मारते हैं, वह मूढ़ है, अज्ञानी है और इससे विपरीत ज्ञानी है।</span><br> | |||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/74/कलश 48 </span><span class="SanskritText"> अज्ञानोत्थितकर्तृकर्मकलनात् क्लेशान्निवृत्त: स्वयं ज्ञानीभूत इतश्चकास्ति जगत: साक्षी पुराण: पुमान् ।48। </span>=<span class="HindiText">अज्ञान से उत्पन्न हुई कर्ताकर्म की प्रवृत्ति के अभ्यास से उत्पन्नक्लेशों से निवृत्त हुआ, स्वयं ज्ञानस्वरूप होता हुआ जगत् का साक्षी पुराण पुरुष अब यहाँ से प्रकाशमान होता है। </span><br/> | |||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/256/कलश 169 </span><span class="SanskritText">अज्ञानमेतदधिगम्य परात्परस्य, पश्यंति ये मरणजीवितदु:खसौख्यम् । कर्माण्यहंकृतिरसेन चिकीर्षवस्ते, मिथ्यादृशो नियतमात्महनो भवंति। </span>=<span class="HindiText">इस अज्ञान को प्राप्त करके जो पुरुष पर से, पर के मरण, जीवन, दु:ख, सुख को देखते हैं, वे पुरुष–जो कि इस प्रकार अहंकार रस से कर्मों को करने के इच्छुक हैं, वे नियम से मिथ्यादृष्टि हैं, अपने आत्मा का घात करने वाले हैं।</span><br> | |||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/321 </span><span class="SanskritText"> ये त्वात्मानं कर्तारमेव पश्यंति ते लोकोत्तरिका अपि न लौकिकतामतिवर्तंते। </span>=<span class="HindiText">जो आत्मा को कर्ता ही देखते हैं, वे लोकोत्तर हों तो भी लौकिकता को अतिक्रमण नहीं करते। </span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="3.8" id="3.8"> वास्तव में ज्ञप्तिक्रियायुक्त ही ज्ञानी है</strong></span><br><span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/161-163/कलश 111 </span><span class="SanskritText">मग्ना: कर्मनयावलंबनपरा ज्ञानं न जानंति यन्मग्ना ज्ञाननयेषिणोऽपि यदतिस्वच्छंदमंदोद्यमा:। विश्वस्योपरिते तरंति सततं ज्ञानं भवंत: स्वयं, ये कुर्वंति न कर्म जातु न वशं यांति प्रमादस्य च।111।</span> =<span class="HindiText">कर्मनय के आलंबन में तत्पर पुरुष डूबे हुए हैं, क्योंकि वे ज्ञान को नहीं जानते। ज्ञाननय के इच्छुक पुरुष भी डूबे हुए हैं, क्योंकि वे स्वच्छंदता से अत्यंत मंद उद्यमी हैं। वे जीव विश्व के ऊपर तैरते हैं, जो कि स्वयं निरंतर ज्ञानरूप होते हुए (ज्ञानरूप परिणमते हुए) कर्म नहीं करते और कभी प्रमाद के वश भी नहीं होते।</span><br/> | |||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/परिशिष्ट/कलश 267 </span><span class="SanskritText">स्याद्वादकौशलसुनिश्चितसंयमाभ्यां, यो भावयत्यहरह: स्वमिहोपयुक्त:। ज्ञानक्रियानयपरस्परतीव्रमैत्रीपात्रीकृत: श्रयति भूमिमिमां स एक:।</span> =<span class="HindiText">जो पुरुष स्याद्वाद में प्रवीणता तथा सुनिश्चित संयम–इन दोनों के द्वारा अपने में उपयुक्त रहता हुआ प्रतिदिन अपने को भाता है, वही एक ज्ञाननय और क्रियानय की परस्पर तीव्र मैत्री का पात्ररूप होता हुआ, इस भूमिका का आश्रय करता है।</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="3.9" id="3.9"> कर्ताबुद्धि छोड़ने का उपाय</strong></span><br> <span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/71 </span><span class="SanskritText">ज्ञानस्य यद्भवनं तत्र क्रोधादेरपि भवनं यतो यथा ज्ञानभवने ज्ञानं भवद्विभाव्यते न तथा क्रोधादिरपि, यत्तु क्रोधादेर्भवनं तन्न ज्ञानस्यापि भवनं यतो यथा क्रोधादिभवने क्रोधादयो भवंतो विभाव्यंते न तथा ज्ञानमपि इत्यात्मन: क्रोधादीनां च व खल्वेकवस्तुत्वं इत्येवमात्मास्रवयोर्विशेषदर्शनेन यदा भेदं जानाति तदास्यानादिरप्यज्ञानजा कर्तृकर्मप्रवृत्तिर्निवर्त्तते।</span> =<span class="HindiText">जो ज्ञान का परिणमन है वह क्रोधादि का परिणमन नहीं है, क्योंकि जैसे ज्ञान होने पर ज्ञान ही हुआ मालूम होता है वैसे क्रोधादिक नहीं मालूम होते। जो क्रोधादि का परिणमन है, वह ज्ञान का परिणमन नहीं है, क्योंकि, क्रोधादिक होने पर जैसे क्रोधादिक हुए प्रतीत होते हैं वैसे ज्ञान हुआ प्रतीत नहीं होता। इस प्रकार क्रोध (राग, द्वेषादि) और ज्ञान इन दोनों के निश्चय से एक वस्तुत्व नहीं है। इस प्रकार आत्मा और आस्रवों का भेद देखने से जिस समय भेद जानता है उस समय इसके अनादिकाल से उत्पन्न हुई पर में कर्ता कर्म की प्रवृत्ति निवृत्त हो जाती है।</span></li> | |||
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Latest revision as of 22:20, 17 November 2023
स्वसंवेदन गम्य अंतरंग प्रकाश स्वरूप भाव विशेष को चेतना कहते हैं। वह दो प्रकार की है–शुद्ध व अशुद्ध। ज्ञानी व वीतरीगी जीवों का केवल जानने रूप भाव शुद्ध चेतना है। इसे ही ज्ञान चेतना भी कहते हैं। इसमें ज्ञान की केवल ज्ञप्ति रूप क्रिया होती है। ज्ञाता द्रष्टा भाव से पदार्थों को मात्र जानना, उनमें इष्टानिष्ट बुद्धि न करना यह इसका अर्थ है। अशुद्ध चेतना दो प्रकार की है–कर्म चेतना व कर्मफल चेतना। इष्टानिष्ट बुद्धि सहित परपदार्थों में करने-धरने के अहंकार सहित जानना सो कर्म चेतना है, और इंद्रियजन्य सुख-दु:ख में तन्मय होकर ‘सुखी-दुखी’ ऐसा अनुभव करना कर्मफल चेतना है। सर्व संसारी जीवों में यह दोनों कर्म व कर्मफल चेतना ही मुख्यत: पायी जाती है। तहाँ भी बुद्धि हीन असंज्ञी जीवों में केवल कर्मफल चेतना है, क्योंकि वहाँ केवल सुख-दु:ख का भोगना मात्र है, बुद्धि पूर्वक कुछ करने का उन्हें अवकाश नहीं।
- भेद व लक्षण
- चेतना सामान्य का लक्षण
- चेतना के भेद दर्शन व ज्ञान
- चेतना के भेद शुद्ध व अशुद्ध आदि
- ज्ञान व अज्ञान चेतना के लक्षण
- शुद्ध व अशुद्ध चेतना का लक्षण
- कर्मचेतना व कर्मफलचेतना के लक्षण
- ज्ञान अज्ञान चेतना निर्देश
- सम्यग्दृष्टि को ज्ञान चेतना ही इष्ट है
- ज्ञान चेतना सम्यग्दृष्टि को ही होती है
- निजात्म तत्त्व को छोड़कर ज्ञान चेतना अन्य अर्थों में नहीं प्रवर्तती
- मिथ्यादृष्टि को कर्म व कर्मफल चेतना ही होती है
- अज्ञान चेतना संसार का बीज है
- त्रस स्थावर आदि की अपेक्षा तीनों चेतनाओं का स्वामित्व
- अन्य संबंधित विषय
- ज्ञातृत्व कर्तृत्व विचार
- ज्ञान क्रिया व अज्ञान क्रिया निर्देश
- परद्रव्यों में अध्यवसान करने के कारण ही जीव कर्ता प्रतिभासित होता है
- स्वपर भेद ज्ञान होने पर वही ज्ञाता मात्र रहता हुआ अकर्ता प्रतिभासित होता है
- ज्ञानी जीव कर्म कर्ता हुआ भी अकर्ता ही है
- वास्तव में जो करता है वह ज्ञाता नहीं और जो ज्ञाता है वह कर्ता नहीं
- कर्मधारा में ही कर्तापना है ज्ञानधारा में नहीं
- जब तक बुद्धि है, तब तक अज्ञानी है
- वास्तव में ज्ञप्ति क्रियायुक्त ही ज्ञानी है
- कर्ताबुद्धि छोड़ने का उपाय
- भेद व लक्षण
- चेतना सामान्य का लक्षण
राजवार्तिक/1/4/14/26/11 जीवस्वभावश्चेतना।...यत्संनिधानादात्मा ज्ञाना द्रष्टा कर्ता भोक्ता व भवति तल्लक्षणो जीव:। =जिस शक्ति के सान्निध्य से आत्मा ज्ञाता, द्रष्टा अथवा कर्ता-भोक्ता होता है वह चेतना है और वही जीव का स्वभाव होने से उसका लक्षण है।
नयचक्र बृहद्/64 अणुहवभावो चेयणम् ।=अनुभव रूप भाव का नाम चेतन है। (आलापपद्धति/6), (नय चक्र श्रुत/57)
समयसार / आत्मख्याति/298-299 चेतना तावत्प्रतिभासरूपा: सा तु तेषामेव वस्तूनां सामान्यविशेषात्मकत्वात् द्वैरूप्यं नातिक्रामति। ये तु तस्या द्वे रूपे ते दर्शनज्ञाने। =चेतना प्रतिभास रूप होती है। वह चेतना द्विरूपता का उल्लंघन नहीं करती, क्योंकि समस्त वस्तुएँ सामान्य विशेषात्मक हैं। उसके जो दो रूप हैं - वे दर्शन और ज्ञान हैं।
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/39 चेतनानुभूत्युपलब्धिवेदनानामेकार्थत्वात् ।=चेतना, अनुभूति, उपलब्धि, वेदना इन सबका एक अर्थ है। - चेतना के भेद दर्शन व ज्ञान
समयसार / आत्मख्याति/298-299 ये तु तस्या द्वे रूपे ते दर्शनज्ञाने। =उस चेतना के जो दो रूप हैं - वे दर्शन और ज्ञान हैं।
- उपयोग व लब्धि रूप चेतना–देखें उपयोग - I।
- चेतना के भेद शुद्ध व अशुद्ध आदि
प्रवचनसार/123 परिणमदि चेदणाए आदा पुण चेदणा तिधाभिमदा। सा पुण णाणे कम्मे फलम्मि वा कम्मणो भणिदा। =आत्मा चेतना रूप से परिणमित होता है। और चेतना तीन प्रकार से मानी गयी है–ज्ञानसंबंधी, कर्मसंबंधी अथवा कर्मफलसंबंधी। (पंचास्तिकाय/28)
समयसार / आत्मख्याति व तात्पर्यवृत्ति /387 ज्ञानाज्ञानभेदेन चेतना तावद्द्विविधा भवति। अज्ञानचेतना। सा द्विधा कर्मचेतना कर्मफलचेतना च। =ज्ञान और अज्ञान के भेद से चेतना दो प्रकार की है। तहाँ अज्ञान चेतना दो प्रकार की है–कर्मचेतना और कर्मफलचेतना।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/124 अथ ज्ञानकर्मकर्मफलरूपेण त्रिधां चेतनां विशेषेण विचारयति। ज्ञानं मत्यादिभेदेनाष्टविकल्पं भवति। ...कर्म शुभाशुभशुद्धोपयोगभेदेनानेकविधं त्रिविधं भणितम् । =ज्ञान, कर्म व कर्मफल ऐसी जो तीन प्रकार चेतना उसका विशेष विचार करते हैं। ज्ञान मति ज्ञान आदि आठ रूप आठ प्रकार का है। कर्म शुभ, अशुभ व शुद्धोपयोग आदि के भेद से अनेक प्रकार का है अथवा इन्हीं तीन भेदरूप है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/192-195 स्वरूपं चेतना जंतो: सा सामान्यात्सदेकधा। सद्विशेषादपि द्वेधा क्रमात्सा नाक्रमादिह।192। एकधा चेतना शुद्धाशुद्धस्यैकविधत्वत:। शुद्धाशुद्धोपलब्धित्वाज्ज्ञानत्वाज्ज्ञानचेतना ।194। अशुद्धा चेतना द्वेधा तद्यथा कर्मचेतना। चेतनत्वात्फलस्यास्य स्यात्कर्मफलचेतना।195। =जीव के स्वरूप को चेतना कहते हैं, और वह सामान्यरूप से अर्थात् द्रव्यदृष्टि से सदा एक प्रकार की होती है। परंतु विशेष रूप से अर्थात् पर्याय दृष्टि से वह ही दो प्रकार होती है – शुद्ध चेतना और अशुद्ध चेतना।192। शुद्धात्मा को विषय करने वाला शुद्धज्ञान एक ही प्रकार का होने से शुद्ध चेतना एक ही प्रकार की है।194। अशुद्ध चेतना दो प्रकार की है – कर्मचेतना व कर्मफल चेतना।195।
- ज्ञान व अज्ञान चेतना के लक्षण
समयसार / आत्मख्याति/गाथा ज्ञानी हि...ज्ञानचेतनामयत्वेन केवलं ज्ञातृत्वात्कर्मबंधं कर्मफलं च शुभमशुभं वा केवलमेव जानाति।319। चारित्रं तु भवन् स्वस्य ज्ञानमात्रस्य चेतनात् स्वयमेव ज्ञानचेतना भवतीति भाव:।386। ज्ञानादन्यत्रेदमहमिति चेतनं अज्ञानचेतना।387। =ज्ञानी तो ज्ञान चेतनामय होने के कारण केवल ज्ञाता ही है, इसलिए वह शुभ तथा अशुभ कर्मबंध को तथा कर्मफल को मात्र जानता ही है।319। चारित्र स्वरूप होता हुआ (वह आत्मा) अपने को अर्थात् ज्ञानमात्र को चेतता है इसलिए स्वयं ही ज्ञानचेतना है। ज्ञान से अन्य (भावों में) ‘यह मैं हूँ’ ऐसा अनुभव करना सो अज्ञान चेतना है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/196-197 अत्रात्मा ज्ञानशब्देन वाच्यस्तन्मात्रत: स्वयं। स चेत्यते अनया शुद्ध: शुद्धा सा ज्ञानचेतना।196। अर्थाज्ज्ञानं गुण: सम्यक् प्राप्तावस्थांतरं यदा। आत्मोपलब्धिरूपं स्यादुच्यते ज्ञानचेतना।197। =इस ज्ञान चेतना शब्द में ज्ञान शब्द से आत्मा वाच्य है, क्योंकि वह स्वयं ज्ञान स्वरूप है और वह शुद्धात्मा इस चेतना के द्वारा अनुभव होता है, इसलिए वह ज्ञान चेतना शुद्ध कहलाती है।196। अर्थात् मिथ्यात्वोदय के अभाव में सम्यक्त्व युक्त ज्ञान ज्ञानचेतना है।197।
- शुद्ध व अशुद्ध चेतना का लक्षण
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/16 ज्ञानानुभूतिलक्षणा शुद्धचेतना, कार्यानुभूतिलक्षणा कर्मफलानुभूतिलक्षणा चाशुद्धचेतना। =ज्ञानानुभूति स्वरूप शुद्ध चेतना है और कार्यानुभूति स्वरूप तथा कर्मफलानुभूति स्वरूप अशुद्धचेतना है।
द्रव्यसंग्रह टीका/15/50/8 केवलज्ञानरूपा शुद्धचेतना। =केवलज्ञानरूप शुद्ध चेतना है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/193 एका स्याच्चेतना शुद्धा स्यादशुद्धा परा तत:। शुद्धा स्यादात्मनस्तत्त्वमस्त्यशुद्धात्मकर्मजा।193। =एक शुद्ध चेतना है और उससे विपरीत दूसरी अशुद्ध चेतना है। उनमें से शुद्ध चेतना आत्मा का स्वरूप है और अशुद्ध चेतना आत्मा और कर्म के संयोग से उत्पन्न होने वाली है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/196,213 शुद्धा सा ज्ञानचेतना।196। अस्त्यशुद्धोपलब्धि: सा ज्ञानाभासाच्चिदन्वयात् । न ज्ञानचेतना किंतु कर्म तत्फलचेतना।213।=ज्ञानचेतना शुद्ध कहलाती है।196। अशुद्धोपलब्धि शुद्धात्मा के आभास रूप होती है। चिदन्वय से अशुद्धात्मा के प्रतिभासरूप होने से ज्ञानचेतनारूप नहीं कही जा सकती है, किंतु कर्मचेतना तथा कर्मफल चेतना स्वरूप कही जाती है।213। - कर्मचेतना व कर्मफल चेतना के लक्षण
समयसार / आत्मख्याति/387 तत्राज्ञानादन्यत्रेदमहं करोमीति चेतनं कर्मचेतना। ज्ञानादन्येत्रेदं वेदयेऽहमिति चेतनं कर्मफलचेतना। =ज्ञान से अन्य (भावों में) ऐसा अनुभव करना कि ‘इसे मैं करता हूँ’ सो कर्म चेतना है, और ज्ञान से अन्य (भावों में) ऐसा अनुभव करना कि ‘इसे मैं भोगता हूँ’ सो कर्मफल चेतना है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/123-124 कर्मपरिणति: कर्म चेतना, कर्मफलपरिणति: कर्मफलचेतना।123।... क्रियमाणमात्मना कर्म।...तस्य कर्मणो यन्निष्पाद्यं सुखदु:खं तत्कर्मफलम् ।124। =कर्म परिणति कर्मचेतना और कर्मफल परिणति कर्मफल चेतना है।123। आत्मा के द्वारा किया जाता है वह कर्म है और उस कर्म से उत्पन्न किया जाने वाला सुख-दु:ख कर्मफल है।124।
द्रव्यसंग्रह टीका/15/50/6 अव्यक्तसुखदु:खानुभवनरूपा कर्मफलचेतना।... स्वेहापूर्वेंष्टानिष्टविकल्परूपेण विशेषरागद्वेष-परिणमनं कर्मचेतना। =अव्यक्त सुख-दु:खानुभव स्वरूप कर्मफल चेतना है, तथा निज चेष्टा पूर्वक अर्थात् बुद्धिपूर्वक इष्ट-अनिष्ट विकल्परूप से विशेष राग-द्वेष रूप जो परिणाम हैं वह कर्मचेतना है।
- चेतना सामान्य का लक्षण
- ज्ञान अज्ञान चेतना निर्देश
- सम्यग्दृष्टि को ज्ञान चेतना ही इष्ट है
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/822 प्रकृतं तद्यथास्ति स्वं स्वरूपं चेतनात्मन:। सा त्रिधात्राप्युपादेया सदृष्टेर्ज्ञानचेतना।822। =चेतना निज स्वरूप है और वह तीन प्रकार की है। तो भी सम्यग्दर्शन का लक्षण करते समय सम्यग्दृष्टि को एक ज्ञान चेतना ही उपादेय होती है। (समयसार / आत्मख्याति/387) - ज्ञान चेतना सम्यग्दृष्टि को ही होती है
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/198 सा ज्ञानचेतना नूनमस्ति सम्यग्दृगात्मन:। न स्यान्मिथ्यादृश: क्वापि तदात्वे तदसंभावात् ।=निश्चय से वह ज्ञानचेतना सम्यग्दृष्टि जीव के होती है, क्योंकि, मिथ्यात्व का उदय होने पर उस आत्मोपलब्धि का होना असंभव है, इसलिए वह ज्ञानचेतना मिथ्यादृष्टि जीव के किसी भी अवस्था में नहीं होती। - निजात्म तत्त्व को छोड़कर ज्ञानचेतना अन्य अर्थों में नहीं प्रवर्तती
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/850 सत्यं हेतोर्विपक्षत्वे वृत्तित्वाद्वयभिचारिता। यतोऽत्रान्यात्मनोऽन्यत्र स्वात्मनि ज्ञानचेतना। =ठीक है–हेतु के विपक्ष में वृत्ति होने से उसमें व्यभिचारीपना आता है क्योंकि परस्वरूप परपदार्थ से भिन्न अपने इस स्वात्मा में ज्ञानचेतना होती है। - मिथ्यादृष्टि को कर्म व कर्मफल चेतना ही होती है
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/223 यद्वा विशेषरूपेण स्वदते तत्कुदृष्टिनाम् । अर्थात् सा चेतना नूनं कर्मकार्येऽथ कर्मणि।223। =अथवा मिथ्यादृष्टियों को विशेषरूप से अर्थात् पर्यायरूप से उस सत् का स्वाद आता है, इसलिए वास्तव में उनकी वह चेतना कर्मफल में और कर्म में ही होती है। - अज्ञान चेतना संसार का बीज है
समयसार / आत्मख्याति/387-389 सा तु समस्तापि संसारबीजं, संसारबीजस्याष्टविधकर्मणो बीजत्वात् ।=वह समस्त अज्ञान चेतना संसार का बीज है, क्योंकि संसार के बीजभूत अष्टविध कर्मों की वह बीज है। - त्रस स्थावर आदि की अपेक्षा तीनों चेतनाओं का स्वामित्व
पंचास्तिकाय/39 सव्वे खलु कम्मफलं थावरकाया तसा हि कज्जजुदं। पाणित्तमदिक्कंता णाणं विदंति ते जीवा। =सर्व स्थावर जीव वास्तव में कर्मफल को वेदते हैं, त्रस कर्म व कर्मफल इन दो चेतनाओं को वेदते हैं और प्राणित्व का अतिक्रम कर गये हैं ऐसे केवलज्ञानी ज्ञानचेतना को वेदते हैं। - अन्य संबंधित विषय
- ज्ञान चेतना में निर्विकल्पता–देखें विकल्प ।
- सम्यग्दृष्टि की कर्म व कर्मफल चेतना भी ज्ञान चेतना ही है–देखें सम्यग्दृष्टि - 2।
- लौकिक कार्य करते भी सम्यग्दृष्टि को ज्ञान चेतना रहती है–देखें सम्यग्दृष्टि - 2।
- सम्यग्दृष्टि को ज्ञान चेतना अवश्य होती है–देखें अनुभव - 5।
- शुद्ध व अशुद्ध चेतना निर्देश–देखें उपयोग - II।
- ज्ञप्ति व करोति क्रिया निर्देश–देखें चेतना - 3.5।
- सम्यग्दृष्टि को ज्ञान चेतना ही इष्ट है
- ज्ञातृत्व कर्तृत्व विचार
- ज्ञान क्रिया व अज्ञान क्रिया निर्देश
समयसार / आत्मख्याति/70 आत्मज्ञानयोरविशेषाद्भेदमपश्यन्ननिश्शंकमात्मतया ज्ञाने वर्तते तत्र वर्तमानश्चज्ञानक्रियाया: स्वभावभूतत्वेनाप्रतिषिद्धत्वाज्जानाति ...। तदत्र योऽयमात्मा स्वयमज्ञानभवने...ज्ञानभवनव्याप्रियमाणत्वेभ्यो भिन्नं क्रियमाणत्वेनांतरुत्प्लवमानं प्रतिभाति क्रोधादि तत्कर्म। =आत्मा और ज्ञान में विशेष न होने से उनके भेद को न देखता हुआ नित्यपने ज्ञान में आत्मपने से प्रवर्तता है, और वहाँ प्रवर्तता हुआ वह ज्ञानक्रिया का स्वभावभूत होने से निषेध नहीं किया गया है, इसलिए जानता है, जानने रूप में परिणमित होता है।...जो यह आत्मा अपने अज्ञान भाव से ज्ञान भवनरूप प्रवृत्ति से भिन्न जो क्रियमाणरूप से अंतरंग उत्पन्न होते हुए प्रतिभासित होते हैं ऐसे क्रोधादि वे (उस आत्मरूप कर्ता के) कर्म है। - परद्रव्यों में अध्यवसान करने के कारण ही जीव कर्ता प्रतिभासित होता है
नयचक्र बृहद्/376 भेदुवयारे जइया वट्टदि सो विय सुहासुहाधीणो। तइया कत्ता भणिदो संसारी तेण सो आदा।376। =शुभ और अशुभ के आधीन भेद उपचार जब तक वर्तता है तब तक संसारी आत्मा कर्ता कहा जाता है। ( धवला 1/1,1,2/119/3 )।
समयसार / आत्मख्याति/312-313 अयं हि आसंसारत एव प्रतिनियतस्वलक्षणानिर्ज्ञानेन परात्मनोरेकत्वाध्यासस्य करणात्कर्ता। =यह आत्मा अनादि संसार से ही (अपने और पर के भिन्न-भिन्न) निश्चित स्वलक्षणों का ज्ञान न होने से दूसरे का और अपना एकत्व का अध्यास करने से कर्ता होता है। (समयसार / आत्मख्याति/314-315) (अनगारधर्मामृत/8/6/734)
समयसार / आत्मख्याति/97 येनायमज्ञानात्परात्मनोरेकत्वविकल्पमात्मन: करोति तेनात्मा निश्चयत: कर्ता प्रतिभाति...आसंसारप्रसिद्धेन मिलितस्वाद स्वादनेन मुद्रितभेदसंवेदनशक्तिरनादित एव स्यात; तत: परात्मनावेकत्वेन जानाति, तत: क्रोधोऽहमित्यादिविकल्पमात्मन: करोति; ततो निर्विकल्पादकृतकादेकस्माद्विज्ञानघनात्प्रभ्रष्टो वारंवारमनेकविकल्पै: परिणमनकर्ता प्रतिभाति। =क्योंकि यह आत्मा अज्ञान के कारण पर के और अपने एकत्व का आत्म विकल्प करता है, इसलिए वह निश्चय से कर्ता प्रतिभासित होता है। अनादि संसार से लेकर मिश्रित स्वाद का स्वादन या अनुभवन होने से जिसकी भेद संवेदन की शक्ति संकुचित हो गयी है ऐसा अनादि से ही है। इसलिए वह स्वपर का एकरूप जानता है; इसलिए मैं क्रोध हूँ इत्यादि आत्मविकल्प करता है; इसलिए निर्विकल्प, अकृत्रिम, एक विज्ञानघन (स्वभाव) से भ्रष्ट होता हुआ, बारंबार अनेक विकल्परूप परिणमित होता हुआ कर्ता प्रतिभासित होता है। (समयसार / आत्मख्याति/92,70,283-285)
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/147/213/15यदायमात्मा निश्चयनयेन शुद्धबुद्धैकस्वभावोऽपि व्यवहारेणानादिबंधनोपाधिवशाद्रक्त: सन् निर्मलज्ञानानंदादिगुणास्पदशुद्धात्मस्वरूपपरिणते: पृथग्भूतामुदयागतं शुभाशुभं वा स्वसंवित्तिश्च्युतो भूत्वा भावं परिणाम करोति तदा स आत्मा तेन रागपरिणामेन कर्तृभूतेन बंधो भवति। =यद्यपि निश्चयनय से यह आत्मा शुद्ध-बुद्ध एकस्वभाव है, तो भी व्यवहार से अनादि बंध की उपाधि के वश से अनुरक्त हुआ, निर्मल ज्ञानानंद आदि गुणरूप शुद्धात्मस्वरूप परिणति से पृथग्भूत उदयागत शुभाशुभ कर्म को अथवा स्वसंवित्ति से च्युत होकर भावों या परिणामों को करता है, तब वह आत्मा उस कर्ताभूत रागपरिणाम से बंधरूप होता है। - स्व-पर भेदज्ञान होने पर वही ज्ञाता मात्र रहता हुआ अकर्ता प्रतिभासित होता है
नयचक्र बृहद्/377 जइया तब्विवरीए आदसहावेहि संठियो होदि। तइया किंच ण कुव्वदि सहावलाहो हवे तेण।377। = उस शुभाशुभ रूप भेदोपचार परिणति से विपरीत जब वह आत्मा स्वभाव में स्थित होकर कुछ नहीं करता तब उसे स्वभाव (ज्ञाताद्रष्टापने) का लाभ होता है।
समयसार / आत्मख्याति/314-315 यदा त्वयमेव प्रतिनियतस्वलक्षणनिर्ज्ञानात् ...परात्मनोरेकत्वाध्यासस्याकरणादकर्ता भवति।=जब यही आत्मा (अपने और पर के भिन्न–भिन्न) निश्चित स्वलक्षणों के ज्ञान के कारण स्व पर के एकत्व का अध्यास नहीं करता तब अकर्ता होता है।
समयसार / आत्मख्याति/97 ज्ञानी तु सन् ...निखिलरसांतरविविक्तात्यंतमधुरचैतंयैकरसोऽयमात्मा भिन्नरसा: कषायास्तै: सह यदेकत्वविकल्पकरणं तदज्ञानादित्येवं नानात्वेन परात्मानौ जानाति, ततोऽकृतकमेकं ज्ञानमेवाहं न पुन: कृतकोऽनेक: क्रोधादिरपीति ...ततो निर्विकल्पोऽकृतक एको विज्ञानघनो भूतोऽत्यंतमकर्ता प्रतिभाति। =जब आत्मा ज्ञानी होता है तब समस्त अन्य रसों से विलक्षण अत्यंत मधुर चैतन्य रस ही एक जिसका रस है ऐसा आत्मा है और कषायें उससे भिन्न रसवाली हैं, उनके साथ जो एकत्व का विकल्प करना है वह अज्ञान से है, इस प्रकार पर को और अपने को भिन्नरूप जानता है, इसलिए अकृत्रिम (नित्य) एक ज्ञान ही मैं हूँ, किंतु कृत्रिम (अनित्य) अनेक जो क्रोधादिक हैं वह मैं नहीं हूँ ऐसा जानता हुआ; निर्विकल्प, अकृत्रिम, एक, विज्ञानघन होता हुआ अकर्ता प्रतिभासित होता है। (समयसार/भा./93; 71,283-285)।
समयसार / आत्मख्याति/97/कलश 59 ज्ञानाद्विवेचकया तु परात्मनोर्यो, जानाति हंस इव वा: पयसोर्विशेषम् । चैतन्यधातुमचलं स सदाधिरूढो, जानीत एव हि करोति न किंचनापि। =जैसे हंस दूध और पानी के विशेष को जानता है, उसी प्रकार जो जीव ज्ञान के कारण विवेक वाला होने से पर के और अपने विशेष को जानता है, वह अचल चैतन्य धातु में आरूढ़ होता हुआ, मात्र जानता ही है, किंचित् मात्र भी कर्ता नहीं होता।
समयसार / आत्मख्याति/72/कलश 47 परपरिणतिमुज्झत् खंडयद्भेदवादानिदमुदितमखंडं ज्ञानमुच्चंडमुच्चै:। ननु कथमवकाश: कर्तृकर्मप्रवृत्तेरिह भवति कथं वा पौद्गल: कर्मबंध:। =पर परिणति को छोड़ता हुआ, भेद के कथनों को तोड़ता हुआ, यह अत्यंत अखंड और प्रचंड ज्ञान प्रत्यक्ष उदय को प्राप्त हुआ है। अहो ! ऐसे ज्ञान में कर्ता-कर्म की प्रवृत्ति का अवकाश कैसे हो सकता है ? तथा पौद्गलिक कर्मबंध भी कैसे हो सकता है। - ज्ञानी जीव कर्म करता हुआ भी अकर्ता ही है
समयसार / आत्मख्याति/227/कलश 153 त्यक्तं येन फलं स कर्म कुरुते नेति प्रतीमो वयं, किंत्वस्यापि कुतोऽपि किंचिदपि तत्कर्मावशेनापतेत् । तस्मिन्नापतिते त्वकंपपरमज्ञानस्वभावे स्थितो, ज्ञानी कि कुरुतेऽथ किं न कुरुते कर्मेति जानाति क:।153। =जिसने कर्म का फल छोड़ दिया है, वह कर्म करता है ऐसी प्रतीति तो हम नहीं कर सकते। किंतु वहाँ इतना विशेष है कि–उसे (ज्ञानी को) भी किसी कारण से कोई ऐसा कर्म अवशता से आ पड़ता है। उसके आ पड़ने पर भी जो अकंप परमज्ञान में स्थित है, ऐसा ज्ञानी कर्म करता है या नहीं यह कौन जानता है ?
योगसार /अ./9/59 य: कर्म मन्यते कर्माऽकर्म वाऽकर्म सर्वथा। स सर्वकर्मणां कर्ता निराकर्ता च जायते।59। =जो बुद्धिमान पुरुष सर्वथा कर्म को कर्म और अकर्म को अकर्म मानता है वह समस्त कर्मों का कर्ता भी अकर्ता है।
सागार धर्मामृत/1/13 भ्रूरेखादिसदृक्कषायवशगो यो विश्वदृश्वाज्ञया, हेयं वैषयिकं सुखं निजमुपादेयं त्विति श्रद्दधत् । चौरो मारयितुं धृतस्तलवरेणेवात्मनिंदादिमां, शर्माक्षं भजते रुजत्यपि परं नोत्तप्यतेसोऽप्यघै:। =जो सर्वज्ञ देव की आज्ञा से वैषयिक सुखों को हेय और निजात्म तत्त्व को उपादेय रूप श्रद्धान करता है। कोतवाल के द्वारा पकड़े गये चोर की भाँति सदा अपनी निंदा करता है। भ्रूरेखा सदृश अप्रत्याख्यान कर्म के उदय से यद्यपि रागादि करता है तो भी मोक्ष को भजने वाला वह कर्मों से नहीं लिप्तता।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/265 यथा कश्चित्परायत्त: कुर्वाणोऽनुचितां क्रियाम् । कर्ता तस्या: क्रियायाश्च न स्यादस्ताभिलाषवान् । =जैसे कि अपनी इच्छा के बिना कोई पराधीन पुरुष अनुचित क्रिया को करता हुआ भी वास्तव में उस क्रिया का कर्ता नहीं माना जाता, (उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव कर्मों के आधीन कर्म करता हुआ भी अकर्ता ही है।) और भी देखें राग - 6 (विषय सेवता हुआ भी नहीं सेवता)। - वास्तव में जो करता है वह ज्ञाता नहीं और जो ज्ञाता है वह कर्ता नहीं
समयसार / आत्मख्याति/96-97 य: करोति स करोति केवलं, यस्तु वेत्ति स तु वेत्ति केवलम् । य: करोति न हि वेत्ति स क्वचित्, यस्तु वेत्ति न करोति स क्वचित् ।96। ज्ञप्ति: करोतौ न हि भासतेऽंत:, ज्ञप्तौ करोतिश्च न भासतेऽंत:। ज्ञप्ति: करोतिश्च ततो विभिन्ने, ज्ञाता न कर्तेति तत: स्थितं च।97। =जो करता है सो मात्र करता ही है। और जो जानता है सो जानता ही है। जो करता है वह कभी जानता नहीं और जो जानता है वह कभी करता नहीं।96। करनेरूप क्रिया के भीतर जानने रूप क्रिया भासित नहीं होती और जानने रूप क्रिया के भीतर करनेरूप क्रिया भासित नहीं होती। इसलिए ज्ञप्ति क्रिया और करोति क्रिया दोनों भिन्न हैं। इससे यह सिद्ध हुआ कि जो ज्ञाता है वह कर्ता नहीं है।97। - कर्मधारा में ही कर्तापना है ज्ञानधारा में नहीं
समयसार / आत्मख्याति/344/कलश 205माकर्तारममी स्पृशंतु पुरुषं सांख्या इवाप्यार्हता:, कर्तारं कलयंतु तं किल सदा भेदावबोधादध:। ऊर्ध्वं तूद्धतबोधधामनियतं प्रत्यक्षमेनं स्वयं, पश्यंतु च्युतकर्तृ भावमचलं ज्ञातारमेकं परम् । =यह जैनमतानुयायी सांख्यमतियों की भाँति आत्मा को (सर्वथा) अकर्ता न मानो। भेदज्ञान होने से पूर्व उसे निरंतर कर्ता मानो, और भेदज्ञान होने के बाद, उद्धत ज्ञानधाम (ज्ञानप्रकाश) में निश्चित इस स्वयं प्रत्यक्ष आत्मा को कर्तृत्व रहित, अचल, एक परम ज्ञाता ही देखो। - जब तक बुद्धि है, तब तक अज्ञानी है
समयसार/247 जो मण्णदि हिंसामि य हिंसिज्जामि य परेहिं सत्तेहिं। सो मूढो अण्णाणी णाणी एतो दु विवरीदो। =जो यह मानता है कि मैं परजीवों को मारता हूँ और परजीव मुझे मारते हैं, वह मूढ़ है, अज्ञानी है और इससे विपरीत ज्ञानी है।
समयसार / आत्मख्याति/74/कलश 48 अज्ञानोत्थितकर्तृकर्मकलनात् क्लेशान्निवृत्त: स्वयं ज्ञानीभूत इतश्चकास्ति जगत: साक्षी पुराण: पुमान् ।48। =अज्ञान से उत्पन्न हुई कर्ताकर्म की प्रवृत्ति के अभ्यास से उत्पन्नक्लेशों से निवृत्त हुआ, स्वयं ज्ञानस्वरूप होता हुआ जगत् का साक्षी पुराण पुरुष अब यहाँ से प्रकाशमान होता है।
समयसार / आत्मख्याति/256/कलश 169 अज्ञानमेतदधिगम्य परात्परस्य, पश्यंति ये मरणजीवितदु:खसौख्यम् । कर्माण्यहंकृतिरसेन चिकीर्षवस्ते, मिथ्यादृशो नियतमात्महनो भवंति। =इस अज्ञान को प्राप्त करके जो पुरुष पर से, पर के मरण, जीवन, दु:ख, सुख को देखते हैं, वे पुरुष–जो कि इस प्रकार अहंकार रस से कर्मों को करने के इच्छुक हैं, वे नियम से मिथ्यादृष्टि हैं, अपने आत्मा का घात करने वाले हैं।
समयसार / आत्मख्याति/321 ये त्वात्मानं कर्तारमेव पश्यंति ते लोकोत्तरिका अपि न लौकिकतामतिवर्तंते। =जो आत्मा को कर्ता ही देखते हैं, वे लोकोत्तर हों तो भी लौकिकता को अतिक्रमण नहीं करते। - वास्तव में ज्ञप्तिक्रियायुक्त ही ज्ञानी है
समयसार / आत्मख्याति/161-163/कलश 111 मग्ना: कर्मनयावलंबनपरा ज्ञानं न जानंति यन्मग्ना ज्ञाननयेषिणोऽपि यदतिस्वच्छंदमंदोद्यमा:। विश्वस्योपरिते तरंति सततं ज्ञानं भवंत: स्वयं, ये कुर्वंति न कर्म जातु न वशं यांति प्रमादस्य च।111। =कर्मनय के आलंबन में तत्पर पुरुष डूबे हुए हैं, क्योंकि वे ज्ञान को नहीं जानते। ज्ञाननय के इच्छुक पुरुष भी डूबे हुए हैं, क्योंकि वे स्वच्छंदता से अत्यंत मंद उद्यमी हैं। वे जीव विश्व के ऊपर तैरते हैं, जो कि स्वयं निरंतर ज्ञानरूप होते हुए (ज्ञानरूप परिणमते हुए) कर्म नहीं करते और कभी प्रमाद के वश भी नहीं होते।
समयसार / आत्मख्याति/परिशिष्ट/कलश 267 स्याद्वादकौशलसुनिश्चितसंयमाभ्यां, यो भावयत्यहरह: स्वमिहोपयुक्त:। ज्ञानक्रियानयपरस्परतीव्रमैत्रीपात्रीकृत: श्रयति भूमिमिमां स एक:। =जो पुरुष स्याद्वाद में प्रवीणता तथा सुनिश्चित संयम–इन दोनों के द्वारा अपने में उपयुक्त रहता हुआ प्रतिदिन अपने को भाता है, वही एक ज्ञाननय और क्रियानय की परस्पर तीव्र मैत्री का पात्ररूप होता हुआ, इस भूमिका का आश्रय करता है। - कर्ताबुद्धि छोड़ने का उपाय
समयसार / आत्मख्याति/71 ज्ञानस्य यद्भवनं तत्र क्रोधादेरपि भवनं यतो यथा ज्ञानभवने ज्ञानं भवद्विभाव्यते न तथा क्रोधादिरपि, यत्तु क्रोधादेर्भवनं तन्न ज्ञानस्यापि भवनं यतो यथा क्रोधादिभवने क्रोधादयो भवंतो विभाव्यंते न तथा ज्ञानमपि इत्यात्मन: क्रोधादीनां च व खल्वेकवस्तुत्वं इत्येवमात्मास्रवयोर्विशेषदर्शनेन यदा भेदं जानाति तदास्यानादिरप्यज्ञानजा कर्तृकर्मप्रवृत्तिर्निवर्त्तते। =जो ज्ञान का परिणमन है वह क्रोधादि का परिणमन नहीं है, क्योंकि जैसे ज्ञान होने पर ज्ञान ही हुआ मालूम होता है वैसे क्रोधादिक नहीं मालूम होते। जो क्रोधादि का परिणमन है, वह ज्ञान का परिणमन नहीं है, क्योंकि, क्रोधादिक होने पर जैसे क्रोधादिक हुए प्रतीत होते हैं वैसे ज्ञान हुआ प्रतीत नहीं होता। इस प्रकार क्रोध (राग, द्वेषादि) और ज्ञान इन दोनों के निश्चय से एक वस्तुत्व नहीं है। इस प्रकार आत्मा और आस्रवों का भेद देखने से जिस समय भेद जानता है उस समय इसके अनादिकाल से उत्पन्न हुई पर में कर्ता कर्म की प्रवृत्ति निवृत्त हो जाती है।
- ज्ञान क्रिया व अज्ञान क्रिया निर्देश