कल्प: Difference between revisions
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<li class="HindiText"> इन दसों कल्पों के लक्षण–देखें [[अचेलकत्व]], [[उद्दिष्ट]], [[ वह वह नाम ]]। | <li class="HindiText">इन दसों कल्पों के लक्षण–देखें [[अचेलकत्व]], [[उद्दिष्ट]], 1. अचेलकत्व, 2. उद्दिष्ट भोजन का त्याग, 3. शय्याग्रह अर्थात् वसतिका बनवाने या सुधरवाने वाले के आहार का त्याग, 4. [[राजपिंड]] अर्थात् अमीरों के भोजन का त्याग, 5. [[कृतिकर्म]] अर्थात् साधुओं की विनय शुश्रूषा आदि करना, 6. व्रत अर्थात् जिसे व्रत का स्वरूप मालूम है उसे ही व्रत देना; 7.ज्येष्ठ अर्थात् अपने से अधिक का योग्य विनय करना, 8. [[प्रतिक्रमण]] अर्थात् नित्य लगे दोषों का शोधन, 9. [[मासैकवासता]] अर्थात् छहों ऋतुओं में से एक मास पर्यंत एकत्र मुनियों का निवास और 10. पद्य अर्थात् वर्षाकाल में चार मास पर्यंत एक स्थान पर निवास [[ वह वह नाम ]]। [[जिनकल्प]]</li> | ||
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<span class="HindiText"> (1) उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी दोनों कालों का बीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण काल । <span class="GRef"> महापुराण 3. 14-15, 76.493-494, | <span class="HindiText"> (1) उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी दोनों कालों का बीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण काल । <span class="GRef"> महापुराण 3. 14-15, 76.493-494, [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_7#63|हरिवंशपुराण - 7.63]] </span></br><span class="HindiText">(2) स्वर्ग । सरागी श्रेष्ठ संयमी और सम्यग्दर्शन से विभूषित मुनि तथा श्रावक मरकर स्वर्ग में जाते हैं । ये सोलह होते हैं । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_3#149|हरिवंशपुराण - 3.149]], </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 17.89-90 </span>देखें [[ स्वर्ग ]]</br><span class="HindiText">3) अग्रायणीयपूर्व की चौदह वस्तुओं में सातवीं वस्तु । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_10#77|हरिवंशपुराण - 10.77-79]] </span> | ||
Latest revision as of 22:55, 13 December 2023
सिद्धांतकोष से
- साधु चर्या के 10 कल्पों के निर्देश - देखें साधु - 2।
- इन दसों कल्पों के लक्षण–देखें अचेलकत्व, उद्दिष्ट, 1. अचेलकत्व, 2. उद्दिष्ट भोजन का त्याग, 3. शय्याग्रह अर्थात् वसतिका बनवाने या सुधरवाने वाले के आहार का त्याग, 4. राजपिंड अर्थात् अमीरों के भोजन का त्याग, 5. कृतिकर्म अर्थात् साधुओं की विनय शुश्रूषा आदि करना, 6. व्रत अर्थात् जिसे व्रत का स्वरूप मालूम है उसे ही व्रत देना; 7.ज्येष्ठ अर्थात् अपने से अधिक का योग्य विनय करना, 8. प्रतिक्रमण अर्थात् नित्य लगे दोषों का शोधन, 9. मासैकवासता अर्थात् छहों ऋतुओं में से एक मास पर्यंत एकत्र मुनियों का निवास और 10. पद्य अर्थात् वर्षाकाल में चार मास पर्यंत एक स्थान पर निवास वह वह नाम । जिनकल्प
- महाकल्प–श्रुतज्ञान का 11 वाँ अंगबाह्य है–देखें श्रुतज्ञान -III।
- स्वर्ग विभाग–देखें स्वर्ग - 1.2।
पुराणकोष से
(1) उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी दोनों कालों का बीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण काल । महापुराण 3. 14-15, 76.493-494, हरिवंशपुराण - 7.63
(2) स्वर्ग । सरागी श्रेष्ठ संयमी और सम्यग्दर्शन से विभूषित मुनि तथा श्रावक मरकर स्वर्ग में जाते हैं । ये सोलह होते हैं । हरिवंशपुराण - 3.149, वीरवर्द्धमान चरित्र 17.89-90 देखें स्वर्ग
3) अग्रायणीयपूर्व की चौदह वस्तुओं में सातवीं वस्तु । हरिवंशपुराण - 10.77-79