छेद: Difference between revisions
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<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/32/342/21 </span>पर उद्धृत हरिभद्रसूरिकृत पंचवस्तुक चतुर्थद्वारका श्लो.नं.–<span class="PrakritGatha">‘‘बज्झाणुट्ठाणेणं जेण ण बाहिज्जए तयं णियमा। संभवइ य परिसुद्धं सो पुण धम्मम्मि छेउत्ति।’’</span> =<span class="HindiText">जिन बाह्यक्रियाओं से धर्म में बाधा न आती हो, और जिससे निर्मलता की वृद्धि हो उसे छेद कहते हैं।</span> <span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/6/32/21 </span><span class="SanskritText">असंयमजुगुप्सार्थमेव।</span> <span class="HindiText">असंयम के प्रति जुगुप्सा ही छेद है। </span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="4" id="4"> संयम संबंधी छेद के भेद व लक्षण</strong></span><br> <span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/211-212 </span><span class="SanskritText">द्विविध: किल संयमस्य छेद: बहिरंगोऽंतरंगश्च। तत्र कायचेष्टामात्राधिकृतो बहिरंग: उपयोगाधिकृत: पुनरंतरंग:।</span><br> <span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/217 </span><span class="SanskritText">अशुद्धोपयोगोऽंतरंगच्छेद: परप्राणव्यपरोपो बहिरंग:। </span>=<span class="HindiText">संयम का छेद दो प्रकार का है; बहिरंग और अंतरंग। उसमें मात्र कायचेष्टा संबंधी बहिरंग है और उपयोग संबंधी अंतरंग।211-212। अशुद्धोपयोग अंतरंगछेद हैं; परप्राणों का व्यपरोप बहिरंगच्छेद है।</span></li> | |||
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<div class="HindiText"> <p id="1" class="HindiText">(1) अहिंसाणुव्रत का एक अतिचार― कान आदि अवयवों का छेदना । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_58#164|हरिवंशपुराण - 58.164]] </span></p> | |||
<p id="2" class="HindiText">(2) प्रायश्चित का एक भेद― दिन, मास आदि से मुनि की दीक्षा कम कर देना । इसका मुनियों की वरीयता पर प्रभाव पड़ता है । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_64#36|हरिवंशपुराण - 64.36]] </span></p> | |||
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Latest revision as of 17:04, 30 January 2024
सिद्धांतकोष से
- Section. ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/ प्र.106)
- छेद सामान्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/7/25/366/3 कर्णनासिकादीनामवयवानामपनयनं छेद:। =कान और नाक आदि अवयवों का भेदना छेद है। ( राजवार्तिक/7/25/3/553/20 ) - धर्मसंबंधी छेद का लक्षण
स्याद्वादमंजरी/32/342/21 पर उद्धृत हरिभद्रसूरिकृत पंचवस्तुक चतुर्थद्वारका श्लो.नं.–‘‘बज्झाणुट्ठाणेणं जेण ण बाहिज्जए तयं णियमा। संभवइ य परिसुद्धं सो पुण धम्मम्मि छेउत्ति।’’ =जिन बाह्यक्रियाओं से धर्म में बाधा न आती हो, और जिससे निर्मलता की वृद्धि हो उसे छेद कहते हैं। भगवती आराधना / विजयोदया टीका/6/32/21 असंयमजुगुप्सार्थमेव। असंयम के प्रति जुगुप्सा ही छेद है। - संयम संबंधी छेद के भेद व लक्षण
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/211-212 द्विविध: किल संयमस्य छेद: बहिरंगोऽंतरंगश्च। तत्र कायचेष्टामात्राधिकृतो बहिरंग: उपयोगाधिकृत: पुनरंतरंग:।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/217 अशुद्धोपयोगोऽंतरंगच्छेद: परप्राणव्यपरोपो बहिरंग:। =संयम का छेद दो प्रकार का है; बहिरंग और अंतरंग। उसमें मात्र कायचेष्टा संबंधी बहिरंग है और उपयोग संबंधी अंतरंग।211-212। अशुद्धोपयोग अंतरंगछेद हैं; परप्राणों का व्यपरोप बहिरंगच्छेद है।
पुराणकोष से
(1) अहिंसाणुव्रत का एक अतिचार― कान आदि अवयवों का छेदना । हरिवंशपुराण - 58.164
(2) प्रायश्चित का एक भेद― दिन, मास आदि से मुनि की दीक्षा कम कर देना । इसका मुनियों की वरीयता पर प्रभाव पड़ता है । हरिवंशपुराण - 64.36