आसादन: Difference between revisions
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<p class="HindiText">= जीव आदि पाँच अस्तिकाय, पृथ्वीकायादि स्थावर व दो इंद्रिय से पाँच इंद्रिय तक त्रसकाय - इस तरह छह जीवनिकाय, अहिंसा आदि पाँच महाव्रत, ईर्या आदि पाँच समिति, व काय गुप्ति आदि तीन गुप्ति- ऐसे आठ प्रवचन माता और जीवादि नव पदार्थ - इस प्रकार ये तेंतीस पदार्थ हैं। इनकी आसादना के भी ये ही नाम हैं। इन पदार्थों का स्वरूप अन्यथा कहना, शंका आदि उत्पन्न करना उसे आसादना कहते हैं। ऐसा करने से दोष लगता है इसलिए उसका त्याग कराया गया है।</p> | <p class="HindiText">= जीव आदि पाँच अस्तिकाय, पृथ्वीकायादि स्थावर व दो इंद्रिय से पाँच इंद्रिय तक त्रसकाय - इस तरह छह जीवनिकाय, अहिंसा आदि पाँच महाव्रत, ईर्या आदि पाँच समिति, व काय गुप्ति आदि तीन गुप्ति- ऐसे आठ प्रवचन माता और जीवादि नव पदार्थ - इस प्रकार ये तेंतीस पदार्थ हैं। इनकी आसादना के भी ये ही नाम हैं। इन पदार्थों का स्वरूप अन्यथा कहना, शंका आदि उत्पन्न करना उसे आसादना कहते हैं। ऐसा करने से दोष लगता है इसलिए उसका त्याग कराया गया है।</p> | ||
< | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 6/10/627/13</span> <p class="SanskritText">कायेन वाचा य परप्रकाशस्य ज्ञानस्य वर्जनमासादनम्।</p> | ||
<p class="HindiText">= (कोई ज्ञान का प्रकाश कर रहा है) तब शरीर या वचन से उसका निषेध करना आसादना है।</p> | <p class="HindiText">= (कोई ज्ञान का प्रकाश कर रहा है) तब शरीर या वचन से उसका निषेध करना आसादना है।</p> | ||
<p>• उपघात और आसादनमें अंतर - देखें [[ उपघात ]]।</p> <br> | <p class="HindiText">• उपघात और आसादनमें अंतर - देखें [[ उपघात ]]।</p> <br> | ||
< | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 6/10/327/13</span> <p class="SanskritText">प्रशस्तज्ञानदूषणमुपधातः। आसादनमेवेति चेत्। सतो ज्ञानस्य विनयप्रदानादिगुणकीर्तनाननुष्ठानमासादनम्। उपघातस्तु ज्ञानमज्ञानमेवेति ज्ञाननाशाभिप्रायः। इत्यनयोरयं भेदः।</p> | ||
<p class="HindiText">= प्रशंसनीय ज्ञानमें दूषण लगाना उपघात है। प्रश्न-उपघात का जो लक्षण किया है उससे वह आसादन ही ज्ञात होता है? उत्तर-प्रशस्त ज्ञान की विनय न करना, उसकी अच्छाई की प्रशंसा न करना आदि आसादन है। परंतु ज्ञान को अज्ञान समझकर ज्ञान के नाश का इरादा रखना उपघात है इस प्रकार दोनों में अंतर है।</p> | <p class="HindiText">= प्रशंसनीय ज्ञानमें दूषण लगाना उपघात है। प्रश्न-उपघात का जो लक्षण किया है उससे वह आसादन ही ज्ञात होता है? उत्तर-प्रशस्त ज्ञान की विनय न करना, उसकी अच्छाई की प्रशंसा न करना आदि आसादन है। परंतु ज्ञान को अज्ञान समझकर ज्ञान के नाश का इरादा रखना उपघात है इस प्रकार दोनों में अंतर है।</p> | ||
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<div class="HindiText"> <p> ज्ञानावरण और दर्शनावरण-आस्रव का हेतु (दूसरे के द्वारा प्रकाश में आने योग्य ज्ञान को काय और वचन से रोक देना) । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 58. 92 </span></p> | <div class="HindiText"> <p class="HindiText"> ज्ञानावरण और दर्शनावरण-आस्रव का हेतु (दूसरे के द्वारा प्रकाश में आने योग्य ज्ञान को काय और वचन से रोक देना) । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_58#92|हरिवंशपुराण - 58.92]] </span></p> | ||
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Latest revision as of 14:40, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
सू.आ.45
पंचेव अत्थिकाया छज्जीवणिकाया महवया पंच। पवयणादु पदत्था तेतीसच्चासणा भणिया ॥54॥
= जीव आदि पाँच अस्तिकाय, पृथ्वीकायादि स्थावर व दो इंद्रिय से पाँच इंद्रिय तक त्रसकाय - इस तरह छह जीवनिकाय, अहिंसा आदि पाँच महाव्रत, ईर्या आदि पाँच समिति, व काय गुप्ति आदि तीन गुप्ति- ऐसे आठ प्रवचन माता और जीवादि नव पदार्थ - इस प्रकार ये तेंतीस पदार्थ हैं। इनकी आसादना के भी ये ही नाम हैं। इन पदार्थों का स्वरूप अन्यथा कहना, शंका आदि उत्पन्न करना उसे आसादना कहते हैं। ऐसा करने से दोष लगता है इसलिए उसका त्याग कराया गया है।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 6/10/627/13
कायेन वाचा य परप्रकाशस्य ज्ञानस्य वर्जनमासादनम्।
= (कोई ज्ञान का प्रकाश कर रहा है) तब शरीर या वचन से उसका निषेध करना आसादना है।
• उपघात और आसादनमें अंतर - देखें उपघात ।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 6/10/327/13
प्रशस्तज्ञानदूषणमुपधातः। आसादनमेवेति चेत्। सतो ज्ञानस्य विनयप्रदानादिगुणकीर्तनाननुष्ठानमासादनम्। उपघातस्तु ज्ञानमज्ञानमेवेति ज्ञाननाशाभिप्रायः। इत्यनयोरयं भेदः।
= प्रशंसनीय ज्ञानमें दूषण लगाना उपघात है। प्रश्न-उपघात का जो लक्षण किया है उससे वह आसादन ही ज्ञात होता है? उत्तर-प्रशस्त ज्ञान की विनय न करना, उसकी अच्छाई की प्रशंसा न करना आदि आसादन है। परंतु ज्ञान को अज्ञान समझकर ज्ञान के नाश का इरादा रखना उपघात है इस प्रकार दोनों में अंतर है।
पुराणकोष से
ज्ञानावरण और दर्शनावरण-आस्रव का हेतु (दूसरे के द्वारा प्रकाश में आने योग्य ज्ञान को काय और वचन से रोक देना) । हरिवंशपुराण - 58.92