अभ्याख्यान: Difference between revisions
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<p class="HindiText">= हिंसादि कार्य कर के हिंसा से विरक्त मुनि या श्रावक को दोष लगाते हुए `यह इसका कार्य है, अर्थात् यह कार्य इसने किया है' ऐसा कहना अभ्याख्यान है।</p> | <p class="HindiText">= हिंसादि कार्य कर के हिंसा से विरक्त मुनि या श्रावक को दोष लगाते हुए `यह इसका कार्य है, अर्थात् यह कार्य इसने किया है' ऐसा कहना अभ्याख्यान है।</p> | ||
<p>( धवला पुस्तक /1/1,2/116/12) ( धवला पुस्तक 9/4,1,45/217/3) ( गोम्मट्टसार जीवकांड / गोम्मट्टसार जीवकांड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 366/778/19)।</p> | <p><span class="GRef">( धवला पुस्तक /1/1,2/116/12) ( धवला पुस्तक 9/4,1,45/217/3) ( गोम्मट्टसार जीवकांड / गोम्मट्टसार जीवकांड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 366/778/19) </span>।</p> | ||
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<p class="HindiText">= क्रोध मान माया और लोभ आदि के कारण दूसरों में अविद्यमान दोषों को प्रगट करना अभ्याख्यान कहा जाता है।</p> | <p class="HindiText">= क्रोध, मान, माया और लोभ आदि के कारण दूसरों में अविद्यमान दोषों को प्रगट करना अभ्याख्यान कहा जाता है।</p> | ||
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<div class="HindiText"> <p> सत्यप्रवाद नाम के पूर्व में कथित बारह प्रकार की भाषाओं में प्रथम भाषा । हिंसा आदि पापों के करने वालों को नहीं करना चाहिए इस प्रकार का वचन । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 10.91-92 </span></p> | <div class="HindiText"> <p class="HindiText"> सत्यप्रवाद नाम के पूर्व में कथित बारह प्रकार की भाषाओं में प्रथम भाषा । हिंसा आदि पापों के करने वालों को नहीं करना चाहिए इस प्रकार का वचन । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_10#91|हरिवंशपुराण - 10.91-92]] </span></p> | ||
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Latest revision as of 14:39, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
राजवार्तिक अध्याय 1/20/12/75/12
हिंसादेः कर्मणः कर्तुविरतस्य विरताविरतस्य वायमस्य कर्तेत्यभिधानम् अभ्याख्याम्।
= हिंसादि कार्य कर के हिंसा से विरक्त मुनि या श्रावक को दोष लगाते हुए `यह इसका कार्य है, अर्थात् यह कार्य इसने किया है' ऐसा कहना अभ्याख्यान है।
( धवला पुस्तक /1/1,2/116/12) ( धवला पुस्तक 9/4,1,45/217/3) ( गोम्मट्टसार जीवकांड / गोम्मट्टसार जीवकांड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 366/778/19) ।
धवला पुस्तक 12/4,2,8,10/285/4
क्रोधमानमायालोभादिभिः परेष्वविद्यमानदोषोद्भावनमभ्याख्यानम्।
= क्रोध, मान, माया और लोभ आदि के कारण दूसरों में अविद्यमान दोषों को प्रगट करना अभ्याख्यान कहा जाता है।
पुराणकोष से
सत्यप्रवाद नाम के पूर्व में कथित बारह प्रकार की भाषाओं में प्रथम भाषा । हिंसा आदि पापों के करने वालों को नहीं करना चाहिए इस प्रकार का वचन । हरिवंशपुराण - 10.91-92