केवलज्ञान की सर्वग्राहकता: Difference between revisions
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3" id="3"> केवलज्ञान की सर्व ग्राहकता</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1"> केवलज्ञान सब कुछ जानता है</strong></span><br /> | ||
<strong><span class="GRef"> प्रवचनसार/47 </span></strong> <span class="PrakritText">सव्वं अत्थं विचित्त विसमं तं णाणं खाइयं भणियं।”</span>=<span class="HindiText">विचित्र और विषम समस्त पदार्थों को जानता है उस ज्ञान को क्षायिक कहा है।</span><br /> | <strong><span class="GRef"> प्रवचनसार/47 </span></strong> <span class="PrakritText">सव्वं अत्थं विचित्त विसमं तं णाणं खाइयं भणियं।”</span>=<span class="HindiText">विचित्र और विषम समस्त पदार्थों को जानता है उस ज्ञान को क्षायिक कहा है।</span><br /> | ||
<strong><span class="GRef"> नियमसार/167 </span></strong> <span class="PrakritGatha">मुक्तममुक्तं दव्वं चेयणमियरं सगं च सव्वं च। पेच्छंतस्स दु णाणं पच्छक्खमणिंदियं होइ।167।</span>=<span class="HindiText">मूर्त-अमूर्त, चेतन-अचेतन, द्रव्यों को, स्व को तथा समस्त को देखने वाले का ज्ञान अतींद्रिय है, प्रत्यक्ष है। | <strong><span class="GRef"> नियमसार/167 </span></strong> <span class="PrakritGatha">मुक्तममुक्तं दव्वं चेयणमियरं सगं च सव्वं च। पेच्छंतस्स दु णाणं पच्छक्खमणिंदियं होइ।167।</span>=<span class="HindiText">मूर्त-अमूर्त, चेतन-अचेतन, द्रव्यों को, स्व को तथा समस्त को देखने वाले का ज्ञान अतींद्रिय है, प्रत्यक्ष है। <span class="GRef">( प्रवचनसार/54 )</span>; <span class="GRef">( आप्तपरीक्षा/39/126/101/9 )</span>; </span><br /> | ||
<strong><span class="GRef"> स्वयंभू स्तोत्र/ </span> | <strong><span class="GRef"> स्वयंभू स्तोत्र/ मूल/106</span></strong> <span class="SanskritText">‘‘यस्य महर्षे: सकलपदार्थ−प्रत्यवबोध: समजनि साक्षात् । सामरमर्त्यं जगदपि सर्वं प्रांजलि भूत्वा प्रणिपतति स्म।’’</span> =<span class="HindiText">जिन महर्षि के सकल पदार्थों का प्रत्यवबोध साक्षात् रूप से उत्पन्न हुआ है, उन्हें देव मनुष्य सब हाथ जोड़कर नमस्कार करते हैं। <span class="GRef">(पंचास्तिकाय संग्रह/1/126)</span>; <span class="GRef">( धवला 10/4,2,4,107/319/5 )</span>।</span><br /> | ||
<strong><span class="GRef"> कषायपाहुड़ 1/1,1/46/64/4 </span></strong><span class="PrakritText"> तम्हा णिरावरणो केवली भूदं भव्वं भवंतं सुहुमं ववहियं विप्पइट्ठं च सव्वं जाणदि त्ति सिद्धं।</span>=<span class="HindiText">इसलिए निरावरण केवली …सूक्ष्म व्यवहित और विप्रकृष्ट सभी पदार्थों को जानते हैं।</span><br /> | <strong><span class="GRef"> कषायपाहुड़ 1/1,1/46/64/4 </span></strong><span class="PrakritText"> तम्हा णिरावरणो केवली भूदं भव्वं भवंतं सुहुमं ववहियं विप्पइट्ठं च सव्वं जाणदि त्ति सिद्धं।</span>=<span class="HindiText">इसलिए निरावरण केवली …सूक्ष्म व्यवहित और विप्रकृष्ट सभी पदार्थों को जानते हैं।</span><br /> | ||
<strong><span class="GRef"> धवला 1/1,1,1/45/3 </span></strong><span class="SanskritText"> स्वस्थिताशेषप्रमेयत्वत: प्राप्तविश्वरूपा:।</span>=<span class="HindiText">अपने में ही संपूर्ण प्रमेय रहने के कारण जिसने विश्वरूपता को प्राप्त कर लिया है।</span><br /> | <strong><span class="GRef"> धवला 1/1,1,1/45/3 </span></strong><span class="SanskritText"> स्वस्थिताशेषप्रमेयत्वत: प्राप्तविश्वरूपा:।</span>=<span class="HindiText">अपने में ही संपूर्ण प्रमेय रहने के कारण जिसने विश्वरूपता को प्राप्त कर लिया है।</span><br /> | ||
<strong><span class="GRef"> धवला 7/2,1,46/89/10 </span></strong> <span class="PrakritText">तदणवगत्थाभावादो।</span>=<span class="HindiText">क्योंकि केवलज्ञान से न जाना गया हो ऐसा कोई पदार्थ ही नहीं है।</span><br /> | <strong><span class="GRef"> धवला 7/2,1,46/89/10 </span></strong> <span class="PrakritText">तदणवगत्थाभावादो।</span>=<span class="HindiText">क्योंकि केवलज्ञान से न जाना गया हो ऐसा कोई पदार्थ ही नहीं है।</span><br /> | ||
<strong>पंचास्तिकाय का/मूल 43 | <strong><span class="GRef">पंचास्तिकाय का/मूल 43 की प्रक्षेपक गाथा नं.5 तथा उसकी तात्पर्य वृत्ति टीका/87/9</strong></span> <span class="PrakritGatha">णाणं णेयणिमित्तं केवलणाणं ण होदि सुदणाणं। णेयं केवलणाणं णाणाणाणं च णत्थि केवलिणो।5।</span>–<span class="SanskritText">न केवले श्रुतज्ञानं नास्ति केवलिनां ज्ञानाज्ञानं च नास्ति क्वापि विषये ज्ञानं क्वापि विषये पुनरज्ञानमेव न किंतु सर्वत्र ज्ञानमेव।</span>=<span class="HindiText">ज्ञेय के निमित्त से उत्पन्न नहीं होता इसलिए केवलज्ञान को श्रुतज्ञान नहीं कह सकते। और न ही ज्ञानाज्ञान कह सकते हैं। किसी विषय में तो ज्ञान हो और किसी विषय में अज्ञान हो ऐसा नहीं, किंतु सर्वत्र ज्ञान ही है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2"> केवलज्ञान समस्त लोकालोक को जानता है</strong></span><br /> | ||
<strong><span class="GRef"> भगवती आराधना/2141 </span></strong> <span class="PrakritText">पस्सदि जाणदि य तहा तिण्णि वि काले सपज्जए सव्वे। तह वा लोगमसेसं पस्सदि भयवं विगदमोहो।</span>=<span class="HindiText">वे (सिद्ध परमेष्ठी) संपूर्ण द्रव्यों व उनकी पर्यायों से भरे हुए संपूर्ण जगत् को तीनों कालों में जानते हैं। तो भी वे मोहरहित ही रहते हैं।</span><br /> | <strong><span class="GRef"> भगवती आराधना/2141 </span></strong> <span class="PrakritText">पस्सदि जाणदि य तहा तिण्णि वि काले सपज्जए सव्वे। तह वा लोगमसेसं पस्सदि भयवं विगदमोहो।</span>=<span class="HindiText">वे (सिद्ध परमेष्ठी) संपूर्ण द्रव्यों व उनकी पर्यायों से भरे हुए संपूर्ण जगत् को तीनों कालों में जानते हैं। तो भी वे मोहरहित ही रहते हैं।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार/23 </span><span class="PrakritGatha"> आदा णाणपमाणं णाणं णेयप्पमाणमुद्दिट्ठं। णेयं लोयालोयं तम्हा णाणं तु सव्वगयं।23।</span>=<span class="HindiText">आत्मा ज्ञान प्रमाण है, ज्ञान ज्ञेय प्रमाण है, ज्ञेय लोकालोक है, इसलिए ज्ञान सर्वगत है। | <span class="GRef"> प्रवचनसार/23 </span><span class="PrakritGatha"> आदा णाणपमाणं णाणं णेयप्पमाणमुद्दिट्ठं। णेयं लोयालोयं तम्हा णाणं तु सव्वगयं।23।</span>=<span class="HindiText">आत्मा ज्ञान प्रमाण है, ज्ञान ज्ञेय प्रमाण है, ज्ञेय लोकालोक है, इसलिए ज्ञान सर्वगत है। <span class="GRef">( धवला 1/1,1,136/198/386 )</span>; <span class="GRef">( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/161/ कलश 277)</span>।</span><br /> | ||
<strong><span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/1/126 </span></strong> <span class="PrakritGatha">संपुण्णं तु समग्गं केवलमसपत्त सव्वभावगयं। लोयालोय वितिमिरं केवलणाणं मुणेयव्वा।126।</span>=<span class="HindiText">जो संपूर्ण है, समग्र है, असहाय है, सर्वभावगत है, लोक और अलोकों में अज्ञान रूप तिमिर से रहित है, अर्थात् सर्व व्यापक व सर्वज्ञायक है, उसे केवलज्ञान जानो। | <strong><span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/1/126 </span></strong> <span class="PrakritGatha">संपुण्णं तु समग्गं केवलमसपत्त सव्वभावगयं। लोयालोय वितिमिरं केवलणाणं मुणेयव्वा।126।</span>=<span class="HindiText">जो संपूर्ण है, समग्र है, असहाय है, सर्वभावगत है, लोक और अलोकों में अज्ञान रूप तिमिर से रहित है, अर्थात् सर्व व्यापक व सर्वज्ञायक है, उसे केवलज्ञान जानो। <span class="GRef">( धवला 1/1,1,115/186/360 )</span>; <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड/460/872 )</span>।</span><br /> | ||
<strong><span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह/51 </span></strong><span class="PrakritText"> णट्ठट्ठकम्मदेहो लोयालोयस्स जाणओ दट्ठा।</span>=<span class="HindiText">नष्ट हो गयी है अष्टकर्मरूपी देह जिसके तथा जो लोकालोक को जानने देखने वाला है। (वह सिद्ध है) | <strong><span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह/51 </span></strong><span class="PrakritText"> णट्ठट्ठकम्मदेहो लोयालोयस्स जाणओ दट्ठा।</span>=<span class="HindiText">नष्ट हो गयी है अष्टकर्मरूपी देह जिसके तथा जो लोकालोक को जानने देखने वाला है। (वह सिद्ध है) <span class="GRef">( द्रव्यसंग्रह टीका/14/42/7 )</span></span><br /> | ||
<strong><span class="GRef"> परमात्मप्रकाश टीका/99/94/8 </span></strong><span class="SanskritText"> केवलज्ञाने जाते सति …सर्वं लोकालोकस्वरूपं विज्ञायते।</span>=<span class="HindiText">केवलज्ञान हो जाने पर सर्व लोकालोक का स्वरूप जानने में आ जाता है। <br /> | <strong><span class="GRef"> परमात्मप्रकाश टीका/99/94/8 </span></strong><span class="SanskritText"> केवलज्ञाने जाते सति …सर्वं लोकालोकस्वरूपं विज्ञायते।</span>=<span class="HindiText">केवलज्ञान हो जाने पर सर्व लोकालोक का स्वरूप जानने में आ जाता है। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3"> केवलज्ञान संपूर्ण द्रव्य क्षेत्र काल भाव को जानता है</strong> </span><br /> | ||
<strong><span class="GRef"> षट्खंडागम 13/5,5/ </span> | <strong><span class="GRef"> षट्खंडागम 13/5,5/ सूत्र 82/346</span></strong><span class="PrakritText"> सइं भयवं उप्पण्णणाणदरिसी सदेवासुरमाणुसस्स लोगस्स अगदिं गदिं चयणोववाद बंधं मोक्खं इड्ढिंट्ठिदिं जुदिं अणुभागं तक्कं कलं माणो माणसियं भुत्तं कदं पडिसेविदं आदिकम्मं अरहकम्मं सव्वलोए सव्वजीवे सव्वभावे सम्मं समं जाणदि पस्सदि विहरदि त्ति।82।</span>=<span class="HindiText">स्वयं उत्पन्न हुए ज्ञान और दर्शन से युक्त भगवान् देवलोक और असुर लोक के साथ मनुष्य लोक की अगति, गति, चयन, उपपाद, बंध, मोक्ष, ऋद्धि, स्थिति, युति, अनुभाग, तर्क, कल, मन, मानसिक, भुक्त, कृत, प्रतिसेवित, आदिकर्म, अरह:कर्म, सब लोकों, सब जीवों और सब भावों को सम्यक् प्रकार से युगपत् जानते हैं, देखते हैं और विहार करते हैं।</span><br /> | ||
<strong><span class="GRef"> धवला 13/5,5,82/350/12 </span></strong> <span class="PrakritText">संसारिणो दुविहा तसा थावरा चेदि।...तत्थ वणप्फदिकाइया अणंतवियप्पा; सेसा असंखेज्जवियप्पा। एदे सव्वजीवे सव्वलोगट्ठिदे जाणदि त्ति भणिदं होदि।</span>=<span class="HindiText">जीव दो प्रकार के हैं—त्रस और स्थावर।...इनमें से वनस्पतिकायिक अनंत प्रकार के हैं और शेष असंख्यात प्रकार के हैं (अर्थात् जीव समासों की अपेक्षा जीव अनेक भेद रूप हैं)। केवली भगवान् समस्त लोक में स्थित, इन सब जीवों को जानते हैं। यह उक्त कथन का तात्पर्य है।</span><br /> | <strong><span class="GRef"> धवला 13/5,5,82/350/12 </span></strong> <span class="PrakritText">संसारिणो दुविहा तसा थावरा चेदि।...तत्थ वणप्फदिकाइया अणंतवियप्पा; सेसा असंखेज्जवियप्पा। एदे सव्वजीवे सव्वलोगट्ठिदे जाणदि त्ति भणिदं होदि।</span>=<span class="HindiText">जीव दो प्रकार के हैं—त्रस और स्थावर।...इनमें से वनस्पतिकायिक अनंत प्रकार के हैं और शेष असंख्यात प्रकार के हैं (अर्थात् जीव समासों की अपेक्षा जीव अनेक भेद रूप हैं)। केवली भगवान् समस्त लोक में स्थित, इन सब जीवों को जानते हैं। यह उक्त कथन का तात्पर्य है।</span><br /> | ||
<strong><span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/54 </span></strong> <span class="SanskritText">अतींद्रियं हि ज्ञानं यदमूर्तं यंमूर्तेष्वप्यतींद्रियं यत्प्रच्छन्नं च तत्सकलं स्वपरविकल्पांत:पाति प्रेक्षत एव। तस्य खल्वमूर्तेषु धर्माधर्मादिषु, मूर्तेष्वप्यतींद्रियेषु परमाण्वादिषु द्रव्यप्रच्छन्नेषु कालादिषु क्षेत्रप्रच्छन्नेष्वलोकाकाशप्रदेशादिषु, कालप्रच्छन्नेस्वसांप्रतिकपर्यायेषु, भावप्रच्छन्नेषु स्थूलपर्यायांतर्लीनसूक्ष्मपर्यायेषु सर्वेष्वपि स्वपरव्यवस्थाव्यवस्थितेष्वस्ति द्रष्टव्यं प्रत्यक्षत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">जो अमूर्त है, जो मूर्त पदार्थों में भी अतींद्रिय है, और जो प्रच्छन्न (ढँका हुआ) है, उस सबको, जो कि स्व व पर इन दो भेदों में समा जाता है उसे अतींद्रिय ज्ञान अवश्य देखता है। अमूर्त द्रव्य धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय आदि, मूर्त पदार्थों में भी अतींद्रिय परमाणु इत्यादि, तथा द्रव्य में प्रच्छन्न काल इत्यादि, क्षेत्र में प्रच्छन्न अलोकाकाश के प्रदेश इत्यादि, काल में प्रच्छन्न असांप्रतिक (अतीत अनागत) पर्यायें, तथा भाव प्रच्छन्न स्थूल पर्यायों में अंतर्लीन सूक्ष्म पर्यायें हैं उन सबको जो कि स्व और पर के भेद से विभक्त हैं उन सबका वास्तव में उस अतींद्रिय ज्ञान के दृष्टपना है।</span><br /> | <strong><span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/54 </span></strong> <span class="SanskritText">अतींद्रियं हि ज्ञानं यदमूर्तं यंमूर्तेष्वप्यतींद्रियं यत्प्रच्छन्नं च तत्सकलं स्वपरविकल्पांत:पाति प्रेक्षत एव। तस्य खल्वमूर्तेषु धर्माधर्मादिषु, मूर्तेष्वप्यतींद्रियेषु परमाण्वादिषु द्रव्यप्रच्छन्नेषु कालादिषु क्षेत्रप्रच्छन्नेष्वलोकाकाशप्रदेशादिषु, कालप्रच्छन्नेस्वसांप्रतिकपर्यायेषु, भावप्रच्छन्नेषु स्थूलपर्यायांतर्लीनसूक्ष्मपर्यायेषु सर्वेष्वपि स्वपरव्यवस्थाव्यवस्थितेष्वस्ति द्रष्टव्यं प्रत्यक्षत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">जो अमूर्त है, जो मूर्त पदार्थों में भी अतींद्रिय है, और जो प्रच्छन्न (ढँका हुआ) है, उस सबको, जो कि स्व व पर इन दो भेदों में समा जाता है उसे अतींद्रिय ज्ञान अवश्य देखता है। अमूर्त द्रव्य धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय आदि, मूर्त पदार्थों में भी अतींद्रिय परमाणु इत्यादि, तथा द्रव्य में प्रच्छन्न काल इत्यादि, क्षेत्र में प्रच्छन्न अलोकाकाश के प्रदेश इत्यादि, काल में प्रच्छन्न असांप्रतिक (अतीत अनागत) पर्यायें, तथा भाव प्रच्छन्न स्थूल पर्यायों में अंतर्लीन सूक्ष्म पर्यायें हैं उन सबको जो कि स्व और पर के भेद से विभक्त हैं उन सबका वास्तव में उस अतींद्रिय ज्ञान के दृष्टपना है।</span><br /> | ||
<strong><span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/21 </span></strong> <span class="SanskritText">ततोऽस्याक्रमसमाक्रांतसमस्तद्रव्यक्षेत्रकालभावतया समक्षसंवेदनालंबनभूता: सर्वद्रव्यपर्याया: प्रत्यक्षा एव भवंति।</span>=<span class="HindiText">इसलिए उनके समस्त द्रव्य क्षेत्र काल और भाव का अक्रमिक ग्रहण होने से समक्ष-संवेदन (प्रत्यक्ष ज्ञान) की आलंबनभूत समस्त द्रव्य व पर्यायें प्रत्यक्ष ही हैं। | <strong><span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/21 </span></strong> <span class="SanskritText">ततोऽस्याक्रमसमाक्रांतसमस्तद्रव्यक्षेत्रकालभावतया समक्षसंवेदनालंबनभूता: सर्वद्रव्यपर्याया: प्रत्यक्षा एव भवंति।</span>=<span class="HindiText">इसलिए उनके समस्त द्रव्य क्षेत्र काल और भाव का अक्रमिक ग्रहण होने से समक्ष-संवेदन (प्रत्यक्ष ज्ञान) की आलंबनभूत समस्त द्रव्य व पर्यायें प्रत्यक्ष ही हैं। <span class="GRef">( द्रव्यसंग्रह टीका/5/17/6 )</span></span><br /> | ||
<strong><span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/47 </span></strong><span class="SanskritText"> अलमथातिविस्तरेण अनिवारितप्रसरप्रकाशशालितया क्षायिकज्ञानमवश्यमेव सर्वदा सर्वत्र सर्वथा सर्वमेव जानीयात् ।</span>=<span class="HindiText">अथवा अति विस्तार से बस हो—जिसका अनिवार फैलाव है, ऐसा प्रकाशमान होने से क्षायिक ज्ञान अवश्यमेव, सर्वदा, सर्वत्र, सर्वथा, सर्व को जानता है।<br /> | <strong><span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/47 </span></strong><span class="SanskritText"> अलमथातिविस्तरेण अनिवारितप्रसरप्रकाशशालितया क्षायिकज्ञानमवश्यमेव सर्वदा सर्वत्र सर्वथा सर्वमेव जानीयात् ।</span>=<span class="HindiText">अथवा अति विस्तार से बस हो—जिसका अनिवार फैलाव है, ऐसा प्रकाशमान होने से क्षायिक ज्ञान अवश्यमेव, सर्वदा, सर्वत्र, सर्वथा, सर्व को जानता है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4"> केवलज्ञान सर्व द्रव्य व पर्यायों को जानता है</strong></span><br /> | ||
<strong><span class="GRef"> प्रवचनसार/49 </span></strong><span class="PrakritText"> दव्वं अणंतपज्जयमेगमणंताणि दव्वजादाणि। ण बिजाणादि जदि जुगवं किधं सो सव्वाणि जाणादि।</span>=<span class="HindiText">यदि अनंत पर्यायवाले एक द्रव्य को तथा अनंत द्रव्य समूह को नहीं जानता तो वह सब अनंत द्रव्य समूह को कैसे जान सकता है।</span><br /> | <strong><span class="GRef"> प्रवचनसार/49 </span></strong><span class="PrakritText"> दव्वं अणंतपज्जयमेगमणंताणि दव्वजादाणि। ण बिजाणादि जदि जुगवं किधं सो सव्वाणि जाणादि।</span>=<span class="HindiText">यदि अनंत पर्यायवाले एक द्रव्य को तथा अनंत द्रव्य समूह को नहीं जानता तो वह सब अनंत द्रव्य समूह को कैसे जान सकता है।</span><br /> | ||
<strong><span class="GRef"> भगवती आराधना/2140-41 </span></strong> <span class="PrakritText">सव्वेहिं पज्जएहिं य संपुण्णं सव्वदव्वेहिं।2140...तह वा लोगमसेसं पस्सदि भयवं विगदमोहो।2141। </span><span class="HindiText">संपूर्ण द्रव्यों और उनकी संपूर्ण पर्यायों से भरे हुए संपूर्ण जगत् को सिद्ध भगवान् देखते हैं, तो भी वे मोहरहित ही रहते हैं।</span><br /> | <strong><span class="GRef"> भगवती आराधना/2140-41 </span></strong> <span class="PrakritText">सव्वेहिं पज्जएहिं य संपुण्णं सव्वदव्वेहिं।2140...तह वा लोगमसेसं पस्सदि भयवं विगदमोहो।2141। </span><span class="HindiText">संपूर्ण द्रव्यों और उनकी संपूर्ण पर्यायों से भरे हुए संपूर्ण जगत् को सिद्ध भगवान् देखते हैं, तो भी वे मोहरहित ही रहते हैं।</span><br /> | ||
<strong><span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/1/29 </span></strong><span class="SanskritText"> सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य।</span><br /> | <strong><span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/1/29 </span></strong><span class="SanskritText"> सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य।</span><br /> | ||
<strong><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/1/29/135/8 </span></strong> <span class="SanskritText">सर्वेषु द्रव्येषु सर्वेषु पर्यायेष्विति। जीवद्रव्याणि तावदनंतानंतानि, पुद्गलद्रव्याणि च ततोऽप्यनंतानंतानि अणुस्कंधभेदभिंनानि, धर्माधर्माकाशानि त्रीणि, कालश्चासंख्येयस्तेषां पर्यायाश्च त्रिकालभुव: प्रत्येकमनंतानंतास्तेषु। द्रव्यं पर्यायजातं न किंचित्केवलज्ञानस्य विषयभावमतिक्रांतमस्ति। अपरिमितमाहात्म्यं हि तदिति ज्ञापनार्थं सर्वद्रव्यपर्यायेषु इत्युच्यते।</span>=<span class="HindiText">केवलज्ञान की प्रवृत्ति सर्व द्रव्यों में और उनकी सर्व पर्यायों में होती है। जीव द्रव्य अनंतानंत है, पुद्गलद्रव्य इनसे भी अनंतानंत गुणे हैं जिनके अणु और स्कंध ये भेद हैं। धर्म अधर्म और आकाश ये तीन हैं, और काल असंख्यात हैं। इन सब द्रव्यों की पृथक् पृथक् तीनों कालों में होने वाली अनंतानंत पर्यायें हैं। इन सबमें केवलज्ञान की प्रवृत्ति होती है। ऐसा न कोई द्रव्य है और न पर्याय समूह है जो केवलज्ञान के विषय के परे हो। केवलज्ञान का माहात्म्य अपरिमित है इसी बात का ज्ञान कराने के लिए सूत्र में ‘सर्वद्रव्यपर्यायेषु’ कहा है। | <strong><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/1/29/135/8 </span></strong> <span class="SanskritText">सर्वेषु द्रव्येषु सर्वेषु पर्यायेष्विति। जीवद्रव्याणि तावदनंतानंतानि, पुद्गलद्रव्याणि च ततोऽप्यनंतानंतानि अणुस्कंधभेदभिंनानि, धर्माधर्माकाशानि त्रीणि, कालश्चासंख्येयस्तेषां पर्यायाश्च त्रिकालभुव: प्रत्येकमनंतानंतास्तेषु। द्रव्यं पर्यायजातं न किंचित्केवलज्ञानस्य विषयभावमतिक्रांतमस्ति। अपरिमितमाहात्म्यं हि तदिति ज्ञापनार्थं सर्वद्रव्यपर्यायेषु इत्युच्यते।</span>=<span class="HindiText">केवलज्ञान की प्रवृत्ति सर्व द्रव्यों में और उनकी सर्व पर्यायों में होती है। जीव द्रव्य अनंतानंत है, पुद्गलद्रव्य इनसे भी अनंतानंत गुणे हैं जिनके अणु और स्कंध ये भेद हैं। धर्म अधर्म और आकाश ये तीन हैं, और काल असंख्यात हैं। इन सब द्रव्यों की पृथक् पृथक् तीनों कालों में होने वाली अनंतानंत पर्यायें हैं। इन सबमें केवलज्ञान की प्रवृत्ति होती है। ऐसा न कोई द्रव्य है और न पर्याय समूह है जो केवलज्ञान के विषय के परे हो। केवलज्ञान का माहात्म्य अपरिमित है इसी बात का ज्ञान कराने के लिए सूत्र में ‘सर्वद्रव्यपर्यायेषु’ कहा है। <span class="GRef">( राजवार्तिक/1/29/9/90/4 )</span><br /> | ||
<strong>अष्टशती/का 106/निर्णयसागर बंबई</strong></span>—<span class="SanskritText">साक्षात्कृतेरेव सर्वद्रव्यपर्यायान् परिच्छिनत्ति (केवलाख्येन प्रत्यक्षेण केवली) नान्यत: (नागमात्) इति।</span>=<span class="HindiText">केवली भगवान् केवलज्ञान नाम वाले प्रत्यक्षज्ञान के द्वारा सर्व द्रव्यों व सर्व पर्यायों को जानते हैं, आगमादि अन्य ज्ञानों से नहीं।</span><br /> | <strong><span class="GRef">अष्टशती/का 106/निर्णयसागर बंबई</strong></span>—<span class="SanskritText">साक्षात्कृतेरेव सर्वद्रव्यपर्यायान् परिच्छिनत्ति (केवलाख्येन प्रत्यक्षेण केवली) नान्यत: (नागमात्) इति।</span>=<span class="HindiText">केवली भगवान् केवलज्ञान नाम वाले प्रत्यक्षज्ञान के द्वारा सर्व द्रव्यों व सर्व पर्यायों को जानते हैं, आगमादि अन्य ज्ञानों से नहीं।</span><br /> | ||
<strong><span class="GRef"> धवला/1/1 | <strong><span class="GRef"> धवला/1/1 .1.1/27/48/4</span></strong> <span class="PrakritText">सव्वावयवेहि दिट्ठसव्वट्ठा।</span>=<span class="HindiText">जिन्होंने संपूर्ण पर्यायों सहित पदार्थों को जान लिया है।</span><br /> | ||
<strong><span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/21 </span></strong><span class="SanskritText"> सर्वद्रव्यपर्याया: प्रत्यक्षा एव भवंति।</span>=<span class="HindiText">(उस ज्ञान के) समस्त द्रव्य पर्यायें प्रत्यक्ष ही हैं।</span><br /> | <strong><span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/21 </span></strong><span class="SanskritText"> सर्वद्रव्यपर्याया: प्रत्यक्षा एव भवंति।</span>=<span class="HindiText">(उस ज्ञान के) समस्त द्रव्य पर्यायें प्रत्यक्ष ही हैं।</span><br /> | ||
<strong><span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/43 </span></strong><span class="SanskritText"> त्रिकालत्रिलोकवर्तिस्थावरजंगमात्मकनिखिलद्रव्यगुणपर्यायैकसमयपरिच्छित्तिसमर्थसकलविमलकेवलज्ञानावस्थत्वान्निर्मूढश्च।</span> =<span class="HindiText">तीन काल और तीन लोक के स्थावर जंगम स्वरूप समस्त द्रव्य-गुण-पर्यायों को एक समय में जानने में समर्थ सकल विमल केवलज्ञान रूप से अवस्थित होने से आत्मा निर्मूढ है। <br /> | <strong><span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/43 </span></strong><span class="SanskritText"> त्रिकालत्रिलोकवर्तिस्थावरजंगमात्मकनिखिलद्रव्यगुणपर्यायैकसमयपरिच्छित्तिसमर्थसकलविमलकेवलज्ञानावस्थत्वान्निर्मूढश्च।</span> =<span class="HindiText">तीन काल और तीन लोक के स्थावर जंगम स्वरूप समस्त द्रव्य-गुण-पर्यायों को एक समय में जानने में समर्थ सकल विमल केवलज्ञान रूप से अवस्थित होने से आत्मा निर्मूढ है। <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="3.5" id="3.5">केवलज्ञान त्रिकाली पर्यायों को जानता है</strong></span><br /> | ||
<strong><span class="GRef"> धवला 1/1,1,136/199/386 </span></strong> <span class="PrakritText">एय-दवियम्मि जे अत्थ-पज्जया वयणपज्जया वादि। तीदाणागदभूदा तावदियं तं हवइ दव्वं।</span>=<span class="HindiText">एक द्रव्य में अतीत अनागत और गाथा में आये हुए अपि शब्द से वर्तमान पर्याय रूप जितनी अर्थ पर्याय और व्यंजन पर्याय हैं तत्प्रमाण वह द्रव्य होता है (जो केवलज्ञान का विषय है)। | <strong><span class="GRef"> धवला 1/1,1,136/199/386 </span></strong> <span class="PrakritText">एय-दवियम्मि जे अत्थ-पज्जया वयणपज्जया वादि। तीदाणागदभूदा तावदियं तं हवइ दव्वं।</span>=<span class="HindiText">एक द्रव्य में अतीत अनागत और गाथा में आये हुए अपि शब्द से वर्तमान पर्याय रूप जितनी अर्थ पर्याय और व्यंजन पर्याय हैं तत्प्रमाण वह द्रव्य होता है (जो केवलज्ञान का विषय है)। <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड/582/1023 )</span> तथा <span class="GRef">( कषायपाहुड़ 1/1,1/15/22/2 )</span>, <span class="GRef">( कषायपाहुड़/1/1,1/46/64/4 )</span> <span class="GRef">( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/52/ कलश 4)</span> <span class="GRef">( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/36,200 )</span></span><br /> | ||
<strong><span class="GRef"> धवला 9/4,1,45/50/142 </span></strong> <span class="SanskritGatha">क्षायिकमेकमनंतं त्रिकालसर्वार्थंयुगपदवभासम् । निरतिशयमत्ययच्युतमव्यवधानं जिनज्ञानम् ।50।</span>=<span class="HindiText">जिन भगवान् का ज्ञान क्षायिक, एक अर्थात् असहाय, अनंत, तीनों कालों के सर्व पदार्थों को युगपत् प्रकाशित करने वाला, निरतिशय, विनाश से रहित और व्यवधानी विमुक्त है। | <strong><span class="GRef"> धवला 9/4,1,45/50/142 </span></strong> <span class="SanskritGatha">क्षायिकमेकमनंतं त्रिकालसर्वार्थंयुगपदवभासम् । निरतिशयमत्ययच्युतमव्यवधानं जिनज्ञानम् ।50।</span>=<span class="HindiText">जिन भगवान् का ज्ञान क्षायिक, एक अर्थात् असहाय, अनंत, तीनों कालों के सर्व पदार्थों को युगपत् प्रकाशित करने वाला, निरतिशय, विनाश से रहित और व्यवधानी विमुक्त है। <span class="GRef">( धवला 1/1,1,1/24/1023 )</span>, <span class="GRef">( धवला 1/1,1,2/95/1 )</span>; <span class="GRef">( धवला 1/1,1,115/358/3 )</span>; <span class="GRef">( धवला 6/1 .9.1,14/29/5)</span>; <span class="GRef">( धवला 13/5,5,81/345/8 )</span> <span class="GRef">( धवला 15/4/6 )</span>; <span class="GRef">( कषायपाहुड़ 1/1,1/28/43/6 </span><span class="GRef">( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका 26/37/60 )</span> <span class="GRef">(परमात्मप्रकाश टीका/62/61/10 )</span> <span class="GRef">(न्याय बिंदु/261-262 चौखंबा सीरीज )</span><br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="3.6" id="3.6"> केवलज्ञान सद्भूत व असद्भूत सब पर्यायों को जानता है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार/37 </span><span class="PrakritGatha"> तक्कालिगेव सव्वे सदसब्भूदा हि पज्जया तासिं। वट्टंते ते णाणे विसेसदो दव्वजादीणं।37।</span>=<span class="HindiText">उन जीवादि द्रव्य जातियों की समस्त विद्यमान और अविद्यमान पर्यायें तात्कालिक पर्यायों की भाँति विशिष्टता पूर्वक ज्ञान में वर्तती हैं। | <span class="GRef"> प्रवचनसार/37 </span><span class="PrakritGatha"> तक्कालिगेव सव्वे सदसब्भूदा हि पज्जया तासिं। वट्टंते ते णाणे विसेसदो दव्वजादीणं।37।</span>=<span class="HindiText">उन जीवादि द्रव्य जातियों की समस्त विद्यमान और अविद्यमान पर्यायें तात्कालिक पर्यायों की भाँति विशिष्टता पूर्वक ज्ञान में वर्तती हैं। <span class="GRef">( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/37,38,39,41 )</span></span><br /> | ||
योगसार/अमितगति/1/28 | <span class="GRef"> योगसार/अमितगति/1/28 </span> <span class="SanskritGatha">अतीता भाविनश्चार्था: स्वे स्वे काले यथाखिला:। वर्तमानास्ततस्तद्वद्वेत्ति तानपि केवलं।28।</span>=<span class="HindiText">भूत और भावी समस्त पदार्थ जिस रूप से अपने अपने काल में वर्तमान में रहते हैं, केवलज्ञान उन्हें भी उसी रूप से जानता है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="3.7" id="3.7"> प्रयोजनभूत व अप्रयोजनभूत सबको जानता है</strong> </span><br /> | ||
<strong><span class="GRef"> धवला 9/4,1,44/118/8 </span></strong> <span class="PrakritText">ण च खीणावरणो परिमियं चेव जाणदि, णिप्पडिबंधस्स सयलत्थावगमणसहावस्स परिमितयत्थावगमविरोहादो। अत्रोपयोगी श्लोक:—‘‘ज्ञो ज्ञेये कथमज्ञ: स्यादसति प्रतिबंधरि। दाह्येऽग्निर्दाहको न स्यादसति प्रतिबंधरि।’’26।</span>=<span class="HindiText">आवरण के क्षीण हो जाने पर आत्मा परिमित को ही जानता हो यह तो हो नहीं सकता क्योंकि प्रतिबंध से रहित और समस्त पदार्थों के जानने रूप स्वभाव से संयुक्त उसके परिमित पदार्थों के जानने का विरोध है। यहाँ उपयोगी श्लोक—‘‘ज्ञानस्वभाव आत्मा प्रतिबंधक का अभाव होने पर ज्ञेय के विषय में ज्ञानरहित कैसे हो सकता है? क्या अग्नि प्रतिबंधक के अभाव में दाह्यपदार्थ का दाहक नहीं होता | <strong><span class="GRef"> धवला 9/4,1,44/118/8 </span></strong> <span class="PrakritText">ण च खीणावरणो परिमियं चेव जाणदि, णिप्पडिबंधस्स सयलत्थावगमणसहावस्स परिमितयत्थावगमविरोहादो। अत्रोपयोगी श्लोक:—‘‘ज्ञो ज्ञेये कथमज्ञ: स्यादसति प्रतिबंधरि। दाह्येऽग्निर्दाहको न स्यादसति प्रतिबंधरि।’’26।</span>=<span class="HindiText">आवरण के क्षीण हो जाने पर आत्मा परिमित को ही जानता हो यह तो हो नहीं सकता क्योंकि प्रतिबंध से रहित और समस्त पदार्थों के जानने रूप स्वभाव से संयुक्त उसके परिमित पदार्थों के जानने का विरोध है। यहाँ उपयोगी श्लोक—‘‘ज्ञानस्वभाव आत्मा प्रतिबंधक का अभाव होने पर ज्ञेय के विषय में ज्ञानरहित कैसे हो सकता है? क्या अग्नि प्रतिबंधक के अभाव में दाह्यपदार्थ का दाहक नहीं होता है? होता ही है। <span class="GRef">( कषायपाहुड़ 1/1,1/46/13/66 )</span> </span><br /> | ||
<strong><span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/1/5/12 </span></strong> <span class="SanskritText">आह यद्येवम् अतीतदोषमित्येवास्तु, अनंतविज्ञानमित्यतिरिच्यते। दोषात्ययेऽवश्यंभावित्वादनंतविज्ञानत्वस्य। न। कैश्चिद्दोषाभावेऽपि तदनभ्युपगमात् । तथा च वैशैषिकवचनम्—‘‘सर्वं पश्यतु वा मा वा तत्त्वमिष्टं तु पश्यतु। कीटसंख्यापरिज्ञानं तस्य न: कोपयुज्यते।’’ तस्मादनुष्ठानगतं ज्ञानमस्य विचार्यताम् । प्रमाणं दूरदर्शी चेदेते गृध्रानुपास्महे।’’ तंमतव्यपोहार्थमनंतविज्ञानमित्यदुष्टमेव। विज्ञानानंत्यं बिना एकस्याप्यर्थस्य यथावत् परिज्ञानाभावात् । तथा चार्षम्</span>—<span class="HindiText">(देखें [[ श्रुतकेवली#2.6 | श्रुतकेवली - 2.6]]) <strong>प्रश्न</strong>—केवली के साथ ‘अतीत दोष’ विशेष देना ही पर्याप्त है, ‘अनंतविज्ञान’ भी कहने की क्या आवश्यकता? कारण कि दोषों के नष्ट होने पर अनंत विज्ञान की प्राप्ति अवश्यंभावी है ? <strong>उत्तर</strong>—कितने ही वादी दोषों का नाश होने पर भी अनंतविज्ञान की प्राप्ति स्वीकार नहीं करते, अतएव ‘अनंतविज्ञान’ विशेषण दिया गया है। वैशैषिकों का मत है कि ‘‘ईश्वर सर्व पदार्थों को जाने अथवा न जाने, वह इष्ट पदार्थों को जाने इतना बस है। यदि ईश्वर कीड़ों की संख्या गिनने बैठे तो वह हमारे किस काम का ?’’ तथा ‘‘अतएव ईश्वर के उपयोगी ज्ञान की ही प्रधानता है, क्योंकि यदि दूर तक देखने वाले को ही प्रमाण माना जाये तो फिर हमें | <strong><span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/1/5/12 </span></strong> <span class="SanskritText">आह यद्येवम् अतीतदोषमित्येवास्तु, अनंतविज्ञानमित्यतिरिच्यते। दोषात्ययेऽवश्यंभावित्वादनंतविज्ञानत्वस्य। न। कैश्चिद्दोषाभावेऽपि तदनभ्युपगमात् । तथा च वैशैषिकवचनम्—‘‘सर्वं पश्यतु वा मा वा तत्त्वमिष्टं तु पश्यतु। कीटसंख्यापरिज्ञानं तस्य न: कोपयुज्यते।’’ तस्मादनुष्ठानगतं ज्ञानमस्य विचार्यताम् । प्रमाणं दूरदर्शी चेदेते गृध्रानुपास्महे।’’ तंमतव्यपोहार्थमनंतविज्ञानमित्यदुष्टमेव। विज्ञानानंत्यं बिना एकस्याप्यर्थस्य यथावत् परिज्ञानाभावात् । तथा चार्षम्</span>—<span class="HindiText">(देखें [[ श्रुतकेवली#2.6 | श्रुतकेवली - 2.6]]) <strong>प्रश्न</strong>—केवली के साथ ‘अतीत दोष’ विशेष देना ही पर्याप्त है, ‘अनंतविज्ञान’ भी कहने की क्या आवश्यकता? कारण कि दोषों के नष्ट होने पर अनंत विज्ञान की प्राप्ति अवश्यंभावी है ? <strong>उत्तर</strong>—कितने ही वादी दोषों का नाश होने पर भी अनंतविज्ञान की प्राप्ति स्वीकार नहीं करते, अतएव ‘अनंतविज्ञान’ विशेषण दिया गया है। वैशैषिकों का मत है कि ‘‘ईश्वर सर्व पदार्थों को जाने अथवा न जाने, वह इष्ट पदार्थों को जाने इतना बस है। यदि ईश्वर कीड़ों की संख्या गिनने बैठे तो वह हमारे किस काम का ?’’ तथा ‘‘अतएव ईश्वर के उपयोगी ज्ञान की ही प्रधानता है, क्योंकि यदि दूर तक देखने वाले को ही प्रमाण माना जाये तो फिर हमें गीद्ध पक्षियों की भी पूजा करनी चाहिए। इस मत का निराकरण करने के लिए ग्रंथकार ने अनंतविज्ञान विशेषण दिया है और यह विशेषण ठीक ही है, क्योंकि अनंतज्ञान के बिना किसी वस्तु का भी ठीक-ठीक ज्ञान नहीं हो सकता। आगम का वचन भी है—‘‘जो एक को जानता है वही सर्व को जानता है और सर्व को जानता है वह एक को जानता है।’’ <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.8" id="3.8"> केवलज्ञान में इससे भी अनंतगुणा जानने की सामर्थ्य है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/1/29/9/90/5 </span><span class="SanskritText"> यावांल्लोकालोकस्वभावोऽनंत: तावंतोऽनंता नंता यद्यपि स्यु: तानपि ज्ञातुमस्य सामर्थ्यमस्तीत्यपरिमित माहात्म्यं तत् केवलज्ञानं वेदितव्यम् ।</span><span class="HindiText">=जितना यह लोकालोक स्वभाव से ही अनंत है, उससे भी यदि अनंतानंत विश्व है तो उसको भी जानने की सामर्थ्य केवलज्ञान में है, ऐसा केवलज्ञान का अपरिमित माहात्म्य जानना चाहिए।</span><br /> | <span class="GRef"> राजवार्तिक/1/29/9/90/5 </span><span class="SanskritText"> यावांल्लोकालोकस्वभावोऽनंत: तावंतोऽनंता नंता यद्यपि स्यु: तानपि ज्ञातुमस्य सामर्थ्यमस्तीत्यपरिमित माहात्म्यं तत् केवलज्ञानं वेदितव्यम् ।</span><span class="HindiText">=जितना यह लोकालोक स्वभाव से ही अनंत है, उससे भी यदि अनंतानंत विश्व है तो उसको भी जानने की सामर्थ्य केवलज्ञान में है, ऐसा केवलज्ञान का अपरिमित माहात्म्य जानना चाहिए।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> आत्मानुशासन/219 </span><span class="SanskritText">वसति भुवि समस्तं सापि संधारितान्यै:, उदरमुपनिविष्टा सा च ते वा परस्य। तदपि किल परेषां ज्ञानकोणे निलीनं वहति कथमिहान्यो गर्वमात्माधिकेषु।219।</span>=<span class="HindiText">जिस पृथिवी के ऊपर सभी पदार्थ रहते हैं वह पृथिवी भी दूसरों के द्वारा—अर्थात् घनोदधि, घन और तनुवात वलयों के द्वारा धारण की गयी है। वे पृथिवी और वे तीनों वातवलय भी आकाश के मध्य में प्रविष्ट हैं, और वह आकाश भी केवलियों के ज्ञान के एक मध्य में निलीन है। ऐसी अवस्था में यहाँ दूसरा अपने से अधिक गुणों वाले के विषय में कैसे गर्व धारण करता है ? <br /> | <span class="GRef"> आत्मानुशासन/219 </span><span class="SanskritText">वसति भुवि समस्तं सापि संधारितान्यै:, उदरमुपनिविष्टा सा च ते वा परस्य। तदपि किल परेषां ज्ञानकोणे निलीनं वहति कथमिहान्यो गर्वमात्माधिकेषु।219।</span>=<span class="HindiText">जिस पृथिवी के ऊपर सभी पदार्थ रहते हैं वह पृथिवी भी दूसरों के द्वारा—अर्थात् घनोदधि, घन और तनुवात वलयों के द्वारा धारण की गयी है। वे पृथिवी और वे तीनों वातवलय भी आकाश के मध्य में प्रविष्ट हैं, और वह आकाश भी केवलियों के ज्ञान के एक मध्य में निलीन है। ऐसी अवस्था में यहाँ दूसरा अपने से अधिक गुणों वाले के विषय में कैसे गर्व धारण करता है ? <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.9" id="3.9"> केवलज्ञान को सर्व समर्थ न माने सो अज्ञानी है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/415/ </span> | <span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/415/ कलश 255</span> <span class="SanskritText">स्वक्षेत्रस्थितये पृथग्विधपरक्षेत्रस्थितार्थोज्झनात् तुच्छीभूय पशु: प्रणश्यति चिदाकारान् सहार्थैर्वमन् । स्याद्वादी तु वसन् स्वधामनि परक्षेत्रे विदन्नास्तितां, त्यक्तार्थोऽपि न तुच्छतामनुभवत्याकारकर्षी परान् ।255।</span>=<span class="HindiText">एकांतवादी अज्ञानी, स्वक्षेत्र में रहने के लिए भिन्न-भिन्न पर क्षेत्रों में रहे हुए ज्ञेय पदार्थों को छोड़ने से, ज्ञेय पदार्थों के साथ चैतन्य के आकारों का भी वमन करता हुआ तुच्छ होकर नाश को प्राप्त होता है; और स्याद्वादी तो स्व क्षेत्र में रहता हुआ, पर क्षेत्र में अपना नास्तित्व जानता हुआ, ज्ञेय पदार्थों को छोड़ता हुआ भी पर-पदार्थों में से चैतन्य के आकारों को खेंचता है, इसलिए तुच्छता को प्राप्त नहीं होता।<br /> | ||
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Latest revision as of 14:41, 27 November 2023
- केवलज्ञान की सर्व ग्राहकता
- केवलज्ञान सब कुछ जानता है
- केवलज्ञान समस्त लोकालोक को जानता है
- केवलज्ञान संपूर्ण द्रव्य क्षेत्र काल भाव को जानता है
- केवलज्ञान सर्व द्रव्य व पर्यायों को जानता है
- केवलज्ञान त्रिकाली पर्यायों को जानता है
- केवलज्ञान सद्भूत व असद्भूत सब पर्यायों को जानता है
- प्रयोजनभूत व अप्रयोजनभूत सबको जानता है
- केवलज्ञान में इससे भी अनंतगुणा जानने की सामर्थ्य है
- केवलज्ञान को सर्व समर्थ न माने सो अज्ञानी है
- केवलज्ञान की सर्व ग्राहकता
- केवलज्ञान सब कुछ जानता है
प्रवचनसार/47 सव्वं अत्थं विचित्त विसमं तं णाणं खाइयं भणियं।”=विचित्र और विषम समस्त पदार्थों को जानता है उस ज्ञान को क्षायिक कहा है।
नियमसार/167 मुक्तममुक्तं दव्वं चेयणमियरं सगं च सव्वं च। पेच्छंतस्स दु णाणं पच्छक्खमणिंदियं होइ।167।=मूर्त-अमूर्त, चेतन-अचेतन, द्रव्यों को, स्व को तथा समस्त को देखने वाले का ज्ञान अतींद्रिय है, प्रत्यक्ष है। ( प्रवचनसार/54 ); ( आप्तपरीक्षा/39/126/101/9 );
स्वयंभू स्तोत्र/ मूल/106 ‘‘यस्य महर्षे: सकलपदार्थ−प्रत्यवबोध: समजनि साक्षात् । सामरमर्त्यं जगदपि सर्वं प्रांजलि भूत्वा प्रणिपतति स्म।’’ =जिन महर्षि के सकल पदार्थों का प्रत्यवबोध साक्षात् रूप से उत्पन्न हुआ है, उन्हें देव मनुष्य सब हाथ जोड़कर नमस्कार करते हैं। (पंचास्तिकाय संग्रह/1/126); ( धवला 10/4,2,4,107/319/5 )।
कषायपाहुड़ 1/1,1/46/64/4 तम्हा णिरावरणो केवली भूदं भव्वं भवंतं सुहुमं ववहियं विप्पइट्ठं च सव्वं जाणदि त्ति सिद्धं।=इसलिए निरावरण केवली …सूक्ष्म व्यवहित और विप्रकृष्ट सभी पदार्थों को जानते हैं।
धवला 1/1,1,1/45/3 स्वस्थिताशेषप्रमेयत्वत: प्राप्तविश्वरूपा:।=अपने में ही संपूर्ण प्रमेय रहने के कारण जिसने विश्वरूपता को प्राप्त कर लिया है।
धवला 7/2,1,46/89/10 तदणवगत्थाभावादो।=क्योंकि केवलज्ञान से न जाना गया हो ऐसा कोई पदार्थ ही नहीं है।
पंचास्तिकाय का/मूल 43 की प्रक्षेपक गाथा नं.5 तथा उसकी तात्पर्य वृत्ति टीका/87/9 णाणं णेयणिमित्तं केवलणाणं ण होदि सुदणाणं। णेयं केवलणाणं णाणाणाणं च णत्थि केवलिणो।5।–न केवले श्रुतज्ञानं नास्ति केवलिनां ज्ञानाज्ञानं च नास्ति क्वापि विषये ज्ञानं क्वापि विषये पुनरज्ञानमेव न किंतु सर्वत्र ज्ञानमेव।=ज्ञेय के निमित्त से उत्पन्न नहीं होता इसलिए केवलज्ञान को श्रुतज्ञान नहीं कह सकते। और न ही ज्ञानाज्ञान कह सकते हैं। किसी विषय में तो ज्ञान हो और किसी विषय में अज्ञान हो ऐसा नहीं, किंतु सर्वत्र ज्ञान ही है।
- केवलज्ञान समस्त लोकालोक को जानता है
भगवती आराधना/2141 पस्सदि जाणदि य तहा तिण्णि वि काले सपज्जए सव्वे। तह वा लोगमसेसं पस्सदि भयवं विगदमोहो।=वे (सिद्ध परमेष्ठी) संपूर्ण द्रव्यों व उनकी पर्यायों से भरे हुए संपूर्ण जगत् को तीनों कालों में जानते हैं। तो भी वे मोहरहित ही रहते हैं।
प्रवचनसार/23 आदा णाणपमाणं णाणं णेयप्पमाणमुद्दिट्ठं। णेयं लोयालोयं तम्हा णाणं तु सव्वगयं।23।=आत्मा ज्ञान प्रमाण है, ज्ञान ज्ञेय प्रमाण है, ज्ञेय लोकालोक है, इसलिए ज्ञान सर्वगत है। ( धवला 1/1,1,136/198/386 ); ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/161/ कलश 277)।
पंचसंग्रह / प्राकृत/1/126 संपुण्णं तु समग्गं केवलमसपत्त सव्वभावगयं। लोयालोय वितिमिरं केवलणाणं मुणेयव्वा।126।=जो संपूर्ण है, समग्र है, असहाय है, सर्वभावगत है, लोक और अलोकों में अज्ञान रूप तिमिर से रहित है, अर्थात् सर्व व्यापक व सर्वज्ञायक है, उसे केवलज्ञान जानो। ( धवला 1/1,1,115/186/360 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/460/872 )।
द्रव्यसंग्रह/51 णट्ठट्ठकम्मदेहो लोयालोयस्स जाणओ दट्ठा।=नष्ट हो गयी है अष्टकर्मरूपी देह जिसके तथा जो लोकालोक को जानने देखने वाला है। (वह सिद्ध है) ( द्रव्यसंग्रह टीका/14/42/7 )
परमात्मप्रकाश टीका/99/94/8 केवलज्ञाने जाते सति …सर्वं लोकालोकस्वरूपं विज्ञायते।=केवलज्ञान हो जाने पर सर्व लोकालोक का स्वरूप जानने में आ जाता है।
- केवलज्ञान संपूर्ण द्रव्य क्षेत्र काल भाव को जानता है
षट्खंडागम 13/5,5/ सूत्र 82/346 सइं भयवं उप्पण्णणाणदरिसी सदेवासुरमाणुसस्स लोगस्स अगदिं गदिं चयणोववाद बंधं मोक्खं इड्ढिंट्ठिदिं जुदिं अणुभागं तक्कं कलं माणो माणसियं भुत्तं कदं पडिसेविदं आदिकम्मं अरहकम्मं सव्वलोए सव्वजीवे सव्वभावे सम्मं समं जाणदि पस्सदि विहरदि त्ति।82।=स्वयं उत्पन्न हुए ज्ञान और दर्शन से युक्त भगवान् देवलोक और असुर लोक के साथ मनुष्य लोक की अगति, गति, चयन, उपपाद, बंध, मोक्ष, ऋद्धि, स्थिति, युति, अनुभाग, तर्क, कल, मन, मानसिक, भुक्त, कृत, प्रतिसेवित, आदिकर्म, अरह:कर्म, सब लोकों, सब जीवों और सब भावों को सम्यक् प्रकार से युगपत् जानते हैं, देखते हैं और विहार करते हैं।
धवला 13/5,5,82/350/12 संसारिणो दुविहा तसा थावरा चेदि।...तत्थ वणप्फदिकाइया अणंतवियप्पा; सेसा असंखेज्जवियप्पा। एदे सव्वजीवे सव्वलोगट्ठिदे जाणदि त्ति भणिदं होदि।=जीव दो प्रकार के हैं—त्रस और स्थावर।...इनमें से वनस्पतिकायिक अनंत प्रकार के हैं और शेष असंख्यात प्रकार के हैं (अर्थात् जीव समासों की अपेक्षा जीव अनेक भेद रूप हैं)। केवली भगवान् समस्त लोक में स्थित, इन सब जीवों को जानते हैं। यह उक्त कथन का तात्पर्य है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/54 अतींद्रियं हि ज्ञानं यदमूर्तं यंमूर्तेष्वप्यतींद्रियं यत्प्रच्छन्नं च तत्सकलं स्वपरविकल्पांत:पाति प्रेक्षत एव। तस्य खल्वमूर्तेषु धर्माधर्मादिषु, मूर्तेष्वप्यतींद्रियेषु परमाण्वादिषु द्रव्यप्रच्छन्नेषु कालादिषु क्षेत्रप्रच्छन्नेष्वलोकाकाशप्रदेशादिषु, कालप्रच्छन्नेस्वसांप्रतिकपर्यायेषु, भावप्रच्छन्नेषु स्थूलपर्यायांतर्लीनसूक्ष्मपर्यायेषु सर्वेष्वपि स्वपरव्यवस्थाव्यवस्थितेष्वस्ति द्रष्टव्यं प्रत्यक्षत्वात् ।=जो अमूर्त है, जो मूर्त पदार्थों में भी अतींद्रिय है, और जो प्रच्छन्न (ढँका हुआ) है, उस सबको, जो कि स्व व पर इन दो भेदों में समा जाता है उसे अतींद्रिय ज्ञान अवश्य देखता है। अमूर्त द्रव्य धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय आदि, मूर्त पदार्थों में भी अतींद्रिय परमाणु इत्यादि, तथा द्रव्य में प्रच्छन्न काल इत्यादि, क्षेत्र में प्रच्छन्न अलोकाकाश के प्रदेश इत्यादि, काल में प्रच्छन्न असांप्रतिक (अतीत अनागत) पर्यायें, तथा भाव प्रच्छन्न स्थूल पर्यायों में अंतर्लीन सूक्ष्म पर्यायें हैं उन सबको जो कि स्व और पर के भेद से विभक्त हैं उन सबका वास्तव में उस अतींद्रिय ज्ञान के दृष्टपना है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/21 ततोऽस्याक्रमसमाक्रांतसमस्तद्रव्यक्षेत्रकालभावतया समक्षसंवेदनालंबनभूता: सर्वद्रव्यपर्याया: प्रत्यक्षा एव भवंति।=इसलिए उनके समस्त द्रव्य क्षेत्र काल और भाव का अक्रमिक ग्रहण होने से समक्ष-संवेदन (प्रत्यक्ष ज्ञान) की आलंबनभूत समस्त द्रव्य व पर्यायें प्रत्यक्ष ही हैं। ( द्रव्यसंग्रह टीका/5/17/6 )
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/47 अलमथातिविस्तरेण अनिवारितप्रसरप्रकाशशालितया क्षायिकज्ञानमवश्यमेव सर्वदा सर्वत्र सर्वथा सर्वमेव जानीयात् ।=अथवा अति विस्तार से बस हो—जिसका अनिवार फैलाव है, ऐसा प्रकाशमान होने से क्षायिक ज्ञान अवश्यमेव, सर्वदा, सर्वत्र, सर्वथा, सर्व को जानता है।
- केवलज्ञान सर्व द्रव्य व पर्यायों को जानता है
प्रवचनसार/49 दव्वं अणंतपज्जयमेगमणंताणि दव्वजादाणि। ण बिजाणादि जदि जुगवं किधं सो सव्वाणि जाणादि।=यदि अनंत पर्यायवाले एक द्रव्य को तथा अनंत द्रव्य समूह को नहीं जानता तो वह सब अनंत द्रव्य समूह को कैसे जान सकता है।
भगवती आराधना/2140-41 सव्वेहिं पज्जएहिं य संपुण्णं सव्वदव्वेहिं।2140...तह वा लोगमसेसं पस्सदि भयवं विगदमोहो।2141। संपूर्ण द्रव्यों और उनकी संपूर्ण पर्यायों से भरे हुए संपूर्ण जगत् को सिद्ध भगवान् देखते हैं, तो भी वे मोहरहित ही रहते हैं।
तत्त्वार्थसूत्र/1/29 सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य।
सर्वार्थसिद्धि/1/29/135/8 सर्वेषु द्रव्येषु सर्वेषु पर्यायेष्विति। जीवद्रव्याणि तावदनंतानंतानि, पुद्गलद्रव्याणि च ततोऽप्यनंतानंतानि अणुस्कंधभेदभिंनानि, धर्माधर्माकाशानि त्रीणि, कालश्चासंख्येयस्तेषां पर्यायाश्च त्रिकालभुव: प्रत्येकमनंतानंतास्तेषु। द्रव्यं पर्यायजातं न किंचित्केवलज्ञानस्य विषयभावमतिक्रांतमस्ति। अपरिमितमाहात्म्यं हि तदिति ज्ञापनार्थं सर्वद्रव्यपर्यायेषु इत्युच्यते।=केवलज्ञान की प्रवृत्ति सर्व द्रव्यों में और उनकी सर्व पर्यायों में होती है। जीव द्रव्य अनंतानंत है, पुद्गलद्रव्य इनसे भी अनंतानंत गुणे हैं जिनके अणु और स्कंध ये भेद हैं। धर्म अधर्म और आकाश ये तीन हैं, और काल असंख्यात हैं। इन सब द्रव्यों की पृथक् पृथक् तीनों कालों में होने वाली अनंतानंत पर्यायें हैं। इन सबमें केवलज्ञान की प्रवृत्ति होती है। ऐसा न कोई द्रव्य है और न पर्याय समूह है जो केवलज्ञान के विषय के परे हो। केवलज्ञान का माहात्म्य अपरिमित है इसी बात का ज्ञान कराने के लिए सूत्र में ‘सर्वद्रव्यपर्यायेषु’ कहा है। ( राजवार्तिक/1/29/9/90/4 )
अष्टशती/का 106/निर्णयसागर बंबई—साक्षात्कृतेरेव सर्वद्रव्यपर्यायान् परिच्छिनत्ति (केवलाख्येन प्रत्यक्षेण केवली) नान्यत: (नागमात्) इति।=केवली भगवान् केवलज्ञान नाम वाले प्रत्यक्षज्ञान के द्वारा सर्व द्रव्यों व सर्व पर्यायों को जानते हैं, आगमादि अन्य ज्ञानों से नहीं।
धवला/1/1 .1.1/27/48/4 सव्वावयवेहि दिट्ठसव्वट्ठा।=जिन्होंने संपूर्ण पर्यायों सहित पदार्थों को जान लिया है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/21 सर्वद्रव्यपर्याया: प्रत्यक्षा एव भवंति।=(उस ज्ञान के) समस्त द्रव्य पर्यायें प्रत्यक्ष ही हैं।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/43 त्रिकालत्रिलोकवर्तिस्थावरजंगमात्मकनिखिलद्रव्यगुणपर्यायैकसमयपरिच्छित्तिसमर्थसकलविमलकेवलज्ञानावस्थत्वान्निर्मूढश्च। =तीन काल और तीन लोक के स्थावर जंगम स्वरूप समस्त द्रव्य-गुण-पर्यायों को एक समय में जानने में समर्थ सकल विमल केवलज्ञान रूप से अवस्थित होने से आत्मा निर्मूढ है।
- केवलज्ञान त्रिकाली पर्यायों को जानता है
धवला 1/1,1,136/199/386 एय-दवियम्मि जे अत्थ-पज्जया वयणपज्जया वादि। तीदाणागदभूदा तावदियं तं हवइ दव्वं।=एक द्रव्य में अतीत अनागत और गाथा में आये हुए अपि शब्द से वर्तमान पर्याय रूप जितनी अर्थ पर्याय और व्यंजन पर्याय हैं तत्प्रमाण वह द्रव्य होता है (जो केवलज्ञान का विषय है)। ( गोम्मटसार जीवकांड/582/1023 ) तथा ( कषायपाहुड़ 1/1,1/15/22/2 ), ( कषायपाहुड़/1/1,1/46/64/4 ) ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/52/ कलश 4) ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/36,200 )
धवला 9/4,1,45/50/142 क्षायिकमेकमनंतं त्रिकालसर्वार्थंयुगपदवभासम् । निरतिशयमत्ययच्युतमव्यवधानं जिनज्ञानम् ।50।=जिन भगवान् का ज्ञान क्षायिक, एक अर्थात् असहाय, अनंत, तीनों कालों के सर्व पदार्थों को युगपत् प्रकाशित करने वाला, निरतिशय, विनाश से रहित और व्यवधानी विमुक्त है। ( धवला 1/1,1,1/24/1023 ), ( धवला 1/1,1,2/95/1 ); ( धवला 1/1,1,115/358/3 ); ( धवला 6/1 .9.1,14/29/5); ( धवला 13/5,5,81/345/8 ) ( धवला 15/4/6 ); ( कषायपाहुड़ 1/1,1/28/43/6 ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका 26/37/60 ) (परमात्मप्रकाश टीका/62/61/10 ) (न्याय बिंदु/261-262 चौखंबा सीरीज )
- केवलज्ञान सद्भूत व असद्भूत सब पर्यायों को जानता है
प्रवचनसार/37 तक्कालिगेव सव्वे सदसब्भूदा हि पज्जया तासिं। वट्टंते ते णाणे विसेसदो दव्वजादीणं।37।=उन जीवादि द्रव्य जातियों की समस्त विद्यमान और अविद्यमान पर्यायें तात्कालिक पर्यायों की भाँति विशिष्टता पूर्वक ज्ञान में वर्तती हैं। ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/37,38,39,41 )
योगसार/अमितगति/1/28 अतीता भाविनश्चार्था: स्वे स्वे काले यथाखिला:। वर्तमानास्ततस्तद्वद्वेत्ति तानपि केवलं।28।=भूत और भावी समस्त पदार्थ जिस रूप से अपने अपने काल में वर्तमान में रहते हैं, केवलज्ञान उन्हें भी उसी रूप से जानता है।
- प्रयोजनभूत व अप्रयोजनभूत सबको जानता है
धवला 9/4,1,44/118/8 ण च खीणावरणो परिमियं चेव जाणदि, णिप्पडिबंधस्स सयलत्थावगमणसहावस्स परिमितयत्थावगमविरोहादो। अत्रोपयोगी श्लोक:—‘‘ज्ञो ज्ञेये कथमज्ञ: स्यादसति प्रतिबंधरि। दाह्येऽग्निर्दाहको न स्यादसति प्रतिबंधरि।’’26।=आवरण के क्षीण हो जाने पर आत्मा परिमित को ही जानता हो यह तो हो नहीं सकता क्योंकि प्रतिबंध से रहित और समस्त पदार्थों के जानने रूप स्वभाव से संयुक्त उसके परिमित पदार्थों के जानने का विरोध है। यहाँ उपयोगी श्लोक—‘‘ज्ञानस्वभाव आत्मा प्रतिबंधक का अभाव होने पर ज्ञेय के विषय में ज्ञानरहित कैसे हो सकता है? क्या अग्नि प्रतिबंधक के अभाव में दाह्यपदार्थ का दाहक नहीं होता है? होता ही है। ( कषायपाहुड़ 1/1,1/46/13/66 )
स्याद्वादमंजरी/1/5/12 आह यद्येवम् अतीतदोषमित्येवास्तु, अनंतविज्ञानमित्यतिरिच्यते। दोषात्ययेऽवश्यंभावित्वादनंतविज्ञानत्वस्य। न। कैश्चिद्दोषाभावेऽपि तदनभ्युपगमात् । तथा च वैशैषिकवचनम्—‘‘सर्वं पश्यतु वा मा वा तत्त्वमिष्टं तु पश्यतु। कीटसंख्यापरिज्ञानं तस्य न: कोपयुज्यते।’’ तस्मादनुष्ठानगतं ज्ञानमस्य विचार्यताम् । प्रमाणं दूरदर्शी चेदेते गृध्रानुपास्महे।’’ तंमतव्यपोहार्थमनंतविज्ञानमित्यदुष्टमेव। विज्ञानानंत्यं बिना एकस्याप्यर्थस्य यथावत् परिज्ञानाभावात् । तथा चार्षम्—(देखें श्रुतकेवली - 2.6) प्रश्न—केवली के साथ ‘अतीत दोष’ विशेष देना ही पर्याप्त है, ‘अनंतविज्ञान’ भी कहने की क्या आवश्यकता? कारण कि दोषों के नष्ट होने पर अनंत विज्ञान की प्राप्ति अवश्यंभावी है ? उत्तर—कितने ही वादी दोषों का नाश होने पर भी अनंतविज्ञान की प्राप्ति स्वीकार नहीं करते, अतएव ‘अनंतविज्ञान’ विशेषण दिया गया है। वैशैषिकों का मत है कि ‘‘ईश्वर सर्व पदार्थों को जाने अथवा न जाने, वह इष्ट पदार्थों को जाने इतना बस है। यदि ईश्वर कीड़ों की संख्या गिनने बैठे तो वह हमारे किस काम का ?’’ तथा ‘‘अतएव ईश्वर के उपयोगी ज्ञान की ही प्रधानता है, क्योंकि यदि दूर तक देखने वाले को ही प्रमाण माना जाये तो फिर हमें गीद्ध पक्षियों की भी पूजा करनी चाहिए। इस मत का निराकरण करने के लिए ग्रंथकार ने अनंतविज्ञान विशेषण दिया है और यह विशेषण ठीक ही है, क्योंकि अनंतज्ञान के बिना किसी वस्तु का भी ठीक-ठीक ज्ञान नहीं हो सकता। आगम का वचन भी है—‘‘जो एक को जानता है वही सर्व को जानता है और सर्व को जानता है वह एक को जानता है।’’
- केवलज्ञान में इससे भी अनंतगुणा जानने की सामर्थ्य है
राजवार्तिक/1/29/9/90/5 यावांल्लोकालोकस्वभावोऽनंत: तावंतोऽनंता नंता यद्यपि स्यु: तानपि ज्ञातुमस्य सामर्थ्यमस्तीत्यपरिमित माहात्म्यं तत् केवलज्ञानं वेदितव्यम् ।=जितना यह लोकालोक स्वभाव से ही अनंत है, उससे भी यदि अनंतानंत विश्व है तो उसको भी जानने की सामर्थ्य केवलज्ञान में है, ऐसा केवलज्ञान का अपरिमित माहात्म्य जानना चाहिए।
आत्मानुशासन/219 वसति भुवि समस्तं सापि संधारितान्यै:, उदरमुपनिविष्टा सा च ते वा परस्य। तदपि किल परेषां ज्ञानकोणे निलीनं वहति कथमिहान्यो गर्वमात्माधिकेषु।219।=जिस पृथिवी के ऊपर सभी पदार्थ रहते हैं वह पृथिवी भी दूसरों के द्वारा—अर्थात् घनोदधि, घन और तनुवात वलयों के द्वारा धारण की गयी है। वे पृथिवी और वे तीनों वातवलय भी आकाश के मध्य में प्रविष्ट हैं, और वह आकाश भी केवलियों के ज्ञान के एक मध्य में निलीन है। ऐसी अवस्था में यहाँ दूसरा अपने से अधिक गुणों वाले के विषय में कैसे गर्व धारण करता है ?
- केवलज्ञान को सर्व समर्थ न माने सो अज्ञानी है
समयसार / आत्मख्याति/415/ कलश 255 स्वक्षेत्रस्थितये पृथग्विधपरक्षेत्रस्थितार्थोज्झनात् तुच्छीभूय पशु: प्रणश्यति चिदाकारान् सहार्थैर्वमन् । स्याद्वादी तु वसन् स्वधामनि परक्षेत्रे विदन्नास्तितां, त्यक्तार्थोऽपि न तुच्छतामनुभवत्याकारकर्षी परान् ।255।=एकांतवादी अज्ञानी, स्वक्षेत्र में रहने के लिए भिन्न-भिन्न पर क्षेत्रों में रहे हुए ज्ञेय पदार्थों को छोड़ने से, ज्ञेय पदार्थों के साथ चैतन्य के आकारों का भी वमन करता हुआ तुच्छ होकर नाश को प्राप्त होता है; और स्याद्वादी तो स्व क्षेत्र में रहता हुआ, पर क्षेत्र में अपना नास्तित्व जानता हुआ, ज्ञेय पदार्थों को छोड़ता हुआ भी पर-पदार्थों में से चैतन्य के आकारों को खेंचता है, इसलिए तुच्छता को प्राप्त नहीं होता।
- केवलज्ञान सब कुछ जानता है