नामकर्म: Difference between revisions
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<li><strong class="HindiText" name="1" id="1"> नामकर्म का लक्षण</strong><br /> | |||
प्र.सा./मू./११७ <span class="PrakritText">कम्मं णामसमक्खं सभावमध अप्पणो सहावेण। अभिभूय णरं तिरियं णेरइयं वासुरं कुणदि।</span>=<span class="HindiText">नाम संज्ञावाला कर्म जीव के शुद्ध स्वभाव को आच्छादित करके उसे मनुष्य, तिर्यंच, नारकी अथवा देव रूप करता है। (गो.क./मू./१२/९)</span><br /> | |||
. | स.सि./८/३/३७९/२ <span class="SanskritText">नाम्नो नरकादिनामकरणम् ।</span><br /> | ||
स.सि./८/४/३८१/१ <span class="SanskritText">नमयत्यात्मानं नम्यतेऽनेनेति वा नाम।</span> =<span class="HindiText">(आत्मा का) नारक आदि रूप नामकरण करना नामकर्म की प्रकृति (स्वभाव) है। जो आत्मा को नमाता है या जिसके द्वारा आत्मा नमता है वह नामकर्म है। (रा.वा./८/३/४/३६७/५ तथा ८/४/२/५६८/४); (प्र.सा./ता.वृ.)।</span><br /> | |||
ध.६/१,९,१,१०/१३/३ <span class="PrakritText">नाना मिनोति निर्वर्त्तयतीति नाम। जे पोग्गला सरीरसंठाणसंघडणवण्णगंधादिकज्जकारया जीवणिविट्ठा ते णामसण्णिदा होति त्ति उत्तं होदि। </span>=<span class="HindiText">जो नाना प्रकार की रचना निवृत्त करता है, वह नामकर्म है। शरीर, संस्थान, संहनन, वर्ण, गन्ध आदि कार्यों के करने वाले जो पुद्गल जीव में निविष्ट हैं, वे ‘नाम’ इस संज्ञा वाले होते हैं, ऐसा अर्थ कहा गया है। (गो.क./मू./१२/९); (गो.क./जी.प्र./२०/१३/१६); (द्र.सं./टी./३३/९२/१२)।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> <a name="2" id="2">नामकर्म के भेद</strong><br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> मूलभेद रूप ४२ प्रकृतिया</strong> </span><br /> | |||
ष.ख.६/१,९-१/सूत्र २८/५० <span class="PrakritText">गदिणामं जादिणामं सरीरणामं सरीरबंधणणामं सरीरसंघादणामं सरीरसंट्ठाणणामं सरीरअंगोवंगणामं सरीरसंघडणणामं वण्णणामं गंधणामं रसणामं फासणामं आणुपुव्वीणामं अगुरुलहुवणामं उवघादणामं परघादणामं उस्सासणामं आदावणामं उज्जोवणामं विहायगदिणामं तसणामं थावरणामं बादरणामं सुहुमणामं पज्जत्तणामं अपज्जत्तणामं पत्तेयसरीरणामं साधारणसरीरणामं थिरणामं अथिरणामं सुहणामं असुहणामं सुभगणामं दूभगणामं सुस्सरणामं दुस्सरणामं आदेज्जणामं अणादेज्जणामं जसकित्तिणामं अजसकित्तिणामं णिमिणामं तित्थयरणामं चेदि।२८।</span> = | |||
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<li class="HindiText">गति,</li> | |||
<li class="HindiText"> जाति, </li> | |||
<li class="HindiText"> शरीर, </li> | |||
<li class="HindiText"> शरीरबन्धन, </li> | |||
<li class="HindiText"> शरीरसंघात, </li> | |||
<li class="HindiText"> शरीरसंस्थान, </li> | |||
<li class="HindiText"> शरीरअंगोपांग,</li> | |||
<li class="HindiText"> शरीरसंहनन, </li> | |||
<li class="HindiText"> वर्ण,</li> | |||
<li class="HindiText"> गन्ध, </li> | |||
<li class="HindiText"> रस, </li> | |||
<li class="HindiText"> स्पर्श,</li> | |||
<li class="HindiText"> आनुपूर्वी,</li> | |||
<li class="HindiText"> अगुरुलघु, </li> | |||
<li class="HindiText"> उपघात, </li> | |||
<li class="HindiText"> परघात, </li> | |||
<li class="HindiText"> उच्छ्वास, </li> | |||
<li class="HindiText"> आतप, </li> | |||
<li class="HindiText"> उद्योत, </li> | |||
<li class="HindiText"> विहायोगति,</li> | |||
<li class="HindiText"> त्रस, </li> | |||
<li class="HindiText"> स्थावर, </li> | |||
<li class="HindiText"> बादर, </li> | |||
<li class="HindiText"> सूक्ष्म,</li> | |||
<li class="HindiText"> पर्याप्त,</li> | |||
<li class="HindiText"> अपर्याप्त, </li> | |||
<li class="HindiText"> प्रत्येक शरीर, </li> | |||
<li class="HindiText"> साधारण शरीर,</li> | |||
<li class="HindiText"> स्थिर, </li> | |||
<li class="HindiText"> अस्थिर, </li> | |||
<li class="HindiText"> शुभ, </li> | |||
<li class="HindiText"> अशुभ, </li> | |||
<li class="HindiText"> सुभग,</li> | |||
<li class="HindiText"> दुर्भग, </li> | |||
<li class="HindiText"> सुस्वर,</li> | |||
<li class="HindiText"> दु:स्वर, </li> | |||
<li class="HindiText"> आदेय, </li> | |||
<li class="HindiText"> अनादेय, </li> | |||
<li class="HindiText"> यश:कीर्ति; </li> | |||
<li class="HindiText">अयश:कीर्ति; </li> | |||
<li class="HindiText"> निर्माण और </li> | |||
<li class="HindiText"> तीर्थंकर, ये नाम कर्म की ४२ पिंड प्रकृतिया हैं।२८। (ष.खं.१३/५,५/सू.१०१/३६३); (त.सू./८/११); (मू.आ./१२३०-१२३३) (पं.सं./प्रा./२/४); (म.बं.१/५/२८/३); (गो.क./जी.प्र./२६/१९/७)<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong> <a name="2.2" id="2.2">उत्तर भेदरूप ९३ प्रकृतिया</strong><br /> | |||
दे०वह वह नाम–(गति चार हैं–नरकादि। जाति पाच हैं–एकेन्द्रिय आदि। शरीर पाच हैं–औदारिकादि। बन्धन पाच हैं–औदारिकादि शरीर बन्धन। संघात पाच हैं–औदारिकादि शरीर संघात। संस्थान छह हैं–समचतुरस्र आदि। अंगोपांग तीन हैं–औदारिक आदि। संहनन छ: हैं–वज्रऋृषभनाराच आदि। वर्ण पाच हैं–शुक्ल आदि। गन्ध दो हैं–सुगन्ध, दुर्गन्ध। रस पाच हैं–तिक्त आदि। स्पर्श आठ हैं–कर्कश आदि। आनुपूर्वी चार हैं–नरकगत्यानुपूर्वी आदि। विहायोगति दो हैं–प्रशस्त अप्रशस्त।–इस प्रकार इन १४ प्रकृतियों के उत्तर भेद ६५ हैं। मूल १४ की बजाय उनके ६५ उत्तर भेद गिनने पर नामकर्म की कुल प्रकृतिया ९३ (४२+६५–१४=९३) हो जाती हैं।)<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> नामकर्म की असंख्यात प्रकृतिया</strong> </span><br /> | |||
ष.खं.१२/४,२,१४/सूत्र १६/४८३<span class="PrakritText"> णामस्स कम्मस्स असंखेज्जलोगमेत्तपयडीओ।१६।</span> =<span class="HindiText">नामकर्म की असंख्यात लोकमात्र प्रकृतिया हैं। (रा.वा./८/१३/३/५८१/५)</span><br /> | |||
ष.खं.१३/२,५/सूत्र/पृष्ठ–<span class="PrakritText">णिरयगइयाओग्गाणुपुव्विणामाए पयडीओ अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तबाहल्लाणि तिरियपदराणि सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तेहिं ओगाहणवियप्पेहि गुणिदाओ। एवडियाओ पयडीओ। (११६/३७१)। तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्विणामाए पयडीओ लोओ सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तेहि ओगाहवियप्पेहिगुणिदाओ। एवडियाओ पयडीओ।(११८-३७६)। मणुसगंइपाओग्गाणुपुव्विणामाए पयडीओ पणदालीसजोयणसदसहस्सबाहल्लाणि तिरियपदराणि उड्ढकवाडछेदणणिप्फण्णाणि सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तेहि ओगाहणवियप्पेहि गुणिदाओ। एवडियाओ पयडीओ।(१२०/३७७)। देवगइपाओग्गाणुपुव्विणामाए पयडीयो णवजोयणसदबाहल्लाणि तिरियपदराणि सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तेहि ओगाहणवियप्पेहि गुणिदाओ। एवडियाओ पयडीओ।(१२२/३८३)। </span>=<span class="HindiText">नरकगत्यानुपूर्वी नामकर्म की प्रकृतिया अंगुल के असंख्यातवें भागमात्र तिर्यक्प्रतररूप बाहल्य को श्रेणि के असंख्यातवें भागमात्र अवगाहनाविकल्पों से गुणित करने पर जो लब्ध आवे उतनी हैं। उसकी इतनी मात्र प्रकृतिया हैं।११६। तिर्यग्गति प्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म की प्रकृतिया लोक को जगश्रेणी के असंख्यातवें भागमात्र अवगाहना विकल्पों से गुणित करने पर जो लब्ध आवे उतनी हैं। उसकी इतनी मात्र प्रकृतिया होती हैं।११८। मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म की प्रकृतिया ऊर्ध्वकपाटछेदन से निष्पन्न पैंतालीस लाख योजन बाहल्य वाले तिर्यक् प्रतरों के जगश्रेणी के असंख्यातवें भागमात्र अवगाहनाविकल्पों से गुणित करने पर जो लब्ध आवे उतनी हैं। उसकी उतनी मात्र प्रकृतिया होती हैं।१२०। देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म की प्रकृतिया नौ सौ योजन बाहल्यरूप तिर्यक्प्रतरों को जगश्रेणी के असंख्यातवें भागमात्र अवगाहनाविकल्पों से गुणित करने पर जो लब्ध आवे उतनी होती हैं। उसकी उतनी मात्र प्रकृतिया हैं।१२२। </span><br /> | |||
ध.३/१,२,८७/३३०/२ <span class="PrakritText">पुढविकाइयणामकम्मोदयवंतो जीवा पुढविकाइया त्ति वुच्चंति। पुढविकाइयणामकम्मं ण कहिं वि वुत्तमिदि चे ण, तस्स एइंदियजादिणामकम्मंतव्भूदत्तादो। एवं सदि कम्माणं संखाणियमो सुत्तसिद्धो ण घडदि त्ति वुच्चदे। ण सुत्ते कम्माणि अट्ठेव अट्ठेदालसयमेवेत्ति संखतरपडिसेहविधाययएवकाराभावदो। पुणो कत्तियाणि कम्माणि होंति। हय-गय-विय-फुल्लंधुव-सलहमक्कुणुद्देहि-गोमिंदादीणि जेत्तियाणि कम्मफलाणि लोगे उवलब्भंते कम्माणि वि तत्तियाणि चेव। एवं सेसकाइयाणं वि वत्तव्वं।</span> =<span class="HindiText">पृथिवीकाय नामकर्म से युक्त जीवों को पृथिवीकायिक कहते हैं। <strong>प्रश्न</strong>–पृथिवीकाय नामकर्म कहीं भी (कर्म के भेदों में) नहीं कहा गया है? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, पृथिवीकाय नाम का कर्म एकेन्द्रिय नामक नामकर्म के भीतर अन्तर्भूत है। <strong>प्रश्न</strong>–यदि ऐसा है तो सूत्र प्रसिद्ध कर्मों की संख्या का नियम नहीं रह सकता है ? <strong>उत्तर</strong>–सूत्र में, कर्म आठ ही अथवा १४८ ही नहीं कहे गये हैं; क्योंकि आठ या १४८ संख्या को छोड़कर दूसरी संख्याओं का प्रतिषेध करने वाला एवकार पद सूत्र में नहीं पाया जाता। <strong>प्रश्न</strong>–तो फिर कर्म कितने हैं ? <strong>उत्तर</strong>–लोक में घोड़ा, हाथी, वृक (भेड़िया), भ्रमर, शलभ, मत्कुण, उद्देहिका (दीमक), गोमी और इन्द्र आदि रूप से जितने कर्मों के फल पाये जाते हैं, कर्म भी उतने ही हैं। (ध.७/२,१,१९/७०/७) इसी प्रकार शेष कायिक जीवों के विषय में भी कथन करना चाहिए।</span><br /> | |||
ध.७/२,१०,३२/५०५/५ <span class="PrakritText">सुहुमकम्मोदएण जहा जीवाणं वणप्फदिकाइयादीणं सुहुमत्तं होदि तहा णिगोदणामकम्मोदएण णिगोदत्तं होदि।</span> =<span class="HindiText">सूक्ष्म नामकर्म के उदय से जिस प्रकार वनस्पतिकायिकादि जीवों के सूक्ष्मपना होता है उसी प्रकार निगोद नामकर्म के उदय से निगोदत्व होता है।</span><br /> | |||
ध.१३/५,५,१०१/३६६/९ <span class="PrakritText">को पिंडो णाम। बहूणं पयडीणं संदोहो पिंडो। तसादि पयडीणं बहुत्तं णत्थि त्ति ताओ अपिंडपयडीओ त्ति ण घेत्तव्वं, तत्थ वि बहूणं पयडीणमुवलंभादो। कुदो तदुवलद्धी। जुत्तोदो। का जुत्तो। कारणबहुत्तेण विणा भमर-पयंग-मायंग-तुरंगा-दीणं बहुत्ताणुववत्तीदो।</span><br /> | |||
ध.१३/५,५,१३३/३८७/११ <span class="PrakritText">ण च एदासिमुत्तरोत्तरपयडीओ णत्थि, पत्तेयसरीराणं धव-धम्मणादीणं साहारणसरीराणं मूलयथूहल्लयादीणं बहुविहसर-गमणादीणमुवलंभादो।</span> =<span class="HindiText">१. <strong>प्रश्न</strong>–पिंड (प्रकृति) का अर्थ क्या है ? <strong>उत्तर</strong>–बहुत प्रकृतियों का समुदाय पिण्ड कहा जाता है। <strong>प्रश्न</strong>–त्रस आदि प्रकृतिया तो बहुत नहीं हैं, इसलिए क्या वे अपिण्ड प्रकृतिया हैं ? <strong>उत्तर</strong>–ऐसा ग्रहण नहीं करना चाहिए; क्योंकि, वहा भी युक्ति से बहुत प्रकृतिया उपलब्ध होती हैं। और वह युक्ति यह है कि–क्योंकि, कारण के बहुत हुए बिना भ्रमर, पतंग, हाथी, और घोड़ा आदिक नाना भेद नहीं बन सकते हैं, इसलिए जाना जाता है, कि त्रसादि प्रकृतिया बहुत हैं।...। २. यह कहना भी ठीक नहीं है कि अगुरुलघु नामकर्म आदि की उत्तरोत्तर प्रकृतिया नहीं हैं, क्योंकि, धव और धम्ममन आदि प्रत्येक शरीर, मूली और थूहर आदि साधारणशरीर; तथा नाना प्रकार के स्वर और नाना प्रकार के गमन आदि उपलब्ध होते हैं।<br /> | |||
और भी देखें - [[ नीचे शीर्षक नं#05 | नीचे शीर्षक नं / ०५]](भवनवासी आदि सर्व भेद नामकर्मकृत हैं।)<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> <a name="2.4" id="2.4">तीर्थंकरत्ववत् गणधरत्व आदि प्रकृतियों का निर्देश क्यों नहीं</strong></span><br /> | |||
रा.वा./८/११/४१/५८०/३ <span class="SanskritText">यथा तीर्थकरत्वं नामकर्मोच्यते तथा गणधरत्वादीनामुपसंख्यानं कर्तव्यम्, गणधरचक्रधरवासुदेवबलदेवा अपि विशिष्टर्द्धियुक्ता इति चेत्; तन्न; किं कारणम् । अन्यनिमित्तत्वात् । गणधरत्वं श्रुतज्ञानावरणाक्षयोपशमप्रकर्षनिमित्तम्, चक्रधरत्वादीनि उच्चैर्गोत्रविशेषहेतुकानि।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–जिस प्रकार तीर्थंकरत्व नामकर्म कहते हो उसी प्रकार गणधरत्व आदि नामकर्मों का उल्लेख करना चाहिए था; क्योंकि गणधर, चक्रधर, वासुदेव, और बलदेव भी विशिष्ट ऋद्धि से युक्त होते हैं ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, वे दूसरे निमित्तों से उत्पन्न होते हैं। गणधरत्व में तो श्रुतज्ञानावरण का प्रकर्ष क्षयोपशम निमित्त है और चक्रधरत्व आदिकों में उच्चगोत्र विशेष हेतु है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> देवगति में भवनवासी आदि सर्वभेद नाम कर्मकृत हैं</strong></span><br /> | |||
रा.वा./४/१०/३/२१६/६ <span class="SanskritText">सर्वे ते नामकर्मोदयापादितविशेषा वेदितव्या:। </span>रा.वा./४/११/३/२१७/१८ <span class="SanskritText">नामकर्मोदयविशेषस्तद्विशेषसंज्ञा:। ...किन्नरनामकर्मोदयात्किन्नरा: किंपुरुषनामकर्मोदयात् किंपुरुषा इत्यादि:। </span><br /> | |||
रा.वा./४/१२/५/२१८/१७ <span class="SanskritText">तेषां संज्ञाविशेषाणां पूर्ववन्निर्वृत्तिर्वेदितव्यादेवगतिनामकर्मविशेषोदयादिति।</span> =<span class="HindiText">वे सब (असुर नाग आदि भवनवासी देवों के भेद) नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुए भेद जानने चाहिए। नामकर्मोदय की विशेषता से ही वे (व्यन्तर देवों के किन्नर आदि) नाम होते हैं। जैसे–किन्नर नामकर्म के उदय से किन्नर और किंपुरुष नामकर्म के उदय से किंपुरुष, इत्यादि। उन ज्योतिषी देवों की भी पूर्ववत् ही निर्वृत्ति जाननी चाहिए। अर्थात् (सूर्य चन्द्र आदि भी) देवगति नामकर्म विशेष के उदय से होते हैं। </span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong> <a name="2.6" id="2.6">नामकर्म के अस्तित्व की सिद्धि</strong></span><br> ध.६/१,९-१,१०/१३/४ <span class="PrakritText">तस्स णामकम्मस्स अत्थित्तं कुदोवगम्मदे। सरीरसंठाणवण्णादिकज्जभेदण्णहाणुववत्तीदो।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–उस नामकर्म का अस्तित्व कैसे जाना जाता है ? <strong>उत्तर</strong>–शरीर, संस्थान, वर्ण आदि कार्यों के भेद अन्यथा हो नहीं सकते हैं।</span><br>ध.७/२,१,१९/७०/९ <span class="PrakritText">ण च कारणेण विणा कज्जाणमुप्पत्ती अत्थि। दीसंति च पुढविआउ-तेउ-वाउ-वणप्फदितसकाइयादिसु अणेगाणि कज्जाणि। तदो कज्जमेत्ताणि चेव कम्माणि वि अत्थि त्ति णिच्छओ कायव्वो।</span>=<span class="HindiText">कारण के बिना तो कार्य की उत्पत्ति होती नहीं है। और पृथिवी, अप्, तेज, वायु, वनस्पति, और त्रसकायिक आदि जीवों में उनकी उक्त पर्यायोंरूप अनेक कार्य देखे जाते हैं। इसलिए जितने कार्य हैं उतने उनके कारणरूप कर्म भी हैं, ऐसा निश्चय कर लेना चाहिए। </span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong> <a name="2.7" id="2.7">अन्य सम्बन्धित विषय</strong> | |||
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/ | <li class="HindiText"> नामकर्म के उदाहरण।– देखें - [[ प्रकृतिबंध#3 | प्रकृतिबंध / ३ ]]। </li> | ||
<li class="HindiText"> नामकर्म प्रकृतियों में शुभ-अशुभ विभाग।– देखें - [[ प्रकृतिबंध#2 | प्रकृतिबंध / २ ]]।</li> | |||
<li class="HindiText"> शुभ-अशुभ नामकर्म के बन्धयोग्य परिणाम।–देखें - [[ पुण्य पाप | पुण्य पाप। ]]</li> | |||
<li class="HindiText"> नामकर्म की बन्ध उदय सत्त्व प्ररूपणाए।–दे०वह वह नाम।</li> | |||
<li class="HindiText"> जीव विपाकी भी नामकर्म को अघाती कहने का कारण।– देखें - [[ अनुभाग#3 | अनुभाग / ३ ]]। </li> | |||
<li class="HindiText"> गतिनाम कर्म जन्म का कारण नहीं आयु है।– देखें - [[ आयु#2 | आयु / २ ]]।</li> | |||
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Revision as of 17:16, 25 December 2013
- नामकर्म का लक्षण
प्र.सा./मू./११७ कम्मं णामसमक्खं सभावमध अप्पणो सहावेण। अभिभूय णरं तिरियं णेरइयं वासुरं कुणदि।=नाम संज्ञावाला कर्म जीव के शुद्ध स्वभाव को आच्छादित करके उसे मनुष्य, तिर्यंच, नारकी अथवा देव रूप करता है। (गो.क./मू./१२/९)
स.सि./८/३/३७९/२ नाम्नो नरकादिनामकरणम् ।
स.सि./८/४/३८१/१ नमयत्यात्मानं नम्यतेऽनेनेति वा नाम। =(आत्मा का) नारक आदि रूप नामकरण करना नामकर्म की प्रकृति (स्वभाव) है। जो आत्मा को नमाता है या जिसके द्वारा आत्मा नमता है वह नामकर्म है। (रा.वा./८/३/४/३६७/५ तथा ८/४/२/५६८/४); (प्र.सा./ता.वृ.)।
ध.६/१,९,१,१०/१३/३ नाना मिनोति निर्वर्त्तयतीति नाम। जे पोग्गला सरीरसंठाणसंघडणवण्णगंधादिकज्जकारया जीवणिविट्ठा ते णामसण्णिदा होति त्ति उत्तं होदि। =जो नाना प्रकार की रचना निवृत्त करता है, वह नामकर्म है। शरीर, संस्थान, संहनन, वर्ण, गन्ध आदि कार्यों के करने वाले जो पुद्गल जीव में निविष्ट हैं, वे ‘नाम’ इस संज्ञा वाले होते हैं, ऐसा अर्थ कहा गया है। (गो.क./मू./१२/९); (गो.क./जी.प्र./२०/१३/१६); (द्र.सं./टी./३३/९२/१२)।
- <a name="2" id="2">नामकर्म के भेद
- मूलभेद रूप ४२ प्रकृतिया
ष.ख.६/१,९-१/सूत्र २८/५० गदिणामं जादिणामं सरीरणामं सरीरबंधणणामं सरीरसंघादणामं सरीरसंट्ठाणणामं सरीरअंगोवंगणामं सरीरसंघडणणामं वण्णणामं गंधणामं रसणामं फासणामं आणुपुव्वीणामं अगुरुलहुवणामं उवघादणामं परघादणामं उस्सासणामं आदावणामं उज्जोवणामं विहायगदिणामं तसणामं थावरणामं बादरणामं सुहुमणामं पज्जत्तणामं अपज्जत्तणामं पत्तेयसरीरणामं साधारणसरीरणामं थिरणामं अथिरणामं सुहणामं असुहणामं सुभगणामं दूभगणामं सुस्सरणामं दुस्सरणामं आदेज्जणामं अणादेज्जणामं जसकित्तिणामं अजसकित्तिणामं णिमिणामं तित्थयरणामं चेदि।२८। =- गति,
- जाति,
- शरीर,
- शरीरबन्धन,
- शरीरसंघात,
- शरीरसंस्थान,
- शरीरअंगोपांग,
- शरीरसंहनन,
- वर्ण,
- गन्ध,
- रस,
- स्पर्श,
- आनुपूर्वी,
- अगुरुलघु,
- उपघात,
- परघात,
- उच्छ्वास,
- आतप,
- उद्योत,
- विहायोगति,
- त्रस,
- स्थावर,
- बादर,
- सूक्ष्म,
- पर्याप्त,
- अपर्याप्त,
- प्रत्येक शरीर,
- साधारण शरीर,
- स्थिर,
- अस्थिर,
- शुभ,
- अशुभ,
- सुभग,
- दुर्भग,
- सुस्वर,
- दु:स्वर,
- आदेय,
- अनादेय,
- यश:कीर्ति;
- अयश:कीर्ति;
- निर्माण और
- तीर्थंकर, ये नाम कर्म की ४२ पिंड प्रकृतिया हैं।२८। (ष.खं.१३/५,५/सू.१०१/३६३); (त.सू./८/११); (मू.आ./१२३०-१२३३) (पं.सं./प्रा./२/४); (म.बं.१/५/२८/३); (गो.क./जी.प्र./२६/१९/७)
- <a name="2.2" id="2.2">उत्तर भेदरूप ९३ प्रकृतिया
दे०वह वह नाम–(गति चार हैं–नरकादि। जाति पाच हैं–एकेन्द्रिय आदि। शरीर पाच हैं–औदारिकादि। बन्धन पाच हैं–औदारिकादि शरीर बन्धन। संघात पाच हैं–औदारिकादि शरीर संघात। संस्थान छह हैं–समचतुरस्र आदि। अंगोपांग तीन हैं–औदारिक आदि। संहनन छ: हैं–वज्रऋृषभनाराच आदि। वर्ण पाच हैं–शुक्ल आदि। गन्ध दो हैं–सुगन्ध, दुर्गन्ध। रस पाच हैं–तिक्त आदि। स्पर्श आठ हैं–कर्कश आदि। आनुपूर्वी चार हैं–नरकगत्यानुपूर्वी आदि। विहायोगति दो हैं–प्रशस्त अप्रशस्त।–इस प्रकार इन १४ प्रकृतियों के उत्तर भेद ६५ हैं। मूल १४ की बजाय उनके ६५ उत्तर भेद गिनने पर नामकर्म की कुल प्रकृतिया ९३ (४२+६५–१४=९३) हो जाती हैं।)
- नामकर्म की असंख्यात प्रकृतिया
ष.खं.१२/४,२,१४/सूत्र १६/४८३ णामस्स कम्मस्स असंखेज्जलोगमेत्तपयडीओ।१६। =नामकर्म की असंख्यात लोकमात्र प्रकृतिया हैं। (रा.वा./८/१३/३/५८१/५)
ष.खं.१३/२,५/सूत्र/पृष्ठ–णिरयगइयाओग्गाणुपुव्विणामाए पयडीओ अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तबाहल्लाणि तिरियपदराणि सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तेहिं ओगाहणवियप्पेहि गुणिदाओ। एवडियाओ पयडीओ। (११६/३७१)। तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्विणामाए पयडीओ लोओ सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तेहि ओगाहवियप्पेहिगुणिदाओ। एवडियाओ पयडीओ।(११८-३७६)। मणुसगंइपाओग्गाणुपुव्विणामाए पयडीओ पणदालीसजोयणसदसहस्सबाहल्लाणि तिरियपदराणि उड्ढकवाडछेदणणिप्फण्णाणि सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तेहि ओगाहणवियप्पेहि गुणिदाओ। एवडियाओ पयडीओ।(१२०/३७७)। देवगइपाओग्गाणुपुव्विणामाए पयडीयो णवजोयणसदबाहल्लाणि तिरियपदराणि सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तेहि ओगाहणवियप्पेहि गुणिदाओ। एवडियाओ पयडीओ।(१२२/३८३)। =नरकगत्यानुपूर्वी नामकर्म की प्रकृतिया अंगुल के असंख्यातवें भागमात्र तिर्यक्प्रतररूप बाहल्य को श्रेणि के असंख्यातवें भागमात्र अवगाहनाविकल्पों से गुणित करने पर जो लब्ध आवे उतनी हैं। उसकी इतनी मात्र प्रकृतिया हैं।११६। तिर्यग्गति प्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म की प्रकृतिया लोक को जगश्रेणी के असंख्यातवें भागमात्र अवगाहना विकल्पों से गुणित करने पर जो लब्ध आवे उतनी हैं। उसकी इतनी मात्र प्रकृतिया होती हैं।११८। मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म की प्रकृतिया ऊर्ध्वकपाटछेदन से निष्पन्न पैंतालीस लाख योजन बाहल्य वाले तिर्यक् प्रतरों के जगश्रेणी के असंख्यातवें भागमात्र अवगाहनाविकल्पों से गुणित करने पर जो लब्ध आवे उतनी हैं। उसकी उतनी मात्र प्रकृतिया होती हैं।१२०। देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म की प्रकृतिया नौ सौ योजन बाहल्यरूप तिर्यक्प्रतरों को जगश्रेणी के असंख्यातवें भागमात्र अवगाहनाविकल्पों से गुणित करने पर जो लब्ध आवे उतनी होती हैं। उसकी उतनी मात्र प्रकृतिया हैं।१२२।
ध.३/१,२,८७/३३०/२ पुढविकाइयणामकम्मोदयवंतो जीवा पुढविकाइया त्ति वुच्चंति। पुढविकाइयणामकम्मं ण कहिं वि वुत्तमिदि चे ण, तस्स एइंदियजादिणामकम्मंतव्भूदत्तादो। एवं सदि कम्माणं संखाणियमो सुत्तसिद्धो ण घडदि त्ति वुच्चदे। ण सुत्ते कम्माणि अट्ठेव अट्ठेदालसयमेवेत्ति संखतरपडिसेहविधाययएवकाराभावदो। पुणो कत्तियाणि कम्माणि होंति। हय-गय-विय-फुल्लंधुव-सलहमक्कुणुद्देहि-गोमिंदादीणि जेत्तियाणि कम्मफलाणि लोगे उवलब्भंते कम्माणि वि तत्तियाणि चेव। एवं सेसकाइयाणं वि वत्तव्वं। =पृथिवीकाय नामकर्म से युक्त जीवों को पृथिवीकायिक कहते हैं। प्रश्न–पृथिवीकाय नामकर्म कहीं भी (कर्म के भेदों में) नहीं कहा गया है? उत्तर–नहीं, क्योंकि, पृथिवीकाय नाम का कर्म एकेन्द्रिय नामक नामकर्म के भीतर अन्तर्भूत है। प्रश्न–यदि ऐसा है तो सूत्र प्रसिद्ध कर्मों की संख्या का नियम नहीं रह सकता है ? उत्तर–सूत्र में, कर्म आठ ही अथवा १४८ ही नहीं कहे गये हैं; क्योंकि आठ या १४८ संख्या को छोड़कर दूसरी संख्याओं का प्रतिषेध करने वाला एवकार पद सूत्र में नहीं पाया जाता। प्रश्न–तो फिर कर्म कितने हैं ? उत्तर–लोक में घोड़ा, हाथी, वृक (भेड़िया), भ्रमर, शलभ, मत्कुण, उद्देहिका (दीमक), गोमी और इन्द्र आदि रूप से जितने कर्मों के फल पाये जाते हैं, कर्म भी उतने ही हैं। (ध.७/२,१,१९/७०/७) इसी प्रकार शेष कायिक जीवों के विषय में भी कथन करना चाहिए।
ध.७/२,१०,३२/५०५/५ सुहुमकम्मोदएण जहा जीवाणं वणप्फदिकाइयादीणं सुहुमत्तं होदि तहा णिगोदणामकम्मोदएण णिगोदत्तं होदि। =सूक्ष्म नामकर्म के उदय से जिस प्रकार वनस्पतिकायिकादि जीवों के सूक्ष्मपना होता है उसी प्रकार निगोद नामकर्म के उदय से निगोदत्व होता है।
ध.१३/५,५,१०१/३६६/९ को पिंडो णाम। बहूणं पयडीणं संदोहो पिंडो। तसादि पयडीणं बहुत्तं णत्थि त्ति ताओ अपिंडपयडीओ त्ति ण घेत्तव्वं, तत्थ वि बहूणं पयडीणमुवलंभादो। कुदो तदुवलद्धी। जुत्तोदो। का जुत्तो। कारणबहुत्तेण विणा भमर-पयंग-मायंग-तुरंगा-दीणं बहुत्ताणुववत्तीदो।
ध.१३/५,५,१३३/३८७/११ ण च एदासिमुत्तरोत्तरपयडीओ णत्थि, पत्तेयसरीराणं धव-धम्मणादीणं साहारणसरीराणं मूलयथूहल्लयादीणं बहुविहसर-गमणादीणमुवलंभादो। =१. प्रश्न–पिंड (प्रकृति) का अर्थ क्या है ? उत्तर–बहुत प्रकृतियों का समुदाय पिण्ड कहा जाता है। प्रश्न–त्रस आदि प्रकृतिया तो बहुत नहीं हैं, इसलिए क्या वे अपिण्ड प्रकृतिया हैं ? उत्तर–ऐसा ग्रहण नहीं करना चाहिए; क्योंकि, वहा भी युक्ति से बहुत प्रकृतिया उपलब्ध होती हैं। और वह युक्ति यह है कि–क्योंकि, कारण के बहुत हुए बिना भ्रमर, पतंग, हाथी, और घोड़ा आदिक नाना भेद नहीं बन सकते हैं, इसलिए जाना जाता है, कि त्रसादि प्रकृतिया बहुत हैं।...। २. यह कहना भी ठीक नहीं है कि अगुरुलघु नामकर्म आदि की उत्तरोत्तर प्रकृतिया नहीं हैं, क्योंकि, धव और धम्ममन आदि प्रत्येक शरीर, मूली और थूहर आदि साधारणशरीर; तथा नाना प्रकार के स्वर और नाना प्रकार के गमन आदि उपलब्ध होते हैं।
और भी देखें - नीचे शीर्षक नं / ०५(भवनवासी आदि सर्व भेद नामकर्मकृत हैं।)
- <a name="2.4" id="2.4">तीर्थंकरत्ववत् गणधरत्व आदि प्रकृतियों का निर्देश क्यों नहीं
रा.वा./८/११/४१/५८०/३ यथा तीर्थकरत्वं नामकर्मोच्यते तथा गणधरत्वादीनामुपसंख्यानं कर्तव्यम्, गणधरचक्रधरवासुदेवबलदेवा अपि विशिष्टर्द्धियुक्ता इति चेत्; तन्न; किं कारणम् । अन्यनिमित्तत्वात् । गणधरत्वं श्रुतज्ञानावरणाक्षयोपशमप्रकर्षनिमित्तम्, चक्रधरत्वादीनि उच्चैर्गोत्रविशेषहेतुकानि। =प्रश्न–जिस प्रकार तीर्थंकरत्व नामकर्म कहते हो उसी प्रकार गणधरत्व आदि नामकर्मों का उल्लेख करना चाहिए था; क्योंकि गणधर, चक्रधर, वासुदेव, और बलदेव भी विशिष्ट ऋद्धि से युक्त होते हैं ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, वे दूसरे निमित्तों से उत्पन्न होते हैं। गणधरत्व में तो श्रुतज्ञानावरण का प्रकर्ष क्षयोपशम निमित्त है और चक्रधरत्व आदिकों में उच्चगोत्र विशेष हेतु है।
- देवगति में भवनवासी आदि सर्वभेद नाम कर्मकृत हैं
रा.वा./४/१०/३/२१६/६ सर्वे ते नामकर्मोदयापादितविशेषा वेदितव्या:। रा.वा./४/११/३/२१७/१८ नामकर्मोदयविशेषस्तद्विशेषसंज्ञा:। ...किन्नरनामकर्मोदयात्किन्नरा: किंपुरुषनामकर्मोदयात् किंपुरुषा इत्यादि:।
रा.वा./४/१२/५/२१८/१७ तेषां संज्ञाविशेषाणां पूर्ववन्निर्वृत्तिर्वेदितव्यादेवगतिनामकर्मविशेषोदयादिति। =वे सब (असुर नाग आदि भवनवासी देवों के भेद) नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुए भेद जानने चाहिए। नामकर्मोदय की विशेषता से ही वे (व्यन्तर देवों के किन्नर आदि) नाम होते हैं। जैसे–किन्नर नामकर्म के उदय से किन्नर और किंपुरुष नामकर्म के उदय से किंपुरुष, इत्यादि। उन ज्योतिषी देवों की भी पूर्ववत् ही निर्वृत्ति जाननी चाहिए। अर्थात् (सूर्य चन्द्र आदि भी) देवगति नामकर्म विशेष के उदय से होते हैं। - <a name="2.6" id="2.6">नामकर्म के अस्तित्व की सिद्धि
ध.६/१,९-१,१०/१३/४ तस्स णामकम्मस्स अत्थित्तं कुदोवगम्मदे। सरीरसंठाणवण्णादिकज्जभेदण्णहाणुववत्तीदो। =प्रश्न–उस नामकर्म का अस्तित्व कैसे जाना जाता है ? उत्तर–शरीर, संस्थान, वर्ण आदि कार्यों के भेद अन्यथा हो नहीं सकते हैं।
ध.७/२,१,१९/७०/९ ण च कारणेण विणा कज्जाणमुप्पत्ती अत्थि। दीसंति च पुढविआउ-तेउ-वाउ-वणप्फदितसकाइयादिसु अणेगाणि कज्जाणि। तदो कज्जमेत्ताणि चेव कम्माणि वि अत्थि त्ति णिच्छओ कायव्वो।=कारण के बिना तो कार्य की उत्पत्ति होती नहीं है। और पृथिवी, अप्, तेज, वायु, वनस्पति, और त्रसकायिक आदि जीवों में उनकी उक्त पर्यायोंरूप अनेक कार्य देखे जाते हैं। इसलिए जितने कार्य हैं उतने उनके कारणरूप कर्म भी हैं, ऐसा निश्चय कर लेना चाहिए। - <a name="2.7" id="2.7">अन्य सम्बन्धित विषय
- नामकर्म के उदाहरण।– देखें - प्रकृतिबंध / ३ ।
- नामकर्म प्रकृतियों में शुभ-अशुभ विभाग।– देखें - प्रकृतिबंध / २ ।
- शुभ-अशुभ नामकर्म के बन्धयोग्य परिणाम।–देखें - पुण्य पाप।
- नामकर्म की बन्ध उदय सत्त्व प्ररूपणाए।–दे०वह वह नाम।
- जीव विपाकी भी नामकर्म को अघाती कहने का कारण।– देखें - अनुभाग / ३ ।
- गतिनाम कर्म जन्म का कारण नहीं आयु है।– देखें - आयु / २ ।
- मूलभेद रूप ४२ प्रकृतिया