शील: Difference between revisions
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<li><strong class="HindiText">शीलव्रतेष्वनतिचार भावना का लक्षण</strong> | <li><strong class="HindiText">शीलव्रतेष्वनतिचार भावना का लक्षण</strong> | ||
<p><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/6/24/338/9 </span><span class="SanskritText">अहिंसादिषु व्रतेषु तत्प्रतिपालनार्थेषु च क्रोधवर्जनादिषु शीलेषु निरवद्या वृत्ति: शीलव्रतेष्वनतीचार:।</span> = | <p><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/6/24/338/9 </span><span class="SanskritText">अहिंसादिषु व्रतेषु तत्प्रतिपालनार्थेषु च क्रोधवर्जनादिषु शीलेषु निरवद्या वृत्ति: शीलव्रतेष्वनतीचार:।</span> = | ||
<span class="HindiText">अहिंसादिक व्रत हैं और इनके पालन करने के लिए क्रोधादिक का त्याग करना शील है। इन दोनों के पालन करने में निर्दोष प्रवृत्ति करना शीलव्रतानतिचार है। <span class="GRef"> (राजवार्तिक/6/24/3/529/19), </span> | <span class="HindiText">अहिंसादिक व्रत हैं और इनके पालन करने के लिए क्रोधादिक का त्याग करना शील है। इन दोनों के पालन करने में निर्दोष प्रवृत्ति करना शीलव्रतानतिचार है। <span class="GRef"> (राजवार्तिक/6/24/3/529/19), )</span> <span class="GRef"> (चारित्रसार/53/2) </span>, <span class="GRef"> (भावपाहुड़ टीका/77/221/6) </span></span></p><br/> | ||
<p><span class="GRef"> धवला 8/3,41/82/4 </span><span class="SanskritText">सीलव्वदेसु णिरदिचारदाए चेव तित्थयरणामकम्मं बज्झइ। तं जहा - हिंसालिय-चोज्जब्बंधपरिग्गहेहिंतो विरदी वदं णाम। वदपरिरक्खणं शीलं णाम। सुरावाण-मांसभक्खण-कोह-माण-माया-लोह-हस्स-रइ-सोग-भय-दुगुंछित्थि-पुरिस-णवुंसयवेया-परिच्चागो अदिचारो, एदेसिं विणासो णिरदिचारो संपुण्णदा, तस्स भावो णिरदिचारदा। तीए सीलव्वदेसु णिरदिचारदाए तित्थयरकम्मस्स बंधो होदि।</span> = | <p><span class="GRef"> धवला 8/3,41/82/4 </span><span class="SanskritText">सीलव्वदेसु णिरदिचारदाए चेव तित्थयरणामकम्मं बज्झइ। तं जहा - हिंसालिय-चोज्जब्बंधपरिग्गहेहिंतो विरदी वदं णाम। वदपरिरक्खणं शीलं णाम। सुरावाण-मांसभक्खण-कोह-माण-माया-लोह-हस्स-रइ-सोग-भय-दुगुंछित्थि-पुरिस-णवुंसयवेया-परिच्चागो अदिचारो, एदेसिं विणासो णिरदिचारो संपुण्णदा, तस्स भावो णिरदिचारदा। तीए सीलव्वदेसु णिरदिचारदाए तित्थयरकम्मस्स बंधो होदि।</span> = | ||
<span class="HindiText">शील-व्रतों में निरतिचारता से ही तीर्थंकर नामकर्म बाँधा जाता है। वह इस प्रकार से - हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्म और परिग्रह से विरत होने का नाम व्रत है। व्रतों की रक्षा को शील कहते हैं। सुरापान, मांसभक्षण, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, शोक, भय, जुगुप्सा, | <span class="HindiText">शील-व्रतों में निरतिचारता से ही तीर्थंकर नामकर्म बाँधा जाता है। वह इस प्रकार से - हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्म और परिग्रह से विरत होने का नाम व्रत है। व्रतों की रक्षा को शील कहते हैं। सुरापान, मांसभक्षण, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, शोक, भय, जुगुप्सा, | ||
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<ol class="HindiText"> <li> राम का एक योद्धा । <span class="GRef"> (पद्मपुराण 58. 12) </span></li> | <ol class="HindiText"> <li> राम का एक योद्धा । <span class="GRef"> ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_58#12|पद्मपुराण - 58.12]]) </span></li> | ||
<li> गृहस्थ धर्म । गृहस्थों में चार धर्म बताये गये हैं― दान, पूजा, शील और पर्व के दिनों में उपवास करना । पांडवपुराणकार ने इनमें शील और दान के साथ दो नये नाम बताये हैं― तप और शुभ भावना । इनमें दया, व्रतों की रक्षा, ब्रह्मचर्य का पालन और सद्गुणों का पालन करना शील कहलाता है । इसके पालने में स्वर्ग के सुख प्राप्त होते हैं । <span class="GRef"> (महापुराण 5.22, 41.104, 68. 485-486), </span><span class="GRef"> (पांडवपुराण 1.123-124) </span></li> | <li> गृहस्थ धर्म । गृहस्थों में चार धर्म बताये गये हैं― दान, पूजा, शील और पर्व के दिनों में उपवास करना । पांडवपुराणकार ने इनमें शील और दान के साथ दो नये नाम बताये हैं― तप और शुभ भावना । इनमें दया, व्रतों की रक्षा, ब्रह्मचर्य का पालन और सद्गुणों का पालन करना शील कहलाता है । इसके पालने में स्वर्ग के सुख प्राप्त होते हैं । <span class="GRef"> (महापुराण 5.22, 41.104, 68. 485-486), </span><span class="GRef"> (पांडवपुराण 1.123-124) </span></li> | ||
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Latest revision as of 22:35, 17 November 2023
सिद्धांतकोष से
- शीलव्रत का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/7/24/365/9 व्रतपरिरक्षणार्थं शीलमिति दिग्विरत्यादीनीह शीलग्रहणेन गृह्यंते। = व्रतों की रक्षा करने के लिए शील हैं, इसलिए यहाँ शीलपद के ग्रहण से दिग्विरति आदि लिये जाते हैं। (राजवार्तिक/7/24/1/553/2)
- शीलव्रत के भेद
चारित्रसार/13/6 गुणव्रतत्रयं शिक्षाव्रतचतुष्टयं शीलसप्तकमित्युच्यते। दिग्विरति: देशविरति:, अनर्थदंडविरति: सामायिकं, प्रोषधोपवास: उपभोगपरिभोगपरिमाणं अतिथिसंविभागश्चेति। = तीन गुणव्रत व चार शिक्षाव्रतों को शील सप्तक कहते हैं। उनके नाम निम्न है - दिग्विरति, देशविरति, अनर्थदंड विरति, सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोगपरिभोग परिमाण और अतिथि संविभाग व्रत।
- शीलव्रतेष्वनतिचार भावना का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/6/24/338/9 अहिंसादिषु व्रतेषु तत्प्रतिपालनार्थेषु च क्रोधवर्जनादिषु शीलेषु निरवद्या वृत्ति: शीलव्रतेष्वनतीचार:। = अहिंसादिक व्रत हैं और इनके पालन करने के लिए क्रोधादिक का त्याग करना शील है। इन दोनों के पालन करने में निर्दोष प्रवृत्ति करना शीलव्रतानतिचार है। (राजवार्तिक/6/24/3/529/19), ) (चारित्रसार/53/2) , (भावपाहुड़ टीका/77/221/6)
धवला 8/3,41/82/4 सीलव्वदेसु णिरदिचारदाए चेव तित्थयरणामकम्मं बज्झइ। तं जहा - हिंसालिय-चोज्जब्बंधपरिग्गहेहिंतो विरदी वदं णाम। वदपरिरक्खणं शीलं णाम। सुरावाण-मांसभक्खण-कोह-माण-माया-लोह-हस्स-रइ-सोग-भय-दुगुंछित्थि-पुरिस-णवुंसयवेया-परिच्चागो अदिचारो, एदेसिं विणासो णिरदिचारो संपुण्णदा, तस्स भावो णिरदिचारदा। तीए सीलव्वदेसु णिरदिचारदाए तित्थयरकम्मस्स बंधो होदि। = शील-व्रतों में निरतिचारता से ही तीर्थंकर नामकर्म बाँधा जाता है। वह इस प्रकार से - हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्म और परिग्रह से विरत होने का नाम व्रत है। व्रतों की रक्षा को शील कहते हैं। सुरापान, मांसभक्षण, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद एवं नपुंसक वेद, इनके त्याग न करने का नाम अतिचार और इनके विनाश का नाम निरतिचार या संपूर्णता है, इसके भाव को निरतिचारता कहते हैं। शीलव्रतों में इस निरतिचारता से तीर्थंकर कर्म का बंध होता है।
- इस एक में शेष 15 भावनाओं का समावेश
धवला 8/3,41/82/8 कधमेत्थ सेसपण्णरसण्णं संभवो ? ण, सम्मद्दंसणेण खण-लवपडिबुज्झण-लद्धिसंवेगसंपण्णत्त-साहुसमाहिसंधारण-वेज्जा-वच्चजोगजुत्तत्त-पासुअपरिच्चाग-अरहंत-बहुसुदपवयण-भत्ति-पवयण-पहावणलक्खण सुद्धिजुत्तेण विणा सीलव्वदाणमणदि चारत्तरस अणुववत्तीदो। असंखेज्जगुणाए सेडीए कम्मणिज्जरहदू वदं णाम। ण च सम्मत्तेण विणा हिंसालिय पोज्जव्बंभ अपरिग्गहविरइमेत्तेण सा गुणसेडिणिज्जरा होदि, दोहिंतो चेवुपज्जमाणकज्जस्स तत्थेक्कादो समुप्पत्तिविरोहादो। होदु णाम एदेसि संभवी, ण णाणविणयस्स। ण, छदव्व - णवपदत्थसमूह-तिहुवणविसएण अभिक्खणमभिक्खणमुवजोगविसयमापज्जमाणेण णाणविणएण विणा सीलव्वदणिबंधणसम्मत्तुप्पत्तीए अणुववत्तीदो। ण तत्थ चरणविणयाभावो वि, जहाथाम-तवावासयापरिहीणत्त-पवयणवच्छलत्तलक्खणचरण-विणएण विणा सीलव्वदणिरदिचारत्ताणुववत्तीदो। तम्हा तदियमेदं तित्थयरणामकम्मबंधस्स। कारणं। प्रश्न - इसमें शेष 15 भावनाओं की संभावना कैसे हो सकती है ?
उत्तर - यह ठीक नहीं है, क्योंकि क्षण-लव-प्रतिबुद्धता, लब्धि-संवेगसंपन्नता, साधु समाधि धारण, वैयाव्रत्ययोगयुक्तता, प्रासुक परित्याग, अरहंत भक्ति, बहुश्रुत भक्ति, प्रवचन भक्ति और प्रवचन प्रभावना लक्षण शुद्धि से युक्त सम्यग्दर्शन के बिना शील व्रतों की निरतिचारता बन नहीं सकती, दूसरी बात यह है कि जो असंख्यात गुणित श्रेणी से कर्म निर्जरा का कारण है वही व्रत है। और सम्यग्दर्शन के बिना हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्म, और परिग्रह से विरक्त होने मात्र से वह गुणश्रेणि निर्जरा हो नहीं सकती, क्योंकि दोनों से ही उत्पन्न होने वाले कार्य की उनमें से एक के द्वारा उत्पत्ति का विरोध है।
प्रश्न - इनकी संभावना यहाँ भले ही हो, पर ज्ञान विनय की संभावना नहीं हो सकती।
उत्तर - ऐसा नहीं है, क्योंकि छह द्रव्य, नौ पदार्थों के समूह और त्रिभुवन को विषय करने वाले एवं बार-बार उपयोग विषय को प्राप्त होने वाले ज्ञान विनय के बिना शीलव्रतों के कारण भूत सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति नहीं बन सकती। शीलव्रत विषयक निरतिचारता में चारित्र विनय का भी अभाव नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि यथाशक्तितप, आवश्यकापरिहीनता और प्रवचनवत्सलता लक्षण चारित्र विनय के बिना शील व्रत विषयक निरतिचारता की उपपति ही नहीं बनती। इस कारण यह तीर्थंकर नामकर्म के बंध का तीसरा कारण है। - किसी एक ही भावना से तीर्थंकरत्व संभव - देखें भावना - 2।
- ब्रह्मचर्य विषयक शील - देखें ब्रह्मचर्य - 1।
पुराणकोष से
- राम का एक योद्धा । (पद्मपुराण - 58.12)
- गृहस्थ धर्म । गृहस्थों में चार धर्म बताये गये हैं― दान, पूजा, शील और पर्व के दिनों में उपवास करना । पांडवपुराणकार ने इनमें शील और दान के साथ दो नये नाम बताये हैं― तप और शुभ भावना । इनमें दया, व्रतों की रक्षा, ब्रह्मचर्य का पालन और सद्गुणों का पालन करना शील कहलाता है । इसके पालने में स्वर्ग के सुख प्राप्त होते हैं । (महापुराण 5.22, 41.104, 68. 485-486), (पांडवपुराण 1.123-124)