धर्मचक्र: Difference between revisions
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<span class="GRef">( महापुराण/22/292-293 )</span> <span class="SanskritGatha">तां पीठिकामलंचक्रु: अष्टमंगलसंपद:। धर्मचक्राणि चोढानि प्रांशुभिर्यक्षमूर्धभि:।292। सहस्राणि तान्युद्यद्रत्नरश्मीनि रेजिरे। भानुबिंबानिवोद्यंति पीठिकोदयपर्वतात् ।293।</span> =<span class="HindiText">उस (समवशरण स्थित) पीठिका को अष्टमंगलरूपी संपदाएँ और यक्षों के ऊँचे-ऊँचे मस्तकों पर रखे हुए धर्मचक्र अलंकृत कर रहे थे।292। जिनमें लगे हुए रत्नों की किरणें ऊपर की ओर उठ रही हैं ऐसे, हज़ार-हज़ार आरोंवाले वे धर्मचक्र ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो पीठिकारूपी उदयाचल से उदय होते हुए सूर्य के बिंब ही हों।293। </span> | |||
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== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
<div class="HindiText"> <p> तीर्थंकर जिनेंद्र के समवसरण में विद्यमान देवोंपनीत चक्र । यह देवकृत चौदह अतिशयों में एक अतिशय होता है । सूर्य के समान कांतिधारी और अपनी दीप्ति से हजार आरों से युक्त चक्रवर्ती के चक्ररत्न को भी तिरस्कृत करने वाला यह चक्र जिनेंद्र चाहे विहार करते हो, चाहे खड़े हो प्रत्येक दशा में उनके आगे रहता है । समवसरण में ऐसे चक्र चारों दिशाओं में रहते हैं । इनमें हजार आरे होते हैं तथा ये देवों से रक्षित रहते हैं । <span class="GRef"> महापुराण 1.1, 22. 292-293, 24. 19, 25.256, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 2.145, 3. 29-30, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 19. 76 </span></p> | <div class="HindiText"> <p class="HindiText"> तीर्थंकर जिनेंद्र के समवसरण में विद्यमान देवोंपनीत चक्र । यह देवकृत चौदह अतिशयों में एक अतिशय होता है । सूर्य के समान कांतिधारी और अपनी दीप्ति से हजार आरों से युक्त चक्रवर्ती के चक्ररत्न को भी तिरस्कृत करने वाला यह चक्र जिनेंद्र चाहे विहार करते हो, चाहे खड़े हो प्रत्येक दशा में उनके आगे रहता है । समवसरण में ऐसे चक्र चारों दिशाओं में रहते हैं । इनमें हजार आरे होते हैं तथा ये देवों से रक्षित रहते हैं । <span class="GRef"> महापुराण 1.1, 22. 292-293, 24. 19, 25.256, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_2#145|हरिवंशपुराण - 2.145]], 3. 29-30, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 19. 76 </span></p> | ||
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Latest revision as of 15:11, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
( महापुराण/22/292-293 ) तां पीठिकामलंचक्रु: अष्टमंगलसंपद:। धर्मचक्राणि चोढानि प्रांशुभिर्यक्षमूर्धभि:।292। सहस्राणि तान्युद्यद्रत्नरश्मीनि रेजिरे। भानुबिंबानिवोद्यंति पीठिकोदयपर्वतात् ।293। =उस (समवशरण स्थित) पीठिका को अष्टमंगलरूपी संपदाएँ और यक्षों के ऊँचे-ऊँचे मस्तकों पर रखे हुए धर्मचक्र अलंकृत कर रहे थे।292। जिनमें लगे हुए रत्नों की किरणें ऊपर की ओर उठ रही हैं ऐसे, हज़ार-हज़ार आरोंवाले वे धर्मचक्र ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो पीठिकारूपी उदयाचल से उदय होते हुए सूर्य के बिंब ही हों।293।
पुराणकोष से
तीर्थंकर जिनेंद्र के समवसरण में विद्यमान देवोंपनीत चक्र । यह देवकृत चौदह अतिशयों में एक अतिशय होता है । सूर्य के समान कांतिधारी और अपनी दीप्ति से हजार आरों से युक्त चक्रवर्ती के चक्ररत्न को भी तिरस्कृत करने वाला यह चक्र जिनेंद्र चाहे विहार करते हो, चाहे खड़े हो प्रत्येक दशा में उनके आगे रहता है । समवसरण में ऐसे चक्र चारों दिशाओं में रहते हैं । इनमें हजार आरे होते हैं तथा ये देवों से रक्षित रहते हैं । महापुराण 1.1, 22. 292-293, 24. 19, 25.256, हरिवंशपुराण - 2.145, 3. 29-30, वीरवर्द्धमान चरित्र 19. 76